व्यंग्य संग्रह - गड़े मुर्दों की तलाश

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© Sushil Yadav 2019

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First Published in December 2019

ISBN: 978-93-89763-18-8

Price: INR 170/-

BLUE ROSE PUBLISHERS

www.bluerosepublishers.com

info@bluerosepublishers.com


Cover Design:

Shri Pramod Yadav

Gaya Nagar Durg (C.G.)

Email: pramodyadav1952@gmail.com


Typographic Design:

Sonia Suyal

Distributed by: Blue Rose, Amazon, Flipkart, Shopclues


गड़े मुर्दों की तलाश


अनुक्रमणिका

मेरी बात ..... 1

आसमान से गिरे..... 3

भरोसे का आदमी... 8

नास्त्रेदम और मैं.. 13

आ बैल.. 18

आवारा कुत्तों का रोड शो ..... 23

कसक होइबे करी ... 26

टोपी आम आदमी की.... 31

तेरे डागी को मुझपे भौकने का नइ...... 36

नन आफ द एबव्ह... 38

नाच न जाने ...... 44

रोड शो ,हाईकमान और मै.. 48

कद नापने के तरीके.. 53

प्रभु मेरे अवगुन.. 56

गड़े मुर्दों की तलाश.. 60

नन्द लाल छेड़ गयो रे. 65

जड खोदने की कला... 70

सस्पेंडेड थानेदार का इंटरव्यू.... 74

‘राम रसायन’ हमरे पासा ..... 79

सफाई का भूत.. 83

एक शिष्टाचार सप्ताह .... 88

शिष्टाचार के बहाने ..... 94

पत्नी की मिडिल क्लास , ’मंगल-परीक्षा’ 100

मन चंगा तो... 106

मैं बपुरा बुडन डरा..... 110

भैंस और लाठी की कथा... 115

अधर्मी लोगों का धर्म-संकट.. 120

ये तेरी सरकार है पगले...........................................127

पीर पराई जान रे....................................................132

काजल की कोठरी...................................................136

विलक्षण प्रतिभा के 'लोकल' धनी...............................140

मंगल ग्रह में पानी..................................................146


मेरी बात .....

यूँ तो इस किताब में 'आरंभ से अंत तक' मेरी बातें निहित हैं,, जिन्हें जगह-जगह से यादों को कुरेद कर व्यक्त किया है। सही कहूँ तो अनुभव के असहज पलों को सामान्य बनाने की चेष्टा में ये खुद ब खुद लिख गई है।

ये मानते हुए कि, ‘व्यंग’ लेखन ,लेखनी की 'सशक्त तेज धार वाली विधा होती है, दिल की भड़ास को जाहिर करने की इसमें भरपूर ताकत है। “इसे बेसिर –पैर की बातों के बीच, काम की बातों को निशाने तक पहचाना बखूबी आता है”।बस इसी सूत्र का दोहन करते हुए आप मुझे मेरे व्यंग के नजदीक पायेंगे।

इन व्यंगों में आस-पास बिखरे माहौल से मिले तजुर्बों को, शब्द, अक्षर ,वाक्य और अपनी मौलिक शैली की प्राण गति देने का मैंने प्रयास किया है।

किसी को व्यक्तिगत आक्षेप करने की मेरी  कोई मंशा न होते हुए भी कोई बात अनजाने में कहीं लग जाए, तो इसे व्यंग की नोक समझिये ,भीतर धसने-चुभने से पहले बस निकाल फेंकिये . ?

इस किताब को, भूमिका विहीन रखने की मेरी निजी वजह है।

मैं नहीं चाहता कि कोई बिना वजह मेरी पीठ ‘ठोके’।

- ‘प्रायोजित समीक्षक’ को इस ‘पीठ-ठोकने’ के धर्मसंकट से मुक्त रखने का प्रयास किया है। प्राय: इस लीक को, सामने रख कर लिखे आलेख को, लगभग हर किताब के आमुख पृष्ठों पर देखता हूँ,वहां मुझे लेखक-समीक्षक गठ्बन्धन का अहसास होता है। दावे अनेक होते हैं कि लिखने वाले ने क्या कमाल किया है। क्या पुल बनाया है। क्या तड़का लगाया है ....आदि ....?

- मेरी रचनाओं को बिना पूर्वाग्रह के पढ़ें। कहीं भूले भटके “प्रायोजित समीक्षक” सा कुछ पा जाते हैं तो अपनी लेखनी को धन्य समझूँगा। तब थपथपाने के लिए,सक्षम हाथों को पीठ भी हाजिर करुंगा ...?

- इस पुस्तक को आकार देने में स्तुति योग्य जो लोग हैं उनमें मेरे अग्रज श्री अरुण यादव , चर्चा –शरीक श्री प्रमोद यादव,कव्हर डिजाइनर पुन: प्रमोद यादव, वेब मैगजीन ‘रचनाकार’ के श्री रवि रतलामी, गद्य कोष के श्री ललित कुमार , साहित्य कुञ्ज के श्री सुमन घई जिन्होंने कनाडा से मेरी ई-बुक "'शिष्टाचार के बहाने ", अपनी सौजन्यता से प्रकाशित की, यह E-Book पुस्तक बाजार डाट काम पर उपलब्ध है।

- मेरी स्वर्गीय माता श्रीमती केजा देवी व परम आदरणीय स्मृति शेष पिता कवि श्री शिशुपाल सिंह यादव ‘मुकुंद’ को ‘केजा-शिशु’  की  कृति सादर समर्पित है।

केजा-शिशु ,

सुशील यादव

जोन१ स्ट्रीट ३ न्यू आदर्श नगर

दुर्ग (छतीसगढ़ )

17 सितंबर 19


आसमान से गिरे.....

आसमान से गिरते हुए मैंने बहुतों को देखा है ,मगर किसी मुहावरे माफिक खजूर में लटका किसी को नहीं पाया ....। एक तो अपने इलाके में दूर-दूर तक खजूर के पेड़ नहीं , दूजा आसमान को छूने वाले ‘आर्म-स्ट्रांग’ नहीं।

किसी काम को वाजिब अंजाम देने के लिए आर्म का स्ट्रांग होना बहुत जरूरी साधन होता है,ऐसा हमारे गुरूजी ने दूसरी तीसरी क्लास में बता दिया था। जोश के लिए अखाड़ा पहलवानी की शर्तें भी रख दी थी। हम पहलवानी की तरफ तो गए नहीं ,केवल उनके सुझाये बादाम ने आकर्षित किया ,सो खाते रहे। फायदा ये हुआ की आर्म की बजाय हमारी खोपड़ी स्ट्रांग होते गई।

खजूर में लटके हुओं का इंटरव्यू लेने की दबी इच्छा आज भी है। ज़ूम-कैमरे और लेटेस्ट तकनीक के मोबाइल माइक को ले के हम हमेशा तैयार रहते हैं। सुदूर जंगल से भी खबर ये आ जाए कि कोई लटका हुआ है तो हम पहुंचने की शत प्रतिशत गेरंटी देने में अव्वल हैं।

एक दिन जोरों से हांफता नत्थू आया ,सर जी जल्दी चलो ,आपकी इच्छा पूरी होगी। आप खजूर पर लटके हुए का इंटरव्यू लेना चाहते थे न .... ?

मुझे अचंभित देख कहने लगा .... वो अपने गाव का है न मुच्छड़ किसान पलटू उसे गाव से बाहर 'छीन-खजूर' पेड़ तरफ रस्सी लेके जाते देखा है।

वहां -कहाँ मरने जा रहा है ..... ? चलो देखते हैं ....ताड़ी -वाडी का चक्कर होगा ...।

स्पॉट में जाने पर मामला भी बिलकुल वैसा ही पाया ....। पलटू ताड़ी उतार के खुद उत्तर रहा था ...।

हमारे दोनों कंडीशन को फुल-फिल नहीं करता था न तो वो अंतरिक्ष गिरा मानव था ना आ के खजूर पे लटका था। फिर भी टाइम पास की गरज से उसी से कल्पित इंटरव्यू का रिहल्सल कर लिया।

पलटू को पास बुलाया। वो ताड़ी छोड़ भागने की फिराक में था ,नत्थू ने पकड़ लिया। पुचकारते हुए कहा घबराओ नहीं, हम ताड़ी अपराध रोकने वाले महकमे के नहीं हैं। साहब जो पूछे बता दो बस ...।पलटू सहमी नजर से देखने लगा।मैंने सवाल किया ,

पलटू, बताओ तुम्हे कोई आसमा से नीचे फेक दे, तुम जमीन पर आने की बजाय खजूर पे लटक जाओ तो क्या करोगे ....?

पलटू को प्रश्न सुनते ही ताड़ी -बोध ने फिर घेर लिया। ‘क्या मुसीबत में फंसे’.... स्टाइल में, नत्थू तारणहार पर सवालिया निगाह फेर के कहा ,आप कह रहे थे कुछ नहीं होगा ,मगर साहेब हमें फेक रहे हैं ? पलटू -नत्थू संवाद बाद वह पूरी तरह आश्वस्त होकर इंटरव्यू को राजी हो गया।

पलटू उवाच ....

साहेब जी , आप को उल-जलुल की बहुत सूझती है ,नेता चार दिन कुर्सी से चिपक क्या जाता है उसे चारों तरफ हरा -हरा नजर आता है। गधे की हालात हो जाती है ... अरे बाप रे ... अभी तो कुछ नहीं चरा .... बहुत ज्यादा चरना बाकी है ....? उसका दम फूलने लगता है,...

साहेब हम लोग किसान हैं ,आपके सवाल के मरम तक पहुंच गए हैं ......। किसान के सामने आसमान से गिरने जैसी नौबत तब आती है जब हम गाँठ के आखिरी बीज तक को खेत में बगरा के ऊपर आसमान को तकते हैं ,बरखा –मेघ दे पानी दे ...... बरखा रानी बरस भी जाओ। वे ठेंगा दिखा देती हैं।

हम साहूकार -बिचुलिये के पास बीज कर्जा लेने जाते हैं। वे हमें खजूर में लटके हुए माफिक ट्रीट करते हैं , देखो किसनवा ! ,तुम ऊँचे में फंसे हो ,तुम्हें उतारने की लंबी सीढ़ी चाहिए। इतनी लंबी सीढ़ी तो आर्डर पर जुगाड़ से बनती है। सबसे पहले इस एग्रीमेंट पर अंगूठा लगाओ।

हम अंगूठा लगाते -लगाते पूछ बैठते हैं। कोनो जतन करो.... हमें धकियाने ले अब की बार बचा लो साहू जी।

-हाँ ,हाँ, हम लोग हैं इसी मर्ज की दवा। तुम्हें अच्छे से नीचे उतारने का इंतिजाम किये देते हैं। साहूकार कागज़ समेट कर तिजौरी के हवाले करते हुए,नोट पकड़ा देता है।

उसकी बनाई सहूलियत की सीढ़ी से हम उत्तर तो आते हैं, मगर लोचा फसल कटाई बाद शुरू होता है ......। अंगूठा लगा कागज़ दिखा वे खड़ी सीढ़ी को औंधा बिछा के कहते हैं या तो इसमें लेट या अगले साल की फसल बुवाई-कटाई के लिए हमसे कर्जा ले ....। ब्याज का हिसाब अभी किया ही नहीं है।

-इन सब झमेलों से निपटने के लिए पलटू जी आप जैसी बिरादरी की क्या योजना है ...?

--किसान की योजना सिर्फ खेत खलिहान तक पहले की भांति होती तो ठीक .थी साहेब ....

अब कॉम्पीटीशन के जमाने में , बेटे- नातियों को स्टेंडर्ड की शिक्षा देनी है ,वे उधर गये तो इनके रहने-बसने पर खर्च होना है। जरूरत के खर्चों में आजकल नेट, टी वी, मोबाइल जुड़ गया है इनका इंतिजाम न हो तो उनको पढाई में खलल महसूस होता है। हमारे जमाने में एक टाकीज पर फ़िल्म रिलीज होती थी तो महीनों नहीं उतरती थी। अब चार दिन चली पिक्चर सौ करोड़ कमा लेती है, ऐसा गाव वाले बताते हैं। आप जान सकते हैं ,किसानों की कमाई का, कितना अहम भाग उनके लाडले, इधर इन्वेस्ट कर रहे हैं।

सरकार ने तरक्की के नाम पर गाव को सड़क बना-बना के जोड़ दिया......देहातों में कोने-कोने तक बाइक लोन दिलवा-दिलवा के हर घर में मोटर सायकल भिजवा दी ,टी वी फ्रीज , कूलर लगवा दिए। नतीजा क्या रहा..... ? सब कमाऊ पूत शहरोन्मुखी निक्कमे हो गये।

गाँव कोई महीनों-सालों झांकता नहीं। बेरोजगारों को कम पैसों में राशन ,पीने को सर्व सुलभ शराब है। सरकारी ऐलान मार्फत ये सब चीजें स्कूल-कालेज, मंदिर- देवालय के नजदीक उपलब्ध हैं ....? क्या ख़ाक खेतों में मजदूर जुटेंगे ...?

आप देख रहे हो ये रस्सी, हर रोज ये इच्छा होती है इसे गले ने डाल के झूल जाऊं ...? हम जैसों का आसमान से गिरना और आप जैसों का खजूर में लटके लाशों पर राजनीति करना बहुत आसान है।

भले ,आपने पूछने की जरुर हिमाकत न की हो, आसमान से गिरने वाले खजूर पर कैसे लटक जाते हैं ... मेरी बात को दुनिया तक पहुंचाइए सब समझदार हैं खुद जान जाएंगे ....।

माहौल में ,एक गहरी निश्तब्धता छा गई..... मुझे लगा एक बढ़िया इंटरव्यू वाला काम निपट गया .... मगर ये क्या ....? पलटू का संवाद तो केप्चर हुआ ही नहीं ....।

पलटू के संवाद को केप्चर नहीं कर पाने का मुझे ताजिंदगी अफसोस रहेगा ,मोबाइल का स्विच गलती से आफ रह गया था।

ऐसी चूक या गलतियां कभी-कभी सरकार से भी हो जाती है वे कहीं, ग़रीबों की योजनाओं को शुरू करने वाले बटन को दबाना सालों भूले रहती है ।

भरोसे का आदमी

भरोसे का आदमी ढूढते मुझे साढ़े सन्तावन साल गुजर गए। कोई मिलता नहीं। मार्निग वाक् वालो से मैंने चर्चा की वे कहने लगे यादव जी.... 'लगे रहो'....।उनके 'लगे-रहो' में मुझे ‘मुन्ना-भाई’ का स्वाद आने लगा। मैंने सोचा गनपत हमेशा कटाक्ष में बोलता है। उसकी बातों की तह में किसी पहेली की तरह घुसना पड़ता है।

हममें से कई मारनिग-वाकिये,उनकी कटाक्ष पहेली सुलझाने में या तो अगले दिन की वाक् की प्रतीक्षा करते हैं, या ज्यादा बेसब्रे हुए तो लोग, उनके घर शाम की चाय पी आते हैं। गनपत को इनकी 'अगुवाई -चार्ज' शायद महंगा न लगे, मगर भाभी जी, बिन-बुलाये को झेलते वक्त जरूर ताने देती होंगी। किचन ,ड्राइंग से लगा हुआ होने से गृहणियों को अनेक फायदा होने की, बात में दमदार असर है। एक तरीके से वे बैंक-लोन ,इंश्योरेंस और पास-पड़ौसियों की, गतिविधियों की श्रोता बन कर, अपनी किटी-पार्टी को ज्ञान की लेटेस्ट-किश्त जमा करती हैं।

अगली सुबह गणपत 'बातो का एसिड टेस्ट-किट' लिए मिला।

यादव जी ,आपने बताया नहीं, किस फील्ड में भरोसा चाहिए ....? यानी आदमी ...?

वो स्वस्फूर्त केटेगरी-वाचन में लग गए।

देखिये अभी इलेक्शन, नजदीक है नहीं…, लिहाजा मान के चलें , इस मकसद से दरकार नहीं होगी।

वैसे हमारे पास दमदार ख़ास इसी काम के बन्दे हैं। जबरदस्त भरोसेदार…..।

आपने फार्म भरा नहीं कि ये शुरू हो जाते हैं।

निर्वाचन सूची का पन्ना-प्रमुख बनकर ,हर पन्ने के आठ-दस लोगों की कुटाई ,उठाई और धमकाई वो जबरदस्त कर देते हैं कि, उस पन्ने का, पूरा मोहल्ला-मेंबर, एक तरफा आपको छाप आता है।

ये जीत की गेरंटी वाले लोग हैं। हमेशा डिमांड में रहते हैं।

आपको अगर अगला मेयर लड़ना हो तो बात करूँ ...?

मैंने झिझकते हुए कहा ....नहीं इस किस्म की जरूरत आन पड़ी तो जरूर कहेंगे।

वे हुम, करके अगले टेस्ट की ओर बढे , आपको छोटे -मोटे काम जैसे माली - चौकीदार वगैरा चाहिए तो मैं बलदाऊ, अरे वर्मा जी को बोल दूंगा।वे भी इन्तिजाम -मास्टर हैं। भेज देंगे। वे और खुलासा ,भरोसा-भेद प्रवचन में लगे थे जो शेष घुमन्तुओं के मर्म में उतर रहा था।

मुझे मन ही मन अपने हाथ, गलत जगह डाल दिए होने का शक हुआ।

मैंने वाक् में हाथ को झटके दिए।

कहा गणपत भाई , भरोसे का आदमी, जैसा आपने इलेक्शन पन्ना-प्रमुख टाइप बयान किया,हमारे लिए मिसफिट है। जिनकी बुनियाद ही धमकी-चमकी वाली हो, वे हमारे काम के नहीं हो सकते।

उन्हें , जैसे हमने खरीदे या इंगेज किये हैं , वैसे ही कहीं ऊँची बोली या पैसो पर पलट भी तो सकते हैं ....?

वे मेरी तार्किक-समझदारी की बात को गौर करने के बाद कहने लगे, आप सही फरमा रहे हैं।

हमें किसी ऐंगल से समझौता करना तो पडेगा ...?

अगर सभी, इसी सोच के हों तो आज पचासों साल से ये इलेक्शनबाज, जिताते -हराते आ रहे हैं। ये एकाएक लुप्त हो जाने बाले जीव हैं नहीं । वे आगे, 'डाइनासोर के लुप्त होने की डार्विन थ्योरी' पे उतरते, इससे पहले मेरा घर आ गया ,मैंने गेट खोल के अंदर जूता निकालते हुए अर्धांगनी से कहा ,ये गणपत जी, अगले घण्टे दो घण्टे में आएं तो कह देना मैं पूजा में बैठा हूँ। वे मेरी पूजा में लगने वाले समय को जानते हैं।

ख़ास बात ये कि अनवांटेड के आशंकित-आगमन पर मेरी पूजा, मैराथन स्तर पर होने लगती है। प्रभु, रिजल्ट भी तुरन्त देते हैं ,वे जो बला माफिक होते हैं , टल जाते हैं।

अगले दिन गणपत अपने कुत्ते का पट्टा, मय-कुत्ते के पकड़े आये।

मैंने कहा आज इसे भी घुमाने ले आये....? वे बोले इसे घुमाने के लिए मेरे पास दूसरे भरोसे के ईमानदार आदमी हैं।

आज मैंने इसे, आपको बताने के लिए लाया हूँ कि इससे ज्यादा भरोसेमन्द कोई हो नहीं सकता। ये घर की निस्वार्थ रखवाली करता है ,क्या मजाल इनकी मर्जी के खिलाफ कोई बाउंड्री- वाल तक पहुच सके। हमने इसको भरोसे के लायक बनाने में अपनी इनर्जी भी खूब लगाई है। आप कोई चीज दूर फेंक देखो .... जैसे ये जूता ... ? उतारिये ,कमाल देखिये , 'सीज़न' का ..... आप पांच कदम चल भी नहीं पाएंगे, ये आपके कदमो में ला के रख देगा ...।

मेरे संकोच की पाराकाष्ठा मुहाने पर थी। मुझे ,पिछले हप्ते खरीदे, अपने जूते की गति बनती सामने नजर आ रही थी।

मैंने कहा गणपत जी, आप अपनी फेक लीजिये।

वे बोले, जादूगर अगर अपनी ट्रिक, अपने सामान से करे तो लोग प्रभावित नहीं होते ... कोई वाह-वाही नहीं देता

कौन आपका जूता गुमा जा रहा है ... ?

दीगर साथ के घुम्मकड़ों ने गणपत की बात का पुरजोर समर्थन किया।

सीजन , जो गणपत की बात,और अगले कदम की जैसे जानकारी रखता हो ,मेरे जूतों की तरफ घूर के देखने लगा।

वे आनन-फानन मेरे जूते को पूरे जोर लगा के, उछाल मारे।

गणपत के जोश में पिछली गई रातों के फुटबॉल-क्रिकेट मैच का पुरजोर असर था। वे धमाके की स्पीड में यूँ फेके कि जूता सीधे दूर कीचड़ में जा धसा। उनका 'कुत्ता-भरोसा' पांच लोगों के बीच सिद्ध हो के टिक गया, या यूँ कहूँ मेरे जूते की बलि चढ़ गई।

इसे धोने, और इसके लिए किसी लघु-कथा की तात्कालिक पैदायश, घर आने से पहले मुझे करनी थी। मैं उस बयान की रूपरेखा में जुट गया।

तीसरे दिन तक कुत्ता प्रकरण की वजह से ,भरोसे के आदमी की भूमिका समाप्त नहीं हो पाई।

चौथे दिन, मैंने विराम देने और गनपत को 'ढुंढाई-मुक्त ' घोषित करने का, ऐलान कर दिया। सब को बताया कि मेरे बॉस को भरोसे का आदमी मिल गया है।

सबने अपनी उत्सुकता दिखाई कि भरोसे के आदमी पर , मैं विस्तार से प्रकाश डालूं। वे कहने लगे बॉस को किस काम के लिए कैसा आदमी ढूंढा गया है बताओ ।

मैंने कहा हमारे बॉस को अगले महीने फॉरेन टूर पर जाना है। वे आफिस के लिए एक जिम्मेदार अधिकारी ,घर और परिवार की देखरेख के लिए उन्हें एक होनहार-सज्जन-सुशील , मेरे जैसे आदमी की तलाश थी। पूरे आफिस ने मेरे नाम की मुहर लगाईं तब जाके वे आश्वस्त हुए।

आइये घर चलें, आप सभी को चाय पिलाई जाए। गणपत बोले बड़े उस्ताद हो ..भाई .? हमे क्या -पता था बॉस को आप सब्सिट्यूट कर रहे हैं।

नास्त्रेदम और मैं

जनाब नास्र्त्रेदम ने सन बावन, यानी उन्नीस सौ बावन के बैसाख दसवी तिथि को मध्यभारत इलाके में पैदा हुए किसी शख्श का जिक्र नहीं किया।

वे चाहते तो कर सकते थे।

इस इलाके में पैदा हुआ ‘कोई अमुक नामक’ ,एक दिन साहित्य की आकाशगंगा का भव्य सूरज होगा ?

इसके चारों तरफ फेसबुकिया संसार की हजारों की तादात में लाइक और कमेन्ट जैसा माहौल होगा।

इसके लिखे को न चाहते हुए भी लाखों लोगों को, बलात पढ़ना होगा।

राष्ट्रीय-स्तर पर आकलन या स्टेटिस्टिक्स पर शोध करने वाले आश्चर्य करेंगे, कि हाड-मॉस का एक ऐसा भी शख्श अवतरित हुआ था, जिसकी ख्याति ‘बाहुबली’ से ज्यादा हुई और कमाई के नाम पे रकार्ड तोड़ फक्कड रहा।

-उनपे पुरुस्कारों की झड़ी लगी रहने की अपार संभावना रहेगी ।

लौटाने का कोई मौक़ा हाथ लगते वो किसी लँगोटिया से कहेगा अरे भाई देखो .....,भजन मण्डली ने पिछले साल फाग लेखन पर जो दिया था,वही लाओ , उसे लौटा के पुरूस्कार, तिरस्कार करने का गौरव-सुख भोग कर लें ।

“जनाब नास्त्रेदमस,शायद साहित्य-साइड के नहीं थे।”

हिंदी साहित्य की तरफ से उनके अपने समकालीनों ,तुलसी रसखान या उर्दू के मियाओं ने, उनका ध्यान नहीं खींचा। कारण तो ज्ञात नहीं।

हो सकता है , उस जमाने में गूगल टाइप के उपयोगी तंत्र ईजाद नहीं थे।

चट खोला,बोला और हो गया वाला,वो ज़माना नहीं था।

बात जूं की तरह इलाक़ा-ऐ-ख़ास में रेंग के जाती थी। जब ये खोपड़ी के किसी इलाके पर काटती थी, तब समझ में आने की शुरुआत होती थी।

अगर ‘दमस’ जी के, समकालीनों को मालूम होता तो वे अपने किये का विज्ञापन उनके मार्फत जरूर करवा लेते।

विज्ञापन का मसौदा -मजनून होता “अमुक श्री” के लिखे का दो सौ सालों बाद,कोई पाठ कर लें, तो मोक्ष-मार्ग प्रशश्त हो जाएगा।”

हिंदी में, हजार कहानी, सौ से ज्यादा पुस्तक लिखने वालों को भी रत्ती भर उनने वजन नहीं दिया।

इनकी भविष्य-भावना को, किसी सुस्त शोधार्थी की तरह स्पष्ट करने की क्षमता उत्पन्न नहीं हुई।। उनकी इस बचकानी हरकत से हिंदी की अपार क्षति हुई।

उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भूगोल ,इतिहास ,राजनीति को अपने "भविष्य-वाणी " का विषय चुना। वे जानते थे , इन विषयों की भविष्य-वाणी बहुत ही माकूल बैठती है।

ऐसी कई भविष्य वाणियों की घोषणा, हम यहीं से आज बैठे-बैठे स्वत: कर सकते हैं। यानी ,

आज से पचास साल बाद दुनिया के पश्चिम इलाके में जबर्दस्त सुनामी विपदा आएगी जिसमे जन- धन की क्षति का जोरों से अनुमान लगाया जा सकता है।

दुनिया में कुछ आतंकी, इतने तूफान मचाएंगे जो दस हरिकेन की ताकत से ज्यादा शक्ति के होंगे।

एक पुच्छल तारा टूटकर, धरती से टकराने को मचलेगा, मगर किसी “दैनिक वेतन-भोगी नासा का नौसिखिया” उसका तोड़ निकालने में सक्षम हो जाएगा ।

फतवा देबे वाले एक धर्मगुरु को, ‘छै-तलाक’ का, डबल डोज देके, उसकी ब्याहता बैठ जायेगी।

कुछ छुद्र लोग,गठ्बन्धन –गठ्बन्धन नाम के खेल में कमाई का जरिया भी तलाशेगे।

मेरे ख्याल से जनाब नास्त्रेदम ने ,"जिसकी लाठी उसकी भैंस" जैसे आजकल की विज्ञापन फिल्मो का अंदाजा नहीं किया हो ....?

अन्यथा इस विषयक उनकी बात अखबारों में जरूर खुलती।

वे भैंस ,गाय ,पशु ,चारा की मिक्स्चर राजनीति पर जरूर कुछ बोले होते ,बशर्ते खुर्पतिया नुमा कोई मीडिया वाला ,जो उन दिनों नहीं पाये जाते थे ,उनपे बलात टिप्पणी का दबाव बनाते।

उनके एक-एक भविष्य- वाणियों का मीडिया में पंचायत बिठा -बिठा के विश्लेष्ण करवाया जाता।

हर टी.वी.-ऐंकर तब ये दावा करता कि, नास्त्रेदमस को सबसे पहले ये कहते उनके चेनल ने पकड़ा।

उनके गले से, गुजराती- राजनीतिज्ञ से, एंनकरिया लोग ढाई सौ साल बाद किसी कच्छी, से,यूँ न्योता दिलवा देते "कुछ दिन तो गुजारो गुजरात में "

भाई नास्त्रेदम, आपने गुजरात बुलावा जो दिया, उसका तहे दिल से शुक्रिया।

नास्त्रेदम जी, आपने हमारे इलाके में, ‘योग-बाबा’ के पैदा होने की जानकारी ही नहीं दी ?

वे जुगत भिड़ा के बेख़ौफ़ पीट रहे हैं ..?

दूसरों के, जमे-जमाये व्यापार को तरीके से किनारे लगाने वाला इनके समकक्ष कोई और आयेगा ....? आपकी भविष्य डिक्शनरी में ये है कि नहीं ...?

इंडिया पर आप मन्द बुद्धि के क्यों हो गए ...?

जवाब दो ....?

आपके तरफ आई डी,सीबी आई ,रा ,एफ बी आई या दीगर खुफिया एजेंसियां का खौफ ,जनाब बिलकुल नहीं था ? उस जमाने,आतंकवाद भी फलते –फूलते नहीं थे ....?...जो ये रहते भी तो आपका क्या उखाड़ते ...? हमारे तरफ रोज आये दिन तरह-तरह के ‘प्री-अलाएंस पोल रिजल्ट’ परोसे जाते हैं। कोई कुछ कहता नहीं दीखता ....

इधर के संभावित बैंक घोटाले बाजों ,

ढहने वाली पुलिया बनाने वालों ,

खाकी वर्दी धारको पर,

आपकी नजरें इनायत झुकी रही।

ये आपकी ‘कल्पना-मेप’ में नजर ही नहीं आये ...? आपकी खोजी निगाह में खलबली नहीं मचा सके ? चलो अच्छा हुआ ..।

ये सब हमारे लोकल यीशु(ईशु) हैं हम अलग से देख लेंगे।

इनका भविष्य तो पॉलिटिकली रिवाल्व होता है।

इनके बारे में कुछ कहने से ज्यादा तो कुछ होगा नहीं ,

हाँ दीवाली पर मिलने वाले हमारे गिफ्ट पैकेट में कुछ कमी हो जायेगी बस।

आगे क्या कहें .....?

आजकल 'पन्द्रह लाख ' वाले सपने आने भी बंद हो गये यही एक राहत की खबर है।

आज आप बीच में आ टपके बस ...

आ बैल

बैल को, शायद ही किसी ने आक्रमक होते देखा हो ?

शायद इसी कारण इस नीरीह प्राणी को हर कोई लड़ने के लिए , दावत देने की, हिमाकत और हिम्मत कर लेता है ,....चैलेज दे डालता है.... आ ..मार।

सांड को लड़ने के लिए ललकारने वालों का इतिहास, न समाज में और न ही राजनीति में कहीं मिलता है।

इस विषय में शोध करने वाले व्यर्थ माथा –पच्ची न करे,वरना आपके गाइड सालो –साल आपको, सब्जी-भाजी लाने के लिए थैला टिकाते रहेगा ,अंत में मिलेगा कुछ नहीं।

खैर, सांड टाइप शख्शियत, जो बिना कहे लड़ने-लडाने के लिए हरदम तैयार रहती है ,लोग उससे बच के निकलने में ही बुद्धिमानी समझते हैं।

सांड से कितना भी बचना चाहो, तो भी वो आपके सायकल,मोटर सायकल,स्कूटर,गाडी के सामने आम चौराहे पर खडा हो जाता है।दम है तो निकल के देख ?

गाहे –बगाहे, बिना कारण आफत को न्योता देना, “आ बैल मुझे मार” के तार्किक मायने कहे जाते हैं।मै कुछ लोगो को करीब से जानता हूँ ,उनके दिमाग में ‘बैल से नूरा कुश्ती’ का कीड़ा कुलबुलाते रहता है।

बैल को पता नहीं किन कारणों से हमने,राष्ट्रिय स्तर पर सजग ‘प्राणी’ होने की मान्यता नहीं दी ?हालाकि हमने उससे हल जुतावाये ,गाड़ी में भर-भर के सामान खिचवाया ,मगर जब श्रेय देने की बात हुई तो हम अच्छी सडक अच्छे मौसम और उत्तम बीज की चर्चा करके रुक गए।ये कभी नहीं कहा कि “दो जोड़ी बैलो” ने इज्जत रखने में अपना अहम् रोल निभाया।

बैलो ने भी कभी इंसानो से, अपनी उपेक्षा की शिकायत नहीं की।

उन्हें कभी किसी बात पे वाह-वाही लूटने ,अपनी प्रशंसा सुनने का सरोकार नहीं रहा।वे निरपेक्ष बने रहे।उनके चेहरों में शिकन भी देखने को नहीं मिला, कि कैसे मालिक से पाला पड़ा है ?

