दो व्यंग्य रचनाएँ ये सीडियां - आर.के.भंवर वे चरित्रवान थे, तो थे। इसमें वाकई और गैरवाकई का सवाल ही नहीं उठता था। मुहल्ले से चौरा...

दो व्यंग्य रचनाएँ
ये सीडियां
- आर.के.भंवर
वे चरित्रवान थे, तो थे। इसमें वाकई और गैरवाकई का सवाल ही नहीं उठता था। मुहल्ले से चौराहे तक, कल्लू चायवाले से मंगतू की पान की दुकान तक, उनके चरित्र के किस्से सभी की जुबान पर थे। उनके चरित्र का पैरामीटर शार्टकट था। कुल मिलाकर उनका चरित्र नारी की नखशिख सुषमा के प्रस्तुतीकरण के विरोध में उभरा था।
गोया वो बात अलग थी कि वे इसके विरोध में भी काफी रस ले लिया करते थे, पर ये अंदर की बात थी। वे सदैव चरित्र की परिभाषा इससे आगे ले ही नहीं गये। जब इसी से काम चलाया जा सकता है तो आगे जाने में क्या समझदारी ? आल औलाद तो थी नहीं। थे खानदानी रईस। दिन भर उनके पास कोई काम धाम भी न होता लिहाजा घर के आसपास मंडराने वाले मनचलों के लिए वे कालभैरव हो जाया करते। उनको देखते ही लड़के दांये बांये कहीं छिप जाया करते थे। और वे ...... जिसको पा भर जाते तो समझिये उसकी शामत। चरित्र के जितने भी फलसफे बयान करते थे उसका मुख्य विषय होता सुंदरियों के बदन पर कपड़ों का अकाल।
उस दिन वे काफी जोश में थे। सुबह-सुबह जो उनसे टकरा जाता उसको पकड़ लेते और चाय पिलाते । चाय पीने वाले दंग कि आखिर हो क्या गया । जो आदमी दूसरों की चाय कैसे पी सके इस पर वे न केवल रिसर्च बल्कि प्रैक्टिकल करते रहे हो, वही अचानक बुलाबुला कर , चाय पिला रहा हो, कुछ रहस्य की बात तो थी ही।
बाद में पता चला कि वह एक ऐसे आंदोलन को चलाने की फिराक में है जिससे समाज चरित्रवान बनता हो। योजना यह थी कि दुकानों पर मिलने वाली नीली तस्वीरों वाली सीडी नष्ट कर दी जायें, स्कूलों के आसपास अश्लील पोस्टर हटा दिये जायें। यह भी तय किया गया कि यह आंदोलन सुबह नौ बजे शुरू किया जायेगा और सूर्यास्त से पहले समाप्त हो जायेगा। चाय-पियक्कड़ों में कुछ लोग तो कार्य योजना सुनते ही इतने उत्साहित हो गये कि क्यों न इसे आज और अभी से शुरू कर देने की सोचने लगे। उनमें कुछ ज्यादा चरित्रवान लोग दूसरे चरित्रवानों को कटखनी नजर से देख रहे थे। कुछ तो होड़ में थे कि उन सबमें कौन ज्यादा चरित्रवान है। इस बात से वे बेहद चिंतित थे कि उनका चरित्र तो इन सबके चरित्र के सामने ढाई सौ ग्राम हो रहा था। इसके अलावा वे इस बात पर भी चिंतित थे कि एक मुहल्ले में इतने अधिक चरित्रवान नहीं होने चाहिए थे, अकेले वे ही पर्याप्त थे। तो तय यह हुआ कि दूसरे दिन रामभरोसे की दुकान के काउंटर की तलाशी ली जायेगी क्यूं कि वहीं ये अश्लील सीडियां रखी जाती थी। वह जब-जब उस कुर्सी से उठता था तब-तब ग्राहक का मन जीतने के लिए अगरबत्ती सुलगाता था। तो राम भरोसे की कुर्सी समेत सभी चीजें जब्त कर ली गई। पूरे उत्सव के मूड में आकर सभी चरित्रवानों ने उन अश्लील सीडियों को चटाक से तोड़ डाला।
