दास्तान-ए-आशूदा प्रकाश गोविन्द ================== लोग चाहे कुछ भी कहते फिरें, लेकिन आशू दद्दा पर कोई असर नहीं। वह हमेशा की तरह वैसे...
दास्तान-ए-आशूदा
प्रकाश गोविन्द
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लोग चाहे कुछ भी कहते फिरें, लेकिन आशू दद्दा पर कोई असर नहीं। वह हमेशा की तरह वैसे के वैसे ही रहे। आशूदा सच में पागल हैं। हो सकता है ऐसा न हो, लेकिन हम घर वालों की राय उनके प्रति यही मानी जाती रही कि आशूदा का पेंच ढीला है। पिताजी ने तो अपने शक को पुख्ता करने के लिए मनोचिकित्सक को घर बुलाकर बहाने से आशूदा को भी सामने बैठाया था। मनोविज्ञान का डाक्टर देर तक बातचीत करता रहा, बीच-बीच में कई तरह के सवाल पूछकर आशूदा का मुआयना करता रहा। मनोचिकित्सक का मानना था कि आशूदा बिलकुल ठीक हैं। बस जरा सामान्य लोगों से अलग हैं। इस पर पिताजी की प्रतिक्रिया थी कि पागलपन का मतलब भी तो यही है, जो सामान्य लोगों जैसा व्यवहार न करे, वो पागल है। सभी असहमति प्रकट करते डाक्टर के निष्कर्ष से।
अक्सर जब परिवार के लोग एक साथ बैठते तो चर्चा का विषय एक ही होता - आशू दद्दा। समय गुजरता गया, लेकिन कुल जमा जोड़ यही रहा कि आशू दा ने अपने को बदलने का तनिक भी प्रयास नहीं किया। वो वैसे ही रहे अलमस्त।
दुनियादारी का सम्बन्ध स्कूल या कालेज की डिग्री से थोड़े ही होता है। कहने को तो आशूदा एम.एस.सी फर्स्ट क्लास हैं। पर फायदा ? हर जगह मिसफिट। चार नौकरियां तो खुद छोड़ीं आशुदा ने और पांचवी से निकाल दिए गए। तीन नौकरियां तो सरकारी थीं। पोस्ट भी ऐसी कि रोज जेब तर रहे। आज की भीषण बेरोजगारी वाले युग में लोग एक अदद नौकरी का दिन-रात सपना देखते हैं। सरकारी नौकरी तो समझो ईश्वर का वरदान। लेकिन ये आशूदा भी एकदम बकलोल अव्वल दर्जे के। जितने दिन भी नौकरी करते रहे, मानो दुनिया पर अहसान करते रहे। घर पर, सड़क पर, पता नहीं क्या-क्या बडबडाते रहते - ......."सरकारी कुर्सी मिल गई गई है तो जैसे हरामखोरी का लाईसेंस ही मिल गया है। किसी की दुःख तकलीफ मजबूरी नहीं समझते। दो मिनट का काम हो तो भी दो-दो .. तीन-तीन महीना दौडाते हैं। मजाल है कि बिना पैसा लिए किसी फाईल को हाथ भी लगा दें ... कफनचोर।"
ऐसे में पिताजी आशूदा को समझाने की कोशिश करते - "यू कांट डू एनिथिंग, एनिबडी कांट बीट इंडीजुवल दिस सिस्टम। सरकारी डिपार्टमेंट में काम ऐसे ही होता है। तुम्हारे पेट में दर्द काहे हो रहा है। तुमको तो महीने के आखिर में सेलरी मिल जाता है न। तुम्हे इन सब बातों से क्या वास्ता।"
आशूदा की बातें सुनकर हमें कोफ़्त होने लगती। मंझले दद्दा झल्लाहट में कह उठते - "इतने बड़े होकर भी कैसी बचकानी बात करते हैं ? राजा हरीशचंद्र की एजेंसी लेकर दुनिया को सुधारने का ठेका लिए हैं क्या आशूदा ?" हम सब देर तक मजाक बनाते उनका।
धीरे-धीरे हमारी अपनी अलग दुनिया होती गई। पहले मंझले दद्दा और फिर मेरी शादी विधिवत धूमधाम से संपन्न हुयी। आशूदा को तो कुंवारे ही रहना था सो वो कुंवारे ही बने रहे। वैसे भी कौन भलामानुष अपनी लड़की ऐसे आदमी को सौंप देगा, जिसकी सारी हरकतें पागल जैसी हों।
आशूदा पहले की तरह ही उन्मुक्त भाव से हँसते। बेफिक्र हो मंद-मंद मुस्कुराते रहते। कभी बांसुरी बजाते, कभी ढपली बजाकर लोकगीत गाते। घंटे-घंटे भर उनका सतरंगी कार्यक्रम चलता रहता। मैं और मंझले दा भीतर बैठे कुढ़ते रहते कि कैसे वह इतने आनंदमग्न रह सकते हैं, जबकि उनके पास कायदे के कपडे तक नहीं हैं। चार साल से एक ही चप्पल घिस रहे हैं। थोड़ा बहुत जो ट्यूशन से कमाते भी हैं तो उस पैसे से पता नहीं कैसी अगड़म-बगड़म सी किताबें खरीद लाते हैं।
आशूदा की वजह से हम भिन्नाये रहते। उन्ही के कारण घर कबाडखाना बना रहता है। हर जगह किताबें ......वेद, उपनिषद, गीता, कबीर, गांधी, टैगोर, सुकरात, लाओत्से, प्लूटो, हीगेल, रसेल, सात्रे, मार्क ट्वेन, गोर्की, बर्नाड शा, मार्क्स, नीत्से, खलील जिब्रान, ओशो ............... सैकड़ों किताबों का ढेर लगा हुआ है घर में। म्यूजिक सिस्टम को उठाकर बक्से की ऊपर रखना पड़ा। टीवी और फ्रिज के ऊपर भी आये दिन किताबें दिखाई देतीं। आशूदा भी अजीब सनकी। देर रात तक पता नहीं क्या-क्या आलतू-फालतू चीजें पढ़ते रहते हैं।
शाम को आशूदा बाहर लान में आकर जब बैठते तो निठल्लों का जमघट लग जाता। घंटों वह दददा के साथ बहस करते। पता नहीं आशूदा में कैसा प्रभाव था कि जब वे गंभीर स्वर में अपनी बात कहते तो सब निःशब्द बैठे सुनते रहते। सामजिक न्याय, आर्थिक विषमता, शोषण, मार्क्स और सात्र जैसे शब्द हवा के साथ उड़ते हुए हमारे कानों में ड्राईंगरूम तक आ पहुँचते, जहाँ हम घर के लोग बैठे टीवी पर किसी मनमोहक कार्यक्रम का आनंद ले रहे होते।
