तेरे प्यार में बदनाम मिर्ज़ा हफीज़ बेग वह हमारी कालोनी में नयी नयी आई और आते ही टॉकिंग-पॉइंट बन गई । क्यों न हो, जिनके हाथ रोजगार हो उनकी तो ब...
तेरे प्यार में बदनाम
मिर्ज़ा हफीज़ बेग
वह हमारी कालोनी में नयी नयी आई और आते ही टॉकिंग-पॉइंट बन गई । क्यों न हो, जिनके हाथ रोजगार हो उनकी तो बात ही निराली होती है। कहा भी तो गया है, कि धन ही शक्ति है और निरंतर धनलाभ सुख है। अब इतना तो हम भी समझते हैं कि निरंतर धनलाभ का अर्थ है- रोजगार। अब जिसके पास रोजगार हो, उसकी चाल ढाल, उसकी बातचीत, मतलब कि हर बात में ही आत्मविश्वास झलकने लगता है। उसका व्यक्तित्व ही बदल जाता है।
अब शास्त्रों में भी सुख के छः प्रकार बताये गये हैं, जैसे- निरोग काया सुख है, अर्थकारी विद्या सुख है, प्रेम करने वाली पत्नी सुख है; आज्ञाकारी पुत्र सुख है; निरंतर धनलाभ सुख है और प्रियंवदा पत्नी सुख है। पर मुझे लगता है कि, इनमें से एक सुख प्रमुख है- निरंतर धनलाभ। यानी कि, रोजगार। और यह सुख जिसके पास हो वह सारे सुख अपने पास खींच लाता है। तभी तो इन रोजगारशुदा लोगों की बात ही और होती है। अब हमारे पास तो ले दे कर एक ही सुख है, और वह है निरोग काया। और सच पूछो तो यह सुख नहीं बल्कि मुसीबत की जड़ ही है। जिसे देखो, वह इसी के ताने देता है; 'हाथी जैसा शरीर है, जहां लात मारो वहीं से पानी निकल आये। कुछ करते क्यों नहीं ?' और मैं समझ नहीं पाता हूं, कि इस 'हाथी जैसे शरीर' और लात मारकर पानी निकाल देने की क्षमता का क्या करूं। अरे, धरती में भी अब पानी रहा कहाँ? हमने विकास भी तो जरूरत से ज्यादा कर रखा है। धरती का सीमेंटीकरण कर दिया। बरसात होती है तो धरती का जलस्तर नहीं बढ़ता, न नदियों में उफान दिखता है, अलबत्ता शहरों में नाव चलाने की नौबत जरूर आ जाती है।
यार! पता नहीं बात कहाँ से कहाँ चली जाती है। तो बात हो रही थी 'उसकी'। अच्छा! मैंने आपसे उसका परिचय तो कराया ही नहीं; फिर आप पहचानेंगे कैसे? हां तो नाम उसका है- उपासना; और वह हमारी कालोनी में आई और टॉकिंग-पॉइंट बन गयी। इतनी कम उम्र में नौकरी मिलना और वह भी कोई ऐसी वैसी नौकरी? सरकारी बैंक में अफसर है। वाह रे नसीब! अभी अभी ग्रेजुएशन किया; काम्पिटीशन एक्जाम दिया, टॉप किया, अब इंटरव्यू में कौन काट सकता था। तो, इसे कहते हैं किस्मत ! और एक हमारी है, हां यार वही… किस्मत। एक हमारी किस्मत है, कभी टॉप तो कर न सके, न अब तक कोई जॉब ही हासिल कर सके। हां, विद्या ज़रूर हासिल की; लेकिन उसे अर्थकारी नहीं बना सके। अब जो चीज अर्थकारी न हो, तो अनर्थकारी ही होगी न! अब देश के कर्णधारों को यह कौन समझाये?
और जबसे वह आई है, लोगों ने जीना हराम कर रखा है। दुनिया के ताने बढ़ गये हैं। देखो लड़की होकर भी कैसे अपने पैरों पर खड़ी है और तुम लड़के होकर आवारागर्दी में वक्त बरबाद करते हो। मेरे दोस्तों का भी यही हाल है। क्या करें ये लड़कियां आज कल हर मामले में लड़कों को टक्कर दे रही है। अब ऐसे में हमारा क्या होगा। हमारी तो मुश्किलें बढ़ गयीं न। लेकिन यहां कौन समझने वाला है? कभी कभी तो इन लड़कियों से बड़ी चिढ़ होती है…
लेकिन उससे नहीं। उसकी तो बात ही कुछ और है। वह कुछ खास है। बात करने का उसका ढंग, उसकी खामोशी की भाषा। उसकी वह नपी तुली सी मुस्कुराहट या खिलखिलाती हंसी। वह उसका अपने आप में खोया खोया सा अंदाज़ और आपकी तरफ देखने की मेहरबानी। उसकी झुकी झुकी पलकें जैसे आपके मन को पवित्र और असीम शांति से भर देती हैं, तो उसकी आंखों का उठना आपके अंदर गहराई तक हलचल मचा दे। झुकी हुई निगाहों को रास्ते पर गड़ाये हुये जब नपे तुले कदमो से वह चलती है, तो कितने दिल होंगे जो उसके कदमों में बिछ बिछ न जायें। बस वही एक है जो इन सारी बातों से बिल्कुल अनजान सी अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में व्यस्त रहती है। और मैं बिल्कुल समझ नहीं पाता हूं, कि जब उसके एक एक कदम पर इतने दिल घायल होकर गिरते पड़ते रहते हैं, तब भी उसे कैसे इसकी कोई खबर नहीं रहती है।
उसका आना, मेरे अंदर बहुत सारे परिवर्तनों का करण बन गया है। पहले तो मैं देर तक सोता रहता; अब जल्दी से उठकर बाहर चला आता हूँ, क्योंकि वह जल्दी ही उठकर ऑफिस के लिये तैयार होने लगती है। मैं टहलता रहता हूँ कि उसकी एक झलक दिख जाये। कभी कभी किताबें लेकर छत पर चला जाता हूँ। यह सब शनिवार तक यूँ ही चलता रहता है। रविवार को उसका वीकली ऑफ रहता है; तो शनिवार को तो वह ऑफिस से ही सीधे अपने घर चली जाती है। घर मतलब अपने पैरेंट्स के पास जो बस यहाँ से कोई पैंतीस-चालीस किलोमीटर पर दूसरे शहर में है। संडे शाम को वह आम तौर पर लौट आती है; ताकि मंडे को सवेरे जल्दी ड्यूटी के लिये तैयार हो सके। कभी-कभी जब संडे को वापस नहीं आती तो मंडे शाम को लौटती है। यानी घर से सीधा ऑफिस फिर ऑफिस से यहां हमारी कालोनी वाले घर में।
आपको हैरानी होती होगी मैं कैसे उसके पल-पल की खबर रखता हूँ। इसमें ऐसी कोई मुश्किल बात नहीं है। आखिर मेरे पास और काम भी क्या है। फिर यह सब ऐसी कोई छिपी बातें भी नहीं। सारा आस पड़ोस जानता है। सभी उसकी खबर रखते हैं। बड़े लोग यानी कालोनी के बुढ़ऊ लोग तो उसकी खैर खबर रखना अपना फर्ज़ समझते हैं क्योंकि वे सभी स्वयम् को उसका स्थानीय संरक्षक समझते हैं। और मैं और मेरे हम उम्र तो उसके जादू भरे आकर्षण में बंधे हुये होने के कारण....