सिलसिला आगे बढ़ा। ब्लू फिल्म की सी.डी. खोज खोज कर दुकानदार के सामने ही तोड़ दी जाती थी। सभी समाज के गिरते चरित्र के स्तर को उठाने में हाथ पांव धो कर लगे थे, यह बात अलग थी कि सभी का मन होता था कि सी.डी. को नष्ट करने से पहले देख भी लेते । पूरे दिन सभी के मन में ये जानने की ललक रहती थी। कैसी होती हैं ये सी.डी., क्यो दीवाने है लोग इनके। एक बोला कि अभी अभी जो सीड़ी तोड़ी थी, उसके रैपर पर जानवरों और महिलाओं में परस्पर प्रगाढ़ प्रेम दर्शाया गया था। दूसरा बोला कि अबे तोड़ने से पहले बताया क्यों नहीं।
एक दिन शाम को एक दुकान से कुछ सी.डी. हाथ लग गई। एक ने कहा कि अब नियम कायदे (सूर्यास्त हो रहा था) के मुताबिक इसे रख लिया जाए और कल इसका क्रियाकर्म किया जाए। यह अब तक का पहला ऐसा प्रस्ताव था जो सर्वसम्मति से पारित हो गया। यक्ष प्रश्न यह था कि यह सी.डी. किसके यहां रखवाई जाए। वे इस बाबत शान्त थे, चूंकि यह आंदोलन उन्हीं के दिमाग की उपज थी , इसलिए वे चाहते थे कि सारी सी.डी. उन्हीं की निगरानी में रखी जायें। यही फांस थी। इस मुद्दे पर सारे चरित्रवान एकमत नहीं थे। उन्होंने अपनी छठी इंन्द्रिय का इस्तेमाल किया, पकड़-पकड़ कर चाय पिलाने का वास्ता दिया। अंतत: वे ही जीते। और सर्वसम्मति से सभी सी.डी. उन्हीं के कब्जे में रहीं।
वे बहुत प्रसन्न थे। सी.डी. के प्रति उनका व्यामोह किसी भी चरित्रवान से उन्नीस न था। उसे देखने का वे अपना लोभ रोक नहीं पा रहे थे। रात जैसे ही नियराई कि वे सी.डी.प्लेयर के सामने पूजा-भाव से बैठ गये और उसे अंदर धंसा दिया। पूरी रात देखते रहे। क्या-क्या बीती उन पर। गूंगे केरी सरकरा खाये अरू मुस्काय।
इस क्षण के बाद सभी चरित्रवानगण उन लूटी गई सी.डी. को तोड़ने या नष्ट करने का साहस न जुटा पाये। बड़े नियोजित और मर्यादित ढंग से सी.डी. देखने का कार्यक्रम सभी चरित्रवानों में परवान चढ़ने लगा।
कुछ दिन बाद पता चला कि वे अब ऐसी ही संकलित (लूटी गई) सी.डी. किराये पर चला रहे थे, पर बड़े चरित्रवान ढंग से, नियोजित तरीके से।
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ये पत्नियां
- आर.के.भंवर
' मिलिये ये है मेरी धर्म पत्नी ` - एक समारोह में ऊपर से नीचे तक भद्रता के आवरण में ढके हुए एक श्रीमान ने अपनी पत्नी का परिचय कराया। परिचय ले रहे व्यक्ति ने तपाक से विनोदी अंदाज में पूछा - ' तो महाशय ! पत्नी तक की बात तो समझ में आ रही है, पर धर्मपत्नी की बात गले नहीं उतर पा रही है।` अनसुलझे कश्मीर विवाद की तरह यह बात जस की तस रही। पत्नी के धर्मपति, पति की धर्मपत्नी, यह चलन कहां से शुरू हुआ, इस विषय पर बड़े बड़े ज्ञानी मौन है। पत्नियां धर्मरती है। इस पर रत्ती भर संशय नहीं है। सप्ताह का कोई दिन ऐसा बचता हो जिस दिन वे अपने किसी न किसी नाम का उपवास न करती हों। उपवास वाले ऐसे स्वर्णिम दिन होते है जब पति के सेवाभाव की परीक्षा सही अर्थों में होती हैं। पति की पात्रता परखने का यही दिन होता है। पड़ोस में एक ऐसे सज्जन हैं जो अपनी पत्नी के उपवास पर रहने पर अपने आफिस जाते ही नहीं। समूचे दिन अगाध निष्ठा, असीमित प्रेम व निष्काम सेवा भाव से वह अपनी पत्नी के हित साधन में लगे रहते थे। वैसे यह विषय अन्य अकड़ू टाईप वाले पतियों के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है।
