नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020 - प्रविष्टि क्र. 28 - सहयात्री - महेश शर्मा

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रचनाकार.ऑर्ग नाटक / एकांकी / रेडियो नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020

प्रविष्टि क्र. 28 - सहयात्री

महेश शर्मा

(एकाँकी नाटक)

“सहयात्री”

लेखक : महेश शर्मा

:: पात्र परिचय ::

वृद्ध 1

वृद्ध 2

युवक

दृश्य 1 :

[मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश उभरता है। सर्दियों की एक दोपहर। हल्का कोहरा छाया हुआ है। एक छोटे से कस्बे का निर्जन सा रेल्वे स्टेशन। मंच पर बीचों-बीच एक बड़ी सी बेंच रखी हुई है जिसके एक कोने में वृद्ध 1 सिकुड़ा हुआ बैठा है। गर्म कोट-पैंट पहने है तथा खुद को एक गर्म शॉल में लपेट रखा है। वह एक टक दूर किसी शून्य में ताक रहा है। नेपथ्य से कभी-कभार ‘चाय’, ‘चना ज़ोर गरम’, ‘मूँगफली’ बेचने वालों की आवाज़ें सुनाई दे जाती हैं। किसी ट्रेन का एक लंबा हॉर्न सुनाई देता है – जैसे वह स्टेशन से रवाना होने वाली हो। कुछ ही देर में एक युवक आता है। वह बहुत ही बदहवास सा दिखाई दे रहा है। हाथ में एक पुराने किस्म का बड़ा सा सन्दूक पकड़े हुए है]

युवक : [ऊँची आवाज़ में] डैड! डैड!

[कुछ क्षण इधर-उधर नज़र मारता है फिर वृद्ध 1 से मुखातिब होते हुए] एक्स्क्यूज मी अंकल! हैव यू सीन – आई मीन – अभी यहाँ पर किसी को देखा क्या आपने? एक बूढ़े से आदमी को? मतलब आप ही कि तरह। नो-नो आई मीन...

[वृद्ध 1 कोई जवाब नहीं देता है। युवक अब परेशान हो उठता है]

अरे सुनिए अंकल! प्लीज़!

वृद्ध 1 : नहीं मैंने किसी को नहीं देखा। एंड डोंट यू डिस्टर्ब मी अगेन!

[युवक अपना सन्दूक नीचे रख देता है। एक कोने में जाकर देखता हुआ फिर ऊँचे स्वर में पुकारता है – ‘डैड – डैड!’]

युवक : अंकल प्लीज़ आप इस बॉक्स का ध्यान रखिएगा – मैं ज़रा स्टेशन से बाहर जाकर देखता हूँ। बस अभी आया।

[युवक बाहर चला जाता है। वृद्ध पहले की ही तरह शून्य में कुछ देर देखता रहता है। फिर वह एक नज़र बॉक्स पर डालता है। सन्दूक उसके पैरों के नजदीक ही रखा हुआ है। वह उसे अपने पैर से दूर खिसकाने का प्रयास करता है। सन्दूक थोड़ा भारी है। उसे काफी ज़ोर लगाना पड़ता है। तभी वह युवक आ जाता है। वृद्ध फिर से एक तरफ भावशून्य होकर देखने लगता है। युवक अब इत्मीनान से चलता हुआ आता है और बेंच पर एक कोने में बैठ जाता है]

युवक : उफ़्फ़! [एक झटके से उठ जाता है] यह तो बर्फ से भी ज़्यादा ठंडी है। अंकल, क्या आपको इस बेंच पर बैठने में परेशानी नहीं हो रही? थोड़ी गीली भी है यह – शायद फॉग की वजह से।

वृद्ध 1 : थोड़ी देर बाद कुछ महसूस नहीं होगा।

युवक : आप कब से यहाँ बैठे हैं?

[वृद्ध 1 कोई जवाब नहीं देता]

क्या आप किसी का वेट कर रहे हैं? क्या कोई आपको रीसीव करने आने वाला है? या आप किसी ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हैं?

वृद्ध 1 : मैं शायद तुमसे पहले कह चुका हूँ कि डोंट डिस्टर्ब मी अगेन।

युवक : आई एम सॉरी अंकल। [मुसकुराते हुए बेंच पर बैठ जाता है] मुझे आपसे ऐसी बातें नहीं पूछनी चाहिए। चलिए आप मेरी किसी भी बात का कोई जवाब मत दीजिए लेकिन कम से कम मेरी बात तो सुन लीजिए।

वृद्ध 1 : सुन ही रहा हूँ।

युवक : अंकल मैं पिछले आठ घंटे से उस खटारा ट्रेन का सफर करके थक गया हूँ। और अपने डैड की बातें सुन-सुन कर पक भी गया हूँ। वह किसी को कुछ बोलने ही नहीं देते। मैं पिछले आठ घंटे से बिलकुल चुप हूँ। और अब कुछ बोलना चाहता हूँ।

वृद्ध 1 : तुम बोलते रहने के लिए स्वतंत्र हो। लेकिन मुझसे कोई सवाल-जवाब मत करो।

युवक : अंकल आपको पता है कि हमें इस स्टेशन पर उतरना ही नहीं था। यह गलत जगह आ गए हैं हम। हमारा स्टेशन तो यहाँ से काफी दूर है अभी। तकरीबन चार घंटे की जर्नी बाकी है - पर भगवान बचाए मेरे डैड से! [अपनी जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाता है] आई होप अंकल यू वोंट माईंड इट! तरस गया हूँ सिगरेट पीने को।

वृद्ध 1 : [एकाएक जिज्ञासा से] क्यों? क्या तुम अपने डैड का लिहाज करते हो?

युवक : अरे नहीं अंकल – मैं उन हिपोक्रेट्स में से नहीं हूँ – जो मॉम-डैड से छिपकर कोई काम करूँ। लेकिन ट्रेन में स्मोकिंग अलाउड नहीं हैं न!

वृद्ध 1 : अगर होती तो क्या – अपने पिता के सामने पी लेते सिगरेट?

युवक : [हँसते हुए] मैं उनके सामने तो नहीं पीता। लेकिन उनसे यह ज़रूर कहता कि – ‘डैड कैन आई स्मोक ए सिग - जस्ट वन।‘ और फिर मैं कहीं दूर जाकर सिगरेट पीकर वापस आ जाता। लेकिन मैं उन्हें बताता ज़रूर।

वृद्ध 1 : अभी कहाँ हैं तुम्हारे डैड?

युवक : वहाँ स्टेशन के बाहर मज़े से गरमा-गरम कचौड़ियाँ खाने में लगे हुए हैं – और जलेबियाँ सिकने का इंतज़ार कर रहे हैं। कितना तंग करते हैं यह बूढ़े लोग... [एकाएक थोड़ा झेंप जाता है] आई मीन अंकल कि – मेरा मतलब सारे बूढ़े लोगों से नहीं था – बस अपने डैड से ही था। वैसे आप क्या यहीं के रहने वाले हैं?

वृद्ध 1 : नहीं!

युवक : हाँ – आप लगते भी नहीं हैं। यह तो कोई छोटा सा विलेज टाईप – मतलब कोई स्माल टाऊन जैसी कोई जगह है। आप तो किसी मेट्रो सिटी के रहने वाले लगते हैं। बहुत एज्यूकेटेड भी। लेकिन – आई एम सॉरी – बट आई एम जस्ट क्यूरियस कि – आप यहाँ इतनी सर्दी में क्या कर रहे हैं?

वृद्ध 1 : कुछ नहीं – बस यूँ ही बैठा हुआ हूँ।

युवक : आप यहाँ तक आए कैसे?

वृद्ध 1 : वैसे ही – जैसे तुम और तुम्हारे पिता यहाँ आए।

युवक : लेकिन हमें तो यहाँ आना ही नहीं था। सब डैड की वजह से हुआ। ट्रेन रुकी तो मुझसे बोले – ‘चलो-चलो उतरो – अपना स्टेशन आ गया।‘ और फिर हड़बड़ी में नीचे उतर गए। मैं जब तक सामान वगैरह लेकर नीचे उतरा तो वह गायब हो गए। मैंने स्टेशन का नाम पढ़ा तो पता चला कि यह गलत स्टेशन है। लेकिन तब तक ट्रेन जा चुकी थी। अब बैठे रहिए दूसरी ट्रेन के इंतज़ार में – जो पता नहीं कब आएगी? आएगी भी या नहीं?

[वृद्ध 2 का प्रवेश। अपने हाथ में जलेबियों का बड़ा सा दौना लिए हुए है]

युवक : अरे यह आप इतनी सारी जलेबियाँ क्यों ले आए?