लेकिन मेरी माँ तो सच में उसकी संरक्षक ही है। वह हमारी स्वजातीय जो है। जब पहली बार वह यहाँ आई थी तो साथ में उसकी माँ भी थी और उसने स्वजातीय होने के कारण अपनी बेटी की ज़िम्मेदारी मेरी माँ पर ही डाल कर दी थी।
“बहनजी अब यह आपकी ही बेटी है समझो। मैं इसकी ज़िम्मेदारी आप पर ही डालती हूँ।”
“अरे बहन इसमे ऐसी क्या बात है। मेरी अपनी तो कोई बेटी नहीं है, सो अब यही मेरी बेटी है।” मां पता नहीं इस ज़िम्मेदारी से प्रसन्न अधिक थी या गौरवान्वित अधिक थी।
और इसी ज़िम्मेदारी के साथ मां की आँखों में एक सपना तैर गया था; जैसे सारी माओं की आँखों में तैर जाता है। यह मेरे बेटे के लिये कैसी रहेगी? पढ़ी लिखी है। कमाती है। अफसर है। मेरे बेटे की तो ज़िंदगी बन जायेगी।
बस बेटा कहीं लग जाये। मौका देखकर बात चलाती हूँ। बडी बहू तो बस घर में पड़ी पड़ी रोटियाँ तोड़ती है। दहेज़ के चक्कर में गले पड़ गई। ज़रा उसे भी तो पता चले...
सो मुझे इस बात पर गर्व भी था, कि हमारे घर उसका आना जाना है। इसी कारण वह गाहे ब गाहे वह मुझसे बात करने की कृपा भी दिखाती और मुझे मेरे कॉम्पिटीशन एक्ज़ाम्स के लिये टिप्स भी दे देती। यह सब देख, मेरे यार दोस्त तो मुझसे जलने लगते।
‘साले, तेरा तो काम बन गया बे!’ वे कहते, ‘तेरे तो जात समाज की भी है।‘ ऐसा कहके वे आहें भरते और मेरा सीना गर्व से फूल जाता; लेकिन असलियत तो मैं जानता हूँ। मेरी तो हिम्मत ही नहीं होती उससे खुद होकर बात करने की। कहाँ मैं, एक बेरोजगार और कहाँ वह एक सरकारी बैंक में ऑफीसर। लेकिन जो भी हो मुझे अपने आप को उसकी नज़र में साबित तो करना ही है; और इसके लिये मैं अपनी तरफ से कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहता।
मैं जानता हूँ, कुछ खास बात तो है उसमें। पता नहीं क्यों मन उसकी तरफ खिंचा जाता है। हमेशा दिल यही कहता है कि, अगर यह लड़की मिल जाये तो यार ज़िंदगी संवर जाये। बस मैं भी कमर कसके भिड़ा रहता हूँ। नौकरी के लिये हर कॉम्पीटीशन फाईट करता हूँ। सौ-सौ उम्मीदें पालता रहता हूँ। हर किसी से कहता हूँ, कि इस बार तो सक्सेस पक्की है। लेकिन परिणाम हर बार... फुस्स।
यह सब इतनी बार हो चुका कि अब तो हर कोई मेरे दावे का उपहास करता है। बात तो साफ है! वह भी....
***
मैंने भी अपनी तरफ से कोई कसर तो नहीं छोड़ी। आखिर मेरी असफलतायें मुझे वहीं ले गईं जहां हर असफल और निराश व्यक्ति जाता है; भगवान की शरण में। कितने मंदिरों में शीश नवाये। कितने व्रत उपवास किये। यहाँ आकर मुझे एक नये जीवन का आभास होने लगा। लगा जैसे जीवन के कितने रहस्य प्रकट होने लगे हैं। शायद मेरे ज्ञान चक्षु खुलने लगे हैं। मैंने इस जीवन में असीम शांति का अनुभव किया। यहाँ कोई कॉम्पिटीशन नहीं था। कोई आपा धापी नहीं। सिर्फ श्रद्धा थी और समर्पण्। यह जीवन मुझे रास आने लगा और मैं इसमें डूबता चला गया। शनै: शनै: मेरा भक्ति भाव इतना बढ़ने लगा, कि आस पास के हर मंदिर के पुजारी पंडित मेरी श्रद्धा और भक्ति के आगे नतमस्तक हो गये। वे सब मेरी इतनी सराहना करने लगे, कि यह आयु और यह श्रद्धा! आखिर ऐसे नौजवानों के हाथों ही तो धर्म का भविष्य है। लेकिन पता नहीं भगवान क्यों द्रवित नहीं होते।
अब तो मेरा अधिकतर समय पंडित और पुजारियों की संगत में बीतने लगा। और धीरे धीरे मंदिरों से जुड़े कई बड़े लोगों यानी ट्रस्टियों वगैरह से भी जान पहचान होने लगी। सभी बड़े लोग मुझे धर्म की सेवा के लिये प्रोत्साहित करते रहते हैं।
अब मुझे घर का वातावरण भी मानो काटने दौड़ता है। क्यों...? अब आपको यह कैसे बताऊं? एक तरफ वे लोग हैं जो मुझे इतना प्रोत्साहित करते हैं; और एक तरफ मेरे घर वाले है... यानी मेरे भाई और बाप। इन लोगों की नज़र में तो मुझमें ही कमी है। क्या कहूँ मेरी भक्ति और श्रद्धा को भी वे मेरी असफलताओं से जोड़कर देखते हैं। कहते हैं, मैं इसकी आड़ में अपनी कमी छुपा रहा हूँ। क्या वह भी ऐसा ही सोचती होगी... कभी कभी तो लगता है वे लोग सच कह रहे हैं। फिर भी कैसे कह दूँ और कैसे मान लूँ कि अपनी मेहनत में ही कोई कमी रह गई। अरे! आखिर अपनी भी कोई इज़्ज़त है कि नहीं?
पीछे वाले हनुमान मंदिर के बड़े पुजारी कहते हैं, “जीवन जीने के हज़ार रास्ते हैं; और जीवन अपना रास्ता ढूंढ ही लेता है।”
और पंडित जी सही ही कहते हैं; जीवन अपना रास्ता ढूंढ ही लेता है...
आखिर मेरे जीवन ने भी तो स्वतः ही मेरे लिये रास्ता बनाना शुरु कर दिया है।
इसी लिये तो, जॉब भले नहीं हो अपने पास, पर अपन भी कोई ऐसे वैसे, बेकार इनसान नहीं है अब। अपनी भी इज्जत है। अरे, वो भले न जाने। अपने घर वाले भले न समझें लेकिन दुनिया अपनी कद्र करती है न।
क्यों?
