(1) हम कवि हैं (अरुण कुमार प्रसाद) -------------------------- हम कवि हैं हम व्यक्ति,समाज,देश,विश्व व ब्रह्मांड की हर पीड़ा को श...
(1) हम कवि हैं
(अरुण कुमार प्रसाद)
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हम कवि हैं
हम व्यक्ति,समाज,देश,विश्व व ब्रह्मांड की
हर पीड़ा को शब्दों में रोते हैं
कराते हैं अक्षरों और स्वरों में प्रतिध्वनित ।
समाज के मानस में हमारी प्रतिष्ठा शायद छद्म है
और व्यवहार में व्यापक अवहेलना का भाव मुखर।
हम भावनाओं,भाव और हर दर्द के व्याख्याओं में
होते हैं उदात्त ऐश्वर्यशाली ।
भौतिक रूप से जीते हैं जिंदगी बदहालवाली।
तन पर चीथड़े से वस्त्रों को रखे
क्षुधावत उदर को भरोसे में लेते
सृष्टि के हर दर्द को रोते हैं।
हास्य,व्यंग्य की कृतियों में
आलोचनाओं में भी दर्द
सूक्ष्म-असूक्ष्म रूप में
होता है समाहित संत्रास का
अश्रुसिक्त राग।
जिसे हम अपनी अंतरात्मा के
तंतु से बोते हैं।
लोग अनदेखा कर जाते हैं किन्तु,
हम इससे नहीं सकते हैं भाग।
भोगे और देखे यथार्थ को
शब्द-रचनाओं में जीते हैं।
हर व्यथाओं को पुन:-पुन: पीते हैं।
हम कवि हैं,हमारी नियति
निरीह है।
समाज को लेकिन,
हम ही देते आये मसीह हैं।
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(2) हाईकू
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सामाजिक न्याय
असामाजिक तत्वों से
कैसा भरोसा।
तुलसीदास
रामचरितमानस
सांस्कृतिक विज्ञान।
स्तब्ध संस्कृति
खटखटा रहा है
सभ्यता का द्वार।
प्रजातंत्र था
प्रजा ने बना दिया
‘स्ट्राईक’तंत्र।
टी0वी0 के पर्दे।
कार्तिक महीने में
भागते कुत्ते।
पदों के मध्य
है कवि का श्रृंगार
हर्ष‚विषाद।
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(3) देवता तुम लौट आओ
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देवता तुम लौट आओ।
प्रार्थनाओं को सुनो।
कामनाओं को वर दो।
अभिलाषाओं को अदम्य करो।
लिप्साओं को विकसित,
ईप्सितों को अशमित
और हम मनुष्य को देवत्व।
प्रपंच बहुत,
डाह अत्यंत,
लोभ असीमित,
स्तेय अरिक्त,
शत्रुता अव्यक्त,
लंपटता हो अनुरक्त।
क्रोध प्रचंड,
मोह अनन्त,
अहंकार विशाल,
तिरस्कार कमाल,
युद्ध मेँ नृत्य,
शांति मेँ कुकृत्य
हम मनुष्य ने किए।
अगणित घोर निंदास्पद पलों को जिए।
देवता तुम लौट आओ।
हमें स्थापित कर जब तुम गये।
बहुत ऊर्जा,स्तुत्य बुद्धि,विवेक,विचार,तर्क ,सोच-
इन्हें आकलन हेतु गणित,
ब्रह्मांड ने तब से उत्सर्जित किए।
अस्वच्छ मन और मलिन दृष्टि से
हमने बनाया भोग्य।
हम मनुष्य के तौर-तरीके पर
हुए हैं अयोग्य।
देवता तुम लौट आओ।
पिण्डों और मूर्तियों मेँ
मंदिरों मेँ और चित्राकृत्तियों मेँ
नहीं।
मेरे तंतुओं मेँ
रक्त के उस प्रारंभिक कणों मेँ
जहाँ होता है
हमारे प्रादुर्भाव का आदि प्रकरण
संस्कारों,सभ्यताओं का निर्मल संस्करण।
देवता तुम लौट आओ।
ध्वंस और रचना का क्रम ।
देवता कहो
क्या नहीं है तुम्हारा भ्रम।
कहोगे?