ये पत्नियां बड़ी विचित्र होती हं। इनके दिल और दिमाग दोनों में एक ही समय में भयंकर विरोधी कार्यविधियों का तूफान उठा करते है। एक समय में वे क्रूर है तो दूसरे ही क्षण घोर दयालु भी। प्रलोभी हैं तो त्यागी भी। आक्रामक हैं तो रक्षात्मक भी। संचयी है तो खर्चीली भी। प्रेरणा है तो संहारक भी। इन सबमें एक सर्वाधिक विशेष गुण यह है कि ये शक्की मिजाज की जरूर होती हैं। शंका साहित्य में दसवां रस है। अपवाद यह कि शक रस सिर्फ पत्नियों में ही पाया जाता है। वे शंका की दरियाव होती हैं और उसी में रहना, मचलना, उत्पात उत्पन्न करना अपनी नियति बना लेती है।
ये पत्नियां बड़े काम की भी होती हैं। घरेलू बंदोबस्त में ए से जेड तक वही ही हैं। वे अगर श्रमजीवी हैं तो भी अपना गृह कार्य किसी दूसरे के सहारे नहीं छोड़तीं। पति बाहर की दुनिया में रहता है तो ये अंदर-बाहर सभी जगह रमती हैं। घरेलू प्रजाति होने के बावजूद ये अनुमान से ही बाहर की बात को पकड़ लेती हैं। अपनी जवान हो रही बेटियों से भी फैशन से अपने समय के फैशन को लेकर कभी-कभी ईर्ष्यालु हो जाती है। पड़ोस में बढ़ने वाली संसारी सम्पदाओं पर उसकी खुफिया नजर और रात्रि के दूसरे पहर में पतियों को उनसे मिलने वाली उलाहना जैसी बातें पतियों को कहां पहुंचा देती है, यह किसी से नहीं छिपा। फिर पतियों की यात्रा कहां से और किस जुनून से प्रारंभ होती हैं, यह भी किसी से नहीं छिपा है। इन मामलों में ये पतियों की उत्प्रेरक होती हैं। पर आज तक इनके चंगुल में इसी भावभूमि पर फंसा पति कभी भी वाल्मीकि नहीं बन पाया। उसकी वजह साफ है तब के वाल्मीकि के घरवालों ने बड़ी सफाई से कह दिया था कि तुम जो कर रहे हो उसमें हमसे क्या लेना देना ? पर आज के समय में इतना साफ-साफ कहां चलता है। चढ़ जा सूली पे बच्चा भली करेंगे राम और राम ने मानो भली करने का कोई ठेका ले रखा हो।
पत्नियां गरीबी की प्रबल विरोधी है, गरीब की नहीं। इसके विपरीत ये अमीरी से प्रेम करती हैं और उसके स्थायित्व के लिए सदैव अगरबत्तियां सुलगाती है। कुल मिलाकर दुनिया में भारतीय पत्नियों का जलवा बढ़ रहा है। वे विदेशों की किसी पत्नी से उन्नीस नहीं है। पति भले कितना ही पढ़ा लिखा हो, पर वास्तविक डिग्री पत्नी को ही मिलती है। जैसे : पांच साल में डाक्टरी पास करने वाले की बीबी मात्र सात फेरे में ही डक्टराईन हो जाती है। ऐसे ही वह मस्टराईन, अफसराईन, कलेक्टराइन न जाने क्या-क्या हो जाती हैं।
दिन भर खटर खटर करते रहना इनकी आदत होती हैं। इस कारण से तथा शंकाओं में जीने से कभी कभी तनाव में रहती हैं। संसद में एक विधेयक लाया गया था कि इन्हें सप्ताह में एक दिन का अवकाश दिया जाए। बड़ी गहरी सोच इस विधेयक में थी, पर ये पारित नहीं हुआ। पास भी कैसे होता, ये यदि एक दिन अवकाश पर चली भी जाती तो पतियों को बारह बजे दिन में भी तारे नजर आते।
