पुस्तक समीक्षा : कोचिंग@कोटा कोचिंग जगत की गम्भीर पड़ताल करती एक सार्थक कृति है कोचिंग @कोटा समीक्षक : प्रभाशंकर उपाध्याय श्री अरूण अर्णव खर...
पुस्तक समीक्षा : कोचिंग@कोटा
कोचिंग जगत की गम्भीर पड़ताल करती एक सार्थक कृति है कोचिंग@कोटा
समीक्षक : प्रभाशंकर उपाध्याय
श्री अरूण अर्णव खरे साहित्य जगत में सुपरिचित नाम है । उनकी कविताएं, कहानियां और व्यंग्य सतत प्रकाशित होते रहे हैं । "हैश, टैग और मैं" व "भास्कर राव इंजीनियर" उनके चर्चित व्यंग्य एवं कहानी संग्रह हैं । इसके अलावा उनके खेल-कूद संबंधी आलेख काफी समय से छपते आ रहे हैं तथा खेलों पर भी छ: पुस्तकें प्रकाशित हैं ।
“कोचिंग @ कोटा” अरूण जी का पहला उपन्यास है । इसे पढ़कर कहीं से भी यह नहीं लगता कि यह उनकी पहली औपन्यासिक कृति होगी । 130 पृष्ठों के इस उपन्यास के कथ्य और शिल्प में कहीं झोल नहीं है। कहीं ऊबाऊ और अनावश्यक प्रसंग नहीं है। कथा बड़ी सहजता से आगे बढ़ती जाती है और अंत में मार्मिक तथा प्रेरणादायी उपसंहार दे जाती है। यहां वरिष्ठ रचनाकार डॉ. सूर्यबाला की ये पंक्तियां मुझे सही प्रतीत होती हैं कि जीवन के लिए कुछ सार्थक और बेहतर की तलाश अरूण अर्णव खरे की कलम की प्राथमिकताओं में शामिल हैं।
“कोचिंग @ कोटा” कोचिंग के मक्का कहे जाने वाले कोटा की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उपन्यास है | कोटा ने उत्तरी भारत में मेडीकल और इंजीनियरिंग की प्रवेश की प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग में अपनी विशेष पहचान बनायी है । प्रतिवर्ष दो लाख से अधिक, विविध शैक्षणिक, सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक आधार के छात्र विभिन्न प्रांतों से यहां आते हैं । बाहर से आए, विद्यार्थियों की दशा तथा अंतरदशा की अभिव्यक्ति की कहानी है, यह उपन्यास।
कथा का आरंभ समीर और चित्रा नामक कोचिंग के विद्यार्थियों के परस्पर आकर्षण से होता है | यह उपन्यास कोचिंग के विद्यार्थियों के संघर्ष और सफलता की जिजीविषा के साथ ही त्रासदी को भी व्यक्त करता चलता है । अभिभावकों के आर्थिक दबाव को भी प्रमुखता से उपन्यास में उठाया गया है | संकेत ऐसा ही छात्र है, जिसके पिता एक निजी विद्यालय में अध्यापक हैं । आर्थिक स्थिति अधिक अच्छी नहीं होने पर भी वे जैसे तैसे अपने पुत्र की मंहगी कोचिंग करवा रहे हैं । लेकिन संकेत तीन वर्षों में भी सफलता प्राप्त नहीं कर सका । पिता दस लाख के कर्ज में डूब जाते हैं और हताश होकर आत्महत्या कर लेते हैं । दरअसल, संकेत एक ऐसे व्यक्ति के चंगुल में फंस जाता है, जो खुद एक बड़ा बहुरूपिया है | वह नियमित अंतराल पर कोटा आता है और भोले-भाले बच्चों को अपने मायाजाल में उलझाकर उनका शोषण करता है |
अरूण जी एक सिद्धहस्त कलमकार की तरह कोचिंग छात्रों की मनस्थिति का भी बड़ी कुशलता पूर्वक वर्णन करते चलते हैं। देखिए यह अंश- ‘‘इसके बाद हम लोग पढाई में इतना डूब चुके थे कि बुरी से बुरी खबर भी हमारे मन को विचलित नहीं कर रही थी। इसका सबसे बड़ा सबूत तो रतन के जाने के एक सप्ताह बाद ही मिला, जब एडवांस में पास न हो पाने की वजह से कुणाल अग्निहोत्री ने सल्फास खाकर अपनी जान दे दी और हममें से कोई भी इस हादसे पर आंसू बहाने को तैयार नहीं दिखा । थोड़ा दुख जता कर ही सब वापस अपने में खो गए । इससे पहले हमने कितनी ही बार आपस में दूसरे बच्चों की संवेदनहीनता की चर्चा की थी पर इस बार हम स्वयं स्वार्थवश संवेदनहीन हो गए थे । एक मोटीवेशनल स्पीकर के अनुसार हमने अपनी भावनाओं को नियंत्रित करना सीख लिया था ।’’