प्राप्य क्या है,इस आवाजाही से!
और
मनुष्य के मानसिक,शारीरिक
आर्थिक,वैज्ञानिक,
साहित्यिक,सांस्कृतिक,
आध्यात्मिक संरचनाओं के तबाही से।
देवता,हमारा उद्देश्य,बताते जाओ।
अथवा स्पंदन के सारे आयाम और अवशेष
लेते जाओ।
ब्रह्मांड मेँ देवत्व हो।
मरणशील मनुष्य क्यों?
पत्थरों को,आकृतियों को
प्रदान करने का सिलसिला
देवत्व क्यों?
अप्सराओं का मोह छोड़ो।
देवत्प प्रस्थापित करने
भूलोक उन्मुख होओ ।
अपना रुख इधर मोड़ो।
देवता तुम लौट आओ।
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(4) मजदूर दिवस
(अरुण कुमार प्रसाद)
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कुछ रैलियाँ‚कुछ विचार गोष्ठियाँ‚सभाएँ
की जाएँगी जगह – जगह।
‘दुनिया के मजदूर एक हो’ के नारे से
आकाश गुँजाये जायेंगे‚ जगह – जगह।
आक्रोश शब्दों में भरकर लोगों में बाँटे जायेंगे‚
आवेश की लहर भेजेंगे जगह – जगह।
स्यात् कुछ प्रदर्शनियाँ लगाये जाएं
कल्याण व उत्थान बताने जगह – जगह।
मौके की तरह उठायेंगे लाभ प्रबंधन
अपना चेहरा छुपाने जगह – जगह।
संगठन की शक्ति का बड़े–बड़े शब्दों में
किया जायेगा बखान जगह – जगह।
किन्तु‚संगठन की इस शक्ति को औद्योगिक आतंक
बना देने वाले लोगो स्वार्थ छोड़ो जगह – जगह।
विरोध न बनाओ संगठन का चरित्र।
हड़ताल न बनाओ इसका विरोध।
इसे रचनात्मक आयाम देने के लिए
संगठन के विधि–विधान का हो प्रयोग।
ठहर कर सोचने को लोग‚कुछ बाध्य हों।
उद्योग रँगदारों व दादाओं से मुक्त हों।
ऐसा संकल्प लिया जाय जगह – जगह।
विकाश प्रण हो‚ उत्पादन प्राण हो‚
उत्पादकता लक्ष्य।
ऐसा कुछ औद्योगिक–धारा में डाले जाने का
उपक्रम हो जगह–जगह।
मजदूरों के इस दिवस पर‚हम कामना करते हैं
‘उनका’ चहुँमुखी विकाश और असीम उत्थान हो
और मजदूर दिवस को सच्चा अर्थ मिले।
उद्योग देश का‚उत्पादन समाज का
एवम् देश व समाज हो कर्मशील लोगों का’।
जय हो विजय सदा सर्वदा
ऐसे सब लोगों का यहां वहां जगह – जगह।
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(5) मंजिल
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एक दिन पालने,पोसने वाले
क्रोधित हो गये.
ऐसा होता है क्या?
ऐसा ही होता है.
आंचल रोया
अंचल ने मुझे खोया
और शायद खुश हुआ.
चलना था सो चल पड़े.
मंजिल तय किये बिना
उनके क्रोध ने
मुझे भर दिया था आत्मग्लानि से.
ऐसा होता है क्या?
ऐसा ही होता है.
अब मैं मजबूत पुट्ठों वाला युवा था.
किसी मंत्री या संतरी का पता
हासिल करने की
हैसियत तो नहीं थी मेरी.
