दिव्या माथुर की कहानी : अंतिम तीन दिन

SHARE:

कहानी अंतिम तीन दिन -दिव्या माथुर अपने ही घर में माया चूहे सी चुपचाप घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर बैठ गई, स्तब्ध. जीवन ...

कहानी

अंतिम तीन दिन

-दिव्या माथुर

अपने ही घर में माया चूहे सी चुपचाप घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर बैठ गई, स्तब्ध. जीवन में आज पहली बार, मानो सोच के घोड़ों की लगाम उसके हाथ से छूट गई थी. आराम का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था. अब समय ही कहां बचा था कि वह सदा की भांति सोफ़े पर बैठकर टेलिविजन पर कोई रहस्यपूर्ण टी वी धारावाहिक देखते हुए चाय की चुस्कियां लेती. हर पल कीमती था. तीन दिन के अंदर भला कोई अपने जीवन को कैसे समेट सकता है? पचपन वर्षों के संबंध, जी जान से बनाया ये घर, ये सारा ताम झाम और बस केवल तीन दिन! मजाक है क्या? वह झल्ला उठी किंतु समय व्यर्थ करने का क्या लाभ. डाक्टर ने उसे केवल तीन दिन की मोहलत दी थी. ढाई या साढ़े तीन दिन की क्यों नहीं, उसने तो यह भी नहीं पूछा. माया प्रश्न नहीं पूछती, बस जुट जाती है तन मन धन से किसी भी आयोजन की तैयारी में, वह भी युद्ध स्तर पर, बेटी महक होती तो कहती, ममा, 'स्लो डाउन.' जीवन में उसने अपने को सदा मुस्तैद रखा कि न जाने कब कोई ऐसी वैसी स्थिति का सामना करना पड़ जाए. बुरे से बुरे समय के लिए स्वयं को नियंत्रित किया, ताकि वह मन को समझा सके कि इससे और भी तो बुरा हो सकता था.

ख़ैर, तीन दिन बहुत होते हैं. एक हफ्ते में तो भगवान ने पूरी दुनिया रच डाली थी. बिगाड़ने के लिए तो एक तिहाई समय भी बहुत होना चाहिए. किंतु उसे बिगाड़ क़र नहीं ये घर संवार के छोड़ना है. सम्पत्ति को ऐसे बांटना है कि किसी को यह महसूस न हो कि अंधा बांटे रेवड़ी, भर अपने को दे. संसार से यूं विदा लेनी है कि लोग याद करें. कमर कसके वह उठ खड़ी हुई.

तीनो अल्मारियों के पलड़े ख़ोलकर माया लगी अपनी भारी साड़ियों, सूटों और गर्म कपड़ों को पलंग पर फेंकने. जैसे उस ढेर में दब जाएगी उसकी दुश्चिंता. छोटे बेटे वरुण की शादी को अभी एक साल भी तो नहीं हुआ. कितने कपड़े और गहने बनवाए थे माया ने. जैसे अपनी सारी इच्छाओं को वह एक ही झटके में पूरा कर लेना चाहती हो. 'हे भगवान! अब क्या होगा इन सबका?’ समय होता तो वह भारत जाके बहन भाभियों में बांट देती. ऑक्सफैम में जाने लायक नहीं हैं ये कीमती साड़ियां पर उसकी बहुओं और बेटी को इस 'इंड़ियन' पहनावे से क्या लेना देना.

रुपहली नैट की गुलाबी साड़ी क़ो चेहरे से लगाए माया सोच रही थी कि इसे पहनने के लिए उसने अपना पूरा पांच किलो वजन घटाया था. मुंह मांगे दाम पर खरीदी थी ये साड़ी उसने रितु कुमार से. छोटी बहन तो बस दीवानी हो गई थी, 'जीजी, इस साड़ी से जब आपका दिल भर जाए तो हमें दे दीजिएगा, प्लीज.' उसे तब ही दे देती तो छोटी कितनी ख़ुश हो जाती. पर तब उसने सोचा था कि इसे पहन कर पहले वह अपने लंदन और योरोप के मित्रों की चर्चा का विषय बन जाए, फिर दे देगी. किसी ने ठीक ही कहा है, 'काल करे सो आज कर.' एकाएक उसे एक तरकीब सूझी. क्यों न वह इसे छोटी को पार्सल कर दे और साथ में ही भेज दे इसका मैचिंग कुंदन का सैट भी. कुंदन के सैट के नाम पर उसका दिल मानो सिकुड़ क़े रह गया. बड़ी बहु उषा को पता लगेगा कि सास ने साढ़े तीन लाख का सैट छोटी को दे दिया तो वह उसे जीवन भर कोसेगी. पर छोटी जितनी कद्र भला बहुओं और बेटी महक को कहां होगी. माया चाहे कितना कहे कि वह किसी से नहीं डरती पर सच तो ये है कि वह मन ही मन सबसे ही डरती है अपने बच्चों से लेकर, सड़क़ पर चलते राहगीरों तक से कि वे क्या सोचते होंगे, कहीं वे यह न कहें या कहीं वे वो न सोचें. पर अब वह वही करेगी जो उसका मन चाहेगा. वैसे भी, बच्चे अपने अपने घरों में सुख से हैं. न भी हों तो उसने फ़ैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलू मामलों में दखलअंदाजी नहीं करेगी. सगे संबंधी और मित्र भी मरने वाले की अंतिम इच्छा का सम्मान करेंगे ही.

फिर भी, न चाहते हुए भी माया दूसरों के लिए ही सोच रही थी. अपने लिये सोचने को रखा ही क्या है. मंदिर जाये, गिड़ग़िड़ाये कि भगवान बचा लो. जिंदगी के इस आखािरी पड़ाव पर क्यूं अपने लिये कुछ मांगे और मांगने से क्या कुछ मिल जाएगा. अब तक तो वह जब भी भगवान के आगे गिड़ग़िड़ाई है, सदा औरों के लिये. हर सुबह यही प्रार्थना करती आई है, 'भगवान सबका भला करना', या 'जो भी ठीक समझो वही करना,' क्यूंकि मनुष्य की हवस का तो कोई अंत नहीं. अमेरिका में तो सुना है कि लोगों ने हजारों डालर देकर मरणोपरांत अपने शवों के प्रतिरक्षण का प्रबंध करवा लिया है ताकि भविष्य में, जब भी टैकनौलोजी इतनी विकसित हो जाए, उन्हें जिला लिया जाए. माया को यह समझ नहीं आता कि ऐसा क्या है मानव शरीर में कि उसे सदा जीवित रखा जाए. गांधी, मदर टेरेसा या मार्टन लूथर किंग जैसों महानुभावों को सुरक्षित रख पाते तो और बात थी. अच्छी से अच्छी प्लास्टिक सर्जरी के उपलब्ध होने पर भी एलिजाबेथ टेलर जैसी करोड़पति सुंदरी भी कुरूप दिखती है. प्रकृति से टक्कर लेकर भला क्या लाभ. उसे जो करना था वह कर चुकी. बच्चे अपने अपने घरों में सुख से हैं. न भी हों तो उसने फ़ैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलू मामलों में दखलअंदाजी नहीं करेगी.

माया एक अजीब सी मनःस्थिति से गुजर रही है. उसे लगता है कि कहीं कुछ अप्राकृतिक अवश्य है. वह परेशान है कि उसे मौत से डर क्यों नहीं लग रहा. हो सकता है कि अत्यधिक भय की वजह से उसने भय को अपने मस्तिष्क से 'ब्लॉक' कर रखा हो. जो भी हो, अच्छा ही है. अन्यथा भयवश न तो वह कुछ कर पाती और न ही ठीक से सोच ही पाती. बच्चों को बताने का कोई औचित्य नहीं. बेकार परेशान होंगे और उसकी नाक में दम कर डालेंगे. पिछले महीने ही की तो बात है जब उसे फ्लू हो गया था. दुर्भाग्यवश वरुण और विधि घर पर थे. उन्होंने तीमारदारी कर करके माया की ऐसी की तैसी कर दी थी. उसे आराम से सोने भी नहीं दिया था. कभी दवाई का समय हो जाता तो कभी खिचड़ी क़ा, कभी गरम पानी की बोतल बदलनी होती तो कभी गीली पट्टी. नहीं नहीं चुपचाप मर जाना बेहतर होगा. बच्चों को भी तसल्ली हो जाएगी जब लोग कहेंगे कि माया बड़ी भली आत्मा रही होगी कि नींद में चल बसीं. वैसे, कह भर देने से ही कितनी तसल्ली हो जाती है या शायद दिल को समझा लेना आसान हो जाता होगा. लोगों के पास चारा भी क्या है. जीवन के हल में सीधे जुत जो जाना होता है. आजकल तो लोग तेरहवीं तक भी घर में नहीं रुकते. छुट्टियां ही कहां बचती हैं. साल में एक बार भारत जाना होता है. फिर परिवार और मित्रों के साथ दो¬ या तीन बार योरोप की यात्रा पर भी जाना पड़ता है. पहले जमाने में कभी लेते थे लोग छुट्टियां ऐसे काम काज के लिए. माया तो हारी बीमारी में भी उठके दफ्तर चली जाती थी कि एक छुट्टी बचे तो मंडे बैंक हौलिडे के साथ जोड़ क़र कहीं आस पास ही हो आए. उसका मानना है कि इंग्लैंड की तनाव भरी जलवायु से जब तब निकल भागना आवश्यक है. वैसे भी यहां के बहुत से लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त रहते हैं. जिसे देखिए वही 'टैन्स्ड' है.

