-रविकान्त (सहारा समय में पूर्वप्रकाशित) पिछले दिनों एक दुखान्त फ़िल्म ' रंग दे बसन्ती ' आकर हिट हो गई। ऐसा लगता है कि शहरी युवाओं न...
-रविकान्त
(सहारा समय में पूर्वप्रकाशित)
पिछले दिनों एक दुखान्त फ़िल्म 'रंग दे बसन्ती' आकर हिट हो गई। ऐसा लगता है कि शहरी युवाओं ने इसे ख़ूब सराहा पर आलोचकों को फ़िल्म रास नहीं आई। आलोचकों की राय में 'मस्ती की पाठशाला' में पढ़ने के अलावा सब कुछ करके बर्बाद हुए कथानायक न तो अपना इतिहास समझते हैं, न ही राजनीति। नितांत निजी संयोग से आहत होकर वह राष्ट्रीय महत्व की ताक़तों से टकराते हैं और जान गँवा देते हैं। न तो यहाँ भगत सिंह जैसे शहीदों का इतिहास प्रामाणिक है, और न ही उसका आधुनिक संदर्भों में फ़िल्मी रूपांतर विश्वसनीय बन पड़ा है। वह उपनवेशवादी ज़माना कुछ और था यह ज़माना कुछ और है - दोनों को एक-दूसरे के इतना समांतर कैसे रखा जा सकता है कि फ़िल्मी नायकों को इतिहास के आईने में अपना अक्स दिखाई देने लगे! उनके हिसाब से यह फ़िल्म महान बलिदान और क्षुद्र, स्वार्थी, बेवक़ूफ़ाना आत्महत्या को एक साथ रखकर इतिहास और वर्तमान दोनों के साथ अन्याय कर रही है।
एक हद तक आलोचकों की बात शायद सही है कि इतिहास के हर दौर की अपनी गति होती है, अपने सपने होते हैं, सपनों को लेकर हुए असली संघर्ष होते हैं - और इन अर्थों में इतिहास को ज्यों का त्यों दुहराया नहीं जा सकता। लेकिन इतिहास अपनी संपूर्ण प्रामाणिकता के साथ कब, कहाँ और किसे उपलब्ध है? इसलिए यह भी उतना ही सही है कि इतिहास के कुछ टुकड़े, चंद किरदार, उन किरदारों के कुछ विशेष कृत्य लोगों को प्रेरित करते हैं, इतिहास के आईने में वर्तमान की आलोचना करने के लिए और भविष्य को सुधारने के लिए कुछ कर गुज़रने के लिए। अगर इस नज़रिए से देखें तो रंग दे बसंती एक चतुर फ़िल्म है, और इसके प्रशंसकों और आलोचकों के बीच की खाई साफ़ है, जिसमें पीढ़ियों का अंतर भी है।
मनोज 'भारत' कुमार की पूरब और पश्चिम के अनंत सांस्कृतिक विरोध और देशभक्ति में पगी फ़िल्मों का सेवन करके बड़ी होनेवाली हमारी पीढ़ी भी देशभक्ति रस से अघा और ऊब चुकी है। लेकिन इस फ़िल्म में देशभक्ति वाला फ़ॉर्मूला वाक़ई थोड़ा हटके है। यहाँ एक ग्लोबल गोरी मेम हिन्दुस्तानियों को अपना भूला हुआ गौरवशाली इतिहास याद दिला रही है, और इन युवाओं को बीयर पीके देर रात की अड्डेबाज़ी करने और तेज़ बाइक चलाने से फुर्सत ही नहीं है! उनमें से जो हिन्दुत्ववादी टाइप का लड़का है, उसे न तो गोरी मेम द्वारा अपने इतिहास पर भाषण पसंद है, न ही ये आवारा और मुसलमान साथी रखनेवाले लड़के-लड़कियाँ। लेकिन धरनों-मोरचों के गुर उसे ही पता हैं। जो भी हो इतिहास, जोश, भ्रष्टाचार, प्रेरणा, त्रासदी आदि का ऐसा संयोग बनता है कि ये बालक (और एक बालिका) पहले शांतिपूर्ण विरोध करते हैं, और अंत में दो-एक राजनीतिक हत्याएँ भी कर डालते हैं, बाक़ायदा अपने को भगत सिंह-आज़ाद-दुर्गा का अवतार मानते हुए। फ़िल्म के गाने तो बेहतरीन हैं ही, इसका उपसंहार निहायत मानीख़ेज़ है। होता यह है कि पूरी मंडली - जो अब तक आतंकवादी क़रार दी जा चुकी है - ऑल इंडिया रेडियो के एफ़एम स्टेशन में घुस जाती है और 'जन-समर्पण' करती हुए अपनी मासूमियत का इज़हार करती है - लाइव प्रसारण और 'फ़ोन-इन' के एक कार्यक्रम को हाइजैक करके - बहुत कुछ भगत सिंह वाले अंदाज़ में। लेकिन व्यवस्था को इतना धैर्य कहाँ - बेचेहरा स्पेशल कमांडो आते हैं और दिलचस्प बात यह है कि कुछ भी स्पेशल नहीं करते - अंधाधुंध गोलियाँ चलाकर इनको भून डालते हैं। इनकी लड़ाई को मीडिया-नियंत्रण की लड़ाई के ग्लोबल जनवादी दुखान्त के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।
