समर भवानी रानी दुर्गावती - प्रतिमा अखिलेश श्रीवास्तव

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समर भवानी रानी दुर्गावती कहता है आख्यान दुर्ग यह,गढ़ मंडल की रानी का | याद रहेगा  युगों-युगों संग्राम समर-भवानी का | जहाँ जिधर से छू कर द...

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समर भवानी रानी दुर्गावती


कहता है आख्यान दुर्ग यह,गढ़ मंडल की रानी का |
याद रहेगा  युगों-युगों संग्राम समर-भवानी का |

जहाँ जिधर से छू कर देखो,किला-भित्ति-चट्टानों को,     
खंड-खंड  होते भवनों के  चित्रित प्रस्तर- खानों को |
उसी काल से लटक रहीं जो, अक्षय वट की छालों को,

जो प्रत्यक्ष गवाही  देने, आतुर नदियों-तालों  को |
जाग   उठेंगीं   सुप्त तरंगें,  बोल    उठेंगी     दीवारें,
श्रंगी-नाद  यहीं  गूँजे थे, यहीं  चली  थीं   तलवारें |
गहरी काली निशा आज की उस दिन बहकी-बहकी थी,
वह समीर जो चली समर की, अंगारों सी दहकी थी | 
उफन-उफन जाती थी नदिया,ताप बढ़ा था पानी का |
याद  रहेगा  युगों-युगों संग्राम समर- भवानी  का |
1

कथा समय की ज्योति अभी तक बुझी नहीं उस ज्वाला की,
राजपूत  चंदेल-वंश  की गरिमा अद्भुत- बाला  की |
कीर्तिसिंह राजा की  कन्या,  दुर्गावती दुलारी थी ,
कालिंजर में पली-बढ़ी वह रणचंडी अवतारी थी |
वीरांगना भेष पिता के,साथ समर में जाती  थी,
रूद्र-भैरवी  रूप  धरे, दुश्मन को  मार  गिराती   थी  |
उसकी रग-रग में साहस का,रक्त-
प्रवाह मचलता था,
लक्ष्य प्रहार शत्रु की छाती पर, उत्साह मचलता था |
दसों दिशाओं में कोलाहल, उसकी  शौर्य- कहानी का,
याद  रहेगा युगों-युगों संग्राम समर-भवानी   का |

इस आखेटी रंग-रूप पर, दलपत शाह विमोहित थे |
गढ़ा मंडला के सिंहासन पर आरूढ़ सुशोभित थे |
बँधी प्रीत की  दूर-दूर  से,  ऐसी  मधुमय  डोरी थी ,
राजकुँवर दलपत की प्रेयसि राज्ञी हृदय चकोरी थी |
जैसे वीणा  के  मृदु  तारों  में रागिनी  समाई  थी,
दुर्गावती गौंडवाना की  रानी,बनकर आई  थी |
विन्ध्य-क्षेत्र था हरा-भरा, नदियों तालों से भरा हुआ,
पाकर  पति का पूर्ण  प्रेम, दुर्गा का  मन  भी हरा हुआ |
सकल दिशाएँ महक उठी थीं, स्वागत था महरानी का |
याद  रहेगा  युगों-युगों  संग्राम समर भवानी   का |

किंतु कहाँ स्वीकार नियति ने, किया खेल आघातों का।
पड़ा झेलना रानी को वैधव्य शोक दिन-रातों का।।
पतिगत प्राणा  अभी फूटकर , जी भर क्या रो पाई थी,
बाज-बहादुर, ने सीमा पर रण-दुंदुभी बजाई थी |
वीर अंगना, रण-भेरी सुन अश्रु पोंछ  रण   में   उतरी,
क्षण भर में चहुँ ओर मचा दी मार-काट ,अफरातफरी |
दुर्गावती सिंहनी से जब बाजबहादुर हार गया
देखा नहीं पलटकर, गढ़ को पराभूत लाचार गया।।
उसके सूबे में चर्चित था यह प्रसंग नादानी  का |
याद  रहेगा   युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |

चर्चाएँ  अब दूर-दूर  तक, फैल रही थीं  रानी की,
सेनापति  आधार संग ही, सरमन-गज  तूफ़ानी की |
अक़बर की सत्ता-सीमा में दुर्गावती-शौर्य-विस्तार।
आसिफ़ हमला करने आया गढ़ा मंडला दो-दो  बार।।
हुआ पराजित अपयश पाया, बदला लेने  था   तैयार,
तब बोला अक़बर से जाकर सही  ना जाती अपनी हार |
रहे  हरम में  मेरे ही वह, मेरी  ही   आराधक हो,
सहन न कर पाया अभिमानी ,कैसे स्त्री शासक हो | 
देख चुका था रंग-ढंग वह,दुर्गावती दिवानी का |
याद   रहेगा  युगों-युगों  तक भीषण समर भवानी  का |

गर्वीली थी बड़ी सजीली, हाँ-हाँ  बड़ी गठीली  थी,  
शत्रु मानते जिसका लोहा, सचमुच बड़ी  हठीली  थी  |
मुगलों की मुट्ठी जा पहुँची,अपनी कटि-तलवारों  पर,
मुगले-आज़म की हैरानी  वनिता-असि की  धारों  पर |
था स्वीकार नहीं उनको  भी झांझर  रण-झंकार बने,
चले  बुझाने अग्नि-शिखा को जब तक वह अंगार बने|
जा पहुँचा  आसिफ़ सीमा पर,कई सहस सेनानी  ले,
मन ही मन जो बुनी राह में,कल्पित विजय कहानी ले|
रात-दिवस बस  एक काम था,  गढ़-मंडल-निगरानी  का |
याद  रहेगा   युगों- युगों  तक भीषण समर भवानी   का|

घिरी हुई, दुर्गा  शंकाओं में यूँ उलझी  उलझन  में,
दमकेगी दामिनी भला अब कैसे  गहन तिमिर घन  में |
पुत्र वीर ने भाँप लिया था  बोला  ओजस्वी बानी,
कालनिनादी प्रति ध्वनि करने,आतुर हूँ मैं महारानी।
टंकारित हो   खड्ग सँभालो, ढाल   तुम्हारी मैं  हूँ माँ।
शक्ति-रूपिणी, महामयी  हुंकार  तुम्हारी   मैं  हूँ माँ।
  काँपे भू पद-भार कोप से समरांगण  में यूँ लड़ना,
बन काली अरि मान मर्दिनी शत्रु-वक्ष चढ़कर दलना।
कुछ भी हो लेकिन उत्तर देना होगा,   मनमानी का|
याद  रहेगा  युगों-युगों संग्राम। समर भवानी  का |

देख पुत्र का साहस,दुर्गावती  हुई थी बलिहारी,
थी सोलह वर्षीय,उम्र लेकिन सुत दस-दस पर भारी|
वही खड़ा था बिगुल फूँकने महाकाल बन जाने को,
बन अभिमन्यू शत्रु-व्यूह से टकराने, लड़ जाने को |
कसा  शीर्ष जूड़ा रानी ने, फिर सकोप शर-चाप लिया
खनक उठी कटिबंध-म्यान में, भाला कर से नाप लिया।
प्रथम भोर  ऊषा  लाली-सा,  माथे  तिलक लगाया जब
काल-ज्वाल-सी दमक उठी थी उसकी  क्रोधित  काया तब।
दुर्ग द्वार की  ओर बढ़ी ले, दल  सुभट्ट  सैनानी का |
याद  रहेगा  युगों-युगों संग्राम समर भवानी  का |

ठहर गयी सुनकर जयकारा करती वनिता-टोली,
लाज हमारी हाथ तुम्हारे रो-रोकर सब  बोलीं।
मचा हृदय कोलाहल भारी, रानी  बढ़ती  आगे,
पति  सँग वचन  लिए थे जो-जो,  अंतर्मन  में  जागे| 
आसिफ़ खां प्रत्यक्ष खड़ा मुख पर प्रसन्नता गहरी,
वीर  भेष में  देख  राज्ञी दृष्टि दुष्ट की ठहरी |
स्त्री के  हाथों में बरछा,  तरकश,   तीर   कटारें,
बोला मुझे देख मुस्का दो बिना युद्ध  हम   हारें,
सौंप खजाना चलो साथ, पद पाओ पटरानी  का |
याद  रहेगा  युगों-युगों संग्राम समर  भवानी  का |