पर,चलना अनिवार्यता थी.
चल पड़ा.
इसलिए
मंजिल हमारा आज भी
रास्ते हैं.
ऐसा होता है क्या?
ऐसा ही होता है.
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(6) क्षणिकाएं
1 शरम
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बेशरम हम हो गये तो शर्म में डूबी हो तुम।
शर्म तब आयी मुझे जब बेशरम बन खुल पड़ी।
2 सौन्दर्य को डर
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किसी लावण्यमय्ी के कपोलों को छूकर आती है हवा।
सँदल सा हो जाता है जिस्म और जाँ इसका।
होते ही वहाशत में बहने लगती है हवा
कहीं भय तो नहीं लुट जाने का लावण्य की दोशीजगी।
3 अश्क को शरम कैसी ?
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मैं रोता हूँ तेरी बेवफाई नहीं
अपने हाल पर।
दिल पत्थर का होगा तेरा
मेरा तो पत्थर की किस्मत है।
खोदना चाहे कोई लकीर भी
खोद ले अपनी ही कब्र।
रोने का मुझे ही नहीं तो
अश्क को शरम कैसी ?
4 वजह कैसी
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उनसे तकरार क्या और उनसे सुलह कैसी?
मुहब्बत का हक है यह‚इसकी वजह कैसी?
5 तन्हाईयाँ -
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सुई की नोक की तरह चुभती हैं तन्हाईयाँ।
मेरे चाहनेवाले आसमाँ से नहीं उतरेंगे।
6 पीना पिलाना
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पीजिये‚ पिलाईये होश में रहिये उन्हें बेहोश रखिये।
जिन्दगी के खोखलेपन का खुल जायेगा राज
सो पिला–पिला के उन्हें वदहवासी के होश में रखिये।
7 फर्ज
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मैंने‚नाजनीं तुझे छूने की कसम खायी थी
रतनारे ओठों को अँगुलियों से।
कजरारे आँखों की पुतलियों को।
तूने तड़पाया‚तरसाया मार डाला है।
अब दरगाह पर तू खुद चलकर आयी है।
'मेरे मजार का पत्थर बिके‚
कुछ कर्ज है क्या?
मैं तो कब्र से भी चुका दूँगा‚
ये है फर्ज मेरा'।
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(7) सुसंस्कृत संस्कार
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हिंसा जिसके ‘नाम’ करोगे
उसका फल
उसको मत देना।
शिक्षा जिसके नाम पढ़ोगे
विद्या वह
उसको मत देना।
साम्यवाद का वादा करना
समता पर
उनको मत देना।
मुझे ज्ञात इतिहास लिख रहा।
वर्तमान पर,
डंस मत लेना।
बकवासों सी कथा सुनाना।
अर्थ किन्तु
मत समझा देना।
मजहब सातो रंग से रंगना।
देव,देवता उसे बताना।
खालीपन, सब
मत कह देना।
शासन,सत्ता विधिवत करना
विधि–विधान की नीयत
किन्तु,
शासित को ही
मत कह देना।
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(8) नया वर्ष
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चाँद के दिन लदे,सूरज उतरेगा अब सब के आंगन में.
लाल-पीली रौशनी से लदा चमकेगा सब के प्रांगण में.
हमारे आकांक्षाओं के यादों के शव पर खड़ा होगा सूरज.
असफलताओं के सारे दुखों से कुतर बौना बनता सूरज.
दुहराने रास्ते को ‘चले हुए’,सफर पर निकलेंगे हम और तुम.
नयापन चेहरों पर चुपड़ कर नई मुस्कुराहटों से लैस चमचम.
पुराने सोच के नये जैकेट पहने नई संस्कृति के वादे दुहराते.
गढ़ेंगे नई सभ्यता के ध्वज लहराकर नई ध्वनि में गाते-गाते.
नये उमंग और उत्साह में भी पुराना दर्द रहेगा छलकता.
