एक सवाल है सम्पूर्ण समाज से आखिर क्यों ? नारी मंदिर में नहीं जा सकती, मूर्तियों की पूजा नहीं कर सकती । आखिर क्यों वो कुछ धार्मिक स्थानों पर ...
एक सवाल है सम्पूर्ण समाज से आखिर क्यों ? नारी मंदिर में नहीं जा सकती, मूर्तियों की पूजा नहीं कर सकती । आखिर क्यों वो कुछ धार्मिक स्थानों पर जाने के लिये प्रतिबंधित है। बहुत ही मजेदार बात है तमाम संस्कारों रीति रिवाजों के निर्वहन और संवाहन का जिम्मा नारी पर और उसी नारी पर अनगिनत बंधन। अभी अभी ताजा बवाल मचा है 52 गजा प्रतिमा (जैन धर्म) के अभिषेक का।
मुझे समझ नहीं आता ईश्वर के जिन तमाम अवतारों की पूजा के लिये नारी को रोका जा रहा है उन सबने अन्ततः नारी की कोख में ही तो आकार पाया है। फिर यह बंधन क्यों ?
क्या सिर्फ उन चार दिनों के लिये। जबकि इन चार दिनों में वो स्वयं ही रसोई घर में नहीं जाती है। सात दिन तक घर के मंदिर की पूजा नहीं करती है। याद करिये इन चार दिनों के लिये ‘‘माँ‘‘ कामाख्या देवी को मंदिर के पट बंद रहते है। फिर प्रसाद के लिये लम्बी कतार ....................
दरअसल में चार दिन समस्या नहीं है यह नारी होने का पहला और गहरा अहसास है। यह उसके बदलते शरीर और मन का आभास है। ये चार दिन ही मातृत्व की शक्ति का अभिनंदन है। यह नारी के अस्तित्व को स्वीकारने का समय है।
महावारी का खून एक नये जीवन को सांस और सुरक्षा देने की ताकत रखने वाला खून है ये खून नारी की प्रजनन शक्ति का प्रतीक है।
प्रजनन देवी की पूजा मानव इतिहास की सबसे पहली पूजा रही है। हमारी प्रजनन शक्ति को आदिकाल से पूजते रहे है। आज भी अनेक प्रांतों में पहली माहवारी पर आनन्द और उल्लास मनाया जाता है। लड़की की पूजा की जाती है। उसके माँ बनने की क्षमता की शुरूआत पर उसे फूलो से सजाया जाता है। उत्सव मनाया जाता है। यह प्रजनन चक्र घर में कभी भी बंद न हो इस लिये प्रतीक के रूप में किसी खून से बनी बच्चे की ऑवल नाल को लोग अभी भी घर के अन्दर गड्ढा खोदकर गाड़ते हैं और उस पर दिया जलाते हैं।
प्रकृति की लय ताल से जुडी माहवारी का अपना एक चक्र है जैसे चन्द्रमा एक नियमितता से घटता बढता है और हर माह अपना चक्र पूरा करता है वैसे ही हर एक महिला का अपना नियम अपना चक्र होता है।
नारी का सबला से अबला हो जाना समाज का सबल से निर्बल होना है यह समाज में नारी की सामाजिक स्थिति को दर्शाती है। आज वर्तमान सन्दभों में यदि हम बात करे तो यह निर्विवाद सत्य है कि नारी ने अपनी नारी सुलभ प्रकृति और प्रवृत्ति से परे जाकर राजसिंहासन से लेकर युद्ध के मैदान तक और घर की देहरी से लेकर आसमान की ऊॅचाईयों तक अपने आपको स्थापित किया है।
यह सच है कि दुनिया की आधी आबादी अभी भी शोषित है, पीड़ित है। शारीरिक हिंसा का शिकार वह कभी तेजाब से जला दी जाती है तो कभी गला घोटकर उसकी सांसे बंद कर दी जाती है। जो कभी जिंदा है चिता की आग के हवाले कर दी जाती है। इतना ही नहीं कभी वह कोख से ही बाहर नहीं आ पाती।