माया भी टैन्स्ड है. अपनी उंगलियां उलझाए वह सोच रही है कि पर्दों को धो डाले और घर की झाड़ पोंछ भी कर ले. मातमपुर्सी को आए लोग कहीं ये न कहें कि दूसरों को सफ़ाई पर भाषण देने वाली मायी स्वयं इतने गंदे घर में रहती थी. आज तो केवल बुधवार है और घर की सफ़ाई करने वाली ममता तो शनिवार को ही आएगी. शनिवार को वे दोनों मिलकर घर की ख़ूब सफ़ाई करती हैं और फिर दोपहर में एक नई हिंदी फ़िल्म देखने जाती हैं. शाम का खाना भी बाहर ही होता है. रात को ममता को उसके घर छोड़ क़र जब माया वापिस आती है तो अपने साफ़ सुथरे फ्लैट में ख़ुश्बुदार बिस्तर पर पसर जाना उसे बहुत अच्छा लगता है. कभी कभी तो इस संवेदना के रहते, वह सो भी नहीं पाती. उनके मना करने के बावजूद ममता उसे 'मैडम' कहकर ही पुकारती है और उसकी बहुत इज्ज़त करती है. हालांकि बच्चों को लगता है कि मां ने उसे सिर पर चढ़ा रखा है, माया उसे अपने परिवार का एक सदस्य ही मानती है. कर्मठ, इमानदार और निष्ठावान है ममता, माया की तरह ही. शायद इसीलिए माया को उसका साथ पसंद है. उसकी सहेलियां उसके इस बर्ताव पर नाक भौं चढ़ाती रहतीं हैं तो चढ़ाया करें.

नारायण को लेकर ममता कुछ अधिक ही परेशान है. उसका इकलौता बेटा नारायण, जिसके पिता की आकस्मिक मृत्यु हो गई थी, बुरी संगत में पड़ क़र एक गुंडे के गिरोह में ड्राईवरी कर रहा है. आजकल उसकी इच्छा है कि उसके प्रवास के दौरान नारायण एक बार लंदन घूमने आ जाए. माया ने दिल्ली में अपने भाई पारस के जरिए उसका पासपोर्ट बनवा दिया है और वीजा भी लग ही जाएगा. ममता के इसरार पर माया ने पिछले साल पटना के किसी अधिकारी को इस बाबत लिखा भी था पर वहां से आज तक कोई जवाब नहीं आया. दिल्ली मुम्बई जैसे शहर होते तो शायद कोई जान पहचान निकल भी आती. हर शनिवार ममता को बड़ी आस लिए आती है, मैडम कोई चिट्ठी पत्री आई. न में सिर हिलाती माया सोचती है कि कुछ करना चाहिए किंतु वह कर क्या सकती है? अपना बेटा होता तो क्या वह चुप बैठ जाती? उसका मन कई बार होता है कि बारक्लेज बैंक के पांच हजार के बौंड्स ममता को दे दे ताकि वह नारायण को उन गुंडों से बचा सके. किंतु फिर वही दुविधा कि मेहनत से कमाये उसके धन का सीधी सादी ममता कहीं दुरुपयोग न कर बैठे.

बच्चों को क्या, किसी और को भी यदि ये पता लग गया कि उन्होंने इतनी बड़ी रकम ममता को दे दी तो वे उसे पागल समझेंगे. किंतु धन का इससे अच्छा उपयोग भला क्या हो सकता है. महक होती तो कहती, 'ममा, डू व्हाट यू लाईक, इटज यौर मनी आफ्टर ऑल. वरुण और विधि को उसके धन से कुछ लेना देना नहीं. विधि साईं बाबा ट्रस्ट की सदस्य है, कभी बाढ़ पीड़ितों के सहायतार्थ जाती है तो कभी किसी सेवा शिविर के लिए काम करती है. अरुण कहता है कि उन्हें पैसे की कोई कद्र नहीं और ये भी कि यदि मां चाहें तो उनका पैसा वह किसी अच्छी जगह इन्वैस्ट कर सकता है. इकलौती संतान के नाते, उषा को हर चीज अपने नाम करवाने की पड़ी रहती है. इतनी बड़ी रकम उन्होंने पहले किसी को दी भी तो नहीं. उनकी मृत्यु के बाद कहीं बच्चे बेचारी ममता पर कोई मुकदमा ही न ठोक दें. दुनिया में क्या नहीं होता. माया का सोचना ही उसका दुश्मन है पर सोच पर किसी का क्या बस.

बस अब और नहीं सोचेगी माया. अभी जाकर वह बौंड्स भुनवा लेगी और शनिवार को ममता को दे देगी. कहीं वह शुक्रवार को ही स्वर्ग सिधार गई तो? हालांकि वह शुक्रवार की शाम को मरे तो बच्चों और सगे संबंधियों को सप्ताहांत मिल जाएगा. इतवार को ही स्विटजरलैंड से वरुण और विधि भी छुट्टियां मना कर लौट आएंगे. माया को अच्छा नहीं लगा कि आते ही उन्हें कोई बुरी ख़बर दे पर किया क्या जा सकता है.

बैंक जाते समय माया सोचने लगी कि किसी के आखिरी वक्त में सबसे विशेष बात क्या हो सकती है? क्यों वह सीधे कपड़ों गहनों की तरफ़ भागी? क्या ये मामूली चीजें उसके लिये इतना महत्व रखती हैं? आज तक तो वह यही सोचती आई थी कि उसके मरने के बाद बेटे बहु उसका तमाम बोरिया ¬बिस्तर बोरियों में भर कर ऑक्सफ़ैम या किसी और चैरिटी को दे आयेंगे. समय के अभाव में शायद उसका सामान वे कूड़ेदान में ही न फेंक दें.खैर, ये सोचकर क्या वह अपना अमूल्य समय व्यर्थ नहीं गंवा रही? उसे क्या लेना देना इस भौतिक सामान से किंतु किसी के काम आ जाए तो अच्छा ही है. भारत में कई परिवार इन चीजों से अपने बहुत से तीज त्योहार मना सकते हैं. ऑक्सफ़ैम वाले क्या समझेंगे भारतीय पहनावे को? वे इन्हें 'रीसाइकिलिंग' के लिए दाहित्र में ही न कहीं डाल दें.

पिछले दो वर्षों में ही माया ने दो मौतें देखीं थीं और दोनों ही मृतकों ने कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी. अभी अर्थी भी नहीं उठी थी कि बच्चों ने घर सिर पर उठा लिया. जिन मां बाप ने अपना जीवन अपने बच्चों पर न्योछावर कर दिया था, उनकी आत्मा की शांति के लिये प्रार्थना करने की बजाय उनके बच्चे उन्हें ही भला बुरा कह रहे थे. ख़ैर, उसे इस सब की परवाह नहीं है. उसने अपनी सारी जायदाद, गहने, शेयर इत्यादि बांट दिये हैं सिवा इन कपड़ों और कुछ पारिवारिक गहनों के और इन्हीं की वजह से वह कल रात भर ठीक से सो भी नहीं पाई थी. इन भौतिक चीजों में मृत्यु जैसी विशेष बात भी डूब के रह गई थी.

सुबह उठते ही नहा धो कर माया बैठ गई आईने के सामने. बिना मेक अप के चेहरा कैसा बेरंग लग रहा था, करेले सी झुर्रियां और अर्बी सा रंग. उसने कहीं पढ़ा था कि जिसने जीवन में बहुत दुख झेलें हों, केवल वही एक अच्छा विदूषक हो सकता है. ठंड की गुनगुनी धूप सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गई. किंतु ये झुर्रियों से भरा चेहरा मृत्यु के पश्चात कैसा लगेगा? जब लोग बक्से में रखे उसके पार्थिव शरीर के चारों ओर घूमकर श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे तो उन्हें कहीं मुंह न फेर लेना पड़े. माया को आकर्षक लगना चाहिये और ये मेकअप आर्टिस्ट पर निर्भर करेगा कि वह कैसी दिखाई दें. शायद और लोग भी इस बारे में चिंतित होते हों. हिम्मत करके उसने अंत्येष्टि निदेशक का नम्बर घुमाया.

'हेलो, हाउ मे आइ हेल्प यू?' मीठी आवाज में स्वागती ने पूछा.

माया ने झिझकते हुए पूछा, 'सौरी टु बौदर यू, आइ हैड बुक्ड ए कौफ़िन फ़ॉर माइसेल्फ दि अदर डे, आइ वंडर इफ़ समवन कुड टेक केयर ऑफ़ माई मेकअप एंड क्लोद्स आफ़टर आई एम डेड.'

'ऑफ़ कोर्स मैडम, यौर विश इज अवर कमांड.' स्वागती की वरदायनी अदा पर माया मुस्कराने लगी. उसने सोचा कि वह मेकअप आर्टिस्ट को अपना भरा पूरा वैनिटि केस ही दे देगी ताकि कई अन्य भारतीय महिला मृतकों का भी उद्धार हो जाए. गोरे गोरियों के रंग का मेकअप तो इन लोगों के पास होता है किंतु किसी भारतीय महिला ने शायद ही कभी ऐसी मांग की हो. उसे कहां फ़ुर्सत इस आडंबर की. उसे यकायक याद आई मीना कुमारी की, जो पूरी साज सज्जा के साथ दफ़नाई गई थी. चलो मेक अप और कपड़ों का तो बंदोबस्त हो गया. उसने सोचा कि क्यों न वह अपने बाल भी ट्रिम करवा ले? उसे अपने हेअरड्रैसर से भी विदा ले लेनी चाहिए. पिछले तीन दशकों में दोनों के बीच एक अच्छा समझौता हो गया है. वह जानता है कि कब उसके बालों को पर्म करना है, कब रंगना है या कब सिर्फ़ ट्रिम करना है. कभी माया उल्टी सीधी मांग कर भी बैठे तो वह साफ़ इन्कार कर देता है, 'नहीं, ये आप पर अच्छा नहीं लगेगा', या 'अपनी जरा उम्र तो देखो माया.' हालांकि माया को आज भी लगता है कि वह एक बार उसके बालों को किसी सुर्ख़ रंग में रंग दे.

माया झट से उठी और कार में बैठकर चल दी वैम्बली हाई रोड की ओर. अभी कार को उसने दाईं ओर मोड़ा ही था कि उसने सोचा कि पहले उसे अपने होंठ के ऊपर उग आए बालों को ब्लीच करवा लेना चाहिए. उसने एक खतरनाक यू टर्न मारा. यदि कोई पुलिस वाला देख लेता तो उसे अवश्य ही धर लेता. 'ऑन दि स्पौट फ़ाईन' अलग देना पड़ता. पर अब डर किस बात का और ये पैसा किस काम का? यकायक उसने निर्णय लिया कि चाहे कितने भी पाउंड लगें, वह रीजैंट स्ट्रीट पर स्थित सबसे मंहगे ब्यूटी पारलर में जाकर मसाज, ट्रिमिंग, भंवे, ब्लीचिंग और फ़ेशल आदि सब करवा लेगी.

'टी टूं टी टूं' का शोर मचाती एक एम्बुलैंस पास से गुजरी तो कार को धीमा करके माया एक तरफ़ हो गई. न जाने किसको दिल का दौरा पड़ा हो या दुर्घटना में घायल कोई दम तोड़ रहा हो. यदि समय पर डाक्टरी सहायता मिल जाए तो कई मौतों को बचाया जा सकता है पर ये तो सब नसीब की बातें है. एकाएक माया को ध्यान आया कि उसने अभी तक अपनी आंखें भी दान नहीं की थीं. आंखें ही क्यों, गुर्दे, फेफड़े, दिल आदि उसे अपने सभी अंग दान कर देने चाहिएं. साथ तो ये जाएंगे नहीं उसके. किसी के काम ही आ जाएं तो अच्छा है. किंतु उसके बूढ़े अंग भला किसके काम आएंगे? डाक्टरों को अनुसंधान के लिए भी तो मृत शरीरों की आवश्यकता पड़ती होगी. क्यों न वह अपना पूरा शरीर ही दान कर दे ताकि जिसे जो चाहिए, ले ले. बाकी के बचे खुचे टुकड़ों का कीमा बना कर खाद में डाले या . माया भी कभी कभी कैसी पागलों जैसी बातें सोचती है पर अस्पतालों से जो मनो अंग प्रत्यंग प्रतिदिन फेंके जाते हैं, वे कहां जाते होंगे? प्लास्टिक के थैलों से लेकर दही के ड़िब्बों तक माया कूड़े में कुछ नहीं फेंकती. जहां देखिए कचरा ही कचरा. लोगों को रीसाइक्लिंग की ओर ध्यान देना होगा नहीं तो ये विश्व अवश्य तबाह होकर रहेगा.

अस्पताल जाकर वह अपना समूचा शरीर दान तो कर आई किंतु मन में कई संदेह आते जाते रहे. एक दुर्घटना में माया के दादा की उंगली कट गई थी. उनकी मृत्यु के उपरांत, दादी ने विशेष तौर पर कृत्रिम उंगली लगवा कर उनका दाह संस्कार करवाया था. उनका विचार था कि यदि दादा को उनके सभी अंगों के साथ नहीं जलाया गया तो वह अगले जन्म में बिना उंगली के पैदा होंगे. हो सकता है, क्योंकि माया ने अपना पूरा शरीर दान कर दिया है, कि माया का जन्म ही न हो. वह यह भी मानतीं है कि हर जन्म में मनुष्य अपने को विकसित करता है और जब वह पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है, तब ही वह परमात्मा में विलीन होने में समर्थ होता है. माया को लगता है कि वह तो एक बच्चे से भी गई गुजरी हैं. बच्चे भी जब तब कहते रहते हैं, 'ममा, यू आर ए चाइल्ड' या 'ममा, यू शुड ग्रो अप नाओ.' वह कहां इस योग्य कि भगवान उसे अपने में लीन कर सकें. अभी तो वह सांसारिक भोगों में आकंठ डूबी है.

खुशबूदार मोमबत्तियों के मध्यम प्रकाश में तैरते भारतीय शास्त्रीय संगीत में डूबते उतरते उसके शरीर की मुलायम और सधे हाथों द्वारा मालिश ने उसे स्वर्ग में पहुंचा दिया. उसे लगा कि तन से मानो मनों मैल उतर गया हो. मन हवा से बातें कर रहा था. शायद संसार के ये छोटे छोटे सुख दुख ही स्वर्ग और नर्क हों. ब्यूटी पारलर से निकली तो पहली बार माया ने जाना कि लोग अपने ऊपर इतना पैसा क्यों ख़र्च करते हैं. वह सचमुच कितनी मूर्ख थी कि जीवन भर दांत से भींचकर पैसा ख़र्च करती रही. पैसा होते हुए भी ऐसे सुख का उपभोग नहीं कर पाईं. हालांकि उसकी बहुएं नियमित रूप से ब्यूटी पारलर और जिम्ज ज़ाती हैं. विधि तो उनसे भी चलने को कहती रहती थी. किंतु वह उसे सदा हंस कर ये जवाब देकर टाल देती थी, बूढी घोड़ी लाल लगाम.

आज वह बीसियों साल बाद गुनगुना उठीं, 'ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दर्द जाने कोए' पर कमजोरी के मारे आवाज ख़ींच नहीं पाईं और चुप हो गईं. सोचा कि घर जाकर कुछ रियाज क़रेगी और फिर गाने की कोशिश करेगी. अभी तो उसे जोरों की भूख लगी थी.

सामने ही क्रेजी हौर्स पब था, जो फ़िश एण्ड चिप्स के लिए मशहूर था. माया उसमें ही जाकर एक कोने में बैठ गई. किसी के फ्यूनरल से लौटी भीड़ शराब और सैंडविचेज में डूब उतर रही थी, 'फ़ार सच ए यंग फेलो, ही वाज एन एलीफैंट, माइ शोल्डर स्टिल हर्टस', एक लंबा चौड़ा गोरा युवक अपने कंधे दबाता बोला और उसके अन्य साथियों ने भी उसकी हां में हां मिलाई, 'ही डाइड ईटिंग, यू नो.'

माया ने सोचा कि अमेरिका में अर्थी उठाने वालों का क्या हाल होता होगा क्योंकि वहां तो हर तीसरा व्यक्ति मोटापे से ग्रस्त है. दो ही दिन बचे हैं खाने को. यदि वह दो दिन कुछ न भी खाए तो भला उसका कितना वजन कम हो जाएगा. बेचारी ने सलाद और संतरे के जूस का ही आर्डर दिया. जल्दी से खा पीकर वह सीधे जिम पहुंची कि यदि वह जम कर व्यायाम करे तो एक किलो वजन तो वह घटा ही सकती है. कम से कम उसके बेटे ये तो नहीं सोचेंगे कि ममा कितनी भारी थी, उनके कंधे तो नहीं दुखेंगे.

खाने से उसे यह भी याद आया कि जीजाजी की तेरहवीं के अवसर पर बनवाई गई कद्दु की सब्जी क़ो लोग आज भी याद करते हैं. पर बच्चों को तो ये भी नहीं पता होगा कि कद्दू क्या होता है. अपनी तेरहवीं का मेन्यु भी वह स्वयं ही बना के रख दे तो बच्चों का एक और सिरदर्द दूर हो जाए. कहीं उसके बच्चे भी ये न सोंचें कि मां को उन पर जरा भी विश्वास न था तभी तो सारे इंतजाम करके गईं पर उसे कहां बस था स्वयं पर. क्रिसमस के कार्डस तक तो वह अक्तूबर में लिख कर रख लेती है. अच्छा हुआ कि केवल दिन का ही नोटिस मिला अन्यथा मृत्यु की तैयारी में वह महीनों लगी रहती.

घर वापिस आकर उसने अपनी तसल्ली के लिए एक फ़ाईल खोल ही ली. पहले पन्ने पर अन्त्येष्टि निदेशक, उसकी सहायक और दो तीन जाने माने खान पान प्रबंधकों के नाम, पते, फ़ोन और उनके ईमेल आदि लिख दिए, अपनी एक टिप्पणी के साथ कि वे चाहें तो मौसा जी की तेरहवीं पर सपना केटरर द्वारा परोसा गया खाना ही दोबारा और्डर कर सकते हैं जो सभी को बहुत पसंद आया था. हां, यदि वे कुछ नया या आधुनिक आयोजन करना चाहें तो माया को कोई आपत्ति नहीं होगी.

आगुंतकों की भीड़ भाड़ में घर की सफ़ाई, चाय पानी के इंतजाम के लिए ममता का होना आवश्यक है. हालांकि माया की मृत्यु का समाचार सुन कर कहीं उसके हाथ पांव ही न छूट जाएं. बेटे का जीवन संवारने के लिए ममता रात दिन लोगों के घरों में सफ़ाई करती है. वह तो शायद कभी ये भी नहीं जान पाती होगी कि कब फूल खिले, कब पत्ते झड़े या कब बरसात हुई. 'नारायण, नारायण' जपती वह पोचे मारती है, 'नारायण, नारायण' करती वह बर्तन धोती है और 'नारायण, नारायण' करके उसने माया की नाक में दम कर रखा है. बर्फ़ में भी वह बिना मोजे पहने निकल पड़ती है घर से. दस्तानों की तो बात दूर है. अकड़े हाथों से न जाने कैसे काम करती है. ठंड के मारे उसके पैरों की बिवाइयों में ख़ून भी जम जाता है.

ममता एक भारतीय राजनयिक और उनके परिवार के साथ लंदन आई थी, जिन्हें कार्यवश जल्दी ही स्वदेश वापिस जाना पड़ा. वे उसे को दो वर्षों के लिए यहीं छोड़ ज़ाने को राजी हो गए थे कि यहां वह कुछ पैसा कमा लेगी. नारायण तुला है किसी भी कीमत पर मां के पास आने को और ममता दिन रात यही सोचकर डरती रहती है कि यदि उसकी मंशा किसी को भी पता लग गई तो गुंडे उसका न जाने क्या हश्र करें. नारायण का पासपोर्ट बन चुका है और मां के पास आने की बेचैनी में उसे लगता है कि मां जल्दी से टिकट क्यों नहीं भेज रही. भूखे प्यासे रह कर पैसा जोड़ने के सिवा वह और क्या कर सकती है. बच्चे कहां समझते हैं मां की मजबूरियां, उसकी बेबसी और उसकी चिंता.

बच्चे क्या जाने कि मृत्यु क्या होती है. उन्हें तो छोटी बड़ी हर चीज चाहिए. माया की पोती, रिया, जब केवल ढाई वर्ष की थी तो दादा की बेशकीमती घड़ी लेने की जिद कर रही थी. माया ने हंसी हंसी में कह दिया कि दादा जी के बाद ये सब उसी का तो ही है. रिया ने झट पूछा, 'दादी, वैन विल दादु डाई?’ माया सन्न रह गई थी. अरुण ने बच्ची को एक थप्पड़ मार दिया. रोती हुई रिया को उषा घसीट कर अपने शयनकक्ष में ले गई, क्रोध में ये कहती हुई, 'आर यू मैड, अरुण?’

रिया बच्ची थी और नहीं जानती थी कि उसे घड़ी तो अवश्य मिल जाएगी पर वह अपने प्यारे दादु को खो देगी. वैसे कितने ही लोग हर रोज अपने संबंधियों के मरने की राह देखते हैं. अभी हाल में ही केवल एक हजार डौलर्स के लिए दो पोतों ने मिल कर अपनी दादी की हत्या कर डाली. दहेज की वजह से बहुओं की हत्या का भी कारण यही लालच है. माया सोचती है कि अपने जीते जी ही बच्चों को सब दे देना चाहिए. किंतु हवस का तो कोई ठिकाना नहीं. जितना पैसा मां बाप दहेज में लगाते हैं, कितना अच्छा हो कि यदि वे अपनी बच्चियों की पढ़ाई लिखाई पर ख़र्च करें ताकि वे अपने पांव पर खड़ी हो सकें, उनके बुढ़ापे की लाठी बन सकें पर न जाने क्यों आज भी इसकी अपेक्षा तो बेटों से ही की जाती हैं.

दो बेटों के होते हुए भी आज माया कितनी अकेली है. हालांकि वे मां को अपने पास रखने को सहर्ष तैयार हैं, पर उनका मन किसी के साथ रहने को माने तब न. एक महक ही है जो बिना नागा फ़ोन पर उनका हाल चाल पूछती रहती है. जब मौका मिलता है, आ जाती है, उनके सिर में तेल मलती है, उनके नए पुराने कपड़े छांटती है और अब भी उनसे चिपट कर सोती है. महक और पीटर कभी कभी उसे जबरदस्ती सेंट एंड्रूज ले जाते है. किंतु वही बेटियों के घर में रहने खाने की बात उसे खटकती है. जबकि यहां सांसें दामादों के यहां रहती हैं. माया सोचती है कि वह स्वयं भी कितनी दोगली है कि एक तरफ़ जहां वह दर्शन और आदर्श बघारती है, दूसरी तरफ़ उन्हीं बातों के लिए दूसरों की निंदा करती है. जैसी भी है, माया अब तो बदलने से रही. बुराइयां किसमें नहीं होतीं, अच्छाइयां भी उसमें कम नहीं. कोई जरा माया से सहायता मांग तो ले, चाहे उसके पास समय या हिम्मत हो न हो, वह न नहीं कर सकती. उत्साह में तो वह ये भी भूल जाती है कि किसका काम है, क्या काम है, उसके पास समय होगा भी कि नहीं. पूरे जोर शोर से जुट जाती है. व्यवस्था का कोई भी पहलू मजाल है कि उसकी आंख से छुट जाए.

शवपेटिका की व्यवस्था माया कर ही चुकी थी. बच्चों पर छोड़ देती तो वे सबसे मंहगी लकड़ी क़ा सुनहरी कुडों से जड़ा बक्सा ही ख़रीदते. शव को कपड़े में लपेटकर भी काम चलाया जा सकता है. भारत में लोग कितने यूजर फ्रैंड़ली है. हर चीज क़ो रीसाईकल करते हैं. भाड़ ही में तो झोंकना है, पानी में पैसा बहा देने का क्या फ़ायदा. इससे तो वो पैसा किसी गरीब के काम आ जाए तो अच्छा हो. पर कौन देकर जाता है कुछ गरीबों को. कब से सोच रही है माया कि रॉयल स्कूल ऑफ़ ब्लाइंड की सहायता करने को पर बात है कि बस टलती चली जाती है. वह कल अवश्य जाएगी. हालांकि पिछले हफ्ते ही उसने कुछ धन हरे रामा हरे कृष्ण वालों को दिया था पर उस दान से उसे कुछ भी तृप्ति नहीं मिली थी. वह घंटों बैठी सोचती रही कि उन्हें कितना पैसा दान दे, सब कुछ उन्हीं को दे दे, या दे भी कि नहीं.

नब्बे प्रतिशत तो सुना है धन इकट्ठा करने वालों की जेब में चला जाता है. गोरे लोग कितना दान करते हैं. वे तो कभी नहीं सोचते कि पैसा कहां जा रहा है. जिनके मन में लालच हो, उन्हें तो बस कोई बहाना चाहिए. वह मन ही मन शर्मिंदा हो उठी. वास्तव में तो वह अधिक से अधिक धन बच्चों के नाम छोड़ना चाहती है. हालांकि वह जानती है कि उषा तो यही कहेगी, 'हमारे हिस्से में बस इतना ही आया, मम्मा वरुण और विधि को जरूर अलग से दे गईं होंगी.' विधि को कुछ भी दो वह यही कहती है, 'मम्मी जी पहले आप महक जीजी और भाभी से पसंद करवा लीजिए, हम बाद में ले लेंगे.' न जाने अरुण और उषा सदा यही क्यों सोचते हैं कि माया वरुण और विधि को ही अधिक चाहती हैं. कोई मां से पूछे कि उसे अपनी कौन सी आंख प्यारी है.

माया को लगता है कि जैसे जैसे व्यक्ति उम्र में बड़ा होता जाता है, अनासक्त होने के बजाय आसक्त होता जाता है. जहां विधि और महक को पैसे अथवा चीजों की जरा परवाह नहीं, वहीं उषा को और स्वयं उसे छोटी छोटी चीजों से लगाव है. उन्हें ये भी चिंता रहती है कि देने लेने से कौन कितना प्रसन्न होगा. अस्थाई और क्षणिक प्रसन्नता के लिए इतना आयोजन प्रयोजन और परम आनंद के लिए कुछ भी नहीं. किंतु आनंद भी तो इन्हीं रिश्तों से जुड़ा है. जहां जा रही है माया, वहां दुख सुख के मायने शायद दूसरे हों. शायद वहां दुख सुख हों ही नहीं. पिछले साल ॠषिकेष में वह दीपक चोपड़ा से मिली थी. आनंदा में वह अपने पच्चीस अनुयायियों के साथ ठहरे हुए थे. मृत्यु के विषय पर उनका एक व्याख्यान सुनकर माया को लगा कि जीवन मृत्यु जैसे पेचीदा विषयों को समझना कितना सरल था. 'फूल खिलते हैं, मुर्झा जाते हैं और फिर खिलते हैं. इस पृथ्वी पर जो भी जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है, पर उसका पुनर्जन्म भी उतना निश्चित है.' माया बस यही नहीं समझ पाती है कि ॠषि मुनियों की बातें उसके मस्तिष्क में टिक क्यों नहीं पातीं. क्योंकि शायद ये संसार है और यहां की हर चीज क्षणिक है, क्षणभंगुर है. किंतु प्रश्न ये उठता है कि मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच के समय में क्या होता होगा.

मृत्यु के उपरांत क्या होगा, इसका भय शायद दूसरों को अधिक होता हो. तभी तो इस वक्त माया को स्वयं कोई भय नहीं. जबकि पिछले दस बारह वर्षों में वह जब तब यही सोचती रही थी कि मृत्यु के बाद क्या होता होगा और ये भी कि क्या बेहतर है, मृतक को जलाना, जमीन के नीचे दबाना या चीलों को खिलाना. आबादी बढ़ती जा रही है, इतने सारे मृतकों को पृथ्वी कैसे और कब तक अपने में जज्ब कर पाएगी. स्वयं वह जलाने की पक्षधर रही है. चीलों द्वारा नोच खसोट मृतक का अपमान नहीं तो और क्या है. किंतु इस जाति की भावना तो देखिए, शायद ये ही लोग अन्ततोगत्वा 'परम पिता परमात्मा' में समा जाते हों. 'परम पिता परमात्मा' से उसे याद आई अपने पिता की जो सारा जीवन राम नाम की माला जपते रहे. हालांकि उनके क्रोध, आत्मरतिक, और मांसाहारी प्रवृति से परेशान उनका परिवार सदा यही सोचता रहा कि केवल 'परम पिता परमात्मा' ही उनकी रक्षा कर सकते थे और शायद उन्होने रक्षा की भी. नहीं तो ऐसी अच्छी मौत किसे नसीब होती है.

माया के पति हरीश की मृत्यु हुए पांच वर्ष होने को आए. उन्हें दफ्तर में दिल का दौरा पड़ा और एम्बुलैंस के आने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया. उनके शव को घंटों निहारती बैठी रही थी माया कि अब सांस आई कि तब. नर्सों के विश्वास दिलाने के बावजूद कि हरीश अब नहीं रहे, उसे लगता रहा कि उनके शरीर में उसने हरकत देखी. विवाहित जीवन के दौरान वे कभी अलग नहीं रहे. पढ़ाई, इम्तहान या दफ्तर के सिलसिले में जब भी हरीश को कहीं जाना पड़ा, वह माया को अपने ख़र्चे पर साथ लेकर गए. वह स्तब्ध थी कि बिना कुछ कहे वह उसे अकेले कैसे छोड़ क़े चले गए. अब क्या बचा था, केवल चौखट, दरवाजे, दीवारें और इन सबसे सिर मारती माया. अरुण और उषा तो पहले ही अलग घर बसा चुके थे. अठारह वर्ष की आयु में विवाह करके महक अपने पति, पीटर, के साथ स्काटलैंड में जा बसी थी और वरुण बर्मिंघम में पढ़ रहा था.

आस पडोस में भी किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि हरीश यूं चल बसेंगे. संबंधियों और पडोसियों ने मिल कर बारी लगा रखी थी. कोई न कोई हमेशा घर में बना रहता कि न जाने माया को कब और क्या आवश्यकता आन पड़े. हफ्तों तक परिवार के लिए ही नहीं, अपितु मेहमानों के लिए भी नियमित खाना पीना आता रहा, भजनों के नए नए सीडीज और कैसेट्स बजते रहे, दिये में घी डाला जाता रहा. एक सप्ताह के अंदर ही माया ने अपने दुख पर पूरी तरह काबू पा लिया था और घर परिवार अब उसके पूरे नियंत्रण में था.

नए काले क्रिस्प सूटों में बेटों, दामाद और पोते को देख माया फूली नहीं समा रही थी. विवाह की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर हरीश ने उसे हीरे के छोटे छोटे बुंदें और नेकलेस दिये थे, जो बहुओं द्वारा पहनाई उस मंहगी सफ़ेद साड़ी क़े साथ कुछ अधिक ही चमक रहे थे. बहुएं स्वयं लिपटी थीं काली साड़ियों में जिस पर चांदी के धागों का हल्का बौर्डर था. माया ने ही कहा था कि चाहे कितना भी बुरा अवसर क्यों न हो, सुहागनें काला कपड़ा नहीं पहनती.

घर में अवलोकनार्थ रखे हरीश के शव को देख महक का बेटा आर्यन बार बार हेलो दादु हेलो दादु पुकारे जा रहा था. आर्यन की हरीश से ख़ूब छनती थी. उनसे मिलने वह महीने में एक या दो बार लंदन से सेंट एंड्रूज ज़ाते थे. जब कभी आर्यन शरारत करता, वह उससे कुट्टी कर लिया करते और जहां उसने गाल फुलाए कि हुई दादु की अब्बा. वाए इज दादु नॉट टॉकिंग टु मी. उसकी आंखों में आंसू थे. 'ममा, टैल दादु आई एम नॉट नौटी एनी मोर.' माया कुछ न कह सकी. उसे गोदी में ले पीटर बाहर चला गया.

हरीश के फूलों को गंगा में विसर्जन करने के लिए पूरा परिवार हरिद्वार पहुंचा था. माया का भारी भरकम भाई पारस यदि उन सबको नहीं बचाता तो पंडितों की धक्का मुक्की में घिरे इस परिवार का राम नाम सत्य हो जाता. वरुण और विधि तो पहली बार भारत आए थे. उनकी 'एक्सक्यूज मी, एक्सक्यूज मी' भी किसी काम नहीं आई थी. माया ने सोचा कि हरीश की मृत्यु यदि भारत में होती और उनका क्रियाकर्म यहां करना पड़ता तो बच्चों के सब्र का बांध तो अवश्य टूट जाता. हरीश को यदि पिता का कपाल फोड़ना पड़ता तो न जाने क्या होता.

शायद समय आ गया था माया का वापिस संसार में लिप्त हो जाने का कि एक दिन उसकी पड़ोसन, जयश्री उसे जिद कर अपने साथ घसीट कर ले गई. ऐरे गैरे नत्थु ख़ैरे सभी बाबाओं के सतसंगों में जाती है जयश्री. माया को इन बाबाओं और माताओं पर कोई श्रद्धा नहीं किंतु इस बार वह जयश्री को टाल नहीं पाईं. एक बड़े नामी योगी लंदन आए हुए थे. भीड़ में बैठी हुई माया को इंगित करके जब बाबा ने पूछा, 'बेटी किसके शोक में डूबी है.' माया ने सोचा कि बाबा को उसकी रोती धोती शक्ल से ही पता लग गया होगा कि यह नमूना कुछ ज्यादा ही दुखी है, इसमें कौन सी बड़ी बात थी. शायद माया के विधवा होने की बात उन्हें जयश्री ने बताई हो. ख़ैर, जब बाबा मन की बात जानते हैं तो वह माया का कष्ट भी जान ही गए होंगे. जयश्री उसे पकड़ क़र बाबा के ठीक आगे ले गई, बाबा, इसका हजबेंड ऑफ़ थेई गया छे, कोई नई साथे वात करती न थी अने कोई ने मलती न थी. जयश्री के हजबेंड ऑफ़ थेई गया छे, पर माया को हंसी आ गई और बाबा भी मुस्करा पड़े और जयश्री प्रसन्न थी कि माया के कारण, उसे बाबा के नजदीक जाने की मौका मिल गया था.

'अपनी हानि को तो बेटी सभी रोते हैं, कभी उनकी भी सोचो जो प्रभु के पास हैं, उनके लाभ में भी तुम्हें प्रसन्न होना चाहिए.' माया को लगा कि सचमुच वह कितनी स्वार्थी थी कि उसने हरीश के विषय में तो कभी सोचा ही नहीं. जब तक बाबा लंदन में रुके, माया नियमित रूप से उनके पास योगासन सीखने जाती रही. किंतु उसके बाद न तो बाबा ने कुछ कहा, न ही माया ने कुछ पूछा. उसके दिल में एक सुकून व्याप्त हो गया था जैसे हरीश फिर उसके साथ थे.

शादी की हर वर्षगांठ पर हरीश मोगरे के फूलों के हार और गजरे माया के लिए विशेष तौर पर बनवाते थे. माया ने सोचा कि यदि हरीश जीवित होते तो उसकी शव पेटिका को मोगरे के फूलों से लाद देते. सगे संबंधी गुलदस्ते लेकर आएंगे. नहीं होंगे तो बस उनके भिजवाए मोगरे के फूल. कितनी अधूरी और फीकी लगेगी माया की शवयात्रा. शायद हरीश उसकी इंतजार में हों. वह हुलस उठी. पर क्या करे. कोई हलक में उंगली डाल कर तो आत्महत्या नहीं कर लेता. कर भी ले तो जो थोड़ा बहुत उनसे मिलने का मौका है, माया कहीं वो भी न गंवा दे. हालांकि हरीश स्वयं एक जाने माने वकील थे, वह उसे 'मी लौड' कहकर पुकारते थे क्योंकि बाल की खाल उतारने की आदी थी माया. हरीश की याद उसे कभी कभी दीवाना बना देती है. दिल है कि संभलता ही नहीं, 'याद आये वो यूं जैसे, दुखती पांव बिवाई जी.'

मां बचपन में माया को हरीशचंद्र तारामति के अमर प्रेम की कहानी सुनाती थी. वही तारामति जो अपने पति को यमराज से भी छुड़ा लाई थी. माया ने हाल ही में बी बी सी पर एक फ़िल्म देखी थी जो एक ऐसी बीमारी के विषय में थी जिसमें रोगी बिल्कुल मृत दिखाई पड़ता है. डाक्टरों को भी उसमें जीवन का कोई लक्षण नहीं दिखाई देता और जीते जी उसे मुर्दाघर में डाल जाता है. एक ऐसी ही महिला अब सोने से भी डरती है कि कहीं फिर न उसे मृत समझ के मुर्दाघर में डाल दिया जाए. माया को लगा की सत्यवान के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा होगा. तारामति को पूर्ण विश्वास होगा तभी तो वह पति के शव को गोदी में लेकर बैठी रही. जो भी हो, माया का प्रेम अमर है और हरीश आज भी उसके साथ हैं. इस विचार मात्र से वह सिहर उठी. मृत्यु के पश्चात वह उनसे अवश्य मिलेगी. वह इंतजार कर रहे हैं उसका उस पार. 'याद आये वो यूं जैसे, दुखती पांव बिवाई जी.'

भाव विह्यल माया ने अन्त्येष्टि निदेशक को पत्र लिखकर उसे मोगरे के फूलों के छल्ले पर 'स्वागतम माया, सस्नेह हरीश' लिखवाने की व्यवस्था करने को कह दिया. यह बात भला वह किससे कहती, कहती तो लोग समझते कि उसका सिर फिर गया है. कोई मृत व्यक्ति भी फूल भिजवाता है किसी को? पर कितना मजा आएगा जब लोग मोगरे के फूलों के साथ हरीश का नाम देखेंगे, अंतिम बार दोनों का नाम एक साथ. वह रोमांचित हो उठी और ये सोच कर कि 'वैन इन रोम, बी रोमन्ज' उसने एक मरसेडीज भी बुक करवा दी. विदेशों में विवाह के अवसर पर अथवा शवयात्रा में काली रॉल्सरौयज बुलवाना पौश समझा जाता है.. हरीश होते तो मरसेडीजों की कतार खड़ी होती. माया की अर्थी भी शान से उठनी चाहिए. बच्चों को भी अच्छा लगेगा. काली लंबी रॉल्सरौयज पर मोगरे के फूल कितने भव्य दिखेंगे. गली कूचों में लोग ठिठक के रुक जाएंगे और सराहेंगे इस शवयात्रा को.

मृत्यु का भय नहीं सता रहा माया को. जो होना है, सो तो होकर ही रहेगा. नरक, स्वर्ग, पुनर्जन्म या 'कुछ नहीं'. 'कुछ नहीं' के सांप को तो वह मन में ही दबाती रहती है और शायद उनकी अपनी बीन पर ही, फन उठाए यह भय जब तब लहराने लगता है. लोगों को उसने कहते सुना है कि कहीं आत्मा ख़ालीपन में भटकती न रहे. भला ये भी कोई बात हुई. देवग्रंथों के अनुसार आत्मा को न तो कोई मार सकता है, न ही कोई दुख पहुंचा सकता है. तो फिर काहे का डर. डर तो बस माया को है पुनर्जन्म से, वही पढ़ाई लिखाई, विवाह, बच्चे, और फिर से मृत्यु. पर क्या पता उसे अगली योनि मनुष्य की मिले या न मिले. जिस रूप में भी पैदा हो बस भगवान मनुष्य जन्म की याद भुला दें. क्या जाने कीड़े मकौड़े और जानवरों को याद रहता हो अपना पिछला जन्म. शायद इसी का नाम नरक हो, कर्मों का फल. माया को लगता है कि उन्हें अपने पिछले जन्म की कुछ कुछ याद है. वैसे तो मनुष्य का मस्तिष्क न जाने क्या क्या खेल दिखाता है किंतु यदि यह बात सच है तो दो बार वह मनुष्य योनि में जन्म ले चुकी है और अब मनुष्य योनि का संयोग कम ही है. ख़ैर, जो भी होगा, देखा जाएगा, अभी से परेशान होने का क्या फ़ायदा. इस आखिरि वक्त में भजन गाने से तो भगवान प्रसन्न होने से रहे. तैयारी भी करे तो क्या और कैसी?

जब भी माया किसी यात्रा पर निकलती हैं, ढेर सी तैयारी करके चलती है. हर तरह की बीमारी की दवाएं, गरम पानी की बोतलें, ड़िब्बे का खाना, अचार मुरब्बे, माचिस, चाकू, स्क्रू ड्राइवर, असमय की ठंड के लिए गरम कपड़े, क़ंबल, ब्रांडी, अतिरिक्त पेट्रोल का कनस्तर और न जाने क्या क्या. जब वह लौटती है सारे सामान के साथ लदी फदी, तो बच्चे हंसते हैं , 'ड़िडन्ट वी टैल यू टु ट्रैवल लाइट.' पर किसी चीज क़ी जरूरत पड़ ज़ाती तो माया को किसी का मुंह तो नहीं ताकना पड़ता. अब चाहे अंगारों पर चलना पड़े या बर्फ़ पर, इस यात्रा पर उसे ख़ाली हाथ ही निकलना है. काश कि उसने 'ट्रैवल लाइट' की आदत डाल ली होती तो आज उसे इस बेचैनी से दो चार न होना पड़ता.

समय की पाबंद, माया बिल्कुल तैयार बैठी है. जैसे बस और इंतजार नहीं कर पायेगी. क्यूं कर लोग समय का पालन नहीं करते. पर मृत्यु को दोष नहीं दिया जा सकता और न ही डाक्टरों को. कोई समय तो तय नहीं किया गया था. पहली बार उसके दिमाग में ये बात आई कि डाक्टर गलत भी तो हो सकता है. थोड़ी सी आशा बंधी किंतु जीवन की नन्हीं सी किरण भी उसे अधिक उत्तेजित न कर पाई. डाक्टर ने कह दिया, माया ने सुन लिया और चुपचाप चली आई. एक प्रश्न तक नहीं पूछा. डाक्टर ने उससे कोई सहानुभूति भी नहीं प्रकट की. यहां तो टर्मिनली इल रोगियों को विशेष परामर्श की सुविधा दी जाती है. एक जमाना था जब रोगियों को बुरे समाचार से वंचित रखा जाता था किंतु अब तो विशेषज्ञों का मत है कि रोगी और उसके संबंधियों को सीधे सीधे बता देना उचित है.

काश कि माया बिजली के बटन की तरह जीवन का स्विच खट से बंद कर पाती क्योंकि वह सचमुच तैयार है शरीर त्यागने को. बेकार बैठी है और उसकी ऊर्जा व्यर्थ जा रही है. शायद उसे इसकी आवश्यकता पड़े मृत्यु के उपरांत. पर उसके बस में कुछ नहीं है.

मनुष्य के बस में कुछ भी नहीं है. माया सोचती है कि आंधी तूफ़ान और भूचाल आदि के माध्यम से प्रकृति जब तब अपने प्राणियों की संख्या नियंत्रित करती रहती है, जिसे भगवान का कोप समझ कर झेलते रहते हैं पृथ्वीवासी. जो समझ से परे हो, उसे भगवान का नाम दें या किसी बुद्धिमान अभिकल्पक (intelligent designer) का, क्योंकि जगत की संरचना के पीछे एक प्रतिशत संदेह तो बना ही हुआ है. इसी विषय को लेकर अमेरिका जैसे विकासशील देश में आज भी लोगों के बीच छुट पुट घटनाएं सुनने में आती हैं, जिनमें कोई डार्विन के विकासवादी सिद्धांत को कोसता है तो कोई विज्ञान को. माया के पल्ले जब कुछ नहीं पड़ता तो वह गाने लगती है, 'कोई तो बता दे जल नीर कि सिया प्यासी है. ये प्यास जीते जी तो बुझने से रही. शायद मर के ही मिलना हो उस बुद्धिमान अभिकल्पक से. किसी से मिलेगी अवश्य माया और हरीश का पता ठिकाना भी मालूम करके रहेगी.

श्राद्धों में माया की दादी स्वर्गीय दादा और परिवार के अन्य मृतकों की शांति के लिए पंड़ितो को दान देतीं और भोजन कराती थीं. पिता की बात याद कर माया मुस्करा अनायास उठी. जब भी मां श्राद्ध के भोजन का प्रबंध करतीं, वह कहते कि उनके पिता और दादा की आत्मा को शांति पहुंचानी है तो कोफ्ते पकाओ, मुर्ग मुसल्लम बनवाओ. पति की मृत्यु के उपरांत, मां, जो अपनी सास को दकियानूसी करार देतीं आयी थीं, स्वयं अंधविद्यालयों में कंबल और भोजन आदि बांटने लगीं ये कहकर कि उनकी आत्मा को शांति मिले न मिले, किसी गरीब का कल्याण तो हो ही जाएगा. जब शरीर ही नहीं रहा तो कैसी शांति और कैसा क्लांत, पर वही बात कि दिल को समझाने को गालिब ख़याल अच्छा है. हालांकि पंडितों को जजमानों की क्या कमी, बहुत से बेवकूफ़ हैं दुनिया में, यहां लंदन में भी. हरीश की प्रत्येक बरसी पर माया स्वयं पूजा करवाती है, अंधविद्यालयों और अन्य संस्थाओं को दान देती है. जहां तक हरीश का प्रश्न है, वह कोई ख़तरा नहीं उठाना चाहती. क्या पता किस दान से और क्यूंकर पति को चैन मिल जाए. अगर ये सब करने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तो भी पैसा किसी अच्छे काम में ही तो लगा. पूजा पाठ एवं दान करने का शायद यही औचित्य हो.

बनारस से लायी हुई गंगाजल की बोतल को माया ने अपने सिरहाने रख लिया है. डायरी में उसने झटपट एक और टिप्पणी जोड़ दी कि यदि किसी कारणवश वह स्वयं गंगाजल नहीं पी पाए तो जो भी उसे मरणोपरांत देखे, उसके मुंह में गंगाजल की कुछ बूंदे टपका दे. और हां ये भी कि उसकी अस्थियां गंगा की बजाय रिवर थेम्स में भी डाली जा सकतीं हैं. एक कहावत है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा. फिर भी, अंदर या बाहर, गंगा तो उसके संग होगी ही.

बरसों पहले किसी वैज्ञानिक ने विष का स्वाद जानने के लिए अपने ऊपर एक प्रयोग किया था. जीभ पर जहर रखते ही वह मर गया और उसका प्रयोग सफ़ल नहीं हो पाया. माया ने सोचा कि यदि सभी मरणासन्न लोग कोई एक प्रयोग करके मरें, तो शायद कई गुत्थियां सुलझ जाएं. जैसे कि वह जानना चाहती है कि मरते समय व्यक्ति को कैसा अनुभव होता है. शांति का या अशांति का. उसने निर्णय लिया कि वह अपनी तर्जनी पर लाल रंग यानि अशांति और बीच की उंगली पर हरा रंग यानि कि शांति का रंग लगा के इंतजार करेगी मरने का. पलंग पर एक नोट लिख कर छोड़ ज़ाएगी बच्चों के लिए कि चादर पर जो भी रंग रगड़ा हुआ मिले, उसके प्रयोग का निष्कर्ष वही होगा. मन में ढेरों दुविधाएं उठीं किंतु माया ने उन्हें एक ही वार में दबा दिया कि प्रयत्न करने में क्या जाता है. इस विषय पर शायद उसे किसी की सहायता की आवश्यकता पड़े. पारस होता तो वे दोनों बैठकर इस प्रयोग की बारीकियों में उतरते किंतु इस बारे में सोच कर माया और समय व्यर्थ नहीं करना चाहती.