अस्वच्छ मन के पुराने सड़ांध सारी नई बातों में गमकता.
व्यभिचार के कब्र पर फूल की जगह पश्चाताप के आंसू चढ़ाकर.
पग बढ़ायेंगे आगे,अगले अनाचार व कुविचार को,ऐसा प्रण थमाकर.
नई आशाओं को दुल्हन की तरह सजाकर निकालेंगे ब्याह का बारात.
नई आकांक्षाओं को नये रंगों में रँग नये परिधानों का देंगे सौगात.
संघर्ष की पुरानी पीड़ाओं को दफन करने का संकल्प ही,नया है वर्ष.
गये वर्ष के अपमान से असहज होते मन को नया मान देना है हर्ष.
तत्पर रहेगा उलीचने को, दुखते दु:ख के दोपहर, हमारा अब दृढ निश्चय.
कल के आघात से दो–दो हाथ करने की लालसा की तीव्रता ही है विजय.
कल के पराजय से चिढ़े मन में विजय की भावना होना है उत्कर्ष.
नये वर्ष के इस नये उद्यम का ही होता आया है नाम नया संघर्ष.
उद्यम,पराक्रम,शौर्य,साहस,विवेक;लोभ,लिप्सा,निर्विचार,कर्म पर भारी.
नये वर्ष को करे उद्दीप्त और सुसंस्कृत,प्रभु से यही हो विनती हमारी.
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(9) सूत्र कुरु कुल रण का
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जब द्यूत की अवधि हुई पूर्ण।
पाण्डव लौटे कुछ और निपुण।
भेंटे सबको कौन्तेय तथा।
बोले वन के दुःख दर्द व्यथा।
अति विनम्र भाव से अभिवादन।
सहास्य अधर पर मृदु वचन।
‘था बँधा शर्त से किया पूर्ण शर्त।
हो हमें प्राप्त जीवन का अर्थ।
लौटा दें हमें अब इन्द्रप्रस्थ।
करें मलिन न मन‚करें इसे स्वच्छ।’
पर‚ कौरव ने कर मना दिया।
‘क्या विजित राज्य हमने न किया।
हर दाँव–पेंच का ही स्वरूप रहा।
यह द्यूत तो युद्ध का रूप रहा।’
हरि को भेंटे कौन्तेय निराश।
मन में ले बहुत उम्मीद आश।
“प्रभु‚किजिये कुछ‚कोई ठाँव‚ठौर।”
सुन सजल गये हरि नयन और।
प्रस्थान किए हरि हस्तिनापुर।
आशान्वित होकर वे प्रचुर।
हरि हुए उपस्थित सभा मध्य।
‘कौरव कुल गरिमा रहे भव्य।
आया मैं लिए प्रयोजन हूँ।
आज्ञा हो तो मैं व्यक्त करूँ।
मैं कुन्ती पुत्र का प्रतिकामी।
हे वीर‚ धर्म के अनुगामी।’
‘मन्तव्य आपका ज्ञात मुझे।
कहिये क्या कहते बात सखे।
पर‚इसके पूर्व यह लिजिये सुन।
है राज्य‚राज्य न कोई झुनझुन।
यह राज–पाट वे हार चुके।
क्यों रहे माँग हैं आप सखे।
रण ही निर्णय यह प्रण मेरा।
पाण्डवों को मृत्यु ने है घेरा।’
कौरव क्रोधित हो बोल उठा।
हरि का अन्तर भी डोल उठा।
न न्याय मिला न राज्य आधा।
कुल पाँच ग्राम हरि ने माँगा।
दुर्योधन इतना क्यों देता।
यह द्वापर था‚ था नहीं त्रेता।
उस युग में राम ने त्याग दिया।
साम्राज्य छोड़ वनवास लिया।
पर‚भरत ही क्या कुछ भोग सका।