वृद्ध 2 : क्यों तू नहीं खाएगा क्या?

युवक : मैं? नेवर! आपको पता हैं न मैं यह सब उल्टी-सीधी चीज़ें नहीं खाता।

वृद्ध 2 : हाँ – तुझे तो वह बड़े-बड़े रेस्टोरेंट्स की बासी चीज़ें पसंद हैं। पिज्जा। बर्गर। हुंह! वह सब भी कोई खाने की चीज़ है? [तभी उसकी नज़र वृद्ध 1 पर पड़ती है] अरे चल तू मत खा – यह श्रीमान जी खाएँगे। [वृद्ध 1 से मुखातिब होकर] लीजिये श्रीमान जी, गरमा-गरम जलेबियाँ खाईए। [युवक से] थोड़ा परे खिसक बेशर्म – हम बूढ़े लोगों को भी थोड़ी जगह चाहिए होती है।

[युवक बेंच से उठ जाता है, और एक कोने में खड़ा होकर अपने मोबाइल फोन पर व्यस्त होने की कोशिश करता है वृद्ध 2 बेंच पर बैठ जाता है]

वृद्ध 2 : अरे श्रीमान जी आप जलेबी खाईए न! ठंडी हो जाएंगी तो फिर इनका मज़ा जाता रहेगा। देखिये अभी कितनी कुरकुरी लग रही हैं।

वृद्ध 1 : थैंक्स – लेकिन मैं जलेबियाँ नहीं खाता।

वृद्ध 2 : ओह तो आपको परहेज है मीठे से। अरे छोड़िए भी श्रीमान जी – एक दिन मीठा खा लेने से शुगर लेवल नहीं बढ़ेगा।

वृद्ध 1 : जी थैंक्स। मुझे क्षमा कीजिए।

वृद्ध 2 : तो फिर आप के लिए गरमा-गरम खस्ता कचौड़ियाँ लाता हूँ मैं। [बेंच से उठते हुये] अभी उस खोमचे वाले ने ताज़ा खेप निकाली होगी कचौड़ियों की। क्या सौंधी महक थी उनकी। आप ज़रूर खाइए। आपको आनंद आ जाएगा। [जाने लगता है]

वृद्ध 1 : अरे यह क्या कर रहे हैं आप? प्लीज़ आप बैठ जाइए। मुझे इस वक्त कुछ भी खाने की इच्छा नहीं है।

युवक : [गुस्से से वृद्ध 2 की तरफ बढ़ता हुआ] यह आप क्या बेवकूफी कर रहे हैं डैड? जब अंकल मना कर रहे हैं तो क्यों जबरदस्ती कर रहे हैं? कुछ एटिकेट्स सीखिये आप।

वृद्ध 2 : तू बिलकुल अपनी माँ पर गया है। वह औरत भी हमेशा मुझे एटिकेट्स सिखाती रहती है। लेकिन देख ले – बूढ़ा हो गया पर मजाल है कि कोई एटिकेट्स सीखा हो मैंने?

युवक : [अत्यधिक गुस्से से] शटअप डैड! यह आपका घर नहीं है। ऐसे बात मत करिए आप। [बुरी तरह झुँझलाते हुये] वॉट द हैल! आपके चक्कर में पता नहीं कहाँ फंस गया मैं। यहाँ फोन का नेटवर्क भी काम नहीं कर रहा।

वृद्ध 2 : अरे फोन-वोन से कुछ पता नहीं चल पाएगा। स्टेशन मास्टर से पूछ कर आ कि दूसरी ट्रेन कब आएगी? हर बात में तुम लोग फोन में झाँकने लग जाते हो?

युवक : मैं क्यों जाऊँ पूछने? गलती आपकी है। आप जाइए। गलत स्टेशन पर आप उतरे थे।

वृद्ध 2 : अरे निर्लज्ज! मैं क्या जान बूझ कर उतरा था। कोहरे की वजह से कुछ सूझा ही नहीं। स्टेशन का नाम भी नहीं पढ़ सका। फिर जितने वक्त में ट्रेन हमारे वाले स्टेशन पर पहुँचती है उतना वक्त हो चुका था। अब मुझे क्या पता था कि ट्रेन लेट चल रही है।

युवक : और गलत स्टेशन पर उतरने के बाद आप एक सेकंड के लिए भी नहीं रुके। फौरन भाग लिए - जलेबी-कचौड़ी खाने के लिए। मैंने आपको कितना ढूँढा। कितनी आवाज़ें लगाईं।

वृद्ध 2 : अब मैं क्या करता? भूख के मारे मेरा बुरा हाल था। चक्कर आने लगे थे। ट्रेन के उस बेस्वाद खाने से मेरा दिमाग खराब हो चुका था। मुझे कुछ अच्छा खाना था। जब मैं यहाँ उतरा – तो गरमा-गरमा कचौड़ियों की वह महक उठ रही थी यहाँ कि मैं खुद को रोक न पाया। [वृद्ध 1 से मुखातिब होकर] अब बताइये श्रीमान – इसमें मेरी क्या गलती है?

युवक : एक्चुअली सारी गलती मेरी है जो मैं आपके साथ आया

[गुस्से से बड़बड़ाता हुआ चला जाता है]

वृद्ध 2 : चलो बढ़िया - अब यह आधे घंटे से पहले वापस नहीं लौटेगा।

वृद्ध 1 : लेकिन यह तो छोटा सा स्टेशन है। स्टेशन मास्टर का केबिन पास में ही तो है।

वृद्ध 2 : अरे श्रीमान – उसे अच्छा मौका मिल गया है सिगरेट फूंकने का। और फिर अगर उसका फोन काम करने लग पड़ा तो बस! फिर तो वह घंटों उसी में ही लगा रहेगा। इस कमबख्त फोन ने आजकल के लड़कों को एकदम नकारा कर दिया है। लेकिन चलो एक तरह से ठीक भी है। मैं भी चाहता हूँ कि वह थोड़ा रिलेक्स हो जाए। बेचारा कितना लस्त-पस्त हो गया है इतने लंबे सफर में। [एकाएक चौंक कर] अरे! देखिये मैं सारी जलेबियाँ साफ कर गया। आपने तो एक भी नहीं ली।

वृद्ध 1 : नहीं नहीं कोई बात नहीं।

वृद्ध 2 : माफ करना श्रीमान मैं शायद थोड़ा फूहड़ किस्म का आदमी हूँ।

वृद्ध 1 : लेकिन मुझे तो ऐसा नहीं लगा।

वृद्ध 2 : यह तो आपकी भल मनसाहत है श्रीमान जी – वरना मेरी पत्नी और यह मेरा निखट्टू बेटा रोज़ दिन में दस बार मेरे लिए – इसी शब्द का प्रयोग करते हैं – ‘फूहड़!’

वृद्ध 1 : आई एम सॉरी – लेकिन मुझे लगता है कि आपको अपनी घरेलू बातें एक अजनबी के साथ डिस्कस नहीं करनी चाहिए।

वृद्ध 2 : अरे काहे के अजनबी श्रीमान जी – आप भी सफर पर निकले हैं – और मैं भी। तो हम सहयात्री हुए। यह कोई कम बड़ा रिश्ता नहीं है साहब। वैसे आप कहाँ जा रहे हैं?

वृद्ध 1 : बस ऐसे ही ज़रा...

वृद्ध 2 : [वृद्ध 1 की बात काटते हुए] ओह अच्छा –अच्छा! मैं समझ गया श्रीमान कि आप अपने बारे में कुछ बताना पसंद नहीं करते। फिर तो आपसे यह पूछना भी बेकार होगा कि आप कहाँ के रहने वाले हैं? क्या करते हैं? हाँ साहब, ऐसे लोग भी होते हैं। रिज़र्व नेचर वाले। अब जैसे मेरी पत्नी को ही ले लीजिये – उसने जीवन में कभी मुझसे खुल कर कोई बात ही नहीं की। और यह बेटा आप देख ही रहे हैं – हमेशा अपने फोन में या कंप्यूटर में गर्दन डाले बैठा रहता है। [सहसा चौंक कर] अरे रे – माफ कीजिये श्रीमान। मैं फिर से अपनी घरेलू बातें आपसे करने लग पड़ा। आपको अच्छा नहीं लग रहा होगा...

