* मैच * ...
* मैच *
-नीरज शुक्ल
रफीक भाई ने ठान लिया कि आज काम पर नहीं जाना है. पूरा दिन छुट्टी मनाएंगे. छुट्टी भी क्या, मैच की कमेंट्री सुनेंगे. आज भारत -पकिस्तान का मैच है. ऐसे मैच रोज आते कहाँ हैं.
रफीक भाई मैच के दीवाने श्रोता हैं. खुदा ने उन्हें इतनी दौलत और फुर्सत नहीं बख्शी, वर्ना भारत में होने वाला हर मैच वे स्टेडियम में ही देखते. कुछ साल पहले उनकी बीबी ने कहा था कि ऐसी दीवानगी है तो एक टेलीविजन क्यों नहीं खरीद लेते, सामने बैठ कर देखने का पूरा मजा मिलेगा. रफीक भाई को ये बात जमी थी. इधर उधर से काट पीट कर कुछ पैसे जुटाए भी, लेकिन उसी बीच उनकी बीबी बीमार हो गयी... इस कारण जो बचाया था वो बच न पाया. अफ़सोस कि उनकी बीबी भी न बची.
रफीक भाई ने बड़े सबेरे ही रेडिओ आन कर के चेक कर लिया था कि आवाज ठीक -ठाक है. सेल भी छू कर देख लिया कि सख्त है या नहीं. रेडिओ पर अभी गाना वाना आ रहा था. मैच तो शाम ५ बजे से आना था. डे-नाईट मैच था. लेकिन रफीक भाई अभी से काफी उत्तेजित थे. मैच वाले दिन हमेशा यही होता. वे खाना पीना सब भूल जाते, केवल चौकों छक्कों का मजा लेते. कभी कभी तो बेटी रुखसाना थाली परोस कर रख जाती और खाना ठंडा हो जाने पर फिर उठा ले जाती. लेकिन रफीक भाई टस से मस न होते.
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अधिक जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html
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मैच न आने पर उन्हें विविध भारती पर गाने सुनना पसंद था. पुरानी फिल्मों के गाने -आवारा, पाकीज़ा, मुगले आजम, अनारकली के गाने, या फिर गजलें.... पुरानी फ़िल्मी गानों की बात ही कुछ और है, रफीक भाई कहते. आज के गानों में तो उछल कूद ज्यादा है, मतलब कि बात गायब है. आज कल के गाने सुनने के लिए नहीं बल्कि नौजवानों के देखने के लिए होते हैं.... पुराने गानों में लता जी के गाने उन्हें बहुत पसंद है. एक बार गुप्ता की दूकान पर उन्होंने कहा था -हमारे मुल्क में दो लोग दुबारा पैदा नहीं होंगे, एक तो लता मंगेशकर और दूसरे सचिन तेंदुलकर.
रफीक भाई सुबह शाम में एक बार गुप्ता की दुकान पर अखबार पढ़ने जरूर जाते. रोज रोज अखबार पढ़ने से विभिन्न मुद्दों पर रफीक भाई की एक निजी राय बन गयी थी ज्यादा पढ़ा लिखा न होने के बावजूद, रफीक भाई छोटी मोटी बहसों में हिस्सा लेकर विपक्षी को निपटाने की ताब रखते थे. उनके तर्कों में अमेरिका, विदेश नीति, परमाणु समझौता, जैसे जुमले अक्सर आते रहते, जो मोहल्ले के बहसबाजों को उखाड़ने के लिए पर्याप्त होते. इन सबके अलावा क्रिकेट का उनका सामान्य ज्ञान काबिले तारीफ था. वे गावस्कर के समय से कमेंट्री सुनते आये है. १९८३ में जब भारत विश्वकप के फ़ाइनल में था, तो इधर रफीक भाई का दिल बेतहाशा धड़का जा रहा था. सामान्य होने का नाम ही नहीं ले रहा था. आखिर मैच ख़त्म हुआ, और इधर रफीक भाई उछल पड़े. उन्हें याद है कि भारत के पहली बार विश्व विजेता बनते ही उन्होंने अपनी बीबी को बाँहों में कस के दबा लिया था. रफीक भाई तब गजब के जवान हुआ करते थे. तब उनकी बीबी बोली थी कि भारत के जीतने की ख़ुशी में क्या मेरी दो चार हड्डियाँ तोड़ ही डालोगे.
रफीक भाई की बीबी को मैच में जरा भी दिलचस्पी न थी, लेकिन वो जब तक जिन्दा थी उनकी पसंद का पूरा ख्याल रखतीं. मैच वाले दिन कभी कभी रफीक भाई कीमा कलेजी का जुगाड़ कर लेते तो फिर पूछना ही क्या. चाहे जो टीम जीतती, रफीक भाई जम कर गोश्त उड़ाते. किसी मैच से रफीक भाई को मायूस होते नहीं देखा गया. चाहे भारत जीते या पकिस्तान, आस्ट्रेलिया जीते या इंग्लैण्ड. इस सम्बन्ध में रफीक भाई का स्पष्ट मानना था कि जीत सदैव अच्छे खेल की होती है टीम की नहीं. जो अच्छा खेलेगा वो जीतेगा..... ये बात थोडा बहुत जिंदगी पर भी लागू होती है. कह सकते हैं कि रफीक भाई के जीवन का यही फलसफा था जो क्रिकेट के फलसफे पर आधारित था.
