‘धान के कटोरे में सूखा’ के बहाने - डॉ. विजय शिंदे ■■■ ‘धान के कटोरे में सूखा’ यह शिरीष खरे का यात्रा वृत्त है। शिरीष जी एक पत्रकार है, कई र...
‘धान के कटोरे में सूखा’ के बहाने -
डॉ. विजय शिंदे
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‘धान के कटोरे में सूखा’ यह शिरीष खरे का यात्रा वृत्त है। शिरीष जी एक पत्रकार है, कई रिर्पोताज और यात्रा वृतांत लिखे हैं। किसानों की आपत्तियां और हालातों को लेकर वे सामग्री संकलन कर रहे थे, उस दौरान ‘रचनाकार’ में प्रकाशित मेरा आलेख ‘किसान सौत का बेटा’ और ‘अपनी माटी’ में प्रकाशित ‘फांस’ से उठता सवाल – किसान खेती से मन क्यों लगाए?’ यह दो आलेख उनके पढने में आए। फिर मेल और फोन पर किसानों के हालतों पर लगातार बातचीत होती रही। उन्होंने ‘धान के कटोरे में सूखा’ यह यात्रा वर्णन मुझे पढने के लिए दिया और पूछा कि कैसा है? कहीं मुझसे कुछ छूटा तो नहीं? हालांकि कृषि प्रधान देश के किसानों की पीडाओं को लेकर जितना लिखे उतना कम है। जहां संजीव जैसा उपन्यासकार ‘फांस’ में लिख चुका और प्रेमचंद जैसा वैश्विक कथाकार ‘गोदान’ में किसानों की वास्तविकता पर प्रकाश डालता रहा। सालों से किसानों पर बहुत कुछ लिखा है और आगे भी लिखा जाएगा फिर भी यह खत्म न होनेवाला विषय है। पीछले बीस-पच्चीस दिनों से लॉकडाऊन के चलते किसान अपने फलों-सब्जियों एवं अन्य उत्पादों को खेती में ही दफन करते देख दर्द होता है। उसके लिए एक टमाटर, एक आम, एक अमरूद, एक अंगूर, ... एक इंसान को दफन करने जैसा है। कोरोना ने जितने इंसानों की जाने ली है उससे भी ज्यादा कई लोगों के सपनों को भी दफन किया है। अर्थात किसानों के लिए, चाहे वह देश का हो या दुनिया का आपत्तियों की कमी नहीं है।
खैर शिरीष जी के सवाल ‘धान के कटोरे में सूखा’ कैसे है? या ठीक से लिख पाया या नहीं? के उत्तर स्वरूप लिखे मेल और शिरीष खरे के मूल यात्रा वृत्त को लेकर मुझे लगा कि इसे कहीं एक जगह पर प्रकाशित करना चाहिए। अतः इसे प्रकाशित करने का यह प्रयास। ताकि कुछ वास्तविकताओं को उजागर किया जा सकता है। उस प्रतिक्रिया को जैसे के वैसे यहां पर दे रहा हूं।
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पढा। अभिनंदन। लेखन की अद्भुत शैली जिसमें यात्रा वृतांत, पत्रकारिता, समीक्षा, आलोचना, आत्मकथात्मकता.. आदि शैलियों का समांतर प्रयोग है। वास्तविकता को पकडकर अपनी खोजी नजरों से एक प्रदेश के माध्यम से भारत के किसानों का वर्तमान इससे सामने आ जाता है। 'गोदान' से 'फांस' तक का सफर किसानों की दयनीयता को बयां करता है। संजीव के 'फांस' के बहुत अधिक नजदीक पहुंचता यह यात्रा वृतांत लगा।
आपमें लेखन की अद्भुत ताकत है, दृष्टि है। इतना ही मैं कह सकता हूं कि आपके अपने अनुभव इतने ताकतवर है कि उसे किसी के मार्गदर्शन अथवा दिशा देने की आवश्यकता नहीं है। हां अगर आपको जबरदस्ती कोई मार्गदर्शन कर रहा है तो जरूर सुने लेकिन करे मन की। अपने अंदर की आवाज को कागज पर उतारे तभी बेहतर लिख सकते हैं और बेहतर आलोचना भी कर सकते हैं।