कैसी विडम्बना है जिस कोख से पुरूष ने जन्म लिया उसी कोख पर अत्याचार करते उसे संकोच नहीं होता वह क्यों भूल जाता है कि जिस दिन नारी की कोख नहीं होगी, उसी दिन उसका अस्तितव कहॉ होगा।
बड़ा विचित्र सा लगता है नवरात्रि में कन्या पूजन, कन्या भोजन शक्ति उपासना का एक पर्याय है। घर, चौक, चौराहे देवी उपासना के केन्द्र बन जाते है। पूरा देश देवी की भक्ति में लीन हो जाता है, पर घर की देहरी के अन्दर की शक्ति रूपेण नारी के प्रति उसका दृष्टिकोण एकदम अलग होता है।
जबकि इतिहास गवाह है कि आसुरी शक्तियों का विनाश शक्ति रूपेण माता पार्वती के अनेक रूपों ने ही किया है। राजा विक्रमादित्य के सिंहासन की बत्तीस पुतलियॉ ही उस सिंहासन की ताकत थी। राजा भोज को धर्म-कर्म, दान-ज्ञान, परोपकार, सहिष्णुता, शूरवीरता, पराक्रम आदि गुणों का ज्ञान बत्तीस पुतलियां ही कराती है। यह भी सत्य है कि जैसी ही पुतलियॉ सिंहासन छोड़ती है, सिंहासन का दुर्दशा काल प्रारम्भ हो जाता है। सिंहासन की ताकत शक्ति रूपेण नारी ही थी जो बत्तीस प्रतीकात्मक पुतलियों के रूप में सिंहासन में विधमान थी।
प्रस्तुत संदर्भो का यह मतलब कदापि नहीं कि नारी ही सबकुछ है, पर यह अटल सत्य है कि नारी के बिना कुछ भी नहीं है। वह यदि जननी है सभ्यता और संस्कृति की तो उसकी ही कोख से सृष्टि आकार पाती है। नारी में वह सामर्थ्य है कि वह व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र में व्याप्त हीनता बोध को दूर कर सके। वह गृह प्रबंधक है, वह पालक है, वह रचयिता है। वह धाय मॉं बनकर यदि इतिहास के पन्नो में अमर है तो दुर्गावती, अवन्ति बाई, रानी लक्ष्मीबाई बनकर भारत के ताज में मणि की तरह सुशोभित है। ताराबाई का स्वतंत्रता संग्राम और जीजाबाई का संघर्ष आज भी प्रतिनिधि उदाहरण के रूप मे प्रस्तुत है। महिला संतो और समाज सुधारकों की एक समृद्ध परम्परा भारतीय वसुन्धरा को अलंकृत करती रही है।
सनातन चिन्तन धारा में मातृशक्ति महाशक्ति है। वह सरस्वती है, लक्ष्मी है, दुर्गा है। वह सरस्वती के रूप में ज्ञान के चरम उत्कर्ष का नेतृत्व है, लक्ष्मी के रूप में परम वैभव का संरक्षण है और दुर्गा के रूप में भीषण दैत्यों का संहार करने में सक्षम है मातृशक्ति की सबसे महत्वपूर्ण और सार्थक भूमिका यह है कि वह पीढियॉ गढ़ती है और भरसक प्रयत्न करती है कि यह पीढ़ियॉ सफलता पूर्वक जीवन की सीढ़ियॉ चढे़।
चलते-चलते ़ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 125वें सूक्त की ऋचा वागाम्भृणी की यह आत्मस्तुति उल्लेखनीय है -
मया सो अन्नमति यो विपश्यती यः प्राणिनी य ई श्रृणोत्युक्तम।
अमन्तवो मां त उपक्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिचं ते वदामि।। 10210।। (ऋग्वेद)