बहस को बीच में ही आधी-अधूरी छोड़कर आशूदा सबको लेकर चल देते नुक्कड़ की चाय की दूकान पर। काफी अर्से से दद्दा ने अपने मित्रों को घर पर चाय नहीं पिलाई। शायद तभी से, जिस दिन पिताजी आदतन बड़बडाये थे - "काम के ना काज के, दुश्मन अनाज के ...घर को होटल बना रखा है"।
उधर हम और मंझले दा अपनी-अपनी सरकारी नौकरी में जम गए और रंग भी गए। एक-एक बच्चे के बाप भी बन गए। पर आशूदा रहे, जस के तस यानी सिर्री के सिर्री। इधर फिजिक्स और कैमेस्ट्री का ट्यूशन पढने के लिए तमाम स्कूली लड़की-लड़के आशूदा को घेरे रहते। जब-तब हमारे कानों को भी सुनने को मिल जाता है लोगों से - "शूदा कितना अच्छा पढ़ाते हैं, कितना दिल लगाकर मन से पढ़ाते हैं आशूदा"।
यह सब जानकर पिताजी के भीतर नई उम्मीद जगी। कुछ-कुछ आशा बंधने लगी कि कुछ नहीं से, यह भी कुछ बुरा नहीं है। हम घर वालों के दिमाग के अंदर गुणा-भाग चलने लगा ..... बीस-पच्चीस से कम स्टुडेंट नहीं आते आशूदा के पास। अगर एक स्टुडेंट का कम से कम पांच-छह सौ रुपया भी मान कर चलें तो आशूदा बारह-पंद्रह हजार से कम नहीं कमाते। लेकिन अम्मा के हाथ में डेढ़-दो हजार रखकर छुट्टी पा जाते हैं।
एक दिन सुबह चाय-नाश्ते के समय पिताजी ने बुलाया आशूदा को। हम लोग भी मौजूद हैं दद्दा की पेशी के वक़्त। पिताजी पूछते हैं - "का हो बड़के, केतना इनकम हो जाता है ट्यूशन से ?"
'जी पिछले महीने तीन हजार आये थे' आशूदा शांति भाव से जवाब देते हैं। चौंक पड़ते हैं पिताजी - "इतना कम ? आखिर कितना फीस तय किये हो उन सबसे ?"
"जी कुछ भी तय नहीं किया है। वो लोग मुझसे पढना चाहते हैं, इसलिए पढ़ा देता हूँ। जोर जबरदस्ती से जितना रख जाते हैं, उतना ही रख लेता हूँ।" आशूदा ने निर्विकार भाव से जवाब दिया।
पिताजी का पारा हाई हो जाता है। क्रोध के मारे मुंह से शब्द नहीं फूटते। बीच में मंझले दा मोर्चा संभालते हुए बोल उठते हैं - "दददा सुना है आप बहुत अच्छा पढ़ाते हैं। अपने हुनर का फायदा काहे नहीं उठाते। आप चाहो तो एक स्टुडेंट से हजार-बारह सौ रुपया फीस मिल सकता है। हजारों रुपया कम सकते हैं, लेकिन आप तो कुछ समझते ही नहीं।"
"आई जस्ट कांट डू दैट ...सॉरी, मुझसे यह सब नहीं होगा।" आशूदा अपना वही पुराना दो टूक जवाब देकर बिना किसी की ओर देखे कमरे से बाहर निकल जाते हैं।
पिताजी का बड़बड़ाना जारी रहता है - "अपने ही भाग्य में लिखा था ऐसा नमूना। लानत है ऐसी औलाद का बाप होना।" अंदर से अम्मा का रोना-सिसकना शुरू हो जाता है। जब भी आशू दददा के ऊपर कोप बरसता है तो अम्मा को लगता है कि अप्रत्यक्ष रूप से बात उनको सुनाई जा रही है। तीन-तीन पुत्रों के होते हुए भी घर के अंदर पिताजी, आस-पड़ोस वाले और नाते-रिश्तेदार सभी आशू की माँ कहकर ही बुलाते हैं। इतने बरसों में अम्मा अपना नाम ही भूल चुकी हैं। पिताजी को कोई काम होता तो यही कहते हैं - "सुनती हो आशू की माँ।" यही हाल आस-पड़ोस का है। सामने वाली मिश्राइन हों या बगल वाली चौधराइन, सबके कहने का अंदाज वही होता - "का हो आशू की अम्मा का हो रहा है।"
आजकल आशूदा से मिलने कितने ही सारे लोग आते हैं। छात्रों के अभिभावक किसी न किसी बहाने से मिठाई और फल इत्यादि ले आते हैं तो दद्दा नाराज होकर यह सब लाने को मना करते हैं। छात्रों के अभिभावक उदास हो उठते हैं। अब तो सामाजिक कार्यकर्ता, अध्यात्म के जिज्ञासु और कुछ साहित्यकार जैसे लोग भी आये दिन दिखाई दे जाते हैं। कई एक सभ्रांत लोग गाडी लेकर आते हैं और सम्मान के साथ आशूदा को अपने साथ ले जाते हैं।
ऐसी अनहोनी देखकर मंझले दा और मैं घुटन महसूस करते। ताज्जुब होता है कि ऐसा भला क्या है आशूदा में ? नौकरी तक तो कहीं कर नहीं पाए। मिसफिट रहे हर जगह। कायदे से रहना तक तो उनको मालूम नहीं। बदरंग कुर्ते-पैजामे और आधा दर्जन जोड़ लगी पुरानी चप्पल चटकाते घुमते हैं। घर की इज्जत में बट्टा लगाते आये हैं आशूदा। लोग भी जाने क्या-क्या सोचते होंगे कि दो भाई गजटेड आफिसर और एक भाई इस कदर फटीचर।
दिन पर दिन आशूदा के पागलपन में इजाफा ही होता जा रहा है। पहले ही आसार क्या कम बिगड़े थे, अब तो वे कवितायें भी लिखते हैं। उनके लेख भी पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे हैं। विद्यार्थी अब ज्यादा तादाद में उन्हें घेरे रहते हैं। लोग आशूदा की चर्चा करते हैं। सब के सब ही क्या बौराए हुए हैं .... आखिर दददा का स्टेटस क्या है ? तीन में न तेरह में। न कोई पोजीशन, न कोई बैंक बैलेंस ... और तो और अपने लिए एक अदद स्कूटर तक न जुटा सके आशूदा। लोगों कि मति खराब हो गई है या फिर सबकी आँखों में मोतियाबिंद उतर आया है ?
