01- "चंद शे'र" किस काम के हैं हम , बस यही आजमाते रहे। हजारों जख्म थे सीने पर , मगर मुस्कुराते रहे।। मैंने देखा है जिम्मे...
01-
"चंद शे'र"
किस काम के हैं हम , बस यही आजमाते रहे।
हजारों जख्म थे सीने पर , मगर मुस्कुराते रहे।।
मैंने देखा है जिम्मेदारियों को, हादसे में बदलते हुए।
ये भूख ना होती तो , ये हादसे भी कम होते ।।
जिंदा है तो बहुत कुछ, पाने की उम्मीद ना कर।
मौत का हादसा , सब कुछ समेट लेगा ।।
मत कर बात , हमसे उसूलों की।
मैंने तुझको और तेरे उसूलों को देखा है।।
☺️☺️
किस किस ने जख़्म , दिया है मुझको।
बता दूँ तो कुछ अपने ही रुसवा हो जायेंगे।।
अब तो दिन भी, खामोशी का वार करता है।
पहले ये हरकतें, काली रातों की निशानी थी।।
चलो आज , इश्क - ऐ - हिसाब कर दूँ मैं।
तुम्हारी नजर में, जो वाज़िब दाम है बताओ।।
जब मिलने का नाम ही , नहीं है मोहब्बत।
तो तुम्हारी नजर में मिलने की, तड़प क्यों दिखती है।।
छोड़ना चाहता हूँ , मैं मोहब्बत का शहर।
तुम्हारी नजर में कोई शहर है तो बताओ।।
मै क्यों दूँ अपनी मोहब्बत की सफाई।
जब तुम्हारे नजर में , मैं बावफ़ा ही नहीं।।
आप तो ऐसे ना थे , फिर अचानक क्या हुआ।
महफिलों को छोड़कर ही, बीच में जाने लगे।।
कुछ तो ऐसी बात है , तेरे दिल के गर्त में।
यूं किसी से रूठ जाना, आप तो ऐसे ना थे।।
❤️❤️
जख्म गहरे लाख थे , हँसकर सहा था आपने।
पाँव के कांटे पर चीखे , आप तो ऐसे न थे।।
हम दोनों ने किया था , गुनाह -ऐ- इश्क।
पर इश्क- ऐ-मुज़रिम ,मुझी को ही कहा गया।।
तो मैंने भी ले लिया , अदालत का सहारा।
पर वहाँ भी उनकी ही, गवाही मंजूर हुई।।
मैंने भी कब चाहा , कि उनको सज़ा मिले।
मुकदमा तो तारीखों पे, मिलने का बहाना था।।
❤️❤️
मैंने देखा है यहाँ , फौलादों को पिघलते ।
शायद तुझे, शहर की गर्मी का अंदाजा नहीं।।
️️
तुम करीब हो , फिर भी मुझे डर है।
मोहब्बत का क़ातिल, हर इक शहर है।।
जिंदगी जी कर तो देखो, तुम अपने उसूलों पर ।
भला भौंरो ने जान दी क्या, कागज के फूलों पर ।।
छल फरेब धोखों से, सजा हर किरदार है ।
बस इसी तरह चलता, इश्क का व्यापार है।।
इश्क में वफा करना, मुझे वह सिखाती है।
जो हर किसी को हमसफ़र, बना लेती है।।
यह कहां आइनें में , अपना किरदार देखती है।
मतलबी दुनिया रिश्तों में भी ,व्यापार देखती है।।
️️
कौन कहता है वह जिया है।
जिसने इश्क ना किया है।।
बहुत तवज्जो दी आखिर, जिंदगी में खाक निकला ।
शक़ तो था समंदर पर् , मगर कश्ती में सुराख निकला।।
तुम साथ थे जब, कश्ती की तरह।
समंदर का सफर,आसान लगता था।।
अंधेरे में जीने वाले , उजाले से डरते हैं ।
सुनो रक्त पीने वाले ,निवाले से डरते हैं।।
मन की निश्छलता का कोई रंग नहीं,
बेईमानी का कोई आकार कोई ढंग नहीं।