माया की नजर फिर पर्दों पर जा ठहरी. घर के धुले पर्दों में मजा नहीं आता. ड्राईक्लीनर्स के धुले और भारी इस्त्री किए पर्दे गंदे भी कम होते हैं. ममता इस शनिवार को आए कि न आए. पिछले हफ्ते ही वह बता रही थी कि नारायण ने जब गिरोह के सरदार से मां के पास जाने की अनुमति मांगी तो उसने न केवल साफ़ मना कर दिया, परंतु उसे जान से मार देने की धमकी भी दे डाली. माया ने सोचा कि शाम को फ़ोन करके ममता को बुला लेगी और पैसे देकर कहेगी कि जाके अपने बेटे को छुड़ा ले. कितनी ख़ुश हो जाएगी ममता अपने इस निर्णय पर माया सचमुच बेहद प्रसन्न थी.

माया पर्दे उतारने को अभी स्टूल पर चढ़ी ही थी कि घंटी बजी. इस समय कौन हो सकता है उसने तो किसी को बुलाया नहीं था. कहीं वह किसी को बुलाकर भूल न गईं हो. दरवाजा खोला तो देखा बाहर ममता खड़ी थी.

'तू हजार बरस जिएगी ममता, अभी मैं तुझे ही याद कर रही थी.' वह चहकती हुई बोली.

'मैडम जी, वो नारायण है न, वो' बदहवासी में वह ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी.

'हां हां , क्या हुआ उसे.'

'उसका एक्सीडैंट , माया यदि उसे संभाल न लेती तो ममता वहीं ढेर हो जाती. आंसू थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे और हिचकियों के मारे उसका बोलना मुहाल था. उसके आधे अधूरे वाक्यों से माया इस नतीजे पर पहुंची कि नारायण के साथ हुए इस हादसे के पीछे उन गुंडों का ही हाथ है. कहीं से उन्हें पता चल गया था कि वह चुपचाप लंदन जा रहा है कि बस, उन्होंने उसे कार के नीचे कुचलने की कोशिश की और फिर अस्पताल में आकर उसे धमकी दी कि इस बार तो टांगे ही तोड़ी हैं, अगली बार वे उसे जान से मरवा सकते हैं. माया ने ममता के हाथ से निचुड़ा पुचड़ा कागज लिया जिस पर उसके भाई सर्वेश का नम्बर लिखा हुआ था. नम्बर मिलाया तो सर्वेश ने भी वही सब दोहरा दिया जो ममता बता रही थी, इस अनुरोध के साथ कि, मैडम, आप तो जी बस बहन को प्लेन में बैठा दें, नारायण की हालत ठीक नहीं है मैडम जी. वह भी बहुत घबराया हुआ लग रहा था जैसे कि उसकी अपनी जान पर बनी हो. भाई से बात करके तो ममता के सब्र का बांध मानो टूट ही गया.

'अब मैं जी कर क्या करूंगी, मैडम, मैं उसी के तो लिए इकट्ठा कर रही थी पैसा. इससे तो मैं उसके साथ ही जीती मरती, अब इस पैसे क्या फ़ायदा., कहकर उसने अपनी सारी जमा पूंजी माया के कदमों में डाल दी. माया ने उसे सीने से लगा के तसल्ली देनी चाही किंतु वह तो यूं रोए चली जा रही थी जैसे दुनिया में उसका कुछ न बचा हो.

माया ने झटपट अपने ट्रैवल एजैंट को फ़ोन किया और जब वह ममता के लिए टिकट आरक्षित करवा रही थी तो उसने सोचा क्यों न उसके साथ वह स्वयं भी पटना चली जाए. पटना जैसी जगह में किसी को पटाना होगा, किसी से पटना होगा, किसी को मनाना होगा तो किसी को हटाना होगा. ममता अभी इस हालत में नहीं है कि नारायण की कोई मदद कर सके. कहीं इन गुंडों के चक्कर में आकर वह न केवल अपना मेहनत से कमाया सारा धन ही न गंवा दे, बल्कि अपनी जान से भी हाथ धो बैठे. ऐसे समय में धैर्य, नियंत्रण और कूटनीति से काम लेना होगा. सीधी सादी ममता को तो शायद इन शब्दों का अर्थ भी नहीं पता होगा.

ममता ने जब सुना कि मैडम उसके साथ पटना चल रहीं हैं तो उसके चेहरे पर आश्चर्य, कुतूहल और अनुग्रह के भावों की छटा बस देखते ही बनती थी. स्पष्टतः माया के दिमाग में एक योजना बन रही थी. ममता को रसोई में व्यस्त करके वह स्वयं कम्प्यूटर खोल कर बैठ गई. उसने वेबसाइट्स पर एक पांच सितारा होटल में दो कमरे, एक बड़ी ज़ीप और ड्राईवर का इंतजाम कर लिया. फ़ोन पर पारस को उसने एक अच्छे वकील और सुरक्षा संबंधित प्रहरियों का प्रबंध करने की हिदायत भी दे दी, जो इन्हें एअरपोर्ट पर उतरते ही मिल जाएं ताकि बिना समय गंवाए रास्ते में ही बात की जा सके. माया ने सोचा कि अच्छा हुआ कि बच्चे यहां नहीं हैं. वे उसे कभी ये जोखिम नहीं उठाने देते. पारस को भी रहस्यपूर्ण कारनामों में दिलचस्पी है इसीलिए उसने अधिक चूं चपड़ नहीं की. पटना के नाम पर वह हिचका अवश्य था किंतु जब माया ने कहा, 'मैं पटना जा ही रहीं हूं, कोई प्रश्न नहीं पूछना.' उसके पास कोई चारा नहीं था सिवाय माया के कथनानुसार प्रबंध करने के. वह बोला, 'ठीक है मैं भी पटना आ रहा हूं और तुम भी अब कोई प्रश्न नहीं पूछना.'

माया चिंतित थी कि दो महिलाएं गुंडों के गिरोह का सामना कैसे कर पाएंगी. किंतु पारस के आ मिलने से वह आश्वस्त हो गई. बचपन में इस जोड़ी ने परिवार की नाक में दम कर रखा था. एक बार दोनों ने आटा फ़र्श पर बिछा कर पांव के निशान से चोर पकड़ क़े मां के सम्मुख खड़ा कर दिया था. हां, यह अलग बात थी कि मां को पता था कि चोर घर का नौकर ही था, जो रात को छिप छिप कर मिठाई खाता था और शक इन दोनों पर किया जाता था.

'शर्लौक होम्स', 'मर्डर शी रोट' और 'कोलंबो' जैसे रहस्यपूर्ण टी वी धारावाहिकों की दीवानी माया को जीवन में पहली बार जोखिम उठाने का मौका मिला है, जिसे वह आसानी से नहीं गंवाने वाली. कहां वह मृत्यु से उबर नहीं पा रही थी और कहां अब उसे कुछ याद न था सिवाय इसके कि नारायण को कैसे बचाया जा सकता है. पटना और पटना के गुंडों से निडर वह सुबह की फ्लाइट का इंतजार कर रही है, ममता से अधिक बेचैनी उसे है. सख्त पहरे में वह नारायण को दिल्ली ले जाएगी और जब वह ठीक हो जाएगा तो पारस की फैक्टरी में ही कोई काम पर लग जाएगा.

कहां ममता आत्महत्या करने की सोच रही थी और कहां अब उसे विश्वास हो चला था कि नारायण की बाल मजदूरी के दिन अब पूरे हो गए थे. कर्मठ ममता को काम की भला क्या कमी. वैसे भी जब तक माया जीवित है, तब तक तो ममता उसके साथ रहेगी.

तीन दिन में मृत्यु वाला सपना इतना सजीव था कि माया अपनी मृत्यु के लिए पूरी तरह तैयार थी. किंतु इस वास्तविक घटना ने उसे पूरी तरह जिला दिया था. वह कितनी भाग्यशाली है कि जीवन के उद्देश्य के साथ साथ, उसे दिशा भी मिल गई. उसके शरीर का रोम रोम स्पंदित है और अंग प्रत्यंग फड़क़ रहा है. उसे लगा कि इतनी जिंदा तो वह जीवन में पहले कभी नहीं रही.

------------

वागर्थ के अप्रैल अंक में पूर्व प्रकाशित

------------.

संपर्क:

Ms Divya Mathur

83-A Deacon Road, London NW2 5NN

E-mail : divyamathur@aol.com

COMMENTS

BLOGGER: 1
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: दिव्या माथुर की कहानी : अंतिम तीन दिन
दिव्या माथुर की कहानी : अंतिम तीन दिन
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2008/01/blog-post_03.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2008/01/blog-post_03.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content