वृद्ध 1 : [वृद्ध 2 की बात काटते हुए] मैं यहाँ से बहुत दूर एक बड़े शहर में रहता हूँ। रिटायर्ड़ हूँ। गवर्नमेंट सर्विस में था।

वृद्ध 2 : [एकाएक खुश हो जाता है] अरे वाह श्रीमान वाह! सरकारी नौकरी का तो कोई मुक़ाबला ही नहीं है। हर तरह का आराम है। मैं भी चाहता हूँ कि मेरा यह निखट्टू लड़का सरकारी नौकरी करे। वैसे श्रीमान मेरा एक छोटा-मोटा बिज़निस है। भगवान की दया से किसी चीज़ की कमी नहीं है। पर पता नहीं आजकल के लौंडो के दिमाग में कौनसे-कौनसे फितूर सवार रहते हैं। यह इंजीनीयरिंग की डिग्री करके घर बैठा हुआ है। कहता है नौकरी नहीं करेगा – खुद का कोई धंधा स्टार्ट करेगा। बताईए – क्या बेवकूफी है! आप समझाइएगा इसे। धंधे-पानी का क्या भरोसा? आज सब कुछ बढ़िया है तो कल को सब चौपट भी हो सकता है। सब भाग्य का खेल है। पर सरकारी नौकरी में जीवन भर का पक्का सुख है। क्यों?

वृद्ध 1 : अच्छा होगा कि आप उसे वही करने दें जो उसे पसंद हो।

वृद्ध 2 : हाँ, आपका कहना भी एकदम दुरुस्त है। क्या है श्रीमान, मैं कोई ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। मेरे बाप ने खूब कोशिश की कि मैं पढ़-लिख कर कोई सरकारी अफसर बन जाऊँ लेकिन मैं रह गया फिसड्डी। तो बाप ने पकड़ कर अपनी पुश्तैनी दुकान पर बैठा दिया। बस श्रीमान तब से ही वहीं बैठा हुआ हूँ। लेकिन इस बात की खुशी है कि मैंने खूब मेहनत की, बाप के धंधे को मैंने खूब चमकाया, पहले हम दूसरों से फुटकर माल खरीद कर बेचते थे, आज हम उन्हीं को थोक में माल बेचते हैं। मेरे बाप को भी बहुत संतुष्टी हुई कि चलो लड़का किसी लायक तो निकला।

[तभी फोन की रिंग बजने की आवाज़ आती है। वृद्ध 2 हड़बड़ी में उठ कर अपना फोन निकालता है। लेकिन उसका फोन नहीं बज रहा था। वह वृद्ध 1 की तरफ देखता है जो कि पहले की ही भाँति भावशून्य सा बैठा हुआ है]

वृद्ध 2 : श्रीमान! शायद आपका फोन बज रहा है।

वृद्ध 1 : जी हाँ।

वृद्ध 2 : तो आप रीसीव नहीं करेंगे?

वृद्ध 1 : नहीं। यह ऐसे ही बजता रहता है।

वृद्ध 2 : अरे हाँ! यह फोन कंपनियों वालों की करतूत होती है। वह ऐसे ही कॉल कर कर के खूब दिमाग चाटते हैं। मेरे पास भी ऐसे कॉल बहुत आते थे पहले। कभी कोई कार खरीदने के लिए लोन दे रहा है, तो कोई आपका बीमा करना चाह रहा है, तो कोई मुफ्त में पता नहीं क्या बाँट रहा है। [थोड़े धीमे स्वर में] एक बार तो एक लड़की पता नहीं क्या उल्टी-सीधी बातें कर रही थी मुझसे। अब बताइए श्रीमान! क्या ज़माना आ गया। बूढ़े लोगों का भी आजकल कोई लिहाज नहीं करता। वह तो मेरा बेटा होशियार है। इंजीनीयर है न। उसने पता नहीं क्या कारगुजारी की मेरे फोन मे – कि अगले दिन से वह सारे कॉल आने बंद हो गया। [थोड़ा झेंपते हुए] अब श्रीमान मैं तो एक छोटे से कस्बे में रहने वाला आदमी हूँ। आप बड़े शहर वालों जैसी स्मार्टनेस तो मुझमें हैं नहीं। वरना देखिये, आप तो बिना अपना फोन देखे यह समझ गए कि यह कोई फालतू कॉल है। अलबत्ता साहब मेरी पत्नी बहुत होशियार है। वह भी आपकी ही तरह बड़े शहर की रहने वाली है। बेचारी का भाग्य ख़राब है जो मुझ जैसे आदमी के साथ उसे एक छोटी जगह रहना पड़ रहा है। वह पढ़ी लिखी भी बहुत है श्रीमान...

[अचानक वृद्ध 2 को अहसास होता है कि वृद्ध 1 उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। वह झेंप कर चुप हो जाता है। कुछ पल इधर-उधर देखता है – फिर स्टेशन के बाहर की तरफ देखता हुआ ज़ोर से आवाज़ लगाता है]

वृद्ध 2 : ओ चाय वाले - अरे सुनो भाई... [वृद्ध 1 से] आप चाय तो पीते हैं न श्रीमान?

वृद्ध 1 : जी नहीं।

वृद्ध 2 : पी लीजिए। ठंड बहुत है।

वृद्ध 1 : जी नहीं मैं....

वृद्ध 2 : [वृद्ध 1 की बात काटते हुए] मैं अभी लेकर आया। [फुर्ती से चला जाता है]

[वृद्ध 1 उठ कर सन्दूक को देखने लगता है, जो उसके पैरों के पास ही पड़ा हुआ है। वह उसका बहुत गौर से मुआइना करता है। सन्दूक पर कोई ताला नहीं लगा हुआ है। वृद्ध 1 सन्दूक को खोलने के भाव से हाथ आगे बढ़ाता है - अचानक उसका फोन फिर से बज उठता है। वह अपनी जेब से निकाल कर फोन को देखता है फिर उसे जेब में रख कर पुनः बेंच पर अपनी जगह बैठ जाता है। तभी वृद्ध 2 अपने हाथो में चाय के दो कुल्हड़ लिए हुये आता है]

वृद्ध 2 : यह लीजिये श्रीमान – एकदम गरमा गरम कडक चाय।

वृद्ध 1 : [चाय का कुल्हड़ पकड़ते हुए] आपने बेकार ही कष्ट किया। मैं सचमुच चाय नहीं पीता।

वृद्ध 2 : [वृद्ध 1 की बात अनसुनी करता हुआ] अरे श्रीमान मैंने खुद खड़े रह कर उस चाय वाले से यह स्पेशल चाय बनवाई है। एकदम खालिस दूध और खूब अदरक डलवा कर। वरना आप तो जानते ही हैं कि रेल्वे स्टेशन पर भला अच्छी चाय कहाँ मिलती है। मैं जानता हूँ आप शहरी लोग कॉफी पीना पसंद करते हैं। मेरे पत्नी भी कॉफी ही पीती है, और बेटा भी। अकेला मैं ही चाय पीता हूँ। और वह भी मुझे खुद बनानी पड़ती है। मेरी पत्नी को ऐसी अदरक वाली कडक चाय बनानी कहाँ आती है।

वृद्ध 1 : [थोड़े गुस्से से] देखिए आप अपने पर थोड़ा काबू रखिए। अपनी घरेलू ज़िंदगी मुझसे बार-बार डिस्कस क्यों कर रहे हैं? हाऊ कैन आई हैल्प यू इन दिस मैटर?

[वृद्ध 2 शर्मिंदा हो जाता है। चुपचाप अपनी चाय पीने लगता है]

वृद्ध 1 : [विनम्र स्वर में] माफ कीजिए। मेरा मतलब आपको यूँ चुप करा देने का नहीं....

वृद्ध 2 : [एकाएक उत्साह से] अरे नहीं, नहीं श्रीमान। मैं समझ गया। बल्कि मुझे शुरू से ही लग रहा था की आप किसी न किसी बात को लेकर परेशान हैं। आप भले ही मुझे नहीं बताना चाहें लेकिन शर्त लगा लीजिए – कोई बात है ज़रूर। इसीलिए आप इतने चुप-चुप से हैं। और मैं मूर्ख आपको बार-बार तंग किए जा रहा हूँ। अरे छोड़िए श्रीमान, अब यह कोई उम्र है परेशान रहने की। फिर आप को भला किस बात की कमी होगी। सरकारी नौकरी में रहें है। रिटायर होने के बाद ख़ूब पैसा मिला होगा। पैंशन भी अच्छी ख़ासी मिलती होगी। आपने अपनी जिम्मेदारियाँ भी पूरी कर लीं होंगी। अब तो बस आनंद से जीवन बिताइए श्रीमान। और देखिये, जहां तक मेरा प्रश्न है तो मैं चुप रह ही नहीं सकता। बोलने की बीमारी है मुझे। अरे मैंने सोचा था की ट्रेन में नए-नए लोगों से मुलाक़ात होगी। ख़ूब बोलते-बतियाते आराम से सफर कट जाएगा। लेकिन यह मेरा निखट्टू बेटा। इसने पता नहीं किस डिब्बे में मुझे बैठा दिया – वहाँ सब अपनी-अपनी बर्थ पर कंबल ओढ़ कर मज़े से सो रह थे। ओह, श्रीमान क्या बताऊँ – कितनी मनहूसियत फैली हुई थी वहाँ। लगता था कि किसी मुरदाघर में आ गया हूँ। अरे भई एक आदमी अगर अपने एक हाथ की दूरी पर बैठे हुए दूसरे आदमी से बात भी न करे तो फिर क्या मतलब हुआ इस ज़िंदगी का? नहीं, श्रीमान आप बताइए मुझे यह भी कोई जीना हुआ?