यहाँ तक कि ,उनके हिस्से का चारा खाने वालो के खिलाप भी ,वे निरपेक्ष बने रहे।

वे अमीर-गरीब, ऊँचे-नाटे ,सभी मालिको के वफादार रहे।

नियत समय पर खेत जोत देने और गोबर कर देने के उनकी दिनचर्या के अनिवार्य क्षणों में कोई तब्दीली नहीं हुई।कितनी भी परिस्थतियाँ बदली ,उन्हें कितनी भी प्रतारणायें मिली ,उनको दल बदलते कभी देक्खा ही नही गया।

मैंने बैलो में, श्रंगार की अनुभूति का आनन्द लेते, सिर्फ प्रेमचन्द जी की कहानी ‘हीरा-मोती’ में महसूस किया।वैसे सजे –सजाये बैल फिर कभी सुने-दिखे नहीं।

बैल-जोडी के निशाँन को लेकर एक पार्टी का बरसों राज चला।

सचमुच में वे दिन,बैलो की तरह निश्चिन्त , निसफिक्र, निर्विवाद थे। महंगाई के मुह खुले न थे। कालाबाजारी , घुसखोरी भ्रस्टाचार पर नथे हुए बैलो की तरह लगाम लगे थे।

बैल को बैल की तरह देखने की प्रवित्ति में एक अलग भाव तब उत्पन्न होता है, जब हम शिवालय जाते हैं।अगाध श्रद्धा उमडती है।वहां के ‘नंदी’ को,बैल जैसा कोई कह नहीं पाता, लगभग सभी भक्तो को खाते –पीते मस्त ‘सांड’ के माफिक दिखता जो है।

आज की पीढ़ी को कोल्हू के बैल की कथा सुनाने व् महसूस कराने में शायद हम कामयाब न हों, मगर हमने अपनी आखों से कोल्हू के बैल को ‘तिल की घानी’ में घूमते हुए देखा है।पांच कंडील, सदर- बाजार जाने के रास्ते एक खुफिया किस्म का मकान आता था ,तेल से बजबजाता एक अब-तब टूटने लायक फाटक ,एक मिली-कुचैली सी साडी में लिपटी हुई बुजुर्ग सी औरत ,एक तेल पेरने की घानी, और नथुनों में समा जाने वाली तिल के तेल की गंध।बहुत दूर से पता चल जाता था कि कहीं तेल निकल रहा है।उस जमाने का समझो वो ऑटोमेटिक मशीन था ,एक बार तिल डाल दो ,बैल चक्कर पे चक्कर मार के तेल निकालता रहेगा। सुबह-दोपहर –शाम ,सर्दी –गर्मी बरसात ,आप सुबह दातून करते वक्त, या रात सेकंड शो पिक्चर से लौटते समय, कभी भी देख लो, बैल का अनवरत चक्कर चलते रहता था।

बैल के नाम पर कर्ज लेने वाले किसान आजकल नदारद से हो गए।

इन दिनों कभी आपने सूना है कि, किसान अपनी पत्नी से गंभीर मंत्रणा कर रहा हो कि मंगलू की अम्मा ,सोच रहा हूँ ,इस साल एक जोड़ी बैल खरीद लेते ?खेत पिछले कई सालो से ठीक से जुते ही नहीं,फसले बिगड़ रही हैं।

इन संवादों के पीछे मंगलू की अम्मा को, भ्रम यूँ होने लग जाता है कि उनके पति को भूत –परेतों का साया तो नहीं लग गया ? वे चुड़ैल के चक्कर में तो नहीं फंस गए कहीं ?आज बैल खरीदने की बाध्यता या मजबूरी कहाँ रह गई ?

कहाँ तो एक रपये-दो रुपये में मजे से चांवल-गेहूं मिल रहे हैं ?क्या करेंगे बैल जोडी लेकर ?जगह भी कहाँ है इनको रखने की?नौकर कहाँ है जो देख –रेख करे ?पत्थर ,सीमेंट या टाइल्स बिछे घरों को अब गोबर से लीपता कौन है?

अब जब टी वी , फिज, मोबाइल -मकान के नाम पर आधा गाँव लोन उठा रहा हो , बैलो के नाम पर लोन की कोई सोचे तो लोग पागल ही कहेंगे ना ?

फिल्मो से भी ये सब्जेक्ट कब का उठ गया है। अब कोई सुक्खी लाला ,’राधा रानी के बैलों को’ छुड़ाने के पीछे, हाथ धोकर पड़े नहीं मिलता।गरीब प्रोडूसर जो सौ –दो सौ करोड़,बिना बैल डाले , मेहनत से कमा रहे है ,अगर ‘बैल-नुमा’ एक सीन डाल दें तो फ़िल्म अगले दिन ही फ्लाप हो जाए।

मुझसे अक्सर यह पूछा जाता है कि ,शहरों में अब बैल होते नहीं ,कोई भला किससे कहे कि आ बैल मुझे मार ?

मैं पूछने वालो की बुध्धि पर तरस खा जाने वाली निगाह से देखता हूँ।इस निगाह से देखने का मतलब ये भी होता है, कि मुझे आज के जमाने के, दिमागी तौर से तंग लोगो पर हैरानी ,कोफ्त,या गुस्से का मिला-जुला भाव आ रहा होता है। स्सालो , ‘हर शाख पे उल्लू बैठा है’; की तर्ज पर ,यहाँ हर गली में दो पैरों वाले ,पढ़े –लिखे ,अपढ ,गंवार ,ढीठ ,जिद्दी, अकडू ,येडा , कोल्हू के बैल बैठे हैं, घूम रहे हैं, तुझे दिखाई नहीं देता ?

अफसोस ये भी कि ,हमारी जनता ‘प्रगति’ के ‘मिल्खा सिंग’ के पीछे बैल गति से भागने की जिद किये रहती है।

आवारा कुत्तों का रोड शो .....

मार्निग-वाक में डागी ‘सीसेंन’ को घुमाने का काम फिलहाल मेरे जिम्मे आ गया है।

रास्ते में दीगर कुत्तों से बचा के निकाल ले जाने का टिप, गणपत ने जरूर दिया था, मगर प्रेक्टिकल में तजुर्बा अलग होता है।

एक हाथ में डंडा,एक हाथ में पटटा पकडे, कुत्ते के बताए रास्ते में खुद खिचते चले जाओ।सामने आये दूसरी नस्ल की बिरादरी वालो को भगाते रहो।

उस दिन शर्मा जी साथ हो लिए ,पूछे कौन सा है ?मैंने कहा अल्शेशियन।

कितने का लिए ? मैंने कहा ,एक मित्र के यहाँ बोल रखा था ,उनने दिलवाया।वे बोले; और कोई मिले तो दिलवाइए हमें भी ।

मैंने कहा ,शर्मा जी ,कंझट का काम है कुत्ते का शौक करना। अपना बस चले तो अभी ये पट्टा आपको थमा के छुट्टी पा लें ,मगर पिंटू का शौक है; सो खींचे जा रहे हैं।

वैसे भी आप मांस-मच्छी,अंडा कहाँ खिला पाओगे ,ये नस्ल तो इनके बिना,गाय-माफिक हो जायेगी।

शर्मा जी नान-वेज पर टिक नहीं पाए; वे राजनीति में उतर आये।क्या कहते हैं ?किसकी बनेगी ?

मैंने कहा, जो ज्यादा भौक ले वही मैदान से दूसरों को खदेड़ने के काबिल होता है।आपका क्या कहना है ?

आपकी बात तो सही है।आजकल टी वी देख-देख ,सुन- सुन के तो कान पाक गए हैं।ये तो अच्छा है कि आई पी एल वाले सम्हाल ले रहे हैं ,आप इंटरेस्ट रखते हैं न, क्रिकेट में ?

मैंने कहा हाँ ,क्यों नहीं, सीसेंन उधर नही ....रास्ते में चलो ....।

शर्मा जी ने कहा आपकी बात समझ लेता है ,देखो रास्ते में आ गया।

मैंने कहा शर्मा जी, यही तो खूबी है इन कुत्ते लोगो की।

भौकते जबरदस्त हैं ,दौड़ाएंगे भी खूब, मगर जब तक मालिक न कहे , काटेंगे नहीं।

आगे देखिये...... ,वे जो कुछ आवारा कुत्ते आ रहे हैं कैसे गुर्रायेगे इस पर....... लगेगा, अकेला आये तो नोच लेगे........।

मगर वहीँ ,जब हमारा अल्शेशियन एक गुर्रायेगा तो दुम दबा के भाग खड़े हो जायेंगे स्साले .....।

शर्मा जी को तत्कालिक परिणाम भी देखने को मिल गया।

चक्रव्यह की माफिक, आवारा रोड-छाप कुत्तों के बीच ,अपना सीसेन घिर गया।,वो थोडा सहमा मगर जैसे ही हमने हिम्मत दी, वो उन सब पर भारी पडने लगा।

आवारा कुत्ते, आपनी रोड-शो-रैली को, दूसरी गली की तरफ ले गए।

मैंने कहा देखा शर्मा जी ,यही हमारे इधर भी हो रहा है। रैलियां देख के हम अंदाजा लगा लेते हैं उमीदवार में दम है। जब तक कोई ताल ठोंक के सामने आ के नहीं गुर्रायेगा जनता बेचारी भ्रम पाले रहेगी और अपना वोट देते रहेगी।

हमारा मानना है ,आप क्वालिटी देखो नस्ल देखो , दमखम देखो।ये नहीं कि चोर,उठाईगीर धोखेबाज ,सुपारी-किलर ,ब्लेक मार्केटियर ,दलाल-ठेकेदार कोई भी टिकट हथिया ले, और उसे आप चुन लो।

शर्मा जी आजकल यही सबकुछ हो रहा है।

एक ने भाषण झाडने में महारत हासिल कर ली,दूसरे ने पोल खोलने की विद्या सीख ली, और बन गए राजनीति के दिग्गज पंडित ।गुंडे-मवाली,घूसखोरो से देश को बचाओ भइ ! ... बहुत हो गया।

इतनी देर खड़े गपियाने में, सीसेन कब दिशा मैदान से फारिग हो गया ,पता ही नहीं चला।

कसक होइबे करी ...

हमारा ज़माना बहुत दूर अभी नहीं गया है।

फकत पच्चास-साठ साल पीछे चले जाओ।

आपको पुराने फैशन के नेरो या बेल-बाटम पतलून –शर्ट, घाघरा-चोली, धारी युवक –कन्याए यानी ‘प्री-जीन्स’ युग के जीव मिल जायेगे।

ये लोग प्रेम के दीवाने होते थे।

कालिज की सीढियों में पाँव रखे नहीं कि, एक अदद ‘प्रेमी’ या ‘प्रेमिका’ की जरुरत ‘स्टेटस सेम्बाल’ बनाए रखने के लिए . जरूरी लगने लगता था।

जो लोग ‘स्टेटस’ को पहुच नहीं पाते थे या पा सकने में, किसी तकनीकी कारण विशेष के चलते असक्षम होते थे , वे ‘एक तरफा मोहब्बत’ वाला रोग लगा बैठते थे।

कुल मिला के मुहब्बत करनी है ,चाहे रब रूठे या बाबा.....वाले वे दिन थे वे .....।

...मैंनू यारा इशक होंदा...

‘कुडी’को पता हो या न हो, या सालो बाद पता चले ...अपनी तरफ से हमने शुरुआत कर दी ....।वे मुहब्बत के हवन-कुंड में नियमित रूप से उनकी गली के एक –दो चक्कर लगा आते, या जहाँ –जहां उनके पाए जाने की संभावनाए होती थी वहाँ –वहाँ अपनी पहुच की दखल को, जरुर संभावित रखते। उन दिनों किसी बात की ‘जल्दी’ होती कहाँ थी ?

ज्यादातर एक-तरफा प्रेम वालों से मोहल्ला, देहात ,शहर ऐसे भरा रहता था जैसे इन दिनों साइबर केफे में गूगल सर्च करने वालो की भीड़ होती है ।

वे लोग ‘एक तरफा’ को भी आजीवन नहीं भुलाने की कसम खाए हुए संजीदा-किस्म के लोग होते थे ....?सामाजिक प्राणी की मान्यता मिलने के बाद भी, उन्हें लगता था ,बीबी हैं बच्चे हैं मगर सेटिस्फेक्सन नहीं है।

‘प्यार का गठिया’ कभी –कभी सालने में आता तो गमगीन हुए जाते।

उनको जीने के लिए एक ‘कसक’ की जरूरत शिद्दत से महसूस हुआ करती थी।

काश एक ‘कसक’ दिल में रहे, तो मजा आ जाए ?

‘कसक’ वालों के लिए एक से एक गाने, या यो कहे फिल्मी गानों का भंडार भरा पड़ा है।ये कसक ही पूरी फ़िल्म-इडस्ट्री की धुरी हुआ करती थी ...पिवेट ....।

टिकट- विंडो पर अच्छा रिस्पांस दिलवाती थी।

जो शख्श कालेज की फीस का जुगाड ले-दे के कर पाता था, मुहब्बत किस बूते करता भला ...?

इसीलिए ज्यादातर मुहब्बत के एकतरफा वाले किस्से, ज्यादा हुआ करते थे ?

अभी तक किसी शोध कराने वाले गाइड ने, इस विषय को छुआ या छेडा नहीं है।

शोध दिलाने वाले गाइड-डाक्टर साहबान को इस विषय में मै कुछ क्लू दिए जाता हूँ, जिसमे वे आगे पैदा होने वाले स्कालर्स को नए –नए विषय में शोध के लिए प्रेरित कर सकते हैं मसलन,

1. भारत में एकतरफा मुहब्बत के किस्से और सामाजिक परिवेश

2. कालेज में इश्क करने के हजार बेखौफ तरीके,

3. असफल प्रेमियों के चालीस-साला बाद की जिंदगी, और प्रेम के प्रति उनका नजरिया

4. वर्तमान समय में फिल्मो का प्रमी-प्रेमिकाओ पर प्रभाव और सामाजिक सारोकार, दायित्व और निर्वाह

5. राजनैतिक उथल-पुथल में प्रेम,एव सम-सामयिक दृष्टिकोण पर एक नजर

6. मोबाइल, इंटरनेट,एस एम एस , के जमाने में प्रेम करने के तरीकों में बदलाव।

7. क्या प्रेम-पत्र आज के जमाने में संग्रहणीय दस्तावेज हो गए है,खोज और आंकड़े....

{विषय की लंबी फेहरिस्त है, सविस्तार जानने के इच्छुक शोधार्थी बाद में संपर्क साध सकते हैं }

खैर जाने भी दो। जिसे जो खोज-बीन करना है वो अपना दुखडा अलग पाले ..अलग अलापे ..? बात, ले –दे के फीस न जुगाड कर सकने वाले छात्रों की हो रही थी !

हमारे साथ भी, कमोबेश मामला इसी के आसपास का था।

इतना जरूर था कि हम पढाकू होने की केटेगरी के थे, जिसकी वजह से साथ पढ़ने वाली जो बाला, हमसे नोट्स मांगने की हिम्मत जुटा लेती, उसी के इर्द –गिर्द पूरे महीने भर की ‘इकतरफा वाली’ कवायद चालु हो जाती और यही अमिट पूंजी बन हमारे दिल की तिजोरी में बंद होने लग जाती।

सपनो में उनके चाहे गए नोट्स की बुनावट तरह-तरह से ,रह –रह के बनते बिगडते रहती ।

किताबे -गाइड-लाइब्रेरी खंगालने में दिन बीत जाते।

नोट्स बनाने के नए –नए स्टाइल नए-नए ख्याल- विचार जुगाड करते।तरह –तरह के नोट्स बनाते-बनाते हालात ये बन जाती कि , इस बहाने पूरा का पूरा चेप्टर हमको जुबानी याद हो जाता।

अगर ,उन दिनों मुन्ना –भाई बन के, एवजी परीक्षा देने का चलन होता , तो हमारी आसान कमाई का जरिया जरुर निकल आता।

इतना जरूर होता कि हमारी किताबी ‘पकड़’ की बदौलत. इक्जाम के दिनों में हमारी ‘पूछ-परख’ बढ़ जाती।

परीक्षा हाल में सवाल हल करते हुए स्टूडेंट को, बाहर से जवाब मुहैय्या कराने का काम मिल जाता।

परीक्षा के दिनों में. जब हमारे क्लास के तमाम छात्र पढ़ने से पल भर का समय नहीं निकल पाते थे , तो हमारी स्तिथि अलग हुआ करती थी। हम रात को सेकंड शो देख के भी. अगले दिन परीक्षा हाल में जाने के न केवल काबिल बने रहते. बल्कि सबसे अव्वल पेपर इनविजिलेटर को सौप के निकल जाते।

परिणाम भी हमारे पक्ष में, अभी-अभी गए इलेक्शन माफिक आता, जिसमे, आगे, ये दिल मागे ‘मोर’ कहने की गुजाइश नहीं रहती।

एक तरफा प्रेम-मुहब्बत को हर किसी ने ,धीरे धीरे मोम की तरह पिघलते देखा है ?

सब देवदास-मजनूओ का एक अंजाम.....!

कालिज वो कब खतम की ..? उधर वाली पार्टी कब डोली बैठ गई।कब उनके बच्चे -कच्चे हो गए ,कब समय की सुनामी आई, कब क्या बहा ले गई पता ही नहीं चला ...?

इन्ही में से जब कोई, किसी शापिंग माल में अचानक आमने –सामने हो जाती हैं तो उनके लिए एक असहज -असमंजस की स्तिथि पैदा हो जाती है।

वे बड़े मजे से अपने बेटे या बेटी से परिचय कराती हैं ,बेटे ये हैं यादव अंकल ,नमस्ते करो ..... ।

सारा का सारा नोट्स जो उनके लिए , रात-रात भर जाग के लिखा, आँखों के सामने घूम जाता है।

दिल में एक कसक सी उठती है .....

मगर तुरंत बाद .....

एक ताजी हवा,

एक नई खुशबू का एहसास

फिर भीतर तक समा जाती है, जो उसके बदन ने अभी -अभी छोडी है।

टोपी आम आदमी की....

टोपी के बारे में मेरी बचपन से कई अच्छी धारणायें थी। गांधी जी के अनुमार्गी होने की वजह से मेरे पिता के पहनावे में ये,जवाहर कोट के साथ शामिल जो था।वे जब भी घर लौटते, हम भाई –बहनों में टोपी लेने की जंग छिड़ जाती। भले ही मिनटों –सेकण्डो कि लिए सही, टोपी जो हाथ लगती, मन खिल उठता।माँ टोपी के गंदे हो जाने के भय से ,जतन से उसे खूंटी पर टांग देती।हम बापू की टोपी के, गांधी फेम के बगल में , टंग जाने के बाद अपने –अपने खेल में खो जाते।

टोपी में जाने क्या-क्या संस्कार थे ?बरसों हम उन संस्कारों से बंधे रहे।हमारी शालीनता शादी होने के बाद पत्नी के तानों से ज़रा छिन्न-भिन्न हुई ,कि लोग टी व्ही ,फ्रिज,कार , बंगले जाने क्या क्या कमा के धर दिए,आपसे एक ढंग का स्कूटर नहीं लिया जाता।बिरादरी में नाक कटती है।

आदमी इसी ‘बिरादरी’ ,नाक और पत्नी के चुंगुल में फंस कर,अगल-बगल देख के चुपके से , टोपी को जेब में धर लेता है।

पिछले पन्द्रह –बीस सालों से ‘टोपी’ शहर से, मानो गायब सी हो गई थी।केवल २६ जनवरी ,१५ अगस्त के दिन इक्के-दुक्के नेता टोपी पहने शौकिया दिख जाते थे।कांग्रेस के जमाने में ,चुनाव नजदीक आते-आते टोपी का चलन थोड़ा जोर मारता।टिकट लेने ,पार्टी कार्यालय का चक्कर, टोपी पहन के जाओ तो असर पड़ता है ,जैसे विचार टोपी पहनने की बाध्यता पैदा कर देती थी।लोग दुखी मन से पहन लेते थे।

वैसे हमारे शहर में एक मारवाड़ी गजब की टोपी पहने रहता था।भोजनालय चलाता था।

साफ –सुथरी टोपी की बदौलत, उनकी काया में निखार ,बोली में माधुर्य ,व्यवहार में कुशलता, आप ही आप समा गई थी ।

एक ‘टपोरी भोजनालय’ से, आलीशान चार मंजिला होटल तक का सफर करते, उस आम-साधारण आदमी के चश्मदीद, शहर के अनेक लोग हैं।

अफसोस कि अब , उनकी टोपी-युक्त फोटो पर, माला चढ गई है ,पर उस आदमी ने जब भी पहना, झकास पहना, कलफदार शान से पहना।

उनके व्यवसाय की वजह से उन्हें ‘पुरोहित जी’ कह के बुलाते थे।

उनके मरने पर , कोई शहर-व्यापी मातम-पुर्सी नहीं हुई,कारण कि ,उन दिनों मीडिया जैसा कुछ होता नहीं था।

आज के मीडिया युग में जो ,’डेन्डरफ वाले तोते घर’ भी बहुत खास बना के परस देता है ,लोगो के हुजूम पे हुजूम टूट पड़ते हैं। वे अब दिवंगत होते तो अलग बात होती।

तमाशा देखना,सनसनी में जीना, जैसे इस नए युग का एक ख़ास शगल हो गया हो ...लोग कान के कच्चे होने लगे हैं।

वे पुरोहित जी को भी कुछ यूँ “ब्रेकिंग न्यज” के नाम पर घंटों चला लेते .....“आज आपके शहर से एक शख्श जिसने उम्दा भोजन की थालियाँ परोसी ,जिसने लोगों को विशुध्ध भोजन कराया ,जिसने हजारो –करोड़ो लोगों की क्षुधा-शान्ति का व्रत लिया था, जिसने मिलावट के किसी सामान का इस्तमाल नहीं किया ,इमानदारी से,कम कीमत में सबके पेट तक भोजन पहुचाना जिनका धर्म बन चुका था , उस शख्श का कल परमात्मा से बुलावा आ गया ,एक आत्मा का परमात्मा में विलीन होना, आज की सबसे बड़ी सदमे वाली खबर है।उनकी खासियत थी कि वे गांधी –टोपी को ,यथा नाम- तथा गुण अपने सर में आमरण धारण किये रहे।उनने कभी कोई टिकट नहीं मागी ,किसी चुनाव में हिस्सा नहीं लिया ,ऐसे लोग भी होते हैं,जो बिना राजनैतिक सरोकार के टोपी को अपनी वेशभूषा में बनाए रखते हैं ,ऐसे आदर्श पुरुष को हमारे चेनल का नमन। हमारे चेनल की तरफ से उनके उठावना का लाइव टेलीकास्ट किया जाएगा।

सदर बाजार के एक और मारवाड़ी जिनका सोने-चांदी का बिजनेस था,पुरोहित के नक्शे –कदम में टोपी पहना करते थे। उनकी खासियत थी कि जब भी बड़ा ग्राहक आये, वे टोपी उतार के रख देते थे।टोपी पहन के ग्राहक को झांसा देने में जैसे उनकी अंतरात्मा धिक्कारती हो। वे पेमेंट लेने,ग्राहक को बिदा कर लेने के बाद ही टोपी सर पर रखते थे। सात्विक विचार वाले उन जैसे लोग अब कहाँ बचे ? उनके दान-पुन्य से अनेको आश्रम ,स्कूल चलते हैं।इन्कमटेक्स वाले,उस ‘दानी-दयालु’ आदमी की तरफ कभी झांकते नहीं।

टोपी के बारे में बचपन की सुनी एक कहानी,अभी तक दिमाग में काबिज है। एक व्यापारी टोपियों का व्यापार करता था।अपने टोकरे में ढेर सारी टोपियाँ लिए गाव-गाव फिरता।चलते –फिरते जहाँ नदी-तालाब आ जाए ,नहाना ,खाना –पीना,झपकी लेना, कर लेता था।एक बार एक पेड़ के नीचे आराम करते - करते सो गया।पेड़ पे खूब सारे बन्दर बैठे थे, बंदरों ने नीचे उतर के, उसके टोकरे से टोपियाँ उठा के पहन ली और पेड़ पर चढ़ गये।व्यापारी की नीद जब खुली तो टोपियों गायब पाकर, उसके होश उड़ गए।इधर-उधर देखने के बाद पता चला कि बंदरों ने सब टोपियाँ पहन रखी हैं।उसे कुछ सूझ नहीं रहा था, टोपियों को वापस कैसे बरामद करे।उसके पास गनीमत से एक टोपी , जो उसके सर मे थी बच गई थी। उसने बंदरो की तरफ, अपने सर से वो टोपी निकाल के उछाल दी।उसकी नकल में सब बन्दर, अपनी-अपनी टोपियाँ उछालने लगे।टोपियाँ नीचे गिरने लगी।व्यापारी ने टोपियाँ सम्हाली और फिर कभी पेड़ के नीचे गहरी नीद न सोने का निश्चय करके , आगे बढ़ गया।

इस कहानी का मुझमे कई दिनों तक असर रहा। तालाब और पेड़ के कम्बीनेशन में, मुझे टोपियां हमेशा याद आती रही।टोपीवाले का एक्शन,बंदरों का रि-एक्शन,वाला फ़िल्म मन में स्वत: चल जाता ।उसकी तात्कालिक बुद्धि पर दाद देने का मन आज भी करता है।अपने छोटे-छोटे नाती-पोतो को कभी उनकी जिद पर ये किस्सा सुना के, उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहता हूँ। मुझे मालुम है उनके जेहन में सचिन-धोनी वाली टोपियाँ होती हैं।

‘टोपी-ज्ञान’ पाने के बाद ,वे घर के आस-पास बंदर के दीखते ही, टोपियाँ ढूढ़ते हैं।वे बंदरों को ‘टोपी पहने’ देखना चाहते हैं। वे हाथ बढाते हैं।ले...ले... टोपी पहन .....।दादा ये तो दान्त दिखा रहा है ..........! ये हंस रहा है.......,,वो इधर को आ रहा है ...........।

मै बच्चो को सहज करने के लिए कहता हूँ ,चलो काउंट करो ,कितने हैं।गिनती शुरू हो जाती है वन..टू...थ्री ....ट्वंटी सेवन ,ट्वंटी एट...।बच्चे आपस में ट्वंटी सेवन ,ट्वंटी एट...की लड़ाई में लग जाते हैं ,एक बंदर तब तक उछल के दूसरे पेड़ पर चल देता है।

मै सोचता हूँ, बच्चो को कल्पना की दुनिया के इतने नजदीक नही ले जाना चाहिए।कहीं बंदरों की छीन-झपट में कुछ नुकसान न हो जाए ?

अब के कुछ चाणक्य उस टोपीवाले की याद दिला जाते हैं।

तेरे डागी को मुझपे

भौकने का नइ......

मै अगर डरता हूँ तो केवल कुत्तों से।

ये खौफ बचपन से मुझपर हाबी है।स्कुल से छुट्टी होते ही घर लौटते समय टामी का इलाका पडता था।मजाल है कि कोई उससे बच के निकल जाए ?क्या सायकल क्या पैदल ,क्या अमीर क्या गरीब,क्या हिन्दू –मुसलमान सब को सेकुलर तरीके से दौड़ा देता था।हम बस्ता लटकाए एक कोने में दुबके हुए से रहते कि कब टामी का ध्यान बटे और हम तडी-पार कर जाएँ।विपरीत दिशा में आते हुए लोगो पर उसका भौकना चालु होता था, कि हम टाइमिंग एडजस्ट कर लेते थे कि इतने सेकण्डो में हम टामी क्षेत्र से बाहर निकल जायेंगे।कभी कभी हमारा गणित फेल हो जाता था वो आधे रास्ते अपने पुराने शिकार को छोड़ हम पर पिल जाता था। बस्ते हो उस पर पटकते –फेकते ,बजरंग बली की जय जपते, हांफते घर पहुचते।घर में डाट पडती ,फिर टामी को छेड़ दिया न।बता देती हूँ चौदह इंजेक्शन लगेगे ,वो भी पेट में। हम अपनी सफाई क्या देते,क्या समझाते कि किस सिचुएशन में फंसे थे ?

प्रेमिका भी मिली तो उनके घर में कुत्ता था।वो मोबाइल युग नहीं था,जो जाने के पहले चेताते।काल-बेल दबाते ही भौकना चालू …।माँ-बाप, भाई-बहन सब एक सुर में नइ... सुसैन नइ....भौकने का नइ...मै उससे कोफ्त से कहता ...जब तक ये तुम्हारा कुत्ता है .....मै आगे कुछ बोलता इससे पहले वो बोल देती ,कुत्ता नहीं ...क्या गंवारो जैसे बोलते हो.....?नाम नहीं ले सकते तो कम से कम डागी तो बोला करो .....? मै कहता या तो तुम डागी सम्हालो या मुझे .....और जानते हैं !.. वो डागी सम्हालने में लग गई।पच्चीस सालो बाद अचानक एक बड़े शहर के शापिंग- माल में दिखी ,मैंने अचकचाते हुए से कहा,रेणु तुम ?वो भी, एक टक देखने के बाद, जैसे सोते से जगी हो... गदगद हो के बोली ,क्या सुशी,बहुत अरसे बाद मिले ,कहाँ थे क्या करते हो ?कुछ खबर ही नहीं दिए ?मैंने जवाब देने के पहले पूछा ,कहाँ है तुम्हारा कुत्ता ...?वो बड़े झेपते हुए बोली ,फिर वही .....? डागी की पूछ रहे हो ....?,सुसैन को मरे तो बीसों साल बीत गए।मैंने हलके-फुलके माहौल करने की गरज से कहा ,’दूसरा’..... वाला कहाँ है ?वो इशारा समझ के बोली क्या तुम अब भी मजाक के मूड में रहते हो ?छेडने से बाज नहीं आते ......? वो दुबई में रहते हैं।साल में एक दो बार आ पाते हैं।मैं यहाँ पढाती हूँ ,बच्चे सब सेटल हो गए।तुम अपनी कहो ....।मेरी सुनने-सुनाने के लिए काफी-हाल चलना होगा,चलो बैठते हैं।बहुत इत्मीनान ,तसल्ली से जी भर के बातें हुई।एक –एक यार दोस्तों की खबर लेते-देते ,कैफे बंद करने का समय हो गया।जाते –जाते वो बोली घर आओ कभी .....।मैंने मुस्कुराते हुए पूछा .....डागी तो नहीं है न ?