अपना कहकर ही लूटते हैं इश्क के बाजार में,
फ़रेबी मन ही होता है , ग़द्दार कोई रंग नहीं ।।
02-
हड्डियों में सौ दो सौ ग्राम
सफेद मांस के लोथड़ों के वज़ह से
अपने खानदानी रईसी रुआबों के वजह से
ज्यादा बुद्धिमान, समझदार, होशियार
एवं हुनरमंद होने की वजह से
कुछ लोग हो जाते हैं संस्कार विहीन
नहीं रह जाती है उनमें संवेदनशीलता, इंसानियत
जीने लगते हैं वह अपनी बनावटी दुनिया में
कोरी कल्पनाओं में
अंततः देखते ही देखते समाज से कब कट गए
कब सामने वाले की नजरों में गिर गए
उन्हें पता ही नहीं चलता
इसलिए हम दुआ करते हैं कि ,
कभी भी तुममें ऐसी अकड़ ना आए
03
जीवन के सागर में
उतार-चढ़ाव लेकर चलते हुए
रिश्तों में गलतफहमियां भी आ जाती हैं
लाज़मी है उनका आना
पर जरा सा मोहलत देकर
दूर कर लेना उन गलतफहमियों को
ये आदत ही उम्मीदों पर कायम रहना सिखाता है
उम्मीद और भरोसा ही
मोहब्बत के आलिंगन को मज़बूती देते हैं
इसलिए लाख गिले-शिकवे हों
ज़रा सा मोहलत देके
सुलझा लेना ही जिंदगी है...!
04
जब सत्ता को पाने के लिये
बोटियाँ की जातीं हैं,
इंसानियत की।
तो उन कुर्सियों से महक आती है
निर्दोष जीवों की,
सियासतदां मिसाल देता है
अपने ख्याति का
मगर उसके किरदार से महक आती है...
ये कभी अलग हो ही नही सकता,
फूल से उसकी सुगन्ध की तरह।
क्योंकि किरदार की
ख़ुशबू और बदबू
आचरण पर निर्भर होता है।
05
ग़ज़ल
तू मिल जाए तो खुशियों के, बाग लगा देंगे
इश्क भी गज़ल बन जाये , वो राग लगा देंगे
हम ऐसे मजनू नहीं जिसे दुनिया तबाह कर दे
हम तो पूरी दुनिया को ही आग लगा देंगे
तेरे सिवा दुनिया में , कोई खूबसूरत नहीं
कोई चांद कहा, तो उसमें भी, दाग बता देंगे
तुझे देखकर ही मना लूं, मैं ईद और दिवाली
तुझसे ही अपनी दुनिया के , साज़ बना लेंगे
तू जो साथ रहे तो , मुझे रंगों की जरूरत नहीं
तेरे शबनमी होठों से , ही फाग मना लेंगे
06-
दोहा
पद पावत मद होत है, पद जावत बदहोश।
नाथ कहे समझाइके , मन ना हो मदहोश।।
नाथ तू बलशील है, समझौ ना दूजा हीन।
जंगल में गज है बड़ो,जल में बड़ो है मीन।।
काज करत को काँपता , काहें मनवाँ मोर।
बिन किये कुछ ना मिलो, नाहक करत है शोर।।
माटी है तन तोर सुन, व्यर्थ ना कारज ठान।
जेहिं खातिर जन्म लियो,ऊ कारज पहिचान।।
सुगम समागम ईश से, अगम चाह ना ठानि।
ईश रीझि सब सुगम है,खीझि गयो तो हानि।।
मन तो बेपरवाह है, तन भी आलसखोर।
हरि पद कइसे पाइबो, जौ मन बासे चोर।।
आपन आपन निक है, दूजा दुर्गुन देखि।
चाहत मनमा अउर है, ऊपर दूजा लेखि।।
जिन्ही खातिर दुइ बिता,तिजपन हवे उरात।
नारी लक्ष्मी एक हैं , कबहुँ नाहि समात।।
धन दौलत को देखि के,कबहुँ ना करिहो आस।
मोहि कारज तु सवांर दे, धन है तोरा पास।।
- नाथ गोरखपुरी
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