आपने यात्रा वृतांत में 'गाभ्रिचा पाऊस' फिल्म का जिक्र किया है जिसे मैंने शायद दो-तीन साल पहले डीडी भारती पर औरंगाबाद से गांव जाने के बाद दीपावली की छुट्टियों में देखा था। उसे देखकर मेरे सामने मेरा गांव और आस-पास के इलाके के सारे दृश्य खडे हो गए। आज भी गांवों में किसान दिन-रात बावडी या बोअर से पानी निकालने के लिए बिजली का जुगाड करने में जुटा है। बिजली कभी होती है कभी नहीं होती है, लेकिन हमेशा पाया गया है की किसान के पास बिजली का बिल देने के लिए पैसा नहीं होता है। एक बार बिजली का कनेक्शन तोड दिया की किसान सूखती हुए खेती को देखकर अंदर बाहर से भी सूखने लगता है। करंट लगने से, सांप के कांटने से किसानों की मौत आम बात हो गई हे। दर्दनाक स्थितियां है।
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किसान के कटोरे में हमेशा सूखे की भीक ही डाली जाती है। मैंने एक आलेख में लिखा है कि किसान सरकारी भीक मांगना बंद कर दे और ऐडी-चोटी का जोर लगाकर अपने बच्चों को पढाए। अपनी ना सही कम से कम बच्चों की जिंदगी तो बेहतर हो। किसानों को पता है कि खेती में अगर अच्छी उपज लेनी है तो पानी की आवश्यकता है। पानी न जमीन में है न आकाश में सरकारी तंत्र के बादल तो पहले से सूखे हैं। कहां से आएगा पानी? अतः उपाय यहीं बचता है कि कैसे भी करे बच्चों को पढाए और अपने आय स्रोतों को बदल दे। इससे हम अपने लिए मदद के मार्ग बना सकते हैं। सरकार और बादल की ओर आंखें गढाकर बैठने से अगर कुछ मिल सकता है तो वह है खाली पेट मौत। 'किसान सौत का बेटा है और सौत का बेटा ही रहेगा।' बेहतर होगा वह इस वास्तविकता को पहचान ले और अनावश्यक आस लगाना बंद करे। बिना आशा किए अगर सरकार से कुछ मिलता है तो कहे कि भाई लॉटरी लग गई।
हम जैसे पंडितों को चिंता होती है कि किसान ने खेती करना छोड दिया तो पूंजीपति जमीन को हडप लेगा। किसान कुछ दिनों के बाद अथवा कुछ वर्षों के बाद कह सकता है कि भाई हमारी जमीने उन्हें बहाल करे। हमें हमारे खाने के लाले पडे हैं, वह खेती से आए, मजूरी से आए, नौकरी से आए कोई बात नहीं। ईमानदारी से कमा लेंगे। लेकिन सरकारी भीक से ना आए। भीक पर जिंदा रहना बहुत खतरनाक है एक बार आदत लगी की छूटती नहीं। अपना दुखडा रोने की अपेक्षा खुद हाथ-पैर चलाना जब किसान शुरू करेंगे तो परिस्थितियां बदलने में देर नहीं लगेगी। आपने लिखा है कि ''दरअसल, संकट कुछ और है और समाधान कहीं और ढूंढ़े जा रहे हैं। संकट किसानों की आय का है और समाधान के नाम पर राहत बांटने का दिखावा किया जा रहा है।'' बिल्कुल सही है संकट आय का ही है। किसानी से आय नहीं हो रही है तो अब इस पर सोचना पडेगा कि इसे जारी रखे या छोडे। तकलीफ होगी छोडते वक्त। परंपरा से हमारी खून में बसी कोई बात यूं छोडना तकलीफदेय तो होगी ही। लेकिन धीरे-धीरे प्रयास तो कर सकते हैं। सरकार मदद की आशा बहुत बडा छलावा है। उसके सामने उसके प्रश्न है। और उसकी जिंदगी पांच साल की है। भाई हमारी जिंदगी कम-से-कम सत्तर सालों की तो है ही और फिर उसमें पिता की जोडे अपने बच्चे की जोडे तो 210 सालों की हो जाती है। और अपने