वो बोली अभी तक तो नहीं है ...हाँ अगर तुम ज्यादा चक्कर मारने लगोगे तो जरुर एक पाल लूंगी ...।

पच्चीस साल पुरानी वाली खिलखिलाहट हवा में तैर गई.।

नन आफ द एबव्ह

गनपत को,विगत पच्चीस सालो से चुनाव का बेसब्री से इतिजार करते देख रहा हूँ।

शुरू –शुरू में वो दीवाल की पेटिग करता था। केंडिडेट, पर्चा बाद में दाखिल करते थे,मंदिर-देवालय के चक्कर लगाने की बाद में सोचते थे , पहले वे गनपत को बुक करने लाइन लगा लेते थे।

उसकी वाल पेन्टिंग के बिना मुहल्ले-शहर में चुनाव का माहौल ही नहीं बनता था। उसे मुहल्ले के हिसाब से कहाँ क्या लिखना है, बखूबी ज्ञान था।ब्राम्हण-बनिया मुहल्ले में साफ-सफाई, शहर चमकाने की बात ,सिविल लाइंस में जुझारू उम्मीदवार होने की वकालत ,स्लम में,बस्ती वालो की ताकत ,उनके हक़ में तत्पर रहने की घोषणा आदि बिना कैंडिडेट के पूछे कर देता था।

गनपत की लिखी एक-आध वाल, जिनके मालिक की हैसियत,दस-बीस सालो से नहीं बदली ,इस शहर में आज भी मौजूद है।आपके शहर का सशक्त उम्मीदवार ......,छाप पर मुहर लगा कर विजयी बनावे।.....छाप पर अपना अमूल्य मत देकर,’दिनकर बाबू’ को जितायें।आपका कामरेड,’हसिया-हथौड़ा’ लाल रंग से सचित्र ,लिख कर बरबस सबकी नजर खीच लेना ,गनपत की हुनर में शामिल था।उसका हंसिया,हथौड़े के साथ बोलता था,पंजा बना दे तो यूँ लगता था कोई आशीष दे रहा है ,कमल की पंखुड़ी तालाब से अभी-अभी खीच के लाइ हुई सी लगती थी।

इलेक्शन-कमीशन वालो के नये नियम कानून और सख्ती ने वाल-पेंटिग के हुनरमंदो का काम न के बराबर कर दिया।

गनपत की कमाई का जरिया जाता रहा।

इस शहर के एक-आध जर्जर दीवार पर मसलन , लक्खी शर्मा की दीवाल में तीन इलेक्शन हारे, पुराने केंडीडेट, जो चौथी मर्तबा किस्मत की घोड़ी की लगाम, खीचने जा रहे हैं, बकायदा अपने नाम का डंका पीटते नजर आ जाते हैं।वैसे उनका पिछला इलेक्शन गये इलेक्शन की पुरानी वाल पेंटिग के सहारे ही निकल गया।वे वाल पेंटिग पर खर्च का हिसाब कमीशन को देने की जहमत ही नही उठाते।पूछने पर,पिछले इलेक्शन का लिखा बता देते ।कट –आउट ,बेनर,बिल्ले , सब पुँराना स्टाक निकाल देते हैं।

एक मुन्ना माइक वाला ,मशहूर शख्स हुआ करता था ,उसकी खासियत थी कि चुनाव लड़ने वाले केंडीडेट का गली –गली में यूँ कसीदा पढना कि लोग वोट डालते वक्त बरबस उसकी बातों की गूंज में अपना वोट, उसी केंडीडेट को ठोंक आते।बहनों और भाइयो ,आपका अपना प्यारा उम्मीदवार ,रामखिलावन .....।निशान है “बिना गाय का बछड़ा” ......।आपने बछड़े बहुत देखे,गाय के साथ देखे,एक बार बिना गाय के, आजमाइश करे.....आपको निराशा नहीं होगी......।

उसकी तुकबंदी ,अमीन सयानवी स्टाइल, रिक्शे के पीछे, बच्चो के झुण्ड के झुण्ड, हँसता–मुस्कुराता मुन्ना माईकवाला....। जहां उसे जो तुक बंदी सूझ जाए , वही पेल देता था।

याद रखिये ,यही वो निशान है,खेत है खलिहान है ,बछड़े की पहचान है ,जान है तो जहान है।

वो वोट देने का तर्क भी अजीब देता था ,बहनो और भाइयो,बछड़ा पांच सालो में बड़ा होके आपके खेत में हल जोतेगा ....।आपकी फसल लहलहाएगी।बछड़े के अनेक फायदे हैं ,वो मिडिल स्कुल स्तर के मिडिल-क्लास टाइप निबन्ध की भाषा बिना लाग –लपेट के सूना देता। उम्मीदवार उसे स्लम बस्ती की तरफ जाने की ख़ास हिदायतें देकर भेजता।

मुन्ना की बात में बहुत से सीधे –साधे लोग जो उस जमाने में अक्सर ज्यादा हुआ करते थे ,आ जाते थे।

पिद्दू रामखिलावन, जो बछडे से कम ताकत वाला दिखा करता था,मुन्ना की शायरी के भरोसे इलेक्शन निकाल ले गया। वो यकीनन पांच सालों में अपनी आधा-एकड को यूँ जोत लिया कि ‘घोषित’ पचास एकड़ के ऊपर उसकी जमीन पहुच गई ।(भाई साब ,सिर्फ घोषित को ध्यान में रखें , ज्यादा सोचेंगे तो दिमाग खराब होने का खतरा है।)

कुछ गवैये,छक्के किस्म के आशु कवि को एक जीप दे दी जाती थी। वे चालु फिल्मी गानों की परोडी में अपने केंडीडेट को महान बनाने में लगे रहते थे।पैरोडी तो पल्ले नहीं पडती थी पर हाँ ओरिजनल गाने की धुन में वो सब क्या कहना चाहते हैं करीब-करीब समझ में आ जाता था।

पिछले हर इलेक्शन में ,हमारे शहर का कोई खम्बा बिना –पोस्टर बेनर के नहीं होता था।गली के कुत्ते लोग मजाक में कहते थे,क्या पंजा में ...आज भी?नहीं यार.... आज मूड हुआ हथोड़े वाले खम्बे को जल चढाऊं।

कुछ कट-आउट इतने वीभत्स (बने) होते थे कि लगता था बेचारा अगर कट आउट नहीं लगवाता तो ज्यादा वोट खीच लेता।भारी-भरकम ,काला मुस्टण्ड ,मुछ –दाढ़ी के बीच, होठ की एक हल्की सी लकीर ,हाथ में नंगी तलवार उठाये क्षत्रिय –छवी बनाने के फिराक में, उस केंडीडेट का ‘करेक्टर-एसिसिनेसन’आप ही आप हो जाता था ,ऊपर से कट-आउट के साथ कमेन्ट ,

”जीतने पर हमेशा आपके साथ ,ये ‘ठाकुर’ का वादा है”

अब ऐसे ‘ठाकुर’ को जिता- कर ,बला कौन मोल ले भला ?.....बेचारे जमानत भी नही बचा सके ..?.वो इलेक्शन ,वो भी नहीं भूले ,हम भी नहीं भूले .....।

उन दिनों वीडियो शूट का चलन नहीं था,वरना प्रमाण दे देते।आठ-आठ ,दस –दस केंडीडेटस ,सौ-सौ ,पचास-पचास केंनवासिंग करने वालों के साथ घूमा करते थे।

आज की तरह भीड़ और कार्यकर्ता , ‘रोजी-भाड़े’ में नही बुलाये जाते थे।

स्वस्फूर्त आने का भाव उनके चहरे से झलकता था।

बिना नाश्ता ,बिना नागा ,बिना नखरा दिखाए हाफ कप चाय में दिन-दिन भर जमे रहत थे वे लोग।केंडीडेट को वे लोग,आज की तरह , अर्थी के माफिक नहीं उठाये फिरते थे....?

उम्मीदवारों को भी अपने चाहने वालो में, एक –एक का नाम, पता,ठिकाना, मुह जुबानी याद रहता।इलेक्शन जीतने पर,खोज-ढूढ़ के वे सबके काम भी करते।नल-बिजली लगवाने से लेकर नौकरी लगवाने तक सबको प्रसाद बंटता था।खादी को वे लोग झीनी होते तक पहनते थे।”जस कि तस धर दीन्ही चदरिया” टाइप, वे अगला इलेक्शन फटे-कालर के साथ फिर लड़ लेते थे।

पार्टी वालो को पता नही क्या परहेज हुआ ?फटे-कालर से ‘मीडिया-शूटिग-कव्हरेज ’ पार्टी-इमेज,कार्पोरेट-छवि धूमिल सी होने लगी ,यकायक ऐसे लोगों को टिकट मिलना बंद हो गया।

पुराने इलेक्शन बिना नोट, कम्बल –पौव्वे के कहाँ निपटता था ?लोग बेसब्री से इंतिजार करते,पांच सालो की प्यास, जी भर के बुझाते।

मतदान-दिन से पहली वाली रात का नाम ‘कतल की रात ‘ ही विख्यात हो गया।

नोट देकर ,गउ के पूछ पकड़ा के, कबूलवाये जाते ,वोट मुरारी को दूंगा /दूंगी ,मुरारी का चाचा भी आ जाए तो मना कर् दूंगा/दूंगी।

एक -दो घंटे बाद छुपते-छुपाते मुरारी का चाचा,किसी गली से जो आ जाता ,फिर से गौ माता लाई जाती ,फिर झूमते-झामते ,कसमो का दौर चलता।दूसरे दिन वे इतनी पी लेते कि चार बजाते तक उनको होश ही नही रहता कि रात क्या बात हुई ?

उन दिनों निर्दलीय खड़े होने का अलग सुख था।कम पैसे में खूब नाम उछल जाता था।छूट-भइये नेता बनना अपने –आप में पचीसों जगह आराम देता था।पुलिस थाने में धाक जमना –ज़माना हो जाता था।जुए –सट्टे के कारोबार में फजीहत नही होती थी।अपने आदमी को छुड़वाना ,दुश्मन को बंद करवाना सहज हो जाता था।जमानत होती ही कितनी थी ,जब्त हुए तो लुटिया कहाँ डूबने वाली, जैसी सोच रखते थे बिना दल वाले निरीह ?

इलेक्शन के वे मजे अब कहाँ ?”जाने कहाँ गए वो दिन” टाइप इलेक्शन बस याद में रखने-रखाने की चीज हो गई है ?भले पाच सालो में आता था मगर भाईचारे के साथ आता।अपोजिशन वाले भी खुल के मिलते थे,रास्ते में दुआ सलाम लिहाज वगैरा करते।सम्मान देते- लेते थे।

उन दिनों इलेक्शन का पूरा माहौल, जैनियों के क्षमा –पर्व की तरह होता था।झुक-झुक के अपनी गलतियों के लिए क्षमा मागते उम्मीदवार।अपने लायक कोई सेवा होने का इसरार करते।हमेशा आपके काम आने का वादा करते ,नाली- सडक,साफ-सफाई का भर-पूर ध्यान रखने का वचन देते, वे लोग कमीशन के डर से यकायक लापता हो गए।

अब की बार के इलेक्शन में नजारा,ऊपर में बताये अच्छे चाल-चरित्र चेहरा से शून्य,माहौल के नाम पर “नन आफ द एबव्ह” वाला, फीका-फीका सा है।

नाच न जाने ......

हमारे आगन में कोई खराबी नहीं थी।

पुरखों ने तसल्ली के साथ तीस बाई चालीस का आँगन पुराने जमाने के नक़्शे के मुताबिक़ रख छोड़ा था।इतनी बडी जगह तो आजकल शहरों में, मकान के पूरे प्लाट की मुश्किल से होती है।और तो और फ्लेट वाले युग ,में आँगन शब्द ही शहरों से लुप्त होने लगा दीखता है।

आँगन को लेकर नाचने बाबत , हमारा बहाना बनाना, कतई शोभा नहीं देता।

हमे इसकी वजह से नाचना नहीं आया या हम नाचना नहीं सीख पाए. या आँगन के सीधेपन में कोई खामी थी।

आँगन लगभग ठीक था कमी या खामी जो थी वो हममें थी।

सौ फीसदी बात तो ये, कि सपाट समतल आँगन वाले घरों में, बुजुर्गो ने, हममें नाच –गाने वाले संस्कार ही नहीं डाले।

उन्होंने स्वयं कभी ठुमका लगाने की सोच रखी हो, तो उनके खानदानी ठाकुरपने को लानत है।लिहाजा ,नचाई-कुदाई जैसे सामाजिक बहिस्कार वाले दंडनीय अपराध से वे कोसो दूर रहे।

उनके जमाने में ये गैर जरूरी किस्म की अय्यासी, नहीं पाली जा सकती थी।लोगो को ‘मुह दिखाना’ पडता था और ‘मुह को दिखाने के काबिल’ बनाए रखने के लिए सैकड़ो किस्म के परहेज हुआ करते थे जो वे अपनी मूछ की कीमत पर करते निभाते रहे। आप ठीक समझे ,ये करो वो मत करो टाइप का वो बीता ज़माना हुआ करता था , सो वे लोग कोसो दूर ,नृत्य कला के निपट असंस्कारी जीव बने रहे।

हमारे दादा जी को अखाड़े के बाद, ‘रामलीला’ शौक में में रावण का रोल मिलता रहा। जिसमे उनके राक्षसी उछल कूद किये जाने भर का स्कोप था, लिहाजा नृत्य की किसी एक विधा से भी इस परिवार का कोई परिचय होते-होते बाजू से निकल गया।

शादी –ब्याह में जाते हैं, तो बडी शर्मिदगी सी होती है।

सब को बेमतलब ,बिना रिदम के फुदकते देखते हैं तो , जी तो मचलता है कि तू भी घुस ले भीतर, देखी जायेगी.......पर तुरंत नृत्य-अज्ञानता का बोध होते ही मन मसोस कर रह जाना पड़ता है।

बरात में, दुल्हे के ‘फूफाजी’ को ‘नचाने’ की जबरदस्त फरमाइश रहती है। जैसे ही किसी कोने से ये शुरू होती है ,हमें दुम दबा के खिसक लेने में भलाई नजर आती है।

कौन फजीहत कराये ?

लोग सेकण्डो में, फेसबुक में ‘फूफा-ग्रेड’ भौंडापन अपलोड कर देंगे।किसी को रोक कहाँ सकते हैं ?फास्ट ज़माना है।वो जमाने लद गए जब फूफा अपनी बेतुकी कमर हिलाई के नाम पर मुफ्त वाहवाही बटोर लिया करते थे।अब .....अब तो आपको वेल-ट्रेंड उतरना है मैदान में, वो भी यंग जनरेशन के बीच , वरना ........?कभी –कभी , मन खुद को धिक्कारता है,तू इतने बड़े आँगन का मालिक एक अदद डांस नहीं सीख पाया ,’टू बी एच के’ लोग वो भी बिना आगंन वाले कितने मजे से डांस किये जा रहे हैं देख ?

इन मानसिक द्वंद से उबरने के लिए ,बरात प्रोशेसन में, अपने किस्म के ‘फुफाओ’ को व्यस्तता ओढ़ लेने की जबरदस्त आदत होती है।

हम व्यस्तता दिखने के लिए ,लगभग बरात को लीड करने लग जाते हैं।कभी ट्रेफिक हवलदार की भूमिका में बरात के बगल से हेवी व्हीकल को साइड देते हुए, कंही बैड वालो को हाकते हुए........ अय ..आगे ...आगे बढो।मुन्नी .......अगले चौराहे पर ....मुन्नी बदनाम होगी ...भई यहाँ नहीं .....अगली जगह ....अभी तो बढ़ो ......बरात नौ बजे लग जानी है मुहूरत का समय खराब न हो ....। कुल मिला के डांस से परहेज .......

डांस के उन्मादी बारातियों में जबरदस्त उत्साह होता है।

’सपेरा –बीन’ डांस में सूट पहने हुओ को भी जमीन में लोटते देखा है , बशर्ते हलक के नीचे तीन –चार पेग उतरी हुई हो।उन्हें धुन की मस्ती के बीच दुल्हे के बाप पर तरस खाने का मौक़ा नहीं मिलता।बेचारा बाप कोसते रहता है कि काहे को इसे बरात में ले आया ,नाक कट रही है।वो बार-बार खीसे से रुमाल निकाल के नाक की सलामती को जाचते रहता है।

आवाज आती है, शादी का पंडाल करीब आने को है।

दो-तीन जरूरी गाने बाकी रह गए है, जिसमे अहम बराती-डांस निपटाना है ,एक तो ,सदाबहार ‘आज मेरे यार की शादी है ,दूसरा.... ले जायेंगे ले जायेगे ....तीसरा सीजन बेस्ट यानी लेटेस्ट रिलीज मूवी का हिट जो समय-समय पे कभी कजरारे ....,उ ला ला ....मुन्नी बदनाम हुई टाइप हुआ करता है ,का बजना-बजाना जरूरी होता है ।मैंने एक भी बारात ऐसी नही देखी जिसमे ‘मेरे यार की शादी’ वाला गाना बेरोकटोक बजा न हो।गिनीज रिकार्ड वालो को, इस गाने को बिना किसी वेरीफिकेशंस के रिकार्ड में शामिल कर लेना चाहिए।

बैण्ड वाले दो धुनों के अन्त्तराल में ट्यूनिंग करने के नाम पर मातमी धुन बजा डालते हैं, उनमे भी मस्त .उत्साही बाराती जन पैर थिरकाए बिना नही रहते।

आजकल ज़माना बदल गया है।बड़े –बड़े ‘नच- बलिए’ हो रहे हैं।घर में दिन-दिन भर शोर कोलाहल रहता है ,उची आवाज में केसेट चल रहे होते हैं, डांस की बकायदा ट्रेनिग दी जाने लगी है।बच्चो को नृत्य संस्कार में पारंगत बनाने का काम चालु हो गया है।

मुझे लगता है आने वाले दिनों में नृत्य पारंगत,ट्रेंड फुफाओ’ से बरात जादा गुलजार मिलेगी।

मंकी डांस ,लूंगी डांस ,एरोबिक,सर्कस डांस, सब कुछ होगा।

एक अलग किस्म का ‘डांस पे चांस’ मारते हुए फूफाओ का मजेदार स्ट्रीट शो .....आप देख के गदगद होते रहेंगे।

रोड शो ,हाईकमान और मै

मैंने कभी जिन्दगी में नही सोचा था, कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि मेरे नाम का कहीं रोड शो भी आयोजित होगा? बड़े आराम से ‘दाल-रोटी वाली जिन्दगी’ जी जा रही थी।

’बेटर हाफ’ ने कभी ‘चुपड़ी हुई की’ फरमाइश नहीं की,मगर इसका ये कतई मतलब नहीं कि हम ‘लो-प्रोफाईल’ वालो में से थे।

हमारे रिमोट-कंट्रोलर से, जब वे अच्छे मूड में हुआ करती थी ,कई जबरदस्त सुझाव आया करते थे।दस रुपिया फीट की जमीन, जिसका कीमत आज दो हजार रुपिया फीट की है, खरीदने का सुझाव देकर ,उनने अपनी बात का लोहा मनवा लिया है।

वो ताना देने से आज भी नही चूकती।आज ये जमीन, ये घर, लाखो का है, किसकी बदौलत ?

हम अपनी क्लर्की का, भला इस समझदारी भरे सौदे को माइनस कर, भला क्या नाज करते ?सो कभी-कभी उनकी कही बातों को, आजमा लेने में पति -धर्म की लाज समझते हैं।

एक दिन खाना परोस के ‘चटाई-कान्फेंस’ में उनने कहा, बुढापे की कुछ सोचे है ?

फकत पेशन से क्या ‘उद’ जलेगा ?

मै अप्रत्याशित प्रश्न से ,उठाया हुआ कौर वापस रखते हुए पूछा , मतलब ?....

वो बोली ,पहले खाना खा लो फिर बाते करते हैं।

मै समझ गया ,कोई प्लानिग पर श्रीमती जी आकर रुक गई हैं।

अक्सर बड़े-बड़े सुविचार ,बड़ी घोषणाओं की गवाह हमारी ‘चटाई’ रही है।

मैंने खाने पर, पारी समाप्ति की घोषणा की ,मुह तौलिये से पोछते हुए पूछा, अब बताओ ,क्या बोल रही थी ?

मै देख रही हूँ रिटायरमेंट के साल गुजरने के बाद आप कोई साइड का काम धंधा शुरू नहीं किये हो ...?कुर्सी तोड़ते रहने से कई बीमारियाँ घेर लेगी।किसी से मिलते-जुलते नही,कहीं आते –जाते नहीं।बस दिन-रात टी-व्ही,मोबाइल ,लेपटाप से घिरे रहते हो ,ऐसा कब तक चलेगा ?बुढापे में कौन पूछेगा ?

देखो !नई-नई पार्टियां खुल रही हैं कही घुस क्यों नही जाते?

बतर्ज श्रीमती ,हमने, कहा मान लिया।उनकी सुझाई पार्टी ज्वाइन कर ली।

उनकी सक्रियता पार्टी के प्रति अलग बनी रही।पता नहीं महीने –दो महीने में क्या गुल खिला कि पार्टी वाले ‘टिकट’ परस कर रख दिए ?

हमने उनसे कहा लो ,तुम तो पार्टी की कहती थी. वे टिकट टिका गए।अब समझो, रही –सही अपनी जमा पूँजी भी ख़तम.... ! तुम अपने को हरदम बहुत अकल वाली मत समझा करो ,किसी दिन ले डूबोगी !

उनने समझाया,गाठ की खर्च, कौन टूटपुन्जिया नेता करता है ?

दीवाल रंग –रोगन को छोड़ के ,दस-बीस हजार गँवा के खेल-तमाशा देखने में हर्जा क्या है ?

इस साल समझो, तीरथ -विरथ जाने के बदले, चुनावी गंगा में दुबकी लगा लिए समझेगे.... ,और क्या ?

“बेटर-हाफ“ के लाजवाब तर्क से, मुझमे कई बार अतिरिक्त ऊर्जा का संचार हुआ है।मै उसकी बात पर एक गहरी सांस लेता हूँ तो वो खुद समझ जाती है, कि ‘फेरे’ के दौरान दिए गए वचन का मै एकलौता हिमायती पति हूँ।

पत्नी की सक्रियता से कहाँ-कहाँ से चंदा मिला ,फार्म जमा हुआ ,लोग इकट्ठे हुए।कब घर.मोहल्ले,सड़को में मेरे नाम के नारे पोस्टर ,बैनर लगने शुरू हुए पता ही नहीं चला ?

बड़े रोड शो करने के पहले ,छोटे –छोटे रोड शो का रिह्ल्सल शुरू हुआ।पच्चीस-पचास मोटर-सायकल,स्कूटर वालों का जुगाड़ हुआ।उनमे पेट्रोल डलवाने मात्र से मुझे खर्च के स्टीमेट में रखे आधे पैसों का निकलना नजर आया।इससे पहले कि मै चकराऊ शहर के चक्कर का कार्यक्रम चालु हो गया।

जिस चौराहे पर बिना हेलमेट के स्कूटर चलाने में, पिछले पखवाड़े मुझ पर फाइन ठोकने के बदले, पच्चास रूपये जिस ठोले ने लिया था, एकदम उसी के सामने से रैली गुजरी।

मैंने स्कूटर नजदीक ले जाकर कहा ,आज क्यों ...फाइन –वाइन नही करेगे ?पन्द्रह दिन पहले यहीं फाइन ठोका था न तुमने ?वो मुंडी झुका लिया।

प्रजातंत्र में, आप कब किसकी मुंडी झुकवा लें कह नही सकते।

इससे पहले कि बाक़ी रैली वाले ठोले से भिड़ें –उलझें, वो समझदार चुपके से ,पचास निकाल के दे दिया।

मै मन ही मन मुस्काया ,चलो नेता बनने की पहली फीस तो मिली ,भले अपनी ही लक्ष्मी वापस क्यों न लौटी हो।

इस वाकिये से श्रीमती गदगद हो जायेगी।उस दिन वो पीछे बैठी ,हेलमेट नहीं पहनने पर जो उलाहने दे रही थी ,उलटे-सीधे फायदे नुकसान गिना रही थी ,अब क्या कहेंगी अंदाज लगाना मुश्किल है।

बहरहाल रिहल्सल वाली रैली में लोगों का बहुत तादात में तमाशाई होना, मुझे भ्रम में डाल रहा था कि, मेरी हवा तो नही बन रही ?

मुझे बड़े रोड शो का इन्तिजाम करना पडेगा।

हाईकमान को वीडियो फुटेज भेज कर, एक सेलेब्रिटी,एक स्टार प्रचारक का इन्तिजाम करने को कहा।

हाईकमान, फंड कम होने का रोना ले बैठी।पार्टी के पास फंड की कमी है।आप अपना इन्तिजाम खुद करो ....।

हमने कहा ,दीगर जगह अपनी पार्टी के बड़े-बड़े रोड शो हुए हैं ,कहाँ से आया फंड ?

हम कुछ नही जानते! एक रोड शो हमारे लिए नही किया तो रोड में हिसाब मागेंगे! ,वो भी ऍन इलेक्शन के पहिले।

दोस्तों ,”न्यूसेंस वेल्यु”’ भी दम की चीज है।इसे हिन्दी वाले अंगुली टेढ़ी करना भी कहते हैं।समझो हमने अंगुली टेढ़ी की ,पार्टी वाले जी जान से जुटे।

पूरे ताम-झाम के साथ रोड शो शुरू हुआ।

इतना मजा तो हमें अपनी शादी में घोड़ी चढने में नहीं आया था .जितना कि रोड शो की सजी जीप पर चढने में आ गया।

प्रायोजित फूल मालाये ,जो यहाँ चढती और दुसरे चौराहे पर फिर इस्तेमाल करने को निकाल के भेज दी जाती,पखुडियाँ वन टाइम यूज वाली थी जो जगह –जगह बरसायी जाती रही।

लोग “इस देश का नेता कैसा हो” के नारे जब लगाते तो छाती गज भर चौड़ी हो जाती।

पत्नी कनखियों से देख के यूँ शर्माती जैसे उसे हम पहली बार बिदा कराने ससुराल पहुचे हों ?पूरे रोड शो में हमारा कनखियों वाला अलग शो चलता रहा।ज़रा भी गुमान नहीं हुआ कि बासठवे पार किये हुए हैं।

पत्नी की थ्योरी में कि समझो इस बार ‘चुनावी गंगा’ में दुबकी लगा लिए ,मुझे सचमुच दम नजर आया ।

वोट, मशीनों-पेटियों में बंद हो गए हैं ,अब देखे परिणाम क्या आता है ?

कद नापने के तरीके

उसे इंची टेप के साथ लोग हमेशा देखते रहे।पहले वो बढ़ाई-गिरी याने कारपेंटरी का काम किया करता था।

‘गिरी’ आजकल का फैशन नुमा शब्द है, जो अचानक ‘बापू’ के नाम के साथ फिल्मी तरीके से जुड गया है।

“कुछ चुपचाप से करो मगर,हल्ला ज्यादा मचे”, वही‘गांधी-गिरी’ के नाम से चल निकला है, इनदिनों।

‘बापू’ कभी सपने में नहीं सोचे होगे कि वो इक्किसवीं सदी में सादा-‘गिरी’में अव्वल जाने जायेंगे।

‘सादागिरी’ और ‘दादागिरी’ के मिसाल के तौर पर मोहल्ले में दो लोग फेमस हैं।एक तो अच्छन मिया , जो जैसा पहले बताया कि, बढाई हुआ करते थे ,बाद में मेहनत ज्यादा, आमदनी कम देख दर्जीगिरी अपना बैठे, इंची टेप से मुहब्बत जो ठहरी ,साथ नही छोड़ पाए।

उनका कहना था,आजकल के लडके नए-नऐ फैशन के कपडे सिलवाते रहते हैं, सो काम बारो-महीने मिलता है।धंधा खूब चल जाता है ,उनके गले में ‘इंची-टेप’ टाई-बतौर लटकी रहती ,हरदम।

अच्छन मिया धंधे के सख्त पाबन्द ,सिलाई मशीन को सुबह आठ से रात आठ तक आराम ही नहीं करने देते।उनके कारिंदे, उन्हें ‘दुश्मनो की तबीयत खराबी’ का वास्ता देकर, इतनी मसरूफियत से बाज आने को कहते, मगर उनको काम में किसी का दखल जायज नही लगता।

अच्छन –मिया के शेरवानी या सूट पहने बिना कोई भी निकाह या शादी फीकी सी लगती।

धंधे के उसूल के मुताबिक जिसे जिस वक्त का वादा किए होते. उनको उसी मुहूर्त में वे कपडे थमा देते।

अपनी तरफ से उस दिन पूरी कोशिश के बावजूद अच्छन –मिया मोहल्ले के सबसे बड़े टपोरी का काम नही दे पाए।’टपोरी-भाई’ को दोस्त की शादी में शेरवानी पहन के जाना था।चेताया था कि टाइम पे काम होने का।मगर चूक हो गई।कारीगर बीमार हो गए।काम नही हुआ।अच्छन-मिया का कालर पकड़ लिया गया।

दादा-गिरी. जो उस दिन अच्छन –मिया ने देखी, उसी दिन से गले से टेप उतार के रख दी।लोगो ने लाख समझाया मगर टस के मस नही हुए।वे घुलते रहे।

टपोरी की ‘दादागिरी’ के काट ढूढने में उन्होंने मानो रिसर्च ही कर डाला।

एक ही उसूल पर थे, कि ‘कालर का बदला कालर’।

उनसे सूट-शेरवानी की लोग मिन्नत करते मगर वे दूकान पर कभी फटके ही नही।कारिन्दो और बच्चो के हवाले दूकान कर वे मुड कर नही देखे।

अच्छन–मिया ने टपोरी के ‘टपोरी-गिरी’ पर ‘अन्ना-गिरी’ की नजर रखना चालु कर दिया।

उसके कारनामो का सुराग लगाने में ज्यादा मशक्कत नही करनी पड़ी। कुछ तो जग-जाहिर थे मसलन किस नजूल जमीन को घेर रखा है,किस ठेके वाले के लिए काम करता है।किस साहब को जुए का हप्ता पहुचाता है वगैरा –वगैरा।कुछ कारनामे छिपे हुए थे ,फिरौती का काम बड़े बाश-नुमा लोगों के कहने पर कर चुका था।

अच्छन-मिया छुप-छुप के अर्जी देने लगे।सुराग यूँ पुख्ता देते कि साहबानों को ‘नहीं’ की गुंजाइश नही होती।टपोरी के होश फाख्ता होते रहे।

टपोरी हिल सा गया।

मोहल्ले-पडौस में खामुशी सी छा जाती जब टपोरी दहाड़ कर जाता कि, देख लेंगे जिस माई के औलाद ने उनको छेडा है।

टपोरी की नींद पुलिस वालो ने उस दिन हराम कर दी जब पूरे मोहल्ले वालों ने उस पर बहु –बेटियों के मुहल्ले में अश्लील गालियाँ देने और लोगों को जान से मारने-धमकाने का इल्जाम लगा के, धरना दे डाला।

वो लोगों के सामने खूब पिटा।पुलिस टपोरी को कालर पकड के खींचते ले गई।

अच्छन–मिया घर के अंदर घुसे,किसी खूंटी पर टंगे ‘इंची-टेप’ को बहुत दिनों बाद बहुत सादगी के साथ बाहर निकाल गले से टाई नुमा फिर बाँध लिए।

उन्हें लगा वे टपोरी का ‘कद’ ‘सर से पांव तक’ नाप चुके हैं।

प्रभु मेरे अवगुन

क्या प्रभु आप हमेशा मेरे अवगुन को चित्त में धर लेते हो?

अपोजिशन को ज़रा देखते भी नहीं। वहां कितना लोचा है।

प्रभु आपको मालुम नहीं जमाना बदल गया है।

हाईकमान के पास जाओ तो पूछते हैं, तुम्हारे कितने केस पेडिंग चल रहे हैं ? दो-चार बताओ तो वे कहते हैं ,हवा आने दो इधर दस-दस वाले लाईन लगाए फिर रहे हैं ।

टिकट बाटने वाले आजकल बायोडाटा जैसे पढ़ते ही नहीं।

कैश इन हेंड वाले कालम में दस-बीस करोड़ न दिखे तो आपका आवेदन रद्दी की टोकरी में झोल खाये पतंग माफिक गिर जाता है।

बात ये नहीं की हम कार्यालय बाहर फिरने वाले दलालो से न मिलें हो।

वे हमे साइड का रास्ता ऑफर कर चुके हैं मगर वे जमे नहीं। कारण कि बहुत छुटभैयों के नाम सामने आये ,उनके दाम भी ऊँचे लगे। वे कहते कि टिकट तो पक्की जानिये, पैसा उप्पर तक जाएगा।आप हमसे संपर्क के बाद सीधे कांस्टीट्यूएंसी में प्रचार हेतु जा सकते हो।

प्रभु इनका कांफीडेंस देख के लगता है, प्रजातन्त्र की नीव बहुत गहरी होते जा रही है। सबका साथ- सबका विकास को तरजीह देने का समय अच्छा निकल आया लगता है ?

प्रभु आप अन्तर्यामी हैं। आपको मैं जीतने पर कितना चढ़ाऊंगा खूब जानते हैं।

आपसे कभी धोखा किया हो तो कहें ?

प्रभु हमें लम्बी मार्जिन वाली जीत नहीं चाहिए, बस जीत चाहिए। प्रभु आपने सपने में हमे जो निर्देश दे रखे थे, सब का पालन करते रहे।

आपने कहा था अब नाली -सड़क के नाम पर मतदाता रीझते नहीं।

उन्हें विकास के झमेलों से भी कोई सरोकार नहीं, बस तुम्हारे आंकड़े बोला करें काफी है।

भक्तजन हमें ,-हमारे तम्बू में रहने का हमको बुरा कदापि नहीं लगता।

हम धर्म की हानि होने पर अवतरित होने का वचन दिए ,बंधे हैं तो कष्ट उठाने में शर्म कैसी। हमारी तो इस विषय में चिता करने की जरूरत नहीं ....।

और हाँ ये भी बता दें ,इसी नाम से मतदाताओं से अपना उल्लू सीधा करते जाओ .... भगवान .... यानी हम स्वयं आपकी मदद करंगे। समझे की नइ .... भोलू ?

प्रभु यही बात तो आपसे पिछले कई इलेक्शन मुलाकातों में हुई।

आप मुकर जाते हो। भगवान हो के ऐसा करना अशोभनीय है कहूँगा, तो आप मुझे यहीं खड़े-खड़े निपटा देंगे?

इस इलेक्शन की कई नई योजना की जानकारी दे दूँ। हमारी पार्टी ने गठबंधन किये हैं। छोटे छोटे दलो को झांसे में ले रखा है। वे सोचते हैं ,हम उनको जागीर थमा देंगे। मगर वे जीतने वाले कहाँ हैं ,हमे उनकी जात ,शक्ल ,मजहब वालो को सन्देशा भेजना है हम उनके खैरख्वाह हैं ,इससे दुसरे सीट पर फर्क गिरेगा।

प्रभु पार्टी ने आरक्षण के नाम का नया विंडो खोला है। नौकरी दें या न दें ,वे पाएं या ना पाएं हमे कहने- सुनने में लुभावना लगा ,भाषण देने में वजन फील किये रहते हैं , सो इसे भी लगा रहे हैं। प्रभु पिछली बार लोगों को कुछ कैश देने का वादा कर बैठे थे आप सजेस्ट करे,-- इससे कैसे निपटें ....? क्या कहा लिमिट बढा दें ...? दुगना कर दें, ना प्रभु ना ये उनके साथ ना इंसाफी होगी ... और हाँ ... अपने रांची-आगरा वाले सब पागलखाने ओव्हर क्राउडेड चल रहे हैं। हमारे इस बयान की असफलता पर उनको सम्हालने के लिए इन्तिजाम होने तक कुछ दूसरा बताएं।

देखो भक्त तुम लोग गंगा को 'बाढ़' की वजह से साफ होते हर साल देखते हो ,सफाई का बहुत सा पैसा इसी से एडजस्ट हो जाता है , तुम ... यानी तुम जैसे नेता -अधिकारी का इसे कमाई के नजरिये से देखना हमे अखरता नही ,कोई बात नहीं आदत सी हो गई है ...?