अरे! हम लोग आजकल समाज सेवा का काम जो करते हैं। वैसे भी हमारे देश में जिन लोगों के पास कोई काम न हो वे समाज सेवक ही बन जाते हैं। अब समाज सेवा मतलब कैसे समझायें आप को। यही… देश की रक्षा वग़ैरह। समाज के भीतर सब ठीक ठाक चल रहा या नहीं या समाज में कोई देशद्रोही तत्व अथवा धर्म विरोधी तत्व तो मौजूद नहीं इसकी चिंता; फिर अपने इलाके में सब ठीक ठाक चल रहा है कि नहीं। अपने इलाके में कोई बाहर वाले लोग आकर गड़बड़ी तो नहीं फैला रहे हैं। बस समाज की सुरक्षा करते हैं।
यह सब इन धार्मिक लोगों की संगत और उनकी कृपा से ही सम्भव हुआ है। इन्हीं लोगों ने हमें खाली देखकर यह काम सौंपे हैं, ताकि हम अपनी ज़िंदगी भी चला सके और धर्म का भी भला हो।
फिर कोई त्योहार वगैरह हो या कोई धार्मिक काम हो, तो उसके लिये चंदा वसूल करने से लेकर मूर्ति विसर्जन तक के सारे काम हमें ही करना रहता है।
और सच तो यही है, कि यह सब हमारी भक्ति के प्रताप से ही सम्भव हुआ है। आप तो जानते ही हैं कि आस पास के सभी मंदिरों के पुजारी लोग और मंदिर से जुड़े बड़े-बड़े लोग कितने प्रभावित हैं मेरी भक्ति से।
क्या करें, नौकरी पानी मिलते ही लोग धर्म से दूर होने लगते हैं। हमारे बड़े भाई साहब को ही ले लो। कभी साल भर में एक दो बार मंदिर चल दिये तो बड़ी बात। वह भी भाभी के कहने पर। जबकि आज धर्म को हमारी कितनी जरूरत है। भई हम धर्म के जानकार भले न हों पर रोजाना मंदिर जाते हैं। सच पूछो तो वही हमारा अड्डा है। पूजा पाठ भी हो जाता है और पुजारियों की संगत में कुछ लाभ भी हो जाता है। लाभ मतलब? यही, खर्चा पानी का…। क्या करें? घर वाले तो पूरा करने से रहे।
हमारी भक्ति देख मंदिर के मुख्य पुजारी बड़े प्रसन्न रहते हैं और खर्चा पानी भी दिलवा देते हैं; मंदिर के छोटे मोटे कार्यों के बदले मे। बस, इसी के सहारे जिंदगी कट जाती है। पंडित जी की पहचान बड़े बड़े लोगों से है। उनकी पहुंच तो शायद प्रधान मंत्री तक भी होगी। वे बताते नहीं पर मुझे ऐसा लगता है। वे बड़े बड़े लोगों से हमें मिलवाते हैं और हमारी प्रशंसा भी करते हैं। बड़े बड़े नेता लोग भी हमारा भक्तिभाव देखकर खुश हो जाते हैं और एक न एक दिन अच्छी सी नौकरी दिलाने का विश्वास भी दिलाते हैं।
और एक हमारा बुढ़ऊ है, कहता है हमने पढ़ा लिखा दिया, योग्य बना दिया अब कमाई करना तुम्हारा काम है।
***
पिछली नवरात्रि को जब हम अपने साथियों के साथ, देवी दर्शन के लिये नंगे पैर सौ किलोमीटर तक पैदल यात्रा की तब भी सारी दुनिया हमारे भक्तिभाव को प्रणाम करती थी तब भी घर में बातें सुननी पड़ी।
"कौनसा तीर मार आये? इतनी मेहनत काम ढूंढने के लिये की होती तो आज यूं निठल्ले न फिरते। इतनी मेहनत कमाई करने में लगाई होती तो आज कुछ काम के आदमी बन जाते। दुनिया भर में नाम होता तुम्हारा।"
"नाम तो अब भी बहुत है। आप लोग क्या जानोगे।" मैं चुप न रह सका।
"हां, हां, पता है, पता है किस काम के लिये नाम है तुम्हारा। आवारागर्दी के लिये!"
"यह आवारागर्दी है?" मैं गुस्से से चिल्लाया। मैं आहत था। मुझे घोर आश्चर्य था। क्या बाप ऐसे होते हैं। कभी आज तक मेरी कोई बात अच्छी नहीं लगी। कभी किसी बात पर खुश नहीं।
"यह आवारागर्दी है?" मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं।
"आवारागर्दी नहीं तो क्या? कोई नौकरी ढूंढो, कोई काम काज करो, फिर चाहे जो करो कौन बोलने वाला है।"
"ये धार्मिक काम है, और मेरा मन धार्मिक कामों में ही लगता है।"
"धार्मिक? तू कब से धार्मिक हो गया? गीता पढ़ ली, रामायण पढ़ ली? क्या पढ़ लिया? बता वेदों में क्या लिखा है...?”
"यह सब पढ़ा नहीं तो क्या? आस्था जरूरी चीज है और मुझमें आस्था तो है।" मैं भी बिगड़ पड़ा ।
"और यह आस्था आई कहां से। जिस चीज को जानते नहीं उस पर आस्था कैसे हो सकती है। आस्था नाम है, अच्छी तरह अध्ययन करके, जांच समझ के किसी बात पर विश्वास करने का। तभी हमारे विश्वास में कहीं शंका की गुंजाइश नहीं रहती। बिना जाने समझे विश्वास या तो ढोंग होता है, या अंधविश्वास! और सौ बात की एक बात है वर्क इज़ वर्शिप बस।"
मुझे बहुत क्रोध था। मुझे इस बात पे शर्म आ रही थी कि वे मेरे पिता होकर इस तरह की बात करते हैं। ऐसे लोगों के कारण ही आज हमारा धर्म खतरे में है। फिर भी मुझे समझने वाले, मेरी कद्र करने वाले घर के बाहर बहुत लोग हैं। और दुनिया घर तक तो सीमित नहीं। मेरे पिता और मेरे बड़े भाई, इन लोगों के पास नौकरी है। और वे अपने आप को सेफ जोन में महसूस करते है अतः देश-धर्म के काम से कोई लेना देना नहीं रखना चाहते हैं। ठीक है, मुझे क्या?