एक शुभचिंतक ने पति-पत्नी के मध्य उपजने वाले विवाद को सुलटाने के वास्ते बताया - जब भी कोई पति अपने दफ्तर से घर की ओर प्रस्थान करें तो अपने घर में गेट से जैसे ही घुसे वैसे ही अपनी कल्पना से गेट पर एक खूंटी बना ले, और लम्बी सांस भर कर जब उसे छोड़े तो कल्पना करें कि उसका (पति का) दिमाग बाहर निकल कर कल्पना से बनायी गयी खूंटी पर टंग गया और अब बचा सिर्फ दिल। इस बचे दिल को लेकर आप घर के अंदर दाखिल होईए। घर के अंदर दिमाग सिर्फ एक ही का चलेगा, वह भी आपकी पत्नी का। अब आप अपने घर में दिलदार पति है और आपका दिमाग गेट की खूंटी पर टंगा हुआ है। अब पत्नी कहे कि सूरज पश्चिम से निकलता है तो ठीक निकलता है, पश्चिम से। आखिर उसे निकलना तो है ही । अब पूरब से निकले या पश्चिम से। क्या फर्क पड़ता है। अब वह बोले कि निरा मूर्ख हो अपनी चड्ढी-बनियान नहीं खोज पा रहे हो, तो दिलदार पति का यह कहना कि ठीक फरमाया मेरे बाप भी यही कहते थे कि मैं वाकई मूर्ख हूं। अब आप बताईए कि क्या आप की सेहत पर इससे कुछ फर्क पड़ेगा। नहीं न दृ। पत्नी यह कहे कि खाना बनाना सीख लो मर जायेगे तो कौन खिलायेगा, तो दिलदार पति यह कहे कि तुम्हारे साथ मैं भी सता हो जाऊंगा, साथ ही ऊपर चलेंगे। दो टकी की जबान हिलाने में कुछ घिस जाता है, आपका। पर जब आप घर से अपने दफ्तर के लिए निकले तो खूंटी पर टंगे दिमाग को लम्बी सांस से यथास्थान धारण करिये और दिल को, बाहर छोड़ने वाली लंबी सांस के सहारे उसी खूंटी पर टांग दीजिए। बाहर की दुनिया में दिमाग रखिए, पर घर की चौखट पर उसे खूंटी पर ही टांग दे। अब आप बताइए इसमें कोई बुराई है, भला।
ये पत्नियां जितना जैसा भी दिमाग रखती है, वह आपके हिस्से व आपके हित के वास्ते ही रखती है। भले ही वह आपकी सोच के मुताबिक न हो। पर आपके वास्ते रखती तो है। वह आपकी शुभचिंतक हैं। घर-मंदिर की देवी हैं। भावना(दिल) के फूलों से उसकी आराधना करिए और दिमाग रूपी रावण को बाहर की लंका में विचरण करने दीजिए। ये सहनशील और सहृदय होती हैं और सहनशीलता और सहृदयता की अगरबत्ती भाव भावना से ही सुलगती है। इसलिए घरों में दिल का काम होता है, दिमाग का उतना नहीं। इसीलिए बाबा कबीर का कहना है कि शीश उतारै भुइं धरै, तो पैठे घर मांहि।
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रचनाकार परिचय:
आर. के. भंवर : व्यंग्य-श्री एवं सम-सामयिक व्यंग्य लेखन के पुरोधा श्रीयुत श्रीलाल शुक्ल जी के श्री-चरणों में बैठ कर साहित्य साधना करने वाले श्री आर.के.भंवर हिन्दी के नवोदित व्यंग्यकार है। श्री भंवर के अब तक हिन्दुस्तान, स्वतंत्र भारत, जनसत्ता, जागरण जैसे अनेक समाचार पत्रों में व्यंग्य रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। उनका एक व्यंग्य संकलन ' अथ रिश्वतमेव जयते` प्रकाशनाधीन है।
श्री भंवर की रचनाएं सम-सामयिक विशयों पर होती हैं तथा पूरे परिवेश को रेखांकित करती है। 'मुनाफा फिर कमा लेंगे`, दंगा, ये पत्नियां, आईडेंटिटी क्राईसिस, ये सीडियां, गुरू फंसें, आदि रचनाएं व्यक्ति को सोचने पर विवश करती हैं। अभी उनकी दो रचनाएं 'मुर्गा और आदमी` तथा 'चिंता जिन करियो हम हूं न ..` वेब मैंगजीन 'सृजनगाथा` में आई हैं।
श्री भंवर एक सर्जनात्मक व्यंग्यकार है। उनकी रचनाओं में भाशा का चमत्कार न होकर उसकी सहजता दम भरती है।
डॉ० कौशलेन्द्र पाण्डेय,
साहित्यकार व कथाकार
लखनऊ
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सम्पर्क:
आर. के. भंवर
पता :
'सूर्य सदन`,
सी-५०१/सी, इंदिरा नगर,
लखनऊ(उ०प्र०)-२२६०१६
फोन नं० - ०५२२-२३४५७५२
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