बताऊं ! इस बार मेरे कुम्भ इन्तिजाम में किये काम से मैं खुश हूँ। मतलब साफ है इसका मुआवजा तुम्हे नहीं मांगने पर भी दे जाऊंगा।

मैं तो शाबासी के लहजे में ,कहूंगा लगे रहो मुन्ना भाई....।

तुम जानते हो न ,डुबकी 'आस्था' की हो तो फल देने में हमारा डिपार्टमेंट कोई कोताही नही करता ....।

देखे अब की , -कैसे डुबकी लगती है ,कितने देर की लगती है .....?

-प्रभु की आज्ञा पर ठंडे पानी में जोर की डुबकी हर-हर गङ्गे के नाम से हम लगा बैठे ....

इस चक्कर में रजाई खिसक के , कमर से खूब नीचे चली गई .... लगा बहुत सा पानी मेरे नथुनों में घुस गया है।

गड़े मुर्दों की तलाश

ये राजनीति भी अब गजब की हो गई है।

ज़िंदा लोगों पर आजकल की नहीं जाती। मुद्दे आला किस्म के मिलते नहीं , सो मुर्दे उखाड़े जाते हैं।

राजनीतिज्ञ लोगों को आजकल फावड़ा-बेलचा ले के चलना होता है।

- क्या पता किस जगह किस रूप में क्या गड़ा मिल जावे?

एक अच्छे किस्म के, ताजा-ताजा, स्वच्छ, लगभग हाल ही में पाटे हुए, मुरदे की खुशबु नेता को सैकड़ों मील दूर से मिल जाती है।

एक अच्छा मुर्दा , किस्मत के खजाने खोल देता है, ऐसा जानकार, तजुर्बेकार, राजनीति में सैकड़ों चप्पल घिसे नेताओं का मानना है।

इन दिनों कनछेदी मेरे पास आकर ‘मुरदा पुराण‘ सुनाये जाने की जिद करने लगा।

गुरुजी ! आपने सन बावन से इस देश के पचासों इलेक्शन देखे हैं। आपके जमाने में कैसा क्या होता था ? इलेक्शन के कुरुक्षेत्र में वेद-पुराण के आप पुरोधा पुरुष हैं। मुझे लगा कनछेदी "बचे हुए अंतिम-पुरोधा " की तरह मुझे ट्रीट कर रहा है।

हम आपके तजुर्बों को अक्षुण रखना चाहते हैं।

उसके ये कहने से लगभग यकीन की हद तक , ”क्या पता आप कब टपक जाओ”, वाली कनछेदी की अंदरुनी सोच ध्वनित होने लगी।

कनछेदी हमें फ्लेश बेक में ले जाने की, गाहे-बगाहे भरपूर कोशिश करता है। वो कहता है अगर आप, हम जैसे आम लोगों का, या चेटिंग- सेटिंग में बीजी नौजवान पीढ़ी के बचे हुए समय में कुछ ज्ञान वर्धन करेंगे तो बड़ी कृपा होगी। मै कनछेदी को, इलेक्शन वाले किसी अपडेट से नावाकिफ रखना खुद भी कभी गवारा नहीं करता।

उसके अनुरोध को मुझे टालना कभी अच्छा नहीं लगा। मेरे पास इन दिनों समय-पास का कोई दूसरा शगल या आइटम, सिवाय कनछेदी के और कोई बचा भी तो नहीं  .....?  इसलिए उसे बातों के मायाजाल में घेरे रहना मेरी भी मजबूरी है। उसे पुराने किस्से सुनने और मुझे सुनाने का शौक बस यूँ ही पल गया है।

आप लोगों के पास समय है तो चलें, 'टेम- पास' के लिए कुछ गड़े मुर्दे उखाड़ लें ....?

सन बावन से सत्तर तक के इलेक्शन में, ‘लोकतंत्र के पर्व की तरह’ खुशबू थी, सादगी और भाईचारे से लोग इस पर्व के उत्साह में झूमते रहे।यूँ जीत -हार को संजीदगी से लेने का चलन था जीते तो ठीक वरना अपना क्या गया ....? इलेक्शन में चवन्नी भर का बर्दाश्त काबिल ही तो पैसा लगता था। धीरे -धीरे बाद में कुछ प्रदेशों में, कट्टा से वोट छापे जाने की शुरुआत हुई। बूथ पर काबिज हो के मजलूम लोगों के वोट के हक़ को छीन लेना नए फैशन में शामिल होने लगा।

आहिस्ता-आहिस्ता , कट्टा संचालक आकाओ ने सोचा इससे बदनामी हो रही है। जीतने में मजा नहीं आ रहा, वे अपने आदमियों से बाकायदा हवाई गोलियाँ चलाकर लोगो को सचेत कर देने की कहने लगे।

हिन्दुस्तानी नेता, चाहे कैसा भी हो, उनमें कहीं न कहीं से गाँधी-बब्बा की आत्मा देर-सबेर घुस ही आती है, वे अहिंसा का पाठ भी पढ़े होने के हिमायती बने दीखते हैं।

वे अपने लोगों को सीखा के भेजते, आप को पेटी उठाने से पहले बूथ पर ये जरुर कहना है कि, हम आपको लूटने-धमकाने आये नहीं हैं, हमें बस डिब्बा उठाना है। नेता जिताना है। वे डिब्बा उठाये चलते बनते। 'सत्यमेव-जयते-लोगो’ वाले खाकी वर्दीधारी, पोलिग बूथ के कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी, इस पुनीत कार्य को होते देखने में खुद को अभ्यस्त करते दिखते, वे मन ही मन ‘जान बची और लाखों पाए’ नामक नोटों को गिनने में लग जाते।

अब ये हरकते, प्राय कम जगहों पर, या कहें तो नक्सलवाद-आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों को छोड़ कहीं देखने में नहीं आतीं। उन दिनों मुर्दा उखाड़ने का झंझट कोई नहीं पालता था, तब केवल मुर्दे बनाने, टपकाने के खेल हुआ करते थे। सीमित जगहों पर खेला जाने वाला ,ये खेल था तो सांकेतिक मगर जबरदस्त था। एक चेतावनी थी, प्रजातंत्र पर आस्था रखने वालो चेतो, नहीं तो हम समूची बिरादरी में फैलने के लिए बेकरार हैं।

कनछेदी ! जानते हो इसकी वजह क्या थी ?

कनछेदी भौचक्क देख के, ना वाली मुंडी भर हिला पाता।

मै आगे कहता, राजनीति में आजादी के बाद बेहिसाब पैसा आ गया। अपना देश, गरीब, शोषित, दलित, अशिक्षा, महामारी, अंधविश्वास, झाड़-फुक में उलझा हुआ था। या तो बाबानुमा धूर्त लोग या चालाक नेता इसे ठग रहे थे। योजना के नाम पर बेहिसाब पैसा, सड़कों, नालियों, बाँधों में, ठेकेदार इंजिनीयर के बीच बह रहा था। बाढ़ में पैसा, तूफान में पैसा, भूकंम्प में पैसा, सूखे में पैसा। पैसा कहाँ नही था.....? नेताओं ने इन पैसों को, दिल खोल के बटोरने के लिए इलेक्शन लड़ा। लठैत-गुंडे पाले ......दबदबा बनाया ......मुँह में राम बगल में छुरी लिए घूमे।

एक ‘रोटी’ की छीन झपट, जो भूखों-नंगों के बीच हो सकती थी वो बेइन्तिहा हुई।

मेरा कहना तो ये है की कमोबेश आज भी आकलन करें तो कोई तब्दीली नजर नहीं आती, हाल कुछ बदले स्वरूप में वही है। अब, वोटर के दिल को जीतने का नया खेल यूँ खेला जाने लगा है कि गड़े हुए मुर्दे उखाड़ो।

बोफोर्स के मुर्दे उखाड़ते-उखाड़ते सरकार पलट गई। नेताओं के सामने नजीर बन गया।

पिछले किये गए कार्यों का पोस्टमार्टम, उनके कर्ताधर्ताओं का चरित्र हनन अच्छे परिणाम देने लगे।

घोटालो को, घोटालेबाजों को हाईलाईट किये रहना, पानी पी-पी के कोसना, गले बैठने तक कोसना फैशन बन गया। लोग मानने लगे कि, दामाद जी को सूट सिलवा दो तो आफत, न दो तो जग हँसाई।

परीक्षा पास करा के लोगों को नौकरी दो, तो उनके घर के मुर्ग-मुस्सल्ल्म की, उड़ती खुशबू सूघ के, घोटाले की गणना करने में बाज नही आते।

‘आय से ज्यादा आमदनी’ के मामले में, अपने देश में, बेशुमार मुर्दे गड़े हैं।

इनको तरीके से उलटो-पलटो, ,उखाड़ लो, तो, विदेशों से काला धन वापस लाने की तात्कालिक जरूरत नहीं दिखती। कोयला-माफिया की कब्र उघाड़ के देख लो, माइनिग वाले, प्लाट आवंटन, मिलेट्री के टाप सीक्रेट सौदे पर तो हम अपनी आँख भी उठा नहीं सकते।

जो है जैसा है, की तर्ज पर, मुंबई फुटपाथ पर सोये हुए बेसहारा ग़रीब माफिक जनता रात के सन्नाटे में कब लात की ठोकर खाने पर मजबूर हो जाए कह नहीं सकते।

ये एक-एक शख्श अतीत के गड़े हुए मुर्दे हैं।किन-किन मुर्दों को को कहाँ-कहाँ से उठायें ?

सब एक साथ खोद डाले गए तो चारों तरफ बदबू फैल जायेगी। महामारी फैलने का खतरा अलग से हो सकता है।

चलो ! स्वच्छ भारत के आम स्वच्छ आदमी के मन से सोचे...

इस प्रजातंत्र में, कई इलेक्शन आने हैं...।

अपनी हिन्दू परंपरा में ये अच्छी बात है ,हम मुर्दों को गड़ाने की बजाय जला देते हैं। शरीर जला देने के बाद भी, अविनाशी आत्मा का अंश फकत कुछ दिनों के लिए हमारे दिलों में गड़ा रह जाता है बस वही कनछेदी को बताना था।

कनछेदी की तन्द्रा भंग हुई। वह मायूस सा लौट गया।

नन्द लाल छेड़ गयो रे

उस जमाने में नंदलालों को छेड़ने के सिवा कोई काम नहीं था।

सरकारी दफ्तर ही नहीं होते थे, जहाँ बेगारी कर ली जाए।

अगर ये दफ्तर भी होते तो चैन की बंसी बजईय्या टाईप लोग, कुछ देर काम करते और ‘एक नम्बर’ के बहाने साहब को अर्जेंसी का वास्ता देकर, तालाब पोखर की तरफ खिसक लेते।उस ‘खुले शौच’ के जमाने में इतनी छूट तो मिल ही जाती थी।

वे पनघट-ब्रांड लड़कियों को इशारे-विशारे करना खूब जानते थे।

उन दिनों इत्मीनान की बात ये होती कि; किसी प्रकार के एक्ट का चलन नहीं था; सो खतरा भी बिलकुल नहीं होता था।

एफ आई आर,, नाम की कोई चिड़िया खुले आकाश में दूर-दूर तक उड़ा नहीं करती थी। खाखी,-खद्दर वाले लोग भी किसी बात को ‘इशु’ बनानें के नाम पर ,गली-गली ‘मुद्दे’ सुघियाते नहीं फिरते थे।

क्या मजे का जमाना था ......? बाद के दिनों में ,खाखी, खद्दर, टोपी, सप्तरंगी झंडे ने देश की ‘वाट’ लगा दी....!

आपने इस ‘वाट’ को ‘जेम्स वाट’ की तरह, दिमागी रेल इंजन दौडाने के फिराक में, अब पकड़ ही लिया, तो तफसील भी जानिये।

ये आपका बुनियादी ,प्रजातंत्रीय हक़ भी है, कि जिसने ‘वाट’ कहा है उसे वह एक्सप्लेन भी करे।

‘वाट’ को इधर मै छोटे-मोटे उठाईगिरी टाईप के लफड़ों में इस्तेमाल कर रहा हूँ, जो राजनीति के दैनिक क्रियाकलापों का हिस्सा बन गया है मसलन ,।नेता वादा करके वादाखिलाफी न करे ,’खाखी’ अगर माँ बहनों वाली डिक्शनरी न खोले ,’टोपी’ अगर झांसा न दे ,’झंडे’ को कोई लाठी के बतौर, उसे उठाने वाला, चलाना न जाने तो आजकल प्रजातंत्र के पाए डगमगाए से लगते हैं।

’बड़े वाट’ पर बात करने का जमाना ,दिन-बादर हैं नहीं।मुफ्लिसिये पर दस करोड़ की मानहानि वाली बिजली गिर गई तो, अपना कुनबा ही साफ हो जाएगा... ?

नब्बू एक दिन मायूस सा आया।भइय्या जी मजा नहीं आ रहा है .....।

उसके इस कथन के पीछे मुझे किसी नए किस्म की खुराफात के पर्दाफाश होने का आभास, छटी इन्द्रिय के मार्फत , तुरन्त हुआ सा लगा।

मैंने खीचने के अंदाज में कहा, जिन्दगी के ‘तिरसठ -पूस’ ठंडाये रहे, तुम्हे भुर्री तापते कभी न देखा आज कौन सी आफत आ गई जो कंडा सकेलने निकल गए .... बोलो .....?

भइय्या जी, बात ये है कि आजकल की राजनीति में दम नहीं है। हम रोज अखबार पढ़ते हैं ,आप भी देखे होंगे ....न छीन झपट,न जूतम पैजार .... न किसी के अन्गदिया पैर उखाड़े जाते ,न एक दूसरों की सरे आम वस्त्र उतारने की बात होती।सब सन्नाटे में बीत जाता है।

अपने मुनिस्पेलटी इलेक्शन में ही देखो लोग खड़े हुए, न झगड़े न सर-गला कटा।कोई पेटी उठाने का दम भरते नहीं दिख पाता।किसी जमाने का वो सीन भी याद है जब मवाली, कोठे में नोट लुटाने की तर्ज और स्टाइल में, बेलेट को धडाधड छापता और कह देता, बता देना ‘छेनू’ आया था।छेनू नाम का सिक्का चला के जीत-हार हो जाती थी।

मतदाता को दस-बीस जो मिल जाता ,उसे वह पाच सालाना बोनस बतौर स्वीकार कर लेता।कोई शिकायत या उलाहना देने की नौबत कब आती थी ? वैसे भी उन दिनों पानी लोग कम इस्तेमाल करते थे ,शौच-नहाना-धोना तालाब किनारे हो जाता था इस वजह घरों में पानी बहने बहाने या नाली की समस्या न थी।बच्चों को स्कूल में इतना पढ़ा दिया जाता कि रात को उनको सबक-होमवर्क करने की जरुरत न पड़ती थी, इसलिए बिजली की भी दरकार नहीं थी। नेता की चरण-पूजाई का स्कोप कम या नहीं के लगभग था।उन्हें कोई हारे या जीते से सारोकार नहीं होता था।

नब्बू ने आगे बताया ,भइय्या खबर है, अपने धासु बेनर्जी जो बड़े डाइरेक्टरों में गिना जाता है, अपने मिस्टर आजीवन कुआरे कन्हईया को लेकर पुरानी और नई तहजीब पर फ़िल्म बना रहे हैं।पांच हजार साल पहले की याददाश्त अपने हीरो को दिला बैठे हैं।उसका दिल नदी नालों पोखरों के आसपास मंडराते रहता है।हर नदी में फ्लेश्बेक है।रईस बाप हर कीमत पर अपने बेटे को इस फ्लेश्बेकिया बीमारी से निजात दिलाने के लिए उसके मुरादों वाली सीन एक्ट्रेस लंगोटिया कामेडियन सेट बनवा के रखता है, किसी ने उसे सुझाया यूँ तो आप पैसा पानी की तरह बहा ही रहे हैं तो क्यों न इसे शूट करके साउथ डब वाली फ़िल्म की शकल दे दी जाए।रईस को सुझाव उम्दा लगा सो पहले उसके बीमार लड़के के शौक का रिह्ल्सल होता है फिर उसी सेट में आजीवन कुआरा फिट हो जाते।

“कंकरिया मार के जगाया’ इस गाने के बोल फिल्माने के लिए बुलडोजर से कई किलोमीटर कांक्रीट रास्ते को उखाड़ कर, बजरी-पत्थर-कंकर डाले गए।हीरो ने एक कंकर उठा के मटकी फोडी सब निशाने की वाह-वाह में लग गए।हिरोइन इसी पलो की याद में, फूटे-मटके पर सर रख के अपने सोये(प्रेम में अज्ञानी) होने का प्रलाप कर रही है।

इंटर तक, पाच हजार पुराने मटका फोडू को, तत्व-ज्ञान मिल जाता है।अक्सर ये अचानक बिना साइंटिफिक रीजन के, तत्व-ज्ञान मिलाने वाला, अक्षम्य-अपराध ,अनेकों फिल्मी-स्क्रिप्ट की जान है और बाक्स आफिस में हजार- करोड़ कमाने का नुस्खा भी है, अत: किसी के पापी पेट को, लात न मारते हुए आगे बढ़ते हैं।

मटका फोडू हीरो, पहले मटका-किंग फिर बाद में, बाप की अंडर वर्ड वाली रियासत को सम्हालता है।

उसे घेरे रहने वाले, उसे किग-मेकर बन जाने की सलाह दे डालते हैं, जिसे पूरी तन्मयता के साथ वो निभाता है।डाइरेक्टर उसे ग़रीबों के साथ हंसना-खेलना सिखलाने के लिए विदेश ले जाता है।किसी के घर मातम में कौन सा मुखौटा होना चाहिये, इसकी बाकायदा तालीम दिलवाता है।भाषण के बीच लोगों से प्रश्न क्या पूछे कि, जवाब ‘हाँ’ में निकले,कब बाह चढा कर भाषण में अपनी भुजा दिखाना है, इन छोटी-छोटी हरकतों पर गौर करने को कहता है।

‘नन्दलाल’ जिसे आधुनिक हीरो बनाया अपनी पुरानी यादों को अचानक संसद में ताजी कर लेता है।बड़े-बड़े सांसदों मंत्री-मंत्राणी, किसी को नहीं छोड़ता।सबकी मटकी में उसे माखन होने का संदेह रहता है।मलाई खाते हुए वे लोग जो अब तालाब पोखर की ओर आना भूल गए उनके लिए वो खुद इन्साफ का कंकर लिए छेदने-छेड़ने के लिए तैयार दिखता है।

इति फ़िल्म पटकथा समाप्त।डाइरेक्टर, राइटर, हीरो हजार करोड़ की उम्मीद में।कुछ अति उत्साही आस्कर में ले जाने के लिए फार्म भी खरीदे लाये है।भगवान जाने आगे क्या हो ....?

नब्बू की बेसिरपैर की कथा का विस्तार, अगले एपीसोड में फिर कभी ...तब तक आप सेफ रहें .....

जड़ खोदने की कला

जंगल विभाग से उनका रिटायरमेंट क्या हुआ वे पडौसियो के लिए कष्ट दायक हो गए।कही भी चले आते हैं।तरह –तरह की खबर ,दुबे,चौबे,शर्मा ,द्वेवेदी सब के घरों का हाल उनसे मुह –ज़ुबानी पूछ लें।कहाँ क्या चल रहा है?उन्हें एक-एक की खबर होती है।

उनको , चूहों से अगर बच गए हों तो,घर के , पूरे साल भर के अखबार की खबरों को कुतरने में चंद दिन लगते हैं।

अखबार पढ़ने के बारे में वो कहते हैं कि जंगल के सर्विस में उनको स्टडी का मौक़ा नहीं मिला सो वे राजनैतिक –सामाजिक सरोकार से दूर थे।अब फुर्सत है सो अध्ययन –मनन में समय बिताने की सोच रहे हैं।

मैंने कहा ,फिर अखबार ही क्यों ?मनन –चिंतन के लिए साहित्य का भण्डार है ,पढते क्यों नहीं ?

वो बोले अब साहित्य-वगैरा पढ़ के कोई एक्जाम तो पास करना नहीं है।मोहल्ले –पडौस में ज्ञान बघारने के लिए रोज टी वी देख लो , कुछ अखबार बांच लो काफी है।

मैंने मन में सोचा ,पांडे जी का तर्क अकाट्य है।हर आदमी इतना ही ज्ञान रखता है इन दिनों।काम चलना चाहिए।ज्यादा ज्ञानी हुए नही कि समाज के लिए मिस-फिट हो जाता है आदमी।

मैंने पांडे जी को छेड़ते हुए कहा ,चुनाव-उनाव क्यों नहीं लड़ लेते।अभी पार्षद बनने का ,फिर अगले साल एम् एल ए बनाने का खूब मौक़ा है।

उसे लगा कि मैंने उनको बुढापे की वैतरणी पार करने का नुस्खा दे दिया है।

वो तुरंत लपक लिए , ऐसे आदमी मुझे भले लगते हैं जो बिना किसी तर्क के मेरी बात मान लेते हैं , बोले ऐसा हो सकता है?

अपने को एम्.एल.ए तक तो जाना नहीं है।खर्चा बहुत होता है ,पूरा पेंशन निपट जाएगा तो खायेंगे-पहनेंगे क्या ?

पांडे जी को जितना लाइटली मै लेता था उतने वो थे नहीं।जिस आदमी को पेंशन बचाने का शऊर हो, वो आर्थिक मामले में भला कहाँ, किसी के कहने में आ सकता है ? किसी के चढाने को वे उसी हद तक लेते थे जितनी वे चढ़ सकें।बहरहाल उनने मेरी सलाह को ,बतौर टर्निग –प्वाइंट नोट कर लिया।वे चले गए।

अगले महीनों तक वे कई बार टकराए , कभी सब्जी –भाजी ले कर बाजार से लौटते हुए , कभी किराने का सामान लादे हुए।हाय –हेलो से ज्यादा बात नहीं हुई।एक दिन वे रेल –रिजर्वेशन की लाइन में लगे थे ,मैंने पूछा ,पांडे जी कही घूमने जा रहे हैं क्या ?

वो बोले ,.... बोले क्या बस महीने भर की दास्तान सुनाने लगे।

किस–किस नेता से मिले ,कितनी पार्टी का चक्कर लगाया।सक्रिय सदस्य बनने के लिए कई एक पार्टी का मुआयना कर आए हैं।

अब अभी राजधानी जा रहे हैं।दो-तीन पार्टी हेड से मिल देखते हैं ,देखे क्या बनता है ?

मैंने कहा , पांडे जी मैंने तो यूं ही मजाक में कह दिया था ,चुनाव-सुनाव के बारे में।आपने सीरियसली ले लिया।मुझे अपने कथन के साथ –साथ , पांडे जी में भविष्य का पार्षद भी दिख रहा था, उनकी जीवटता को देखते हुए।

उनका रिजर्वेशन का नम्बर आ गया वे टिकट ले लिए।मेरा टिकट वेटिंग का निकला सो मैंने अपना निर्णय बदल दिया।

वो ऑटो से आए थे मगर वापसी में मेरे स्कूटर में चिपक लिए।

रास्ते भर लोकल पालटिक्स की बातो से ऊपर नहीं उठे।सब की बखिया उधेडते रहे।मेयर ने पानी की टंकी में किताना छेद किया।दीगर पार्षद क्या –क्या गुल खिला रहे हैं।विधायक रात कहाँ सोने जाता है।मुझे लगा महीने भर में पांडे जी ने थीसिस जितना आंकड़ा जमा कर लिया है।मन ही मन ,उनके खोजी चालूपन को दाद दिए बिना नहीं रह सका।

मैंने पूछा ये सब इतनी जल्दी कैसे जमा हो गया?बहुत मेहनत की होगी आपने ?

वो मंजे हुए अंदाज में कहने लगे ,हाँ मेहनत तो होती है।जंगल में हम लोग खूब मेहनत किए हैं।हम लोग मिनिस्टर –अफसरान को, शेर दिखने के लिए जो तरीका अपनाते रहे, वही यहाँ काम करता है।’खबर’ को बाहर निकालने के लिए ‘मचान’ बाँध कर बैठो।शेर को कुछ भूखा रखो ,चारा –पानी का सही इंतजाम हो तो, हांके में शेर आ जाता है।दफ्तर के छोटे –छोटेबाबू, बाबूनुमा अफसर या दफ्तर के बेवडो को, अर्जी पकड़ा दो वे सब लेखा-जोखा आप ही आप समझा देते हैं।ध्यान से सुनो तो वे, आकडे देते वक्त साहब लोगो के ‘गुणगान’ यूँ करते हैं कि वो तो पाक साफ हैं बाकी सब उनको ही पहुचता है।

मेरा स्कूटर कई बार, पांडे जी के बयान से दचके खाते-खाते बचा।मैंने मन ही मन सोचा पांडे ने कमाल का काम किया है।मैंने चलते-चलते पूछ लिया ,पांडे जी ,लगता है ,जंगल मुहकमे में पेडों को जम के उखाड़ा है आपने ।

जमी हुई जडो को अच्छी तरह से उखाडने वाले पांडे जी के प्रति, मेरी प्रजातंत्रीय-श्रधा जाने क्यों उंमड आई।

मेरे कटाक्ष पर वे ही.-ही कर हंस दिये।

मुझे हल्का सा ब्रेक लगाना पड़ा।घर भी करीब था वे उतर लिए।

मै पांडे जी के रूप में जाते हुए, भावी पार्षद को देख रहा था।उनमे मुझे एक कर्मठ नेता की आगामी छवि दिख रही थी।

शायद प्रजातन्त्र की नीव रखने वालो ने, उसकी इमारत की खिडकी – दरवाजों में ,कभी दीमक या घुन लगने के बारे में सोचा भी नहीं होगा?

बहरहाल , मुझे पांडे जी में कोई ओछापन नहीं दिख रहा था ,उस जैसे जुझारू आदमी को झोककर छोटी-मोटी परेशानियों से बाहर निकला जा सकता है।।मै अपने आकलन में अलग से जुट गया।

मै मन ही मन सोच रहा था ,उंनके पार्षद बन जाने पर, घर के सामने सड़क के बीचो-बीच खड़े, खम्भे को उखडवाने का, शायद मै उनको पहला काम सौपूं ?

सस्पेंडेड थानेदार का इंटरव्यू

वो थानेदार इंटरव्यू देने के नाम पे बहुत काइयां है। बड़े से बड़ा कॉड हो जाए वो मुह नई खोलता। ऐसे कारनामो में भी जिसमे उसे श्रेय लेने का हक होता है वहाँ भी चुप्पी लगा जाता है।

पत्रकार लोग मनाते हैं, उसके थाने वाली जगह में कोई भी ‘दारोमदार’ वाला वाकया न घटे, कारण कि चटपटी खबरों का पूरा सत्यानाश हो जाता है।

उसकी थानेदारी में सुबह-सुबह सब की शामत आए रहती है। नाइ को थाने में तलब करके,थानेदार साहब की शेविंग-ट्रीमिंग से दिन की शुरुआत होती है। एक अर्दली जूते को पालिश करवाने ले जाता है। दूसरा ड्राइक्लीनिर्स से ड्रेस उठाने जाता है। तीसरा, घंटे भर की मशक्कत के बाद बुलेट के एक-एक पुर्जे को साफ कर के तैयार करता है। उसे कडक ड्रेस और चमचमाते बुलेट से बेंइंतिहा प्यार है। बुलेट की आवाज में ज़रा सा भी चेंज हुआ तो मेकेनिक की खिचाई हो जाती है।

उनकी सोच है कि, कडकपन और रुतबे को, यही बाहरी तामझाम, ही तो पुख्ता बनाते हैं। जब तक फरियादी-अपराधी थाने की सीढियां चढते, काँप न जाएँ तो थाने और पोस्ट-आफिस में भला फर्क क्या हुआ?

वे जिस थाने के इंचार्ज बनाए जाते हैं, चार रात बिना सोए, गस्ती में गुजार देते हैं।

’गस्ती’ को वे शहर-बस्ती की स्टडी का सबसे खास मापदंड मानते हैं।

उनका कहना है कि अपराध सर्वव्यापी है। जहाँ अन्धेरा है वहाँ अपराध ,जहाँ सुनसान है वहीं उठाईगिरी ,जहाँ भीड़-भाड है वहीं पाकिटमारी ,और तो और, जहां भजन –कीर्तन है, वहाँ भी बाबाओं की धोखाधडी है।

एक पुलसिया सोच में हर जगह लोचा है, बस लोचन घुमाने की देर है सब सामने आ जता है।

सरकार ने ‘ला एंड आर्डर’ का डंडा पुलसिया हाथ में जिस आदि-काल से दे रखा है, तब से लेकर आज तक, जर, जोरू ,जिस्म ,जान ,माल-एहबाब की हिफाजत ही हिफाजत हो रही है। थानेदार इसे बिलकुल वैसा ही बताते हैं कि, महाभारत में सारथी मधुसूदन के रहने –न रहने का क्या फर्क पडता ?यकीनन ,बिना सारथी-मारुती , के रथ की धज्जियां ही उड़ गई होती। प्रभु ने अपनी अलौकिक शक्ति को जैसे ही अलग कर बताया, धुरंधर धनुर्धारी अर्जुन के पाँव के नीचे की धरती खिसक गई।

वे अपनी ड्यूटी पूरी मुस्तैदी से निभाते रहे। पंगा तब तक न हुआ जब तक बकायदा जुए के फड वाले ,सटोरिये ,उठाईगीर,बुटलेगर सभी तय रिवाइज्ड रेट पर हप्ता पहुचाते रहे।

इधर कुछ दिनों से नए इलेक्शन बाद, दादा किस्म के, विधायक के पालतू लोग, उभर आए। सब के सब नेता के ‘दाहिना हाथ’ होने की धमकी देने लगे।

‘हप्ता-महीना’ के व्यावहारिक लेन-देन के बदले, कोइ थानेदार से ठेंगा बताए तो अव्यवहारिक स्तिथी का पैदा होना तो बनता ही है ?

थानेदार के पास लम्बे हाथ वाले कानून भी होते हैं,जिसे वे प्राय: जेब में घुसाए रहते हैं। जेब से हाथ निकला तो सामने वाले को खामियाजा तो भुगतना पडता है न  ?

थानेदार ने बेरियर लगा दिया ,गस्ती बढ़ा दी। एक-एक ‘दाहिने हाथ के दावेदारों’ को चुन-चुन के घरों से उठाने लगे। सब की कमाई का जरिया बंद होने की नौबत देख, ‘आका’ लोग मौक़ा ए अपराध में कूदे।

उन सबों को ‘उपर के आदेश की मजबूरी बता कर हाथ खड़े कर देना थानेदार का आजमाया हुआ नुस्खा था।

नेताओं में तहलका मचा, वे भाग कर मुखिया की शरण में गए।

मुखिया ने कहा ,जहां तक हमारे थानेदार का एक्शन है ,उस पर तो हम कुछ करने से रहे। सब ‘टू द पॉइंट’ वाला मामला है।

तुम लोग थानेदार को किसी दूसरे तरीके से घेर-फंसा सको तो मामला बनेगा। नेता लोग अपना सा चेहरा लिए लौट आए।

थानेदार का, छुट-भइयों के स्टाइल में, स्टिंग की कइ कोशिशे हुई। काइयां लोग पकड़ में कब आते हैं भला?वे भी पकड़ से दूर थे।

कहते हैं हर कुते का एक दिन जरूर आता है ,हुआ भी वैसा ,एक मरियल सी गाय को एक समुदाय विशेष ने बाइक से ठोक डाला। गउ-माता परलोक चली गई। इस लोक में कुहराम मच गया। दंगे भडक गए। थानेदार को हवाई फायर करने की नौबत आ गई।

कलेक्टर का दौरा हुआ। फरमान निकला, ला एंड आर्डर, का ठीक से अनुपालन नहीं हुआ ,शहर में दंगे भडक जाने के पूरे आसार थे, थानेदार तुरंत प्रभाव से निलंबित कर दिए गये।

केवल हमारा चेनल, पहली खबर देने का ठेका लिए फिरता है, सो हम हालात का जायजा लेने पहुचे। हमारे बाद दुसरे चेनल वाले भी कूद-कूद कर बताने लगे ,थानेदार तुरंत प्रभाव से निलंबित।

हमने सस्पेंडेड थानेदार की ओर माइक किया।

हम लोग की इंटरव्यू लेने के पहले, इंटरव्यू देने वाले को खूब चढाते हैं। हमने उसकी प्रसंशा में कहा ,जनाब आपके थाने का एक बेहतरीन रिकार्ड है। सभी कस्बों से कम चोरी -डकैती ,लूट-मारपीट ,ह्त्या-आगजनी ,बलात्कार –किडनेपिंग के केस, आपके यहाँ पाए जाते हैं ऐसा क्यं,इसकी कोई खास वजह  ?

