गंगा- घाट युगों- युगों से यात्रा मेरी, तेरे साथ- साथ चलती रही। जन्मों -जन्मों से गुजर कर , तुम पर ही तो आ के थमती रही। जिंदगी के एक घ...
गंगा- घाट
युगों- युगों से यात्रा मेरी,
तेरे साथ- साथ चलती रही।
जन्मों -जन्मों से गुजर कर ,
तुम पर ही तो आ के थमती रही।
जिंदगी के एक घाट से,
मौत के,
दूसरे घाट तक का सफर।
युगों- युगों से ना बदला है।
ना बदलेगा ।
जन्मों- जन्मों का यह सफर।
देखता हूँ....... तेरे घाट पर,
जीवन का अनूठा ही फन।
जीवन के ,
एक घाट पर रंगे सपने है।
दूसरे घाट पर खुद को,
सफेद धुंध को ओढ़े हुए अपने हैं।
कितना भी ऊंचा उठ जाएं ,
खुद को धरा पर ही पाते हैं।
सब अपने -सब सपने ,
उस घाट पर रह जाते हैं।
फिर इस घाट से,
उस घाट का,
सफर कब खत्म हो गया ।
पिछले घाट पर,
छूटा सपनों का महल ।
अंतिम स्नान से ही धुल गया।
रिश्ते -नाते ,प्यार ,कड़वाहट,
यादें -बातें सब दिन ।
आग में हवन हो जाते हैं।
दूसरे घाट पर,
राख के ढेर के बादल उड़कर।
गंगा तेरी ही गोद में शरण पाते हैं।
तेरे ही प्रवाह में ,
प्रवाहित हो जाते हैं ।
फिर उसी से ,
नवजीवन का प्रवाह पाते हैं।
युगों- युगों से तुम्हारे घाट ,
जन्मों-जन्मों के ,
जीवन मरण की ,
अमृत कथा सुनाते हैं।
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वो..... नाचती थी ?
जीवन की,
हकीकत से ,
अनजान।
अपनी लय में,
अपनी ताल में,
हर बात से अनजान ।
वो...... नाचती थी ?
सोचती.......... थी?
नाचना ही..... जिंदगी है ।
गीत- लय- ताल ही बंदगी है।
नाचना........ ही जिंदगी है ।
नहीं ........ शायद
नाचना ही.... जिंदगी नहीं है ।
इंसान हालात से नाच सकता है।
मजबूरियों की ,
लंबी कतार पे नाच सकता है।
लेकिन ...........
अपने लिए ,
अपनी खुशी से नाचना।
जिंदगी में यहीं,
संभव -सा नहीं।
हकीकतें दिखी......
पाव थम गए।
फिर कभी सबकी आंखों से,
ओझल हो ......!!!
नाचती .....अपने लिए।
लेकिन जिम्मेदारियों से ,
वह भी बंध गए।
फिर गीत -लय -ताल,
न जाने कहां थम गए ।
पांव रुके,
और हाथ चल दिए।
शब्द नाचने लगे।
जीवन की,
हकीक़तों को मापने लगे।
उन रुके पांवों को ,
आज भी बुलाते हैं ।
तुम थमें हो ,
नाचना भूले तो नहीं ।
वो.....नाचती थी।
कभी हकीकतों से परे,
आज ......भी नाचती है ।
हकीकतों के तले ।।
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दिनकर
साहित्य
जगत के "अनल" कवि का,
अधैर्य जब चक्रवात पाता है ।
तब "दिनकर "भी "दिनकर" से,
दीप्तिमान हो जाता है ।
"ओज" कवि "रश्मिरथी "पर,
जब-जब हुंकार लगाता है ।
"आत्मा की आंखें "
कैसे ना खुलेगी ।
पत्थर भी पानी हो जाता है।
साहित्य
जगत के "अनल "कवि का।
"भारतीय संस्कृति के चार अध्याय"
रच कर ,
भारत का विश्व में नाम किया।
"कुरुक्षेत्र "रच कर ,