अर्थात प्राणियों में जो जीवन शक्ति है, दर्शन क्षमता है, ज्ञान, श्रवण सामर्थ्य है, अन्य भोग करने की सामर्थ्य है, वह सभी मुझ वाग्देवी के सहयोग से ही प्राप्त होती है जो मेरी सामर्थ्य को नहीं जानते वे विनष्ट हो जाते हैं। हे बुद्धिमान मित्रो आप ध्यान दे, जो भी मेरे द्वारा कहा जा रहा है, वह श्रद्धा का विषय है।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार दक्ष ने जगदम्बा की स्तुति की ओर जगदम्बा ने प्रसन्न होकर दक्ष के गृह में पुत्री के रूप में उत्पन्न होने का वचन दिया पर एक शर्त रख दी कि जैसे ही उनके सम्मान में कमी आयेगी वो आत्म दाह कर देगी। हुआ भी यही जब दक्ष ने उन्हें और शिव को यज्ञ में सम्मान नहीं दिया तो उन्होंने आत्म दाह कर दिया। पर इस घटना के बाद धरती पर तमाम आसुरी शक्तियों का विनाश करने के लिए कभी महिषासुर मर्दिनी बनी तो कभी काली तो, कभी वैष्णवी, माहेश्वरी, विनायकी, वारही आदि रूपों में वह अवतरित हुई और फिर उसके तमाम रूप संगठित होकर शुंभ-निशुंभ जैसे आसुरों का विनाश करते है। यह पौराणिक आख्यान सती से सशक्तिकरण की यात्रा का सबसे उल्लेखनीय तथ्य है।
उपाध्यायान्दशाचार्य आपार्याणं शतं पिता।
सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणानिरिच्यते।।
(मनुस्मृति, 2.145) (2)
नारी सदैव से ही पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्थाओं का आधार रही है। सांस्कृतिक विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। ‘‘महिलाओं के सन्दर्भ में यदि हम सोलह संस्कारों को देखें तो उसके केन्द्र में नारी ही है। कोई भी संस्कार नारी के बिना पूर्ण नहीं होता है।’’ नारी की मूल प्रवृत्ति आध्यात्मिक होती है। उसमें आत्मिक शक्तियों की बहुलता के कारण वह दिव्य शक्ति की अधिक अधिकारिणी बनी है। शास्त्रों में कहा गया है ‘‘10 उपाध्यायों से एक आचार्य श्रेष्ठ, 100 आचार्यो से एक पिता श्रेष्ठ, 1000 पिताओं से एक माता श्रेष्ठ है।’’
जनको जन्मदातृत्वात पालनाच्च पिता स्तृतः।
गरीयान् जन्मदातृश्च योडन्तदाता पितामुने।।
तयो शतगुणे माता पूज्या मान्या च वन्दिता।
गर्भ धारण पोषाभ्यां सा च ताम्यां गरीयसी।।
(ब्रहम्वैवर्त पुराण, गणेश खण्ड अध्याय- 40)
नारी का प्रत्येक रूप पूजनीय है जब वह बेटी है तो मांगलिक है देवी माहत्म्य के अनुसार देवी के नौ रूपों मे गौरी एक है जिसमें दस वर्ष आयु वाली बालिका को गौरी कहा गया है। गौरी की उत्पत्ति तथा उनके विविध स्वरूपों के वर्णन दीपार्णव, देवता मूर्ति प्रकरण, अपराजित पृच्छा, रूपमण्डन, अग्निपुराण, मानसार तथा विष्णु धर्मोत्तर पुराणों में प्राप्त होता है।
जब वह पत्नी बनती है तो धर्म पत्नी कहलाती है और जब वह माँ बनती है तो पूजनीय बन जाती है। वह सद्योवधू के रूप में श्रेष्ठ संस्कारवान गृहिणी है, गृहस्थ होकर भी साध्वी है क्योंकि अपने संस्कारों, सद्गुणों से वह बच्चों को संस्कारवान बनाकर राष्ट्र के लिये संस्कारों से समृद्ध समाज को पोषित करती है मातृत्व निभाने में उसका पूरा जीवन लग जाता है।
यह सच है कि धर्म की स्थापना आचार्यों ने की पर उसे संभाले रखने का कार्य उसे विस्तारित करने का कार्य नारी ने ही किया है।
महर्षि गर्ग कहते हैं कि-
यद् गृहे रमे नारी लक्ष्मीस्तद् गृहवासिनी।
देवताः कोटिशो वत्स! न त्यजन्ति गृहं हितत्।।
जिस घर में सद्गुण सम्पन्न नारी सुख पूर्वक निवास करती है, उस घर को करोड़ों देवता भी नहीं छोड़ते।
