कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -51- ऋता शेखर 'मधु' की कहानी - बहू, घर चलो

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कहानी--- बहू , घर चलो... ऋता शेखर 'मधु' रात बीतने को आई किन्तु वकील साहब की आँखों में नींद नहीं थी। सारी सात वे अँधेरे में ही कम...

कहानी---

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बहू, घर चलो...

ऋता शेखर 'मधु'

रात बीतने को आई किन्तु वकील साहब की आँखों में नींद नहीं थी। सारी सात वे अँधेरे में ही कमरे की छत की ओर आँखें गड़ाए ताकते रहे। कभी करवट बदलते, कभी उठकर बैठ जाते। लग रहा था बहुत ही उधेड़बुन में थे। जिन्दगी में अक्सर दोराहों का सामना हो जाता है जिनमें किसी एक रास्ते को चुनना बहुत कठिन लगता है। किन्तु निर्णय तो लेना ही पड़ता है उन्हें, जो सभ्य और संस्कारी होते हैं। जिनमें दूरदर्शिता नहीं होती उनके सामने कभी दोराहे नहीं आते...जीवन जैसे चल रहा है, बस ठीक है।

वकील साहब का एक सुखी परिवार था। सुंदर पत्नी और शादी के लायक एक बेटा था जिसे वे बहुत प्यार करते थे। गाँव में अपनी खेती-बाड़ी थी, प्रैक्टिस भी खूब चलती थी। धनाढ्‌यों में गिनती होती थी उनकी। महल जैसा घर और घर में नए मॉडल की दो गाड़ियाँ थीं, एक उनके लिए और दूसरी उनके सुपुत्र के लिए। वकील साहब दिन भर किताबों में उलझे रहते। बेटे की देख-रेख का सारा भार उनकी पत्नी पर था। नवाबों की तरह वह पल रहा था। जब भी पैसे की जरूरत होती माँ इन्कार नहीं करती। बेटे से सख्ती नहीं कर पाती थीं। नतीजा यह रहा कि वह बिगड़ैल नवाब के रूप में जाना जाने लगा। किसी तरह से उसने ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई की थी। आकर्षक डीलडौल, घुँघराले बाल, गोरा चिट्टा था। बचपन से कभी अभाव नहीं जाना था इसलिए पैसे को पानी की तरह बहाता था। गुस्सा तो नाक पर ही रहता। जब वह किसी तरह की कोई नौकरी में नहीं जा सका तो वकील साहब ने बिजनेस में लगा दिया। यहाँ वह सफल हुआ, क्योंकि उस बिजनेस में दबंग की ही जरुरत थी

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रु. 15,000 के 'रचनाकार कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन' में आप भी भाग ले सकते हैं. पुरस्कार व प्रायोजन स्वरूप आप अपनी किताबें पुरस्कृतों को भेंट दे सकते हैं. अंतिम तिथि 30 सितम्बर 2012

अधिक व अद्यतन जानकारी के लिए यह कड़ी देखें - http://www.rachanakar.org/2012/07/blog-post_07.html

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इतने धनी-मानी घर में अपनी बेटी को देने के लिए कई पिता उत्सुक थे। खूब रिश्ते आने लगे। अन्त में हर प्रकार से जिसे योग्य समझा गया वह निहारिका थी। लड़की की सारी खूबियों से सुशोभित...अर्थात लम्बी , गोरी, घर के कामकाज में निपुण, सुशील और आज्ञाकारिणी। सभी खुश थे। वकील साहब की पत्नी बड़े ही शौक से शादी की खरीदारियाँ कर रही थीं। निश्चित समय पर विवाह संपन्न हुआ। घर में खूब रौनक आ गई। इस घर में आकर निहारिका भी अपने भाग्य सराह रही थी।

सुंदर पत्नी पाकर वकील साहब का बेटा भी प्रसन्न था। हमेशा दोस्तों के साथ घूमने के बजाय घर में ही रहता। किन्तु अपने बेटे के स्वभाव को लेकर वकील साहब सदा सशंकित रहते। बहू की हर जरूरत और सुख सुविधा पर नजर रखते। बहू भी सास-ससुर की सेवा में तल्लीन रहती। समय बीता...वकील साहब और उनकी पत्नी दादा-दादी बने। पोते को गोद में ले फूले न समाते थे। दिन बीतने लगे।

एक दिन वही हुआ जिसका डर था...सभी लोग डायनिंग टेबल पर बैठे खाना खा रहे थे। बेटे ने निहारिका को गरम पराठा लाने को कहा...तभी मुन्ना रोने लगा। निहारिका उसे संभालने चली गई। नवाबज़ादे ने इसे अपनी तौहीन समझा और खाने की प्लेट जमीन में पटक दिया। माता-पिता तो उसके गुस्से से वाकिफ़ थे ही, किन्तु निहारिका के लिए पति का यह रूप नया था। वह सहम गई और रोने लगी। वकील साहब ने भी खतरे की घंटी को समझा। किसी तरह से बहू को समझाया। निहारिका बच्चे के कारण उसपर अधिक ध्यान नहीं दे पाती थी। इस कारण वह रईसजादा अधिकतर समय घर के बाहर बिताने लगा और बुरी संगति में पड़ने लगा।