हम दोनों भाईयों के पास चमचमाती कारे हैं, लेटेस्ट मोबाईल है, लायंस और रोटरी क्लब की मेम्बरशिप है। हमने पॉश लोकेलिटी में प्लाट खरीद रखे हैं। बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं। हमारा उठाना-बैठना हाई सोसाईटी में है। रिटायरमेंट के बाद पिताजी अब प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहते हैं। सुबह-शाम बड़े-बड़े ठेकेदार हमारी कोठी के चक्कर लगाते हैं। लोगों के अटके हुए काम हमारे एक फोन भर से पूरे हो जाते हैं। हमारा परिवार अब शहर के जाने-माने परिवारों में गिना जाता है। मंझले दा को तो पार्टियों, प्रोग्रामों में चीफ गेस्ट की हैसियत से बुलाया जाने लगा है।
रिश्तों को नकारा तो नहीं जा सकता। परिवार में एक आशूदा का होना ही मखमल में टाट का पैबंद लगना है। आशूदा आखिर क्यों नहीं समझते पैसे की कीमत ? क्या कभी जान पायेंगे इज्जतदार होने का मतलब ? स्टेटस भी कोई चीज होती है, यह बात कब बूझेंगे ? "सॉरी आई जस्ट कांट डू दैट" कहने भर से ही दुनिया थोड़ी बदल जाती है। क्या आशूदा जिंदगी भर यूँ ही पढ़ते रहेंगे मोटी-मोटी उल-जुलूल किताबें ? सामाजिक न्याय और शोषण पर करते रहेंगे बहस ....पढ़ाते रहेंगे बेगारी में ट्यूशन। क्या सारी जिंदगी उनकी यूँ ही बेकार गुजर जायेगी ? क्या कभी कुछ भी नहीं बन पायेंगे आशूदा ? हम सब घर वाले चिंतित और परेशान हैं उनको लेकर लेकिन वो तो बिलकुल बेफिक्र व निर्द्वंद हैं।
बड़े-बड़े लोग घर में आते हैं। ऐसे में उनके समक्ष आशूदा सामने पड़ जाते हैं तो हम लोग परिचय कराने से भी कतराते हैं। परिचय देने लायक कुछ हो तो ही न बताया जाए। सच तो यह है कि हमें यह बतलाते भी शर्मिंदगी महसूस होती है कि आशूदा हमारे बड़े भाई हैं। लेकिन जो लोग पहले से हमारे रिश्तों को जानते हैं, उनके सामने गर्दन शर्म से झुक जाती है। अब हो भी क्या सकता है। खून का रिश्ता काटकर अलग तो नहीं किया जा सकता। रिश्तों का साथ तो उम्र भर निभाना पड़ता है। हम कुछ भी हो जाएँ वो हमें मंझले और छोटे ही कहते रहेंगे। हमें तो उनको दददा या आशूदा ही कहना होगा।
मंझले दा और मैं अपने-अपने खूबसूरत बंगलों में रहते हैं। पिताजी की राजनैतिक सक्रियता ने रंग दिखाया और वो एम.एल.सी. हो गए हैं। पिताजी अभी भी पुरानी कोठी में ही अम्मा और आशूदा के साथ रहते हैं। छोटे-बड़े नेताओं का आना-जाना लगा रहता है। लाल बत्ती की गाड़ियाँ खड़ी रहती हैं। हम लोगों का रुतबा अब और भी बढ़ गया है। बस एक आशूदा ही हैं सफेद संगमरमर की चमचमाती फर्श पर पान की पीक जैसे। अपनी अनचाही उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
उस दिन आशूदा सवेरे के गए शाम तक नहीं लौटे। देर रात लौटे भी तो पुलिस और कुछ लोगों के साथ । जो उठाकर लाये थे निर्जीव हो चुके आशूदा को। मृत हो चुकी थी उनकी देह। दो-चार प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया कि रास्ते में चलते-चलते ही आशूदा को दिल का दौरा पड़ा था। जब तक पुलिस और लोगों ने अस्पताल पहुंचाया, तब तक दददा संसार से नाता तोड़ चुके थे।
दूसरे दिन घर पर जाने-माने लोगों की भीड़ थी। लेकिन उस भीड़ से भी बड़ी एक और भीड़ भी उमड़ पडी थी घर के बाहर। आशूदा से अन्तरंग जुड़े लोगों, बेशुमार अनजान चेहरे। दददा की एक अलग दुनिया को इकठ्ठा एक साथ देखकर मैं और मंझले दा हतप्रभ थे। स्कूली लड़के-लड़कियां ऐसे सुबक रहे थे मानो उनके परिवार के किसी सगे की मृत्यु हो गई हो। बड़े बुजुर्गों की आँखों से आंसू यूँ बह रहे थे जैसे वो अपने पुत्र को अंतिम विदा दे रहे हों। यहाँ तक कि पानवाले, खोमचे वाले, चाय की गुमटी वाले तक बाहर कोने में ग़मगीन खड़े थे। हम हमेशा की तरह हैरान थे कि आखिर आशू दा में ऐसा भला क्या था जो सैकड़ों की आँखों को नम कर गए।
आशूदा अब नहीं हैं। हालांकि न होने जैसे पहले भी थे। लेकिन शायद वो कुछ न होते हुए भी कुछ थे जरूर। उनकी छाप पूरे घर पर दिखाई पड़ती है। ढेर सारी किताबें अलमारी पर अभी भी सजी हुयी हैं, जो बाट जोहती हैं उन अभ्यस्त उँगलियों की जो उनके पन्नों को उलटती थीं। दर्जनों फाईलों में दबी पड़ी हैं आधी-अधूरी कवितायें और लेख, जिन्हें अपने पूरे होने का इन्तजार है।