कुछ भी नहीं उसको लोभ सका।
रघुकुलमणि लौटे वन से जब।
पुलकित हो अर्पण कर दिया सब।
कुल राज–पाट‚धन‚धरा‚धाम।
जीवन‚तन‚मन और किया नाम।
युग–युग में नीति बदलते हैं।
कुछ नये विचार निकलते हैं।
था घट गया मूल्य नैतिकता का।
संशय में द्वापर आ खड़ा हुआ।
नम्रता घटी‚ परम परमार्थ घटा।
इस युग में तप का ताप घटा।
अर्द्धांश धर्म का लुप्त हुआ।
मति भ्रमित‚ज्ञान भी गुप्त हुआ।
इतना सब कुछ हो जाये जब।
अनघट‚अनकथ कुछ शेष न तब।
‘इस राष्ट्र के स्वाभाविक अधिकारी।
हम कौरव हैं इसके उत्तराधिकारी।
सूच्याग्र बराबर भाग न दूँ।
पाडंव मर जाये आग न दूँ।
उद्घोष मेरा यह सुनें श्रेष्ठ।’
क्रोधित हो बोला कुरू ज्येष्ठ।
था वैर‚ विरोध‚ वैमन्स्य‚ बहुत।
मन में न अँटा हो गया व्यक्त।
पर‚ स्थिर रहे हरि बोले यों।
“कुरू श्रेष्ठ‚न यूँ तुम अपयश लो।
वे अन्य नहीं तेरा वंश‚ अंश।
कल‚ क्षोभ न बन जाये विध्वंश।
तुम पूज्य‚ गुरू‚ तुम श्रेष्ठ‚ वीर।
निर्णय कर‚ होकर खूब धीर।
नर हो नर का सम्मान करो।
इनका ऐसा न अपमान करो।
नर ही नर को जो करे हेय।
सृष्टि में फिर क्या बचा श्रेय।
विचलित यूँ धर्म न होने दो।
श्रेष्ठता पतित मत होने दो।”
उपदेश सभी पर गये व्यर्थ।
विपरित बुद्धि था हुए विलोम अर्थ।
‘करता प्रलाप अति व्यर्थ है यह।
इसे बाँधो‚ बाँधने योग्य है यह।’
‘बाँधो‚ पहले पर‚ सुनो हे श्रेष्ठ।
विनिमय–विचार अति सर्वश्रेष्ठ।
मैं सीधी बात बताता हूँ।
हक दे दो यह दुहराता हूँ।’
अति स्थिर रहे हरि बोले फिर।
पर‚ हुए न कौरव तनिक स्थिर।
क्रोधित हो अविवेकी दुर्योधन।
कर सभासदों का सम्बोधन।
भगवान कृष्ण बाँधने चला।
अपरिमित जो है मापने चला।
विधि का विधान हो गया प्रबल।
है सब दुर्बल वह एक सबल।
हरि ने स्वरूप विस्तार किया।
अपने में निहित अपार किया।
“सुन शठ‚ सको तो बाँध मुझे।
ब्रम्हाँड हूँ मैं‚ तुम साध मुझे।”
हरि क्रोध में जब फुत्कार उठे।
दिक् और दिगन्त चीत्कार उठे।
बोले “अब यह उद्घोष सुनो।
पाण्डव जीते जयघोष सुनो।”
मही डोल उठी‚नभ काँप उठा।
नद में‚ गिरि में उत्ताप उठा।
थे दुःखित हरि क्रोधित‚चिंतित।
थे व्यथित‚ उद्वेलित से किंचित।
मन में विचार अब क्या उपाय।
रण होगा ही मैं निरूपाय।
जब माँगे अंश न मिलता हो।
शान्ति संदेश भी न खिलता हो।
कर में तलवार उठा लेना।
रण साधन‚ साध्य बना लेना।
सब मीन–मेष को ताख चढ़ा।
सत् की अग्नि पर राख चढ़ा।
कुछ बुरा नहींऋक्या उचित यहीऋ
कुछ पाप नहींऋअनुचित है नहींऋ
युग की मान्यता पर‚ टूटेगी।
यह युद्ध समय को क्या देगीऋ
जन–मानस आलोड़ित होगा।.