उसके बाद इस तरह की घटनाएँ अक्सर घटने लगीं। मैके के अच्छे संस्कार लेकर आई थी, इसलिए घर को अखाड़ा नहीं बनाना चाहती थी। वह हरसंभव चुप रहने का प्रयास करती। निहारिका की चुप्पी वकील साहब के बेटे की हिम्मत बढ़ाती गई। अब वह कभी- कभी निहारिका पर हाथ भी उठा देता। यह निहारिका को बहुत बुरा लगता फिर भी सास- ससुर का ख्याल करके चुप रह जाती क्योंकि उनसे उसे कोई शिकायत नहीं थी।

गुस्सैल तो वह था ही, किन्तु हर हमेशे  मार-पीट का माहौल निहारिका को बरदाश्त नहीं होने लगा। अब तो वह किसी किसी रात घर भी नहीं आता था। वकील साहब की चिन्ता बढ़ती जाती थी। बेटे को समझाना चाहा, लेकिन उसका मन तो कहीं और उलझ गया था। वह निहारिका की ओर देखना भी पसन्द नहीं करता था। एक बार निहारिका का मन हुआ कि वह सब कुछ छोड़छाड़ कर वापस मैके चली जाए किन्तु संस्कार यह कदम उठाने की इजाजत नहीं दे रहे थे।

एक दिन तो हद ही हो गई...वह नशे में धुत लड़खड़ाता हुआ आया और पत्नी को घर से निकल जाने का आदेश दिया। वह सकते में आ गई। उसने ससुर जी की ओर देखा। वकील साहब ने उसे समझाने की कोशिश की किन्तु वह कहाँ समझने वाला था। उसने उनके साथ भी बदतमीजी से बात की। निहारिका कुछ बोलना चाह रही थी तो नवाबज़ादे ने उसे जोर से धक्का मारा। अचानक हुए इस प्रहार को वह झेल नहीं पाई। गोद में मुन्ना भी था। दोनों ही औंधे मुँह गिर पड़े। उसने किसी तरह मुन्ने को तो बचा लिया किन्तु खुद उसका सर जमीन से टकरा गया। सर से खून निकलने लगा। मुन्ना बेतहाशा रोए जा रहा था। माँ ने कुछ कहना चाहा तो उन्हें भी चुप कर दिया। परिस्थिति बेकाबू हो गई थी। वकील साहब बेटे की इस हरकत से बहू के सामने शर्मिन्दगी महसूस कर रहे थे। समय पर बेटे पर अंकुश न लगाने का परिणाम सामने था। उन्होंने डॉक्टर को बुलाया और बहू की मरहम पट्टी करवाई। डॉक्टर से उन्होंने झूठ बोल दिया कि वह सीढ़ियों से गिर गई है।

अभी तक निहारिका ने अपने मैके में कुछ नहीं बताया था। वह पढ़ी-लिखी लड़की थी। जहाँ तक हो सका उसने सहनशीलता दिखाई...किन्तु कब तक? यह सवाल उसके जेहन में बार-बार उठने लगे। मुन्ने के भविष्य का सवाल भी सामने था।

आखिरकार  उसने घर छोड़ने का फैसला ले लिया। अश्रुपूरित नजरों से उसने सास-ससुर से विदाई ली। वकील साहब के पास कहने के लिए कोई शब्द ही नहीं थे।

निहारिका पिता के घर के दरवाजे पर खड़ी थी। उसे विश्वास था कि पिता जी उसका साथ देंगे। काँपते हाथों से उसने कॉलबेल बजाया। दरवाजा पिता ने ही खोला। बेटी के सर पर बँधी पट्टी देखकर उनका कलेजा मुँह को आ गया। अनुभवी आदमी थे, पल भर में ही सारा माजरा समझ गए। बेटी को गले से लगा लिया। पिता का स्नेहिल स्पर्श पाते ही वह फूट पड़ी। उसने रोते-रोते सबकुछ बताया। पिता ने निर्णय सुना दिया कि अब वह उस हैवान के पास वापस नहीं जाएगी।