पूरखों की जोडे तो हनुमान की पूंछ जैसी लंबी बन जाती है। इतना लंबा होने के बावजूद भी हम वहीं के वहीं धरे बैठे हैं और जिंदगी की गाडी उसी ढर्रे पर चल रही है तो सोचना पडेगा - इसे करे या ना करे। अगर छोडना है तो दूसरे मार्ग अपनाने पडेंगे और अगर करना है तो किसी की मदद लिए बिना परंपरागत खेती को छोडकर कुछ नया करना पडेगा। अब सवाल उठेगा कि कुछ नया माने क्या? वह हर एक किसान पर निर्भर होगा कि नया माने क्या? हर प्रदेश के हिसाब से वह बदलेगा। किसानों को खेती के भीतर के नए प्रयोग उसे बदल सकते हैं। हाथों का कटोरा फिंकवा सकते हैं। और उसके रीढ की हड्डी को स्वाभिमानी बना सकते हैं।
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सरकार, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मंत्री, सरकारी अधिकारी सबकी प्रतिक्रियाएं एक जैसी होती थी, होती है और भविष्य में भी वैसे ही रहेगी। आपने उसको दर्ज किया है और कई बार सुना भी है। भविष्य में भी सुनेंगे। हमारे देश में बहुत बडी ही आबादी सबसे बडी समस्या है। अभावों को दूर करने के लिए सारा सरकारी खजाना खोल दिया तो भी अधूरा पडेगा। बिना रोकटोक कहे तो कडवाहट के साथ कहना पडेगा कि भारत की इतनी बडी आबादी के चलते अभावों को खत्म करने के लिए दुनियाभर के देश आ गए तो हो सकता है वे भी भीकारी हो जाएंगे। ऊपर से हमें बडा गर्व होता है फलां-फलां साल में भारत चीन को आबादी के मामले में पीछे छोड देगा। फलां-फंला साल में भारत दुनिया की बडी ताकत बनेगा। भाई हमारे मरने के बाद बडी ताकत की पांव-भाजी बना दे। अब कुछ बरसों पहले भारत ताकतवर होना 2020 को बताया गया और अब 2050 बताया जा रहा है। झूठ, मक्कारी, ठगी है। झूठे, मक्कार और ठग ठगने के लिए बैठे हैं। लेकिन हमें ध्यान रखना हमें कोई ना ठगे। अगर किसान भूतकाल को भूलकर वर्तमान से लडेगा, सोचेगा अपने आय के स्रोतों में वृद्धि करेगा या उसे बदलेगा तो ही बेहतर जिंदगी जी पाएगा।
शिरीष जी मैं यह इसलिए लिख रहा हूं या लिख पा रहा हूं कारण हमारे घर में बरसों से खेती थी जिससे हम कभी बेहतर जिंदगी जी नहीं पाए। बचपन के बूरे हालातों को देखकर आज भी शरीर और मन कांपता है। अतः मन में गांठ बांधी हमसे यह बर्दाश्त नहीं होगा। मार्ग बदले मेरा बडा भाई फौज में भर्ती हुआ और मुझे पढाई करने का मौका मिला। लाभ उठाया। अब गांव में खेती है। माता-पिता करते हैं। जैसे बनता है वैसे। कभी हाथ लगता है कभी नहीं। लेकिन वह आंसू अब दिखते नहीं जो बचपन में हमेशा देखे थे। नुकसान हो जाए तो माता-पिता को भरोसा दिया है कि आप चिंता ना करे उसको भरने के लिए हमारे पास अब अन्य जगहों से आय स्रोत मौजूद है। हां परिवार अलग-अलग जगहों पर नौकरी के कारण बंट चुका है। लेकिन जिन आंसुओं के विरोध में लडाई छीड चुकी थी उस पर जीत पाई है। हर किसान को इस प्रकार से सोचना होगा। उसकी जिंदगी में दो मार्गों से बदलाव हो सकता है - एक है पानी और दूसरा है शिक्षा पाकर आय स्रोतों का निर्माण करके।