भारत - पाकिस्तान का मैच होने पर गुप्ता की दूकान पर कभी कभी चुहलबाजी भी हो जाती. कोई कहता "रफीक चाचा अगर पकिस्तान जीत गया तो गोला दगोगे ना".कोई दूसरा बोलता "पकिस्तान कैसे जीतेगा, भारत की धरती पर भारत को हराना आसान काम नहीं. फिर तो रफीक चच्चा को रोजा रखना पड़ेगा "
रफीक भाई ऐसी बातों को मुस्करा कर सुन लेते या शायद सुनते भी नहीं. वे शोहदों के मुंह लगना ठीक नहीं समझते. वे किसी को सीना चीर कर तो दिखा नहीं सकते थे कि उनकी नियत क्या है. सच तो ये है कि उन्होंने आज तक ऐसा कुछ भी नहीं किया था, ना गोला दागा था ना ही रोजा रखा था. अपनी औकात भर उन्होंने हर टीम की जीत को सेलिब्रेट किया था. चाहे कीमा -कलेजी और बिरियानी से या चाहे लौकी की तरकारी से........ अगर कोई ज्यादा तंग करता तो रफीक भाई कह देते कि हर मैच में खेल की जीत होती है, भारत या पकिस्तान की नहीं.
चूँकि नियमित अखबार पढने के कारण रफीक भाई विभिन्न विषयों पर अपनी एक निजी राय रखते थे, चाहे वो देशी विषय हो या विदेशी. इसलिए उनका साफ़ मानना था कि भारत -पाक के सियासी मामलों को सुलझाने में क्रिकेट की रचनात्मक भूमिका हो सकती है.... दोनों देशों की जनता क्रिकेट के जरिये और करीब आ सकती है, उनके दिलों का मेल हो सकता है. भारत या पकिस्तान की जीत का कोई मतलब नहीं होता. जीत तो पब्लिक की होती है. आपसी प्यार और मोहब्बत की होती है.
लेकिन रफीक भाई की इन बातों को समझने वाला कोई नहीं था. और उन्हें इस बात से कोई फर्क भी नहीं पड़ता था. वे अपनी मान्यताओं के पक्के थे..... समाज में अच्छे बुरे हर तरह के लोग होते हैं. इसलिए आदमी को अपनी जिंदगी में हर तरह के सवालों से दो चार होना पड़ता है. फिर अक्लमंदी तो इसी में है कि जो सवाल किसी मतलब के ना हों उनसे दामन बचा लिया जाये.
गुप्ता जरूर रफीक भाई के जज्बातों से इत्तेफाक रखता था. वह ऐसे नाजुक मौकों पर बीच बचाव कर के मामले को घुमाने की कोशिश करता. उसके मन में रफीक भाई के बुढ़ापे को ले कर बड़ा आदर था. ना जाने कितनी बार उसने रफीक भाई को असमंजस से उबारा था.... उसे क्रिकेट के प्रति रफीक भाई की दीवानगी का भी अहसास था. जब अखबार में किसी क्रिकेट खिलाडी की फोटो छपती तो वह पन्ना रफीक भाई को बिना मांगे मिल जाता. चार पांच मैचों की कोई श्रंखला होती तो उसकी समय सारिणी भी रफीक भाई काट कर घर ले आते. फिर कुछ दिनों तक उनकी दिनचर्या उसी के हिसाब से बदल जाती... उनके कमरे में खिलाडियों की पचासों तस्वीरें और समय सारणियाँ चिपकी थी. मानो उनका कमरा क्रिकेट का कोई छोटा मोटा म्यूजियम हो. वैसे उस कमरे में पोस्टर और टाइम टेबल के अलावा क्रिकेट से जुडी कोई और चीज नहीं थी. पर अगर रफीक भाई की इतनी हैसियत होती तो वे पीछे हटने वालों में से भी नहीं थे.
रफीक भाई की आदत थी कि मैच वाले दिन वे घर से बहार नहीं निकलते. घर में ही घूम टहल कर मैच के शुरू होने का इंतज़ार करते. और मैच शुरू हो जाने के बाद अपनी जगह से ना हिलते न डुलते. डली पान या बीडी के लिए थोड़ी हरकत कर लें तो ये अलग बात होती..... घर से बहार निकलने में एक दिक्कत तो ये थी कि कही कोई मिल ना जाये. मिल जाने पर ये होता है कि फिर समय गड़बड़ हो जाता है. मन तो मैच में लगा रहता है, फिर सिवाय उस आदमी की उपेक्षा के दूसरा रास्ता नहीं बचता. लोग बाग रफीक भाई इस आदत से वाकिफ हो चुके थे, इसलिए कोई भूल कर भी मैच वाले दिन उनके घर नहीं आता. कोई इमरजेंसी हो तो बात और थी. फिर भी रफीक भाई मैच के रोज घर में कह देते कि कोई आये तो बता देना नहीं है.
कुछ साल पहले रफीक भाई के घर में कुछ मुर्गियां रहती थीं. एक बकरी भी पली थी. इन सब का जिम्मा रफीक भाई की बीबी का था. वे खुद को इस राज काज से दूर ही रखते. यहाँ तक कि मैच वाले रोज उन्हें इन जानवरों की आवाज तक से नफरत होती. पता चला कि मुर्गियों की "कुड -कुड" और बकरी कि "में -में " में पता ही नहीं चला कि चौका पड़ा या छक्का. इस लिए रफीक भाई खुद को इन सबसे दूर ही रखते. वे एक कमरे में बंद हो कर, डली पान की झोली बगल में रख कर, कान से रेडिओ सटा कर लेते या बैठे रहते.
बीबी के गुजर जाने के बाद रफीक भाई जान गए कि जानवरों की देखभाल उनके बस का नहीं. इसलिए उन सबको उन्होंने बेंच दिया. बेचते समय उन्हें थोडा दुःख तो जरूर हुआ कि उनकी बीबी न बड़े जतन से इनको पाला पोसा था. लेकिन क्या करते.