यह निकृष्ट रण शाश्वत होगा।
रण जन‚ धन‚मन खा जायेगा।
बस भोग श्रेष्ठ हो जायेगा।
पर‚रण की दिशा तय करे कौन रण का कैसे हो संचालन।
इस विषय पे रहते हुए मौन आत्मोत्सर्ग करेंगे योद्धागण।
हस्तिनापुर से प्रस्थान किए चिंतन करते हरि त्याग सभा।
अन्तिम प्रयास इस प्रयाण पूर्व हरि के अन्तर साकार हुआ।
था कर्ण विसर्जनोपरान्त रथ पे आरूढ़ हरि ने देखा‚ जब।
है कर्ण सूत्र इस रण का‚ है दुर्योधन का अविचल सम्बल।
इंगित कर कर्ण को साथ लिए।
हरि जब वहाँ से प्रस्थान किये।
रथ पर सस्नेह बिठा करके।
हित‚अहित में भेद बता करके।
बोले—‘प्रिय‚ तुम योद्धा महान।
नीतिज्ञ‚ विवेकी‚ वीर–प्राण।
यह युद्ध रूके कुछ करो बात।
कुछ कर न सको तो छोड़ साथ।
कौरव कुल के हो केन्द्र तुम्हीं।
विश्वास‚ मनोबल‚ शक्ति तुम्हीं।
तेरा न मिले जो उसे साथ।
रण जायेगा टल ही हठात्।
हे कर्ण‚ सुनो एक सच वृतांत।
उद्विग्न न हो‚ हो धीर शान्त।
तुम नहीं दलित न तो सूतपुत्र।
तुम हो सूर्यांश‚ तुम सूर्यपुत्र।’
तन पुलकित होकर सिहर उठा।
हो चकित कर्ण‚ हरि को देखा।
अन्ततः सत्य हो गया प्रकट।
अविश्वास मेरा अब गया टूट।
संशय की आयु अब पूर्ण हुई।
गर्व उसका और वह चूर्ण हुई।
कर्ण के मन में विश्वास प्रफुल्ल।
मिल गया मुझे मेरा वंश व कुल।
हरि को निहार बोला कि “सुनें–
कर प्रकट सत्य उपकार किया।
हरि आपने विस्तृत संसार दिया।
पग–पग पर अपमानित कर्ण हरि।
अब तक जो रहा है विवर्ण हरि।
नत मस्तक है‚ अनुगृहीत तथा।
हो ऋणी गया हर रोम तथा।
आभार कोटि करता है ग्रहण।
मैं कर्ण‚ और मेरा तन‚ मन‚ धन।
पर‚ आज किया जो‚ तब करते।
अवसर मेरे हित पर‚ यदि कहते।
शत कोटि गुणित होता उपकृत।
पर‚ पुनः कर्ण हरि का आश्रित।”
कर नयन उठा किया अभिवादन।
“उपरांत इसके अभी है वृतांत।
हों स्थिर और सुनें अंगराज।
हैं आप पृथा के पुत्र अग्रज।
पाण्डव के आप भी हैं वंशज।
वरदान से पृथा थी अभिशप्त हुई।
‘देव–आह्वान्’के वर से तप्त हुई।
रवि ने जब माँगा रति दान।
भय श्राप का था सो लिया मान।
क्वाँरी थी पथ चुन सकी न अन्य।
पाकर पाण्डव हों जाँय धन्य।
हैं पिता सूर्य‚ माता कुन्ती।
खो आपको‚ वह है सिर धुनती।
पाण्डव के आ सिर – मौर बनें।
उनका पथ – दर्शक और बनें।
द्रौपदी का भी‚ पा लें षष्ठ अंश।
आ धन्य करें कौन्तेय – वंश।”
मृदु वचन प्रत्युत्तर देते हुए कर्ण।
बोला–“सब पर‚ है नियति जन्य।
जब प्रश्नों से मैं हुआ विद्ध।
हो गयी मेरी वाणी अवरूद्ध।
उस क्षण यदि घोषित हो जाता।
पा जननि अहा मैं क्या होता।
अतुलनीय वह असीम सुख होता।
आज वही पीड़ादायक व मैं रोता।