इधर सारी दुनिया के लिए लड़ने वाले वकील साहब को अचानक सामने दोराहा नजर आने लगा। एक तरफ बेटा था तथा दूसरी ओर बहू और पोता। इसी उधेड़बुन में उन्हें सारी रात नींद नहीं आई थी। बेटा को घर छोड़ने के लिए कहें , दिल यह मानने को तैयार नहीं था। बहू, जिसने कभी शिकायत का मौका नहीं दिया, उसे कैसे बेघर कर दें। उनका दिमाग काम नहीं कर रहा था। बहुत सोच-विचार कर उन्होंने फैसला ले लिया। पत्नी मानने को राजी न थी। उसे भी समझाया।

वकील साहब बहू के मैके पहुँचे। निहारिका और उसके पिता ने आवभगत में कोई कसर नहीं रखा। वकील साहब ने कहा-“ बहू, घर चलने के लिए तैयार हो जाओ।”

निहारिका ने पिता की ओर देखा।

पिता ने कहा-“ क्षमा कीजिए वकील साहब, मैं आपकी इज्जत करता हूँ किन्तु बेटी को न भेजूँगा। मुझे उसकी जान पर खतरा नजर आ रहा है। शार्ट टेम्पर्ड व्यक्ति कब क्या कर बैठे, इसका कोई ठिकाना नहीं। आप यहाँ आते-जाते रहें, पर निहारिका को न भेजूँगा।”

“मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, ऐसा कुछ न होगा। मेरा घर बहू और पोते का है, अपने बेटे को मैंने घर से निकाल दिया है। निहारिका सम्मान के साथ वहाँ रहेगी।” वकील साहब ने दृढ़ता से कहा।

निहारिका के पिता अवाक् रह गए। ऐसा भी होता है कि बहू के सम्मान के लिए इकलौते बेटे को घर से निकाल दें। जिसने भी सुना वकील साहब के न्याय पर दाँतों तले ऊँगली दबाकर रह ग‌या। वकील साहब बहू और पोते को आदर के साथ घर ले आए। बहू अपने स्वभाव के अनुरूप घर को सँभालती हुई मान मर्यादा से रहने लगी। पोते को उन्होंने बहुत अच्छी शिक्षा दी। अब वह एक ऊँचे पद पर कार्यरत था। एक बार वकील साहब के बेटे ने घर आने की कोशिश की किन्तु पिता से दो टूक जवाब सुनकर वापस लौट गया।

धीरे-धीरे वकील साहब का शरीर वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहा था। निहारिका और मुन्ना जी जान से उनकी सेवा करते। कभी किसी भी काम के लिए उन्हें दोबारा नहीं बोलना पड़ता। वकील साहब की पत्नी बेटे के लिए दुखी रहती थी पर बहू और पोते से उन्हें कोई शिकायत नहीं थी। समय बीता, मौत आनी थी, आई। वकील साहब का निधन हो गया। निहारिका निःशब्द रोए जा रही थी। उसे यही लग रहा था कि यदि उन्होंने सहारा नहीं दिया होता तो पिता के घर में वह जी तो जाती किन्तु एक बेचारी की तरह जिन्दगी हो जाती। माता-पिता बेटी को घर में रखकर समाज की आलोचना का शिकार बनते सो अलग।

अब दाह-संस्कार की बारी आई। वकील साहब का बेटा भी पिता के अन्तिम दर्शन के लिए मौजूद था। मुखाग्नि वही देना चाहता था। वकील साहब ने कह रखा था कि मरने के बाद उनकी वसीयत तुरत पढ़ी जाए और उसके अनुसार ही काम किया जाए। वसीयत में यह लिखा था कि दाह-संस्कार का काम पोते के हाथों ही संपन्न हो। पत्नी के निधन के उपरांत सारी जायदाद निहारिका के नाम लिखी गई थी। जिसने भी सुना वकील साहब के न्याय पर दंग रह गया। अपने बेटे को छोड़ दूसरे की बेटी को सहारा देकर वकील साहब ने समाज के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया था।

ऋता शेखर ‘मधु’

COMMENTS

BLOGGER: 3
  1. बहुत सुन्दर और सशक्त कहानी....
    काश हर सास ससुर यूँ ही निष्पक्ष होकर सही गलत का फैसला करें...और सत्य का साथ दें..निहारिका उस मायने में तो भाग्यशाली थी....मगर क्या वकील साहब की तरह के ससुर वाकई हैं समाज में???या सिर्फ कहानियों में है??
    काश.....होते....
    ढेरों शुभकामनाएं ऋता जी को.
    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं
  2. aise udaharan kam hi dekhne ko milte hain yadi aise nirnay sabhi lene lagein to samaj me parivartan sambhav hai.

    जवाब देंहटाएं
  3. दुनिया मिसालों से भी भरी है... वाकई , शिक्षाप्रद कहानी ... मेरी शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -51- ऋता शेखर 'मधु' की कहानी - बहू, घर चलो
कहानी लेखन पुरस्कार आयोजन -51- ऋता शेखर 'मधु' की कहानी - बहू, घर चलो
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