सरकारी मदद, मनरेगा, सबसिडी... आदि बातें कुछ समय की मरहपट्टी है। जरूरी है बीमारी को जड से ही खत्म करे। 'फांस' को लेकर मैंने एक लंबा आलेख लिखा है जिसका प्रकाशन 'अपनी माटी' से हुआ है। आपको इसके पहले इसकी लिंक भेज चुका हूं, जिसमें इन बातों को लेकर लंबा विवेचन किया है। किसान होने के नाते मेरी शिकायत सरकार, मंत्री और नौकरशाहों से नहीं है अपने आप से है। और हम अपने-आप से जब शिकायत करेंगे तभी सुधर सकते हैं। खेती से पीडित होकर आत्महत्या करना, भीक मांगना और हाथ फैलाना कोई उपाय नहीं है। यह मेरा मानना है, सबका हो जरूरी नहीं। हर एक की अपनी राय होती है और सोचने का नजरिया होता है। कारण हमने और हमारे देश ने और एक झूठ पाले रखा है कि दुनिया का सबसे बडा आजाद लोकतांत्रिक देश हमारा है। तो हमें अपने विचार रखने की आजादी है।
शायद आपके यात्रा वृतांत को पढने के बाद मेरी कई यादें ताजा हो गई और अपनी तहों को खंगालती गई।
सालों का दर्द है। उसे छेडा जाए तो यह राग तो बजेगा ही।
धन्यवाद। लिखो और लिखते रहो।
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धान के कटोरे में सूखा
शिरीष खरे
शिरीष खरे का जन्म 24 अक्तूबर, 1980 को मदनपुर, जिला-नरसिंहपुर, मध्य-प्रदेश में हुआ है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल से वर्ष 2002 में स्नातक की उपाधि प्राप्त। 17 वर्ष की पत्रकारिता में पांच राजधानियों (नई दिल्ली, भोपाल, जयपुर, रायपुर और मुंबई) में काम का अनुभव। पूरे समय और पूरी तरह गांवों पर केंद्रित। प्रिंट मीडिया की मुख्यधारा के भीतर-बाहर रहते हुए ग्रासरुट की एक हजार स्टोरी-रिपोर्ट। विभिन्न वेबसाइटों पर डेढ़ सौ से अधिक वेब स्टोरी-रिपोर्ट। प्रतिष्ठित साहित्यकि पत्र-पत्रिकाओं में सात राज्यों से दुर्गम स्थानों के यात्रा अनुभव। ग्रामीण पत्रकारिता में उत्कृष्ट रिर्पोटिंग के लिए 'प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया' की ओर से तत्कालीन उप-राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी द्वारा पुरस्कृत। लैंगिक-संवेदनशीलता पर सर्वश्रेष्ठ फीचर लेखन के लिए दो बार लाडली मीडिया अवार्ड। प्रतिष्ठित माधवराव सप्रे (भोपाल) और मिनीमाता (रायपुर) पत्रकारिता सम्मान। 'सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज, नई-दिल्ली' द्वारा मीडिया शोध और 'रीच-लिली, चेन्नई' द्वारा टीवी रिपोर्टिंग के लिए फेलोशिप। अन्वेषण (इंवेस्टीगेट) रिपोर्टिंग पर 'तहकीकात’ नाम से पहली पुस्तक। हालही में ‘उम्मीद की पाठशाला’ नामक किताब भारतीय ग्रामशिक्षा का अवलोकन करनेवाली किताब का प्रकाशन।
धान के कटोरे में सूखा
राहत के नाम पर छल
दाने-दाने के लिए जूझता अन्नदाता
'मैं गोली मार दूंगा! मरना तो है ही, साला सामने आया तो गोली मार दूंगा! बताओ यार पटवारी मेरा खेत नहीं देखा, मेरे से मिला नहीं, और गलत लोगों का नाम लिख ले गया। मैं देखता हूं बदमाश को, छोड़ूगा नहीं!'...थोड़ी देर बड़बड़ाने के बाद एक हाड़—मांस का ढांचा खुद को लाठी के सहारे टेकता हुआ दरवाजे की चौखट तक आया और उखरु बैठ गया। इधर हम में से किसी ने कहा, 'लट्ठ तो बाजू रख दो दादा', उत्तर में लट्ठ बाजू में रख दिया गया। फिर अस्सी साल के बुर्जुग की आंखों से टप—टप टपक रहे आंसूओं की धार ने सबका मन तर कर दिया।
