" एक विराट घास : बांस " - डॉ. दीपक कोहली - आप सभी ने खेतों में लंबे - लंबे बांस के दंड अवश्य ही देखे होंगे। देखने में एक पेड़ की ...
"एक विराट घास : बांस "
-डॉ. दीपक कोहली-
आप सभी ने खेतों में लंबे - लंबे बांस के दंड अवश्य ही देखे होंगे। देखने में एक पेड़ की तरह लगने वाले बांस दरअसल वैज्ञानिक रूप से "घास " की श्रेणी में आते हैं। बांस Gramineae या Poaceae कुल की एक अत्यंत उपयोगी घास है, जो भारत के प्रत्येक क्षेत्र में पाई जाती है। बाँस एक सामूहिक शब्द है, जिसमें अनेक जातियाँ सम्मिलित हैं। मुख्य जातियाँ, बैंब्यूसा (Bambusa), डेंड्रोकेलैमस (नर बाँस) (Dendrocalamus) आदि हैं। बैंब्यूसा शब्द ,बाँस का वैज्ञानिक / लैटिन नाम है।
बाँस का जीवन 1 से 50 वर्ष तक होता है, जब तक कि फूल नहीं खिलते। फूल बहुत ही छोटे, रंगहीन, बिना डंठल के, छोटे छोटे गुच्छों में पाए जाते हैं। सबसे पहले एक फूल में तीन चार, छोटे, सूखे तुष (glume) पाए जाते हैं। इनके बाद नाव के आकार का अंतपुष्पकवच (palea) होता है। छह पुंकेसर (stamens) होते हैं। अंडाशय (ovary) के ऊपरी भाग पर बहुत छोटे छोटे बाल होते हैं। इसमें एक ही दाना बनता है। साधारणत: बाँस तभी फूलता है जब सूखे के कारण खेती मारी जाती है और दुर्भिक्ष पड़ता है। शुष्क एवं गरम हवा के कारण पत्तियों के स्थान पर कलियाँ खिलती हैं। फूल खिलने पर पत्तियाँ झड़ जाती हैं। बहुत से बाँस एक वर्ष में फूलते हैं। ऐसे कुछ बाँस नीलगिरि की पहाड़ियों पर मिलते हैं। भारत में अधिकांश बाँस सामुहिक तथा सामयिक रूप से फूलते हैं। इसके बाद ही बाँस का जीवन समाप्त हो जाता है ।इस धरती पर सबसे तेज गति से बढ़ने वाला पौधा “बांस” है घंटे में 121 सेंटीमीटर तक लंबी हो जाती हैं। बांस के सौ ग्राम बीज में 60.36 ग्राम कार्बोहाइड्रेट और 265.6 किलो कैलोरी ऊर्जा होती है तथा विश्व में बांस की लगभग 1 हजार से ज्यादा प्रजातियां पायी जाती हैं।
भारत में बांस की 136 प्रजातियां पायी जाती हैं 58 प्रजातियां केवल पूर्वोत्तर में मिलती हैं। जो बांस 12 से 120 साल तक जीवित रह सकते हैं जब तक इनमें फूल न आ जाए लेकिन इनकी औसत आयु 50 से 60 वर्ष ही होती है। यदि 18 मीटर लंबे बांस को काट दिया जाए तो उसे फिर से 18 मीटर की लंबाई प्राप्त करने में 30 से 60 दिन से ज्यादा लग जाएंगे जबकि आप यदि बांस का नया पौधा लगाते वह मात्र 59 दिन में 18 मीटर लंबा हो सकता है।
बाँस से जैव उत्पादन, इसकी प्रजाति, क्षेत्र, वातावरण एवं जलवायु पर निर्भर करता है। इससे जैव उत्पादन 50 से 100 टन प्रति हेक्टेयर हो सकता है। जिसमें 60-70 प्रतिशत कलम, 10-15 प्रतिशत टहनी एवं 15 से 20 प्रतिशत होते है। बाँस का एक हेक्टेयर रोपित क्षेत्र प्रति वर्ष वातावरण से 17 टन कार्बन अवशोषित कर सकता है।
बाँस के तीव्र गति से बढने के कारण, एक वर्ष में उचित फसल सुविधा के द्वारा 30 टन बाँस का उत्पादन प्रति हेक्टेयर किया जा सकता है। एक 18 मीटर लम्बे पेड़ को काटने पर उसका पुर्ननिर्माण होने में 30 से 60 वर्ष लग जाते है। इसकी तुलना में 18 मीटर के बाँस को 59 दिनों में वापस उगाया जा सकता है। बाँस पर साधारणतया 12 से 120 वर्षों में फूल लगते है, और बीजों की प्राप्ति होती है। फूलों एवं बीज हेतु लगने वाला समय बाँस की प्रजाति पर निर्भर करता है। इसका बीज साधारणतया घास के बीज के समान होता है जिसका उपयोग स्थानीय आबादी द्वारा खाद्य पदार्थों में भी किया जाता है।
