वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख : पत्रकारिता का अंदरूनी जनतंत्र और महिलाओं की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भागीदारी

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(डॉ 0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव) लोकतंत्र का चतुर्थ स्‍तम्‍भ पत्रकारिता को माना जाता है। वास्‍तव में देखा जाय तो पत्रकारिता ने लोकतंत्र की ...

(डॉ0 वीरेन्‍द्र सिंह यादव)

लोकतंत्र का चतुर्थ स्‍तम्‍भ पत्रकारिता को माना जाता है। वास्‍तव में देखा जाय तो पत्रकारिता ने लोकतंत्र की परिभाषा को नया आयाम दिया है। पिछले दो-तीन दशकों से पत्रकारिता के स्‍वरूप एवं संरचना में आये परिवर्तन के आधार पर कहा जा सकता है कि इसने अपनी उपस्‍थिति हर जगह सशक्‍त रूप में दर्ज करा रखी है। वर्तमान उत्‍तर आधुनिक समय में हमारा देश संचारक्रांति, उपभोक्‍तावाद, भूमण्‍डलीकरण के परिणाम स्‍वरूप अकल्‍पनीय रूप से बदल चुका है।1 आज समाज की मान्‍यताओं में भारी उथल-पुथल हो रहा है उसमें विराट परिवर्तन दिन प्रतिदिन होते दिखाई दे रहे हैं। ऐसी स्‍थिति में निःसन्‍देह जीवन मूल्‍यों के प्रति इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका विश्‍ोष रूप से बढ़ जाती है।

सच्‍चाई यह है कि वर्तमान पत्रकारिता के नये तेवरों ने (स्‍टिंग आपरेशन जैसे प्रकरणों ने) पत्रकारिता को दो पीढ़ियों में विभाजित करने का खतरा उत्‍पन्‍न कर दिया है। एक ओर पुरानी पीढ़ी के परम्‍परागत पत्रकार देखने को मिलते है तो दूसरी ओर नई पीढ़ी के उत्‍साही खोजी खबरनसीबी अंग्रेजों के अधीन भारत में दो किस्‍म की पत्र-पत्रिकाएं होती थीं। एक वे जो पत्रकारिता को मिशन मानकर आजादी के लिए अपने-अपने ढ़ंग से संघर्ष करती थीं और दूसरी वे जो आज शासकों को खुश करने का काम करती थी और कुछ न इधर थीं, न उधर!2 जवाहर लाल नेहरू के देहावसान के बाद एक युग का अन्‍त हुआ तो राजनैतिक मूल्‍यों और आदर्शों का अध्‍याय भी समाप्‍त हो गया। निरपेक्ष रूप से देखें तो समाचार माध्‍यमों की भूमिका और सार्थकता का सीधा सम्‍बंध उनके सरोकारों और विषयवस्‍तु से है। कुछ वर्ष पहले तक मीडिया समाज में पहरेदार की भूमिका से जोड़े जाते थे। इसी कारण समाचार माध्‍यमों को समाज में प्रतिष्‍ठा और सम्‍मान का पात्र समझा जाता रहा है।3 उम्‍मीद की जा रही है कि इनके संचालन और सरोकार बाजार की विवशताओं और होड़ तथा उपभोक्‍ता वर्गों तक पहुँच को लेकर नहीं चलेगें बल्‍कि समाज के बेहतर उद्देश्‍यों के प्रति भी जागरूक रहेंगें। लेकिन आज वे समाज के नहीं बल्‍कि बाजार के नियामक (आवाज) बन गये हैं। आज समाचार माध्‍यमों का प्रचलन नई परिभाषाओं , नये मूल्‍यों, नई प्राथमिकताओं से प्रेरित हो रहा है। अनैतिकता एवं भ्रष्‍टाचार के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई नेताओं के बैडरूम तक चली गई है और एक बार शुरूआत हो जाये तो फिर वह कहाँ रूकेगी, यह कौन बता सकता है ?4