जगदीश सोनी ने अपने तीन बेटों के साथ पंद्रह एकड़ खेत में धान बोई थी। किंतु, मानसून की बेरुखी ने पूरी फसल चौपट कर दी। खेत से एक दाना घर नहीं आया। ऊपर से परिवार पर एक लाख रुपए का कर्ज चढ़ा है। इसे पटाने के लिए फूटी कौड़ी नहीं। घर में खाने तक के लाले पड़ गए।
फिर सूखा! मध्य—भारत के एक बड़े इलाके के साथ छत्तीसगढ़ उस साल फिर सूखे की चपेट में था। फिर कुछ गांवों को इसने बुरी तरह झुलसा दिया था। राजधानी रायपुर से सिर्फ पच्चीस किलोमीटर दूर दुर्ग जिले का वह गांव इन्हीं में से एक था। 'धान के कटोरे' पर आया वह संकट न तो पिछले एक—दो साल में पैदा हुआ था और न एक—दो साल में छंटने वाला ही था। और न ही इस इलाके में आया यह अकेला सूखा था। किंतु, यह एक अलग कहानी है। सूखे के बाद अकाल न पड़े, इसीलिए सरकार ने राहत बांटने की घोषणा की थी। किंतु, सूखे के नाम पर राहत की फसल अन्नदाताओं के लिए धोखा साबित हुई थी। इसके साथ ही वह सूखा उसके पहले और बाद के सूखों को समझने में सहायक साबित हुआ था।
'ऐ मुन्ना इन्हें कुछ खेत घुमाकर ऑफिस ले आना, मैं वहीं बैठा हूं। तू कुछ किसानों को खेत में खड़ा कर दो—चार फोटू—बोटू खींचवा दे। बाकी बातें वहीं, ठीक!' यह बात सरपंच हेम साहू मुन्ना को अपनी मोटर—साइकिल देते हुए कही। फिर वे पैदल ही ग्राम—पंचायत की तरफ बढ़ गए।
चार फरवरी दो हजार सोलह, सर्द सुबह की बात थी जब मैंने अछोटी गांव के कई सारे खेत और किसानों की फोटो खींचीं। इसके बाद लौटते समय जगदीश सोनी के दरवाजे के सामने उनसे बातें कर रहा था और वे बात—बात पर अचानक फूट पड़ रहे थे। हर एक को उनका मर्म पता था, क्योंकि खेतों का सूखा पूरे गांव पर साया था और उनके साथ पूरा गांव ही अन्न—पानी की चिंता में डूबा था।
इसी जनवरी में राज्य सरकार ने सभी सूखा पीड़ितों को मुआवजा देने की घोषणा की तो अस्सी साल के जगदीश सोनी के मन के किसी कोने में यह आस जागी कि चलो उनकी परेशानी थोड़ी तो कम होगी। किंतु, जगदीश सोनी का नाम सूखा प्रभावित किसानों की सूची गायब था। बाकी कई किसान एक ही तरह की बात को दोहरा रहे थे, 'खेत देखना है, चलो खेत, खुद देख लो फसल कैसे खड़ी—खड़ी सूख गई! पर पटवारी ने हमारा नाम नहीं लिखा।' एक किसान मुझे वापिस खेत की ओर चलने के लिए जिद करने लगा। दरअसल, अछोटी के ही लगभग दो सौ छोटे किसान परिवारों में से सरकार ने सिर्फ निन्यान्वे को ही सूखा—राहत का पात्र माना था।
कुछ देर में खेत—गांव से होकर पंचायत लौटे तो सरपंच हेम साहू बहुत सारे ग्रामीणों को साथ लिए मेरी प्रतीक्षा में बैठे मिले। वे कोरे कागज पर गांव का नक्शा खींचने लगे और बगैर कुछ पूछे बताने लगे, 'यह देखिए, यह अपना गांव है, गांव के पास से यह तादुंल नहर निकल रही है, इस साल इस नहर से समय पर पानी नहीं छोड़ा गया। इससे नहर किनारे के ये इतने सारे खेत सूख गए।' मैंने पूछा, 'ऐसे कितने गांव होंगे?' उन्होंने लिखवाना शुरू कराया— अछोटी, नारधा, चेटवा, मुरंमुंदा, ओटेबंध, गोड़ी, मलपुरी...