एक अनुमान के अनुसार विश्व अर्थव्यवस्था में बाँस का योगदान 12 अरब अमेरिकी डॉॅलर से अधिक है जिसमें विकासशील देश अग्रणी है। बाँस के अभिनव उत्पादों की लगातार हो रही खोज के कारण इसकी आर्थिक क्षमता बहुत अधिक है। बाँस की प्राकृतिक सुदंरता के कारण इसकी माँग सौदर्य एवं डिजाइन की दुनिया में तेजी से बढ़ रही है। इसके अतिरिक्त ऐसी कई नवीनतम् प्रोद्योगिकियों का विकास हुआ है जिससे लकड़ी के उपयोग को बाँस के द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सके।
भारत में बाँस के जंगलों का कुल क्षेत्रफल 11.4 मिलियन हेक्टेयर है जो कुल जंगलों के क्षेत्रफल का 13 प्रतिशत है। अभी तक बाँस के लगभग 2000 विभिन्न उपयोगों की जानकारी है जिसमें संरचनाओं का निर्माण घरेलु उपयोग की वस्तुएँ, साज-सज्जा के सामान, ईंधन एवं हवा हेतु बफर क्षेत्र बनाना इत्यादि शामिल है। भारत में बाँस का अनुमानित वार्षिक उत्पादन 1.35 करोड़ टन है। देश का उत्तरपूर्वी क्षेत्र बाँस के उत्पादन में काफी समृद्ध है एवं देश के 65 प्रतिशत एवं विश्व के 20 प्रतिशत बाँस का उत्पादन करता है। चीन के बाद भारत बाँस की अनुवांशिक संसाधनों में 136 प्रजातियों के साथ दूसरे स्थान पर है जिसमें से 58 प्रजातियाँ उत्तरी पूर्वी भारत में पाई जाती है।
कागज बनाने के लिए बाँस उपयोगी साधन है, जिससे बहुत ही कम देखभाल के साथ-साथ बहुत अधिक मात्रा में कागज बनाया जा सकता है। इस क्रिया में बहुत सी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। फिर भी बाँस का कागज बनाना चीन एवं भारत का प्राचीन उद्योग है। चीन में बाँस के छोटे बड़े सभी भागों से कागज बनाया जाता है। इसके लिए पत्तियों को छाँटकर, तने को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर, पानी से भरे पोखरों में चूने के संग तीन चार माह सड़ाया जाता है, जिसके बाद उसे बड़ी बड़ी घूमती हुई ओखलियों में गूँधकर, साफ किया जाता है। इस लुग्दी को आवश्यकतानुसार रसायनक डालकर सफेद या रंगीन बना लेते हैं और फिर गरम तवों पर दबाते तथा सुखाते हैं।
बाँस के उचित प्रसंस्करण हेतु कुशल, मजबूत एवं उचित मूल्य के उपकरणों की आवश्यकता है। जिससे उत्पादकता में बढत, कठिन श्रम में कमी एवं बाँसों की बर्बादी में कमी की जा सके। इन विकास कार्यो ने, विभिन्न क्षेत्रों जैसे बागबानी, पशुधन, मत्स्य पालन में, बाँस के उपयोग की संभावनाएँ बढ़ाई है। इसका उपयोग फसल वास्तुकला, भंडारण संरचनाओं, आवास, मत्स्य पालन संरचनाएं, मछली जाल, मछली बीजों का परिवहन इत्यादि में किया जा सकता है। बाँस की बनी वस्तुओं का ग्रामीण स्तर पर उत्पादन रोज़गार एवं अच्छे आय का माध्यम बन सकती है। बाँस का उपयोग करके कृषि कार्यों में उपयोग आने वाले उपकरणों का निर्माण भी किया जा सकता है। इस प्रकार कृषि उपकरणों में बाँस एक हरित अभियांत्रिकीय पदार्थ के रूप में अपनाया जा सकता है।
बांस की प्रजाति बैंब्यूसा अरन्डिनेसी में एक कठोर पदार्थ पाया जाता है जिसका रंग सफेद या हल्का नीला होता है। इसे तबासीर कहते हैं। इसको दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है इससे फेफड़े तथा पेट के रोग में राहत मिलती है।दवा के रुप में प्रयोग होने वाला वंशलोचन बांस की नई शाखाओँ में रस इकट्ठा होने से तैयार होता है। वंशलोचन का चूर्ण भी बनाया जाता है जिसको खाने से भूख बढ़ती है और ऊर्जा मिलती है।