थानदार ने अपने डंडे को ऊपर की तरफ इशारा करते हुए कहा, सब ‘ऊपर वाले’ की मेहरबानी है जनाब। एक काइयां-पन से लबरेज जवाब हमारे सामने था,जिसके दो-तीन मायने तो लग ही सकते थे। ,

हमने पूछा ,आपको एक सख्त थानेदार के रूप में जाना जाता है। अपराधियों की पतलून आपके थाने में आपके डर से गीली हो जाती है ?

नहीं जी ,ये सरासर गलत है। हम तो बड़े प्यार से पुचकार के तहकीकात करते हैं। अब हमारे छूने मात्र से कोई अपने अधोवस्त्र को गीला होने से न रोक सके तो हम क्या कर सकते हैं ?

एक बात कहें ?...... लोगों में जो कानून का भय होता है वही उनके पतलून को गीला करता है जी। वे अपनी मुछो पर हाथ फिराने लग गये।

अच्छा आखिरी सवाल ,आपको सस्पेंड होने में कैसा लग रहा है ?

बहुत बढिया लग रहा है जी।

थानेदार हो, और सस्पेंशन-वस्पेशंन न हो, ये तो कोई बात न हुई जी।

बारी-बारी से प्रोग्राम बना होता है। ये अंदरूनी बात है।

हम ला-आर्डर वाले लोगो के ऊपर, ‘पबलिक के लिए मेसेज वाला कार्यक्रम’ भी चलता है। अभी सस्पेंशन हुआ है ,चार्ज –शीट मिलेगा ,इन्क्वारी होगी ,रुटीन है जी रुटीन ?

हमने देखा थानेदार के न तो चहरे की हवाईया उडी, .न शिकन आया ,न कहीं जू के रेगने का निशान मिला ,वे सर को तनिक भी नहीं खुजलाए।

ये हमारा पहला इंटरव्यू था, जिसमे थनदार के सामने ,हम ज्यादा घबराए लग रहे थे।

‘राम रसायन’ हमरे पासा .....

हमे शास्त्रों में पारंगत होने की घुन थी।वेद पुराण वाले शास्त्र तो नहीं पढ़ पाए।भौतिक, रसायन, जन्तु-शास्त्र में घुस गए। पी. जी., रसायन में करने के बाद पी. एच. डी. धारी डाक्टर बन गए।

पहले इसी बिषय से ज्यादा कन्नी काटते थे।कारण कि लम्बे लम्बे सूत्रों को दिमाग में बिठाए रखना तथा दिमाग और सूत्रों का संतुलन साथ बनाए रखना, असंभव सा जान पड़ता था।

एक बात दिमाग में जम के बैठे थी, कि एच. 2 ओ. जो पानी के अवयव हैं वही अवयव हवा के भी हैं। फिर हवा वाले दोनों अवयव,काहे नहीं मिल जाते ?सब पानी-पानी क्यों नहीं हो जाता ? बाद में पता चला, पानी बनाने के लिए ,हवा के एच.2 अवयव, और ओ. 2 अवयव को, ऊँचे दाब पर बिजली में फ्यूजन कराना जरुरी है।

विज्ञान का अपना फील्ड है,। उधर अनुमान-तर्क की कोई जगह नहीं होती।कल्पना के उड़ान भरने का, लिमिटेड स्कोप होता है।

अनुसन्धान को बूस्ट करने या इंजन को दागने भर की दिमागी ताकत चाहिए होती है।बाकी के प्रयोगों के लिए ,आपके द्वारा इस्तेमाल किये हुए चीज ही परिणाम दे सकते हैं।

बहुतों ने हमको मना किया, कि अमेरिका वाले रसायनज्ञं को वीसा देने में उत्साहित नहीं रहते उनको लगता है पता नहीं ये क्या गुल खिला बैठें ?

एक दिन हमसे किसी ने पूछ लिया ,आपने रसायन शास्त्र में पी.एच.डी. किया है, बता सकते हैं ये ‘राम-रसायन’ क्या बला है?

हमने कहा ,बचपन में हनुमान चालीसा के रिकार्ड में बजते कहीं सुना था “राम-रसायन हमारे पासा .......”

बिलकुल सही ......।करोडपति के प्रश्नों जैसा उचित जवाब पाकर,वे हमे दस हजारी जीत का हकदार मान गये ।बात और आगे नहीं बढी।मगर.......?

हमारे मन में शोध प्रबंध का नया अध्याय खुल गया।घर आते ही चालीसा खोला, सिवा इस एक लाइन के आगे सब सपाट था।

हमें लगा कि गोस्वामी जी को ‘राम’ में एच.2ओ. यानी ‘पानी’, यानी ‘जीवनसार तत्व’ माफिक, हजार गुणों वाला दिव्य रसायन सरीखा कुछ दिखा होगा ....?आज ‘पानी’ सरलता से, सर्व सुलभ ईश्वर की दी हुई सभी नेमतों में सर्व श्रेष्ठ है।इसीलिए राम को रसायन रूप को वन्दनीय बना दिया।

जिन लोगों ने राम के रसायन रूप का, आस्वादन किया उनकी वैतरणी पार लगते गई।

मुह में राम लाकर, बगल में छूरी (छोरी) लिए घुमने का आजकल अलग फैशन है।चाहे तो आप दोनों काम साथ-साथ कर सकते हैं यानी छुरी और छोरी को, राम वाली गांधी-गिरी के साथ कहीं भी चलाया जा सकता है।

राम के नाम को, ‘राम नाम सत्त’ हो जाने तक बखान करना, हिन्दू परंपरा में अपना अहम् मायने रखता है।कंधा देने वाले जानते हैं की एक राम का नाम ही सत्य है बाक़ी मिथ्थ्या है ,विनाशी है मिटने वाला है।

राम के रसायन में लपेट के मुर्दे में जान तो नहीं फुकी जा सकती मगर मुर्दा किसी मायने में कहीं से राम का नाम ही सुन ले, तो पानी में फेके हुए राम नाम लिखे पत्त्थर माफिक तर जाएगा।

मेरे पडौसी ने राम के नाम से मन्दिर बनाने का बीड़ा उठा रखा है।रसीद बुक ले के साल में दो बार आ पहुचते हैं।कितने का काट दूँ..... ?

मुझे चंदा कटवाने में मर्मान्तक पीड़ा होती है।”गई भैस पानी में” वाले भाव आते हैं।यानी गाँठ से जो भी दो उसका रिजल्ट आने से रहा ?अगला पिछले पच्चीस सालों से राम- राग अलाप रहा है।

उधर राम जी का बड़ा नाम, बड़ा बैनर, अगर न दो तो वैतरणी वगैरह का आगे जो इन्तिजाम होना है सब रद्द।कहीं खैर नहीं ....? उनसे पूछ लेता हूँ, भगवान जी का मन्दिर बन तो जाएगा न .....?

वे तरह-तरह की चौपाइयां खोलने लग जाते हैं, कि फलां जगह प्रभु ने ये कहा है वो कहा है।मै दबी जुबान से कहता हूँ ये सब तो गोसाईं जी के अपने विचार थे ....?

वे जान जाते हैं, अब दाल इधर ज्यादा गलाएगे तो दाल के जलने की गंध पडौस तक पहुँचने की नौबत आ जायेगी, सो वे नोट बिना गिने रख के आगे बढ़ जाते हैं।

मुझे अन्दर से हिदायतें मिलनी शुरू हो जाती है ,,,,,,क्या आप भी......? भगवान के नाम पर भी चार पैसे नहीं छोड़ते।बेकार शर्मा जी से बहस कर रहे थे।अच्छा तो है वे कुछ कर रहे हैं।आपने कभी दान दक्षिणा के बारे में सोचा ही कब ....?विदेश में बच्चे होने का ये मतलब नहीं की अपनी संस्कृति ही भूल जाओ।

वे मन्दिर बनाएं तो ठीक, न बनाएं तो ठीक।ये उनकी मरजी।कम से कम हमें तो संतोष होगा, हमने भक्त होने में कोई कमी न रखी ......।उनका पाप उनको ही लगेगा ...?एक दिन देखना प्रभु उनसे कैसा बदला लेंगे ....?वे ऊपर वाले हैं सब जानते हैं .....?

मुझे लगा कि इस रसायन-विद्या में ज्यादा शोध मंथन जारी रखूंगा तो सचमुच उपर प्रभु और नीचे साथ बिताने वाली देवी की मुझ पर कृपा दृष्ठि छिनती जायेगी।

सो हम भले और हमारा पानीदार एच.2ओ. भला।’राम रसायन’ को फिलहाल, जय राम जी की ......

सफाई का भूत

गनपत सुबह….सुबह निमन्त्रण कार्ड ले के आया।

कोई भी कार्ड देखते ही जाने हमको क्यूँ लगता है ,सौ से पांच सौ की बलि चढ़ने का परवाना आ गया।

हमने अखबार को तह करते हुए पूछा ,सुबह...सुबह ये क्या लिए फिर रहे हो ?

उसने कहा ,गुरुजी माफ करें, हमने इस कार्ड में आपका नाम डाल रखा है,वो भी बिना आपसे पूछे ?

हमने अपनी तिरछी निगाह कार्ड की तरफ फेकते हुए , चश्मा साफ करके कहा ,

क्या बात है कार्ड में,.... देखे जरा।उसने कार्ड बढाते हुए कहा ,गुरुजी हम एक किराया-भंडार खोलने जा रहे हैं आपको उसका कल उदघाटन करना है।

हम कार्ड को लिफाफे से मुक्त कर चुके थे।

हमारे सामने कार्ड का मजनूंन था “सफाई किराया भंडार’ शीतला वार्ड ,खाम तालाब पास ....।

फिर नीचे कुछ छोटे ‘फांट’ में किराया भंडार खोलने के उद्देश्य और विशेषताए छपी थी।

“‘देशव्यापी सफाई अभियान’ को मद्देनजर रख के, सफाई में लगने वाले सामान को तत्काल किराए पर उपलब्ध कराये जाने की उचित व्यवस्था।

सफाई अभियान से जुड़े किसी भी व्यक्ति या संस्था को कहीं भटकने की जरूरत नहीं।”

हम झाड़ू ,फावड़ा ,बेलचा, तगाड़ी ,कुदाल .गैंती,कचरा ट्राली , मंगवाई गई जगह पर तुरंत उपलब्ध करा देंने का वादा करते हैं।

बड़े सफाई अभियान में लगे सरकारी ,गैर सरकारी कार्यालय को ट्रेक्टर ,लोडर या अन्य बड़ी मशीन के लिए आर्डर सप्ताह भर पहले देना होगा।

कार्य कुशल सफाई करने वाले दिहाड़ी स्त्री-पुरुष भी आर्डर पर भेजे जायेंगे।

यदि किसी ख़ास ‘ड्रेस-कोड’ में मानवीय सेवा की जरुरत है तो प्रति नग चार्ज एक्स्ट्रा,यानी अलग लिया जाएगा तथा उपभोक्ता व्यक्ति या संस्था को, आर्डर हप्ते भर पहले देना होगा।

नोट :१. समस्त राजनीतिक दल वालों से अनुरोध है, कि संभावित किराए की पूरी राशि, एवं इस्तेमाल किये जाने वाले अनुमानित सामग्री की धरोहर राशि, अडवांस में जमा करवा दें। अन्यथा निर्धारित सेवाए देना या व्यवस्था का अनुपालन करना हमारे लिए संभव नहीं होगा।

२. यदि सफाई करते व करवाते समय फोटोग्राफी चाहते हैं, तो क्लोस..अप में लिए जाने वाले चेहरों की शिनाख्त के लिए उन व्यक्तियों का फोटो संचालक के पास जमा करवाये।

३. महापुरुषों के जन्म दिन या पुन्य तिथि पर मांग के जोर को देखते हुए अनुरोध है कि एडवांस बुकिंग करवा कर राहत पायें।

उद्घाटनकर्ता में, श्री .......के बाद खुद का नाम देखकर ,मै गनपत की तरफ मुखातिब हुआ ,भइये ,ये सब क्या खुरापात है ?

करना क्या चाह रहे हो ....?मेरे पल्ले तो कुछ भी नहीं पड रहा है।गनपत ने समझाना शुरू किया।

गुरुजी आप ये जो अखबार मोड़ कर अभी अभी जो रखे हैं ,देख लीजिये कोने-­कोने में सफाई की खबरें हैं।फलां दफ्तर में जोश खरोश के साथ सफाई मिशन चलाया गया।सफाई के बाद सभी कर्मियों को हाथ धुला कर लंच दिया गया।लंच में छीन.. झपट करते हुए कार्यकर्ताओं की फोटो हमारे विशेष संवाददाता ने खीची,बाए दफ्तर के चीफ मल्होत्रा साहब हाथ में झाड़ू लिए मुस्कुराते खड़े हैं..... ।

सरकारी दफ्तर ,गली मुहल्लों ,कालोनियों में सफाई करने कराने की होड़ सी मची हुई है।गुरुजी यूँ तो आदतन हर आदमी सफाई पसंद होता है ,उसके अन्दर के लिहाज को, कि कोई देख लेगा तो क्या कहेगा उसे इस काम को बेझिझक करने से रोके रहता है।हमारे बड़े प्रधान ने आदमी के इस झिझक को समूल निकालने का अच्छा प्रयास किया है।

हमें अपने काम को अंजाम देने का आइडिया यूँ आया , दरअसल हम बीबी की फरमाइश पर झाड़ू लेने निकले थे।

उनकी झाड़ू खरीद वाली क-नीयत-निस्वार्थ फरमाइश को पूरा करने में हमे आत्म-संतोष सा होता है।हम सोचते हैं इतने ही लिमिट के अन्दर काश सभी फरमाइशे हुआ करते।

खैर , उस दिन दूकान~दूकान पूछ~पूछ के थक गए, सब ने एक जवाब दिया कल दो अक्टूबर था न,.......... पूरे के पूरे झाड़ू थोक-थोक में लोग लेते गए ।जगह-जगह मानो सफाई का राष्ट्रीय पर्व सा मनाया जा रहा है।अगला स्टाक मंगवाया है आते ही ले जाइयेगा।

बस इसी से हमारी ट्यूब लाईट दिमाग को, चोक वाली बिजली मिल गई।

हमने सोचा, इस सफाई का स्कोप भविष्य में या कम से कम, आने वाले पाच सालों में कम नहीं होने का।

हमने झटपट इन्वेस्ट करने का प्लान बना लिया।अभी पचास का इन्वेस्ट किया है।बाद में इसमे इजाफा करंगे।’पेड़’ इम्प्लाई भी रखेंगे।इसके नेवी और एयर विंग भी चालू करंगे।

मै चौका नेवी ,एयर विंग .....वो कैसा क्या ....गणपत ज़रा पसर के बताओ ?

गुरुजी ! गंगा की नहीं सुने .....?

मिनटों में मेरे दिमाग में मोहल्ले की गंगायें हाबी हो गई।मैंने कहा कौन सी गंगा,क्या हुआ ....,तुम्हारे सफाई वाले नाटक में कोई रोल उनका भी है ....?

गनपत ,माथा ठोकते हुए कहा ,गुरुजी आप भी सीरियस बात को मजाक की तरफ नाहक ले जाते हैं।गंगा यानी गंगा माई ........पडौस की चम्पा चमेली गंगा की बाति-इच नइ हो रई....। गंगा माई की सफाई होने को है।माई की सफाई के बाद जनता की मांग लोकल नदियों ,तालाबों की सफाई की तरफ होगी न .... वई तो ..... ?

अपन बढ़ के हिस्सा लेंगे।,और वो ‘एयर विंग’.......

गुरुजी ..... आप को सब पता रहता है। विज्ञान-सिज्ञान आप पढ़े रहते हैं।हमसे पूछते हैं । देखते नहीं कितना ‘पोलुशन’ होते रहता है।ओजोन लेयर फटा जा रहा है।सफाई तो वहां भी चाहिए की नइ .....?

एकाएक, गनपत मुझे बहुत सुलझा हुआ दूर.. दृष्ठि वाला ,राजनीतिक पकड़ लिया हुआ आदमी लगने लगा।मुझे उसके बैठने के स्टाइल में भी फर्क लगा ,पहले सकुचाया सा कोई कोना चुन लेता था ,आज समकक्ष दिख रहा था। मै गनपत के गणित में उलझ सा गया।

मेरे पास, उसकी इच्छा शक्ति के आगे,काटने लायक तर्क की गुजाइश बाकी न रह गई थी ...।

मैंने उससे पूछ लिया,कल धुले कपडे में आऊ या रोजाना वाला चलेगा ,साफ –सफाई का मामला है,कपडे गंदे होंगे ही ...? वैसे ये मेरा पहला उदघाटन है ,मुझे अच्छा ही पहनना पड़ेगा ,

गनपत ! कहीं तुम उदघाटन बाद सफाई अभियान में तो नहीं लगा दोगे......?तुम्हे मालुम है ,मेरे पास बाहर पहनने वाला अच्छा सा सेट एक ही है ,कहीं दाग धब्बे लग गए तो ,तुम्हारी गुरुआइन तुम्हे घुसने न देगीं।

सफाई का भूत गनपत से उतर के मुझ पर चढ़ गया।

गनपत प्रस्थान बाद ,कल के भाषण के लिए, महीने भरके सफाई कालम वाली खबरें ,अखबार मै खंगालने-बाचने लग गया ।

एक शिष्टाचार सप्ताह ....

नत्थू ,रोनी सी सूरत लिए मेरे पास आया ,मैंने पूछा, क्या परजाई जी से खटपट हो गई है.....?

वो, .....,”आप तो अन्तर्यामी है प्रभु,” के भाव लिए ....’सही पकडे हैं’ के अंदाज में मेरे निकट कालीन पर बैठ गया।

मैंने कहा वत्स ....सविस्तार बयान करो ,बेखौफ कहो, ....’पत्नी की चढ़ी त्योरी’ को ध्यान में लाओगे तो सब कुछ ‘भीतर धरा’ रह जायगा।

यहाँ मै ‘प्रभु’ की भूमिका में खुद को रखकर, टी. वी. से मिले अधकचरे धर्म -ज्ञान की पोटली में से कुछ निकाल के, उसको देने की प्रक्रिया में लग गया ।.

यों तो ,......”भीतर धरा रह जाएगा” ,केवल इस एक वाक्य के तहत पोथी भर का ज्ञान दिया जा सकता है। परन्तु इसके लिए समय और सुपात्र की तलाश जरूरी है। हर ‘लाईट सब्जेक्ट’ पर ज्ञान को लुटाना लिटरेरी ठीक भी नहीं ......?

मेरी जगह दूसरा भी होवे तो,इस लाभ को दुल्लत्ती मारने की बेवकूफी नहीं कर सकता।

‘पत्नी-प्रताड़ित’ कम लोग ही खुल कर बयान देते देखे गए हैं।मन-मसोस कर रहने वाले घुटते- घुट जायेंगे, मगर जी से पत्नी के खिलाफ बोलने की हिम्मत जुटा पाने में, एक अघोषित-शर्मिन्दगी से दो-चार होते रह जाते हैं।

मगर नत्थू के साथ ऐसा नहीं था।उसका अडिग विश्वास मुझ पर था, कि इधर की बात उधर करने वाला ‘वायरस’ मुझमे नहीं है।

-बोलो भी,चुप रहना था तो ,मेरा समय खराब करने काहे चले आये .....?

-उसने, धरावाहिक ‘सास-बहु सीरियल’ में से , बहु वाला पार्ट रिलीज किया।

आपकी परजाई, पिछले कुछ दिनों से,अखबार में सोने के भाव कम होने की खबर क्या पढ़ रही है ,हाय-तौबा मचाये रहती है .....।

नत्थू जी,सिम्पल सी बात है ,आप अखबार लेना बंद काहे नहीं करवा देते ....?

आप भी.... सर जी .....? अखबार बंद करवाने से रोग मिटता तो मिटा लेते ,ये टी.वी. और उनकी सहेलियों के व्हाट्स ऐप और सोशियल मीडिया का क्या करे.... पल-पल की खबरें ब्रेकिंग-न्यज माफिक चलाते फिरते हैं।

बीस-तीस रूपये दाम भी सोने के , गिरते-बढ़ते हैं, तो आफिस में मोबाइल घनघना दिए रहती हैं।बोलो सोने में बीस-तीस मायने रखता है भला .....?

आफिस से थके-हारे जो वापस आओ, तो चाय-काफी के पहले ‘सराफा’ के उठाव-चढाव पर तप्सरा चालु हो जाता है।

किस बहनजी के घर कितने ग्राम,.कितना तोला आया ,उन्हें एक-एक माशा-रत्ती का हिसाब मालूम होता है।

वे हमसे मुखातिब कहती हैं , मालूम .....शर्मा जी के यहाँ पुरषोंत्तम मॉस के बाद,किलो के हिसाब से खरीदा जाने वाला है, ऐसा अपनी कालोनी की लेडीज क्लब में चर्चा है .....?

मै साश्चर्य पूछता हूँ .....साले की नम्बर दो की कमाई अब छलकने को आई ....।

मुझे बताना कब खरीदने वाले हैं ....? ऐ.सी.बी. ....(एंटी करप्शन ब्यूरो) वालो का रेड डलवा दूंगा .....?शरीफों की बस्ती में,तमीज नहीं है , रहने चले हैं ...नंबर दो वाले .....।

ये ल्लो ...आपको सही बात बताओ तो मिर्ची लग जाती है।जिनके पास है ,भाव गिरे पे खरीदने से हम आप कौन हैं रोकने वाले .....?

दूसरों के साथ लड़ने-भिड़ने की जुगाड़,चौबीसों घंटे लगाये रहते हैं आप।

कहे देती हूँ ऐसे बहाने से मै डिगने वाली नहीं......?शादी के बाद एक रत्ती भर लिवाये हो तो कहो ....? आपको जब भी बोलो कान की दिला दो,हाथ की खरीदो ,गला सूना लगता है ....तो अपनी शेरो-शायरी में घुस जाते हो .....कहे देती हूँ सब आग में झोक दूंगी .....एक दिन ....बहुत हो गया देखेगे-देखेगे की सुनते ....।

सर जी ,पानी तो बादल फटने जैसा सर से उप्पर होने को है ...आपके पास,’सोना नहीं खरीदने के हजार बहाने’; जैसी कोई किताब हो तो बताओ.....

नत्थू जी ,गृहस्थी के अच्छे स्वास्थ्य के लिए, पति का “स्वर्ण-दान समारोह” भी समय-समय पर आयोजित होते रहना चहिये....। समझदार पति इसे इन्कार करके कभी सुखी नहीं रह सकता ....।खैर ये सब तो सक्षम पति के चोचले हैं।तुम्हारे साथ अभी पत्नी-जिद से निपटने वाली समस्या का निदान होना पहली प्राथमिकता है ....?बोलो ऐसा ही है या ......

ठीक है ,दोनों तरफ देखते हैं .....।

तुमने परजाई से पूछा कितनी रकम है....?

हाँ पूछ देखा.... हमने कहा पैसे निकालो.... ,तो कहने लगी रकम,पैसा,.....? तनखा कभी हाथ में दिए हो जो हिसाब मांग रहे हो ....?ठनठन गोपाल रखा है .....?आज तक मेरी हर ख्वाहिश,मायके से पूरी होते रही .....होश है आपको .....?

जितने गिनवा के लाए थे, उसका चौथाई भी चढाये होते तो पाँव-आध किलो बदन पर फबते रहता ....।चार लोगो में शान से उठती-बैठती.......।

सर जी उनके मायका-पुराण चालु हो जाने के बाद मेरे पास डिफेंसिव-शाट खेलने के अलावा कोई दूसरा विकल्प बचता नहीं ....?

सर दर्द,आफिस में ज्यादा काम ,थकावट जैसे आम-आदमी वाले बहाने सूझते हैं।

डाईनिग टेबल पर रखी दवाइयों के डिब्बे से एक-आध गोली दिखाने के नाम पर यूँ ही गटक लेता हूँ।

मेरे तरफ से घोषित मौन पर, युद्ध-विराम पर, रात, दस बजे समझौता-वार्ता की पहल के तहत खिचडी परसी जाती है मै चुपचाप खा के सो जाता हूँ .....।

नत्थू जी , नारी-हठ का गंभीर मामला है।

ये सोना जो है ना ,युगों से अपना खेल खेलते आया है।सीता मैय्या भी स्वर्ण मोह से बच नहीं सकी थी ,उनने न केवल अपने लिए, वरन अपने पति के लिए भी विपत्ति को बुलावा भेज दी।

न प्रभु, स्वर्ण-मृग के पीछे भागे होते,न रावण सीता-मैय्या को उठा ले गए होते।खैर वे सब तो जैसे-तैसे मार-काट के निपट लिए ...अभी समस्या आपकी है .....?

कितनी रकम है आपके खाते में .....?उधर ख्वाहिश किस चीज की हो रही है ....?कितने तक आ जाएगी .......?

सर जी, डिमांड पाच-तोले की है ,लगभग डेढ़ लाख तक आ जायेगी ....।मै चाहता हूँ वो अपनी चादर की हैसियत से पांव फैलाना जाने ......

ऐसा करो, तुम्हारी कार की सेकंड हेंड वेल्यु भी इतनी ही होगी, उसे मेरे गैराज में डाल दो ,कहना कि हार के लिए बेच दी....।पैसा दो तीन दिनों में मिलेगा ,फिर हार ले लेगे ....।

और हाँ ...कल से शिष्टाचार सप्ताह मनाना शुरू कर दो .....?

मतलब .....?

मतलब ये कि खाने में एक-आध रोटी कम कर दो।रात को आफिस का काम फैला लो।सुबह मार्निग वाक् चले जाओ ,अगर घूमना पसंद नही तो सौ कदम दूर, चाय की दूकान में बैठ के अखबार पढ़ के वापस चल दो ......आफिस मोटर सायकल से आने जाने लगो .....एक, जी तोड़ के चाहने वाले धासू पति की छवि बनेगी जो बीबी की इच्छाओं के पीछे अपने तन-मन-धन को जी जान से लगाये दिये जा रहा है

सर जी,..... इन सबसे होगा क्या .....?

वो सारी...... कहके आगे-पीछे चक्कर लगाएगी .... जिद करेगी ,कार वापस ले आओ ....बिना कार के नाक कटती है .....जी .....।जब पैसे आ जायेगे, नेकलेस की तब सोच्चेंगे ......।

भाई नत्थू....,! मेरे इस सुझाव को अमल में लाने के बाद संकट टल गया की मुद्रा में निश्चिन्त मत हो जाना ....।

वैसे, परजाई जी, का हक़ बनता है ,कहो तो आज ही किसी ज्वेलरी शाप चलें ,कल सोने का कहीं भाव न बढ़ जाएँ ....?

कार और ज्वेलरी दोनों पाके,उधर से अगाध प्रेम की गंगा आखों से छलकने को होगी .... ,उसकी साक्षी बनने, मै चाय पर जरुर आउंगा ,तब तुम्हारी काबलियत की तारीफ करके, सोने में सुहागा कर दूंगा ....

चमक किस-किस की दुगनी होती है ....देखें ....... ?

शिष्टाचार के बहाने .....

पुलिस मुहकमे में फरमान जरी हुआ कि वे शिष्ठाचार सप्ताह मनाएंगे।

आम जनता का दहशत में आना लाजिमी सा हो गया।

वे किसी भी पुलिसिया हरकत को सहज में लेते नहीं दीखते।

डंडे का खौफ इस कदर हाबी है, कि सिवाय इसके, वर्दी के पीछे सभ्य सा कुछ दिखाई नहीं देता। पुलिस के हत्थे आप चढ़ गए ,तो पुरखों तक के रिकार्ड और फाइल वे मिनटों में डाउनलोड करवा लेते हैं।आप छोटे मोटे चोर हैं,तो लानत भेजेंगे की आपने कहीं बड़ी डकैती क्यों नहीं डाली।कारण कि बड़ी डकैती किये होते, तो आपका रुतबा-आतंक रहता।वे आपको पीटते कम सहलाते ज्यादा.....।यहाँ तो हर आने वाला, अर्दली- सिपाही से लेकर थानेदार लात धुन के चल देता है।यहाँ की भाषा ,व्याकरण माँ ,बहनों के कसीदे पढने से नीचे की., कभी रहती ही नहीं।

एक ‘ठुल्ले’ शब्द के विश्लेषण के लिए ,वे लोग इन-दिनों यूँ भटक रहे हैं,मानो चालीस पार करता हुआ बेरोजगार, अपनी शादी की चिंता में गंडे ताबीज के लिए भटक रहा हो ,हर पंडित को इस निगाह से देखता है जैसे वही उसकी डूबती नैय्या का आखिरी खेवन हार हो।

वे कवियों के पास पहुचे ,एक-एक कवि ने उनके जिरह को गौर से सुनकर कहा, भाई साब ,पिछले सौ दो सौ सालों के इतिहास में ये शब्द किसी शालीन कवि ने कभी श्रृंगार या वीर रस टपकाते हुए, इन शब्दों का प्रयोग कदापि किया हो , ये हम दावे के साथ अकाट्य ‘नहीं’ में कह सकते हैं.....।

हाँ....... इधर कुछ लंम्पटिये हास्य रस वाले, दो गली बाद आपको मिल जायेंगे।वे कलम घसीटू लोग,आजादी के बाद पैदा हुए हैं, शायद उनका ठुल्ला प्रेम कभी जागा हो ...? और प्रशश्ति में कुछ आय-बाय कह दिए हों....?

वे सोई जनता से ताली पिटवाने में माहिर लोग हैं, उन्ही से पूछ देखिये .....?

हास्य वालों ने घास नहीं डाला ,उनका सोचना था आये दिन इनके नाम से हम भजन संध्या करते हैं कभी ज्यादा बोल गए तो इन्ही माई-बापों के शरण में मुक्ति मिल सकेगी इस सोच में वे कहानीकारों की तरफ इशारा कर बैठे।

-वे कहानीकार के पास गए ,का भइये ,’इ ठुल्ला-वुल्ला की सुने हो का’ .....?

वर्दी की बिरादरी को कौन न्योतने की सोचे...? सो कहानीकार भी नको कर गए।उनने बाकायदा आलोचक की तारीफ की...। उनकी ‘पकड’ के विस्तार के बारे में बताया, उनके घर ,गली मोहल्ले का तफसील से, पता देकर उन्हें यूँ बिदा किया कि.वे दुबारा न आ सके।

आलोचक, ‘वर्दी’ को घर के सामने पाकर गदगद हुआ।

-ये आलोचकों की परंपरा है।वे सब तरफ के लतियाए हुओं का खूब सम्मान करते हैं।

-बड़े से बड़ा ग्रन्थ देख लें ,उफ नहीं करते।समीक्षा लिख मारते हैं।एक लेखक,जो रात-रात कलम घिस के जो निचोड़ ले के आता है, उसे वे गली के खजैले कुत्तो की तरह,बिरादरी में घुसने के पहले गुर्रा के, भौंक के भगा देते हैं।क्या बकवास लिखता है,,,,,,? ऐसा भी कहीं लिखा जाता है भला ......?भाषा नहीं, शैली नहीं, शिल्प नहीं.कथ्य नहीं और तो और शऊर नही लिखने का और लेखक कहाने निकल पडे हैं जनाब .....?

