(प्रस्तुत लेख “झूलने” नामक पुस्तक की प्रस्तावना है। इस पुस्तक के रचयिता सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम (1899-1978) थे जो उर्दू के लेखक, कवि, आलो...
(प्रस्तुत लेख “झूलने” नामक पुस्तक की प्रस्तावना है। इस पुस्तक के रचयिता सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम (1899-1978)थे जो उर्दू के लेखक, कवि, आलोचक, शिक्षक और ब्रॉडकास्टर थे। झूलने छोटी-छोटी लगभग पचास कविताओं पर आधारित एक संग्रह है, जिसकी प्रत्येक कविता के लिए मिशेल फ़ारूक़ी द्वारा बनाया हुआ एक कार्टून है।
बच्चों के साहित्य के संबंध में सूफ़ी ग़ुलाम मुस्तफ़ा तबस्सुम का नाम नया नहीं था। झूलने से पहले उनके द्वारा रचित बच्चों की कवितायें, विशेष रूप से उनके “टूट बटूट” नामक किरदार से संबंधित कवितायें, बच्चों और बड़ों में समान रूप से लोकप्रिय रह चुकी थीं।
पतरस बुख़ारी द्वारा लिखित यह प्रस्तावना उनकी अन्य रचनाओं की भांति अत्यंत रोचक है और हल्के-फुल्के अंदाज़ में कही हुई बुद्धिमत्तापूर्ण बातों से जगमगा रही है। ---अनुवादक)
झूलने की कुछ कविताओं के नमूने प्रस्तुत हैं:
गुड़िया
अज़रा की गुड़िया
सोई हुई है
घंटी बजाओ!
उसको जगाओ!
तौबा है मेरी
मैं न जगाऊँ
वह रो पड़ेगी
मुझसे लड़ेगी
चीचूँ
चीचूँ-चीचूँ चाचा
घड़ी पे चूहा नाचा
घड़ी ने एक बजाया
चूहा नीचे आया
टर-टर
करे टर-टर, करे टर-टर
तेरी लारी, तेरी मोटर
चले छम छम, चले छम छम
मेरा घोड़ा, मेरी टमटम
अंडा
“मुर्गे, मैंने अंडा दिया!”
“मुर्गी! तूने ख़ूब किया!”
“अंडे इतने चंगे हैं,
पाँव मेरे नंगे हैं”
“कैसी बातें करती हो ?
अंडे बेचो! जूते लो!”
बिल्ली
दुनिया के रंग निराले
बिल्ली ने चूहे पाले
चूहों ने धूम मचाई
बिल्ली की शामत आई
दोनों शेर
एक था तीतर, एक बटेर
लड़ने में थे दोनों शेर
लड़ते लड़ते हो गई गुम
एक की चोंच और एक की दुम
मुन्ना
चमचा लंबा थाली गोल
बन्दर लेकर आया ढोल
पेड़ पे नाचा काला नाग
चूहा गाता आया राग
चाँद पे जाकर कूदा शेर
बिल्ली खा गई सारे बेर
चमचा, थाली ले गया साथ
मुन्ना रह गया ख़ाली हाथ
***
ऐसी हल्की-फुल्की पुस्तक पर जो छोटे बच्चों के लिए लिखी गई है प्रस्तावना का बोझ न पड़ना चाहिए था। लेकिन बच्चों के साथ प्रकृति ने माता-पिता की और मनुष्य ने गुरु की प्रतिबद्धता लगा रखी है। सूफ़ी तबस्सुम को जो पुस्तक के लेखक होने के अतिरिक्त “माता-पिता” भी हैं और “गुरु” भी, यह गवारा न हुआ कि बच्चों को तो बहलाया जाए और माता-पिता और गुरुओं की परवाह न की जाए। इसलिए तय हुआ कि वे बच्चों को कवितायेँ सुनाएँ और मैं मता-पिता आदि को बातों में लगाए रखूँ।
बच्चों का बहलाना आसान है। बड़ों का बहलाना आसान नहीं। बच्चों ने तो यह पढ़ा कि “चीचूँ-चीचूँ चाचा, घड़ी पे चूहा नाचा” और ख़ुश हुए। बड़े कहेंगे “चीचूँ” हमने तो किसी शब्दकोष में देखा नहीं। और यदि “चाचा” से आशय “चचा” है तो यह सभी लागों की भाषा नहीं और यह जो “घड़ी पे चूहा नाचा”, तो भला क्यों? और बहरहाल इस तुकबंदी का नतीजा क्या? इससे बच्चों को कौन सी सीख मिली?