अम्मा को तो लगता है कि वो अब अकेलेपन के साथ ही बेनाम भी हो गई हैं। अम्मा की बूढी आँखें प्रतीक्षारत हैं अभी भी बदरंग कुर्ते-पैजामे में दबे पाँव घर में प्रवेश करती एक मानव छाया की। पिताजी तलाशते रहते हैं किसी के पागलपन को, जिस पर अपनी झल्लाहट उतार सकें। हम दोनों भाई तमाम दौलत और शोहरत के बीच फैल चुके अबूझ सन्नाटे को को साफ तौर पर महसूस कर रहे थे।
कोई एक था जो बेफिक्र मंद-मंद मुस्कुराता था। कोई एक था जो गंभीर स्वर में "सॉरी आई जस्ट कांट डू दैट" कहकर, कमरे से तेजी से निकल जाता था। क्या वाकई इतने गहरे तक पैठी होती हैं, 'नगण्य' से व्यक्ति की जड़ें ? क्या इस हद तक होता है 'असाधारण', किसी का साधारण होना ? समझ में नहीं आता कि यह कैसी शून्यता है, उस शख्स के बगैर जो कि महज मखमल में टाट का पैबंद था।
आज जब मंझले दा, मैं और अम्मा-पिताजी के पास सब कुछ है तो किस बात की कमी महसूस करते हैं। घर की हवाओं में अब फलसफे की गंध नहीं आती। अब निठल्ले दिखाई नहीं देंगे, कोई बहस नहीं होगी। छात्रों का जमघट अब न दिखेगा। जमाने भर के दुःख-दर्द की बातें अब नहीं होंगी। कविता के छंद नहीं, लोकगीतों की बहार नहीं, प्यार नहीं, पीड़ा नहीं, अहसास नहीं, चिन्तन नहीं, मनन नहीं, आंसू नहीं, आह नहीं ................ नहीं .... नहीं ... , अब कुछ भी नहीं। आशूदा की चिता जाने के साथ ही सब स्वाहा हो गया।
उनके जाने के बाद बस मुंह चिढाने और घूरने को रह गई हैं पोर्च में खड़ी निर्जीव कारें, हाथों में मिनमिनाते मोबाईल, खिड़की से चिपके एयर कंडीशनर, ठेकेदारों के साथ होते निर्मम सौदे, फाईव स्टार का डिनर, पब्लिक स्कूल में जाते बच्चे। आशूदा के साथ ही विदा हो गया है जीवन का स्पर्श। वही आशूदा जो बदरंग कुर्ता-पैजामा और टूटी चप्पल पहले खटकते रहते थे आँखों को, सफेद संगमरमर के साफ सुथरे फर्श पर पान की पीक जैसे।
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Man jehan ko chhoo lene wali kahani.
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी भावपूर्ण कहानी.
जवाब देंहटाएंइस भौतिकवादी समाज में आशू दा जैसे लोगों की अहमियत शायद उनके जाने के बाद ही आती है.
कसा हुआ कथानक है.पढते हुए जैसे चित्र बनते चले गए.प्रस्तुति प्रभावी है और कहानी का अंत आँखें नम कर गया.
बधाई.
अल्पना जी बहुत-बहुत शुक्रिया
हटाएंकहानी में आशूदा एक पात्र से ज्यादा 'विचार' है ! एक 'आउट डेटेड' विचार जैसा ! इसीलिये वो मिसफिट हैं ! आशूदा जैसे लोग हमें अच्छे तो लगते हैं लेकिन हम उनके जैसा बनना नहीं चाहते ! एक पाठक के तौर पर आशूदा का दुनिया से विदा होना मेरे लिए भी दुखदायी रहा !
aashuda ki kahani bahut beman se padhi thi lekin pata nahi kab kho gayi. aashuda jaise log ab kahan hain ?
जवाब देंहटाएंkahani padhkar bahut udaas hun. bahut achi kahani hai.
thanks aditi ji
हटाएंaapne kahani padhi aur saraahi iske liye aapka bahut shukriya.
bahut khoob govind bhai sahab :)anand sharma
जवाब देंहटाएंपर्काश गोविंद जी की इस कहानी पढने लगा तो पढता ही चला गया
जवाब देंहटाएंउनकी लेखनी को सलाम
One of the most touching stories that I ever read. Thanks to Rachnakar.org and Sh. Ravi Ratlami. Content-wise this site is very enriched.
जवाब देंहटाएंवेहद उम्दा कहानी पढ़ने को मिला
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा कहानी पढ़ने को मिला
जवाब देंहटाएंअम्मा को तो लगता है कि वो अब अकेलेपन के साथ ही बेनाम भी हो गई हैं
जवाब देंहटाएंएक दम जिवंत चित्रण बेहद ही मर्मस्पर्शी
जो माँ होती हैं वो अक्सर हिसाब-किताब -गणित नहीं जानती !
हटाएंआशूदा तो माँ के व्यक्तित्व का ही एक हिस्सा सा बन गए थे !
आदरणीय सीमा जी आपने कहानी को गहराई से पढ़ा और सराहा ... इसके लिए मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ !
अम्मा को तो लगता है कि वो अब अकेलेपन के साथ ही बेनाम भी हो गई हैं
जवाब देंहटाएंएक दम जिवंत चित्रण बेहद ही मर्मस्पर्शी
Regards
bahut acchai kahani
जवाब देंहटाएंरुला गयी आशुदा की दास्तां....वाकई साधारण होना बहुत ही असाधारण है...
जवाब देंहटाएंस्नेही शुभम जी
हटाएंफिल्म - ऋषिकेश दा की एक 'फिल्म - बावर्ची' में राजेश खन्ना का एक अर्थपूर्ण संवाद है - "It is so simple to be happy but it is so difficult to be simple," (सादगी को अपनाकर कितनी आसानी से खुश रहा जा सकता है, पर सादगी को अपनाना कितना कठिन है )
आज के भौतिकतावादी दौर में साधारण होना ही असाधारण है ! आपने कहानी को पसंद किया ... इसके लिए बहुत-बहुत आभार व्यक्त करता हूँ !
अत्यधिक मर्मस्पर्शी भावपूर्ण कहानी.
जवाब देंहटाएं.पढते हुए अपने आप चित्र बनते चले गए. प्रस्तुति प्रभावी है कहानी का अंत आँखें गीली कर गया.
आशू दा जैसे लोगों की अहमियत शायद उनके जाने के बाद ही आती है.
मेरी और से बधाई.
Rakesh Tripathi
स्तब्धकारी कहानी! सार्थक सृजन!
जवाब देंहटाएंI just can't do that...!
जवाब देंहटाएंवैसे नकार कि जैसे आशूदा के पास थे... क्या नकारों की आवश्यकता नहीं है आज...?क्या हमें अनुकूलित जो भी मिला है वे सब का सब
सही है...? क्या यहाँ "नकार" की आवश्यकता बिल्कुल नहीं ?
हमारा मध्यम वर्ग आज बहुत ज्यादा ही subjective हो गया है...
अब जो चीजें आवश्यक है जीने के लिए सुख-सुविधा के लिए
उसे अर्जित करना है...और अपने जीवन धोरण को सुचारु बनाना
है...पर यह आवश्यक साधन अब स्टेटस सिम्बोल या दिखावे का साधन बने हुआ है...
और अमीरी-ग़रीबी की घृणा का विषय भी... अब समग्र जीवन को इसी एक मात्र हेतु के नज़रिये से ही देखा जाए...? तो फिर जीवन को समझने के वे जीवंत जीवन आनंद, मूर्त-अमूर्त कलाएं, वे रसप्रद विषय जो हमारी मानसिक ज़रूरियतों को पुष्ट करें इत्यादि की क्या कोई आवश्यकता ही नहीं...? विज्ञापनों के साथ टी.वी. सिरीयल्स देखो, या सिनेमा- घरों में जाकर फिल्में देखो...और सस्ते मनोरंजन से टाईम पास करो...
प्रकाश गोविंद जी ने कहानी अच्छी लिखी है...भाषा भी उनकी प्रवाहित है,
और समाज-जीवन की बारीकियों की समझ व पकड़ वे रखते हैं, जिसका एहसास वे
इस कहानी में भी कराते हैं...हमारी कुछ सच्चाइयों, अच्छाईयों और बुराईयों को भी उनके सही परिप्रेक्ष्य में उन्हों ने समझा है और जिसके अनुरूप वैसे शब्दों का चयन भी प्रकाश जी ने बडी ही सम्प्रेषणीयता से इस कहानी में किया है...
हमारे मध्यमवर्गीय सामाजिक रीति- रिवाज़ों, निम्न कही जाए वैसी वृत्तियों और प्रवृतियों
को भी बखूबी प्रकाश गोविंद जी ने उजागर किया है जहां आशुदा जी जैसे सही व्यक्ति की भी अवहेलना और दुत्कार
चल रहे है...
आशुदा के पात्र को और उजागर किया जा सकता था...जिन्हें समझने की यहाँ परिवार में किसी की कोई चेष्टा ही न दिखे...और आशुदा के बाद उनका जो महिमा मण्डन हो रहा था वहाँ भी सारा का सारा परिवार एक संमूढ़ता का शिकार दिखा...और आज हम सभी जैसे उन्हीं संमूंढों में शामिल होते जा रहे हैं किजो जीवन के सारे मूल्यों को सामाजिक आर्थिक सफलता के ही मापदंड से परखते हैं...आज हमारे ज्यादातर मध्यम वर्गीय युवाओं की मानसिकता है की "अगर पैसा आता है अगर एथिक्स के साथ आता गा तो भी चलेगा और पैसा अनएथिकल्ली भी आता है तो वह भी चलेगा...it doesn't make any difference...! बस पैसा आना चाहिए...
नई कहानियों का आधुनिक व प्रबुद्ध विकास भी हुआ है, हो रहा है उस और भी गोविंद प्रकाश जी को ध्यान देना होगा...ताकी कहानी के अपने नए-नए फॉर्म भी स्थापित हो और जो अन्य सभी वर्गों को भी छुए...
आदरणीय जी.जी.शेख जी
हटाएंआपकी पैनी निगाहों ने कहानी को इतनी गहराई से पढ़ा और समझा कि निःशब्द सा हूँ ! आपने बहुत ही सुन्दर विवेचना की है ! जैसा कि आपने लिखा है - "जीवन के सारे मूल्यों को सामाजिक आर्थिक सफलता के ही मापदंड से परखते हैं !"
यही इस कहानी का मूल सार है !
आपका तहे दिल से आभार व्यक्त करता हूँ !