आलोचक की नजर ‘वर्दी’ पर पड़ी, तो उन्हें लगा उनको शाययद किसी ‘राष्ट्रीय सम्मान’ से नवाजा गया हो, जिसकी सूचना देने अर्दली आया हो। ऐसा उनका उनका तजुर्बा बोलता है, कलेक्टर लोग ऐसे कामो के लिए इन लोगो का इस्तेमाल कर लेते हैं।

अर्दली अपना स्वागत, अपनी औकात से बाहर होते देख, भौचक होते रहा।उसे समझते देर नहीं लगी कि आलोचक महोदय कनफ्यूजड हैं।उनने आने का सीधा मकसद ब्यान कर डाला।

थानेदार साहब आपके पास भेजे हैं ,वे ‘ठुल्ला’ शब्द का साहित्य-बिरादरी में प्रचलित मतलब जानना चाहते हैं।

आलोचक को पहले तो गर्व महसूस हुआ कि ‘वे पूछे गए” ...? ..मगर सन्दर्भ जानकार , अपने तजुर्बे में शायद पहली बार आघात लगता दिखा।

ठुल्ला.......ठुल्ला ....ठु....दो तीन बार बुदबुदाए .......वे कान खुजाने लगे ,,,,,टालने की गरज से वर्दी से कहा मै शाम को उधर थाने में आके मिलता हूँ..... कहना .....।

शायद बहुत दिनों से, कोतवाल साहब से रूबरू नहीं हुए तो लगता है ,मिलने का संदेशा भेजा है।अर्दली को अपने कोतवाल और आलोचक के बीच इस ‘अंतरंगता’ का भेद नहीं मालुम था...... वो फटाक से सेल्यूट की मुद्रा में तन गया।जो आज्ञा जनाब ....कह के लौट गया।

आलोचक ने, शब्द से ही अनुमान लगाया कि ये पद्य में प्रयुक्त होने वाला ये शब्द दीखता नहीं, और अच्छे लेखको द्वारा गद्य लेखों में यह लिखा गया हो ऐसा पढने में आज तक आया ही नहीं.....? भला इसके मिलाने की संभावना है कहाँ ......?कोतवाल साहब ने हिन्दी शब्दकोश को तलाश ही लिया होगा अत; उधर देखना बेकार है।उनको चालू भाषा की मीनिग से मतलब है।चलिए देखते हैं .....?

आलोचक इन दिनों, नेट चलाना भी सीख गया था,लिहाजा उधर झांकने की कोशिश करने पर पाया कि,आक्सफोर्ड डिक्शनरी वाले जब इस शब्द को अपनायेगे तो यूँ लिखेगे ; ठुल्ला ,”यह भारत में पाया जाने वाला एक ऐसा जीव है जो खाकी रंग के कपड़े पहनता है,जिसका पेट बाहर निकला होता है।जिसे सामने वाला, अपनी जेब कितनी ढीली कर सकता है ,इसका सटीक अंदाजा रहता है।” अरे बाप रे ......आलोचक ने इस मीनिंग को मन में ही दफन करने की सोच लिया। उधर के वास्ते कोई सस्ता ,सुन्दर टिकाऊ ही चल सकेगा ,नहीं तो रोज-रोज की थाना कछेरी ,कौन झेले .....?.

शाम थाना पहुचते ही , आलोचक ने, कोतवाल साहब को ‘कंसोल’ किया ,।साहिब ये अपने दिल्ली का लोकल ओरिजिनेटेड ‘वर्ड’ है। मुंबई में तो ‘मामा’ जैसे सम्मानीय शब्द इसके लिए ,कहे जाते हैं।लोग कहते हैं ये लोकल पैदा हुए शब्द ‘कठबोली’ कहलाते हैं , जिसके मायने कम ही निकलते हैं।

समझो , आम तौर पे जो काम से जी चुराने वाले होते हैं,सुस्त काम करने वाले होते हैं , उनके लिए वापरते हैं।और साहब जी, हिन्दी वाले विचार, तत्सम ,तद्भव के चक्कर में जानना चाहें तो माफी मांगते हुए, अपने रिसर्च का ज्ञान थोड़ा आपसे, आपसी समझ होने के नाते , बघार लेता हूँ .......?आलोचक ने कोतवाल से प्रश्नवाचक मुद्रा में देखते हुए चुप्पी साध ली.......। आलोचक जी,.... बयान... जारी रहे......यूँ भी हम आज फुर्सत में हैं......।..बड़े साहब की अर्धागानी एक हप्ते को मायके गई हैं ,स्टेशन में गाडी पकडवा आये हैं।मसलन,आगे वहां अटेंडेंस वगैरा का चक्कर नहीं है ......,हाँ तो क्या बताने जा रहे थे आप ......?

कोतवाल साहेब ...!,आप लोगों में ‘घ्राण’ शक्ति बड़ी तेज होती है ,कहे हैं लोग .....।

आलोचक जी, शुद्ध हिन्दी मत झाडो भाई..... अगर ‘घ्राण’ जानते तो ‘ठुल्ला’ भी हमको पता ही होता।

बताओ ‘घ्राण’ क्या होता है ?

साहेब इसे ‘सूघने’ की ताकत कहते हैं।इस शक्ति या ताकत के बूते, आप लोग जान लेते हैं कि किस अपराधी में कितना दम है ,कितना दे जाएगा...?

इसी शक्ति का दूसरा पहलू ये है कि,पैसों से बौने अपराधी देख के,आमतौर पर वर्दी वालों में तकरार चालु हो जाता है।

जहाँ देखे नहीं कि, आसामी तगडा नहीं है ,भाग गया है ,पेशी की तारीख में हाजिर करना जरुरी है, तो वे एक दूसरे पर जिम्मेदारी ठेलने लग जाते हैं, जा....ला ..... ढूढ के ....परजाई के खसम को .......? .’तू ला ..., नही..... तू ला’......।

-“ये तू ला ...तू ला ... की चिकचिक जब पब्लिक तक पहुचती है तो अपभ्रंश होते होते .....’ठुल्ला’ का पैजामा पहन लेती है।”

साहेब क्लीयर है ......?ये सब आफ दी रिकार्ड है साहेब ....आफिसीयल कुछ भी नहीं .......। आलोचक ने गर्व से उठते हुए कहा .....कोई सेवा का मौक़ा आगे भी दीजिएगा ...चलता हूँ ...।

आलोचक....! तुम यकीन से कह रहे हो न, ....?हमे ‘आई जी’ तक बात पहुचानी है ,अभी भी सोच लो ,इस शब्द का,कोई अपभ्रंश , माफिया, सरगना ,या किसी बहाने माताओं बहनों के चरण-रज तक तो नहीं जाता ना ......?

सर,भरोसा रखिये , आप डंके की चोट पर बता आइये .....।ठुल्ला ,कोई बहुत ज्यादा ठेस पहुचाने वाला ‘शब्द’ नहीं है।’आराम तलबी; से संबंध रखने वाला साधारण सा शब्द, कोई गाली भला कैसे हो सकता है...... हाँय .... ?

कोतवाल साहब को, लगभग करीब के मीनिंग जानने के बाद, कम्पेयर करने पर ,अपने थाने में प्रयोग आने वाले शब्दों से ज्यादा, ‘अफेनसिव’ नहीं जान पडा। वे दबी जुबान से मुस्कुरा बैठे ......।

“बेचारे आम आदमी ,इनकी औकात इससे ज्यादा की हो ही नहीं सकती .....?क्या खा के हम पर हमलात्मक (तमक के हमला करने वाले )बनेगे ?”

गलत मीनिंग वाला जूमला, हम लोगो के खिलाफ ‘फिट’ करके तो देखें .....!.एक-एक स्सालों के ‘मल-गमन मार्ग’ तक को सुजाने में, अपने जवान ‘कमी’ नहीं करेंगे।

पत्नी की मिडिल क्लास ,

’मंगल-परीक्षा’

आफिस से लौट कर जूते-मोज़े,खोलते हुए बेटर-हाफ को आवाज लगाया ,सुनती हो ......?

ये नासपिटो (नासा के पिटे हुए) ने हमारा सलेक्शन मंगल-ग्रह जाने के अभियान में कर लिया है।इसरो -बॉस ने हमें खुशखबरी सुनाते हुए मुबारकबाद दिया है ....।

पहले तो बीबी गर्व से साराबोर हुई ....।फिर आर्ट-विषय से एम. ए. पास के भेजे में, भूगोल और साइंस की मिली-जुली खिचडी, पक कर, कूकर-वाली लंबी सीटी बजी, तो यकायक ख्याल आया ,ये मंगल-गढ़ की बोल रहे हैं क्या .....?

उनने फिर स-अवाक पूछा.... क्या कहा ,,,,,मंगल-ग्रह यानी अन्तरिक्ष वाला ......? जाना है.....?

ये, अपने टीकमगढ़ से तो, करोडो मील की दूरी पर है, बतावे हैं ....?

हाँ ...करोड़ों मील दूर..... बिलकुल सही सुना है।लाखों की स्पीड वाला शटल भी, साल-भर में पहुचाता है।

तो बताओ आप ही को, काहे भेज रहे हैं ,आपसे ज्यादा पढ़े-लिखे,होशियार सक्सेना जी ,श्रीवास्तव जी को कहे नहीं भेज रहे .......?

मैंने कहा, पगली उन लोगों का फील्ड अलग है। वे लोग पर्चेस में हैं ,श्रीवास्तव जी एकाउंट सम्हालते हैं ,वे लोग क्या करेंगे .... क्या कहती हो वो तुम्हारे मंगल गढ़ में?

तो आप कौन से खेत में मूली बोने जा रहे हैं ....?नासा वालो को ,आप जैसे भुल्लकड की क्या दरकार पड गई .?

हम वहां ‘एनालिस्ट’ हैं.....।.एनालिस्ट माने..... तुम्हे क्या समझाएं ...?.समझो हम किसी लिक्विड-चीज में क्या- क्या, मिला-घुला है, इसकी जाँच करके बताते हैं ?

-आप क्या जाँच करते होगे.....? हमें शक होता है कोई आपकी कहे को मानते भी होंगे ....? हम जो फिछले दो माह से,दूधवाले को समझने-समझाने की कह रहे हैं , उस पर तो जूं नहीं रेंगती , दूधवाला निपट पानी जैसा दूध दे के पूरे पैसे गिनवा ले जाता है।उसकी जाँच कभी आफिस में कर आते कि नहीं .....?

खैर छोड़ो.... मंगल गढ़ में क्या जंचवाना है, ‘नाश- पीटो” को......

मैंने कहा ,तुम टाइम निकाल के, टी.वी. में सास बहु सीरियल के अलावा और कुछ भी देख लिया करो। ....कई दिनों से वे चिल्ला चिल्ला के बखान रहे हैं ....मंगल-ग्रह में पानी की खोज कर ली गई है।ये नासा वाले उसी पानी को,इस धरती में लाकर यहाँ जाँच-वाच करना चाहते हैं।वहां के पानी में, और यहाँ के पानी में क्या क्या समानता और असमानताये हैं ?

देखो उधर जा रहे हो तो, अपने घर के लिए भी एक ‘कुप्पी’ रख लेना।एक-एक चम्मच प्रसाद जैसे, मोहल्ले में और किटी वाली जतालाऊ औरतों में बाट दूंगी....?

क्या मतलब ....?

वैसे ही,जैसे लोग ‘गंगा-जी’ जाते हैं, तो अडौस-पडौस वाले बाटल में अपने लिए गंगाजल की फरमाइश कर देते हैं ....।

पगली !तुमने नासा-इसरो वालों को घास छिलने वाले घसियारों की केटेगरी में समझ रखा है ....?बहुत हुआ तो हम चोरी-छिपे, पेन के इंक को, उधर फेक के थोड़ा-बहुत तुम्हारे प्यार की खातिर ला सकेंगे ज्यादा की मत सोचना।आगे-पीछे सब देखना पड़ता है .... सी .सी. टी. वी. की जद में चौबीस घंटे रहना पड़ता है ,समझी ....।

लौकी,सेम-वेम के बीज तो, छोड़ के आ सकते हो......? मंगल में बसने वाली पीढियां अपने बच्चो को कहेगी कि ये लौकी जो देख रहे हो... साकू के पापा सालों पहले अपने साथ लाये थे ...?

- ना ...... वो भी नहीं....?फिर वहां पानी मिलने का क्या फ़ायदा

-हमने समझा पानी मिल गया है तो फसलें भी उगेगी।

आपके दीगर जरूरत की चीजों का बंदोबस्त भी करना होगा ,आप तो एक चड्डी भी धो निचोड़ नही सकते पता नहीं उधर कैसे मेनेज करेंगे ....?कल से बैगेज तैय्यार करने में भिड़ती हूँ ...?कब जाना है ..आखिर ...?

चार छ: सेट ,कच्छा, बनियान, टाई,मोज़े सब नये लेने पड़ेंगे।घिसे-घिसे को चलाए जा रहे हैं ....?दो तीन जोडी शर्ट-पेंट भी कल माल से ले लेंगे। अभी उधर, फिफ्टी पर्सेट आफ का आफर चल रहा है।

मैंने कहा आराम से ,.....वे लोग तैय्यारी के लिए हप्ते भर का टाइम देते हैं।

आपको मठरी-खुर्मी बहुत पसंद है ,कल से जितना ले जाना है ,बनाए देती हूँ ...।

मैंने जोर देकर कहा वे लोग, ये सब कुछ अलाऊ नहीं करते....।सब डस्ट-बीन में डाल देंगे ....?और हाँ .... वहां बाहर कहीं किसी को कुछ दिखाने का नहीं, बरमुडा ही काफी रहता है।हाँ ठंडी बहुत रहती है ..मगर .वे लोग उसका भी इन्तिजाम कर रखे होते हैं तुम्हे चिंता करने की जरूरत नहीं।

वैसे डार्लिंग ! ये मेरा पहला टूर होगा जहाँ से तुम अपने लिए कुछ भी नहीं मंगवा सकती .....?

-आप बीबी लोगों को नहीं जानते ....हम कुछ भी मंगवा सकती हैं ...।.कम से कम एकाध पत्थर, एडी घिसने ले लिए तो लेते ही आना।बड़े फक्र से किटी-बहनों को बता सकूंगी की मंगलग्रह के पत्थर से अपना रूप-रंग निखारती हूँ।

देखो अब, हप्ते दो हप्ते का मेहमान हूँ तुम्हारा ...!

.जी भर के खिलाओ-पिलाओ,प्यार-व्यार कर लो ..?

वो सकते में आ गई ...कैसी अशुभ बाते कहते हैं .....?बताओ वापस कब तक आना होगा ....?

शायद साल भर तो जाने का ही लगता है अब सोच लो ....

तो फिर आपको मै जाने नहीं दूगी ....भाड में जाए ऐसी नौकरी .....।पत्नी का भूगोल ज्ञान में अचानक भूकंप सा आने लगा जो धीरे-धीरे, सात-आठ डेसीबल की तरफ बढ़ने लगा।

बड़े साइंटिस्ट बने फिरते हैं नासा वाले, नाश पिटे ! मशीन काहे नहीं बना सकते ....?इतनी बड़ी-बड़ी खोज किया करते हैं ,एक छोटी सी ‘पानी-जांच मशीन’ बनाने के लिए कंजूसी क्यों कर रहे हैं .....?उनको हमारा ही मर्द दिखा.... जो आर्डर फार्मा रहे हैं ...?

और मै पूछती हूँ तुम कैसे मर्द हो जी ......?जो कोई भी आदेश पा के खुशी-खुशी चहकते घर में आकर उंची नाक करके अपनी बीबी को बहादुरी के किस्से बखान कर रहे हो ....?

मै कल सुबह ही, ‘झा अंकल’ से कहके आपके इसरो आर्डर को केसिल करवाने के लिए, पी एम से बात करने को कहूंगी।अपने सांसद आड़े समय में काम न आये तो क्या फ़ायदा .....?मै तुम्हे किसी कीमत में मंगल ग्रह में जाने नहीं दूगी।

मुझे अनजाने ही अपनी बेटर हाफ का, बेटर वाला, यानी सती-सावित्री वाले रूप का साक्षात दर्शन हो गया ।

चुपचाप शर्ट की उपरी जेब से कोई बिल नुमा कागज़ निकाल के ........टुकडे-टुकड़े कर दिया और कहा लो ,मेरा जाना केंसिल ......।

इसरो बॉस को समझो मै कल मना लूंगा।हाँ नासा वालों का हर प्रोग्राम बेहद टॉप सीक्रेट होता है अडौस-पडौस में मेरे दौरे की चर्चा नहीं करना वरना लेने के देने पड सकते हैं ......

वो लजाते हुए बोली, मुझे आप एकदम भोली समझे हैं क्या ...?.इतना दिमाग तो कम से कम है ही ....?मै मुस्कुरा दिया ....

मुझे लगा इस फर्जी एहसान तले, मेडम ‘सावित्री’ को लाकर कम से कम कुछ दिनों के लिए, अच्छा खाने- पीने और मस्ती का लाईट इन्तिजाम बखूबी कर लिया।

मन चंगा तो

एक बार संत रैदास के पास उसका दुखी मित्र आया,कहने लगा आज गंगा में स्नान करते समय उसका सोने की अंगूठी गिर गई।लाख ढूढने पर मिल नहीं सकी।संत रैदास ने पास में रखे कठौते (काष्ट के बड़े भगोने, जिसमे चमड़े को भिगो कर काम किया जाता था ) को उठा लाये , उसमे पानी भरा और अपने आगन्तुक मित्र से बोला ,चलो अपने हाथ को डुबाओ।मित्र की अंगूठी उस कठौते में थोड़ी देर हाथ घुमाने पर मिल गई।अब ये चमत्कार संत का था, कठौते का था,...या चंगे मन का था, कहा नहीं जा सकता मगर तब से, ये कहावत जारी है “मन चंगा तो कठौते में गंगा”

आदमी के मन में अगर कहीं खोट नहीं है,असीमित आत्मसंतोष है, तो सीमित साधनों में भी उसे सब कुछ उपलब्ध हो सकता है।पाप धोने के लिए गंगा जाना जरुरी है, ये हिन्दू के अलावा किसी दूसरे मजहब में प्रचारित नहीं दीख पड़ती।

कठौते से, गंगा में खोए सोने का मिल जाना वास्तविकता के आसपास यूँ भी हो सकता है कि, संत-सखा को सोने से ज्यादा कीमती, रैदास संत के उपदेश लगे हों .....?वो उसी पे संतोष कर लौट गया हो .......पता नहीं......?

कई बार यूँ भी होता है की हम जिस चीज को गंवा बैठते हैं उससे ज्यादा हमें उस पर बोल-वचन सुनने को मिल जाते हैं।जो चला गया...... वापस कब आता है....?’आत्मा’ या ‘चीज’ के संबंध में सामान रूप से लागू हो जाता है।आदमी अपने धैर्य को मर्यादा में रहने की सीख यहीं से देना शुरू कर देता है।

सब्र की बाँध को टूटने से बचाने के लिए जरुरी है हम किसी संत की शरण में यदा-कदा झांक लें।

शहर के ,’मर्यादा- बार’ में अपने बगल की टेबल से पहले पेग का प्रवचन, एक इकानामिस्ट चतुर्वेदी की तरफ से जारी था।बगल में तीन चार नव-सिखिया,बिल्डर,वकील,नेता लेखक जमे बैठे थे।अपना उनसे केजुअल हाय-हेलो जैसा था।आमने-सामने पीने- पिलाने में दोनों पार्टी को कोई परहेज नहीं था।

वे दूसरे पेग में, देश की सोचने पे उतारू हो गए।यार इस दिल्ली को बचाओ .....?

मफलर भाई क्या चाहता है आखिर ....?

दिल्ली के ‘कठौते’ पर काबिज हो गया है।

पूरी दिल्ली खंगाल लिया ,पता नहीं इनका क्या खोया है जो मिल नहीं रहा .....?

बेचारी जनता ने ६७ रत्नों से जडित कुर्सी से दी, इतनी इनायत कभी किसी पर नहीं की ....?

जनाब और दिखाओ ....और दिखाओ की रटी लगाए बैठे हैं.......?बिल्डर ने सिप लेते हुए कहा, .....है खुछ और दिखाने को नेता जी ,क्या कहते हो ....?

नेता ने, ‘बाबा जी का ठुल्लू’ वाला मुह बना कर, अपने ‘चखने’ पर बिजी हो गये।

वकील ने इकानामिस्ट से पूछा ,ये एल जी और केंद्र से काहे टकरा रहे हैं ......?

जनता से जो वादा किये उधर धियान काहे नहीं दे रहे बताव ....?

इकानामिस्ट ने अपनी बुजुर्गियत झाड़ते हुए कहा ,तुम लोगों को पालिटिक्स अभी सीखनी पड़ेगी।जनता से वादे निभाने के अपने दिन अलग से आते हैं।ये नहीं कि वादों के एजेंडे वाली कापी, शुरू-दिन से खोल बैठें।तुम लोगों ने एक्जाम तो खूब दिए होंगे,जुलाई से कभी पढने बैठ जाते थे क्या ....,?पढाई की तैय्यारी तभी होती है न .... जब एक्जाम के डेट सामने आ जाएँ।ये लोग भी तब कर लेगे।

ये लोग और किस पावर की बात कर रहे हैं .....?ट्रांसफर ,पोस्टिंग ,पुलिस पर कंट्रोल .....?लेखक ने सोचा तीसरी लेने के पहले उसे कुछ कह लेना चाहिए,वो जानता है....,दमदार वार्ता उसी की रहने वाली है ....।वो प्रबुद्ध है .....पिए-बिन पिए हरदम निचोड़ वाली बात कहता है ....

भाई सा ....देखो ये ‘पावर’ ‘कुत्ती’ चीज है,कुत्ती समझते हैं ना .... अच्छे-अच्छो का दिमाग खराब कर देती है।चुन के आ गए ,रुतबा नहीं है .....क्या ख़ाक कर लेंगे .....?

लेखक द्वारा भाई सा, को ‘भैसा’ बनाने में,दो ढाई पेग की ‘लिमिटेड’ जरूरत होती है।हाँ तो मैं क्या कह रहा था ‘भैसा’.... पावर न हो तो क्या अंडे छिल्वाओगे .....६७ लोगो के लीडर से ?

दो ,इनको भी मौक़ा ,करें ट्रांसफर ,बिठाए अपना आदमी ........’जरिया’ खुलने का ‘नजरिया’ साफ जब तक नहीं दिखेगा ये खंभा नोच डालेंगे ....?

ओय ,राइटर महराज ,ये ‘जरिया’ ,’नजरिया’ क्या लगा रखा है ,तू खुल के बोल नहीं पा रहा है आखिर चाहता क्या है बोलना ....,बिल्डर बोतल उसकी गिलास के मुहाने रख देता है .......।अरे यार मरवाओगे क्या ....चढ़ जायेगी .....।

चढती है तो चढ़ जाने दो राइटर जी ,पीने का मजा ही क्या, जब दिल की बात दिल में रह जाए ......?बोल क्या जरिया चाहिए ,ट्रांसफर ,पोस्टिंग ,पोलिस दहशत ....क्या लेगा दिल्ली के लिए ....?वे दिल्ली के मास्टर-प्लान बनाने में जुटे थे ......

मुझे लगा ,इनकी बातों का कुतुबमीनार अब-तब कहीं मुझ पर जोरो से न आन गिरे ....।

..मैं वेटर को आवाज देता हूँ ,ऐ सुनो .....बिल ले आओ फटाफट ......

न जाने बियर मुझे एकाएक कसैला क्यों लगने लगा।

मैं बपुरा बुडन डरा.....

डूबने का डर किसे नहीं सताता ....?अथाह समुद्र देख लो तो रूह काँप जाती है .....।जलमग्न होने का खतरा जब संभावित होता है तो जहाज का कप्तान भी जहाज छोड़ने को विवश हो जाता है।

ऐसा नहीं कि मुझे तैरने के बारे में जानकारी नहीं थी।मिडिल स्कूल के सिलेबस में,तैरने के सिद्धांत, मार्फत आर्कमिडीज, बच्चो-बच्चो को पढ़ाते-पढाते हमे भी समझ में आ गया था ,कि जो वस्तु अपने वजन के वराबर पानी हटालेती है, वो तैर जाती है।

हमने रिटायरमेंट के बाद के शुरुआती दिनों में, टाइम-पास के नाम पर ,तैरने की , छोटी-मोटी प्लानिग किये ,कोशिशे भी हुई। चलो ! अपने वजन के बराबर पानी हटा के देखें……., मगर हमारा ‘मिला- जुला वजन,’ मसलन एक तो फिजीकल दूसरा पानी से बैर रखने की सोच का, और तीसरा साहित्य बिरादरी में स्थापित किया हुआ वजन .पानी पर भरी पड़ा।इन तीनो के बराबर के वजन का पानी हम हटा न सके लिहाजा , डूबते-डूबते बचे। तैरने से तत्क्षण तौबा कर ली और किनारे बैठने वालों में हो लिए।

हम लगभग हांफते हुए सोच रहे थे, “जब जनाब आर्कमिडीज का सिद्धांत कायम नहीं हुआ था”, तो लोग या वस्तुएं किसके दम पे तेरा करती थी ?

इस तौबा-ऐ-तैराकी के बाद, कई अवसर अन्य फील्ड में,तैरने-उतराने के पैदा हुए , परन्तु एक बार, बाहर बैठने की आदत जो हो गई सो हो गई।

हमारे ‘किनारे बैठने’ की आदत की पैदाइशी आप समझते हैं तात्कालिक है .... ? नहीं ऐसा कदापि नहीं है।ये लक्षण अपने स्वभाव में शुरू से मिला हुआ है। स्कूल के दिनों में ,सर जी हमसे स्टाफ-रूम से चाक-डस्टर मंगवाते ,हम फक्र से ला देते। वे हमारी काबलियत पर विश्वास करके क्लास-मानिटर के ओहदे से हमे नवाज दिए। हमे बिना किसी तामझाम के कोने में दुबके रहने में जो अच्छा लगता था, मास्टर जी की निगाह ने, जाने हममे क्या देखा कि,, “किनारे बैठने की आजादी” हमसे छिन गई।पीछा छुडाने की गुजाइश नही दिख रही थी।या यूँ समझो ,उस उम्र के लिहाज से,वही पद भी सम्मानित जाना जाता था, यूँ जान के हम, पीछे की सीट पर, बैठ के क्लास में हल्ला करने वाले सहपाठियों की निगरानी में लग गए।इस बिना फायदे के काम में फायदे की जुगत बस इतनी होती कि मास्टर जी के लिए, स्टाफ रम से ‘चाक’ उठा के लाने में हमें कमीशन लेने में कोई बुराई नहीं दिखी ।आठ लाते ,छ: देते।’मानिटर ओहदे’ की इस कमाई से, मोहल्ले के बच्चों में चाक बांटने वाले ‘कप्तान’ के रूप में वाह-वाही पाने लगे।क्लास में रुतबा-दबदबा कायम होते दिखा।शायद यहीं से हमारी संगठन क्षमता का भी धीमे-धीमे विकास हुआ होगा।हम पर कभी किसी को कोई आर्टिकल वगैरा लिखना हो तो वे निशंकोच इस खुलासे को उदाहरण स्वरूप इस्तेमाल कर सकते हैं।यहीं से, हमें लगा कि ‘कुछ’ को देकर,’कुछ’ को धौस से या ‘कुछ’ को लालच दिखा के अपनी ओर हिलगाया जा सकता है।

आत्म विशवास में ये छोट मोटे इजाफे बरकरार रहने के बावजूद ,डूबने का डर हम पर समय-समय पर काबिज रहा। ये डर हमें बी.ए. के आगे पढने न दिया,लगता था हम इक्जाम हाल में पेपर देते-देते अपनी नैय्या डूबा लेगे ....।रही-सही इज्जत फेल होने में चली जायेगी।

हमें पकड़-पकड़ के लोग समझाते ,देखो लोग कैसे शेयर मार्केट मेनेज करते हैं।भाव बढ़ने और कम होने में कितना रिस्क रहता है,मगर वे अनवरत उसी में लगे रहते हैं।मेरी थ्योरी यूँ है कि, आप खरीदो तो शेयर सालो नहीं बढ़ता दूसरा खरीदे तो दो दिनों में लाखों कमा ले ......।ये लोग किस वजन का पैसा लगाते हैं जो इनका सिक्का हरदम तैरते रहता है ....मुझे आज तक पता नहीं चला ?

तुमने बंजी जम्पिंग देखी है ......?कभी रोलर-कोस्टर में बिठा दिया जाए तो प्राण ही निकल जाए।मेले में हवाई-झूले के नाम से जिसकी रूह कांपती हो, उसके सामने तो बाक़ी का जिक्र ही बेकार है।

हमें हर ‘रिस्क’ को, शक की निगाह से देखने की मानो आदत सी पड गई है। सभी ‘रिस्क’ में डूबने वाला पहलू पहले दिखता है....।

पानी में तैरते जहाज को समुंदर में देखना,लोगों को कितना सुकून देता है।यही जहाज प्रायोजित तरीके से आजकल समुंदर के किनारे की तरफ लाकर डुबाये जा रहे हैं।करोड़ों का क्लेम बूढ़े जहाजों पर बन आता है।प्राम्प्ट-डिस्पोजल की ये स्कीम अपने तरफ, सालों से लागू है,आपको ‘अलंग’ तक अपने जहाज ले जाने की जरूरत नहीं , जिसे जो कमाना है वो कमा ले।

मैं कुछ राजनीति के लंगर डाले हुए, बड़े –बड़े जहाज को, महाभारत के संजय भाव से, जब किनारों पर देखता हूँ, तो बहुत ताजुब होता है, वे बहुत निश्चिन्त होते हैं।शांत होते हैं।उन्हें आने वाले किसी तूफान की कोई फिकर नहीं होती।वे तूफान को महज ‘तूफान-एक्सप्रेस’ माफिक समझ के सोच लेते हैं, ये आयेगा,स्टेशन में रुकेगा फिर ... सिग्नल मिलते ही आगे चल देगा।

समुद्री तूफान क्या उखाड़ लेगा हमारा .....?कितना डूबायेगा देखें ....., जैसे परोक्ष भाव उनके देदीप्यमान मुखड़ों पर विराजे रहते हैं।उनके पाल-तिरपाल हवा में जरा से भी नहीं उड़ते-उड़ाते।, पता नहीं किस किस्म के ताने-बानों से बुने होते हैं।इनमे अपनी हैसियत से ज्यादा वजन के ख़्वाब लादे रहते हैं।

ये लोग राजनीति में, आज से बरस –दो बरस पहले मात्र ‘विपक्षी –जीव’ कहलाते थे......।इनका एजेंडा बहुत साफ रहता था,सत्ता काबिजों को बस उखाड़ो ,किसी सुरत में उखाड़ो....।. अब इनके नाम से ब्रेकिंग न्यूज चलते हैं.चिकी घोटाला,व्यापम घोटाला और न जाने क्या क्या .....हर घोटाले में अलग-अलग सौ ,दो सौ ,हजार करोड़ से कम के आकडे नहीं होते ......।दिन भर टेलीकास्ट होने वाले इन आंकड़ों का अगर जोड़ लगा ले, तो हाल-फिलहाल , बाहर के काले धन को लाने की जरूरत न हो ?

हमने दिमाग दौडाया तो पाया कि ,ये वे लोग हैं जिन्होंने मौसम अनुकूल पाते ही अपने लंगर हटाये।’जोर लगा के हय्या’ वाले नारो में,इन लोगों ने गंगा मइय्या,धरती मइय्या,सफाई, अच्छे दिन वाले ,नारे घुसा दिए, वादों के सौदागर ये लोग देखते-देखते नय्या के खिवय्या बन गए , इन्हें ड्राइविंग सीट मिल गई।ये बेखौफ तैर रहे हैं।

अब इनके आर्कमिडीज तेल लेने भी जाए, तो इन्हें बिलकुल फर्क नहीं पड़ता।

काश ड्राई पोर्ट वाली तैराकी के कुछ गुण हममे आ जाते......?काश कभी न डूबने जैसा ‘अभयदान’ हमे भी हासिल होता .....?