"बेटा वे तेरे पिता हैं। तेरा भला चाहते हैं। वे चाहते हैं कि तुम अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। फिर कुछ भी करो।" रात में मां ने समझाया।
"फिर भी मैंने क्या गलत किया बताओ।" मैंने पूछा।
"सवाल गलत सही का नहीं है बेटा," मां ने कहा, "सवाल है तुम्हारे अपने पैरों पर खड़े होने का।"
"क्या मैं बेकार हूँ? बेकार? मां, तेरी नज़र में भी मैं बेकार हूँ?" मैंने भावनात्मक दांव खेला।
"बेटा, मां के लिए कोई औलाद बेकार नहीं होती; यह तो दुनिया कहती है। और दुनिया कोई माँ की गोद नहीं होती बेटा। यहाँ सिर्फ कमाने वाले कि कद्र होती है। जो नहीं कमाता उसे ही बेकार कहा जाता है। …बेटा, ज़िन्दगी भर तो हम तेरा साथ नहीं दे सकते न? यही हमारा डर है, तुझे एक बार अपने पैरों पर खड़ा देख लें तो हमारी चिंता मिटे।" माँ भी आजकल बड़ी सयानी हो गई है। मेरे हर दांव पेंच समझ लेती है। लेकिन मैं भी इतना नकारा तो हूँ नहीं…
"मैं आप लोगों से कुछ मांगता तो नहीं।" मैंने कहा।
"लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि तुम्हारे खर्चे है ही नहीं। और बेटा जो तुम्हारे खर्च उठाते हैं, वे मुफ्त में नहीं उठाते। वे वसूलते होंगे या वसूलेंगे। दूसरों पर भरोसा मत करो बेटा, पैसा तो कोई मुफ्त में भगवान को भी नहीं चढ़ता।"
"ऐसी बात नहीं है माँ, भगवान के एक से बढ़कर एक भक्त हैं। जो हज़ारों, लाखों रुपए यूँ खर्च करते हैं भगवान की राह में। मां, इन्ही के दम पर धर्म टिका है वरना आप जैसों के चलते तो धर्म कब का रसातल में पहुंच जाता।"
"ऐसा नहीं है बेटा; भगवान को पैसों की ज़रूरत नहीं। और हज़ारों लाखों वही लुटा सकता है जिसने इसे मेहनत और ईमानदारी से न कमाया हो। दुनिया में एक पैसा भी मुफ्त में नहीं मिलता बेटा। इस बात को हमेशा याद रखना।"
"मुझे तो मिलता है, माँ।" मैंने साफ-साफ कह दिया। यदि इन्हें अपने पुत्र से प्रेम नहीं तो क्या? किसी को मुझ से प्रेम नहीं होगा? उनके लिए तो बड़ा बेटा ही बेटा है; लेकिन मैंने समाज सेवा और धर्म की राह पर चलकर कितने ही माता-पिता पा लिए हैं। अगर तुम्हें मेरी ज़रूरत नहीं तो मुझे भी तुम्हारी ज़रूरत नहीं। इन्हें तो यह भी नहीं पता कि हमारे क्षेत्र के सांसद और अगले मंत्रि मंडल गठन में मंत्री पद के प्रबल दावेदार, दामोदर भैया भी मुझे अपना पुत्र मानते हैं। हां, ये अलग बात है कि खुद अपने पुत्र से उनकी नहीं पटती...
बात ये है, कि दामोदर भैया उसे पार्टी के काम में लगाना चाहते हैं और वह पढ़ना लिखना चाहता है। नौकरी करना चाहता है; इसी लिए घरबार छोड़ विदेश में जा बैठा है और बेचारे दामोदर भैया न चाहते हुए भी उसका खर्च उठाने मजबूर हैं। कहते हैं, “इतना धन दौलत किस काम की जब अपना पुत्र ही इस की कदर नहीं करता। देखेंगे, नहीं माना तो सारी दौलत अपने लोगों में बांट देंगे।”
और मुझे तो पक्का यकीन है, वे मुझे ही अपना वारिस बना लेंगे।
एक बेचारे दामोदर भैया हैं, और एक मेरे माता-पिता। एक उनका बेटा है जिसे अपने पिता की धन-दौलत से कोई मतलब ही नहीं और एक हम हैं कि अपने माता-पिता के प्यार को भी तरसते हैं। हे प्रभु ! तेरे खेल निराले।
मेरे इस विश्वास का एक कारण यह भी है, कि जब मैंने दामोदर भैया से एक बार रिक्वेस्ट की थी कि, हमें कोई सरकारी नौकरी वौकरी लगाव दें ताकि हम ज़िन्दगी भर नाम लेते रहें; तो वे हंस कर बोले, "तुम कहाँ इस नौकरी चाकरी के चक्कर में पड़ते हो। राजपूत हो राजपूत की तरह सोचो, यह सब नौकरी चाकरी आप लोगों का काम नहीं है। हम तो तुम्हारे लिए बहुत कुछ सोचकर रखे हैं। तुम्हें तो राज करना है, नौकरी नहीं।" फिर पुजारी जी से कहा, "समझाइये महाराज इन्हें।"
महाराज ने कहा, "समझ जाइये; जब भैया जी कह रहे हैं तो… अरे, कुछ सोच रखा है भैया जी ने आप के लिये, तभी न कहते हैं। आप बस इसी तरह धर्म कर्म के काम में जुटे रहिये। आपकी किस्मत में राजयोग है, राजयोग।"
बस तभी से हम समझ गये।
यूँ भी भैया जी और पंडित जी ने कई बार संकेत कर चुके हैं कि वे मुझे बहुत मानते हैं। अब मैं और भी अधिक निश्चिंत हूं, अपने भविष्य को लेकर; बस एक वह मिल जाये तो मस्त लाईफ बन जाये। वो, हांsss, जब भी उसका ध्यान आता है; पता नहीं मन में कैसी तो भी खलबली मच जाती है।
कई बार लड़कों ने कहा भी, “भैया, कहो तो उठा लाएं?” एक दिन, एक खींच कर लगाया था बोलने वाले को; साले, अपनी भाभी के बारे में ऐसा बोलते हैं? बस उस दिन से वह सारे लड़कों की भाभी हो गई।
उसके हर कदम की, हर पल की खबर मिलती रहती। ज्यादा कुछ तो नहीं, लेकिन एक दो बार किसी लड़के के साथ देखे जाने की उड़ती खबरें आई हैं। ठीक है; देख लेंगे। वैसे भी आज-कल ज़्यादा बिज़ी हो गए हैं न ! क्या है कि भैया जी ने एक ठो ऑफिस बनाकर बैठा दिया है। अब इंचार्ज हैं उस ऑफिस के। एक ठो अपना मारुती जिप्सी दे रखे हैं और आठ दस लड़के। खाना पीना और पेट्रोल का इंतेज़ाम कर दिए हैं और बस, गौरक्षा का काम सौँप दिए हैं। बस शहर में घुम फिरकर नज़र रखनी है, कोनो गौमाता की हत्या तो नहीं हो रही है। कोई अपमान तो नहीं कर रहा है; गौमाता का। कहीं कोई ट्रक में अगर मवेशी भरकर जा रहे हों तो उसका पीछा करके और पुलिस पर दबाव डालकर उसे गिरफ्तार करवाना। क्या है कि भैया जी बताये हैं, इससे धर्म के प्रति जागरूकता बनी रहती है जनता में।