हालाँकि ऐसी कहानियाँ कई बार पढ़ी हैं, पर न जाने क्यूँ दिल को भा गई |
जवाब देंहटाएंसच भी है आशुदा होते तो बहुत हैं, खटकते भी बहुत हैं, पर आँखों में आँसू बनकर चमकते जब हैं, जब कहानी खत्म होने वाली हो |
जीवंत लेखनी को सलाम |
सच में कहूँ तो आशूदा जैसी कहानियाँ बहुत पढ़ीं, क्यूंकि ये हमारे समाज का आईना है,
जवाब देंहटाएंहमारा दोगलापन है | संस्कार ऐसे हैं, पर निभाए नहीं जाते |
और आशूदा जैसे शख्स हमेशा दुत्कारे जाते हैं, खटकते हैं, पर आँखों में आँसू की तरह चमकते हैं तो जब, कहानी खत्म होने वाली हो |
जीवंत लेखनी को सलाम |
मर्मस्पर्शी भावपूर्ण कहानी
जवाब देंहटाएंआह आशूदा
very nice marmspashi...jo aj ki paristhithiyo ko dekhte huye sidhe dil ko ja lagi very good govind ji very nice
जवाब देंहटाएंgovind jee kee kahaani dil ko chhoo gayee. dobaaraa aatee hoon comment dene mera hindi typing tool cafe hindi kam nahin kar raha gmail me aaj kal prioblem chal rahi hai9 .fir ati hoon .
जवाब देंहटाएंकहानी पढ्ता रहा टीस उठती रही !गज़ब की बयानी !
जवाब देंहटाएंKuch asu me bhi asuda ko arpit karta hu.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कहानी है सर!
जवाब देंहटाएंइसे पढ़ कर प्रेमचंद की नमक का दारोगा का कथानक भी याद आ गया।
सादर
बहोत ही मर्मस्पर्श कहानी. आशु दद्दा जैसे लोगो की कमी है, पर कहीं न कहीं आज भी विरले आशु दद्दा जरुर है.......आशु दद्दा जैसे लोग खुद को समाज के सामने प्रदर्शित नहीं करते और शायद इसिलिये हमें दिखते भी नहीं........ क्योकि हमारी ऑंखें भी तो समाजिक व्यक्ति को ही ढूंढती है.......
जवाब देंहटाएंहाँ आशीष भाई ...आपने सही कहा !
हटाएंआशूदा जैसे लोग जब तक रहते हैं ...लोगों को खटकते हैं ! उनके जाने के उपरान्त ही उनका महत्व और कमी का अहसास होता है !
आपको कहानी पसंद आई ....इसके लिए बहुत बहुत शुक्रिया !
ek sachche insan ki marmsparshi kahani...
जवाब देंहटाएंBahut Khub Govind Ji. Good work
जवाब देंहटाएंकल कहानी पढी थी लेकिन कमेन्ट नही कर पाई। मुझे ताज़्ज़ुब है किअस तरह से प्रकाश जी ने एक आम विषय को कहानी के माध्यम से खास बना दिया है। आज कल तो आशु दद्दा जैसे लोगों को बिलकुल नकारा समझा जाता है आज हम उस समाज मे रह रहे हैं जहाँ आदमी का सम्मान उसकी प्रतिभा से नही उसके धन दौलत और उच्च रहन सहन से होता है।जाने कितने आशु दद्दा इसी तरह चुपके से इस समाज से कूच कर जाते हैं और समाज को बाद मे समझ आता है कि उस आशु मे कुछ तो खास था जिसे वो समझ नही सका। समाज प्रतिभाओं को पहचानने की अगर जरा भी कोशिश करे तो हम इस समाज को उनकी सेवाओं दुआरा बहुत लाभ दिलवा सकते हैं। बहुत अच्छी कहानी। गोविन्द जी को बधाई।
जवाब देंहटाएंआदरणीय निर्मला कपिला जी आपका बहुत-बहुत आभार !
हटाएंकौन थे हम..क्या हुए...और क्या होंगे अभी !!!
समय और समाज इस कदर बदला कि सारी परिभाषाएं ...मान्यताएं ध्वस्त हो गयीं ! आगे बढ़ने और अमीर दिखने की होड़ मची है...किसी भी मूल्य पर...कैसे भी...बस आगे निकलना है ! यही तो हम देख रहे हैं न ?
आशूदा जैसे लोगों की किसी को जरुरत नहीं ...लेकिन आशुदा जैसे पागल अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहेंगे !
आदरणीय प्रकाश जी, कुछ दिनों के लिए शहर से बाहर था इसलिए पढ़ने में देर हुई इसके लिए क्षमा करें.. लेकिन पढ़ कर यही लगता है कि 'देर हुई पढ़ने में लेकिन.. शुक्र है हम पढ़ पाए तो..' यह कहानी क्या है आधुनिक सोच को दर्शन और वास्तविकता का आइना दिखाना है. कहानी पढ़कर एक सुकून यह भी हुआ कि मेरी झोली में भी आशु दा की तरह के कुछ दा अभी हैं जो कि कहानी के आशु दा की तरह उपेक्षित नहीं हैं बल्कि आये दिन प्रेरित करते रहते हैं. यह कहानी पढ़कर उनका मान और भी बढ़ा है. आपने मेरी अगली कहानी 'गुरु जी गणित वाले' के लिए सूत्र भी दे दिए उसके लिए शुक्रगुज़ार हूँ. एक बार फिर आपकी बेहतरीन कहानी की सराहना करता हूँ. शुभकामनाएं..
जवाब देंहटाएंप्रिय दीपक भाई
हटाएंआपकी बात से सहमत हूँ कि समाज में आशूदा जैसे लोग हैं लेकिन मैंने देखा है कि ऐसे लोगों के कद्रदान / प्रशंसक अधिकतर मरने के उपरान्त ही सामने आते हैं !
आपने कहानी पढ़ी और सराही ...इसके लिए बहुत आभार !
आप तो स्वयं एक अच्छे रचनाकार हैं ! आपकी अगली कहानी- 'गुरु जी गणित वाले' को पढने के लिए मैं भी बहुत उत्सुक हूँ ....प्रतीक्षा रहेगी !
प्रकाश भैया ,
जवाब देंहटाएंआँख में पानी ला दिए हो . अब क्या कहे.. खुद को ही आशु दा में देख लिया. लगा खुद की ही कथा पढ़ रहा हूँ. भैया. दोनों हाथो से नमन , इस कथा को पढवाने के लिये. बहुत दिनों के बाद कुछ पढ़ा है ..