वृद्ध 1 : ज...जी हाँ। आप ठीक कह रहे हैं।

वृद्ध 2 : इसीलिए तो श्रीमान – मेरा आप से कहना है कि यह आपसी संवाद खत्म नहीं होना चाहिए। अब देखिए, आप और मैं एक अंजान से रेलवे स्टेशन की एक छोटी सी बेंच पर बैठे हैं। हमारे बीच है ही कितनी सी दूरी। हम दोनों ही यात्री हैं। कहीं से आए हैं, और कुछ देर बाद कहीं और चले जाएंगे। अरे श्रीमान यह सब भाग्य का खेल है। उसी ने हम दोनों को यूँ मिला दिया है। ईश्वर चाहता है कि हम इस समय का सदुपयोग करें। इसे अविस्मरणीय बना दें।

[वृद्ध 1 मुस्कुरा देता है]

अरे वाह श्रीमान! यह लीजिए आपके होठों पर मुस्कान आ गई। ईश्वर का धन्यवाद देना चाहिए हमें। इतनी देर में आपको पहली बार मुसकुराते हुए देख रहा हूँ। तो चलिये, अब शुरू कीजिए।

वृद्ध 1 : [कुछ न समझते हुए] क्या शुरू करूँ?

वृद्ध 2 : अरे भई बातें करना।

वृद्ध 1 : लेकिन हम इतनी देर से यही कर रहे हैं।

वृद्ध 2 : अजी कहाँ। मैं ही बोले चले जा रहा हूँ। आप ने कुछ कहा ही नहीं। यह कोई संवाद हुआ भला।

वृद्ध 1 : आप हिन्दी बहुत अच्छी बोलते हैं।

वृद्ध 2 : [हँसता है] मैं सभी विषयों में फिसड्डी था – लेकिन हिन्दी में बहुत प्रवीण था। मेरी लिखाई भी बहुत अच्छी है। मुझे याद है श्रीमान लोग मुझसे चिट्ठियाँ लिखवाया करते थे। फिर मेरी ख़ूब तारीफ करते थे – कि क्या मोती जैसे अक्षर बनाता हूँ मैं। आपको कौनसा विषय पसंद था श्रीमान?

वृद्ध 1 : विज्ञान।

वृद्ध 2 : अरे वाह श्रीमान! विज्ञान तो बहुत ऊंची चीज़ है। कितने चमत्कार किए हैं विज्ञान ने। यह तो बस भाग्यशाली लोग ही पढ़ पाते हैं।

वृद्ध 1 : विज्ञान का चमत्कार या भाग्य से कोई लेना देना नहीं है। विज्ञान बस सच्चाई को रिवील...आई मीन उजागर करने में यकीन रखता है।

वृद्ध 2 : लेकिन श्रीमान सच्चाई को भला उजागर करने की क्या ज़रूरत? वह सदैव ही उजागर रहती है।

वृद्ध 1 : आई मीन...वे चीज़ें जिन्हें हम समझ नहीं पाते और चमत्कार या ईश्वर का कार्य मान कर उस पर आँख मूँद कर विश्वास कर लेते हैं।

वृद्ध 2 : तो क्या आप भाग्य या चमत्कार में यकीन नहीं रखते?

वृद्ध 1 : जी नहीं।

वृद्ध 2 : ओह! [सहसा] तो फिर आप किस चीज़ में यकीन रखते हैं?

वृद्ध 1 : विज्ञान में। तर्क में। यह सारी दुनिया एक विज्ञान, एक तर्क के बलबूते पर ही टिकी है। आपने अल्बर्ट आईन्स्टीन का नाम तो सुना ही होगा?

वृद्ध 2 : अरे उन्हें कौन नहीं जानता। मशहूर वैज्ञानिक थे वे। क्या ही चमत्कारी आदमी थे श्रीमान...[तुरंत अपनी बात काट देता है] नहीं मेरा मतलब कि कितने सज्जन और नेक इंसान थे वे।

वृद्ध 1 : आईन्स्टीन का कहना था कि ज़िंदगी जीने के दो ही तरीके हैं। पहला - हम यह मान लें, कि इस सृष्टी में जो कुछ भी है, वह सब एक चमत्कार है। या दूसरा - हम यह मान लें, कि कुछ भी चमत्कार नहीं है।”

वृद्ध 2 : अरे वाह श्रीमान वाह! क्या कमाल की बात कही है आईन्स्टीन महोदय ने। वाकई ऐसी अद्भुत बात एक वैज्ञानिक ही कह सकता है।

वृद्ध 1 : जी।

वृद्ध 2 : तो श्रीमान, आपके अनुसार मैं वह हूँ, जो पहले वाले तरीके से ज़िंदगी जी रहा है, और आप वह हैं, जो दूसरे वाले तरीके से ज़िंदगी जी रहे हैं।

वृद्ध 1 : जी – बिलकुल ठीक समझे आप।

वृद्ध 2 : वाह! कितनी अच्छी बात है कि हम दोनों ही श्री आइंस्टीन महोदय के बताए तरीकों से अपना जीवन जी रहे हैं। श्रीमान, महत्वपूर्ण बात यह है, कि हमें ज़िंदगी को जीना चाहिए। भरपूर जीना चाहिए। तरीका चाहे पहले वाला हो, या दूसरे वाला। भई मुझे तो खुशी है कि मैं अपनी ज़िंदगी को भरपूर जी चुका हूँ।

वृद्ध 1 : जी चुका हूँ? – मतलब?

वृद्ध 2 : [वृद्ध 1 की बात पर ध्यान न देते हुये] बस श्रीमान कुछ एक बातों को लेकर कभी-कभी अफसोस होता है। जैसे – अपने बेटे को लेकर। अपनी पत्नी को लेकर। चलिए बेटा तो फिर भी अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जी लेगा – लेकिन मेरी पत्नी अपने तरीके से अपना जीवन नहीं जी सकी। उसे मेरे साथ ज़बरदस्ती बाँध दिया गया। क्या करें श्रीमान उस जमाने में ज़ात-पाँत जैसी चीजों को ज्यादा तरजीह दी जाती थी। नहीं तो कहाँ वह बड़े शहर की रहने वाली एक पढ़ी-लिखी लड़की – और कहाँ मैं, एक छोटे से कस्बे का दुकानदार। अब देखिए न, इतने सालों में हमारे बीच कुछ एक ज़रूरी घरेलू बातों के अलावा कोई बात ही नहीं हुई। मुझे पता है कि मैं उसे ज़रा भी पसंद नहीं। लेकिन फिर भी निभा रही है मेरे साथ – यह कम बड़ा त्याग नहीं मानता मैं उसका। [एकाएक उत्साह पूर्वक] और जानते हैं श्रीमान वह भी आप ही की तरह आईन्स्टीन महोदय के दूसरे वाले तरीके में यकीन रखती है शायद। चमत्कार और भाग्य में विश्वास नहीं रखती है। उसे तो तीज-त्योहार, व्रत-उपवास जैसी चीज़ें भी पसंद नहीं हैं। यहाँ तक कि करवा चौथ जैसा व्रत भी नहीं। अब देखिए, हमारे छोटे कस्बों और गांवों की स्त्रियाँ कितने चाव से यह सब करती हैं।

वृद्ध 1 : करवा चौथ जैसा व्रत भला किसी औरत को क्यों करना चाहिए?

वृद्ध 2 : जी...जी! मैं भी कुछ ऐसा ही सोचता हूँ। लेकिन क्या हैं कि यह तो बस कुछ परम्पराएँ हैं श्रीमान। सदियों से चली आ रही हैं।

वृद्ध 1 : [थोड़ा गुस्से से] यह सब साजिश है। हमें जड़ बनाए रखने की। स्त्रियों को सदैव गुलाम बनाए रखने की। और यह सब सदियों से चला आ रहा है। क्योंकि सदियों से लोग इस परंपरा को निभाते आ रहे हैं।

वृद्ध 2 : [हैरानी से] बस श्रीमान – बिलकुल यही। मेरी पत्नी भी यही कहती है। आप दोनों की सोच एकदम मिलती है। हूबहू। आप निश्चित ही बहुत भाग्यशाली होंगे श्रीमान। आप शहरी लोग हैं। आपकी पत्नी की सोच भी बिलकुल आप ही की तरह होगी। वे भी आईन्स्टीन महोदय के दूसरे वाले तरीके से...

[तभी युवक का प्रवेश। वृद्ध 2 अपनी बात अधूरी छोड़ युवक से मुखातिब होता है] अरे तूने ट्रेन का पता करने में इतनी देर लगा दी! क्या हुआ? कब आएगी दूसरी ट्रेन?

युवक : एक डेढ़ घंटे से पहले किसी ट्रेन के आने की कोई उम्मीद नहीं है डैड! फॉग की वजह से ट्रेन्स बहुत लेट चल रही हैं।

वृद्ध 2 : ओह! यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। ख़ैर कोई बात नहीं। यह समय भी कट ही जाएगा। अरे तूने कुछ खाया वाया भी या नहीं?

युवक : आप मेरी फिक्र मत कीजिए। अपनी सोचिए। शाम होने वाली है। कुछ खा लीजिए।

वृद्ध 2 : नहीं-नहीं अभी भूख नहीं है। इस कोहरे की वजह से सुबह, दोपहर, शाम सब एक जैसा ही लगता है। [सहसा] श्रीमान, मैं ज़रा अभी आया! [उठ कर जाने लगता है]

युवक : अरे कहाँ चले आप?

वृद्ध 2 : तू यहीं बैठ – मैं बस आता हूँ। [चला जाता है]

युवक : [बेंच पर बैठता हुआ] पता नहीं अब कहाँ चले गए। अंजान जगह है। और कितनी बेकार! यहाँ फोन भी ठीक से काम नहीं करते।

[तभी वृद्ध 1 का फोन फिर से बजने लगता है

युवक : अरे वाह अंकल – आपका फोन तो काम कर रहा है। लेकिन देखिये मेरे फोन में यहाँ नेटवर्क ही नहीं आ रहा। हाँ, स्टेशन से बाहर जाने पर थोड़ा-थोड़ा नेटवर्क मिलता है। वह भी एक खास पॉइंट पर खड़े रहो तो। बगैर फोन, बगैर नेटवर्क के भी कोई ज़िंदगी है? पता नहीं यहाँ के लोग कैसे जी रहे होंगे? आप कौनसा फोन नेटवर्क यूज़ करते हैं अंकल? अरे! लेकिन आप फोन तो उठाईए पहले – नहीं तो कट जाएगा।

[वृद्ध 1 फोन उठाने का कोई उपक्रम नहीं करता]

युवक : [मुसकुराते हुये] आप भी किसी से नाराज़ हैं क्या अंकल?

वृद्ध 1 : न...नहीं तो क्यों?

युवक : मैं भी कभी-कभी ऐसा करता हूँ। जब भी अपनी गर्लफ्रेंड से नाराज़ होता हूँ तो उसका फोन रिसीव नहीं करता। वह बेचारी कॉल पर कॉल करती रहती है। मुझे कभी-कभी उस पर दया भी आती है [हँसता है] लेकिन जानते हैं – वह भी फिर मेरे साथ ऐसा ही करती है।

वृद्ध 1 : क...कुछ नहीं यह शायद फोन कंपनी वालों का फोन है। दिन भर में बहुत बार ऐसी ही कॉल आती रहती हैं।

युवक : अरे तो आप इन्हें ब्लॉक कर दीजिए न! लाईए मैं कर देता हूँ।

वृद्ध 1 : नहीं, नहीं! ठीक है। रहने दो।

युवक : अच्छा अंकल एक बात तो बताईए। क्या आपके जमाने में भी लड़के-लड़कियां आपस में दोस्त होते थे? आई मीन – कॉलेज में साथ-साथ पढ़ने वाले?

वृद्ध 1 : हाँ।

युवक : आपकी भी कोई फ्रेंड रही होगी? गर्लफ्रेंड?

वृद्ध 1 : देखो तुम इस तरह के सवाल मुझसे मत करो।

युवक : अरे प्लीज़-प्लीज़ अंकल, बताइये न! मुझे आपसे एक ज़रूर चीज़ डिस्कस करनी है। देखिये मैं आपके बेटे जैसा ही तो हूँ। बोलिए न – कोई फ्रेंड थी आपकी?

वृद्ध 1 : [थोड़े संकोच के साथ] ह...हाँ!

युवक : [उत्साह से] अरे वाह! फिर – आगे क्या हुआ? आपकी शादी हो गई न उनसे? बड़े शहरों में तो ऐसा ही होता है न!

वृद्ध 1 : [धीमे स्वर में] नहीं। हमारी शादी नहीं हुई।

युवक : ओह! मतलब आपकी भी शादी किसी ओर से हुई। एक्चुअली अंकल, मैं अपनी फ्रेंड से ही शादी करना चाहता हूँ। लेकिन आज भी ऐसा बहुत कम होता है। कास्टिज़्म बहुत हावी है अभी भी। मेरी गर्लफ्रेंड दूसरी कास्ट से है। मुझे तो हमारा रिलेशन लटकता हुआ नज़र आता है। मुझे बहुत टेंशन रहती है इस बात को लेकर। उसे भी।

वृद्ध 1 : ओह!

युवक : दुनिया पता नहीं कहाँ से कहाँ पहुँच गई अंकल – लेकिन हम अभी भी उन्हीं पुरानी चीजों पर अटके पड़े हैं। सब कुछ माँ-बाप की मर्ज़ी ही से करना पड़ता है। वह जिससे शादी करने को कहते हैं – करनी पड़ती है। वैसे मेरी मॉम को तो मेरे रिलेशन से कोई दिक्कत नहीं होगी – लेकिन मेरे डैड! बहुत पुराने टाइप के आदमी हैं। वह यह सब नहीं होने देंगे! उन्हें कनविन्स करना बहुत मुश्किल। अंकल, क्या आप मेरे डैड को थोड़ा समझा सकते हैं?

वृद्ध 1 : अरे! लेकिन मैं भला कैसे…

युवक : प्लीज़ अंकल! मेरे लिये यह कर दीजिये न! वह आपकी बात ज़रूर मानेंगे। वे शहरी और पढे-लिखे लोगों से बहुत प्रभावित होते हैं। वह अनपढ़ और छोटी जगह से हैं न, तो एक कॉम्प्लेक्स है उनको।

वृद्ध 1 : देखो ऐसी बातें मत करो।

युवक : अरे अंकल यह मेरी ज़िंदगी का सवाल है। पता नहीं वह किस गंवार को मेरे पल्ले बांध देंगे। आप जानते हैं, उन्हें खुश करने के लिए ही मैं उनके साथ इस जर्नी पर निकला हूँ। वरना वह तो अकेले ही निकल पड़े थे। उन्हें वैसे किसी की ज़रूरत भी नहीं थी। मॉम को भी परवाह नहीं थी उनकी। लेकिन मैंने सोचा कि अच्छा मौका है। तो मैं उनके साथ हो लिय। उन्हें भी लगा होगा कि मैं उनकी केयर करता हूँ। वैसे तो वह मुझे किसी काम का नहीं समझते, लेकिन जब खुश होते हैं – तो मेरी हर बात मान लेते हैं। क्या पता, इस जर्नी के दौरान वह मेरी किसी बात से खुश हो जाएँ।

वृद्ध 1 : [एकाएक क्रोधित स्वर में] तो अपने ही बाप को धोखा दे रहे हो तुम? उसके सरल स्वभाव का फायदा उठा रहे हो? उसे बीच मँझधार में छोड़ कर भाग जाओगे? शेम ऑन यू। तुम्हारी आज की सारी पीढ़ी ऐसी ही है। बस तुम्हें सिर्फ यही चाहिए? बोयफ्रेंड- गर्लफ्रेंड! बस यही सब? तुम अपने बाप की ज़िम्मेदारी नहीं उठा सकते तो, अपनी गर्लफ्रेंड की ज़िम्मेदारी क्या उठाओगे? उसे भी छोड़ कर भाग जाओगे। तुम लोगों से किसी भी चीज़ की उम्मीद करना बेकार है। तुम्हारे जैसे नौजवानों की वजह से ही आज इस समाज की इतनी खराब हालत है? तुम जैसे लोगों की काहिली की वजह से आज यह सिस्टम सड़ चुका है।

युवक : [हैरानी से] य...यह आपको क...क्या हो गया अंकल? मैंने भला क्या किया है...

वृद्ध 1 : [अपनी रौ में] जानते जवानी किसे कहते हैं? ज़ुल्म के खिलाफ लड़ने को। तुम्हारी उम्र में हम जोश और उत्तेजना से भरे रहते थे – हर अन्याय के खिलाफ। शोषण के खिलाफ। अमीर और गरीब के बीच की गहरी खाई को पाटने के खिलाफ़। समाज में फैली ऊँच-नीच, जाति-धर्म के बंधनों के खिलाफ़। कौनसी ऐसी लड़ाई थी जो हमने नहीं लड़ी। मैं तो जेल भी गया हूँ – अपने साथियों के साथ। अपने कॉलेज की स्टूडेंट यूनियन का लीडर था मैं। और मेरी वह गिर्लफ्रेंड हर कदम पर मेरे साथ थी। मेरी ताकत थी वह। मेरी कमजोरी नहीं थी। मेरे लिए किसी परेशानी का कारण नहीं थी। मैं सोचता था कि पॉलिटिक्स में जाऊंगा। देश को एक नई दिशा दूँगा। उसे एक नए नेतृत्व की ज़रूरत है। एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण की ज़रूरत है। हमारे जीवन स्तर को सुधारने की ज़रूरत है। लेकिन नहीं कर पाया मैं ऐसा। अपने माँ-बाप की मर्ज़ी के आगे हार गया। इतना कठोर न हो सका कि कोई भी ऐसा काम करूँ जिससे उनके दिल को ठेस लगे। आखिर पैदा किया था उन्होनें। पाल-पोस कर किसी लायक बनाया था। उनके सपनों को रौंद कर अपनी मनमर्जी का रास्ता चुनना मुझे गलत लगा था। एक्सेप्ट कर लिया मैंने सरकारी नौकरी करना। जबकि सरकार के हमेशा खिलाफ रहा मैं। कर ली शादी मैंने उस लड़की से - जो उन्होनें मेरे लिये पसंद की। तो क्या हुआ? क्या यह जीवन खत्म हो गया?

युवक : आई एम सॉरी अंकल – शायद मेरी बातों से आपकी फीलिंग्स हर्ट हो गई हैं।

वृद्ध 1 : [थोड़ा संभल कर] अरे नहीं। एक्चुअली – आई एम सॉरी। पता नहीं मुझे क्या हो गया था – कि मैंने तुमसे इतना सब कह दिया। मुझे नहीं कहना चाहिए था यह सब।

युवक : नो नो अंकल। आई डोंट माईंड एट ऑल! बल्कि मैं तो सर्प्राइज़ था कि आप इतना बोल लेते हैं। बिलकुल मेरे डैड की तरह।

[वृद्ध 2 का प्रवेश। उसके हाथ में एक दौना है। जिसमें पेड़े हैं]

वृद्ध 2 : लीजिए श्रीमान प्रसाद ग्रहण कीजिए। [वृद्ध 1 की ओर दौना बढ़ाता है]

युवक : ओफ़्फ़ोह! डैड, अब आप यह मिठाई क्यों उठा लाए

वृद्ध 2 : चुप नालायक! मिठाई नहीं है यह – प्रसाद है भगवान का। और कहीं से उठाया नहीं है। मंदिर में से लाया हूँ। [वृद्ध 1 से मुखातिब होकर] अरे लीजिए न श्रीमान। भगवान के प्रसाद को मना नहीं करना चाहिए। क्या है श्रीमान मुझे रोज़ शाम को मंदिर जाने की आदत है।

[वृद्ध 1 प्रसाद ले लेता है]

वृद्ध 2 : [युवक की ओर दौना बढ़ाते हुये] चल निखट्टू! तू भी ले।

युवक : [बेमन से प्रसाद लेते हुये] यह मंदिर कहाँ मिल गया आपको।

वृद्ध 2 : वहीं स्टेशन के बाहर ही है। उधर चौराहे पर एक शराब की दुकान है – वहाँ से बाईं तरफ थोड़ी दूर चलोगे तो एक छोटा सा मंदिर दिखाई देगा।

युवक : [सहसा] अच्छा डैड, आप अंकल से बातें कीजिए। मैं आता हूँ अभी।

वृद्ध 2 : अब यह फिर से कहाँ जा रहा है तू?

युवक : अरे डैड, यह स्टेशन कितना सुनसान है। हमारे अलावा कोई नहीं है यहाँ। एक चिड़िया तक नहीं। मैं बोर होने लगता हूँ ऐसी जगहों से। फिर यहाँ नेटवर्क भी तो नहीं आता। बस बाहर का एक चक्कर लगा कर अभी आया।

[युवक तेज़ी से चला जाता है]

वृद्ध 2 : [युवक को आवाज़ लगाते हुये] अरे सुन! कहीं इधर-उधर मत निकाल जाना। अपनी ट्रेन अब आती ही होगी। [वृद्ध 1 से मुखातिब होकर] मुझे लगता है, श्रीमान कि यह ज़रूर बीयर-वीयर पीने गया है। आजकल के लड़के खूब पीते हैं। मैंने तो सुना है कि लड़कियां भी कुछ कम नहीं है अब। वे भी शराब-सिगरेट पीने लगी हैं।

वृद्ध 1 : जी।

वृद्ध 2 : अरे श्रीमान एक बात तो बताईए। क्या मेरे बेटे ने आपसे कोई बदतमीजी की?

वृद्ध 1 : जी नहीं तो। क्यों?

वृद्ध 2 : श्रीमान अभी जब मैं आ रहा था तो मैंने आपको तेज़ आवाज़ में बोलते हुए सुना। ऐसा लग रहा था जैसे आप मेरे बेटे को किसी बात पर डांट रहे हों।

वृद्ध 1 : [थोड़ी शर्मिंदगी से] ज...जी वह दरअसल...

वृद्ध 2 : अरे श्रीमान – मुझे तो इतनी खुशी हो रही है कि क्या बताऊँ। देखिए मैं तो उसे रोज़ ही डांटता ही रहता हूँ। पर क्या है कि मैं हूँ कम पढ़ा लिखा आदमी। मेरी डांट-फटकार का वह असर नहीं होता श्रीमान जो आप जैसे पढे-लिखे और वैज्ञानिक सोच वाले आदमी की डांट का होता है। अरे श्रीमान यह तो ठीक ऐसा ही है मानो साक्षात आइन्स्टीन महोदय एक निखट्टू को डांट रहे हों। मैं तो धन्य हो गया प्रभु। चलिए साहब मेरी तीर्थ यात्रा का एक फल तो मुझे रास्ते में ही मिल गया। यह अच्छा संकेत है।

वृद्ध 1 : [जिज्ञासा पूर्वक] क्या? आप किसी तीर्थ यात्रा पर निकले हैं?

वृद्ध 2 : जी – ऐसा ही समझ लीजिए।

वृद्ध 1 : लेकिन इस तरफ भला कौनसा तीर्थ स्थान है?

वृद्ध 2 : जी – दरअसल मैं अपने पुरखों के स्थान पर जा रहा हूँ। क्या है श्रीमान कि यूँ तो मैं कोई बहुत बुद्धिमान आदमी नहीं हूँ। ज्यादा सोच-विचार भी नहीं करता। लेकिन पता नहीं क्यों एक दिन ऐसा हुआ कि मुझे बहुत ऊब होने लगी। हर चीज़ से। अपने घर से। अपने बिजनिस से। मैं इस ऊब को समझ नहीं पाया। यह क्यों मेरे अंदर पैदा हो गई होगी भला? शायद अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी के कारण। अपनी पत्नी के व्यवहार के कारण। अपने बेटे की चिंता के कारण। मुझे ठीक-ठीक पता नहीं। लेकिन जब मैं इस ऊब से पूरा भर गया तो मुझे लगने लगा कि किसी यात्रा पर निकल पड़ने का समय आ गया है। मैं अपने जीवन का अर्थ ढूँढना चाहता हूँ।

वृद्ध 1 : लेकिन क्या अपने पुरखों के स्थान पर जाकर आपको अपने जीवन का अर्थ मिल जाएगा? कभी पहले भी गए हैं आप वहाँ?

वृद्ध 2 : नहीं पहली बार ही जा रहा हूँ। लेकिन लगता है कि जीवन का अर्थ नहीं मिला तो कुछ न कुछ न ज़रूर मिल जाएगा। किसी और स्थान का सूत्र मिल जाएगा शायद। और शायद वहाँ जीवन का अर्थ मिल जाये। और शायद यह सिलसिला चलता रहे। जीवन एक यात्रा ही तो है श्रीमान। और हम सब यात्री। कितने ही लोग हमें इस जीवन-यात्रा में मिलते हैं। कुछ लोग कुछ दूर तक हमारे सहयात्री बनते हैं, तो कुछ जीवन भर। कुछ सहयात्रियों के साथ हमारा सफर हंसी-खुशी कट जाता है तो कुछ के साथ...[अपनी बात अधूरी छोड़ते हुए] आपके पुरखों का स्थान कहाँ है श्रीमान?

वृद्ध 1 : जी मुझे नहीं पता?

वृद्ध 2 : आपको पता करना चाहिए श्रीमान। मुझे तो अपने बाप से एक दिन पता चला था कि हमारे पुरखे किसी दूर-दराज के इलाके से आए थे। उसी दिन से मेरे मन में एक कुलबुलाहट शुरू हो गई थी कि किसी दिन उस जगह पर ज़रूर जाऊंगा। बस यहाँ से कुछ ही घंटे का रास्ता और है। [सहसा] हो सकता है श्रीमान कि आपके पुरखों का स्थान यही हो। [हँसते हुए] यह छोटा सा कस्बा – जहां आप इतनी देर से बैठे हैं। सब भाग्य का खेल है श्रीमान।

वृद्ध 1 : हो सकता है। लेकिन मेरा इन सब में बीलीव नहीं है।

वृद्ध 2 : [हँसते हुए] एक बहुत मार्के की बात कहूँ? देखिए श्रीमान, जब आदमी को जीवन में कुछ न सूझे तो उसे अपनी जगह छोड़ कर कहीं चल देना चाहिए। कहीं भी। यूँ ही। मैं भी ऐसे ही निकल पड़ा था। हाँ जगह ज़रूर मैंने वह चुनी जहां जाने की हसरत मेरे दिल में बरसों से थी। और जानते हैं श्रीमान, इस यात्रा पर मैं अकेला ही निकला था, यह सोच कर कि बस अब कभी वापस नहीं लौटूँगा। लेकिन मेरा यह निखट्टू बेटा ज़बरदस्ती मेरे साथ चल पड़ा। हो सकता है श्रीमान उसे भी एक यात्रा की ज़रूरत है। यूँ तो वह खूब अलमस्त दिखाई देता है लेकिन मैं जानता हूँ कि वह थोड़ा परेशान है। कोई बात है उसके मन में जो वह कह नहीं पा रहा। क्या पता – यह यात्रा उसकी परेशानियाँ भी दूर कर दे। बल्कि मैं तो कहता हूँ श्रीमान कि यदि आपके पास कोई बहुत ज़रूरी काम न हो तो आप भी चलिये हमारे साथ। खूब आनंद रहेगा।

वृद्ध 1 : जी धन्यवाद। मैं यहीं ठीक हूँ। आपकी यात्रा शुभ हो।

वृद्ध 2 : अच्छा श्रीमान आपके कितने बच्चे हैं?

वृद्ध 1 : एक बेटा है बस।

[तभी वृद्ध 1 का फोन फिर से बजने लगता है। वह इस बार अपना कॉल कैंसल कर देता है]

वृद्ध 2 : यह बढ़िया किया श्रीमान आपने जो फोन काट दिया। इन कमबख्तों का यही इलाज है। हाँ तो श्रीमान आपके पुत्र रत्न मेरे इस निखट्टू की तरह तो निश्चित नहीं होंगे। हैं न!

वृद्ध 1 : वह अमेरिका में रहता है। नौकरी करता है।

वृद्ध 2 : अरे वाह श्रीमान वाह! यह हुई न बात! मुझे पता था कि आप जैसे मेधावी आदमी की संतान भी होनहार ही होगी। लेकिन श्रीमान वह तो साल में एक आध बार ही आ पाता होगा यहाँ।

वृद्ध 1 : जी। पिछले महीने ही आया था। [धीरे से] अपनी माँ के क्रियाकर्म में।

वृद्ध 2 : अरे तो...! [सहसा चुप हो जाता है]

[दोनों वृद्ध कुछ क्षण चुप बैठे रहते हैं]

वृद्ध 1 : [मानों अपने आप से कह रहा हो] बीमार थी वह कई महीनों से। कई महीनों से क्यों – बल्कि कुछ सालों से। उस दिन से जिस दिन बेटा अमेरिका चला गया था। बस उसके बाद से ही उसे पता नहीं क्या हो गया था। हालांकि रोज़ बेटे से फोन पर बात होती थी। लेकिन वह धीरे-धीरे बुझने लगी थी। अंदर ही अंदर कोई बीमारी पनपने लगी थी। फिर एक दिन मर गई। सबको लगा अपने आप मर गई। जैसे कोई भी आदमी मर जाता है - किसी लाईलाज बीमारी से। लेकिन नहीं - उसे बेटे ने नहीं मारा। उसका क्या कसूर था। वह बहुत पढ़ लिख गया था। बहुत महत्वाकांक्षी हो गया था। यहाँ रह कर भी बहुत अच्छी नौकरी कर सकता था। लेकिन नहीं। अपनी मन-मर्जी की उसने। चला गया।

वृद्ध 2 : अरे – ऐसे कैसे चला गया वह निखट्टू। आपने डाँटा नहीं उसे?

वृद्ध 1 : काश डांट देता। लेकिन किसी की इच्छाओं को मारना क्या ठीक होता है? मेरे बाप ने मेरी इच्छाओं का गला घोट दिया था। मुझे वह सब करना पड़ा जो मैं नहीं चाहता था। एक अनपढ़-गंवार लड़की मेरे पल्ले बांध दी गई। लेकिन मैंने निभाया। अंत तक निभाया। उसकी कितनी सेवा की मैंने। जबकि मैं उससे ज़रा भी प्यार नहीं करता था। बल्कि मुझे चिढ़ थी उससे। एक दकियानूस पुराने ख्यालों की औरत। वही – व्रत-उपवास, तीज- त्योहार में रमे रहना। जो मुझे सख्त नापसंद था। मेरे जीवन यात्रा में वह एक ऐसी सहयात्री थी मेरे जिसे मुझे बस बर्दाश्त करना था। कोई चारा नहीं था इसके अलावा।

वृद्ध 2 : ओह!

वृद्ध 1 : [अपने आप से ही कहे जा रहा है] रोज़ सुबह चार बजे उठ जाती थी वह। मुझे चाय के साथ उठाती थी। खूब अदरक डाल कर बनाई हुई चाय। जबकि अच्छी तरह जानती थी मुझे चाय पसंद नहीं। मैं अपने लिए खुद कॉफी बनाता था। लेकिन फिर भी वह रोज़ यही करती थी। हमेशा मेरे खा चुकने के बाद ही खाना खाती थी। चाहे मैं कितनी ही देर लगाऊँ। मुझे गुस्सा आता था उसके इस पतिव्रत धर्म को निभाने से। बेटे को भी ज़रूरत से ज्यादा लाड़-प्यार करती थी। लेकिन क्या फल मिला। चला गया न उसे छोड़ के। आख़िर मर गई बीमार होकर।

वृद्ध 2 : श्रीमान यह आप क्या बोले चले जा रहे हैं...

वृद्ध 1 : लेकिन उसे मेरे बेटे ने नहीं मारा। सारा कसूर मेरा है। उसके मन में मेरे लिए जो प्रेम था, वह मेरी बेरुखी के कारण उसने अपने मन में ही घोंट दिया। फिर जब बेटा हुआ तो उसने वह सारा प्रेम उस पर लुटा दिया। उसे दरअसल मैंने मारा है। इस बात का एहसास मुझे उस वक्त हुआ जब एक दिन तमाम डॉक्टर्स ने अपने हाथ खड़े कर दिये। उनका कहना था कि अब कोई चमत्कार ही उसे बचा सकता है – [हँसता है] चमत्कार! माय फुट! जानते हैं मैंने क्या किया?

वृद्ध 2 : क्या?