मीडिया किसका है - यह वैश्वीकरण के दौर का अहम सवाल इसलिए भी है चूँकि मीडिया के चलते ही हम वैश्वीकृत हैं। ज़ाहिर है कि बाज़ार भी है, पर बिन मीडिया बाज़ार भी क्या, और मीडिया ख़ुद तो बाज़ार है ही। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बाज़ार के ख़िलाफ़ हमारी पुरातन विचारधाराएँ इंच-दर-इंच लड़ाई हारती जा रही हैं। पुरातन इसलिए क्योंकि उनका प्रस्थान बिंदु और मंज़िल, समस्या और समाधान दोनों राष्ट्रवादी ढाँचे में क़ैद है। जबकि बाज़ार ग्लोबल है, और काफ़ी हद तक मीडिया भी। वसुधैव कुटुंबकम का जाप करते एलीट कब के वैश्वीकृत हो चुके पर उनसे लड़ रहे मेहनतकश लोगों के नुमाइंदे राष्ट्र या संस्कृति की झाड़ में दुबके हैं। पूँजी तरल होकर पूरे विश्व में बह रही है। हमारे लिए यह तय करना मुश्किल है कि कौन-सी कंपनी कहाँ की है, उसकी जड़ कहाँ, धड़ कहाँ, डाल-तने-पत्तियाँ कहाँ। हमारा एलीट विकास, प्रगति, निर्माण आदि के नए मानक गढ़ रहा है, जिसके प्रेरणास्रोत विश्व के नये, सॉफ़्टवेयर और आउटसोर्सिँग जैसे उद्योग हैं, वैश्विक शहर हैं, उनके मॉल हैं, मेट्रो-बरिस्ता-क्रेडिट कार्ड हैं, कौन बनेगा करोड़पति है, रियलिटी शो हैं।
पिछले दस-बीस सालों में वैश्वीकरण के तहत पूरी दुनिया में धुआँधार बदलाव हुए हैं, और बदलाव की गति इतनी तेज़ है कि विश्लेषकों की लेखनी के पाँव उखड़ जाते हैं। एक साथ यह आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक परिघटना है। इसने हमारे यहाँ भी समाज के हर तबक़े को कमोबेश प्रभावित किया है, और उसका असर चतुर्दिक मौजूद है। एलीट तबक़े ने समाजवादी क़िस्म का लोककल्याणकारी नारा त्याग दिया है, और पूरी दुनिया को अपनी लीला का आँगन मानने लगा है, वहीं, वामदल राष्ट्रवादी-जनवादी- समाजवाद के अपने सीमित और मौक़ापरस्त रणनीति की आड़ में हाय-तौबा कर रहे हैं। एलीट सेंसेक्स के उछाल को स्वास्थ्य की निशानी मानता है, जबकि उनके विरोधियों के पास आलोचना करने को तो बहुत कुछ है, पर न ही उनमें ऊर्जा है, न ही विकल्प, और न ही उन्होंने प्रचार के नई तकनीक को साधने की कोशिश की है। इसलिए लगता है कि जो भी बदल रहा है, उसका एकमात्र एजेंट बाज़ार है।
लेकिन बाज़ार से आए बदलाव ने कई संकट पैदा कर दिए है, जिनमें सांस्कृतिक संकट की बात सबसे ज़्यादा की जाती है। अपसंस्कृति, नंगई…न जाने क्या-क्या। और ये एक ऐसा इलाक़ा है जिसमें दक्षिणपंथी ताक़तों की ऊर्जा ज़्यादा ख़र्च हुई है, उनका विरोध ज़्यादा मुखर रहा है। लेकिन यही वह इलाक़ा है, जिसमें युवाओं के साथ उनके मूल्यों के संघर्ष भी स्पष्ट हैं, और यह भी कि उनकी निर्णायक हार हुई है। युवाओं को हमारे यहाँ आजकल नित नये विशेषणों से नवाज़ा जा रहा है - एमटीवी पीढ़ी, एसएमएस पीढ़ी, एफ़एम पीढ़ी, जेनरेशन नेक्सट, मॉल रैट आदि-आदि, जो बाज़ार और मीडिया आदि से उनके रिश्ते का सबूत है। वैश्वीकरण ने उन्हें नौकरियाँ दी हैं, रोज़गार दिए हैं, बाज़ार ने पैसे ख़र्च करने के साथ-साथ अड्डेबाज़ी