दिल को छु गया है ,. अब शाम को घर में सब को पढ़वाता हूँ.
आपका
विजय
उफ़ इतना जीवन्त और मार्मिक चित्रण किया है कि मेरे पास शब्द नही हैं तारीफ़ के …………अभी तक तो सोच मे हूँ कि क्या कहूँ? बस महसूस रही हूँ उन अहसासों को………।
जवाब देंहटाएंsabd chayan ki tareef karni hi hogi- nayayochit bhavabhiyakti. sarahneeya suruat. kahani kuch kahte kahte chup ho gayi...
जवाब देंहटाएंकहानी कई आयामों की ओर इंगित कर रही थी...; पर ऐसा हुआ नहीं.इस विउह में प्रकाश और हो सकता है.
जवाब देंहटाएंकहानी पढते पढते ख़त्म हो गयी...
उत्तम शब्द चयन, यथोचित भावाभिव्यक्ति.
प्रकाश जी...कहानी पढ़ी अक्षरशः दास्तानगोई लहजे में. मंझले भाई भी साथ बैठे सुनने के लिए, तो बीच-बीच में २-३ अनुभागों का वाचन उनने भी किया. एक एक अनुभाग जैसे जैसे बीत रहा था, दर्दमंदी दिल में गहरी हुई जा रही थी. लगभग सारी टिप्पणियाँ और कुछ पर आपकी प्रत्युत्तर भी पढ़े, क्योंकि लगभग सारे पाठकगण बुद्धिजीवी और विचारक जन प्रतीत हो रहे हैं. मेरे मन में उभरे भावों का आईना हैं वे सब. खुद से और क्या लिखूं..बस यही व्यक्त करना चाहूँगा जो व्यक्तिगत तौर पे मुझे झंझोड़ता है. मुझे लगता है आपके उम्दा लेखन में रची-बसी यह कहानी और ऐसी ही अन्य कई कहानियां जिस तरह अंत में मुख्य पात्र की कमी महसूस कराती हैं, वह पात्र की महत्ता तो बढ़ा देती हैं पर जिस यथार्थ का चेहरा आँखों में उभरता है, वह "सच्चे दुःख" की अनुभूति करवाता है. कटु सत्य है कि कला की यह विडम्बना है..दुखान्तकी कथा को रोचक और अंतरसंवाद योग्य बना देती है...
जवाब देंहटाएंकथा के लिए ह्रदय से प्रशस्ति और अभिवादन के इतनी बढ़िया कथा-वस्तु और शिल्प प्रस्तुत किया आपने. मेरे लिए तो आप प्रेरणादायकों में से एक हैं!!!
मुख्य पात्र यानी आशूदा की कमी का अहसास कराना ही कहानी का आधार है !
हटाएंप्रिय रीतेश जी आपने अपनी प्रतिक्रिया द्वारा इस मामूली सी कहानी को और भी सार्थकता प्रदान कर दी ! आप कहानी से गहराई से जुड़े और सराहा ... इसके लिए तहे दिल से आभारी हूँ !
प्रकाश भैया, आपकी कहानी पढ़ने के पश्चात मुझे अपने भीतर संवेदना और ज्ञान प्राप्त हुआ. जिसमे पात्र आशु दा में मैंने खुद को देख लिया . कहानी के कुछ भाग़ रोचक और दिल छु जाने वाले लगे . आपने बहुत अच्छा लिखा है . मेरी शुभ कामनाएं .
जवाब देंहटाएंकल 29/07/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
यशवंत भाई
हटाएंचिट्ठा चर्चा में इस कहानी को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार !
atyant marmik adhuri chha
जवाब देंहटाएंjaisa ki kabhi padha tha
bhola ram ka jee jo yamlok swarglok mai bhi nahi pahuncha
ha pension file mai atka mila
मेल द्वारा प्राप्त प्रतिक्रिया :
जवाब देंहटाएंAhmad Kamal Siddiqui जी ने कहा -
गोविन्द जी ,आप् कि कहानी पढ़ी बहुत पसंद आई, जिस तरह भौतिकता कि चमक चौंध के बीच जीवन के मूल्य खोते जा रहे हैं ..इसका बहुत सुन्दर चित्रण किया है ...
आशूदा मेरे मझले भैया की याद दिला गए ....
जवाब देंहटाएंऔर मेरे आँखे नाम कर गई ये रचना
आशु दा की दास्तान मर्म को छू गयी .... कहानी में बखूबी बता दिया गया कि आज कैसे लोगों की पूछ है , कैसे लोगों को बड़ा समझा जाता है .... लेकिन आशुदा जैसे लोग दिमाग में नहीं दिल में बसते हैं ..... और उनके न रहने पर ही उनका महत्त्व समझ आता है , जब तक इतनी देर हो चुकी होती है कि बस फिर केवल सोचा ही जा सकता है ... बहुत अच्छी कहानी ...पाठक को अंत तक बांधे रखती है ।
जवाब देंहटाएं[मेल से प्राप्त प्रतिक्रिया]
जवाब देंहटाएंRanjeet Paliwal जी ने कहा -
कुछ कहानियां दिल की गहराई तक जाकर असर करती हैं
आपकी यह कहानी भी कुछ ऐसी ही है
आशूदा की दास्ताँ पढ़ते पढ़ते दिल के भीतर बहुत कुछ घटता चला गया
एक अरसे बाद बहुत यादगार कहानी पढ़ी
धन्यवाद
धर्मेन्द्र त्रिपाठी जी, आनंद शर्मा जी, राजीव तनेजा जी, News4jharkhand.com,
जवाब देंहटाएंअमित आनंद जी, अरविन्द योगी जी, राकेश त्रिपाठी जी, अनंत भारद्वाज जी,
दर्शन लाल बवेजा जी, अजय श्रीवास्तव जी, Vcadantewada Kawalnar Ashram, यशवन्त माथुर जी, कविता वर्मा जी, ज़िआउल हक अंसारी जी, विजय कुमार सप्पत्ति जी, वंदना गुप्ता जी, शिव जी, रूप रोशन जी, अविनाश रामदेव जी, विभा रानी श्रीवास्तव जी, अहमद कमाल सिद्दीकी जी, संगीता स्वरुप जी, रंजीत पालीवाल जी !