जिस दिन रफीक भाई ने मुर्गी और बकरी को बेचा, उस रात उनकी बीबी उनके सपने में आई थी. बीबी जब मरी तो वो अधेड़ हो चुकी थी. पर सपने में वो जवानी वाले रूप में आई थी. उसने सपने में पूछा था कि मेरी बकरी और मुर्गी को क्यों बेंच दिया, क्या अब इतनी भी मुहब्बत मुझसे बाकी नहीं. रफीक भाई कुछ ना बोले. उनकी बीबी ने सपने में हँसते हुए उन्हें गुदगुदी लगायी और अपना सवाल फिर पूछा. रफीक भाई बोले कि जो लौंडिया तुम पैदा कर के छोड़ गयी हो उसे देख कर मुर्गियों और बकरी की कमी नहीं खलती. वह दिन भर सारे घर में मुर्गियों की तरह खड बड-खड बड मचाये रखती है. बकरी की तरह दिन भर डाली पान चबाती है और होंठ लाल किये रहती है.... इस पर सपने में उनकी बीबी ने कहा कि अब बेटी रुखसाना का ख़ास ख्याल रखना. बगैर माँ की है. तुम्हीं अब उसके माँ बाप दोनों हो. वो जवान हो चली है, इसलिए जल्दी ही उसके हाथ भी पीले करने पड़ेंगे. कोई ऊँच-नीच हो जाएगी तो बुढ़ापा गारत हो जायेगा तुम्हारा..... रफीक भाई सपने में बीबी की बात सुन कर सहम गए. उन्हें लगा की वे बहुत बूढ़े और कमजोर हो गए है और कितनी बड़ी जिम्मेदारी उनके कंधे पर है. फिर सपने में वे अपनी बीबी के गले से लग कर रोने लगे..... थोड़ी देर बाद जब सपने में आई बीबी गायब हो गयी तो वे चौंक कर उठ बैठे. उनकी आँखे नींद में डूबी मगर सूखी थी. पर सपने में हुयी बातचीत को याद कर उनकी आंखें गीली हो गयी
कुदरत ने रफीक भाई को एक ही औलाद बख्शी थी. लड़की. जिसका नाम रुखसाना था. ये नाम उसकी नानी ने रखा था. वो नानी के घर पर पैदा भी हुयी थी. बड़ी होने तक काफी समय तक वो वहीँ रही. उसकी थोड़ी पढाई लिखाई भी हुयी, जितनी मुसलमान लड़कियों के लिए जरूरी होती है. रफीक भाई को कभी लड़के की कमी नहीं खली. रेडिओ में अक्सर बताया जाता है, और अखबार में भी छपता है कि माँ -बाप को औलाद में भेद भाव नहीं करना चाहिए. बेटा बेटी को बराबर समझना चाहिए. और रफीक भाई ऐसा ही मानते भी थे. इस बुढ़ापे में उनकी बेटी एक माँ की तरह उनका ख़याल रखती, भले रफीक भाई उसके लिए माँ का रोल कभी अदा न कर पाए हो.
पर इधर कुछ दिनों से रफीक भाई को अपनी बेटी से डर जैसा लगने लगा था. जैसे -जैसे उनका बुढ़ापा बढ़ रहा था, उनका डर भी बढ़ रहा था. इसके कई कारण थे. एक तो कुछ दिनों में उसका कद बहुत बढ़ गया था, दुसरे वो बहुत कम बोलने लगी थी, अपने आप में सिमटी सी गुमसुम सी रहने लगी थी. तीसरे, सपने में बीबी की कही बात कि जल्दी से इसके हाथ पीले कर के फुरसत पा लेनी है, हर वक्त उनके दिमाग में खटकती रहती.
आज श्रंखला का पहला मैच था. मैच काफी रोमांचक होगा, ऐसी संभावना थी. भारत के सभी स्टार बैट्स मैन फार्म में थे. ऐसे ही हालात पाकिस्तानी टीम के भी थे. पूरा कांटे का टक्कर था. यही बात श्रंखला के हर मैच के लिए भी सही थी. अभी से कुछ कहा नहीं जा सकता की कप कौन जीतेगा. केवल उन्नीस बीस के अंतर से फैसला होने वाला था. रफीक भाई इस पूरी श्रंखला को ले कर काफी जोश में थे क्योंकि निहायत ही अच्छे खेल का मुजाहिरा होने वाला था. फ़ाइनल मैच कानपुर में खेला जाना था. रफीक भाई को बड़ा अफ़सोस था कि बगल में ही इतना गजब का मैच होगा और वे देखने नहीं जा पाएंगे. दिक्कत इतनी थी कि वे चाह कर भी गुंजाईश नहीं बना पा रहे थे. एक तो बुढ़ापे की देह, ऊपर से घर में जवान बेटी. पैसे की तंगी अलग से. ऐसे में करें भी तो क्या करें.
दोपहर में रफीक भाई ने एक नींद पूरी कर ली थी. वैसे दिन में सोने की आदत उनकी नहीं थी. लेकिन जबसे बुढ़ापा गहराने लगा है, न जाने कहाँ से जिस्म में इतनी काहिलियत आ गयी है. बैठे बैठे झपकी आ जाती है..... रफीक भाई अभी उठे हैं. थोडा सा मुंह हाथ धो कर और शरीर को विभिन्न कोणों से ऐठ कर बहुत तारो -ताज़ा महसूस कर रहे हैं. रफीक भाई को चिंता हुयी कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैच शुरू हो गया हो. उन्होंने तुरंत रेडिओ आन किया. घडी उनके पास थी नहीं कि समय देख लेते. रेडिओ में अभी ना जाने क्या आ रहा था. मैच शुरू होने में शायद देर थी.
"रुखसाना", रफीक भाई ने बेटी को आवाज दी. पर वो घर में थी नहीं या रफीक भाई के झुंझलाहट भरे शब्दों में 'कहीं जा के मर गयी थी '.कही का मतलब पड़ोस के किसी घर में. रफीक भाई को डाली पान की बड़ी तेज तलब लगी थी. नींद से फारिग होने के बाद उनके साथ ऐसा होता है. रफीक भाई का बस चले तो वे सबेरे के वक्त भी उठते ही मुंह में डाली पान डाल लें, पर न जाने किस डर से ऐसा कर न पाते. पहले दातून मंजन करते फिर कुछ खाते.