यह सही है कि भ्रष्‍टाचार और विश्‍ोष रूप से उच्‍च पदस्‍थ लोगों के भ्रष्‍टाचार को बेनकाब करने के लिए जो कुछ सम्‍भव हो किया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा करने के लिए इस उक्‍ति में पत्रकारिता को भी शामिल नहीं किया जाना चाहिए कि ‘‘प्रेम और युद्ध में सब जायज है।'' प्रेम और युद्ध में सब कुछ जायज हो सकता है, लेकिन पत्रकारिता में सब कुछ जायज किया जायेगा तो कठिनाइयाँ बढ़ जायेंगी। दुर्भाग्‍य से पिछले कुछ समय से हमारे देश में ऐसी ही पत्रकारिता कमजोर है। खासकर तहलका प्रकरण आने के बाद िस्‍ंटग आपरेशन के नाम पर ऐसी पत्रकारिता अधिक हो रही है जिसमें साधनों की पवित्रता की कोई परवाह नहीं है।5

पत्रकारिता और महिलाओं की स्‍थिति पर जब हम बात करते हैं तो आज महिलाएं पत्रकारिता में हर जगह अपनी सशक्‍त उपस्‍थिति दर्ज करा रही हैं। इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के क्षेत्र में आज जिस तरह महिलाओं की सशक्‍त भूमिका दिखाई पड़ रही है उसने संचार क्रांति को एक नया आयाम प्रदान किया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में तेजी से बढ़ रही महिलाओं ने इस क्षेत्र में न केवल प्रतिस्‍पर्धा को जन्‍म दिया है, अपितु इस व्‍यवस्‍था को और अधिक पारदर्शी बनाने का काम किया है। पुराने दौर की परम्‍परा से आगे निकलकर अब महिला पत्रकारों ने भी प्रिंटमीडिया और इलेक्‍ट्रॉनिक दोनों ही के क्षेत्रों में स्‍त्री शक्‍ति की सशक्‍त उपस्‍थिति देखी जा सकती है।6 एक दौर था जब लड़कियों को पत्रकारिता अथवा फील्‍ड वर्किंग प्रोफेशन में जाना सख्‍त मना था लेकिन पिछले दो-तीन दशकों के वैश्‍विक आंकड़ों ने महिला पत्रकारिता की तस्वीर बदल कर रख दी है।

पत्रकारिता के इस क्षेत्र में कुछ बातें पत्र-पत्रिकाओं के अंदरूनी जनतंत्र और मानवाधिकारों की स्‍थिति के बारे में माना जाता है कि पत्रकारिता में अच्‍छी खासी संख्‍या में महिलाओं की उपस्‍थिति होने के बाबजूद भी लिंग आधारित भेदभाव आज भी देखने को मिलता है। भले ही भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 14 में लैंगिक समानता का प्रावधान किया गया था‘ 7 किन्‍तु व्‍यवहार में लैंगिक समानता न आ सकी। स्‍त्री एक मात्र ऐसी जाति बनी रही जो पिछले कई हजार वर्षों से पराधीन बनी हुई है।8 भारतीय सामाजिक व्‍यवस्‍था में एक ही परिवार और परिवेश में स्‍त्रियों को अपने साथी पुरूषों की अपेक्षा कई अभाव और वंचनाएं भोगनी पड़ती हैं।''9 पत्रकारिता के क्षेत्र में भी भले ऊपरी तौर पर संवैधानिक रूप से भेदभाव न देखने को मिलता हो लेकिन व्‍यवहार में महिलाएं काम और वेतन दोनों के मामलों में आज भी भेदभाव का शिकार हो रही हैं हॉलांकि ‘‘इस स्‍थिति से निपटने के लिए कुछ समय पहले हरियाणा के मानेसर में सम्‍पन्‍न इण्‍टरनेशनल फेडरेशन अॉफ जर्नलिस्‍ट के एक सम्‍मेलन में महिला पत्रकारों के लिए एक जेंडर कांउसिल गठित करने का निर्णय लिया गया। इस निर्णय में पत्रकार संगठनों की अहम भूमिका रही। लेकिन यह कांउसिल कितना और कैसे काम करता है, यह अभी तक स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया है।''10

