मनुष्य स्वयं है अपने सुख-दुख का कर्ता और नियंता

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-सीताराम गुप्ता ख़लील जिब्रान कहते है, ‘‘हम अपने सुखों और दुखों का अनुभव करने से बहुत पहले ही उनका चुनाव कर लेते हैं।'' कर्मफल के स...

-सीताराम गुप्ता

sitaram guptaख़लील जिब्रान कहते है, ‘‘हम अपने सुखों और दुखों का अनुभव करने से बहुत पहले ही उनका चुनाव कर लेते हैं।'' कर्मफल के सिद्धांत के अनुसार हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल पाते हैं। जो बीज हम बोते हैं उसी बीज से उत्पन्न पेड़ के फल हमें प्राप्त होते हैं। कुछ बीज ऐसे होते हैं जो बोने के बाद जल्दी ही बड़े होकर फूल-फल प्रदान करने लगते हैं जबकि कुछ बीज धीरे-धीरे अंकुरित होते हैं और धीरे-धीरे ही उनकी वृद्धि होती है। फूल-फल भी वे बहुत देर में देते हैं। जिस प्रकार हमें अपने बोए गए बीजों के फूल-फल अवश्य ही मिलते हैं ठीक उसी प्रकार हमारे कर्म रूपी बीजों के फल भी अवश्य ही हमें देर-सवेरे वहन करने पड़ते हैं। यही कर्म रूपी बीज हमारे सुख-दुख या हर्ष-विषाद का मूल हैं। हमारा वर्तमान इन्हीं के कारण इस अवस्था में है।

किसी भी कार्य की पहली रूपरेखा हमारे मन में बनती है। किसी भवन के निर्माण से पहले उसका नक्शा बनाया जाता है लेकिन भवन का नक्शा काग़ज़ पर बनने से पहले किसी के मन में बनता है। कोई भी विचार सबसे पहले मन में आकृति ग्रहण करता है। उसके बाद ही विचार वास्तविकता में परिवर्तित होता है। इस प्रकार मन में निर्मित मानचित्र द्वारा ही उत्पत्ति होती है हमारे कर्मों की। अर्थात्‌ कर्म की उत्पत्ति हमारी सोच, हमारे चिंतन हमारे संकल्पों का परिणाम मात्रा है। ये हमारे विचारों अथवा संकल्पों की तीव्रता तथा हमारे विश्वास की सीमा पर निर्भर है कि हमारे विचार कब कर्मफल के रूप में हमारे सामने आ उपस्थित होंगे।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सोच अच्छी या बुरी अर्थात्‌ सकारात्मक या नकारात्मक कोई भी हो सकती है। सकारात्मक सोच या नकारात्मक सोच में से सही का चुनाव करना व्यक्ति पर निर्भर करता है और यह निर्भर करता है व्यक्ति के परिवेश, शिक्षा-दीक्षा और संस्कारों पर। लेकिन इतना निश्चित है कि सकारात्मक सोच से उत्पन्न कर्म हमारी भौतिक उन्नति के साथ-साथ हमारी आध्यात्मिक उन्नति में भी सहायक होते हैं जबकि नकारात्मक सोच से उत्पन्न कर्म हमें न केवल हर दृष्टि से पीछे की ओर ले जाते है अपितु हमें औंधे मुँह गिराते भी हैं। मनुष्य की स्थिति ठीक एक दोपहिया वाहन के समान होती है। सभी दोपहिया वाहन पैडल या मोटर के सहारे केवल आगे की ओर चलते हैं पीछे की ओर नहीं। स्कूटर, मोटर-साइकिल अथवा साइकिल में पिछला गीयर नहीं होता। साइकिल में सही दिशा में पैडल मारेंगे तो आगे बढ़ेंगे। ग़लत दिशा में पैडल मारेंगे तो फ्री-व्हील की कटकट कटकट की आवाज़ के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा। ज्यादा प्रयत्न करेंगे तो संतुलन बिगड़ जाएगा. साइकिल समेत ज़मीन पर आ गिरेंगे। इसी प्रकार अपनी सकारात्मक या नकारात्मक सोच द्वारा अपने सुख-दुख का सामान जुटाने वाले हम स्वयं हैं अन्य कोई नहीं।

एक बार एक व्यक्ति चूहे मारने की दवा खरीदने बाजार गया। दुकानदार से दवा ली, पैसे दिये और घर की तरफ चल दिया। रास्ते में मन में न जाने क्या ख़याल आया कि वापस दुकान पर गया और दुकानदार से पूछा, भाई एक बात बताओ। दवा से चूहे मरेंगे तो पाप लगेगा। अब ये बताओ कि पाप तुम्हें लगेगा या मुझे? दुकानदार ने कहा कि पाप-पुण्य तो तब लगेगा जब चूहे मरेंगे क्योंकि आज तक इस दवा से कोई चूहा नहीं मरा है।

भगवान कृष्ण कहते हैं : ‘‘सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत''। सहज-स्वाभाविक कर्म दोषयुक्त होने पर भी नहीं त्यागना चाहिये। मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह कर्म करे और फल अथवा परिणाम की चिंता न करे लेकिन हमारे मनों में परिणाम की आशंका पहले से ही घर कर जाती है जिससे न तो कर्म का मूल अर्थात्‌ विचार ही सहज रह पाता है और न ही सहज रूप से कर्म का निष्पादन हो पाता है। एक भाव और हमारे मन में व्याप्त रहता है और वो है कर्ता भाव। मैं ही अमुक कार्य करता हूँ और मैं ही अमुक कार्य नहीं करता। मैं सबको खिलाता-पिलाता हूँ। मैं किसी का नहीं खाता। मैं सबको आमंत्रित करता हूँ और सबकी ख़ातिरदारी करता हूँ लेकिन मैं हर ऐरे-ग़ैरे के यहाँ नहीं जाता। अहंकार और कर्ता भाव की पराकाष्ठा है ये। कर्ता भाव में लाभ-हानि का आकलन पहले से हो जाता है। जिस क्रिया में लाभ-हानि का आकलन किया जाता है वह व्यवसाय के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हो सकती। लाभ-हानि व्यवसाय के कारण होते हैं। कर्म व्यापार न बनें तो अच्छा है। कर्म जब व्यापार बन कर बंधन पैदा करते हैं तो दुख की उत्पत्ति का कारण बनते हैं।

हमें चाहिये कि हम स्वयं को कर्ता नहीं अपितु कर्म का माध्यम समझें। कर्ता नहीं अभिकर्ता समझें। कर्ता के रूप में लाभ-हानि देखनी ही पड़ती है लेकिन अभिकर्ता के रूप में नहीं। अभिकर्ता अर्थात्‌ एजेंट बनें। एक निश्चित कमीशन भी मिल जाएगा और लाभ-हानि से मुक्ति भी। ईश्वर के अभिकर्ता के रूप में कर्म कीजिए। प्रभु की ऐसी ही इच्छा है यह सोचकर सहज-स्वाभाविक कार्य सहज-स्वाभाविक ढंग से कीजिए। प्रभु की ऐसी ही इच्छा है यह सोचकर हर परिणाम को स्वीकार कीजिए। राग-द्वेष से मुक्त होकर, निर्लिप्त होकर सहज-स्वाभाविक कर्म निष्काम भाव से कीजिए कर्मों के बंधन से ही मुक्त हो जाएँगे। कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाना ही सुख-दुख अथवा मानापमान से ऊपर उठ जाना है, यही मुक्ति है, मोक्ष है अथवा निर्वाण है।

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संपर्क

सीताराम गुप्ता,

ए.डी. १०६-सी, पीतमपुरा,

दिल्ली-११००८८

फोन नं. ०११-२७३१३९५४

COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. Dear Gupta ji, me poems and social writing ka kafi bada intrest rakhta hu, man me jo vichar aate hai unhe likh leta hoon or tab ek kahani ya poem ka rup deta hoon. apka ye lekh mujhe kafi acha laga. me apko bhaut dhanya bad karta hu.

    Regards

    surendra Singh rawat
    new delhi-44
    +91-41724330
    9911563662

    जवाब देंहटाएं
  2. aapne jo bhi uper likha hai bhut hi sunder likha hai . muje ye bhut hi acha laga . me aap ka thanks karta hu .... i wish for god u can grow very highly in our future life.


    Mahender kumar
    from himachal pardesh
    distt. mandi ( sunder nagar )
    ph. no. 9418245802

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रचनाकार: मनुष्य स्वयं है अपने सुख-दुख का कर्ता और नियंता
मनुष्य स्वयं है अपने सुख-दुख का कर्ता और नियंता
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