कल शाम भी इसी भागमभाग में बीच शहर चौक से गुज़रते हुए अचानक लड़कों ने आवाज़ दी, "भैया ! भाभी... भाभी।" वह नज़र आई। यह यहाँ क्या कर रही होगी, इस समय ? आज शनिवार है, और शायद वह जल्दी घर आ गई होगी। लेकिन यहाँ क्या कर रही होगी? लेकिन इस सबके लिए समय कहाँ था हमारे पास। मोबाईल लगातार बज रहा था; मवेशियों से लदा एक ट्रक ट्रैक हुआ है, शहर के बाहर। सन्देह है कि उसमें गायें हों, या भैसें हों; जिन्हें पड़ोसी राज्य के कसाईखाने लेजाया जा रहा हो। हमने अपने राज्य में तो इनका वध रोक ही रखा है। तो मवेशियों के व्यापारी इन्हें बाहर ले जाकर ऊंचे दामों में बेचने लगे हैं। जिन्हें रोकना हमारा प्रथम कर्तव्य है। पुलिस को भी बुला लिया गया था। अगर हम नहीं पहुंचे तो हो सकता है पुलिस उन्हें जाने दे। छोड़ दे।
हमारे पास समय कम था इसलिये तब ध्यान नहीं दे सका।
शहर के बाहर कड़ी मेहनत और दौड़ धूप के बाद आखिर वह ट्रक हमारे शिकंजे में आ ही गया। ट्रक चालक भाग नहीं पाया इसलिए लाठियों और ठोकरों से उसकी जमकर ठुकाई हो गई। वह गिड़गिड़ाता रहा लेकिन इस काम में ठुकाई सबसे ज़रूरी काम है; वरना इनके मन में हमारी दहशत नहीं रहेगी। लेकिन उसका दूसरा साथी भाग गया था और ड्राइवर के पास ज़्यादा पैसे नहीं मिले; वह गिड़गिड़ाता रहा छूटने के लिए लेकिन सारे पैसे तो उसके साथी के पास थे कई बार फोन करने के बाद भी वह नहीं आया, न ट्रक का मालिक पहुंचा।
आज का दिन ही खराब था इसलिए कोई कमाई नहीं हो पाई; मजबूरन उसे और ट्रक को पुलिस के हवाले करना पड़ा। यह अलग बात थी कि, उस में गायें नहीं थीं। सिर्फ भैंसें थी और उसकी खरीदी की रसीदें भी थी; लेकिन हमें इससे क्या मतलब दिखाता रहे कोर्ट में। हमारी तो कमाई मारी गयी न।
वापस ऑफिस पहुंचे तो मूड कुछ उखड़ा-उखड़ा सा था। रह-रह कर उसका चेहरा नज़र के सामने घूम जाता। वह अकेली क्या कर रही होगी, मार्केट में ? आज शनिवार है, पहले तो वह शनिवार को घर चली जाती जो अगले ही शहर में है। बस, कोई पैंतीस से चालीस किलोमीटर पर। संडे, परिवार के साथ बिताकर सोमवार को ऑफिस टाइम तक वापस पहुंच जाती।
ऑफिस पहुंचकर भी दिमाग ठिकाने नहीं था। लड़कों ने पूछा- "क्या बात है, भैया?"
मैं कुछ कह नहीं पाया। क्या कहता? कहने को भी कुछ था नहीं। फिर भी वे अनुमान लगा बैठे थे; साले, डेढ़ होशियार जो ठहरे।
"भैया,क्या बात है? याद आ रही है क्या?"
"यार, मैं ये सोच रहा हूं, आज शनिवार है तो वो घर क्यों नहीं गई; और बाजार में अकेली क्या कर रही थी?"
"अकेली कहाँ भैया? वो लड़का था न साथ में। आप तो जानते नहीं उसे, हम तो पहचानते हैं न।" एक बोला।
"भैया, आप ने तो घर की तरफ जाना बंद कर दिया इसलिए आप को पता नहीं है। आजकल किसी किसी शनिवार ही वह घर जाती है; और वह लड़का हर सन्डे आ जाता है। कभी कभी तो कार लेकर आता है। दोनों खूब घूमते फिरते हैं; खूब मौज मस्ती करते हैं। कभी-कभी तो शनिवार को ही आ जाता है और रात को रुकता भी है।"
रात को रुकता भी है? खुले आम मौज मस्ती चल रही है और वो भी हमारी कालोनी में? कोई रोकता नहीं, टोकता नहीं? मेरा पारा सातवें आसमान पर था। खुले आम अय्याशी? कोई रोकने वाला नहीं? सब बुजदिल हो गए हैं। चूड़ियां पहन ली है क्या? ऐसे में क्या होगा हमारी संस्कृति का? कुछ तो करना ही होगा...
चुप बैठने से काम नहीं चलेगा। कालोनी वालों की तरह, अपने घर वालों की तरह, सब लोगों की तरह हम भी बुजदिल बन गए तो इस देश की महान संस्कृति का क्या होगा?
"चलो रे, गाड़ी निकालो..." मैं चिल्लाया, "आज ही समझाना होगा।"
हम लोग अपनी जिप्सी में सवार तेजी से मेरी कालोनी की ओर भागे जा रहे थे . . .
वह कालोनी के बाहर ही मिल गया। उसे देखते ही मन में एक हीन भावना सी भर गई थी। अच्छा तो उसने इस लिए पसन्द किया था उसे? गोरा रंग, ऊंचा कद और गठीला शरीर। ज़रूर किसी महंगे जिम में जाता होगा, शरीर बनाने। किसी बड़े घर का लगता है। देखने भी फिल्मी हीरो से कम नहीं लगता है। लेकिन उम्र में बहुत कम था। कालेज का लड़का लगता था। तो ये है उसकी पसंद? अपने से छोटा लड़का? स्साली, कमाती है, अच्छी पोस्ट है तो कुछ भी। इन लोगों का ऐसा ही है। वैसे भी उस लड़के के सामने मैं तो कुछ भी नहीं था। एक बार दिल में आया बिना कुछ कहे लौट जाऊं; लेकिन ऐसे कैसे लौट सकता था। उसे रोक ही लिया।
"सुनो बेटा," मैंने उसे झिंझोड़ते हुए कहा, "अपना भला चाहते हो तो फिर कभी इस कालोनी की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखना। अब अपना बोरिया बिस्तर बांधकर नौ दो ग्यारह हो जाओ।"
"क्यों?" वह बिना घबराये बोला, "तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले?"
"क्या है बे, बोलना भी आता है क्या? ज़्यादा चूं चपड़ मत कर; जितना बोलते हैं मान और चुप चाप निकल ले।"
“साले की हिम्मत तो देखो। कैसे आँखों में आंखें डालकर बात कर रहा था। भैया, यह कोई बड़ी पहुंच वाला लगता है।” एक लड़का ज़रा चिंतित हुआ।
“देख लो भैया, कहीं लेने के देने न पड़ जाएँ।” दूसरे ने कहा।
“अरे अब बोल दिया सो बोल दिया।” मैंने उनका हौसला बढ़ाते हुये कहा, “जो होगा देखा जायेगा। दामोदर भैया के आगे किसका पहुंच है। क्या प्रधान मंत्री तक पहुंच होगा स्साले का?”