रफीक भाई को ऐसे मौके पर बहुत तेज गुस्सा आता, मैच शुरू होने वाला है और पता चलता है कि डाली पान की झोली ही गायब है. रफीक भाई कभी कभी कहते कि यह उनके घर का कायदा कानून बन गया है, जिस दिन मैच आना होगा उस दिन कोई न कोई बखेड़ा जरूर होगा. इसीलिए उन्होंने मैच के दिन घर से निकलना बंद कर दिया, खुद को एक कमरे में कैद कर लिया. यहाँ तक कि मुर्गियां और बकरियां भी बेच दी. तब भी कोई न कोई बवाल आकर खड़ा हो जाता. जबसे रुखसाना डाली पान खानी लगी है, तबसे ये रोज की दिक्कत हो गयी है. उसका जहाँ मन होता खा कर झोली छोड़ देती. रफीक भाई कितनी ही बार तो डांट चुके है पर उसको अक्ल है कि आती ही नहीं.
रफीक भाई ने सारी अलमारी, ताखे देख डाले. झोली कहीं न मिली. फिर वे रुखसाना के कमरे में गए. झोली यहाँ वहां तलाशा. अंत में वो बिस्तर के चद्दर के नीचे छुपी मिली. तब तक रफीक भाई का धैर्य चुकने लगा था. रुखसाना सामने होती, तो अब तक एक तमाचा पा चुकी होती. ये क्या बात हुयी की घोड़ी जैसी हो गयी है और शऊर एक पैसे का नहीं.
रफीक भाई ने झोली उठा कर तुरंत चेक किया कि सारा सामान है या नहीं. डली, कत्था, चूना, तम्बाकू सब पर्याप्त मात्र में है या नहीं. सारी चीजें सही मात्रा में पा कर वे जाने को हुए. जाने से पहले वे बिस्तर का चद्दर ठीक करने लगे तो उन्होंने देखा कि चद्दर के नीचे एक चिट दबी है. रफीक भाई ने जिज्ञासावश उसे निकल लिया. और पढ़ने लगे.
उस पुर्जे में दो लाइन में जो लिखा था उसे पढ़ कर उनकी कनपटी से भाप निकलने लगा. आँखों के सामने अँधेरा छा गया. हाथ पांव कांपने लगे. वे वही बिस्तर पर धम्म से बैठ गए. पुर्जे में लिखा था - मेरी गुलबदन, आज रात ११ बजे पीछे का दरवाजा खुला रखना. मेरा तुम्हारा मैच पक्का है.
रफीक भाई के हाथ पांव मनो सुन्न पड़ गए थे. वे थोड़ी देर तक आंख मूंदे पड़े रहे. समझ बूझ की ताकत जैसे किसी ने हर ली थी.
तभी दरवाजा खुलने की आवाज आई. रफीक भाई चारपाई से उठ गए. पुर्जे को उन्होंने जेब के हवाले किया. बाहर से रुखसाना आई थी.
"कहाँ गयी थी ?"
"सब्जी लेने. क्यों ?"
"मुझसे नहीं कह सकती थी सब्जी लाना है "
'आज मैच है न, इसलिए कहा नहीं "
तुझे कैसे पता आज मैच है"
"क्यों, बाजा में बता तो रहा था "
रफीक भाई की आंखें सुर्ख हो चली थी. गुस्सा बहुत तेज आ रहा था. उनका मन हो रहा था कि इस छोकरी की गर्दन मुर्गी की तरह मरोड़ दो. सारा किस्सा अपने आप ख़त्म हो जायेगा. वे भी सुकून से जी सकेंगे और मर सकेंगे. पर अभी तो इसने होश उड़ा दिए है. जो सोचा तक नहीं था वो भी इस घर में हो रहा है. खुदा जाने ये सिलसिला कब से कायम है. धीरे धीर बात पूरे मोहल्ले में फ़ैल जाएगी फिर तो मुंह में कालिख पोत कर निकलना पड़ेगा रफीक भाई को. दो चार लोगों में जो इज्जत है वो भी मिटटी में मिल जाएगी.
"सब्जी में क्या मिला ?"
"गोभी'
"गोभी तो दो दिन से पक ही रहा है "
"तो मैं क्या करूँ. बाकी सब्जियां बासी थी, सूखी और मुरझाई हुयी. धनिया और गोभी ही ठीक मिला. वैसे खाना कब तक खाओगे "
"क्यों तुझे नहीं पता कि मैं मैच वाले दिन कब खाता हूँ "
"तो मैं खाना तुम्हारे कमरे में ढक कर रख दूंगी. खा लेना. "
रफीक भाई देख रहे थे कि अपनी ही औलाद किस तरह आँख में लकड़ी करती है. इस वक्त का सलोनापन देख कर कोई भी रुखसाना के इरादे भांप नहीं सकता. अच्छा हुआ जो आज रफीक भाई को पुर्जी मिल गयी. मामले का खुलासा हो गया. अब बदनामी से बचने का एक ही तरीका है कि इस किस्से को एक अंजाम तक पहुंचा दिया जाये.
रफीक भाई फिर से कमरे में लौट आते हैं. वे रेडिओ ट्यून करते हैं. अभी लता जी का गाना आ रहा था -पंख होते तो उड़ आती रे, रसिया वो बालमा..... रफीक भाई ने झट से रेडिओ बंद कर दिया. हालाँकि यह गाना रफीक भाई को बेहद पसंद था. बड़ी दिलचस्पी से वे ये गाना सुनते आये थे. वजह सिर्फ इतनी थी कि गाना सुनते सुनते वे अपनी बीबी की यादों में डूब जाते थे. लेकिन आज इस गाने को सुन कर लगा मानो कटे पर किसी ने मिर्ची छिड़क दी हो.
रफीक भाई ने पुर्जे को निकाल कर फिर से पढ़ा "..................पिछला दरवाजा खुला रखना. मेरा तुम्हारा मैच पक्का है. " रफीक भाई हैरान थे कि दुनिया जहान में कैसी बेहयाई समां गयी है. पर वे किसी को क्या दोष दे जब उनका अपना ही सिक्का खोटा निकल गया.