यह रहस्य जो था रहस्य बस रहे रहस्य विनती मेरी।
जैसे हूँ गिना गया अबतक वैसे ही हो गिनती मेरी।
द्रौपदी –सुख का जो दे रहे लोभ।
वस्तुतः दे रहे आप क्षोभ।
है विवश बड़ा ही कर्ण प्रभो।
हतभाग्य कि पा‚ खो दिया अहो।
कैसे कृतघ्न हो जाऊँ मैं।
होकर फिर भी जी पाऊँ मैं।
दुर्योधन ने जो सम्मान दिया।
जो मुकुट दिया‚ जो प्राण दिया।
होकर मनुष्य यदि भूल जाऊँ।
क्यों फिर मनुष्य मैं कहलाऊँ। “
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(10) सिकंदर भी मरता है।
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सिकंदर भी मरता है।
मरेंगे सिकंदर जैसे लोग भी।
मृत्यु सर्वदा सबके लिए जीवित है
लोग करें उसके होने का
चाहे जितना शोक ही।
प्रपंचित है इतिहास।
अचंभित;
रोये या करे अट्टहास ।
एकात्मवाद राष्ट्र का सर्वोपरि सोच है।
अनेकात्मवाद को इसमें करना समाहित
सुंदर सुयोग है।
भग्न होने से यह,आ जाता कोई सिकंदर है।
और रोती प्रजाएँ ही नहीं आसमान और
समुंदर हैं।
टुकड़ों में गौरव, राष्ट्र के गौरव का है हनन।
विभिन्नता में ऐक्य का भाव
तुम्हारा और हमारा है गर्वोन्न्त आनन।
मरता हर सिकंदर भी है।
क्रोध और क्षोभ से हम ही नहीं
लाल होता स्वर्ग में पुरंदर भी है।
हत्याओं से राष्ट्र की हत्या करने का गुमान
पालने वाला सिकंदर।
षड्यंत्र कर कैद किए गए सम्राट और योद्धाओं
और हत्याओं के भय से अविचलित प्रजाजनों
के कह देने से निर्भीक यह कि
हमारे साथ योद्धाओं की तरह करो व्यवहार
कि वीर गति को प्राप्त हुए भी हम पराजित नहीं होते
समर की शृंखला से हट जाते हैं बस
हे,यवन सिकंदर!
महान सम्राट और विश्व विजयी कहे जाने की लालसा पाले
वह हो गया प्रस्तरवत व पराजित।
हत्याओं ने जिसने अहंकार दिया और अजेय होने का भ्रम
अप्रतिम जीवन को शाश्वत रखने की जिद पर अड़ा
वह सिकंदर असमय वय-हीन होकर मरा।
हो गया शापित।
मरता सिकंदर भी है।
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परिचय
अरुण कुमार प्रसाद
शिक्षा--- ग्रेजुएट (मेकैनिकल इंजीनियरिंग)/स्नातक,यांत्रिक अभियांत्रिकी
सेवा- कोल इण्डिया लिमिटेड में प्राय: ३४ वर्षों तक विभिन्न पदों पर कार्यरत रहा हूँ.
वर्तमान-सेवा निवृत
साहित्यिक गतिविधि- लिखता हूँ जितना, प्रकाशित नहीं हूँ.१९६० से जब मैं सातवीं का छात्र था तब से लिखने की प्रक्रिया है.मेरे पास सैकड़ों रचनाएँ हैं.यदा कदा विभिन्न पत्र,पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ हूँ.
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