इस बात पर सब हँस दिये और हमारे बीच का तनाव कम हो गया।
आज तो इतना ही समझाकर छोड़ दिया। इतना काफी रहता है इन रईसजादों के लिए। देखना पलटकर नहीं देखेगा इस तरफ।
इसके बाद मैं घर चला गया। बहुत दिनों से गया नहीं था न। मां से मिलना भी था। जानता हूँ, पिता और भाई तो मुझे बर्दाश्त नहीं करेंगे। यहां भी कौन चिंता करता है। वो तो माँ है इसलिए जाना पड़ता है। वरना अपना क्या? लेकिन मां पीछे पड़ जाती है; पिता है, प्रणाम कर। माफी मांग, बात कर। उन्हें तेरी बहुत चिंता है, वगैरह वगैरह!
लेकिन मैं मां की इन सब बातों में आने वाला नहीं था। मेरी चिंता तो कुछ और थी।
"सुना है आजकल कालोनी का माहौल पहले जैसा नहीं रहा?" मैन पूछा।
"क्या अंटशंट बकता रहता है?" मां ने खाना परोसते हुए कहा, "ऐसा क्या हो गया है? हाँ, रौनक उड़ गई है यहाँ की; तू जो नहीं है।"
"नहीं, सुना है बाहर के लोगों का आना जाना ज़्यादा बढ़ गया है?" मैन टटोलने की कोशिश की।
"नहीं बेटा, बाहर का कौन आएगा? और क्यों आएगा? हां, अगर किसी को कोई काम हो तो आएगा जाएगा ही . . . लेकिन तुझे इससे क्या करना? इनसान को सिर्फ अपने काम से काम रखना चाहिए।"
"यही तो बात है। यही तो बात आप लोगों की मुझे पसंद नहीं आती। कुछ भी हो जाये हमारे देश हमारी संस्कृति पर कितना भी बड़ा संकट आ जाये, मैं चुप रहूँ ! अपने काम से काम रखूं !! आप लोगों की इसी सोच ने सैकड़ों बरस हमें गुलाम बना रखा था।"
"लेकिन ऐसी भी क्या आफत आ पड़ी है? बाहर का तो कोई है भी नहीं यहाँ पर। हां, बस वो एक लड़की उपासना है; लेकिन वह तो यहां सरकारी बैंक में नौकरी करती है और अपने काम से काम रखती है। फिर कोई अजनबी भी नहीं अपनी जात बिरादरी की लड़की है।"
"सुना है, बहुत उड़ रही है आजकल।" मैंने बीच में ही टोकते हुए पूछा।
"उड़ती होगी। पंख होंगे तो क्यों नहीं उड़ेगी। अपने पैरों पर खड़ी जो है।" माँ ने कहा । मुझे लगा मां मुझे ताना मार रही है। दिल यकायक खट्टा हो गया।
वह आगे बोलती रही, "वैसे लड़की है बहुत अच्छी। मुझे तो माँ की तरह मानती है। बल्कि मैं तो चाहती हूं, वह बहु बनकर आ जाये इस घर में तो तेरी किस्मत संवर जाए। यूँ मारा मारा फिरता है। मैंने उसकी मां से बात भी छेड़ रखी है।"
"मां, तुम्हें तो पता है न, मेरे पास नौकरी नहीं. . ." मैं बोला।
"तो क्या हुआ, उसके पास तो है।" माँ ने कहा, "फिर मैंने यह थोड़ी कहा कि तेरे पास जॉब नहीं है; बल्कि मैं तो यही सबसे कहती हूं कि तू किसी बड़ी कम्पनी में इतनी बड़ी जिम्मेदारी सम्हाल रहा है कि घर आने का मौका ही नहीं मिलता।"
क्या कहूं, माँ तो माँ होती है न। लेकिन यह लड़की बड़ी चालाक लगती है; दुनियाभर की नज़र में कैसी सती सावित्री बनी हुई है। एक बरगी तो मन में आया कि इस लड़की का ही किस्सा तमाम कर दूं; लेकिन कोई बात है जो मुझे रोकती है। जैसे कोई आशा है, या जीवन की कोई अभिलाषा या कोई सपना ही है जो उससे ही जुड़ा हुआ है और एक अनजान सी आशा है जो अब तक कायम है।
अगले हफ्ते वह लड़का नहीं आया। लगता है डर गया। कम से कम मेरे लड़कों का तो यही ख्याल था। मैं फिर भी चिंतित था। अब तो जैसे यह मसला मेरी ज़िंदगी का सबसे महत्वपूर्ण मकसद बन गया था। उठते बैठते, सोते जागते, बस यही सब दिमाग में घूमता रहता। मेरे जासूस बिल्कुल मुस्तैदी से उसकी निगरानी में लगे हुए थे। अगले सप्ताह वह अपने घर गई थी शायद। मन को सुकून था कि उसका कार्यक्रम फिर पटरी पर लौट आया। लेकिन सोमवार को जब वह वापस आई; पता चला वही लड़का उसे कार से छोड़ गया था।
"भाभी तो हाथ से गई. . . ।" लड़कों ने कहा।
"क्यों न भाभी के घर जाकर उनके घर वालों को बताएं? वे रोकेंगे; या कम से कम उनकी मदर ही आकर अपनी बेटी के पास रहेगी। क्या कहते हो चलें? यहां से 35 किलोमीटर तो है। गाड़ी निकालते हैं।" एक ने सुझाव दिया; लेकिन मुझे पसंद नहीं आया। इस तरह तो अपनी पोल खुलने का भी डर है।
आज का दिमाग ही उखड़ा हुआ था। हमारा साथी महादेव, कल तक जो हमारे सारे काम में साथ रहा था, यकायक बदल गया।
“नहीं यार, मैं यह सब काम नहीं करूंगा।” वह बोला।
हम लोग शहर के बाहर सड़क के किनारे एक सुनसान जगह पर जिप्सी रोक कर पैग लगाते हुये, प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लगा रहे थे। यहाँ सड़क के दोनों ओर, दूर-दूर तक खेत ही खेत नज़र आ रहे थे। खेतों में ट्रैक्टर चल रहे थे। खेतों के बीच-बीच में इक्का दुक्का पेड़ थे और खेत की पृष्ठभूमि में पेड़ों की कतारें और उसके पीछे पहाड़ों की छाया सी उभर रही थी।
उसकी बात ने एक दम से मूड ऑफ कर दिया था। फिर भी मैंने बात सम्हालने की कोशिश की।
“क्यों बे? क्यों नहीं करेगा?” मैंने पूछा, “कोई प्रॉब्लेम है? कोई कुछ कहता है तो बता, स्साले की खोपड़ी फोड़ देंगे।”
“किसकी किसकी खोपड़ी फोड़ोगे? और क्यों फोड़ोगे?” महादेव अचानक बिफर गया, “सब हमारे घर वाले हैं। हमारा बुढ़ऊ, हमारी बुढ़िया, बहन, जीजा...”
“यही तो... साला यही तो प्रोब्लेम है हमारे देश की। हमारे घर वाले ही हमें नहीं समझते हैं। वो ही हमें बुरा-भला कहते हैं।” मैंने हताशा से कहा।
“और साला कौन बोलेगा। किसको हमारी चिंता है? किसी और को हमसे क्या लेना देना?” महादेव ने कहा।
“तो इसमें हिम्मत हारने वाली कौन-सी बात है? क्या हम संघर्ष नहीं कर रहे अपने घर वालों से? तुम्हें क्या पता साले, हमारा भाई, हमारा बाप, हमारी मां, ये सब साले हमें बेकार समझते हैं। हमें कोई नहीं चाहता। हमारे दिल पे क्या बीतती है पता है?...”
पता नहीं यह दारू का असर था या भावनाओं का; मैं अपना प्रलाप रोक न सका।
मुझे रुलाने वाला खुद मुझे हक्का बक्का देख रहा था। मेरा मन बादलों की तरह उमड़ घुमड़ कर आ रहा था और आंसू सावन भादों की तरह बरस रहे थे।
“करना पड़ता है, सब कुछ सहन करना पड़ता है। जब आप कोई महान कार्य करते हो तब तुम्हारे अपने भी तुम्हारे दुश्मन बन जाते हैं...”
वह चुपचाप मेरे चेहरे की ओर देखने लगा। शायद उसे लगा होगा कि मुझे चढ़ गई है।
“हमें भी किसी की परवाह नहीं... मैंने बोतल सहित हाथ को हवा में लहराते हुये कहा।”
इसके बाद हम गाड़ी स्टार्ट करके वापस चले आये। वह रास्ते भर चुप रहा। अपने घर के थोड़ा पहले ही उसने मुँह खोला, “मैं दमण जा रहा हूँ।”
“क्यों?”
“वहीं रहूंगा।”
“अपनी बहन और जीजा के साथ? साले तुम्हें शरम है कि नहीं?”
“मेरे जीजा वहाँ मुझे काम दिला देंगे।”
“तो अब मेहनत मजूरी करोगे?” मैं तो साफ साफ उसे बहकाने की कोशिश कर रहा था, “साले! इतनी मौज मस्ती की ज़िंदगी तुम्हें पसंद नहीं?”
“यह कोई मौज मस्ती है? गुंडे बदमाशों की तरह मार-पीट करना...”
“स्साले! क्या कह रहे हो? सोच समझ कर बोलो। धर्म की रक्षा करना, देशभक्ति के काम तुम्हें गुंडा गर्दी लगते हैं?”
“लोग तो हमें यही समझते हैं न?”
मैंने गाड़ी रोक दी।
“तुम यहीं उतर जाओ साले,” मैंने उसे गाड़ी से उतार दिया।
“तुम लोग साले मेहनत मजदूरी के ही लायक हो...”
मैं जानता हूँ ये छोटे लोग साले, वीरोचित कार्यों के लिये बने ही नहीं हैं।
वह उतर गया।
“ये नेता लोग हमारा इस्तेमाल कर रहे हैं।” वह डरते डरते बोला।
“तुम जाओ बे! आज से तुम हमारे दोस्त नहीं।”
वह थोड़ी देर कुछ सोचता रहा फिर बोला, “मेरे जीजा जी बता रहे थे, दामोदर भैया का खुद ही काफ लेदर एक्स्पोर्ट का धंधा है...”
“हाँ, वो तो बोलेंगे ही। कम्यूनिस्ट हैं न जीजा जी?” मैंने कहा, “और तुम साले बुड़बक मान भी गये?...”
महादेव चला गया। बताइये ये भी कोई बात हुई? इतने दिनो से हमारे साथ काम करके भी दामोदर भैया को नहीं पहचाना। उन्हीं का नमक खाया और आज उन्हीं पर उंगली उठाता है। स्साला नमक हराम! बताइये स्साला, इतने बड़े गौभक्त को गौ माता के चमड़े का एक्स्पर्ट बताता है...
मैं ऑफिस चला आया लेकिन शराब के हल्के हल्के नशे के साथ महादेव की नमक हरामी पर गुस्सा बढ़ता जाता था। बार बार वही बात याद आती, “…दामोदर भैया का खुद ही काफ लेदर एक्स्पोर्ट का धंधा है...”
इस बात से मेरे दिल में भी खलबली मचने लगी। मन कुछ संदेह भी उठे। कुछ अनसुलझे रहस्य भी याद आये... लेकिन भगवान पर कोई संदेह करता है??? वे हमारे भगवान हैं। बताईये स्साला हमें भड़काने की कोशिश करता है? अरे, हम तो भक्त हैं उनके, हम पूजा करते हैं दामोदर भैया की। हमें भड़काता है... यह कहीं कम्युनिट लोग का जासूस तो नहीं है...
बैठे बैठे हम यही सोच रहे थे, कि हमने गलत किया जो गद्दार को जिंदा छोड़ दिया। यह पता नहीं किस किस को भड़कायेगा? जान से ही मार देते। दामोदर भैया सब सम्हाल लेते। अरे, ये पुलिस, ये कानून कोई दामोदर भैया से बड़ा है क्या...?
तभी एक लड़का भागा भागा आया। बोला, “भैया, वो फिर आया है।”
“अबे, कौन फिर आया है? तुम्हारा बाप? …” मन में एक बार खयाल आया कि महादेव तो नहीं वापस आ गया।
लड़का थोड़ा झेंपा, फिर थोड़ा हकला कर बोला, “भैया वो भाभी का आशिक...?”
एक झन्नाटेदार झापड़ पड़ा साले के मुंह पर, “स्साले भाभी के बारे में इज्जत से बात किया करो...”
“भैया वही लड़का...” वह गाल सहलाते हुये कहने लगा। लेकिन तब तक मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था।
“चलो रे! गाड़ी निकालो। हथियार डालो गाड़ी में। आज साले को देख ही लेते हैं...”
पल भर में तैयारी हो गई और हमारी जिप्सी पहुंच गई कालोनी के सामने।
वह कालोनी के सामने ही मिल गया। हम लोग तुरंत गाड़ी से कूदे और चारों तरफ से उसपर हमला बोल दिया। हॉकी, रॉड, लाठी...
यह हमारी स्टाईल का हमला था। उसको सम्हलने का मौका ही नहीं मिला। अगले ही पल वह मुंह से खून उगलता हुआ सड़क पर गिर पड़ा। पलभर में उसका शरीर लहुलुहान हो गया था। पता नहीं ज़िंदा या मुर्दा...
यकायक वह भागती हुई आई और उसके शरीर पर औंधी गिर पड़ी। उसे चोट न आ जाये इस लिये हमें पीछे हटना पड़ा। अचानक मेरा सिर चकरा गया...
वहां एक भीड़ इकट्ठा हो गई थी। उस भीड़ में कितने ही लोग थे जो मुझे बचपन से जानते थे। जो मेरे अपने थे। जो अविश्वास, हैरानी और घृणा के मिले-जुले भाव से मुझे घूर रहे थे।
मैंने देखा एक एक कर मेरे दोस्त खिसक गये और मैं अपनी हैरानी और परेशानियों के साथ खड़ा रह गया हूँ, मुझे घूरती हुई निगाहों के बीच; बिल्कुल अकेला...
और जब पुलिस मुझे लेकर जा रही थी, गाड़ी की खिड़की से मेरी नज़र वहीं लगी हुई थी। वह अब भी उसकी लाश से लिपट लिपट कर चीख मार मार कर रोती जा रही थी। कभी उसके सिर को अपने सीने से लगाती कभी गोद में लेती कभी उसके सिर को चूमती...
“छिनाल!!...”
एक मोटी सी गाली मेरे मुंह से निकली और नफरत से ढेर सारा थूक...
अगर अभी वह यहाँ होती तो मैं उसके मुंह पर ही थूक देता; लेकिन गाड़ी के फर्श पर थूक दिया और पुलिस का एक डंडा खाकर तिलमिला उठा। तिलमिलाया हुआ तो मैं इस बात पर भी था कि अचानक मेरे जाँनिसार मेरे दोस्त कहाँ गायब हो गये थे। यहाँ मैं अकेला था। बिल्कुल अकेला...
मेरा भाई थाने पहुंचकर वहीं मुझपर चिल्लाने लगा, “तुझे पहले ही कहा था न...”
माँ रोते हुये बोली, “हमने तेरे लिये क्या-क्या सोचा था... तूने हमें कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा...”
पिताजी? पिताजी कुछ नहीं बोले। बस सदमा खाकर बिस्तर पर गिर पड़े और खामोश हो गये...
लेकिन मेरे दोस्त यार तुरंत ही थाने पहुंचे। एक वकील और दामोदर भैया के साथ। मैं जानता था, वे मेरे लिये कुछ करेंगे कुछ न कुछ तो करेंगे ही। वे घटनास्थल से भागकर सीधा दामोदर भैया के पास पहुंचे। दामोदर भैया ने तुरंत अपने वकील को बुलाया।
“ठीक है, तुम्हारा तो बाल भी बांका नहीं होगा। लेकिन जैसा मैं कहूंगा वैसा ही करोगे तो...” पूरी बात सुनकर, वकील साहब ने कहा।
और उन लोगों ने भी ठीक वैसा ही किया जैसा वकील साहब ने सिखाया था। उन लोगों ने वकील और दामोदर भैया की मौजूदगी में, पुलिस में अपना बयान दर्ज कराया कि ‘मेरी उस लड़के से पहले भी कहा-सुनी हो चुकी थी, उस लड़के की बहन को लेकर... और आज मैं उनके सामने ही गुस्से में हथियार लेकर उसे जान से मारने के इरादे से निकला तो वे बीच बचाव करने की गरज से वहाँ पहुंचे। लेकिन मैंने किसी की एक न सुनी और उसे पीट-पीट कर मार ही डाला...’
इस बयान के साथ ही वे मेरे खिलाफ पुलिस की तरफ से चश्मदीद गवाह बन गये।
मैं तिलमिला उठा था। मैं लॉक-अप में से ही चिल्लाने लगा। मैं चाहता था, वे एक बार मेरे हाथ पड़ जायें तो उन्हें गद्दारी का मज़ा चखा दूँ। मैं लगातार लॉक-अप की लोहे की सलाखों को तोड़ने के लिये पूरी ताकत लगाता कभी सिर पटकता और कभी हाथ पैर...
बस, इससे आगे मुझे पता नहीं, मैं यहाँ कब और कैसे पहुंचा? मुझे पता नहीं। पता है तो बस इतना कि मैंने यहाँ अपने आप को एक पलंग पर बंधा हुआ पाया। यहाँ वे लोग मुझे कभी बिजली के शॉक देते हैं, कभी नींद के इंजेक्शन लगाते हैं। वे मुझे इस पागलखाने का सबसे खतरनाक पागल कहते हैं। वे चाहते हैं, मैं शांत रहूं। लेकिन कैसे? वे चाहते हैं मैं गहरी नींद में सो जाऊँ...
सच कहूँ तो मैं भी गहरी नींद में सो जाना चाहता हूँ... लेकिन कैसे?
वे गद्दार, मुझे सोने नहीं देते। दिन का उजाला हो या रात का अंधेरा, जब भी मैं अकेला होता हूँ, वे मेरे साथी, मेरे गद्दार, दामोदर भैया और वकील के साथ मेरे सामने आ जाते हैं। वे इतने चुपके से आते हैं कि उन्हें मेरे सिवा कोई देख नहीं पाता। इस लिये कोई मेरा विश्वास नहीं करता। यहाँ तक कि डॉक्टर भी मुझपर विश्वास नहीं करते और वे, डॉक्टर और बाकी लोग मुझे और शॉक देते हैं। लेकिन कोई मुझपर विश्वास करे या न करे मैं जानता हूँ, मेरे वे गद्दार दोस्त, वकील और दामोदर भैया, मुझे चिढ़ाने के लिये आ जाते हैं। मैं उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाता क्योंकि मैं अपने पलंग पर बंधा होता हूँ। तब वे मुझपर हँसते हैं। मेरी मजबूरी का मज़ाक उड़ाते हैं...
लेकिन कभी-कभी वह भी आती है। वह जिसके प्यार में बदनाम, मैं यहाँ तक आ पहुंचा...
बिल्कुल शांत और धैर्य के साथ वह आती है। उसे कोई देख नहीं पाता वह इतनी खामोशी के साथ आती है। वह मुझसे कहती है, “मैं तो तुम्हें अच्छा इंसान समझती थी। मैं तो तुमसे प्यार करती थी। मेरी माँ और तुम्हारी माँ तो हमारी शादी कराना चाहती थीं... फिर क्यों? क्यों तुमने मेरे छोटे भाई को मार डाला? आई हेट यू...”
और वह जाने लगती है। मैं उसे रोकना चाहता हूँ। मैं उसे चीख-चीख कर कहता हूँ, “नहीं, मैंने तुम्हारे भाई को नहीं मारा। तुम्हें कोई गलतफहमी हुई है...” लेकिन वह रुकती नहीं और मेंटल-हॉस्पिटल वाले भागकर आते हैं और मुझे नींद का इंजेक्शन लगा देते हैं।
मैं उसे देखता हूँ, वह जा रही है, मैं उसे पुकारना चाहता हूँ... लेकिन मेरी आंखें बोझिल हो रही है... मेरी आवाज़ घुटती जा रही है...
**
कहानी- मिर्ज़ा हफीज़ बेग.
c/o शिवशंकर किराना स्टोर,
श्रीराम मार्केट, सिरसा रोड, सुपेला,
भिलाई.
जिला-दुर्ग. छत्तीसगढ़.
पिन-490023.
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