विश्व में एक मात्र देश भारत है जहाँ अर्द्धनारीश्वर का आदर्श रहा है आज भी एक आदर्श नारी में तीनों देवियां एक रूप मे दिखाई देती है। ज्ञान देते समय वह सरस्वती के रूप में सामने आती है तो कुशलता पूर्वक गृह प्रबन्धन करते समय वह लक्ष्मी के रूप में प्रगट होती है और दुष्टों के अन्याय का प्रतिकार करते समय उसका दुर्गा रूप अभिव्यक्त होता है।
सच है नारी शक्ति है, निर्मात्री है, सृजनकर्त्ता है। वह सन्तान के जन्म के साथ ही परिवार का निर्माण करती है और समाज की संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। नारी संस्कार व संस्कृति की संवाहिका है वह संस्कृति को जीवन प्रदान करती है। वह ब्रम्हवादिनी है क्योंकि वह पीढ़ी की पीढ़ी को संस्कारवान बनाती है, शिक्षित करती है। नैतिक मूल्यों का पाठ पढ़ाती है, रिश्तों की मर्यादा सिखाती है, जीवन में अनुशासन के साथ आगे बढ़ने की शिक्षा देती है। समय प्रबन्धन, गृह प्रबन्धन का पाठ उससे बेहतर कोई समझ नहीं सकता।
नारी शब्द ही अपने आप में इतनी उर्जा से समृद्ध है कि उसका उच्चारण ही सम्पूर्ण परिवेश को अलंकृत कर देता है। इसका पूर्ण स्वरूप मातृत्व में विकसित होता है। नारी मानव की नहीं अपितु मानवता की जन्मदात्री है, क्योंकि मानवता के आधार रूप में प्रतिष्ठित सम्पूर्ण गुणों की वह जननी है।
अंतरिक्ष हो या प्रशासनिक सेवा, शिक्षा हो या राजनीति, खेल हो या मीडिया सहित समस्त विविध आयामों में अपनी गुणवत्ता सिद्ध कर कुशलता से प्रत्येक जिम्मेदारी का पद वह संभाल रही है। आज आवश्यकता यह समझने की है कि विकास का केन्द्र नारी है। नारी के बिना सुरक्षित, सुव्यवस्थित समाज की रचना नहीं हो सकती अतः मानव और मानवता दोनों को बनाए रखने के लिए नारी के गौरव को समझना होगा।
स्मृति ग्रन्थों में कहा गया है कि नारी के प्रति असम्मान गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है। तुलसीदास जी रामचरित मानस में लिखते हैं-
अनुज वधू, भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहिं कुहपिट विलौकई जोई।
ताहि बधे कछु पाप न होई।।
अर्थात- छोटे भाई की पत्नी, बहिन, पुत्र की पत्नी कन्या के समान होती है। इन्हें कुदृष्टि से देखने वाले का वध कर देना कतई पाप नहीं है।
आज जितनी दूर तक और जितनी पास तक हमारी दृष्टि जाती है 4 माह की नन्हीं बच्ची से लेकर 70 वर्ष तक की बुजुर्ग महिला अपने समाज से शारीरिक मानसिक हिंसा का शिकार हो रही है। समाज चाहे नारी को कमतर आंके पर पितृसत्तात्मक समाज के अस्तित्व का आधार मातृ सत्ता ही है। माँ की कोख नहीं होगी तो पितृ सत्तात्मक समाज का सृजन कैसे होगा।
भारतीय नारी देवी के रूप में इसलिए पूजी जाती है कि वह परिवार और समाज की केन्द्र बिंदु है। वह अपनी बेटी, पत्नी और माँ की भूमिका में निश्चित रूप से अपने अस्तित्व से एक कदम आगे ही है।
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डॉ0 हंसा व्यास
प्राध्यापक, इतिहास
शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर
महाविद्यालय होशंगाबाद
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