असि सम चमका मुख रानी का जिस पल हाँक लगायी,
काँप गया आसिफ़ भीतर तक, जब सिंहनि गुर्रायी |
कंपित  रेवा सरि की लहरें, चमकी चपला  घन में,
ज्वालामुखी गौंडवानों के लगा धधकने तन में |
रक्त प्रदूषित  करने  आया,खल तू रेवा जल को,
सड़न शवों की सौंप रहा है, तू कुसुमित भूतल को|
तिल-तिल काट-काट फेंकूँगी,रुंड-मुंड घाटी में,
किन्तु न रखने दूँगी पग मैं इस पावन  माटी  में |
गरजी रानी आ मैं देखूँ बल प्रमत्त अभिमानी का |
याद  रहेगा  युगों-युगों संग्राम संग्राम भवानी  का |

सिंहनाद-रणभेरी  गूँजी, कूदी   रानी रण में,
हुआ गौंडवाना दल गोचर मुगलों को कण-कण में|
हमरे जियत  हमारी  रानी,  को  बैरी  मत छूना,
कह-कह भिड़े भट्ट  मुगलों  से बल- विक्रम से दूना |
टकराते थे अस्त्र-शस्त्र निर्भीक बदलकर पाली,
अरि-कंठों  को लगी काटने,  दुर्गावती-भुजाली |
कब कृपाण कब तीर-वीर, वह बरछा भाल चलाती,
  प्रगट हुई कब महाकाल सी, कब  रज  में  खो  जाती |
समर-भूमि पर लिखती किस्सा,
अरि-दल लहूलुहानी का |
याद रहेगा युगों-युगों संग्राम समर  भवानी का |

लाँघ शिलाएँ  गिरि-चोटी  की, आ जाती मैदानों में,
रक्त उबलता ताप लिए वह,  लड़ती थी मर्दानों   में |
हिरनी-सी भर रही चौकड़ी, दौड़ाती  थी  घोड़े  को,
वेग  काटती  आगे  बढ़ती,  ठुकराती  हर  रोड़े  को |
दुश्मन थे हैरान देखकर उस बल खाती माया को,
रण कौशल में सिद्धहस्त, उस रणचंडी की छाया को |
महाप्रलय की आँधी जैसी लघु सेना अभिमानी को,
मंत्र फूँकता था कानों में,  सेनापति  उस  ज्ञानी  को |
आसिफ़ खुद को धिक्-धिक् करता फल पाया नादानी का |
याद  रहेगा  युगों-युगों संग्राम  समर भवानी  का |

गिरा अश्व आहत प्रहार से सहसा आहें सुनकर।
आहत  पुत्र वीर नारायण, अवनि कराहें सुनकर|
दौड़ी रानी  उर-पीड़ा से,  लड़ती  चालों-भालों से,
घेर  उसे  लाई महरानी शीघ्र बचाकर ढालों  से |
बोली घाव  लगे हैं गहरे,  लौट   सुरक्षित  तुम जाओ,
रण  से  लौटूँ ना  लौटूँ  मैं, हृदय, कंठ तुम लग  जाओ |
भरे नयन से चूमा माथा,  घावों को सहलाया,
कर सवार तत्क्षण आधार सँग, उसको भवन पठाया।।
अब  अराति   देखेगा तांडव मेरी तीर-कमानी का |
याद  रहेगा  युगों-युगों संग्राम समर भवानी का |

महाघोर रव  सिंहनाद  से,   महामयी   गुर्रायी,
ज्यों अरि-दल के रक्त-पान को मुंडमालिनी   आयी |
गिरि अरावली लगी गूँजने, ठन-ठन-ठन तलवारों से,
  हुई धार  रक्तिम रेवा की  लाल रक्त बौछारों  से |
रवि-किरणों से तनिक न कम थी, दुर्गा-मुख की लाली
काली के भीतर सवार थे, भैरव, काल-कपाली |
बैरी-दल  को  दलती- छलती,  काट-काट शीशों को,
फेंक रही थी वन-वीथी पर,  बीसों पच्चीसों को |
आज उतारूँगी  बैरी का, चढ़ा  नशा सुलतानी का |
याद   रहेगा   युगों-युगों संग्राम  समर  भवानी का। 