बाँस की खपच्चियों को तरह तरह की चटाइयाँ, कुर्सी, टेबुल, चारपाई एवं अन्य वस्तुएँ बिनन के काम में लाया जाता है। मछली पकड़ने का काँटा, डलिया आदि बाँस से ही बनाए जाते हैं। मकान बनाने तथा पुल बाँधने के लिए यह अत्यंत उपयोगी है। इससे तरह तरह की वस्तुएँ बनाई जाती हैं, जैसे चम्मच, चाकू, चावल पकाने का बरतन। नागा लोगों में पूजा के अवसर पर इसी का बरतन काम में लाया जाता है। इससे खेती के औजार, ऊन तथा सूत कातने की तकली बनाई जाती है। छोटी छोटी तख्तियाँ पानी में बहाकर, उनसे मछली पकड़ने का काम लिया जाता है। बाँस से तीर, धनुष, भाले आदि लड़ाई के सामान तैयार किए जाते थे। पुराने समय में बाँस की काँटेदार झाड़ियों से किलों की रक्षा की जाती थी। पैनगिस नामक एक तेज धारवाली छोटी वस्तु से दुश्मनों के प्राण लिए जा सकते हैं। इससे तरह तरह के बाजे, जैसे बाँसुरी, वॉयलिन, नागा लोगों का ज्यूर्स हार्प एवं मलाया का ऑकलांग बनाया जाता है। एशिया में इसकी लकड़ी बहुत उपयोगी मानी जाती है और छोटी छोटी घरेलू वस्तुओं से लेकर मकान बनाने तक के काम आती है।
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लेखक परिचय
*नाम - डॉ दीपक कोहली
*जन्मतिथि - 17 जून, 1969
*जन्म स्थान- पिथौरागढ़ ( उत्तरांचल )
*प्रारंभिक जीवन तथा शिक्षा - हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट की शिक्षा जी.आई.सी. ,पिथौरागढ़ में हुई।
*स्नातक - राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़, कुमायूं विश्वविद्यालय, नैनीताल ।
*स्नातकोत्तर ( एम.एससी. वनस्पति विज्ञान)- गोल्ड मेडलिस्ट, बरेली कॉलेज, बरेली, रुहेलखंड विश्वविद्यालय ( उत्तर प्रदेश )
*पीएच.डी. - वनस्पति विज्ञान ( बीरबल साहनी पुरावनस्पति विज्ञान संस्थान, लखनऊ, उत्तर प्रदेश)
*संप्रति - उत्तर प्रदेश सचिवालय, लखनऊ में उप सचिव के पद पर कार्यरत।
*लेखन - विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लगभग 1000 से अधिक वैज्ञानिक लेख /शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं।
*विज्ञान वार्ताएं- आकाशवाणी, लखनऊ से प्रसारित विभिन्न कार्यक्रमों में 50 से अधिक विज्ञान वार्ताएं प्रसारित हो चुकी हैं।
*पुरस्कार-
1.केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद नई दिल्ली द्वारा आयोजित 15वें अखिल भारतीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार, 1994
2. विज्ञान परिषद प्रयाग, इलाहाबाद द्वारा उत्कृष्ट विज्ञान लेख का "डॉ .गोरखनाथ विज्ञान पुरस्कार" क्रमशः वर्ष 1997 एवं 2005
3. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान ,उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा आयोजित "हिंदी निबंध लेख प्रतियोगिता पुरस्कार", क्रमशः वर्ष 2013, 2014 एवं 2015
4. पर्यावरण भारती, मुरादाबाद द्वारा एनवायरमेंटल जर्नलिज्म अवॉर्ड्, 2014
5. सचिवालय सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजन समिति, उत्तर प्रदेश ,लखनऊ द्वारा "सचिवालय दर्पण निष्ठा सम्मान", 2015
6. राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान, उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा "साहित्य गौरव पुरस्कार", 2016
7.राज्य कर्मचारी साहित्य संस्थान ,उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा "तुलसी साहित्य सम्मान", 2016
8. पर्यावरण भारती, मुरादाबाद द्वारा "सोशल एनवायरमेंट अवॉर्ड", 2017
9. पर्यावरण भारती ,मुरादाबाद द्वारा "पर्यावरण रत्न सम्मान", 2018
10. अखिल भारती काव्य कथा एवं कला परिषद, इंदौर ,मध्य प्रदेश द्वारा "विज्ञान साहित्य रत्न पुरस्कार",2018
11. पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ द्वारा वृक्षारोपण महाकुंभ में सराहनीय योगदान हेतु प्रशस्ति पत्र / पुरस्कार, 2019
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डॉ दीपक कोहली, पर्यावरण , वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग उत्तर प्रदेश शासन,5/104, विपुल खंड, गोमती नगर लखनऊ - 226010 (उत्तर प्रदेश )
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