भैंस और लाठी की कथा

कल रात प्रभु मेरे सपने में आए और कहा भक्तजन तुम्हारे मायावी संसार में भैंस और लाठी को ले कर अनेक भ्रांतियाँ फैली हुई हैं। उसे ठीक करने की जिम्मेदारी मैं तुम्हारे कंधों पर डालता हूँ। तुम कोई जतन ऐसा करो कि लाठी से भैंस का सदियों पुराना नाता खत्म हो जाए।

प्रभु कार्पोरेट जगत के सी. इ. ओ. की तरह आर्डर दे के अंतर्ध्यान हो गए।

उन्हें काम लेना आता है। इन कारपोरेट वालों के लिए आप चाहे कितने पापड़ बेलो कोई गिनने वाला नहीं।

प्रभु का आदेश हो, और पालन न किया जाए, ऐसा बिरला ही होता है।

लोग जेब में अठन्नी ले के तीर्थ यात्रा पर निकल जाते हैं, प्रभु अपनी लीला से उनके हर स्टेशन में, कदम-कदम इंतिजाम किए देते हैं।

बस यही फर्क हिंदुस्तान और दीगर के मुल्कों में है।

उधर अठन्नी छाप को, आतंकवादी समझ के 'इन्कौनटर', के हवाले कर दिया जाता है।

बातों बातों में समय क्या बिताएँ... प्रभु ने हमें 'लाठी और भैंस' पर अनुसंधान करने की जो जिम्मेदारी दी है, उसे निपटाएँ।

अभी तक प्राप्त तथ्यों के माध्यम से जो जानकारी है, वो ये कि लाठी रखने के अनेक फायदे हैं। प्रमुख यह कि इसके जरिए भैंस को पाया जा सकता है।

पुराने जमाने में भैंस को खरीदा नहीं जाता था। भैंसें, कई आसपास ही घूमा करती थीं। जिसके पास दबंगई होती थी या जो लाठी को तेल पिलाए रहता था वही अपने घर हाँक ले जाता था।

उन दिनों लाठी को तेल पिलाने का अलग रिवाज था।

तेल पिलाई हुई लाठी दिनों-दिन मजबूत होते जाती है, ऐसा वे लोग सोचते थे। रंग, रोगन, पेंट लगाने का न वो जमाना था, न उन दिनों ये सब चीजें सहज उपलब्ध हो पाती थीं। सो तीज त्यौहार में इस्तेमाल किए हुए तेल का जो 'डढेल' बच जाए उसे लाठी के हवाले कर दिया जाता था।

दबंगई में 'तेल पी' हुई लाठी से लट्ठेबाजों के हुनर में चार-छह चाँद इकट्ठे लग जाया करते थे।

लाठी,किसी पेड़ के सीधे शाख को छाँट के बना ली जाती थी। बनने के बाद ये एक अच्छी, सीधी-सधी, कलाई से करीब आधी गोलाई वाली, पाँच सात फुट की लकड़ी होती थी। शाखा के गाठ को तरीके से छील-घिस के, चिकना तैयार किया जाता था।

पहले इस लाठी पर, अहीर, ग्वाल, यादवों का एकाधिकार होता था।

उस जमाने में जो तमंचा-रामपुरी रखने के जो शौकीन नहीं होते थे, वे अनिवार्य रूप से, अपनी रक्षा के लिए या दूसरों को धमकाने के लिए लाठी रखा करते थे।

सामाजिक प्रतिष्ठा के ये प्रतीक चिह्न भी होते थे।

चौधरी और ठाकुर कहलाने के लिए, आपके पास अनिवार्य रूप से मजबूत लाठी का पाया जाना अपेक्षित था।

बाद में यही कब, 'रायफल' में बदल गया' ये अब भी शोध का विषय है प्रभु।

एक लाठी ले के, पूरे गाँव को हिला के आया जा सकता था।

लाठी चालन की विद्या जिस किसी ने तन्मयता से ले ली समझो उसका नाम आस पड़ोस के ग्रामीण लिमका में दर्ज नाम की तरह' सामान के साथ जाना जाता था।

इस सम्मान को धक्का तभी लगता, जब इन जैसे, दस-पाँच के समूह को जमींदार इकट्ठे अपने 'पे रोल' में रख लेता था।

फिर ये 'लठैत' की श्रेणी के हो जाते थे।

'लठैत' का श्रम-विभाजन, व उनकी अल्प बुद्धि के मद्देनजर वे समाज में अपना सम्मानजनक स्थान नहीं बना पाए।

ये (लठैत) लोग आंचलिक पृष्ठभूमि से उठ कर शहरी सभ्यता में रम नहीं पाए।

बस रेल का टिकट कटाते ही, इनके हाथ पाँव फूलने लगते।

इनकी लाठी रबर जैसी लुंज-पुंज पड़ जाती। यही हाल शहरी पुलिस को देख के दुगना भी होने लगता।

अब भैंस को लें, बेचारी दूध देना बखूबी जानती है। इसका ज्यादा इस्तेमाल प्रायमरी स्कूलों में निबंध लिखने में किया जाता था। उस जमाने में बच्चे सिवाय भैंस के कुछ देखे भी नहीं होते थे। आज के बच्चे रेल, हवाई जहाज, मेट्रो और डिज्नीलेंड आदि हजारों चीजों पर फर्राटे से लिख-पढ़, बोल सकते हैं।

भैंस के निबंधों में एक राष्ट्रीय समानता होती थी 'वही चार पैर, एक पूँछ, गोबर देने की बाध्यता प्रमुखता से व्यक्त की जाती थी। कहीं क्षेत्रीय-स्थानीय या राज्य की सीमा का न बंधन न उल्लंघन।

सब भैसों की एक गति थी। कोई नहीं कह सकता था की तमिल का 'मावा' महाराष्ट्र, गुजरात से जुदा है। घी बना लो, लस्सी छाछ पी लो, पंजाब से हरियाणा तक के भैसों की, एक वाणी एक जुबान एक स्वाद।

इस निरीह प्राणी पर' जाने क्यूँ लाठी का आतंक युगों तक पसरा रहा?

सार बात ये कि भैंसें' डंडा रखने वाले से भी कम दिमाग वाली होती है।गरीब की लुगाई जैसी हालत रहती है इनकी 'जिसे देखो वही हड़काए दिए रहता है।

भैंस की जरूरतें भी कम होती हैं, दिन भर मैदान में चारा चर के वे काम चला लेती थीं। आजकल वो भी मय्यसर नहीं, मैदान प्लास्टिक-पालीथीन से भर गए हैं। उनके पेट में जाने अनजाने यही घुस रहा है।सरकारी आँकड़ों के आडिट में 'भैसों के साथ चारा खाने वालेलोगों में बड़े अफसरान, संतरी और मंत्री भी शामिल पाए गए।

प्रभु आप तो स्वयं जानते हैं, हमारे देश में जानवरों के या बेजुबानों के 'हिस्से' में से 'मारने वालों' की कमी नहीं।

प्रभु जी हमने लोगों को कहते सुना है, आपकी 'लाठी' बेआवाज होती है?

अधर्मी लोगों का धर्म-संकट

धर्म-संकट की ‘घड़ी’ बहुत ही सात्विक, धार्मिक, असहिष्णु, असामयिक उत्पन्न होती है।

कब अहिंसावादी को हिसा पर उतर जाने को कहे कब समाजवादी को पूंजीवाद की तरफ धकेल दे ,कब राजनीतिक को घोर दलित के घर पानी पीने को मजबूर कर दे कहा नहीं जा सकता ?

आये-दिन इस संकट से जो रूबरू होते हैं ,इसकी वे ही जानते हैं ।

धर्म-संकट में घिरते हुए मैंने बहुतों को करीब से देखा है।

यूँ तो मैंने अपने घर में बोर्ड भर नहीं लगवा रखा है कि, यहाँ धर्म-संकट में फंसे लोगों को उनके संकट से छुटकारा दिलवाया जाता है,पर काम मै यही करने की कोशश करता हूँ।’

बिना-हवन , पूजा-पाठ,दान-दक्षिणा के, संकट का निवारण-कर्ता इस शहर में ही नही वरन पूरे राज्य में अकेला हूँ।

हाँ ये दावा करने की कभी हिम्मत नहीं हुई,अलग बात है। अगर दावा करते हुए , ये बोर्ड लगवा देता तो शहर के तकरीबन ९० प्रतिशत धूर्त, ढ़ोगेबाज, साधू, महात्माओं की दूकान सिमट गई होती।

मेरे जानकार लोगों का यही मानना है ।

शर्मा जी ने अपने रुतबे को चार चाँद लगाने, पहलवान पाला ,उस आतंक का नाम ‘शेरू ’ रखा।दबंगई से उसका वास्ता जरुर था , मगर कोई कहे कि आपके शेर ने मोहल्ले से बाहर कोई रिकार्ड तोडा है ?शर्मा जी बगल झांकते हुए सरमा जाते।

रोजाना उसे तंदरुस्ती और सेहत के नाम पर अंडा, दूध, मांस, मटन मुहय्या करवाते।उपरी आमदनी का दसवां, सत्कर्म में लगाने की सीख,टी व्ही देख देख के उन्हें स्वत: हो गया था।

शर्मा जी को उनकी इमेज में इजाफा न होते देख, किसी ने सलाह दी कि आप बात-बेबात एरे- गैरों पर लुटाते हैं ,यही बाद में आप पर हाबी हो जाते हैं , लोग ज्यादा की इच्छा रखने लगते हैं।

गनीमत ये खून –मर्डर नहीं करते वरना .....।

बेहतर हो कि आप कोई बेजुबान मगर गुराने- भौकने वाला ‘कुत्ता-टाइप’ जीव पाल लें ।इमानदारी- वफादारी के गुणों से ये लबरेज होते हैं।बी.पी. टेंशन को रिलीज करने के ये कारक भी लोग बताते हैं। विदेशों के खोजकर्ता इस बात की पुष्टि अपनी रिपोर्ट में आए दिन करते हैं।

इतनी समझाइश के बाद शर्मा जी की मजबूरी बन गई, वे पालने की नीयत से ‘सीजन’ को खरीद लाये।कुत्ता से ,डागी फिर सीजन बनते- बनते आज फेमली मेम्बर के ओहदे पर शर्मा जी के घर सेवारत है।

एक तो वे बाम्हन उपर से सीजन की नानवेज डाईट, उनके सामने धर्म-संकट ...?

कुत्ता है तो इस संकट की शुरुआत यहीं से होना था। उस पर , उनकी पत्नी का कुत्ता-नस्ल से परहेज, डबल मार किए रहता था।

शुरू- शुरू में निर्णय हुआ कि डागी के तफरी का दायरा घर के आँगन और लान तक सीमित रहेगा। मगर डागी कह देने मात्र से कुत्ता-नुमा विरासत का त्याग नहीं हो जाता। दैनिक कर्म के लिए बाधाये भी भरपूर रहती है।शर्माजी एडजेस्ट करने में माहिर जाने जाते हैं, इसे उस नस्ल ने बखूबी पहचान लिया। सूघने के माहिर जीव के लिए, बतर्ज बाएं हाथ , बाएं पैर की बात थी ।

उसे पता चल गया कि, मालिक उपरी-कमाई वाले हैं, सो वो पूरे दस कमरों के मकान की तलाशी एंटी-करप्शन स्क्वाड भाति कर लेता।

शर्मा जी को तसल्ली इस बात की थी कि हाथ-बिचारने वाले पंडित ने आसन्न-संकट की जो रूपरेखा खीची थी, उसमे यह बताया था कि जल्द ही, छापा दल की कार्यवाही होगी।

वे सीजन की सुन्घियाने की प्रवित्ति को उसी से जोड़ के देखते थे।

वो जिस कमरे में जाकर भौकने या मुह बिदकाने का भाव जागृत होता ,फेमली मेंबर तत्क्षण , उस कमरे से नगद और ज्वेलरी बिना देरी किये हटा लेते।

शर्मा जी, शाम को आफिस से लौटते हुए,फेमली गुरु-महाराज से, कुत्ता–फलित-ज्योतिष की व्याख्या, सीजन की एक-एक गतिविधियों का उल्लेख कर, पा लेते।

पंडित महाराज के बताये, तोड़ के अनुसार दान-दक्षिणा ,मंदिर-देवालय, आने-जाने का कार्यक्रम फिक्स होता।

पत्नी का इस काम में भरपूर सहयोग पाकर वे धन्य हो जाते।

वे अपने क्लाइंट को, पंडित महाराज के बताये शुभ-क्षणों में ही मेल-मुलाक़ात और लेन-देन का आग्रह करते।

शर्मा जी आवास के थोड़े से आगे की मोड़ पर, उनके मातहत श्रीवास्तव जी का मकान है।शर्मा जी, नौकर के हाथो दिशा-मैदान या सुलभ-सुविधा के तहत, सीजन को भेजते।

नौकर अपनी कामचोरी की वजह से अक्सर, श्रीवास्तव जी की लाइन में सीजन को, सड़क किनारे निपटवा देते।

श्रीवास्तव जी बहुत कोफ्ताते ,वे दबी जुबान, नौकर को कभी-कभार आगे की गली जाने की सलाह देते। वह मुहफट तपाक से कह देता, “सीजन को गन्दी और केवल गंदी जगह में निपटने की आदत है। इस कालोनी में इससे अच्छी गन्दी जगह कहीं नहीं है।”

सीजन भी इस बात की हामी में गुर्रा देता।

श्रीवास्तव जी भीतर हो लेते।किसी-किसी दिन नौकर के मार्फत श्रीवास्त्ब्व जी की शिकायत , बॉस शर्मा जी के कानो तक पहुचती। वे आफिस में अलग से गुर्राते।

बाद में मातहत को कंसोल भी करते कि,देखिये श्रीवास्तव जी आप तो जानवर नहीं हैं ना .....मुनिस्पल वालों को सफाई के लिए इनवाईट क्यों नहीं करते।

श्रीवास्तव जी का ‘सीजन ’ को लेकर धर्म-संकट में होना दबी-जुबान, स्टाफ में चर्चा का अतिरिक्त विषय था।

“सीजन साला बाहर की चीज खाता भी तो नहीं”,ये श्रीवास्तव जी के लिए, जले पे नमक बरोबर था ....?

सीजन की वजह से शर्मा जी,दूर-दराज शहर की, रिश्तेदारी,शादी-ब्याह,मरनी-हरनी में जा नहीं पाते।कहते कि सीजन अकेले बोर हो जाएगा।

सबेरे के वाक में सीजन और शर्मा जी की जोडी, चेन-पट्टे में एक-दूसरे को बराबर ताकत से खीचते, नजर आती थी।

पता नहीं चलता था, कौन किसके कमांड में है ?

जब किसी पर ‘सीजन ’ गुर्राता, तो शर्मा जी बाकायदा लोगों को आश्वस्त करते, घबराइये मत ये काटता नहीं है।

वही शर्मा जी, एक दिन अचानक मायूस शक्ल लिए मिल गए ,मैंने पूछा क्या शर्मा जी क्या बला आन पड़ी, चहरे से रौनक-शौनक नदारद है ....?

वे दुविधा, यानी धर्म-संकट में दिखे ...।बोलूं या ना बोलूं जैसे भाव आ-जा रहे थे।

मुझे बात ताड़ते देर नहीं हुई....यार खुल के कहो प्राब्लम क्या है ....?

वे कहने लगे बुढापा प्राब्लम है ...।मैंने कहा अभी तो आपके रिटायरमेंट के तीन साल बचे हैं।किस बुढापे की बात कह रहे हो ? हम रिटायर्ड लोग कहें तो बात भी जंचती है।

तुमको पांच साल पहले, अपनी कुर्सी सौप के सेवा निवृत हुए हैं ?हमे तो कतई नहीं लगता बुढापा ने घेरा है .....? हा ....हा ...

सर बुढापा मेरा नहीं, हमारे डागी का आया है।हमारा सीजन १४-१५ साल का हो गया। सन २००२ में नवम्बर में उसको लाये थे, तब तीन महीने का था।हमारे परिवार का तब से अहम् हिस्सा बन गया है ।अब बीमार सा रहता है।कुछ खाने-पीने का होश नहीं रहता।पैर में फाजिल हो गया है, चलने-फिरने में तकलीफ सी रहती है।शहर के तमाम वेटनरी डाक्टर को दिखा आये।जिसने जैसा सुझाया, सब इलाज करा के देख लिए ,पैसा पानी की तरह बहाया।फ़ायदा नहीं दिखा।

मुझे उसके कथन से यूँ लग रहा था जैसे ,किसी सगे को केंसर हो गया हो। बस दिन गिनने की देर है।उन्होंने अपना धर्म-संकट एक साँस में कह दिया। सीजन के खाए बिन हमारे घर के लोग खाना नहीं खाते।आजकल वो नानवेज छूता नहीं।उसी की वजह से हम लोग धीरे-धीरे नान वेज खाने लग गए थे। अब हालत ये है कि मुर्गा-मटन हप्तो नहीं बनता।

एक तरह से,वेज खाते-खाते सभी फेमिली मेंबर, ‘वेट-लास’ के शिकार हो रहे हैं।पता नहीं कितने दिन जियेगा .बेचारा ....?

मेरे सामने, कुत्ते को मात देते,’वफादारी’ का नया नमूना शर्मा जी के रूप में विद्यमान था।

वे थोड़ा गीता-ज्ञान की तरफ मुड़ने को हो रहे थे। मगर संक्षेप में रुधे-गले से इतना कहा “ अपनों के, जिन्दगी की उलटी-गिनती जब शुरू हो जाती है तब जमाने की किसी चीज में जी नहीं रमता ....?”

“आप बताइये क्या करें” वाली स्तिथी, जो धर्म संकट के दौरान पैदा हो जाती है उनके माथे में पोस्टर माफिक चिपकी हुई लग रही थी .....?

ऐसे मौको पर किसी कुत्ते को लेकर ,सांत्वना देने का मुझे तजुर्बा तो नहीं था, मगर लोगो के ‘कष्ट-हरता’ बनने की राह में, जो मैंने कभी इन मौको पर दूसरों को कहा करता ,मैंने ,शर्मा जी को कहा ....,कहना तो नहीं चाहिए ,”गीता की सार्थक बातें,जो कदाचित मानव-जीव को लक्ष्य कर कही गई हैं ”, वही सोच यहाँ भी लागू है ,, “परमात्मा से ‘सीजन’ के लिए बस दुआ ही माग सकते हैं।”

मैंने शर्मा जी को उनके स्वत: के गिरते-स्वास्थ के प्रति चेताया। पत्नी को आवाज देकर ,शर्मा जी के लिए ,कुछ हेवी-नाश्ता सामने रखने को कहा।नाश्ता रखे जाने पर शर्मा जी से आग्रह किया, कुछ खा लें। वे दो-एक टुकड़ा उठा कर चल दिए।

महीने भर बाद , शापिग माल में ‘वेट-गेन’ किये, शर्मा जी को, सपत्नीक देखना सुखद आश्चर्य था।

वे फ्रोजन-चिकन खरीद रहे थे। मुझे लगा, वे धर्म-संकट से मुक्त हो गए हैं, शायद ‘सीजन ’ की तेरहीं भी कर डाली हो।

मै बिना उनको पता लगे,खुद को मातमपुर्सी वाले धर्म-संकट से निजात दिलाने की नीयत से .शापिंग माल से बिना कुछ खरीददारी किये, बाहर निकल आया।

ये तेरी सरकार है पगले

दुनिया के तमाम पागलों से क्षमा मांगते हुए मै लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।वैसे क्षमा मागने पर पागलों की क्या प्रतिक्रिया होती है, या हो सकती है कुछ कहा नहीं जा सकता। ये तो भक्त और भगवान के बीच वाला मामला लगता है।भक्त लाख जतन से मांगता है, भगवान सुन के अनसुनी कर देता है।कभी-कभी या अक्सर सुनता भी नहीं।

वे लोग सुबह-सुबह मेरी ‘दस बाई दस’ की खोली में आये। कहने लगे हमें आपकी अगुवाई में ये सरकार गिराने का है। उनके टपोरी लेग्वेज में ही कुछ तोड़ने-गिराने की बू झलक रही थी।

मै आत्मसंयत हो के पूछा ,मेरे नेत्रित्व में ही क्यों भइ ? न तो मै विधायक हूँ न आप लोगों का लीडर ....?

नहीं-नहीं ....आपकी छवि जुझारू है ....।

आपने,पिछली सरकार से प्राप्त पुरूस्कारो को लौटाया है

आपको अनशन का तजुर्बा है ....

आप लिखते अच्छा हैं

तरह-तरह के बोल फूट रहे थे।

सामान्य लोगों के बीच घिरा होता तो गदगद हो जाता ये शब्द नई कविता की पंक्तियाँ हो जाती जसके हर लाइन में दाद देने को जी करता , मगर मुझे मालूम था कि मै निहायत घाघ किस्म के लंम्पटो के बीच फंसा हूँ।मैंने चेहरे के भावों को अपनी सोच के मुताबिक़ बदलने नहीं दिया।

शिष्टाचार के शाल को कंधे पर ठीक से जमाते हुए मैंने कहा ,भाई लोग ,मुझे तफसील से माजरा तो बताओ आखिर आप चुनी हुई अपनी सरकार को गिराने के पीछे क्यं पड गए ....?

मुझे मालुम था इन धुरंधरों के बीच से इस सवाल का जवाब निकलवा पाना मुश्किल ही नहीं ,नामुमकिन भी है ,फिर भी इस ‘पीवेट’ यानी धुरी में रिवाल्व हुए बिना आगे कैसे बढा जा सकता था।वही वाजिब सा प्रश्न ठोंक दिया।

मैंने सोचा ,वे अगल-बगल देखेंगे, मगर इसके विपरीत वे एक के बाद एक फिर शुरू हो गए ...

-सी एम ने अपने चुनावी वादों में, जनता से वादा किया था कि वे हर नल में पानी इतनी इफरात उगलवायेंगे कि सड़कें-,नालियों में उफान आ जाएगा।लोगों ने एहतियातन नल की टोटियां खरीद ली थी कि ज्यादा पानी आये तो नाश न हो।

बोर ,ट्यूब वेळ,तालाब-गहरीकरण की योजनायें थी।सब सी.एम., दबा के बैठ गए।

मंनरेगा में काम बाटने का वक्त आया तो अपने सगे- समधी के गावों की तरफदारी में ले गए।

माइनिग ठेके में अपने लोगों को डालने में नहीं चूके

एक्साइज और एंट्री की चुगियों में उंनके सेक्योरिटी वाले तैनात हुए।

ट्रांसफर-पोस्टिंग में रोजगार पाने वालों में , इनके चाटुकारों का बोलबाला रहा

मुझे, उनकी बातों में सी.एम. को हटाने जैसा कोई ख़ास एलिमेंट या वजह नजर नहीं आ रहा था सो मैंने कहा ये तो आप पिछले पच्चीस साल के अखबारों को उठा के देख ले,कई सी.एम. इन्ही हालात के, इसी तबीयत के पाए जाते रहे हैं ,कोई नई बात है नहीं ....?समय-समय पर हम खुद इन सब बातों पर खिचाई करते रहे हैं।

वे लोग कहने लगे, एक ही ढर्रे के लोगों को पिछले दस-सालों से केबिनेट में लिए रहते हैं।वे कहते हैं ये अब हमारे किचन-केबिनेट के, पारिवारिक लोग हैं बिना वजह कहाँ डालें भला इन्हें ....?

उनके किचन-केबिनेट के लोग अब बड़े-बड़े आसामियों को हलाल कर तंदूर तक ला-ला के कबाब परोस रहे हैं .....ये तो है ना उनको हटाने की सही वजह जनाब ....?

अब तो आप अगुवाई करंगे .....?

दरअसल हम लोग चाहते हैं, कि एक साल पहले तख्ता-पलट हो। फिर माहौल बने।एक स्वच्छ आदमी का चेहरा अपना अलग मायने रखता है, लिहाजा आपके पास आये हैं ।

मुझे अपने स्वच्छ होने का एहसास पहली बार हुआ ,वरना मेरे कमरे में आने के बाद गंदगी-राग के सैकड़ों गीत बीबी गा जाती है।कचरा फेकने का काम्पीटिशन हो तो इनाम के लालच में मुझे फेक आये।

वैसे मुझे तुरंत ये अहसास भी हुआ कि, स्वच्छता के मायने, घर -जमीन ,जंगल-दफ्तर, हर जगह अलग-अलग होते हैं।राजनीति में तो और भी जुदा मायने होते हैं।

मैंने प्रगट में कहा ,आप लोग चाहते क्या हैं मुझसे .....?

मुझे ये भी लगा कि अब ज्यादा भाव खाने से बात बिगडनी शुरू हो जायेगी।मेरी स्तिथि यूँ थी कि ग्राहक को भाव पसंद न आये तो खिसकने की तैय्यारी कर लेता है, तब दूकानवाले को, उन्हें उनकी शर्तों पर रोकना पड़ता है।

मेरे भीतर नेत्रित्व के गुण जो आठवीं क्लास की मानिटरशिप के बाद नदारद हो गई थी, जागने लगी।मैंने कहा बताओ क्या प्लान है।

-वे लोग, खुल के मुझको पूरे पट्टे सम्हालने नहीं देने वाले थे ...। आप बस साथ चलिए, प्लान आप ही आप बनता जाएगा।

वे लोग चले गए।

मुझे रात भर नीद नहीं आई।

रह रह कर मुझको ‘चेतक घोड़ा’, उसका टूटा पैर ,जे. ऍन. यू. आरक्षण ,देशद्रोह ,मुक़दमे ,जेल न जाने कैसे-कैसे खतरनाक किस्म के सैकड़ों विचार आसपास मंडराते दीखने लगे .....?

निगेटिव विचारों को, पाजेटिव ऊर्जा देने के लिए,मैं खुद ही, विचारों को डाइवर्ट करने के नाम पर. स्वयं को फीता काटते हुए ,बड़ी बड़ी हस्तियों से उनकी समस्याओं का हल देते हुए ,पी.एम. के गैर-इरादातन बुलावे पर सरकारी पर्सनल फ्लाईट से टेक आफ करते हुए,लाखों पब्लिक को भाषण में देशभक्ति के सीख देते हुए,जैसे सुन्दर मनभावक दृश्यों से लबरेज करने की कोशिश करता रहा।

अब से आगे की दिनचर्या कैसी होगी .....?एक काल्पनिक दुनिया भी सामने थी।

जल्दी उठना पड़ेगा ...?मेहनत भी ज्यादा करनी पड़ेगी। स्कूटर-ऑटो से घूमना-फिरना बन्द करना पड़ेगा। वी. आई. पी. बनते ही आम आदमी की कई मुश्किलों का हल यकायक हो जाता है। मसलन रिजर्वेशन,गेस सप्लाई ,जैसी आम आदमी नुमा लाइन में लगना बन्द हो जाएगा ?

दिन के ग्यारह बज गए।

कल के मुलाकातियों में अबतक किसी का अता पता नहीं ....?

हरेक के मोबाइल में ट्राय किया सब के सब बंद मिले।

अंदरुनी घबराहट ,बेचैनी बढी, टी व्ही खोल बैठा।

प्रादेशिक समाचारों में ब्रेकिंग न्यज चल रहा था ,’पुनीत राम’ मंत्री-मंडल का विस्तार...... छह नए केबिनेट मत्रियों को शाम चार बजे गाधी मैदान में, पद और गोपनीयता की शपथ दिलवाई जायेगी।कल वाले ये चहरे बड़े खुशहाल दिख रहे थे।

मुझे अपने पडौसी ‘कुत्ते’ पर नाहक क्रोध आया, साला रातो-रात तलुए चांट आया होगा ....?

मैंने खिडकी खोल के देखा, बाहर कोई मीडिया वाला ,या खोजी पत्रकार कहलाने वालों में से कोई एक भी नहीं था।रोड तक वीरानी फैली थी।

मै खुद को अल्प समय में, बिना बहुमत के,गिरी हुई सरकार मान कर, अपनी अंतरात्मा को स्तीफा पेश करने में लग गया।

पीर पराई जान रे

वैष्णव जन तो तेने कहिए,जो पीर-पराई जाने रे ...

पर दुखे उपकार करे तो ये मन अभिमान न माने रे ...

वो ज़माना हमारे देखे हुए सतयुग यानी गांधी बाबा के समय का था।

‘पराई-पीर’ जबरदस्त हुआ करती थी,सताए हुए लोग होते थे ,तो उनकी बेचैनी को पीड़ा को समझने वाले लोग भी हुआ करते थे।डाक्टर किसी मरीज को देख के आए तो रत भर सो नहीं पाता था।वकील मुकदमा हार जाए तो सजा उसे खुद को मिल गई हो ऐसा महसूस करता था।एक के घर में मातम हुआ तो उन दिनों क्रियाकर्म होते तक पूरे मोहल्ले में चूल्हा नहीं जलता था।

अब तो ये हाल है, कोई मरता हुआ दिख जाए तो लोग कन्नी काट के चल देते हैं।कौन बेकार पुलिस–कछेरी के चक्कर में पड़े ?कुछ जाने बच सकती है पर बचाई नहीं जाती।कोई हिम्मत से ले भी जाए तो अस्पताल में डाक्टर तत्परता दिखाने में दिलचस्पी कहाँ लेते हैं?वे वहीं पुलिस-कछेरी के फेर में पडकर ,पुलिस के आने का इंतिजार करवा देते हैं।

‘पराई-पीर’ को जानने के लिए आजकल एन .जी, ओ. बनाने का फैशन शुरू हो गया है।आपरेशन ‘पराई-पीर’ आजकल कमाई का नया सेक्टर बन के उभर रहा है।

श्रीवास्तव जी पहले ऐसे न थे।सब की मदद के लिए हाजिर रहते थे।बच्चे का स्कूल में एडमिशन हो ,बिजली का बिल ज्यादा आ जाए, या बैंक में ड्राफ्ट बनवाना हो ,किसी को कालिज ,हास्पिटल आना-जाना हो, सब का बुलावा श्रीवास्तव जी के लिए होता था।

वो समय मोबाइल का नहीं था , हास्पिटल से बिजली आफीस ,फिर कालेज और न जाने कहाँ –कहाँ उसे अपना पेट्रोल जलाना पडता।वो सबकी पीर-हरने में अपनी काबलियत का लोहा मनवा लिए थे।

उनका कहना था कि आदमी किसी की मदद करे, इससे अच्छी बात क्या होगी?

मदद करते-करते वे अपना बजट बिगाड़ लेते थे।दो जोडी हाफ बुश-शर्ट,एक चलने-चलाने लायक स्कूटर ,घर में मामूली सा क्लर्क की हैसियत वाला फर्नीचर-क्राकरी बस।

बीबी के ताने सुन के अनसुना कर देना उनकी दिन-चर्या में अनिवार्यत: शामिल सा हो गया था।

मदद का जुनून इस हद तक कि ,बीबी की बुखार से ज्यादा, पडौसी की छीक उसे परेशान करती थी।

ऐसे मददगार ,सर्व-सुलभ आदमी की भला जरुरत किसे नही होती ?

सो उसकी मदद के लिए लोग मंडराने लगे। वे उसके मार्फत ऍन जी ओ बनाने का प्लान बनाने लगे।प्रथम- दृष्टिया,साफ सुथरी छवि जो ऍन जी ओ चलाने के काबिल हो ,वो श्रीवास्तव जी में विद्यमान थी।

सलाह देने में माहिर विशेषज्ञ की फौज ,फार्मूला ,प्लान ,रोडमेप के नाम से न जाने क्या –क्या उनको परोसने लगे।

उन्हें ये बतलाने में कतई चूक नही किए कि अपना समय –धन और श्रम को व्यर्थ न जाने दो।पराई –पीर को समझना ,दूर करना बहुत हो गया।

माहिरों ने, ये बात श्रीवास्तव जी के दिमाग में ठूस-ठूस के घुसेड दिया कि तुम्हारे पास ‘सद-काम’ का एक ब्लेंक-चेक है।

लोगों का तुमपे विश्वास है।तुम्हारे जन-हित कार्यों से जनता प्रभावित है।तुम्हारी बातों में वजन है।तुम्हारी सलाह से, बेटे-बेटीयो के रिश्ते तय हो रहे हैं।तुम कुछ नया तो करो।

दुःख-भंजक श्रीवस्तव् जी हाड़ –मांस के बने थे वे हामी भ्रर गए।

उनके हामी भरते ही , लोगो ने, झंडू –बाम मलहम नुमा, एक ‘पीड़ा-हर्ता’ लेबल का ऍन .जी.,ओ. रजिस्टर करवा लिया।

मदद के बड़े –बड़े दावे किए जाने लगे।

ला-ईलाज बीमारी से ग्रस्त लोगों को जगह-जगह ढूँढा जाने लगा।

अपाहिजो को पैर,बैसाखी,ट्राइसिकल बाटे जाने लगे।

अन्धों को आँखे मिलने लगी।गरीबो-दुखियों की नय्या पार लगने की ओर रूख करने लगी।

एन जी ओ पर दानियो के रहम और सरकार की मेहरबानी के चलते अंधाधुंध पैसों की बारिश होने लगी।

श्रीवास्तव जी के पैरों तले की जमीन के नीचे अब मार्बल,टाइल्स या कालीन के अलावा कुछ नही होता।स्कूटर का ज़माना कब का लद गया।कब कबाडी के हवाले गया ,पता नहीं ?