रफीक भाई दांत पीस कर बडबडाए - आ साले. बच के नहीं जाने दूंगा. चाहे जो होगा तू.
मित्रों, इतना तो आप जानते ही होंगे की हर कहानी एक अंत को मोहताज होती है. कुदरती जिंदगी की तरह हर कहानी का एक अच्छा या बुरा अंत जरूर होता है. पर यहाँ इक मुश्किल आन पड़ी है. इस कहानी को यहाँ तक घसीटने के बाद, मेरे दिमाग में कहानी के एक से अधिक अंत सूझ रहे हैं. दूसरी ओर रफीक भाई भी कहानी को अंजाम तक पहुचाने को अमादा हो चुके है. मै चाहूँ तो लेखकीय हस्तक्षेप के द्वारा कहानी का एक मनमाना अंत कर सकता हूँ. पर दिक्कत ये नहीं है. दिक्कत है कि कौन सा अंत करूँ. मुझे तो कहानी के कई अंत दिखाई दे रहे हैं.
इस मुश्किल से उबरने के लिए मैंने सोचा क्यों न अपने किसी दोस्त की राय ली जाये. इस सदिच्छा से प्रेरित हो कर मैं एक ऐसे दोस्त के पास गया जो फिल्मों का बेहद शौक़ीन है. हालीवुड ओर बालीवुड की न जाने कितनी फिल्में देख रखी है उसने. आप पूछेंगे इसी दोस्त को क्यों चुना ? तो जवाब में मुझे सिर्फ इतना कहना है कि मुझे उम्मीद थी कि मेरा दोस्त इस कहानी का एक ड्रामेटिक अंत बता पायेगा, जिसे पढ़ कर आप खुश हो जायेंगे ओर मुझे निरा उल्लू का पट्ठा नहीं समझेंगे... खैर
फिल्मों के दीवाने मेरे दोस्त ने जो अंत मुझे सुझाये, उन्हें मैं क्रमवार लिख रहा हूँ. और आशा करता हूँ कि आप बगैर नाराज हुए इसे पढ़ लेंगे.
पहले विकल्प के रूप में मेरे दोस्त ने बताया कि ठीक पौने ग्यारह बजे हीरोइन (अर्थात रुखसाना ) धीरे से अपने कमरे का दरवाजा खोलती है. दबे पाँव घर के पिछले दरवाजे तक आती है, ओर कुण्डी हटा कर चुपचाप अपने कमरे में वापस आ जाती है. ठीक ग्यारह बजे हीरो पीछे के दरवाजे से इंट्री मारता है वह दबे पांव हीरोइन के कमरे की ओर बढ़ता है.... तभी खटाक से रफीक भाई के कमरे का दरवाजा खुलता है. टार्च की तेज रौशनी हीरो के चेहरे पर पड़ती है. रफीक भाई पहचान लेते हैं कि ये तो सुलेमान का छोरा है. वे उसका कान पकड़ कर सुलेमान भाई के पास ले जाते हैं. सुलेमान भाई हीरो को दो तमाचे रसीद करते हैं ओर रफीक भाई से माफ़ी की गुहार लगाते हैं. फिर कहते हैं कि अगर बात यहाँ तक आ पहुंची है तो क्यों न दोनों का निकाह पढ़वा दिया जाये. फिर क्या, रफीक भाई राजी हो जाते हैं..........ये हुआ कहानी का वेरी-वेरी -वेरी हैप्पी एंड. करण जौहर ओर यश चोपड़ा स्टाइल में.
मेरे दोस्त ने चाय की एक गहरी चुस्की ली और कहा -अगर ये अंत तुम्हे न पसंद हो तो अगली च्वाइस सुनो. दूसरे टाईप के एंड में क्या होता है कि हीरो ठीक ग्यारह बजे रफीक भाई के घर में घुसता है. वह दबे पांव रुखसाना के कमरे की ओर बढ़ता है कि तभी.... खटाक ! रफीक भाई कमरे से बाहर निकलते हैं. टार्च की तेज रौशनी हीरो के चेहरे पर पड़ती है रफीक भाई हीरो को पहचान जाते हैं. वो मानबहादुर का बेटा निकलता है. वे आँगन में रखा एक धारदार हथियार उठा कर आगे बढ़ते हैं " कमीने, तेरी यह हिम्मत " कह कर रफीक भाई हीरो पर वार करते हैं.. तभी हीरोइन अपने कमरे से निकल कर रफीक भाई का हाथ पकड़ लेती है. वो कहती है 'मेरे प्यार को मारने से पहले आपको मेरी लाश पर से गुजरना होगा '.रफीक भाई के हाथ से हथियार छूट कर गिर जाता है.... यह कैसे हो सकता है भला कि वे अपने उन्हीं हाथों से बेटी का खून कर दे जिन हाथों से उन्होंने उसे पाल पोस कर बड़ा किया था. यह सीन यहीं कट हो जाता है.
अगले सीन में रुखसाना एक अटैची ले कर घर से बाहर निकलती है. उसने हीरो का हाथ थाम रखा है. रात का सन्नाटा अँधेरे में घुला मिला है. रफीक भाई दरवाजे तक दोनों को छोड़ने आते हैं. रुखसाना हीरो का हाथ पकड़ आर धीरे धीरे आगे बढती है. वह बार बार पीछे मुड़ कर अपने बाप को देखती है.... फिर एकाएक दौड़ कर आती है और रफीक भाई के गले लग कर रोने लगती है. रफीक भाई बेटी के बाल सहलाते हैं और कहते हैं 'जा बेटी इस दुनिया से कही दूर अपना आशियाँ बना ले, जहाँ कोई तेरी मुहब्बत का दुश्मन न हो '. हीरोइन रोते हुए हीरो के पास आती है. फिर दोनों अँधेरे में कहीं दूर चले जाते हैं. कहानी ख़त्म.
मेरे दोस्त ने कहा कि तुमने महसूस किया होगा कि इस वाले अंत में थोड़ा जी. पी.सिप्पी और गुड्डू धनोवा का असर आ गया है. अगर तुम्हें यह भी न पसंद हो तो तीसरा अंत सुनो. यह थोडा महेश भट्ट स्टाइल में है. इस एंड में क्या है कि तुम्हें कैमरा पूरी तरह से हीरोइन के बेड पर फोकस करना होगा. सिचुएशन ये है कि ग्यारह बजने में कोई ५ मिनट बाकी है और हीरो गली में खड़ा है. हीरोइन आंगन में खड़ी है. हीरो एक पत्थर उठा कर रफीक भाई के आंगन में फेंकता है, इसका मतलब हुआ क्या मै आऊं. आंगन में खड़ी हीरोइन पत्थर को वापस गली में फेंकती है, मतलब लाइन क्लीयर है आ जाओ. हीरो धीरे से पिछला दरवाजा खोल कर भीतर आता है. उधर हीरोइन रफीक भाई के कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर देती है. रफीक भाई को बाहर निकालने से कोई फायदा नहीं. उन्हें कमरे में ही रहने दो और जो हो सकता है उसे हो जाने दो..... हीरो और हीरोइन कमरे में आते हैं. तुम्हें अब अपना कैमरा उन दोनों पर फोकस करना होगा. तभी बादल गरजते हैं और जोर की बारिश होने लगती है. हीरोइन हीरो से चिपक जाती है. हीरो हीरोइन को चूमने लगता है. वह उसका कुरता उतर कर फेंक देता है, फिर बाकी कपडे भी धीरे धीरे........... तो यह हुआ कहानी का एक हाट एंड. आगे तुम्हारी मर्जी.
मैं अपना माथा पीटता हुआ वापस लौट आता हूँ. आप समझ गए होंगे कि मेरे दोस्त ने मुझे जो विकल्प बताये वो कितने वकवास किस्म के हैं. लेकिन मैं शुरू में ही निवेदन कर चूका हु की आप कृपया नाराज नहीं होंगे.
पर अभी भी कहानी के अंत का मामला सुलझा नहीं है..... रफीक भाई की कहानी का अंत यूँ ही नहीं किया जा सकता. क्योंकि रफीक भाई की समस्या ये नहीं है की वे एक नालायक बेटी के बाप है. उनकी समस्या ये है की वे एक नालायक बेटी के बूढ़े मुसलमान बाप है. और रफीक भाई कोई फ़िल्मी मुसलमान तो है नहीं. वे हमारे आपके पड़ोस में रहने वाले भारतीय मुसलमान है, जिन्होंने मुंबई, गुजरात, मेरठ और इलाहाबाद के दंगे अगर आँख से देखे नहीं तो कान से सुने जरूर है. वे अपनी दाढ़ी में कितना डर, आतंक और असुरक्षाबोध समेटे है, ये वे ही जानते हैं.
तो मैं चाहता हूँ कि इस कहानी का अंत वैसा हो जैसा रफीक भाई चाहते हैं. लेकिन रफीक भाई कहानी का क्या अंत करते हैं ये जानने के लिए रात १२ बजे तक उनका निरिक्षण करना होगा, जोकि एक पेचीदा काम है. आपको घ्यान होगा मेरे दोस्त ने अपनी तमाम बकवास में एक कायदे की बात बताई -कैमरा फोकस करना. तो क्यों न रफीक भाई को आब्जर्ब करने के लिए एक आध कैमरों का इस्तेमाल किया जाये. इसमें मुझे भी सुविधा होगी और आपको भी. मेरी सुविधा ये है कि मैं रात भर आराम से सोऊंगा और सुबह उठ कर कैमरे की रिकार्डिंग देख कर कहानी पूरी कर लूँगा. आपकी सुविधा ये रहेगी कि आप कहानी के अंत को स्वीकार कर लेंगे. क्योंकि तमाम खबरिया चैनल देख कर आपने ये राय बना ली है कि सच वही है जो कैमरे से छन कर आता है.
थोड़ी सी मोहलत ले कर मैं आपको ये भी बताता चलूँ कि इस काम में कितने कैमरे है और कहाँ कहाँ प्रयोग किये गए है. तो कैमरों की संख्या दो है. कैमरा नंबर १,रफीक भाई के कमरे को कवर करेगा. कैमरा नंबर २ उनके आंगन को कवर करेगा.
कैमरा नंबर १ की रिपोर्ट -
रफीक भाई गुमसुम से अपने कमरे में पड़े है. आज कमेंट्री सुनने का उनका मूड उखड़ चुका है. वे एक तक छत को घूर रहे हैं और कुछ सोच रहे हैं. उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि ये जुर्रत आखिर है किसकी. मोहल्ले में तो हर तरह के आवारा लड़के घूमते रहते हैं हिन्दू भी, मुसलमान भी. आखिर ये लड़का किस कौम का होगा. वैसे कोई हिन्दू लड़का ये हिमाकत करेगा नहीं. हर कोई जानता है कि पकड़े जाने पर क्या दशा होगी. पूरा शहर दंगे की चपेट में आ सकता है. हिन्दू मुसलमान मिल जुल कर जरूर रहते हैं क्योंकि सबको एक दूसरे की जरूरत पड़ती है. लेकिन जहाँ बात कौम की होगी, तो कोई किसी को बख्शेगा नहीं. सब एक दूसरे के खून के प्यासे हो जायेंगे........ नहीं, नहीं कोई हिन्दू लड़का ऐसा नहीं कर सकता. ये तो कोई मुसलमान ही होगा जो रुखसाना की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहा है. सोचा होगा बाप बुड्ढा है और लड़की अकेली. कोई कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा...... या खुदा, क्या ज़माना आ गया है. अपनी ही कौम के लोग चैन से जीने नहीं देते.
रफीक भाई ने करवट ले कर रेडिओ ट्यून किया. मैच शुरू हो गया था. भारत ने टास जीत कर पहले गेंदबाजी चुना था. पकिस्तान की टीम बल्लेबाजी कर रही थी. एक विकेट पर छियालीस रन थे. और कोई दिन होता तो रफीक भाई सांस रोक कर एक एक गेंद का हाल सुनते. पर आज इनका दिमाग इतना गर्म था कि लग रहा था कहीं तबीयत न ख़राब हो जाये.
रफीक भाई लेटे लेटे सोच रहे थे कि लड़के को पकड़ने के बाद करना क्या है. वह होगा मुसलमान ही, ये तो पक्का है..... तो करना क्या है, उसके घरवालों को राजी करके दोनों का निकाह कर देंगे. बात को कोई दूसरा रुख देने से गन्दगी ही फैलेगी. आखिर बेटी की जिम्मेदारी से फुर्सत भी तो पानी है.. चलो इसी बहाने सही. अगर वे कोशिश करते तो बिरादरी का कोई लड़का जरूर ढूंढ लेते,पर रफीक भाई ने तो लापरवाही की हद कर दी थी. उनकी बीबी जिन्दा होती तो कोंच -कोंच कर अब तक कब का रुखसाना को विदा करा चुकी होती... घर में जवान बेटी बिठाये रखेंगे तो यही सब होगा ही.
पकिस्तान का दूसरा विकेट गिर चुका था रेडिओ पर दर्शकों के शोर मचाने की आवाज आ रही थी. पल भर को रफीक भाई का ध्यान टूटा.
रफीक भाई फिर सोचने लगते हैं कि अगर लड़का हिन्दू ठहरा तो वे क्या करेंगे. आज कल के लफंगों का कुछ भी भरोसा नहीं. ये सब रोज पुलिया पर बैठ कर बीयर पीते हैं और आने जाने वाली लड़कियों पर फिकरे कसते हैं. नशे में डूबे इंसान का क्या भरोसा.... उन्हें याद है एक बार जब वे अँधेरे में पुलिया से गुजर रहे थे, तो उन्होंने एक अजीब बात सुनी. शायद यह बात उन्हें सुनाने के लिए ही कही गयी थी. कुछ हिन्दू लड़के एक झुण्ड में पुलिया पर बैठे थे. उनके हाथ में बीयर की बोतल और सिगरेट थी. एक लड़का बोला -'अगर एक मुसलमान लड़की को पटा लो तो वो एक मंदिर बनवाने के बराबर होता है'......... रफीक भाई ने सुना तो उन्हें मितली आ गयी थी. कैसे घटिया ख़यालात है. छी.
रफीक भाई को आज यह घटना याद आई तो वे तिलमिला उठे. उन्होंने अपनी मुट्ठी कस के भींच ली... और तय किया की अगर लड़का हिन्दू निकला तो उसे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे. बोटी बोटी काट के यही आंगन में दफन कर देंगे. किसी को कुछ पता भी न चलेगा.... और अगर पता चल भी गया तो जो होगा वो देखा जायेगा. अगर नसीब में दंगे में मारा जाना ही लिखा होगा तो कोई उसे मिटा नहीं पायेगा.
रफीक भाई झटके से कमरे से बहार निकलते हैं. कट.
कैमरा नंबर २ की रिपोर्ट -
कमरे का दरवाजा खोल कर रफीक भाई बाहर निकलते हैं. वे पूरे आंगन में इधर उधर कुछ ढूडने लगते हैं. एक कोने में उन्हें एक छूरा मिलता है जो बकरीद में कुर्बानी देने के काम आता है. छूरा ऐसा कि एक ही वार में सर धड से अलग कर दे. रफीक भाई हाथ से छूरे के वजन का जायजा करते हैं. धार तो मनमाफिक थी ही. वे छुरा ले कर कमरे में लौट आते हैं. कट.
कैमरा नंबर एक की रिपोर्ट -
रफीक भाई छूरा चारपाई के नीचे रख कर लेट जाते हैं. दरवाजा बंद करके घंटो लेटे रहते हैं. धीमी आवाज में रेडिओ से कमेंट्री आती रहती है. रफीक भाई कमेंट्री सुन रहे हैं या कुछ सोच रहे हैं, पता नहीं चल पाता. पर वे बेहद चौकन्ने जरूर है. जरा सी आहट पर दरवाजा खोल कर बाहर झांकने लगते हैं. फिर यह जान कर कि ग्यारह अभी नहीं बजे है, बिस्तर पर लौट आते हैं.
दस बजे के बाद रुखसाना रफीक भाई का खाना ला कर कमरे में रख जाती है. और ये कह कर चली जाती है कि सोने जा रही हूँ. रफीक भाई एक बार भी निगाह उठा कर उसकी ओर नहीं देखते.
बीच में कुल दो बार रफीक भाई डाली पान खाते हैं ओर बीडी पीने के लिए ५ बार माचिश जलाते हैं.
रेडिओ पर धीमी आवाज में कमेंट्री आ रही है
कैमरा नंबर 2 की रिपोर्ट - चांदनी रात है. पूरे आँगन में उजाला बिखरा है. रुखसाना के कमरे की लाइट बंद है. रफीक भाई के कमरे की लाइट जल रही है.
कैमरा नंबर १ की रिपोर्ट -
भारत जीत के काफी करीब पहुँच चुका है. मैच बेहद रोमांचक दौर से गुजर रहा है. तीस गेंद पर पच्चीस रन बनाने है भारत को. सचिन ९० पर खेल रहे हैं... दर्शक काफी उत्तेजित है. तभी कमेंटेटर चिल्लाता है - और ये सचिन आउट. एक बार फिर नर्वस 90 के शिकार हुए मास्टर ब्लास्टर. भारत को बहुत बड़ा झटका. देखना है कि आने वाले बल्लेबाज भारत को जीत दिला पाते हैं या नहीं.
....रेडिओ का शोर सुन कर रफीक भाई झटके से उठते हैं शायद उन्हें बुढ़ापे वाली झपकी आ गयी थी. आँगन में कोई आहट हुयी थी. रफीक भाई नीचे से छूरा उठाते हैं ओर बाहर निकलते हैं.