के स्थान मुहैया कराए हैं। नये मीडिया ने उन्हें अपने ख़याल का इज़हार और रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए ब्लॉग दिए हैं, बहस के लिए डिस्कशन लिस्ट दिए हैं। मनोरंजन के लिए मॉल के साथ-साथ सस्ती एमपीथ्री-वीसीडी-डीवीडी दी हैं। नये उत्सव और नई आज़ादियाँ दी हैं। यह सब उनके लिबास, रहन-सहन, उनकी चिंताओं से ज़ाहिर होता है। शरीर को लेकर उनके तंग संस्कार ढीले हुए हैं। पुराने श्वेत-श्याम गानों में रिमिक्स्ड और गरमागरम चाहत के नए रंग भरे जा रहे हैं।
यह बात दकियानूस ताक़तों को पसंद नहीं है। मिसाल के तौर पर, युवतियों द्वारा कम कपड़े पहनने को बुरा तो ज़्यादातर मानते हैं पर कुछ लोग तो उनके 'चालू' और उपलब्ध होने का सबूत भी। इसलिए बड़े शहरों में इस तरह की यौन हिंसा प्राय: देखने को आती है। लेकिन मीडिया में ऐसी ताक़तों का मुक़ाबला करने के लिए मल्लिका शेहरावत, दीपल शॉ, व राखी सावंत जैसे रोल मॉडल तैयार हो चुके हैं। जो कास्टिंग काउच के सत्य को न केवल उजागर करती हैं, बल्कि बिंदास होकर कहती हैं कि बड़ा रोल पाने के लिए वह उसका बेहिचक इस्तेमाल भी करेंगी। यह बिंदासपन नैतिकता के ठेकेदारों के लिए नैतिक संकट का प्रतीक है, पर वे थोड़ा-बहुत हो-हल्ला करके, हुल्लड़बाज़ी करके मीडिया फ़ुटेज खाने के अलावा वे कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं।
लब्बोलुवाब यह कि कुछ पुराने मूल्यों को तो निश्चय ही बड़ी तेज़ी से ख़ारिज किया जा रहा है, और नए मूल्य अपनाए जा रहे हैं। आदर्श भी नए बन रहे हैं, और विरोध के नए क्षेत्र भी खुल रहे हैं। इनमें से बहुत कुछ बाज़ार-केन्द्रित और बाज़ार-प्रेरित है। और इस परिवर्तन का उत्सव मनाने के ठोस कारण हैं लोगों के पास। जैसे अभी नवभारत टाइम्स में एक लेख छपा था कि कैसे बाज़ार के इस युग में हिन्दी का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है, और इस हद तक यह सही भी है कि इतनी बड़ी मात्रा में, पहली बार इतने सारे माध्यमों के ज़रिए हिन्दी के इतने सारे शब्द बोले या लिखे जा रहे होंगे।
लेकिन ज़मीन पर ऐसी बहुत सारी लड़ाइयाँ चल रही हैं, जिनमें लोग सन्नद्ध हैं, भले ही आम तौर पर, मुख्यधारा की मीडिया में उनकी चर्चा नहीं होती। मीडिया नियंत्रण की लड़ाई ऐसी ही एक लड़ाई है। हम सब जानते हैं कि कंप्यूटर या कंप्यूटरीकृत डिजिटल प्रणाली का इस्तेमाल करते हुए गानों-फ़िल्मों, सॉफ़्टवेयर या किताबों की नक़ल करना, उसे आपस में बाँटना निहायत आसान है। यह पूरी दुनिया में आधुनिक युवा-संस्कृति का अटूट हिस्सा है। लेकिन ज़ेरॉक्स करने से लेकर फ़िल्मों आदि की नक़ल करना अवैधानिक है, चूँकि अमेरिका को जगदगुरु मानकर उसकी नक़ल में हमने बौद्धिक-संपदा के वही क़ानून अपने यहाँ लागू कर दिए हैं। हॉलीवुड से कथानक या धुन 'चुराना' हमारे लिए नया नहीं है, लेकिन अब यह सब ग़ैर-क़ानूनी है। तो अब करण जौहर जैसे आदर्श भी हैं, जो प्रिटी वुमन की धुन पहले बाक़ायदा ख़रीदते हैं, तब उसका इस्तेमाल करते हैं। 'पायरेसी' को समझे बिना उसके ख़िलाफ़ आम तौर पर प्रचार किया जाता है, चेतावनी दी जाती है, जिन्हें हमारे युवा सुनकर भी अबसुनी कर जाते हैं। नक़ल की अनौपचारिक संस्कृति इतनी गहरी है, बाज़ार इतना व्यापक है, और तकनीक इतनी सरल है कि इसे रोका नहीं जा सकता। तो हमारे युवा इसी ग़ैर-क़ानूनी और ख़तरनाक ढंग से अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी जिए जाते हैं।