उपन्यास के नायक समीर का यह सोचना द्रवित कर जाता है कि "एक रण जीतने की खातिर कितनी खुशियों की बलि देनी पड़ रही है -- कितने मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है | न मैं छुटकी की वह खुशी देख पाया जो उसके चेहरे पर अपना पहला सम्मान ग्रहण करते समय आई होगी और न ही मैं आबिद का आलराउण्ड खेल देख सका जिसने उसे प्रदेश की अण्डर-19 टीम तक पहुँचा दिया |" समीर की परिपक्व सोच उसे हौसला देती है | जब वह सोचता है कि "ऊपरवाला सब बैलेंस करके चलता है -- यदि जिन्दगी में यह बैलेंस न रहे तो जिन्दगी बेपटरी होने का खतरा बढ़ जाता है |"
लेकिन जब समीर पर विपदा आ पड़ती है तो भावनाओं को नियंत्रित करने की उसकी इच्छा शक्ति कहीं तिरोहित हो जाती है । समीर की दादी के देहांत का समाचार उसे छोटी बहिन के फोन से मिलता है तो वह व्यथित हो जाता है । वह बहिन को स्काइप पर काल करता है और देखता है कि दादी की अर्थी सज चुकी थी । पापा, चाचा, फूफा, पापा के बहुत से दोस्त, कालोनी के लोग, मम्मी, दोनों बुआ सब दिखाई दे रहे थे । महिलाओं का समवेत रूदन जारी था । चाचा और छोटे फूफा ने आगे से अर्थी को कंधा दिया और पीछे से पापा के घनिष्ठ मित्र मोहन और आबिद के अब्बू ने । पापा हाथ में अग्नि की मटकी थामे सबसे आगे-आगे चल रहे थे । नवीन के पापा ने हौंसला देते हुए, उनका हाथ पकड़ रखा था ।’’
इस प्रकार अरूण जी ने इस उपन्यास में अपने घरों से सैंकड़ों किलोमीटर दूर रह रहे किशोरों की मनःस्थिति और उनके प्रेम के उन्मान को बड़ी कुशलता पूर्वक उकेरने में सफल प्रयास किया है। अरूण जी अपनी रचनाओं को एक नयी दृष्टि के साथ प्रस्तुत करते हैं । वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी के अनुसार वे आम बोलचाल के शब्दों को परिवर्तित रूप में व्यंग्य के औजार की तरह प्रयोग करते हैं । व्यंग्य जगत के नामचीन समालोचक श्री सुभाष चंदर के मुताबिक अरूण जी के व्यंग्यों में विट के साथ वक्रोक्ति का भी अच्छा प्रयोग है । यह उपन्यास व्यंग्य उपन्यास नहीं है लेकिन कुछ स्थानों पर श्री अरुण का व्यंग्यकार भी सामने आ जाता है |
उपन्यास की कहानी में प्रवाह है, अंत तक रोचकता बनी रहती है | चित्रा-समीर के संवादों में किशोरवय की रवानगी है | सबसे खास बात कथा का अंत अत्यधिक मर्मस्पर्शी और चौंकाने वाला है ।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कोचिंग @ कोटा एक पठनीय कृति है और उम्मीद की जा सकती है कि इसे पढ़कर कोचिंग की आपाधापी और स्पर्धा का दबाव झेल रहे अभिभावक अपने और अपनी संतानों पर पड़ रहे अनावश्यक दबाव को महसूस कर सकेंगे। यही इस उपन्यास की सार्थकता होगी । पुस्तक का आवरण सुंदर है।
पुस्तक का नाम- कोचिंग @ कोटा
लेखक- अरूण अर्णव खरे
पृष्ठ- 130
मूल्य- पेपर बैक रू.180/-
प्रकाशक- एपीएन पब्लिकेशन्स
उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
-प्रभाशंकर उपाध्याय
193, महाराणा प्रताप कॉलोनी
सवाईमाधोपुर (राज.)- 322001
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