आप सभी ने कहानी पढ़ी और प्रतिक्रिया द्वारा अपने भाव व्यक्त किये !
आप सभी के स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए के लिए बहुत बहुत शुक्रिया !
क्या इस हद तक होता है 'असाधारण', किसी का साधारण होना ?
जवाब देंहटाएंहा होता है ,बहुत सुन्दर कहानी
बहुत गहराई से दिल को छूने वाली कहानी है. कहानी का शिल्प निरंतर पाठक को बांधे रहता है और आखिर तक आते-आते ढेरों सवाल मन में उठने लगते हैं.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कहानी लिखने के लिए प्रकाश गोविन्द जी को हार्दिक बधाई
Very Heart Touching
जवाब देंहटाएंNice Story
Thanks
प्रकाश जी ,कहानी अपने घर के पास की ही है । आशू दा तो मुझे अक्सर मिलते हैं ।इस सुन्दर ,सार गर्भित कथा के लिए आप बधाई के पात्र हैं । मित्र , आपका सृजन आम मानस को छू जाये इससे बढ़कर रचना थोड़ी ही होती है ।
जवाब देंहटाएंगोविन्द परमार जी, शिवेंद्र सिन्हा जी, ज्योति शर्मा जी, कविता विकास जी
जवाब देंहटाएंआप सभी का तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ कि आपने कहानी पढ़ी और सराहा !
हार्दिक आभार !!!
दास्तान-ए-आशू दा... सिर्फ आशू दा की दास्तान नहीं है। वैसे आशू दा किसी एक व्यक्ति या पात्र का नाम भी नहीं है।आशू दा उस प्रवृत्ति का नाम है जो सबकुछ प्राप्त कर लेने और सुख-सुविधा के लिए कुछ भी कर गुजरने वाली सोच के बरक्स संवेदना और त्याग की दुनिया रचती है। आशू दा एक उम्मीद का नाम है। कि जब तक आशू दा हैं, संवेदना, प्रेम, त्याग, सादगी और सच्चाई बची रहेगी। बहुत ही सुंदर कहानी। जीवन सिर्फ सुख-सुविधाएं जुटाने का नाम नहीं है। जिन्दगी सिर्फ प्राप्त करने का नाम नहीं है। जिन्दगी सिर्फ रूपये का नाम नहीं है। जिन्दगी सिर्फ शो-ऑफ का नाम नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य तो ये कि आज उन तमाम चीज़ों की महत्ता है जो पहले कभी इतने महत्वपूर्ण नहीं रहे। ऐसे में आशू दा को परिवार ने पागल समझा तो अचरज की बात नहीं। ख़ैर, प्रकाश जी कहानी वाकई मार्मिक और विचारोत्तेजक है। हमारा साधुवाद स्वीकार करें।
जवाब देंहटाएंआज के समय की दिक्कत सबसे बड़ी है कि हमने रुपये को योग्यता से .. काबिल होने से जोड़ दिया है ! जो जितना ज्यादा पैसे वाला वो उतना ही काबिल ! अब रुपया है तो दूसरों को उसे दिखाना भी पड़ता है ... तो बस एक सिलसिला चल निकलता है - बड़ा बंगला, लक्जरी गाडी, महंगा मोबाईल, ब्रांडेड कपडे, माडर्न लाईफ स्टाईल ..... ..! इस चक्कर में बहुत कुछ हमसे दूर होता चला जाता है !
हटाएं-
आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए एक यादगार उपलब्धि है ... आपने बहुत ही सधे व् संतुलित शब्दों में पूरी कहानी का सार समझा दिया ! बहुत सुन्दर विवेचना ! बहुत शुक्रिया !
आशू दा इस अत्याधुनिक शो-ऑफ और क्या कुछ पा लेने की होड़ में जुटी अर्थ-ललायित भीड़ के खिलाफ अकेली खड़ी संवेदना और मानवीय मूल्यों के प्रतीक हैं। और उम्मीद भी कि सबकुछ अभी खत्म नहीं हुआ है। आशू दा की मृत्यु भले हो गई है, आशू दा जो कि एक विचार भी हैं, अभी जिन्दा हैं और यही उम्मीद दुनिया के बेहतर होने या बने रहने की साक्षी भी। कहानीकार साधुवाद के पात्र हैं। बिना किसी घटना या वाग् आडंबर के सामान्य शब्द-शिल्प की मदद से इतनी भावपूर्ण और विचारोत्तेजक कथा की रचना कोई साधारण काम या उपलब्धि नहीं है।
जवाब देंहटाएंप्रकाश गोविन्द जी .अत्यंत भावपूर्ण व रोचक कहानी लिखी है आपने .......!तारतम्य कही से टूटने ना पाया है जैसे एक ही सांस में पढ़ी जाए ....आज के भौतिकतावादी युग में आशुदा जैसे चरित्र मिसफिट ही हैं ....!पहले जो एक आदर्श मनुष्य की परिभाषा है अब वो फिट नहीं बैठती आज के एक सफल मनुष्य पर ...!!आज के यथार्थ से परिचय कराती आपकी सार्थक कहानी के लिए बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएंहाँ सरोज जी आपने एकदम सही कहा - " पहले जो एक आदर्श मनुष्य की परिभाषा है अब वो फिट नहीं बैठती आज के एक सफल मनुष्य पर"
हटाएंसमय बहुत बदल गया है ... स्टेटस के चक्रव्यूह में फंसे लोग बस भाग रहे हैं ... भाग रहे हैं !
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आपकी सुन्दर और सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार !
लगा जैसे कहीं खे गये और जब वापस लोटे तो आंखों में से दो बूंद गालों पर थी
जवाब देंहटाएंये दो बूँद आंसू हम सबकी आँखों में बने रहें ..... आशूदा को हम तभी जीवित रख पायेंगे !
हटाएं-
कहानी को पसंद करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया !