पद्मश्री मुकुटधर पाण्डेय की श्रेष्ठ रचनाएं प्रस्तुतकर्त्ता - प्रो. अश्विनी केशरवानी (1) करूण रस बैठी एक सुन्दरी देखो, सरिता तट पर चिन्ता-लीन...
पद्मश्री मुकुटधर पाण्डेय
की श्रेष्ठ रचनाएं
प्रस्तुतकर्त्ता -
प्रो. अश्विनी केशरवानी
(1)
करूण रस
बैठी एक सुन्दरी देखो, सरिता तट पर चिन्ता-लीन !
ग्रहण-काल भय से व्याकुल अति, शरद-चन्द्र जिस भांति मलिन
कवलख 2 कर हाय ! अकेली, दुख-क्रन्दन वह करती है।
आंखों से ''झरझर'' मोती-सम, अश्रु-मालिका झरती है।।
करते ही उन अश्रु-कणों के, स्पर्शन सरिता का वह स्रोत-
किस प्रकार हो गया पूर्ण है, स्वर्ण-सलिल से आत्मप्रोत !
खिले हुए सौरभ-मय सुन्दर सरसिज शोभा पाते हैं।
मधु-लोलुप मधुकर भी कितने, मन्द 2 मंडराते हैं।।
पल भर में इतना परिवर्तन ! करो न पर आश्चर्य विशेष।
प्रतिध्वनित वाणी से किसकी, होते हैं यह कूल-प्रदेश -
''सरिता-जल ही के मिस अविरत, काव्य-सुधा बहता अभिराम।
विदित नवों-रस की रानी, है ''करूणा'' इस रमणी का नाम।।
बसुधा में वह सुकवि धन्य है, रहती यह जिसके आधीन''।
बैठी एक सुन्दरी देखो, सरिता-तट पर चिन्ता लीन।
इंदु पत्रिका जनवरी सन् 1915)
(2)
कविता
कविता सुललित पारिजात का हास है,
कविता नश्वर जीवन का उललास है।
कविता रमणी के उर का प्रतिरूप है,
कविता शैशव का सुविचार अनूप है।
कविता भावोन्मतों का सुप्रलाप है,
कविता कान्त-जनों का मृदु आलाप है।
कविता गत गौरव का स्मरण-विधान है,
कविता चिर-विरही का सकरूण गान है।
कविता अंतर उर का बचन प्रवाह है,
कविता कारा बद्ध हृदय की आह है।
कविता भग्न मनोरथ का उद्गार है,
कविता सुन्दर ऐ अन्य संसार है।
कविता वर वीरों का स्वर करवाल है,
कविता आत्मोद्धरण हेतु दृढ़ ढाल है।
कविता कोई लोकोत्तर आल्हाद है,
कविता सरस्वती का परम प्रसाद है।
कविता मधुमय-सुधा-सलिल की है घटा,
कविता कवि के एक स्वप्न की है छटा।
चन्द्रप्रभा 1917 में प्रकाशित
(3)
कवि
बतलाओ, वह कौन है जिसे कवि कहता सारा संसार ?
रख देता शब्दों को क्रम से, घटा-बढ़ा जो किसी प्रकार।
क्या कवि वही ? काव्य किसलय क्या उसी का लहराता है
जिससे यश सुमन सौरभ से निखिल विश्व भर जाता है।
नहीं नहीं, मेरे विचार में कवि तो है उसका ही नाम
यम-दम-संयम के पालन युत होते हैं जिसके सब काम।
रहती है कल्पना-कामिनी जिसके हृदय कमल आसीन
संचारित करती सर्दव जो भाँति भाँति भाव नवीन।
भूत, भविष्यत् वर्तमान पर जिसकी होती है सम दृष्टि
प्रतिभा जिसकी मर्त्यधाम से करती सदा सुधा की वृष्टि
जो करूणा श्रृंगार, हास्य वीरादि नवों रस का आधार
जिसको ईश्वरीय तत्वों का अनुभव युत है ज्ञान-अपार।
जिसकी इच्छा से अरण्य में फूल खिल जाता है
नन्दन वन से पारिजात की लता छीन जो लाता है
मरीचिका-मय मरूस्थली में जिसकी आज्ञा के अनुसार
कलकल नादपूर्ण बहती है अतिशय शीतल जल की धार।
सरस्वती, अक्टूबर 1919
(4)
चरण प्रसाद
कण्टक-पथ में से पहुँचाया चारू प्रदेश
धन्यवाद मैं दूँ कैसे तुझको प्राणेश।
यह मेरा आत्मिक अवसाद ?
हुआ मुझे तब चरण-प्रसाद।
छोड़ा था तूने मुझपर यह दुर्द्धर-शूल,
किन्तु हो गया छूकर मुझको मृदु फूल।
यह प्रभाव किसका अविवाद ?
आती ठीक नहीं है याद।
जी होता है दे डालूँ तुझको सर्वस्व,
न्यौछावर कर दूँ तुझ पर सम्पूर्ण निजस्व।
उत्सुकता या यह आल्हाद ?
अथवा प्रियता पूर्ण प्रमाद ?
जो निज अन्तर से मम आन्तर-भाषा जान,
लिख सकती लिपि भी क्या उसके भेद महान।
भाषा क्या वह छायावाद,
है न कहीं उसका अनुवाद।
हितकारिणी, मार्च 1920
(5)
आँसू
देखकर प्रिय को पड़ा त्रयताप में,
वेदना होती हृदय-धन को महा।
शोक विह्वल वह कराह-कराह कर,
आँसुओं की धार देता है बहा।।
या सह न सकता कर उस ताप को,
हाय ! प्रेमी का हृदय हिम-खण्ड है।
हो स्वयं संतप्त और पसीज कर,
ढालता वह, अश्रु-वारि अखण्ड है।।
क्या-हृदय नभ से गिराकर ओस कण,
नेत्र कमलों के भरे ये गोद है ?
यों बढ़ा करके सहज सौंदर्य को,
स्वर्ण में लाया सुन्दर आमोद है।।
या हृदय यह मुक्ति-साधन को को हुआ
विष्णु पद समभव-जलधि का पोत है ?
है जहाँ से आँसुओं के रूप में,
बह रहा यह सुरसरी का का स्रोत है।।
या हृदय निःसीम सागर-गर्भ है,
विपुल जल की राशि जिसमें है भरी ?
है जहाँ से लोचनों की राह से
निकलती अनमोल मोती की लड़ी ।।
प्रेमियों के हृदय सागर से कढ़े,
यत्न से इन मोतियों को।
जो बनाता हार अपने कण्ठ का,
भाइयों ! है विश्व में वह धन्य नर।।
सरस्वती, दिसंबर 1916
(6)
हृदय
वह सिसकता जो सड़क पर है खड़ा,
है नहीं घ्ज्ञर-द्वार का जिसके पता,
बांह ऐसे दीन की गहता हृदय
और आँसुओं को पोंछता।
जिस अभागे को हरे ! सब काल है
घाव घोर अभाव का रहता बना
भूलकर उसको हृदय करता नहीं
द्वार आने से कभी अपने मना ।
प्यार की दो बात कहने के लिए
जिस दुःखी के पास है कोई नहीं
पास उसके दौड़कर जाता हृदय
और घंटों बैठ रहता है वहीं।
गोद जिसकी आज खाली हो गई,
है अनूठा रत्न जिसका खो गया
देखकर उस दुःखिन माँ की दशा
बावला-सा क्यों हृदय है हो गया ?
राह पर उसको ठिठुरता शीत से
मिल गया कोई अगर नंगे बदन
शाल अपना डाल जो तो उस पर हृदय
है वहीं से लौटता अपने सदन।
देख लेता जो किसी निज बंधु पर
वज्र सम आघात है आता बड़ा,
तो न प्राणों की जरा परवाह कर
सामने वह आप हो जाता बड़ा।
बेकसों का जो दबा करके गला
चालबाजी से चला देते छुरी
याद कर उनको हृदय है कांपता
वह नहीं इसमें समझता चातुरी।
देखकर उत्कर्ष औरों का सदा
हर्ष से खिलता हृदय है फूल-सा
पर किसी का दुःखमय अपकर्ष है
बेधता उसको बहुत सी शूल-सा।
स्वर्ग की भी लख अतुल सुख-सम्पदा
माँगने वह हाथ फैलाता नहीं
छोड़कर अपनी पुरानी झोपड़ी
द्वार को वह अन्य के जाता नहीं।
मुप्त ही पर की कमाई से मिली
ले मिठाई भी सरस सीठी उसे
पर परिश्रम प्राप्त सूखी रोटियाँ
है अमृत के सम बड़ी मीठी उसे।
हाँ किसी श्रीमान के हाँ में मिला
आम भी अब नीम है जाता कहा
तब हृदय होता संभल कर है खड़ा
जब वहाँ उससे नहीं जाता रहा।
देख यह झट हाँथ उसका खींचकर
स्वार्थ उसको चाहता देना बिठा
पर कुचल पाँवों तले उसको वहीं
मोह का परदा हृदय देता उठा।
धर्म रक्षा से विमुख हो अन्य जब
शक्तिशाली के पदों को चूमता
स्वीय प्राणों को हथेली पर लिये
यह सरे बाजार है तब घूमता।
सरस्वती, मार्च 1917
(7)
दुस्साहस
एक दिन की बात है, हे पाठकों
नोन की जब एक छोटी सी डली
सिन्धु के जल पूर्ण दुर्गम-गर्भ की
थाह लेने के लिये घर से चली
किन्तु थोड़ी दूर भी पहुँची न थी
और उसमें वह स्वयं ही घुल गई
रंग के मद में अहो पूरी रंगी
वे महा भ्रमपूर्ण आँखें धुल गई
कर बड़ा साहस चली थी वह झपट
सिन्धु के तल का लगाने को पता
वो सकल निज रूप-गुण को ही हरे
हो गई उसमें स्वयं ही लापता।
सरस्वती, जनवरी 1917
(8)
निःस्वार्थ सेवा
खींच रहा था हल आतप में बूढ़ा एक बैल सत्रास
उसे देखकर विकल बहुत ही पूछा मैंने जाकर पास
''बूढ़े बैल, खेत में नाहक क्यों दिन भर तुम मरते हो ?''
क्यों न चरागाहों में चलकर, मौज मजे से करते हो ?
सुनकर मेरी बात बैल ने कहा दुःख से भरकर आह-
''इस अनाथ असहाय कृषक का होगा फिर कैसे निर्वाह'' ?
सरस्वती, दिसंबर 1918
(9)
कृतज्ञ-हृदय
देकर के निज उर में पृथ्वी मुझको आश्रय-दान
करती है चुपचाप सहन यह मेरा भार महान्।
यह विचार, देकर सब पत्ते उसे सहित अनुराग
रिक्त हस्त होकर के तरू ने प्रकट किया निज त्याग।।
किन्तु शीघ्र ही पहना करके उसे हरित परिधान
किया प्रकृति ने उसको सुन्दर पुष्पाभूषण-दान।
उधर भूमि ने उसके पत्तों का करके स्वीकार
खाद्य रूप में लाकर, उसका किया विविध सत्कार।
छेख रत्न गर्भा का ऐसा अति उदार व्यवहार
लज्जित होकर तरू ने अपने मन में किया विचार-
दिनकर यह जो देता उसको है जल बहु-परिमाण
करता भी है निदर्यता से शोषण उसके प्राण।
मैंने अर्पित किया उसे खुद अपने पत्र उतार
तो भी वह करती है उससे मेरा शत-उपकार।
उसके विस्तृत हृदय-सिन्धु का कहीं न पाकर कूल
चाहा उसने कृतज्ञता से इसे चढ़ाऊँ फूल।
पर, इस कृति के साथ साथ ही पाकर फलोपहार
झुकने लगी नम्र हो अतिशय उसकी प्यारी डार।
है कृतज्ञता-पूर्ण हृदय की महिमा अति विख्यात्,
कर्म और फल दोनों ही का यह अद्भुत अनुपात।।
सरस्वती, मार्च 1918
(10)
महानदी
कर रहे महानदी ! इस भाँति करूण क्रन्दन क्यों तेरे प्राण ?
देख तब कातरता यह आज, दया होती है यह मुझे महान।
विगत-वैभव को अपने आज, हुई क्या तुझे अचानक याद ?
दीनता पर या अपनी तुझे, हो रहा है आन्तरिक विषाद ?
सोचकर या प्रभुत्व-मद-जात, कुटिलता-मय निज कार्य-कलाप।
धर्म-भय से कम्पित-हृदय, कर रही है क्यों परिताप ?
न कहती तू अपना कुछ हिाल, ठहरती नहीं जरा तू आज।
'धीवरों के बन्धन से तुझे, छूटने की है अथवा लाज ?
हजारों लाखों कीट पतंग, और गो-महिष आदि प्शु-भीर
हृदय में तेरे हुए विलीन, हुई पर तुझको जरा न पीर।
दर्प से फैलाकर निज अंग, तीर के शस्त्रों का कर नाश,
लिया तूने बल-पूर्वक छीन, दीन-कृषकों के मुख का आस।
बहु काल से निश्चल खड़े थे, करीारे पर तेरे झाड़।
बहा ! ले गई सदा के लिए, हाय ! तू जड़ से उन्हें उखाड़।
कहाँ ऊब तेरा वह औद्धत्य, आज क्यों फूटा तेरा भाग ?
जल रही तेरे उर में देख, निरन्तर धू-धू करके आग।
पथिक दल को तूने था कभ्ज्ञी, व्यर्थ रोका दिन-दिन भर रोक
वही तेरी छाती को आज, कुचलता चलता है हा ! शोक ! !
उग्र-लहरों में अपनी डाल, उलट दी तूने जिसकी नाँव,
उसी धीवर दम्पति ने तुझे, कैद में डाला पाकर दाँव।
बहा देती थी कोसों कभी मत्त नागों को भी तू जीत,
रोक सकती है तुझको आज, क्षुद्र-तम यह बालू की भीत।
बता दे महानदी विख्यात कहाँ तब मानवता है आज ?
कहाँ वह तेरा गर्जन घोर कहाँ जल मय विस्तृत-साम्राज्य ?
प्राप्त करके कुछ पाश्व-शिक्ति, न होता तुझको जो अभिमान,
न होती तो शायद इस भाँति, दुर्दशा तेरी आज महान।
विनय है तुझसे चित्रोत्पले, भरे जो फिर तेरे कूल,
मोद में तो यह कातर-रूदन, कभी मत जाना अपना भूल।
हितकारिणी, जुलाई 1919
(11)
जुगनू
अंधकार में दीप जलाकर,
किसकी खोज किया करते हो
तुम खद्योत क्षुद्र हो
किर भी क्यों ऐसा दम भरते हो
तम के ये नक्षत्र आजकल
घूम रहे उसके कारण
उसका पता कहाँ है किसको
होगा यह रहस्य उद्घाटन
प्रातःकाल पवन लाती है
उसका कुछ सन्देश
मूल प्रकृति को ही कह जाती
है उसका सन्देश
क्षण भर में तब जड़ में
हो जाता चैतन्य विकास
वृक्षों पर विकसित फूलों को
होता हास-विलास
सरस्वती 1920
(12)
विश्वबोध
खोज में हुआ वृथा हैरान,
यहाँ ही था तू हे भगवान !
गीता ने गुरू ज्ञान बखाना,
वेद-पुरान जन्म भर छाना,
दर्शन पढ़े, हुआ दीवाना,
मिटा नहीं अज्ञान।
जोगी बन सिर जटा बढ़ाया,
द्वार-द्वार जा अलख जगाया,
जंगल में बहुकाल बिताया
हुआ न तो भी ज्ञान।
ऊषा-संग मंदिर में आया,
कर पूजा-विधि ध्यान लगाया,
पर तेरा कुछ पता न पाया,
हुआ दिवस अवसान।
अस्ताचल पर हँसकर थोड़ा,
दिनकर ने अपना मुँह मोड़ा,
विहगों ने भी मुझ पर छोड़ा,
व्यंग्य वचन के बाण।
विधु ने नभ से किया इशारा-
अधोदृष्टि करके ध्रुव तारा
तेरा विश्व-रूप-रस-सारा
करता था जित पान।
हुआ प्रकाश तमोमय मग में,
मिला मुझे तू तत्क्षण जग में
तेरा हुआ बोध पग पग में
खुला रहस्य महान।
दीन-हीन के अश्रु-नीर में,
पतितों की परिताप-पीर में,
संध्या के चंचल समीर में
करता था तू गान।
सरल-स्वभाव कृषक के हल में,
पतिब्रता-रमणी के बल में,
श्रम-सीकर से सिंचित धन में,
संशय रहित भिक्षु के मन में
कवि के चिन्ता-पूर्ण वचन में
तेरा मिला प्रमाण।
वाद-विहीन उदार धर्म में,
समता-पूर्ण ममत्व-मर्म में,
दम्पत्ति के मधुमय विलास में
शिशु के स्वजोत्पन्नहरास में,
वन्य कुसुम के शुचि सुवास में
था तब कृडा स्थान।
देखा मैंने-यही मुक्ति थी,
यही भोग था, यही मुक्ति थी,
घर में ही सब योग युक्ति थी,
घर ही था निर्वाण।
सरस्वती, दिसंबर 1917
(13)
रूप का जादू
निशिकर ने आ शरद-निशा में-
बरसाया मधु दशों दिशा में,
विचरण करके नभो-देश में, गमन किया निज धाम।
पर चकोर ने कहा भ्रान्त हो,
प्रिय-वियोग दुःख से अशान्त हो-
गया छोड़ करके जीवन-धन्य, मुझे कहाँ हा राम !
हुआ प्रथम जब उसका दर्शन
गया हाथ से निकल तभी मन,
सोचा मैंने-यह शोभा की सीमा है प्रख्यात।
वह चित-चोर कहाँ बसता था,
किसको देख-देख हँसता था,
पूछ सका मैं उसे मोह-वश नहीं एक भी बात।
मैंने उसको हृदय दिया था
रूचिर-रूप-रस पान किया था,
था न स्वप्न में मुझको उसकी निष्ठुरता का ध्यान।
मन तो मेरा और कहीं था
मुझको इसका ध्यान नहीं था-
छिपा हुआ शीतल किरणों में है मरू-भूमि महान।
अच्छा किया मुझे जो छोड़ा
मुझसे उसने नाता तोड़ा,
दे सकता अपने प्रियतम को कभी नहीं मैं शाप।
इतना किन्तु अवश्य कहूँगा
जब तक उसको फिर न चखूँगा
तब तक हृदय-हीन जीवन में, है केवल सन्ताप।
सरस्वती, मई 1918
(14)
उद्गार
मेरे जीवन की लघु तरणी
आँखों के पानी में तर जा
मेरे उर का छिपा खजाना
अहंकार का भाव पुराना
बना आज मुझको दीवाना
तप्त श्वेत बूँदों में ढ़र जा
मेरे नयनों की चिर आशा
प्रेम पूर्ण सौंदर्य पिपासा
मत कर नाहक और तमाशा
आ मेरी आँहों में भर जा
मानस भवन पड़ा है सूना
तमोधाम का बना नमूना
कर उसमें प्रकाश अब दूना
मेरी उग्र वेदना हर जा
अय मेरे प्राणों के प्यारे
इन अधीर आँखों के तारे
बहुत हुआ मत अधिक सता रे
बातें कुछ भी तो अब कर जा
मोहित तुझको करने वाली
नहीं आज वह मुख की लाली
हृदय तन्त्र यह रक्खा खाली
अब नूतन स्वर इसमें भर जा।
सरस्वती, अप्रेल 1918
(15)
मर्दितमान
कहाँ गये तुम नाथ मुझे यों भूल ?
गड़ता है उर बीच बिरह का शूल
प्रिय, जब थे तुम सतत मेरे पास
किया तुम्हारा मैंने नित उपहास
सुनता था अब नित्य तुम्हारी बात
था उसका माधुर्य नहीं अब ज्ञात
मिलो कहीं जो शेष हृदय का त्याग
तुम्हें दिखाऊँ अपने उर की आग
पा जा ऊँ मैं तुमको जो फिर नाथ
रक्खूँ उर में छिपा यत्न के साथ
बिछा हृदय पर आसन मेरे आज
मजे तुम्हारे स्वागत के सब साज
गूंथ प्रेम के फूलों की नव माल
रक्खा मैंने पलक-पाँवड़े डाल
उत्कंठित हो दर्शन हेतु महान
राह तुम्हारी तकते हैं ये प्राण
कृपा करोगे क्या न कहो हे नाथ
रखोगे कब तक इस भाँति अनाथ।
सरस्वती, नवंबर 1918
(16)
कुररी के प्रति
बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात
पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात
निद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वच्छन्द
अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते हैं सानन्द
इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तित गात
पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात ?
देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारू दुकूल ?
क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीं था भूल ?
क्या उसकी सौंदर्य-सुरा से उठा हृदय तब उब ?
या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब ?
या होकर दिग्भा्रन्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल ?
किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल ?
अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप
ऐसी दारूण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप ?
किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग
जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग ?
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ?
बता कौन सी है व्यथा तुझे है, है किसका परिताप ?
यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद ?
या तुझको जिन-जन्म भूमि की सता रही है याद ?
विमल व्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप
इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप
यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद ?
नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद ?
कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास
विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास
वहाँ कौन नक्षत्र-वृन्द करता आलोक प्रदासन ?
गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सी गान ?
कैसा स्निग्ध समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास
किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास ?
इसी कविता पर पं. मुकुटधर पाण्डेय को पद्मश्री पुरस्कार मिला है।
यह कविता सरस्वती, जुलाई 1920 में प्रकाशित है।
(17)
किंशुक के प्रति
वर-बसन्त-दूतिके, ''कलित-किंशुक-कली'' !
बता, आज इस ओर कहाँ आती चली ?
भूल पड़ी या प्रीतम का आदेश है,
जिससे पावन हुआ आज मम देश है ?
बिछुड़े उनसे बीता पुरा वर्ष है,
रहा न मम का धैर्य, हृदय का हर्ष है।
विरहानल में घोर ग्रीष्म भर मैं जली,
नेत्रों को करके निर्झर वर्षा चली।
डाल तुहिन-तम-तोम निखिल संसार में,
रक्खा हिय ने मुझको कारागार में।
इस जीवन-पथ पर अनेक आये गये,
हर न सके सन्ताप, दिये दुःख ही नये।
घोर-घना की निशा निरन्तर थी खड़ी,
सहसा उज्जवल किरण रूप तू लख पड़ी।
स्वागत, किंशुक-कलिके, तुझे अपार है,
तब हित कब से खुला हुआ मम द्वार है।
प्रिय वियोग से हुई आज मैं दीन हूँ,
स्वागत फिर क्या करूँ नितान्त मलीन हूँ,
फल फूलों से यद्यपि हाथ ये रिक्त हैं,
नेत्र-कमल फिर भी करूणा-जल सिक्त हैं।
देती हूँ मैं पाद्य तुझे यह दूतिके !
मेरे उर के भाव हाथ तेरे बिके।
किंशुक-कलिके, हुई आज पथ-क्लान्त तू,
बैठ वृक्ष पर हो जा किंचित शान्त तू।
फिर कुछ वृत्त नवीन सुना सु विनोद से,
बिता सुख विश्राम-घड़ी यह मोद से।
आना तेरा हुआ कहाँ, किस देश में,
बीता इतना काल, बता, किस देश में ?
है यह कैसा देश, वहाँ कैसी छटा,
क्या न वहाँ घिरती वियोग-दुःख की घटा ?
ळँसते क्या दिन-रात वहाँ उद्यान हैं,
क्या शाखा पर फल न होते म्लान ळे ?
क्या न वहाँ तम-जाल सदा सुप्रकाश है !
क्रता सर में स्वर्ण-सरोरूह हास है ?
सुना अमृत की निर्झरणी झरती वहाँ,
प्रीतम ने तो उसमें अवगाहन किया
ओज-युक्त अनमोल अमरता-धन लिया ?
कलिके, कितनी दूर बता द्धतुराज है,
वे प्रसन्न तो लौट रहे ससमाज हैं ?
मिलन हेतु अब तो उत्कण्ठा है बड़ी,
छोड़े उनको हुई मुझे कितनी घड़ी ?
आम्र-मंजरी आतुरता दिखला रही,
केकिल स्वागत-गीत मधुरतर गा रही।
मैं कब से यह बिछा सुआसन हूँ खड़ी,
छोड़े उनको हुई मुझे कितनी घड़ी ?
सरस्वती, फरवरी 1921
कौन हैं पण्डित मुकुटधर पाण्डेय
प्रस्तुतकर्त्ता- प्रो. अश्विन केशरवानी
इस साहित्यानुरागी का जन्म नवगठित जांजगीर-चांपा जिले के अंतिम छोर चंद्रपुर से मात्र 07 कि.मी. दूर बालपुर में 30 सितंबर 1895 ईसवीं को पंडित चिंतामणी पांडेय के आठवें पुत्र के रूप में हुआ। अन्य भाईयों में क्रमशः पुरूषोत्तम प्रसाद, पद्मलोचन, चंद्रशेखर, लोचनप्रसाद, विद्याधर, वंशीधर, मुरलीधर और मुकुटधर तथा बहनों में चंदनकुमारी, यज्ञकुमारी, सूर्यकुमारी और आनंद कुमारी थी। सुसंस्कृत, धार्मिक और परम्परावादी घर में वे सबसे छोटे थे। अतः माता-पिता के अलावा सभी भाई-बहनों का स्नेहानुराग उन्हें स्वाभाविक रूप से मिला। पिता चिंतामणी और पितामह सालिगराम पांडेय जहां साहित्यिक अभिरूचि वाले थे वहीं माता देवहुति देवी धर्म और ममता की प्रतिमूर्ति थी। धार्मिक अनुष्ठान उनके जीवन का एक अंग था। अपने अग्रजों के स्नेह सानिघ्य में 12 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने लिखना शुरू किया। तब कौन जानता था कि यही मुकुट छायावाद का ताज बनेगा...?
पांडेय जी की पहनी कविता ''प्रार्थना पंचक'' 14 वर्ष की आयु में स्वदेश बांधव नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई। फिर ढेर सारी कविताओं का सृजन हुआ। यहीं से उनकी काव्य यात्रा निर्बाध गति से चलने लगी और उनकी कविताएं हितकारणी, इंदु, स्वदेश बांधव, आर्य महिला, विशाल भारत और सरस्वती जैसे श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित हुई। सन् 1909 से 1915 तक की उनकी कविताएं ''मुरली-मुकुटधर पांडेय'' के नाम से प्रकाशित होती थी। उनकी पहली कविता संग्रह ''पूजाफूल'' सन् 1916 में इटावा के ब्रह्यप्रेस से प्रकाशित हुई। तत्कालीन साहित्य मनीषियों-आचार्य महाबीर प्रसादद्विवेदी, जयशंकर प्रसाद, हजारी प्रसाद द्विवेदी और माखनलाल चतुर्वेदी की प्रशंसा से उन्हें संबल मिला और उनकी काव्यधारा बहने लगी।
इस प्रकार मुकुटधर जी का समूचा लेखन जनभावना और काव्य धारा से जुड़ा है। छायावादी कवि होने के साथ साथ उन्होंने छायावादी काव्यधारा से जुड़कर अपनी लेखनी में नयापन लाने की साधना जारी रखी और सतत् लेखन के लिए संकल्पित रहे। यही कारण है कि मृत्युपर्यन्त वे चुके नहीं। उन्होंने सात दशक से भी अधिक समय तक मां सरस्वती की साधना की है। इस अंतराल में पांडेय जी ने जीवन की गति को काफी नजदीक से देखा और भोगा है। उनकी रचनाओं में पूजाफूल (1916), शैलबाला (1916), लच्छमा (अनुदित उपन्यास, 1917), परिश्रम (निबंध, 1917), हृदयदान (1918), मामा (1918), छायावाद और अन्य निबंध (1983), स्मृतिपुंज (1983), विश्वबोध (1984), छायावाद और श्रेष्ठ निबंध (1984), मेघदूत (छत्तीसगढ़ी अनुवाद, 1984) आदि प्रमुख है।
अनेक दृष्टांत हैं जो मुकुटधर जी को बेहतर साहित्यकार और कवि के साथ साथ मनुष्य के रूप में स्थापित करते हैं। उनका समग्र जीवन उपलब्धियों की बहुमूल्य धरोहर है जिससे नवागंतुक पीढ़ी नवोन्मेष प्राप्त करती रही है। उनकी प्रदीर्घ साधना ने उन्हें ''पद्म श्री'' से ''भवभूति अलंकरण'' तक अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया है। सन् 1956-57 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा ''साहित्य वाचस्पति'' से विभूषित किया गया। सन् 1974 में पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय रायपुर और सन् 1987 में गुरू घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधि प्रदान किया गया है। 26 जनवरी सन् 1976 को भारत सरकार द्वारा ''पद्म श्री'' का अलंकरण प्रदान किया गया। सन् 1986 में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ''भवभूति अलंकरण'' प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त अंचल के अनेक पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित किया गया है। वास्तव में ये पुरस्कार और सम्मान उनके साहित्य के प्रति अवदान को है, छत्तीसगढ़ की माटी को है जिन्होंने हमें मुकुटधर जी जैसे माटी पुत्र को जन्म दिया है। 06 नवंबर 1989 को प्रातः 6.20 बजे 95 वर्ष की आयु में उन्होंने महाप्रयाण किया। उन्हें हमारा शत् शत् नमन....
काव्य सृजन कर कोई हो कवि मन्य,
जीवन जिसका एक काव्य, वह धन्य।
प्रस्तुति,
प्रो. अश्विनी केशरवानी
''राघव'' डागा कालोनी,
बरपाली चौंक, चांपा-495671 (छ.ग.)
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ हमारे व्दारा प्रकाशित "विश्वबोध"काव्य संग्रह संपादक डाँ. बलदेव, प्रकाशक श्रीशारदा साहित्य सदन,रायगढ़ से लिया गया है। इन कविताओं का प्रकाशन पं. मुकुटधर पांडेय ने सिर्फ हम दोनों भाईयों शरद,बसंत साव को लिखित में दिया था, पर कुछ लोग इन रचनाओं का उपयोग करते वक्त पुस्तक एवं संपादक, प्रकाशन का उल्लेख करना भी जरूरी नहीं समझते, यह दुख का विषय है।
जवाब देंहटाएंबसंत जी, जानकारी के लिए आपको धन्यवाद व आभार।
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