आधुनिक गीता का निर्माण किया ।
"शुद्ध कविता की खोज" में निकला ।
"उजली आग का स्वाद" चखा।
रेणुका ,उर्वशी ,रसवंती ,
यशोधरा का द्वंद गीत लिखा ।
सपना देख के
"सूरज के विवाह" का ।
"हारे को हरी नाम "भज कर,
अंतिम इतिहास रचा ।
कैसे भूल सकता ।
साहित्य दिनकर को ,
उसने जो इतिहास रचा।
"अर्धनारीश्वर "की सार्थकता को,
साहित्य वन में छोड़ चला ।
साहित्य भूला नहीं सकता ।
ज्ञान ,
पदमभूषण ,
भूदेव के अधिकारी को ।
सिमरिया की माटी को ,
उस "दिनकर "
काव्य अवतारी को।
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विश्व धरा दिवस विशेष
धरा की अनंत पीड़ा
विश्व धरा ने युगों -युगों से ,
अनंत पीड़ा सही।
जीवन दिया ,
पोषण किया।
पालक होकर भी,
पतित रही ।
अपनी ही संतानों का,
संताप हर ,
अनंत संताप सहती रही ।
विश्व धरा ने युगों -युगों से,
अनंत पीड़ा सही ।
स्वर्णनित उपजाऊ शक्ति देकर ,
भूख मिटाई दुनिया की ,
पर अपने संतानों की लालसा से,
उनके लालच से बच ना सकी।
विश्व धरा ने युगों- युगों से,
अनंत पीड़ा सही।
अपनी सारी सुंदरता देती रही।
और अपनी ही संतानों से,
करूपित होती रही ।
गंदगी के ढेरों को सहती रही।
अमूल्य धरोहरों को देकर ,
प्रदूषण से सांसे घुटवाती रही।
विश्व धरा ने युगों -युगों से,
अनंत पीड़ा सही।
इंसानो की गलतियों से,
जब रुौद्र रूप लेती।
सबकी गलतियों की सजा,
खुद ही सह लेती।
आज विश्व धरा दिवस पर ,
संकल्प ले......
कोरोना की आपदा
जो कुछ
लालची इंसानों ने बनाई।
किस तरह वीरान कर दी धरा।
मौत से कैसे धरा आज कंप कंपाई।
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एक कहानी- रक्तबीज कोरोना महामारी
आओ सुनाऊं ........
तुम्हें कहानी ऐसे महा विनाश की ,
कोई देश बच ना सका ,
उस रक्तबीज कोरोना की ऐसी मार थी।
आओ सुनाऊं ......तुम्हें कहानी ऐसे महा विनाश की ,
छूने से ही फैल गया ,
एक देश से दूसरे देश गया ।
लाखों को ही मार गया।
भय का कर ,ऐसा संचार किया।
जीवन पर ऐसा वार किया।
उस रक्तबीज कोरोना ने हर कहीं विनाश किया ।
अर्थव्यवस्था पर घात किया ।
धर्म भी ना बच सका इससे, इंसानियत पर ऐसा आघात किया।
आओ सुनाऊं .......... तुम्हें कहानी ,
ऐसे महाविनाश की ,कोई देश बच ना सका।
उस रक्तबीज कोरोना की ऐसी मार थी ।
लोगों को घर में बंद किया ।
गरीबों को बेघर किया ।
खड़ी फसल सड़ गई खेतों में,
मेहनत को बेरंग किया ।
आओ सुनाऊं..... तुम्हें कहानी ।
ऐसे महाविनाश की,
कोई देश बच ना सका ।
उस रक्तबीज कोरोना की ऐसी मार थी।
एकजुट होकर विश्व खड़ा था।
रक्तबीज कोरोना हर कोई लड़ा था।
स्वरचित रचना
प्रीति शर्मा "असीम"
नालागढ़ हिमाचल प्रदेश
aditichinu80@gmail.com
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