हैरत की बात यह है कि इण्‍टरनेशनल वूमंस मीडिया फाउन्‍डेशन द्वारा 2001 में कराये गये एक अध्‍ययन के अनुसार मीडिया में कार्यरत महिलाओं का हिस्‍सा विश्‍व में 41 प्रतिशत है। लेकिन यूनेस्‍को के एन अनफिनिस्‍ड स्‍टोरी ः जेंडर पैटर्न इन मीडिया एंप्‍लॉयमेंट नामक प्रकाशन के अनुसार एशिया में यह घटकर महज 21 प्रतिशत रह जाता है।11 भारत में स्‍थिति और भी दयनीय है। भारत में यह स्‍थिति महज 12 प्रतिशत पर ही सिमटी हुई है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भारतीय मीडिया में मात्र 12 प्रतिशत महिलाएं ही कार्यरत हैं। जब हम कार्य विभाजन एवं पदों के विभाजन पर चर्चा करते हैं तो इण्‍टरनेशनल वूमंस मीडिया फाउन्‍डेशन द्वारा महिला पत्रकारों के बीच कराए गये एक सर्वेक्षण में एशिया से भाग लेने वाली 72 प्रतिशत प्रतिभागियों ने कहा कि उनकी कम्‍पनी में दस निर्णय लेने वाले शीर्ष व्‍यक्‍तियों में एक भी महिला नहीं है। इस तथ्‍य के पीछे पुरूष एकाधिकार के परिणाम गोपनीय नहीं हैं बल्‍कि अनेक सदाशयता के बाबजूद प्रत्‍यक्ष-परोक्ष रूप से प्रकाशन संस्‍थाओं की मीडियानीति में व्‍याप्‍त पुरूषवादी दृष्‍टि खुलकर सामने आती रहती है।12 कुछ उदाहरणों से इसकी तस्वीर स्‍पष्‍ट करने की मैं कोशिश करना चाहूँगा, लगभग दो दशक पुराना पटना का वॉबीफांड हो या रॉची का सुषमा कुजूर कांड, मिस जम्‍मू प्रकरण हो अथवा श्रीनगर सैक्‍स स्‍कैंडल, बलात्‍कार का कोई भी मामला हो इनमें पीड़ित महिला की तश्‍वीर और नाम छापने की प्रवृत्‍ति कम होने के बजाय बढ़ती ही जाती है।13 वर्तमान दौर में कुछ एक समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं को छोड़कर लगभग सभी में आपसी स्‍पर्धा के कारण स्‍त्री देह को ही अपना केन्‍द्रीय विषय बना डाला है इनके लिए देश-दुनिया में घटने वाली कोई भी घटना वह महत्‍व नहीं रखती है जो नारी देह एवं अनैतिक सम्‍बन्‍धों की होती है। न केवल फिल्‍मी हस्‍तियों के बल्‍कि मॉडलों, विदेशी फिल्‍म और पाप स्‍टारों; धनकुबेरों आदि के गौसिप चटपटी खबरें और उघारन तस्वीरें इनकी जरूरी खबरों का हिस्‍सा हैं, वास्‍तविकता यह है कि यह पुरूषवादी दृष्‍टि केवल समाचार कवरेज तक ही सीमित नहीं है विज्ञापनों और फीचर लेखों के साथ छपने वाले रंगीन छविचित्र भी इसी सोच का हिस्‍सा हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने श्‍लील-अश्‍लील सम्‍बन्‍धी एक निर्णय के द्वारा इस तरह की सामग्री परोसने वालों को एक नया तर्क और ताकत दे दी है लेकिन इसके बावजूद मीडिया की पुरूषवादी दृष्‍टि का आरोप समाप्‍त नहीं हो जाता।14 वर्तमान की आवश्‍यकता हो गयी है कि परिवार हो या समाज या अन्‍य क्षेत्र चाहे मीडिया ही क्‍यों न हो महिलाओं की स्‍थिति में सुधार हेतु एक वैचारिक आन्‍दोलन की आवश्‍यकता है। स्‍थापित पितृसत्‍तात्‍मक परम्‍परा और सामाजिक सांस्‍कृतिक मूल्‍य और मान्‍यताओं के चलते महिलाओं के प्रति सम्‍मान का भाव नहीं है। चिंतन और व्‍यवस्‍थाओं में नारी विरोध के अनेक पक्ष हैं, इसमें मीडिया से विश्‍ोष आग्रह किया गया है कि वह महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर रिपोर्टिंग के प्रति भाषा चयन पर विश्‍ोष ध्‍यान रखें।15 भूमण्‍डलीकरण और संचार माध्‍यमों के इस युग में जो नवीन कार्य संस्‍कृति उभर रही है वह लैंगिक समानता की ओर नहीं जाती वल्‍कि प्रकारांतर से एक धोखे की ओर अग्रसर है।16 ऐसे में मीडिया और भारतीय स्‍त्री के भविष्‍य का पूर्वानुमान लगाना मानसून के पूर्वानुमान17 लगाने से अधिक मुश्‍किल का कार्य प्रतीत होता है।