कैमरा नंबर २ की रिपोर्ट - रफीक भाई देखते हैं कि रुखसाना के कमरे से एक शख्स दबे पांव बाहर जा रहा है. रफीक भाई को निकलता देख कर वो तेजी से पिछले दरवाजे की तरफ भागता है ओर दरवाजा खोल कर गली में उतर जाता है. रफीक भाई उसकी ओर लपकते हैं. गली में दोनों के दौड़ने की आवाज आती है.
रुखसाना अस्त- व्यस्त कपड़ो में बाहर आती है. चांदनी रात में उसका चेहरा बिलकुल खाक नजर आता है.
बड़ी देर तक ख़ामोशी छाई रहती है. कहीं कोई हलचल नहीं. लगभग आधे घंटे के बाद रफीक भाई वापस आंगन में खाली हाथ लौटते हैं. रुखसाना भीतर छुप कर दरवाजा बंद कर लेती है. रफीक भाई छुरा एक ओर फेंक देते हैं. उनकी कमीज की एक आध बटन टूटी हुयी थी. लग रहा था कि रफीक भाई की उस लड़के से हाथापाई हुयी हो. ' वह हरामी का पिल्ला मेरे हाथों से बचेगा नहीं '.रफीक भाई रुखसाना को सुनाते हुए बोलते हैं.
कैमरों में इसके बाद कुछ खास रिकार्ड नहीं हुआ.
आँखों देखी रिपोर्ट -
सुबह होने के थोड़ी देर बाद रफीक भाई अपने घर से बाहर निकलते हैं और सड़क पकड़ कर चलने लगते हैं. वे सिर झुकाए चुपचाप चले जा रहे हैं. अगल बगल से कौन गुजर रहा, उन्हें कुछ परवाह नहीं.
'रफीक भाई सलामवालेकुम '
रफीक भाई चुप.
'रफीक भाई कल तो इंडिया ३ विकेट से जीत गयी '
रफीक भाई चुप.
'क्यों रफीक भाई तबीयत तो ठीक है '
रफीक भाई चुप. बिलकुल चुप.
ये रफीक भाई कहाँ जा रहे हैं. शायद गुप्ता की दूकान पर जा रहे हों. अखबार पढने... लेकिन नहीं, गुप्ता की दूकान तो पीछे छूट गयी है. रफीक भाई फिर भी चले जा रहे हैं. आखिर कहा जा रहे हैं रफीक भाई और क्यों जा रहे हैं.
चलते - चलते रफीक भाई शहर के बाहर आ गए. शहर के बाहर काफी संख्या में पेड़ लगे थे. बगीचेनुमा. उनके पीछे एक मैदान था और एक टीला. टीला दरअसल पुरानी रियासत के समय का था. वह एक तरह से ईंट पत्थर और मलबे का ढेर था.... रफीक भाई टीले पर चढ़ जाते हैं.
टीले से पूरा शहर दिखता है. छोटे बड़े घर, मोबाईल टावर, घर की छतों पर सूखते कपडे, सब दिखता है. रफीक भाई ग़ुम - सुम से टीले पर बैठ जाते हैं. इस वक्त उन्हें कोई नहीं देख पा रहा था, पर वे सारा शहर देख रहे थे... और रफीक भाई के मन में बातों के बादल घुमड़ रहे थे................
.....तो क्या आने वाले दो चार दिनों में यह शहर दंगे की चपेट में होगा. वे जिस मलबे के ढेर पर इस वक्त बैठे है, ऐसे ही लाशों के ढेर में बदल जायेगा शहर. जिस हवा में इस वक्त हंसी ख़ुशी की बातें घुली है, उसमें चीख और चिल्लाहट गूंजेगी... माहौल में दहशत फैला होगा और लोग बाग़ अपने घरों में बंद होंगे या लाश में तब्दील होकर सड़क पर पड़े होंगे... लोगों को जिन्दा तंदूर में भून दिया जायेगा.... हत्यारे इधर -उधर जश्न मना रहे होंगे... मासूम बच्चों को इसलिए क़त्ल कर दिया जायेगा कि वे बड़े हो कर हिन्दू या मुसलमान बन जायेंगे... गर्भवती महिलायों का पेट चीर दिया जायेगा.... नीचे जमीन पर खून से भीगे चींटे रेगेंगे और आस्मां में गिद्ध नाचेंगे........ और इन सब के जिम्मेदार होंगे रफीक भाई., रफीक भाई की थोड़ी सी नासमझी शहर में आग लगाने वाली साबित हो जायेगी.
'नहीं, ये नहीं होगा, हरगिज नहीं. ' रफीक भाई तेजी से चीखते हैं. पर इस वक्त वो शहर से इतने दूर है और इतनी ऊंचाई पर है कि कोई उन्हें सुन नहीं पाता. रफीक भाई टीले पर बेसुध पड़ जाते हैं...... और कई दिनों तक पड़े रहते हैं
और आज. रफीक भाई के घर के सामने बड़ी भीड़ जमा है. थोड़ी देर बाद पुलिस रफीक भाई की लाश को पोस्ट मार्टम के लिए ले जाने वाली है.... रफीक भाई दो दिनों से घर से गायब थे. आज सुबह उनकी लाश टीले पर से उतारी गयी थी. मौत की वजह, लाश को देख कर पाता कर पाना मुश्किल था न तो कोई चोट चपेट न ही किसी हथियार का निशान था.
फिलवक्त, रफीक भाई की लाश उनके आंगन में रखी है, जहाँ कभी उनकी बीबी की लाश दफन होने से पहले रखी गयी थी... कुछ औरतें रुखसाना को हिला डुला कर रुलाने की कोशिश कर रही हैं... उसके भीतर आंसू का सोता सूख गया है और वो जैसे पत्थर हो गयी है.
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संपर्क:
email - nkshukla222@gmail .com
blog - fursat-nama.blogspot.com
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार १४/८/१२ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चामंच पर की जायेगी आपका स्वागत है|
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