मैंने गांव से बाहर निकलते हुए कलक्टर आर. संगीता को कॉल किया। उन्हें अवगत कराया कि सर्वे स्तर पर गड़बड़ियों की शिकायतें बढ़ती जा रही हैं और इस समय अछोटी गांव में हूं, जहां सौ से अधिक किसान असंतुष्ट हैं। उन्होंने मेरी बात पर असहमति जताई। कहा, 'कुछ लोगों के नाम शायद छूट गए होंगे, लेकिन सर्वे की प्रक्रिया सही है।' फिर इसके तुरंत बाद मैंने छत्तीसगढ़ सरकार में कृषि मंत्री बृजमोहन अग्रवाल से बात की। उनका कहना था, 'सरकार ने अधिकारियों को यह जिम्मेदारी दी थी कि वह किसानों को राहत राशि बांटे, शिकायतें तो मिलती ही हैं, पर मुझे लगता है किसान उतना नाराज नहीं है जितना बताया जा रहा है।'
उस दिन शाम सात की संपादकीय—बैठक से पहले मैं 'राजस्थान पत्रिका' के अपने रायपुर कार्यालय लौट आया था और बैठक में इस मुद्दे पर रिपोर्ट फाइल न करने का समाचार सुनाया। असल में रायुपर से सूखा राहत पहुंचायी जा चुकी थी। किंतु, इस राहत—काल को समझने के लिए एक यात्रा अनिवार्य हो चुकी थी। इसलिए, आनन—फानन में कोई सतही रिपोर्ट लिखने की बजाय मैंने उन्हें अगले चौबीस दिन रायपुर की चार अलग—अलग दिशाओं में छह जिलों के कई गांव और खेत—खेत घूमकर सूखा प्रभावितों की व्यथा पर रिपोटिंग की एक धारावाहिक योजना बताई जिसे हरी झंडी मिल गई। इसके बाद मैंने रायपुर को यात्राओं का केंद्र माना और रायपुर से चार यात्राएं कीं। पहले चरण में रायपुर से दुर्ग और राजनांदगांव, दूसरे चरण रायपुर से महासमुंद, तीसरे चरण में रायपुर से जांजगीर-चांपा और चौथे चरण में रायपुर से धमतरी जिले के ग्रामीण अंचल तक डेढ़ हजार किलोमीटर से अधिक लंबी यात्राएं कीं। यह यात्राएं और भी लंबी भी हो सकती थीं, परंतु सूखा की जटिलता को समझने के लिए यात्राओं के दौरान मेरे लिए कई जगह देर तक ठहरना जरुरी हो गया था। यही वजह है कि वर्षों बाद सूखे के संबंध में मुझे सिर्फ घटनाएं ही दिखाई नहीं देने लगी थीं, बल्कि उनके पीछे के क्रम में एक प्रक्रिया समझ में आने लगी थी और उसके मूल में छिपे कारकों को ढूंढ़ने में मदद मिलने लगी थी।
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यात्राओं के दौरान मुझे ध्यान आया कि मेरी हर अच्छी रिपोर्ट उस जगह से होती है जहां पीड़ा दुखों का पहाड़ है, दुनिया नरक बन चुकी है और मानसिक वेदना तथा उत्पीड़न अपने चरम पर और मानवीयता मरणासन्न पर है। यात्राओं के पीछे मेरी अपेक्षा यह जानने की थी कि सूखे का इतना बड़ा संकट अन्नदाताओं की गृहस्थी को कैसे प्रभावित कर रहा है इस दौरान मैं समय और जगहों तक पहुंचने की कठिनाइयों का विवरण शामिल जरुर नहीं कर सका, लेकिन उन अनुभवों से जाना कि कैसे बर्बाद हुई फसल के बाद मुआवजा निर्धारण और वितरण का खेल अन्नदाताओं के साथ एक छलावा बनकर रह गया। प्रभावितों के लिए आवंटित बजट न के समान सिद्ध हुआ था। हर ओर के दृश्य बयां कर रहे थे कि राहत में चूक तो हुई है। सूखे का एक अर्थ होता है कि सब कुछ पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है और इसी आशा में हरियाली के प्रयास हमेशा जारी रहते हैं। किंतु, सूखे के बाद राहत के सूखे को देखकर लगा कि खेतों की जमीन ही नहीं दरक गई थी, हर ओर सत्ता की संवेदना भी दरक गई थी।