लेकिन जो नई कार्य-संस्कृति बन रही है कॉल सेंटरों में, या आईटी कंपनियों में, उसको लेकर हमारे यहाँ कितनी चर्चा हुई है? हमें उनमें नौकरी पानेवाले आईआईटी, आईआईएम की बड़ी तनख़्वाहों की ख़बर तो बड़े उल्लास के साथ दी जाती है, लेकिन वहाँ के मज़दूरों पर भी कोई ख़बर छपती है? उन्हें अलग-अलग टाइम ज़ोन के हिसाब से दिन-रात काम करना कैसा लगता है? उन्हें क्रुद्ध ग्राहकों की गाली सुनना कैसा लगता है? अनजाने ऐक्सेन्ट अख़्तियार करने में क्या सब करना पड़ता है? पिज़्ज़ा हट या बरिस्ता में काम करने के क्या मायने हैं? समय, अनुशासन और कार्यकुशलता के क्या मानदंड हैं? सदा मुस्कुराने का दिलो-दिमाग़ पर क्या असर होता है, कितने पैसे मिलते हैं, छुट्टियाँ कितनी हैं, कहाँ रहते हैं, कैसे आते- जाते हैं। ज़ाहिर है कि हम युवा वर्ग के कर्मक्षेत्र के बारे में ज़्यादा नहीं जानते। वहाँ यूनियनें तो होंगी नहीं, इसलिए वाम या दक्षिण के पारंपरिक संगठन के दायरे से भी वे दूर हैं। हम सिर्फ़ इसकी चिन्ता करते दिखाई देते हैं कि रात-रात भर साथ काम करने वाले युवक-युवतियाँ भला क्या करते होंगे?
लेकिन यह युवावर्ग बिना हमारे घोषणापत्र के अपने तरीक़े से अपनी-अपनी लड़ाइयाँ भी लड़ रहा है। संगठनों से और पुलिस से पिट रहा है लेकिन वैलेंटाइन डे मना रहा है। दो हालिया उदाहरण पेश करता हूँ। जेसिका लाल और मेहर भार्गव के मामलों में लोग ख़ुद बाहर निकलकर आए, लगभग उसी तरह से मोमबत्तियाँ जलाकर विरोध प्रदर्शन किया जैसा कि आपने रंग दे बसंती में देखा। हमने टीवी पर देखा भी होगा, पर कम लोग जानते होंगे कि यह लामबंदी एसएमएस के ज़रिए हुई। दूसरी मिसाल –जिस दिन दिल्ली में वन-डे चल रहा था, और व्यापारियों की दुकानें सील की जा रही थीं, उसी दिन नांगला माची भी उजाड़ी जा रही थी, जिसे आपने टीवी पर नहीं देखा होगा, अख़बारों ने भी शायद ही लिखा। नांग्ला माची प्रगति मैदान के कोने पर रिंग रोड पर बसी हुई बस्ती थी, वहाँ अब कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज बनेगा, पर उजड़े हुओं को न तो कोई ठिया मिलेगा न ही मुआवज़ा। इस लेख के लिए अहम बात यह है कि वहाँ के युवाओं ने अंकुर के लैब में बैठकर नाँग्ला के इतिहास, उसके वर्तमान और वहाँ रहनेवाले लोगों के भविष्य के बारे में लगातार लिखा, और इंटरनेट पर ब्लॉग के रूप में या लिस्टों पर पोस्ट किया। वह बुलडोज़रों को तो नहीं रोक पाए लेकिन हाथ-पर-हाथ रखकर बैठे भी नहीं रहे, अपने आस-पड़ोस के बारे में सोचा और लिखना जब मुश्किल था तब लिखा और एक अख़बार भी निकाला, जिसका शीर्षक है - 'था- नांगला - है'।
इसलिए मुझे लगता है कि बदलते युग में युवाओं के बदलते मूल्यों पर जल्दबाज़ी में निर्णय देने के पहले उनके काम देखने, उनकी आवाज़ें सुनने की ज़रूरत है। वरना दूर से हमें उनकी दुनिया अनंत मस्ती की पाठशाला ही नज़र आएगी, और उनकी शहादत बेवक़ूफ़ाना प्रतीत होगी।
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रचनाकार – रविकान्त, विकासशील समाज अध्ययन पीठ से जुड़े शोधकर्ता हैं तथा जाने माने शिक्षाविद् और इतिहासकार हैं.
चित्र - कलाकृति - रेखा
वाह भाई, बहुत ही सोच समझ बहुत अच्छा लिखा है
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