एयर-कंडीशन महंगी गाड़ियों से नीचे चलने में उनको अटपटा सा लगने लगा ।

अब वे बीबी की छींक पड जाए तो घर से नहीं निकलते ,भले ही पडौसी का कहीं दम निकल रहा होवे ।

पराई-पीर के ईलाज में , देखते-देखते उनने बेवक्त अपना बुढापा बेवजह जल्दी बुला लिया, ऐसा इन दिनों वे सोचने लगे हैं।

फिर ये सोच कर कि ऐसा खुशहाल बुढापा भगवान सब को दे,वे खुश हो लेते हैं।

अखबार में छपी त्रासदी भरी, उत्तराखंड की खबर को वे मोड कर एक तरफ रख देते हैं।

काजल की कोठरी

कोयले के बारे में तब मेरी जानकारी उतनी नहीं थी। रलवे कालोनी में सुबह-शाम लोग कोयले की बड़ी- बड़ी सिगड़ी खुले में रख छोड़ते थे। खाना बनाने की पूर्व प्रक्रिया में पूरे का पूरा मोहल्ला धुंए से बेदम हो जाता था। आँखों में कोयले का धुआं रुलाने तक ला छोड़ता था। तब इन्हीं सिगड़ियो के मार्फत घरो के अंदर का हाल मालूम हो जाता।जिसने बड़ी सिगड़ी लगाई है उसके यहाँ कोई मेहमान जरूर आया होगा। तीज त्यौहार के दिनों में तो मुहल्ला, पूरा धुंध फ़िल्म की शूटिंग-स्पाट लगता। तब औरतों में दूसरो की सिगड़ी देख कभी नहीं लगता था कि उसकी बड़ी क्यों? तब यूं भी नहीं होता था कि मारे आलस के कोई पड़ोसन दूसरे की भट्टी में रोटी सेक लेने के लिए पेड़े लिए आ जाये या थोड़ी-बहुत छोक-बघार कर ले। सब को अपने-अपने कोयले का गुमान रहता।सभी सुविधा सम्पन्न कोयला-धारी हुआ करते थे। सस्ता भी बहुत था। एक -आध रुपया किलो बस।

किसी -किसी को मुफ्त में भी मिल जाता था, बशर्ते, रेलवे में अच्छी धाक हो। कोई अपने लिए गिरवा लेता।उन दिनों कोयले के रेक आने की खबर हाथो-हाथ फैल जाती थी।रेक आया नही कि सब के सब चढ़ जाते थे। कोयला नीचे गिराते, ड्राइवर, गार्ड की कमाई हो जाती थी। अच्छा जमाना था। भाप की इन्जन बंद क्या हुई, मुहल्ले का धुँआ जैसे हवा में हमेशा के लिए उड़ गया। कुछ दिनों बाद कोयले के लडू भी लोकल फार्मूले पर, मसलन गोबर -चूरा मिला के बनने लगे मगर वो मजे नही मिले। हमे तब बड़ी धांधली लगती थी। इच्छा होती थी , देश को बताये, मगर देश कहाँ होता था उन दिनों ये भी खबर नही थी।हम इस बात पे तसल्ली किए रहते थे कि कोई स्विस बैंक लायक मोटा नही हो पा रहा है। क्या खाक अपनी इज्जत दांव पर लगायें, सो चुप रहे।

कोयले पर हमारी जानकारी में इजाफा, हमारी बुनियाद या हमारी पकड़, शास्त्री मास्टर जी की वजह से तकरीबन नवमी -दसवी क्लास से मजबूत हुई।वो बकायदा केमेस्ट्री में एम्. एस सी. थे। उन्हें सर कहना , किसी एंगल से नही जमता था। तेल से चिपचिपे बाल, पीछे चुटिया, मुड़े -तुड़े बिना प्रेस किए सादा कपडे, तिलक धारी माथा, गला, बाजू में चन्दन रोज एक ही मार्का में छपे हुए। सो थोडा सा डीग्रेड होके मास्टर जी के नाम से जाने जाते थे। वो पढ़ने में जितने तेज रहे होगे, उससे ज्यादा पढ़ाने में लगते थे।कार्बन -डाइ -आक्साइड, कार्बन मोनोआक्साईड नाम के गैस जो कोयला जनित थे पढने में आया।मास्टर जी फायदा नुक्सान की अलग फेहरिस्त बनवा लेते, कहते रट लो इक्जाम में फायदा होगा।अगली क्लास में कार्बन का विकराल रूप इथेन -मीथेन -बेंजीन , ग्लूकोज, फ्रुक्टोज और न जाने कितने बड़े-बड़े फार्मूले दार कार्बन के रूप....?पढ़ते -पढ़ते कार्बन को लानत भेजने का जी करता।जरा सी चुक पर बेड़ा-गर्क।अर्थ का अनर्थ।फार्मूला गलत तो मार्क गोल।

बहुत आफत भरे आपातकाल जैसे वो दिन हुआ करते थे।हर समय कार्बन ही कार्बन आखो में फार्मूला बन के नाचता था।

मस्स्टर जी पढाते खूब थे। वो दूर दृष्टी वाले लोगो में से थे। इंपोर्टेंट हैं, कह-कह के पूरे क्लास का ध्यान खीचे रहते थे। उन्होंने हीरा (डायमंड ) के बारे में बातो -बातो में य़ू खुलासा किया, हुआ यूँ कि, अटेंडेंस लेते समय 'हीरालाल ' की प्राक्सी किसी ने जड़ दी।वे चौकने थे, समझ गए गलत हीरा है।फिर सारे क्लास पर बरसने लगे। गुस्से में वो अकेले ही, संसद के बिफरे विपक्ष की तरह फनफना जाते। मैं से हम पर अगर आ गए तो शामत समझो।पर ज्ञान की बात से समझौता कदापि नहीं करते थे।हम लोग तुम्हे तराश कर 'हीरा 'बनाना चाहते हैं, और तुम लोगों को मस्ती सूझे रहती है।तुम लोगों को मालूम?, 'हीरा' बनने में सालो लग जाते हैं। जमीन में दबे हुए कोयले में दबाव और तापमान को सह कर कोयला ‘हीरा’ बनता है।ये कोयले का रीफाइंड रूप है, जो ठोस कार्बन है।हम लोगो को विश्वाश नहीं होता कि कोयले का चमकदार पहलू 'हीरा' है। वो कहते, वैसे तो हीरा मामूली चमक लिए रहता है, मगर इसे तराश दो तो और चमक पैदा हो जाती है। वे हीरा तराशने के चक्कर में रहते और पूरा क्लास जुम्हाइयो में चल देता।मास्टर जी की बातो में ‘दम’ परीक्षा हाल में पता चलता, जिस -जिस को जोर देकर पढाए होते, वही पूछा जाता। कोयले और कार्बन पर उनकी सोच आज भी अपनी इम्पोर्टेंट चमक लिए है।

जब हम कालिज में पहुचे तो नया शगल बन गया, ट्रेनों में बिना टिकिट लिए सफर करना। तब टी.टी.ई की गिरफ्त में कभी आ जाते तो जैसे -तैसे छूटने की जुगाड़ में लग जाते। वो खुर्राट होते, बिना किसी एक्स रे के, हमारी जेब में कितना है पता लगा लेते। वो बड़े इत्मीनान से, भाषण पिलाते -पिलाते टिकट-बुक में जब कार्बन फंसाते तब हमारी जेब ढीली हो जाती, हम आख़री मौक़ा ताड़ कर कुछ ले दे की बात करते।उन्हें तो राजी होना ही रहता था। तब लगता था कि ‘कार्बन फंसा’ कर कैसे लूटा जा सकता है। भ्रष्टाचार का उन दिनों का ये ट्रेलर दो तरफा हुआ करता।एक तो हम आधे -अधूरे पैसे देकर सफर कर लेते, दुसरे टी.टी.ई अपने घर की बुनियाद मजबूत किए जैसा फील करता। कार्बन फंसा के माल निकलवाने में उस्ताद आर टी ओ भी कम नहीं। भय को बढ़ाऔ, आदमी की जेब ढीली होते जाएगी। कार्बन-कोयले की इन दलालियो में तब कोई स्विस -बैंक जैसा नहीं था। छोटी -मोटी दाल -रोटी के तर करने की व्यवस्था थी।

मेरे पडौसी गुप्ता जी को बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ के कोयल माफियाओं से शिकायत रहती है, ससुरो ने सारी जमीन को खोखला कर दिया है।माल निकाल के भरते कुछ नहीं, कब पूरे का पूरा शहर चासनाला बन के बैठ जाए, कहा नही जा सकता। बस दादागिरी है।एक खदान बरसों से सुलगा हुआ है। अरबों का कोयला जल रहा है, कोई रोकने वाला नहीं।रोकने वाला तो तब हो जब सोचने वाला हो।यहाँ व्यवस्था ये है, जहाँ दाम नहीं वहां काम नहीं, और दूसरी व्यवस्था ये भी है जहाँ दाम ही दाम है वहां काम में सब अटपटा जायज है। मैंने कहा गुप्ता जी छोडिये, ये सब आपके सोचने की उम्र नहीं। वे फनफनाते चले गए, बाबा -अन्ना बोले तो जायज? मुझे लगा किसी शामियाने वाले को बुला कर उनका अनशन फिक्स करना पडेगा।

-मेरी कोयला -परख आँख बहुत देर बाद इसलिए खुली, कि जब कभी माँ काजल का डिठौना लगाने कज्रौटी लिए आती , मै मिचमिचा कर आँख बंद किए भाग खड़ा होता।

-लगता है पूरा देश, कज्रौटी लिए, माँ को देखने का साहस नहीं जुटा पा रहा है।आँख मिचमिचाए, बंद किए, काजल न लगाने का बहाना ढूंढ रहा है।

-वैसे काजल लगाए आँख की सुन्दरता के क्या कहने?

विलक्षण प्रतिभा के 'लोकल' धनी

यूँ तो राष्ट्रीय अंतर-राष्ट्रीय प्रतिभाएं अनेकों विद्यमान हैं।

अपने- अपने फील्ड के महारथियों ने अपने-अपने इलाके में धूम-धडाका भी जबरदस्त किया होगा, परन्तु जिन लोगों ने किसी फील्ड में ‘जुगाड़’ की इजाद की उन्हें भूलना, उनके प्रति असहिष्णुता है।हम इतने गये-बीते नहीं की उनको याद न करें।

सबसे पहले मुहल्ले के नुक्कड़ में दस बाई दस के कमरे में अस्त-व्यस्त कबाड़-बिखरे सामान के साथ दिमागे-दुरुस्त में जो कौधता है, वो है ‘नरेंद्र सोनी’ ....।इन्हें पिछले ४० सालों से इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रानिक्स की दुनिया में व्यस्त देखा हूँ।दिल्ली मेड रेडियो ,टेप ,रिकार्ड प्लेयर और बाद में टी वी ,वी. सी .आर. के किसी भी माडल और मेक को सुधारने का जबर्दस्त दम और हुनर उसके पास है।मुहल्ले का ऐसा कोई एंटीना नहीं था , जिसे बिना उसकी जानकारी के किसी ने फिट करवाया हो। रिपेयरिंग के काम में परफेक्शन, जरुरी की हद तक, पसंद होने के चक्कर में, वो ग्राहकों को महीनों घुमा देता।

जहाँ लोग टरकाऊ छाप काम करके लाखों पीट लिए,अफसोस वहां ये आर्कमिडीज 'यूरेका' की खोज में समय से पहले बुढापा बुला बैठा ।

दूसरा , एक समय था जब अपने शहर में जुए-सट्टे का जबरदस्त चलन था।इसी लत में आकंठ व्यस्त रहने वाले जिस इंसान का जिक्र कर रहा हूँ ,वो है सुदेश 'चोरहा'।उस्का नाम सुदेश श्रीवास्तव था ,'चोरहा' खिताब उसकी उठाईगिरी प्रवित्ति के खुलासा होने के कारण खुद ब खुद बाद में लोगो ने जोड़ दिया।उन दिनों सायकिलों को किराया में दे कर चलवाने का धंधा जोरों पर होता था। नये-नये सायकल स्टोर खुलते थे।पचीस-पचास नई सायकलें किराए से दे दी जाती थी।

सुदेश की 'माडस-ओपेरेंडी' यूँ थी, कि आपने जिस स्टोर से सायकल उठायी ,वो भी किराए पर वहीं से सायकल ले लेता।वो आपके गंतव्य का पीछा करता। आपका जहाँ सायकल लाक करके किसी होटल या दूकान में घुसना होता , वो अपनी सायकल आसपास रखकर 'मास्टर की' से खोल के , आपकी सायकल पार कर देता। पकड़े जाने पर सफाई के लिए , एक ही स्टोर की हुबहू सायकल में, शिनाख्ती भूल का हवाला देकर बचने की भरपूर एल्बी या गुजाइश होती थी।घर आकर इत्मीनान से सिर्फ सायकल के मडगार्ड को जिसमे सायकल स्टोर का नाम नम्बर होता , बदल कर औने पौने कीमत में बेच देता।बदले मडगार्ड को नदी तालाब के हवाले कर देता।सायकल की धडाधड होती चोरियों ने, लोगों को चौकन्ना कर दिया।तमाम सायकल स्टोर के किराया-रजिस्टर में वारदात के दिनों की एंट्री की जाँच हुई।सूत्र सिवाय एक श्रीवास्तव सरनेम कामन मिलने के, अतिरिक्त कुछ हाथ न लगा ।पुलिस ने स्टोर मालिको को चौकन्ना कर दिया कि किराए पर सायकल उठाने वालों के नाम को गौर से चेहरा देख लिखा जावे।इसी के बूते अपने श्रीवास्तव जी ,जो मोहल्ले से दूर के किसी सायकल स्टोर में, जहाँ कभी रोहन- सोहन नाम के साथ श्रीवास्तव उठा लेता था , किसी दिन रोहन की जगह श्रीवास्तव सरनेम के साथ सोहन लिखवा बैठा। उसकी चोरी की दुनिया की अक्लमंदी में मंदी शुरू हो गई।सबूत के अभाव में वह छूट तो गया मगर लोग उसे इलाके में देख अपने सायकल और सांकल की खास निगरानी करने लगे।

तीसरा चरित्र उन दिनों के ख्यातनाम कवि और अदब से ताल्लुक रखने वालों से बावस्ता है।इनमे से कुछ अब दिवंगत हैं।,उन सब की रूह जन्नत में आराम नशीं हो।आमीन।

एक कवि महोदय , नई पौध के लेखन को, प्रोत्साहन के नाम पर नुक्कड़ के किसी चाय के टपरे में मजमा लगाए रहते।खाली समय व्यतीत करने के लिए, उनकी जिन्दगी में, ताश और जुआ, शगल- आदत और मजबूरी के मिले –जुले रूप में , दखल रखती।यूँ कहें जब ताश नहीं तो बस शायरी, गजब का विरोधाभास लिए उस इंसान को हम लोगों ने जीते हुए देखा है।

उनकी शायरी का जबरदस्त लोहा मानने वालों में दो तीन नाम याद हैं। एक नत्थू साव व्यंगकार ,दूसरा कविश कुमार उभरता गीतकार ,तीसरा राम चरण कहानी कार ....।आगे चल के ये लोग कुछ बने या नहीं पता नहीं चला।

नत्थू की उन दिनों सेवादार की भूमिका होती।

’गुरुजी’,इस आदरणीय संबोधन से बात शुरू करता।

वो कहता ,गुरूजी , इस गणेश उत्सव ,और नव-रात्रि की जबरदस्त तैय्यारी करवा दीजिये बस।उन दिनों इन मौको पर तमाम आयोजल कवि-सम्मेलन आयोजित करते थे।

गुरूजी ,दस बीस कवि- सम्मेल्लन निपटाने लायक तगडा मसाला हो अपने पास।मजा आ जाएगा।आपने शायद ये बात किसी कवि के मुह से न सुनी हो तो अटपटा लग सकता है।जाने भी दो।

गुरुजी, घर से ख़ास आपके लिए चिकन बनवाया है ,कहते हुए पुराने अखबार रखकर टिफिन सजाने लगता।मुर्गे की टांग के साथ, शेर कहते हुए गुरुजी को देखके, नत्थू धन्य हो जाता।उसी टांग खिचाई में गुरुजी, अपनी किसी पुरानी रचना को यूँ सुनाते जैसे मुर्गे की प्रेरणा से इस रचना का सद्य निसरण हुआ है।

मुर्गा-प्रेरित रचना को नत्थू नोट करके अपनी डायरी को धन्य कर लेता।दस-पन्द्रह मुर्गों की बलि से नत्थू का कवि-सम्मलेन भारी वाहवाही की उचाई को छू लेता।

अखिल भारतीय स्तर के एक कवि-स्म्मेल्लन का जिक्र कई बार उनके मुह से सुना है।गुरुजी क्या भीड़ थी ,खचाखच ,अपन ने ”इतने हम बदनाम हो गए” वाली रचना सुनाई। क्या दाद मिली, गुरूजी कह नहीं सकते।’जया रानी’ जो स्वयं को ख्याति लब्ध मानती थी सन्न रह गई।यहाँ तक कि लोगों ने हूट करके अगले दौर में उनको बिठा तक दिया।

उन दिनों , लाइव टेलीकास्ट और सेल्फी युग नहीं था वरना नथ्थू के छा जाने वाली बात की तस्दीक हो जाती।

खैर यूँ गुरु-चेले की निभती रही। नत्थू की दुकानदारी को देख के कई नौसिखिये इस मौसम के उपयोग हेतु आने लगे।गुरुजी बाकायदा दस-दस रुपयों की बोली में रचनाएँ बाँटते। जिसे नव-लेखक उत्साह से दूर दराज के गाँव में जाकर पढ़ते।चूँकि गुरुजी शहर से बाहर कभी निकल के कविता वाचन नहीं किये थे फिर भी उनकी सख्त मनाही थी, कि उनके -शहरी क्षेत्र में कोई रचना न पढ़ी जावे।मूल लेखक के उजागर हो जाने का खतरा है।अगर इस इलाके में पढना है तो बाकायदा ताजी रचना हमसे लिखवाना। लोग ख़ास मौको पर ताजी रचना भी गुरुजी का मूड बना-बना कर हलाल करने लगे।

एक दिन हमने गुरुजी से यूँ ही पूछ लिया आप जानते हैं ,आप साहित्य को बदनाम करने लगे हैं।वो कहते जब पेट की आग धधकती है तो ये मान के चलो ,कोई नज्म ,गजल या कविता आग बुझाने नहीं आयेगी।केवल रोटी से ही ये आग बुझेगी।नौकरी पेशा तो हम हैं नहीं कैसे चल-चला पाते हैं,हमी को पता है।वैसे भी आजकल, मानो साहित्य मर सा गया है ,इसका स्तर कितना गिरने लगा है।मुझे मालुम है ये जिस सम्मेलन में जाते हैं मुश्किल से इन्हें सुना जाता होगा। लतीफे-बाज, चुटकुले-बाज मंच छोड़ते नहीं।चिपके रहते हैं।उनका अपना ग्रुप होता है।तू मुझे बुला मै तुझे बुलाउंगा। जब ये चुटकुले-बाज पी के धुत्त होकर पढने लायक नहीं होते तब हमारे साहित्यिक रचना की बारी आती है।

कुछ विद्रोही रचनाओं को अखबार में .पत्रिका में छापने वाले भी, सरकारी विज्ञापन कट जाने के भय से दरकिनार कर देते हैं।सर पटक लो वे नहीं छापते।

ऐसे में साहित्य का कहाँ से सर उठाये और साहित्यकार किस बूते जिए.....? बताओ ......?

ये लोग जो हमारा लिखा पढ़ रहे हैं, उसे किसी समय हमने उत्साह से लिखा था। चलो , किसी बहाने लोगो तक अपनी रचना पहुच तो रही है ....यही संतोष है ......।उनकी बेचारगी मुझे झझकोर कर रख दी। उनकी आत्मा को प्रभु शांति दे .....

उनका गमगीन चेहरा, इन शब्दों के साथ जब भी मुझे याद आता है ,मुझे साहित्य से यक-ब-यक अरुचि और विरक्ति सी होने लगती है।


मंगल ग्रह में पानी

बेटर-हाफ ने लगभग अंतिम चेतावनी का ऐलान किया ,खाना लगा रही हूँ ,

अब आते हैं, या वहीं नेट में ‘व्हाट्स-एप’ थ्रू भिजवा दूँ .?

पता नहीं सुबह से शाम क्या सर्च करते रहते है,

जो खतम होने का नाम नहीं लेता.....?

बताएँगे भी.....,सुध-बुध खोकर ,

जी-प्राण देकर ,

वहां ऐसा क्या देखते रहते हैं.....?

इतना कभी,अपनी गुमी हुई बछिया को ढूढे होते तो,

आज बकायदा उसकी दूसरी पीढी के दूध खाते-पीते रहते?

उसके तरकश से, अगला तीर निकले, इससे पहले बोल पड़ता हूँ ,

तुम साइंस नहीं पढ़ी हो न,.....?

क्या समझोगी....?

नेट में क्या-क्या नहीं है .....?

नेट-वेट की चेटिंग-सर्फिंग कर के देखो। मैं कहता हूँ , पडौसियों की चुगली-चारी की जुगाली भूल जाओगी !

चलो.....! चेटिंग-सर्फिंग,बाद में होते रहेगी ,खाना लगा रही हूँ, खाते-खाते बात कर लेंगे।

एक संस्कारी भारतीय नारी ने, अपने सुहाग-श्री के सम्मुख झिझकते हुए, खिचडी परस दी।

मैंने कोफ्त में कहा आज फिर खिचडी .....?

रात का खाना,किसी रोज , ढंग का तो खिला दिया करो?

हद करती हो इसी खाने के लिए इतनी देर से चिरौरी कर रही थी...?

खाना ढंग का अगर मांगते हैं जनाब, तो ,ज़रा मार्केट से तरकारी, भाजी,मछली, अंडा,प्याज,पनीर और टमाटर ला के फ्रीज में डाल भी दिया करें .....?

मुझे पकाने की समझो फुरसत ही फुरसत है ....।

देखो ! खाने-खिलाने का रंग-ढंग बदलो नहीं तो मै, “मंगल” की तरफ चल दूंगा कहे देता हूँ ......?

अपने विद्रोह का मैंने पहला बिगुल फूंक दिया....

क्या ख़ाक, मंगल भाई के पास जायेगे ....?

बहुत घरोबा पाले रखते थे ?

ट्रासफर हो के गये, आज तीसरा-महीना चल रहा है ,

मुड़ कर नहीं देखे वे लोग ...?

सब मतलबी होते हैं ,

ऐसों के क्या मुह लगना ....?

कमर में हाथ रखकर बेटर हाफ ने अगला जवाब चाहा।

बेटर-हाफ लोग जब इस मुद्रा में आ जाती हैं तब समझो शून्यकाल का माहौल छा जाता है-पूछे गए सवाल का जवाब नहीं देने से विपक्ष के वाक् -आउट की संभावना बनती है।

-फिर ये क्या अचानक, आपको उन तक जाने की सूझ रही है ....?

हाँ कल अगर जा ही रहे हैं तो, वापिस आते समय अपना टिफिन,गिलास ,चम्मच लाना मत भूलना।

हमने ‘मंगलीं महारानी’ को जाते समय, खाना पेक कर के दिया था ,

उनको कायदे से,सामान वापस भिजवाने की, नहीं बनती क्या ....?

-अरे, मै ‘पांडे वाले मंगल ’ की नहीं कह रहा हूँ डोबी ...!

मंगल ग्रह की बोल रहा हूँ.... मंगल ग्रह ......!

वो.... उधर.... ऊपर आसमान देख रही हो ....?

खिड़की खोल के मैंने समझाया ,वो जो यहाँ से करोडों मील दूर है।नव-ग्रहों में से एक, लाल-ग्रह  ...उसकी ....समझी ....?

मैंने भावना की तीन तार वाली चासनी में डूबे हुए रसगुल्लों को पलटा ,

इधर तुम, मेरी रोज की चिक-चिक से परेशान रहती हो न....?

रिटायरमेंट के बाद न समय पर शेव करता हूँ ,

न नहाता हूँ,

न खाता हूँ।

दिन भर, घंटे दो घंटे बाद,तुम्हें तंगाने के नाम , चाय की फरमाइश किये रहता हूँ .....?

ऊपर से, ये लेपटाप को दिन-रात गले लगाए फिरता हूँ सो अलग ....।.

अब इन सब से एकमुश्त छुटकारा पा लोगी।

क्यों ठीक रहेगा कि नहीं .....?

मैंने उसके पसीजने का इंतिजार किया ....लगा लोहा गर्म नहीं हुआ है।

अपना मंगल ज्ञान और यान को फिर यु टर्न देने की नीयत से कहा -

तुम्हें मालुम है, वैज्ञानिकों ने मंगल में पानी ढूंढ़ निकाला है।

पानी का मतलब वहां जीवन बसने-बसाने के आसार पैदा हो गए हैं।

अपने इधर के टुटपुंजिये झोला छाप वैज्ञानिकों का भी यही मानना है , पानी यानी जीवन बिन पानी सब सून।

बिन पानी वाली बात तो रहीम ने मंगल-अभियान के करीब चार सौ सालो पूर्व कह दिया था। खैर छोडो ..

मैं कह रहा था ,

बहुत सारी एजेंसी ‘मंगल गढ़’ में जाने वालों की बुकिंग शुरू करने वाली हैं।

अच्छी-अच्छी स्कीम चल रही है।

एक के साथ एक फ्री वाला भी है ....क्यूँ चलोगी ....?

पर याद रहे , टिकट मगर एक साइड की ही मिलेगी

उसने किस्से में रूचि लेने की झलक दिखलाई ,

एक साइड की टिकट ...ऐसा भला क्यों .....?

वो ऐसा है कि,उधर बस, जाना ही जाना होगा वापिसी के लिए अभी कोई शटल- यान डिजाइन नहीं हुआ है।

-उधर जाने वाले उत्साही-स्वैच्छिक लोगों की कतार, अभी नही लगी है, इसलिए समझो रियायती दर का ऐलान हुआ है।मैंने उसे चढाते हुए कहा तुम तो इकानामिक्स की ब्रिलिएंट स्टूडेंट रही हो ,मांग और आपूर्ति के नियमो से भली-भांति परिचित हो ... यही वजह है

वह तारीफ के पल को सहेजने में लग गई।

मैंने आगे की गतिविधि पर उनका ध्यान खींचा , वे कह रहे हैं,

जिनके बैंक खाते में फक्त बीस-लाख है, वे ही एप्लाई कर सकते हैं।भगवान का शुक्र है अपने पास इतना तो है कि कुछ मैं ले जाऊं कुछ तुम्हारे वास्ते ,अगर नहीं जाना हो तो छोड़ जाऊ ...?

’नासू-मेनेजमेंट’ पांच सौ प्रतिशत की सब्सीडी देगी। हम इडियन लोगों की मेंटीलिटी वे जानते हैं। ‘सब्सीडी’ के नाम पर हम लोग बिछ-बिछ जाते हैं।

सेल और डिस्काउंट के नाम पर घटिया चीजों को बटोरना जैसे अपनी आदत बन गई है।

खाने-पीने के सामान में ,एक में एक फ्री का आफर मिले तो हर वो चीज खरीदने की कोशिश करते हैं, जिसके नहीं खरीदने से सैकड़ों बीमारी से बचा जा सकता है।

बोलो ‘बुक’ करा दूँ ......?

वह तन्द्रा से जागी , उसे मेरे सीरियस होने का कुछ-कुछ अंदाजा मिलने लग गया।

पहले बताओ तो, उधर ‘स्पेशल’ क्या है .....?

स्पेशल-वगैरा तो कुछ भी नहीं, उलटे वहां कष्ट ही कष्ट है।

जैन मारवाड़ी लोगों को संलेखना-संथारा करते देख के मेरे मन में विचार आया, कि जीवन को समाप्त करने का ‘मंगल-अभियान’ भी एक तरीका हो सकता है।

वहां अभी फिलहाल पानी है बस।वहां की ग्रेविटी यहाँ से कम है ,

हम अस्सी किलो के जो यहाँ हैं उधर अस्सी-ग्राम के हो रहेंगे।

इतना वजन उधर जाते ही कम हो जाएगा ..अरे वाह ..?

तब तो अच्छा है ....

अपने ‘मोटे-फूफा’ को भी साथ ले जाना।

वे सब प्रयोजन कर डाले, वजन कम होने का नाम ही नहीं लेता उनका।

अब उनके बारे में ,यूँ कहें कि, बाहर निकले पेट देख के,

आठ नौ महीने की गर्भवती का चेहरा घूम जाता है, तो बड़ी बात नहीं होगी।

मैंने कहा ठीक है वे चलने को राजी तो क्या करेगी फूफी जी , इस मजाक पर वह कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

-जिज्ञासा के दूसरे दौर में पूछने लगी -

अच्छा ये तो बताओ ,उधर आप रहोगे कहाँ ....

भला खाओगे क्या ....?

इधर नाश्ते में दस मिनट देर हो जाती है, तो आप आसमां सर पे उठा लेते हो .....

बोलो गलत कह रही हूँ ....?

इसी एक प्रश्न ने मुझे खुद भी ‘खासा’ परेशान कर रखा है जानू।

मैंने कहा, नाशपिटो ने एक रिसर्च विंग इस काम पर लगा दिया है।

वे लोग तरह तरह की, होम्योपैथी टाइप गोली, तैयार करने में लगे हैं।अलग-अलग स्वाद वाली गोलियां ....

किसी में बिरयानी, कहीं इडियन रोटी ,इतालियन पिज्जा, चाइनीज नूडल्स और तो और देशी फाफडा जलेबी ,गुलाब जामुन ,इडली बड़ा साम्भर,ये सब।

वे उधर जाने वाले आदमी और उनके देश की आवश्यकतानुसार सबमे बाँट दिए जायेंगे।

‘नाश-पिटों’ की मार्कटिंग बड़ी तेज रहती है।

जितना मुझे समझाया गया था वो खाका मैंने आगे खींचा, रहने के लिए वहां एक केपसूल होगा ,जो बाहर की तेज हवा , ठंड,धूल की आंधी से बचाव करता रहेगा।

नाश- पिटे के लोग नीचे से स्क्रीन में बताते रहेंगे, कब क्या करना है। उधर ये लेपटाप, मोबाइल सब बेकार हो जायंगे। किसी का कोई काम और रोल नहीं रहेगा।

वहां पेट्रोल नहीं है,वरना पुरानी लूना ले जाता ,खैर आसपास चक्कर मारने के लिए सायकल तो रखवा लेंगे।

वहां की फसल कैसी होगी, ये गौर करने की बात होगी।

हम अपने देश की लौकी,सेम,मिर्ची आदि के बीज ले जाने की अनुमति ले लेंगे।अमेरिका वाले आनाकानी किये तो भी देशी स्टाइल में, चोरी-छिपे ले जाने का जुगाड़ कर देखेंगे।

एक बात तो तय है कि इधर के निखट्टू को भी उधर नोबल पुरूस्कार से नवाजा जा सकता है ....? बशर्ते किसी के प्रयास से ,सेम की बीज से, पहली बेल, मंगल की जमीन में सनसनाते हुए उग जाए ....?

मेरी बातों में गंभीरता की भनक को उसकी छटी इन्द्रिय ने झट से पकड़ लिया।

पत्नी,यानी बेटर-हाफ का चेहरा रुआसा सा हो गया।

आँखे पोछते सुबकते हुए बोली क्या जरूरत है उधर जाने की, संथारा के चक्कर में पड़े आपके दुश्मन ....! सुनो जी ......रुखी सुखी जो अपनी जमीन में मिल रही है उसी में संतोष करो ना जी .....।

उसके हर वाक्य के अंत में ‘जी’ लगते हुए, काफी अरसे बाद सुना, शादी के शुरुआती दिन याद आ गए।

फिर थाली को हाथ से वापस खीचते हुए बोली ,ये खिचडी हटाओ मैं आपके लिए शुद्ध-घी का आलू पराटा, बस दस मिनट में तैयार करती हूँ।

शुद्ध-देशी-घी का स्वाद मुझे अपने मंगल अभियान से कोसो दूर करके रख देगी ?

मेरी कमजोर नब्ज टटोलने में वो माहिर सी है। घी की भीनी भीनी खुशबू हवा में तैरने लगी।

मैं अपने लेपटाप में, फिर से बिजी हो गया।


लेखक परिचय

सुशील यादव,

रिटायर्ड डिप्टी कमिश्नर,

कस्टम्स सेंट्रल एक्साइज एवं सर्विस टेक्स

वडोदरा (गुजरात) से जून 2012 में सेवानिवृत

कहानी, कविता, व्यंग लेखन में रूचि, विभागीय पत्रिका का संपादन, व्यंग गद्य लेख कादंबिनी, सरिता, व्यंग्य यात्रा तथा कविता, दोहे विभिन्न वेब मैगजीन यथा रचनाकार, गद्यकोश, मातृ- भारती, उदंती, साहित्य सुधा, साहित्य कुञ्ज, स्वर्गविभा, अभिव्यक्ति, प्रतिलिपि तथा समाचार पत्रों के साहित्य परिशिष्ठो पर सतत प्रकाशित।

एक e-book, ‘शिष्टाचार के बहाने’ व्यंग संग्रह, pustak bazar.com में उपलब्ध, इसे संपादक श्री सुमन घई ने, साहित्य कुञ्ज, वेब मैगजीन द्वारा, सौजन्य प्रकाशन किया है।

Email: susyadav7@gmail.com


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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: व्यंग्य संग्रह - गड़े मुर्दों की तलाश
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