समर-यज्ञ में प्राणाहुति  देने  आतुर थी  हा-हा,
अपनी साँसें डाल रही थी,   रानी करती स्वाहा |
धेनु-धूलि  बेला घिर आई, सैन्य- सुभट थक  हारे,  
तब  आसिफ़  ने  रण में अपने   सैनिक नये उतारे |
था  अषाढ़  का माह गगन से, होती वृष्टि निरंतर,
नर्रइ-नाले  में  थी रानी, दृष्टि शत्रु की उस पर।
विधि-विधान लिखने बैठा था अपना लेखा-जोखा,
तीर  एक  आ  लगा कंठ में,  दुर्गा  खायी धोखा  |
रक्त  देह में उबल रहा था, उसकी भरी जवानी का |
याद  रहेगा युगों-युगों संग्राम समर भवानी  का |

लगा दूसरा तीर नेत्र में, तब रानी   ललकारी
दो हाथों से दस-दस सीने,  में   तलवार उतारी | 
टूट पड़ो सब वीर-बहादुर निर्भय मत घबराना,
शपथ तुम्हें है आज समर में महारुद्र बन जाना
रानी की हुंकार सुनी, सेना ने  जोश बढ़ाया 
अरि-दल  की  छाती  पे चढ़कर,  तांडव रूप दिखाया।
पीड़ा और  रक्त से  लथपथ, लाल हुआ था  चेहरा,
लेकर आड़  सुरक्षित निकली मगर घाव था गहरा |
समझ युद्ध-परिणाम सुनिश्चित,समय हुआ दीवानी का  
याद  रहेगा  युगों-युगों  संग्राम समर भवानी  का |

सहसा गिरी निढाल शक्ति,भू पर, बोली सेनानी |
मार कृपाण वक्ष पर मेरे , करना अंत  कहानी |
हा-हा क्या कहती हो देवी, सैनिक सब घबराए |
गौंड राज्य की शक्ति-ज्योति यह कभी न बुझने पाए |
दिया  दिखाई  आसिफ़ आता दुर्गा सहसा चौंकी,
कटि से खींच  कृपाण स्वयं ही वक्षस्थल में  भौंकी |
बात आन  पे  बन आयी तो, उर विदीर्ण कर  डाला,
देह न छू पाये वह बैरी , भेद    न  पाये    भाला |
हृदय विदारक क्षण था वह साँसों की खींचा-तानी का |
याद  रहेगा  युगों-युगों,संग्राम समर  भवानी  का |

किया सृष्टि को नमन दृष्टि ने गढ़  का शिखर निहारा,
माटी  चूमी  बुझने  वाला था प्राणों का  तारा |
मूर्तिवंत-सी गिरी अवनि पर मिली देह   माटी  में,
रही ताकती मूक सृष्टि,था   महाशोक  घाटी में |
वहीं पास अरि-शोणित प्यासी, विकल कटार पड़ी थी,
कहती थी फिर मुझे उठा  लो, जो तलवार लड़ी थी |
हुई जहाँ घनघोर वृष्टि, फिर रात बिकल बीती थी,
उधर  शत्रु  की विजय,हार थी, इधर हार,जीती थी |
सुबह   सूर्य   लाया   संतापी,  संदेशा   कुर्बानी  का
याद   रहेगा  युगों-युगों संग्राम समर भवानी   का |

दुर्गावती तुम्हारी  गौरव  गाथा, अमर रहेगी,
पावन बलिदानी स्मृतियाँ दिव्य   समाधि कहेगी |
पूज्यनीय है यह बलिवेदी यहाँ सोयी चिंगारी है,
सूरज ने आरती उतारी,रेवा चरण पखारी है।
ग्राम-ग्राम,घर, नगर-डगर , भू-अम्बर में  ख्याति है।
दुर्गा  के  बलिदान  त्याग पर,   गर्वित  नारी जाति है।
इसी भूमि का कण-कण गाता, वह अतीत की गाथा है,
जिसको सुनकर गर्वित सीना, गर्वित जग का माथा है |
गूँज रहा ब्रह्मांड-विश्व में  स्वर  ओजस्वी  बानी का |   |
याद   रहेगा  युगों-युगों, संग्राम समर भवानी   का |


प्रतिमा अखिलेश श्रीवास्तव
दादू मोहल्ला संजय वार्ड
सिवनी 480661 म प्र

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रचनाकार: समर भवानी रानी दुर्गावती - प्रतिमा अखिलेश श्रीवास्तव
समर भवानी रानी दुर्गावती - प्रतिमा अखिलेश श्रीवास्तव
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