ये सब प्रश्न अत्यंत ज़िम्मेदारी भरे और गंभीर प्रश्न हैं। दूसरे शब्दों में उन लोगों के प्रश्न हैं जो अपना बचपन भुला बैठे हैं। या जो यह संकल्प किए बैठे हैं कि जिन बातों से उनका बचपन रंगीन हुआ था, वे इस दुनिया में अब न दोहराई जाएँगी। तुकबंदी मिलाना बेफ़ायदा बात है। बोझों मारना चाहिए।
ख़ुदा का शुक्र है, सूफ़ी तबस्सुम को एक ऐसी दानाई (बुद्धिमत्ता) प्रदान की गई है कि नादानी के स्वाद से अभी वंचित नहीं हुए। वे जानते हैं कि बच्चों का मन वह विचित्र दुनिया है जिसमें पेड़ों पर नाग नाचते हैं और बिल्लियाँ बेर खाती हैं और टर-टर मोटर, छम छम टम-टम में लय व सुर के वो सारे स्वाद समा जाते हैं जो बड़े होकर तानसेन के चमत्कार से भी उपलब्ध नहीं होते। यह वह दुनिया है जिसमें गुड़ियाँ और जानवर और पक्षी और इंसान सब एक दूसरे के दोस्त हैं और एक दूसरे के दुःख-सुख में शरीक होते हैं। यानी सब प्राणी एक ही ईश्वर के प्राणी होते हैं। बड़े होकर मानव मस्तिष्क हज़ार दार्शनिक उहापोह और नए-से-नए विचार के बाद भी मुश्किल से इस सतह पर पहुँचता है।
इसलिए क़ाबिले-रश्क हैं सूफ़ी तबस्सुम कि निःसंकोच इस रंगीन दुनिया में चहचहा रहे हैं। सब जानते हैं कि सूफ़ी तबस्सुम एक परिष्कृत स्वभाव के काव्य-मर्मज्ञ और कवि हैं। उर्दू फ़ारसी ग़ज़ल उस्ताद कवियों की शैली में कहते हैं और भावों की अभिव्यक्ति की सूक्ष्मताओं को ख़ूब समझते हैं। यह संग्रह उनकी कविता में रविवार का दिन है और यूँ तो रविवार मनाने में उन्होंने बड़े-बड़े उस्ताद कवियों का अनुसरण किया है, लेकिन यह न समझिये कि इस दिन वे बिल्कुल ही दिमाग़ ख़ाली करके बैठते हैं और जो मुँह में आए कह डालते हैं। ग़ौर से देखिये तो मालूम होगा कि यह काम काफ़िया (तुकबन्दी) और छंद और ध्वनि व लय-सुर और शब्दों की सूक्ष्मताओं पर नियंत्रण रखे बिना संभव न था। इसलिए सूफ़ी ‘तबस्सुम’ की सृजनात्मक निपुणता, मानसिक परिपक्वता व विदग्धता के प्रमाण इसमें जगह-जगह आपको नज़र आएँगे। ऐसी कविता का दर्जा मोहमल-ए-मुम्तना (अति-सरल अनर्गल बात)I का दर्जा है। जैसे सहल-ए-मुम्तना (अति-सरल कविता) सरल नहीं होता उसी तरह मोहमल-ए-मुम्तना भी मोहमल (अनर्गल) नहीं होता। दुआ है कि सूफ़ी ‘तबस्सुम’ का यह बचपन हमेशा क़ायम रहे और उनके प्रशंसक हमेशा उन्हें यह कहने के क़ाबिल हों कि:
चहल साल उम्र-ए-अज़ीज़त गुज़श्त
मिज़ाज-ए-तू अज़ हाल-ए-तिफ़ली नगश्त
(चालीस साल तुम्हारी प्रिय उम्र गुज़र गई लेकिन
तुम्हारा स्वभाव बचपन की हालत से बाहर न निकला )
“पतरस”
दिल्ली, 5 जून, 1946
---
अहमद शाह पतरस बुख़ारी
(1 अक्टूबर 1898- 5 दिसंबर 1958)
असली नाम सैयद अहमद शाह बुख़ारी था। पतरस बुख़ारी के नाम से प्रशिद्ध हैं। जन्म पेशावर में हुआ। उर्दू अंग्रेज़ी, फ़ारसी और पंजाबी भाषाओं के माहिर थे। प्रारम्भिक शिक्षा से इंटरमीडिएट तक की शिक्षा पेशावर में हासिल की। लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज से बी.ए. (1917) और अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. (1919) किया। इसी दौरान गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर की पत्रिका “रावी” के सम्पादक रहे।
1925-1926 में इंगलिस्तान में इमानुएल कॉलेज कैम्ब्रिज से अंग्रेज़ी साहित्य में Tripos की सनद प्राप्त की। वापस आकर पहले सेंट्रल ट्रेनिंग कॉलेज और फिर गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में प्रोफ़ेसर रहे। 1940 में गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर के प्रिंसिपल हुए। 1940 ही में ऑल इंडिया रेडियो में कंट्रोलर जनरल हुए। 1952 में संयुक्त राष्ट्र संघ में पाकिस्तान के स्थाई प्रतिनिधि हुए। 1954 में संयुक्त राष्ट्र संघ में सूचना विभाग के डिप्टी सेक्रेटरी जनरल चुने गए। दिल का दौरा पड़ने से 1958 में न्यू यार्क में देहांत हुआ।
पतरस ने बहुत कम लिखा। “पतरस के मज़ामीन” के नाम से उनके हास्य निबंधों का संग्रह 1934 में प्रकाशित हुआ जो 11 निबंधों और एक प्रस्तावना पर आधारित है। इस छोटे से संग्रह ने उर्दू पाठकों में हलचल मचा दी और उर्दू हास्य-साहित्य के इतिहास में पतरस का नाम अमर कर दिया। उर्दू के व्यंग्यकार प्रोफ़ेसर रशीद अहमद सिद्दिक़ी लिखते हैं “रावी” में पतरस का निबंध “कुत्ते” पढ़ा तो ऐसा महसूस हुआ जैसे लिखने वाले ने इस निबंध से जो प्रतिष्ठा प्राप्त करली है वह बहुतों को तमाम उम्र नसीब न होगी।....... हंस-हंस के मार डालने का गुर बुख़ारी को ख़ूब आता है। हास्य और हास्य लेखन की यह पराकाष्ठा है....... पतरस मज़े की बातें मज़े से कहते हैं और जल्द कह देते हैं। इंतज़ार करने और सोच में पड़ने की ज़हमत में किसी को नहीं डालते। यही वजह है कि वे पढ़ने वाले का विश्वास बहुत जल्द हासिल कर लेते हैं।” पतरस की विशेषता यह है कि वे चुटकले नहीं सुनाते, हास्यजनक घटनाओं का निर्माण करते और मामूली से मामूली बात में हास्य के पहलू देख लेते हैं। इस छोटे से संग्रह द्वारा उन्होंने भविष्य के हास्य व व्यंग्य लेखकों के लिए नई राहें खोल दी हैं । उर्दू के महानतम हास्य लेखक मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी एक साक्षात्कार में कहते हैं “….पतरस आज भी ऐसा है कि कभी गाड़ी अटक जाती है तो उसका एक पन्ना खोलते हैं तो ज़ेहन की बहुत सी गाँठें खुल जाती हैं और क़लम रवाँ हो जाती है।”
पतरस के हास्य निबंध इतने प्रसिद्द हुए कि बहुत कम लोग जानते हैं कि वे एक महान अनुवादक (अंग्रेज़ी से उर्दू), आलोचक, वक्ता और राजनयिक थे। गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में नियुक्ति के दौरान उन्होंने अपने गिर्द शिक्षित, ज़हीन और होनहार नौजवान छात्रों का एक झुरमुट इकठ्ठा कर लिया। उनके शिष्यों में उर्दू के मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ शामिल थे।
--
डॉ. आफ़ताब अहमद
व्याख्याता, हिंदी-उर्दू, कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क
जन्म- स्थान: ग्राम: ज़ैनुद्दीन पुर, ज़िला: अम्बेडकर नगर, उत्तर प्रदेश, भारत
शिक्षा: जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी, दिल्ली से उर्दू साहित्य में एम. ए. एम.फ़िल और पी.एच.डी. की उपाधि। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ से आधुनिक इतिहास में स्नातक ।
कार्यक्षेत्र: पिछले आठ वर्षों से कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क में हिंदी-उर्दू भाषा और साहित्य का प्राध्यापन। सन 2006 से 2010 तक यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफ़ोर्निया, बर्कली में उर्दू भाषा और साहित्य के व्याख्याता । 2001 से 2006 के बीच अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ़ इन्डियन स्टडीज़, लखनऊ के उर्दू कार्यक्रम के निर्देशक ।
विशेष रूचि: हास्य व व्यंग्य साहित्य और अनुवाद ।
प्रकाशन: सआदत हसन मंटो की चौदह कहानियों का “बॉम्बे स्टोरीज़” के शीर्षक से अंग्रेज़ी अनुवाद (संयुक्त अनुवादक : आफ़ताब अहमद और मैट रीक)
मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी के उपन्यास “मृगमरीचिका” का अंग्रेज़ी अनुवाद ‘मिराजेज़ ऑफ़ दि माइंड’(संयुक्त अनुवादक : आफ़ताब अहमद और मैट रीक)
पतरस बुख़ारी के उर्दू हास्य-निबंधों और कहानीकार सैयद मुहम्मद अशरफ़ की उर्दू कहानियों के अंग्रेज़ी अनुवाद ( संयुक्त अनुवादक : आफ़ताब अहमद और मैट रीक ) कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित।
सम्प्रति: हिन्दी-उर्दू लैंग्वेज प्रोग्राम, दि डिपॉर्टमेंट ऑफ़ मिडिल ईस्टर्न, साउथ एशियन एंड अफ़्रीकन स्टडीज़, कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क से सम्बद्ध।
--
I मोहमल-ए-मुम्तना- अर्थात अति सरल ढंग से कही गई अनर्गल या ऊटपटांग बात। यह शब्द-युग्म “सहल-ए-मुम्तना” की पैरोडी है जिसका अर्थ है ऐसा अति सरल शेर जिसको और सरल बनाना या गद्य में भी उससे सरल बनाना संभव ही न हो। देखने में यह आसान तो लगता है लेकिन सहल-ए-मुम्तना कहना बहुत मुश्किल काम है।
COMMENTS