अनियमितताओं का आलम यह था कि जब मैं रायपुर लौटकर वापिस आया तो मेरे हाथ में लिखित—शिकायतों का एक बड़ा बैग था। कायदे से यह बैग अधिकारियों के लिए था। इसमें कोने—कोने से जमा पत्रों में किसानों के चेहरों की चिंता, उनका दुख, असंतोष और आक्रोश दर्ज था। पत्रों के पुलिंदे में जांजगीर-चांपा के कोरबी गांव के किसान उमेंद राम ने यह शिकायत भी थी कि उन्होंने सरकारी कार्यालयों के कई चक्कर काटे, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई।
मैंने कंप्यूटर के सामने फाइल में उमेंद राम की शिकायत को और अधिक विस्तार देती अछोटी गांव के रिखीराम साहू की पीड़ा टाइप की। रिखीराम की चिंता थी कि गांव का हर किसान इस तरह भारी कर्ज में डूबा है कि कई किसानों के पास अगले साल बोने के लिए बीज भी नहीं हैं। ऐसे में क्या उन्हें अगले साल अपने खेत खाली छोड़ने पड़ेंगे! सीधी बात है कि किसानों की फसल खराब होने के कारण उनकी रही-सही जमा पूंजी खर्च हो चुकी थी। इस साल सूखे ने तो किसानों की जिंदगी में गहरा घाव दिया ही, साथ ही सरकारी राहत से भी उन्हें वंचित कर दिया गया था। स्थिति यह बन गई थी कि किसानों के पास खेतों में बोने के लिए तक बीज नहीं बचे थे। इसे देखते हुए अगले साल बुआई की आशा पर भी पानी फिरता दिख रहा था। इसीलिए, जहां—जहां गया वहां—वहां छोटे किसान यही मांग करते दिखे कि सरकार मुआवजा राशि न बांटे। इसकी जगह किसानों का कर्ज माफ कर दे।
यात्रा में लौटते हुए हमारा शरीर तो साथ लौटता है, लेकिन मन तुरंत नहीं लौटता है और बहुत दिनों बाद लौटता भी है तो पूरा नहीं लौटता है। मैं आंखे खेलकर यादों का एक मार्ग बना रहा होता हूं तो मुझे याद आता है कि एक बच्चा साइकिल चलाता हुआ सूखे खेतों के संकरे रास्ते से गांव की ओर जा रहा था और उससे पीछे एक और छोटा बच्चा साइकिल चलाने की जिद में चिल्लाता दौड़ रहा था। और उनके पीछे—पीछे मैं पहुंच गया था सुकुलदैहान गांव। राजनांदगांव जिले के इस गांव में सूखा घर—आंगन की चमक छीन ले गया था। असंतुष्ट लोगों ने बताया था कि सरकार ने फसल घाटे के बदले आठ—आठ हजार रूपए बांटे हैं। उन्होंने चीखते हुए पूछा था कि आठ—अरठ हजार में होता क्या है? राजनांदगांव छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का गृह—जिला है। किंतु, यही के किसान अब राजधानी रायपुर में बड़े आंदोलन की तैयारी कर रहे थे।
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डॉ. विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र).
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