वृद्ध 1 : मैंने फैसला किया कि मैं कोई चमत्कार नहीं होने दूंगा। नहीं- नहीं मुझे क्रूर समझने की भूल मत कीजिये। मैं उसे हॉस्पिटल से घर ले आया। उसकी जी जान से सेवा की। मेडिकल साईन्स की ढेर सारी किताबें खरीद लाया। मैंने उसकी बीमारी और उसके ईलाज की बारे छोटी से छोटी जानकारी जुटाई। उसकी दवाइयाँ, उसका आहार – सबके बारे में खूब रीसर्च की। बार-बार डॉक्टर्स के पास जाकर उनसे खूब डिस्कशन किया। लेकिन मेरी सारी मेहनत बेकार साबित हुई।

वृद्ध 2 : ओह! मुझे बहुत अफसोस है श्रीमान! लेकिन बुरा मत मानिए। आपको डॉक्टर की बात ज़रूर माननी चाहिए थी। क्या पता कोई चमत्कार हो ही जाता।

वृद्ध 1 : हाँ! मैंने उसे भी मौका दिया था। मुझे कोई शर्म नहीं यह स्वीकार करने में कि जब मैं अपने सभी उपाय करके हार गया तो मैंने चमत्कार को भी होने दिया। मैं एक सुबह चार बजे उठा। रसोई में जाकर अदरक वाली चाय बनाई - ज़िंदगी में पहली बार। फिर अपनी पत्नी के कमरे में गया। वह गहरी नींद में थी। मैंने उसे हौले से जगाया। ठीक वैसे ही जैसे वह मुझे जगाती थी। उसने अपनी आँखें खोल दी। बहुत गहरी नींद में होने के बावजूद भी उसने अपनी आँखें खोल दीं। जैसे ज़िंदगी भर इसी का इंतज़ार करती रही हो। मैंने उस दिन जीवन में पहली बार कामना की कि इस औरत को मैं अपने हाथों से चाय पिलाऊँ। वह मुझे देख कर मुसकुराई। फिर बस! चली गई।

[दोनों वृद्ध कुछ क्षण खामोश बैठे रहते हैं]

वृद्ध 2 : आपका पुत्र...

वृद्ध 1 : आया था। जब उसकी माँ का अंतिम संस्कार हो चुका – उसके बाद आकर पहुँच पाया। ख़ैर, वैसे भी मैंने उसका इंतज़ार नहीं किया था। वह आया। दो तीन दिन रुका। फिर चला गया।

वृद्ध 2 : ओह! फिर तो आप अकेले...

वृद्ध 1 : जी हाँ – कई महीनों से मैं अकेला रह रहा हूँ। इन महीनों के दौरान मैंने उस घर को दोबारा देखना शुरू किया। उस औरत की नज़र से। कैसे वह ज़िंदगी भर चीजों को सहेज कर रखती थी। उसके हर व्रत हर उपवास के साथ घर में कुछ न कुछ नया जुड़ता जाता था। उसके पास एक बड़ा सा सन्दूक था। ठीक ऐसा ही [वृद्ध 2 के सन्दूक की ओर इशारा करता है] कितना कुछ भरा पड़ा था उसमें। पता नहीं वह क्यों यह सब इकट्ठा करती रहती थी। शायद संभाले रखना उसकी आदत थी। मैंने उसकी कितनी उपेक्षा की – लेकिन फिर भी वह खुद को संभाले रही। जानते हैं, जैसे आप एक दिन ऊब गए थे, वैसे ही मैं अकेला उस घर में रह कर ऊब गया था। बल्कि मैं कहूँगा कि मैं डर गया था। वह घर उस औरत का था। वह उसके कण-कण में बसी हुई थी। मैं उसका सामना नहीं कर सकता था। और जब कल रात मेरा डर ज्यादा डरावना हो गया तो मैं घबरा गया। मैं अपने घर से निकला। जो भी ट्रेन मिली उसमें बैठ कर निकल गया। मैं यहाँ इस वीरान स्टेशन पर क्यों उतर गया - मैं नहीं जानता। जबकि यह मेरा स्टेशन नहीं है। यह गलत जगह है। मुझे यहाँ नहीं उतरना था। मेरा स्टेशन तो बहुत दूर है। ट्रेन के सबसे आखिरी वाले स्टेशन का टिकट लिया था मैंने।

वृद्ध 2 : ओह! मुझे बहुत खेद है श्रीमान। सब भाग्य का खेल है साब...नहीं...नहीं...मेरा मतलब कोई संयोग है शायद। लेकिन श्रीमान – अगर हम हर चीज़ को सिर्फ और सिर्फ तर्क की दृष्टि से देखेंगे तो यह दुनिया कितनी फीकी – कितनी बेजान होती चली जाएगी। होता है साब कभी-कभी। हमसे कभी कोई ट्रेन छूट जाती है। तो कभी हमें किसी ऐसे सहयात्री के साथ सफर करना पड़ जाता है कि...

[युवक तेज़ी से दौड़ता हुआ आता है]

युवक : डैड! डैड! जल्दी कीजिए। हमारी गाड़ी की लाईन हो गई है। बस प्लेटफॉर्म पर आने ही वाली है।

[युवक सन्दूक उठाता है]

वृद्ध 2 : श्रीमान! मेरा मन नहीं कर रहा आपको यूँ अकेले छोड़ कर जाने का। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लग रहा है कि मुझे यह ट्रेन नहीं छोडनी चाहिए। [एकाएक आगे बढ़ कर वृद्ध 1 का हाथ थाम लेता है] अपना ख्याल रखिएगा – श्रीमान। मुझे आपकी चिंता रहेगी। मैं ईश्वर से प्रार्थना करूंगा आपके लिए। और...[अपनी जेब से एक विजिटिंग कार्ड निकाल कर] यह मेरा पता है। कभी मेरे यहाँ ज़रूर आइये। आपको अच्छा लगेगा। मेरी पत्नी से मिलिएगा। बिलकुल आपके जैसे विचार हैं उसके। ठीक है। चलता हूँ।

युवक : अच्छा अंकल – बाय। टेक केयर।

[युवक और वृद्ध 2 चले जाते हैं। वृद्ध 1 फिर से शून्य में ताकने लगता है। तभी उसका फोन बजता है। वृद्ध 1 अपना फोन देखता है – और कॉल रिसीव करता है]

वृद्ध 1 : [फोन पर] हाँ – बोलो! ... हाँ मैंने जानबूझ कर तुम्हारा फोन नहीं उठाया। ... क्योंकि मैं नहीं बात करना चाहता था... हाँ मैं ठीक हूँ ... मेरी यूँ चिंता मत करो.... अपना ख्याल रखो... बस यूँ ही ज़रा टहलने निकला था...हाँ घर में मन नहीं लग रहा था...बस अभी थोड़ी देर में वापस लौट जाऊंगा...देखो एक ही बात को बार-बार मत रीपीट मत करो...मैं कह चुका हूँ कि मैं अमेरिका आकर नहीं रह सकता तुम्हारे साथ... ठीक है...बहुत बात हो गई...अब रख दो फोन...[वृद्ध 1 कॉल डिसकनेक्ट करके फोन जेब में रख लेता है। कुछ पल बाद वह फोन को फिर से निकालता है। और उसे घूरने लगता है]

वृद्ध 1 : [भावुक होकर] – कितना कुछ कहने को मन करता है तुझसे। लेकिन नहीं कह पाता। पता नहीं क्यों? कुछ सूझता ही नहीं है। नालायक कहीं का। मेरी चिंता करता है। मुझे अमेरिका लेजाना चाहता है। तो फिर यहाँ आ जा न! अगर वाकई बाप की इतनी ही चिंता है तो यहाँ आ – और देख कि तेरा बाप एक वीरान स्टेशन की ठंडी बेंच पर, इस सर्द रात में अकेला बैठा हुआ है – आ देख [फफक कर रोने लगता है] एक दिन तेरी माँ ने कहा था कि जब इंसान को जीवन में कुछ नहीं सूझे तो उसे अपनी जगह छोड़ देनी चाहिए। कहीं चल देना चाहिए – यूँ ही।

[मंच पर धीरे-धीरे अंधकार होने लगता है। नेपथ्य से ट्रेन का लंबा हॉर्न सुनाई देता है। जैसे अपना प्लेटफॉर्म छोड़ कर रवाना हो रही हो]

(समाप्त)

--

- महेश शर्मा

77, गुलाब बाग, जवाहर नगर,

सवाई माधोपुर (राजस्थान) – 322 001

ई मेल : maheshtheatre@gmail॰com

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020 - प्रविष्टि क्र. 28 - सहयात्री - महेश शर्मा
नाटक लेखन पुरस्कार आयोजन 2020 - प्रविष्टि क्र. 28 - सहयात्री - महेश शर्मा
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