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सन्‍दर्भ ग्रन्‍थ सूची ः

1- स्‍मारिका-राष्‍ट्रीय शोध संगोष्‍ठी भारत में नारी विकास के बदलते आयामःएक ऐतिहासिक दृष्‍टि इतिहास विभाग डी0वी0 कालेज, उरई, 21-22 मार्च 2009, पृ0 82

2- समाज विज्ञान शोध पत्रिका, 2006 वाल्‍युम 2, पृ0 142

3- योजना, मई 2009, पृ0 5

4- जनसत्‍ता, नई दिल्‍ली, 17 जनवरी 2006, स्‍टिंग बनाम्‌ कलम की खोजी पत्रकारिता, आंनद प्रधान, पृ0 17

5- दैनिक जागरण कानपुर, 20 दिसम्‍बर 2005, खबरों की दुनिया में स्‍टिंग आपरेशन, राजीव सचान

6- स्‍मारिका-राष्‍ट्रीय शोध संगोष्‍ठी भारत में नारी विकास के बदलते आयामःएक ऐतिहासिक दृष्‍टि इतिहास विभाग डी0वी0 कालेज, उरई, 21-22 मार्च 2009,पृ0 88

7- समाज विज्ञान शोध पत्रिका, 2006 वाल्‍युम 2, पृ0 86-89

8- समाज विज्ञान शोध पत्रिका, अप्रैल-सितम्‍बर 2007, पृ0 156-163

9- अमर उजाला कानपुर, 4 फरवरी 2008

10- योजना-मई, 2009, मीडिया का अदरूनी जनतंत्र, पृ0 24

11- योजना-मई, 2009, मीडिया का अदरूनी जनतंत्र, पृ0 24

12- रिसर्च जनरल अॉफ सोशल एण्‍ड लाइफ सांइस, जनवरी-जून 2008, पृ0 438

13- योजना, मई 2009, पृ0 24

14- योजना, मई 2009, पृ0 24

15- दैनिक जागरण कानपुर, 4 फरवरी 2007

16- अमर उजाला कानपुर, 30 जनवरी 2008

17; राजभाषा भारती, जुलाई-सितम्‍बर 2007, पृ0 29

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सम्‍पर्क ः वरिष्‍ठ प्रवक्‍ता-हिन्‍दी विभाग, डी0 वी0 (पी0 जी0) कालेज, उरई जालौन उ0 प्र0 -285001

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. भाई यादव जी ।
    वर्तमान मे तो मानदण्ड बदले हुए लगते हैं।
    पत्रकार का मतलब था,
    निष्पक्ष और विद्वान-सुभट।
    नये जमाने में इसकी,
    परिभाषाएँ सब गई पलट।।
    नटवर लाल मीडिया पर,
    छा रहे बलात् बाहुबल से।
    गाँव शहर का छँटा हुआ,
    अब जुड़ा हुआ है चैनल से।।

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रचनाकार: वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख : पत्रकारिता का अंदरूनी जनतंत्र और महिलाओं की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भागीदारी
वीरेन्‍द्र सिंह यादव का आलेख : पत्रकारिता का अंदरूनी जनतंत्र और महिलाओं की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भागीदारी
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