काव्यानुशासन, छन्दानुशासन और गज़ल.... ( डॉ. श्याम गुप्त ) बचपन में हम जो पिता, माता, गुरु क...
काव्यानुशासन, छन्दानुशासन और गज़ल....
( डॉ. श्याम गुप्त )
बचपन में हम जो पिता, माता, गुरु कहते हैं वही करते हैं, वही कर पाते हैं नियम और अनुशासन का पालन करते हैं, और वही करना ही चाहिए। बड़े होने पर वे ही बच्चे माँ, पिता, गुरु से भी आगे निकल जाते हैं, पुरा से आगे नए-नए क्षितिज निर्माण करते हैं। स्वयं गुरु भी बनते हैं। उसके लिए बचपन में अनुशासन का पालन करना एवं पुरा अनुभव व ज्ञान को मान्यता देना आवश्यक होता है। सीढी के पिछले पायदान पर खड़े होकर अगले पायदान पर चढना ही प्रगति है। मूल प्राकृतिक व मानवता के शाश्वत नियम जिन्हें कभी भी, कोई भी नहीं बदल सकता एवं उनके क्रियान्वन नियम दोनों में अंतर होता है और वे क्रियान्वन नियम समयानुसार बदले जा सकते हैं, बदलने ही चाहिए आवश्यकता एवं युगानुसार ...। यही प्रगति है।
यही बात काव्य व साहित्य के परिप्रेक्ष्य में भी सत्य है, काव्यानुशासन व छन्दानुशासन के लिए भी है। आखिर काव्य है क्या। गद्य क्या है..कविता क्या है ? मानव ने जब सर्व प्रथम बोलना प्रारम्भ किया होगा तो वह गद्य-कथन ही था, तदुपरांत गद्य में गाथा। अपने कथन को विशिष्ट, स्व व पर आनन्ददायी, अपनी व्यक्तिगत प्रभावी वक्तृता व शैली बनाने एवं स्मरण हेतु उसे सुर,लय, प्रवाह, व गति देने के प्रयास में पद्य का, गीत का जन्म हुआ। चमत्कार पूर्ण व और अधिक विशिष्ट बनाने हेतु विविध छंदों की उत्पत्ति हुई और तत्पश्चात छन्दानुशासन की। विश्व में सबसे प्राचीनतम वैदिक साहित्य में गद्य व पद्य दोनों ही अनुशासन उपस्थित हैं दोनों ही अतुकांत छंद, तुकांत छंद, विविध छंद युक्त एवं लय, गति, गेयता व ताल-वृत्तता से परिपूर्ण हैं। कालांतर में समय-समय पर उत्तरोत्तर जाने कितने नए-नए छंद आदि बने, बनते गए व बनते रहेंगे। अर्थात अनुशासन व नियम कोई जड तत्व या संस्था नहीं अपितु निरंतर उत्तरोत्तर प्रगतिशील भाव है। व्यष्टि व समष्टि नियम के लिए नहीं अपितु नियम व अनुशासन व्यष्टि व समष्टि के लिए होते हैं एवं उनके अनुरूप होते हैं। काव्य-विधा या कविता का मूल भाव-तत्व सुर, लय व गेयता है। अन्य सब उप-नियम व विधान आदि परिवर्तनशील हैं। अतः यदि कोई कविता या पद्यांश सुर, लय व गेयता युक्त है, आनंदमय है - तो वह काव्य है और वह किसी भी विशिष्ट छंदीय मूल उपविभागों में अवस्थित है तो उस विशिष्ट विधा व छंदों के उपनियमों आदि की अत्यधिक चिंता नहीं करनी चाहिये ...अन्यथा यह जडता स्वयं उस छंद आदि, विधा, भाषा व साहित्य के लिए प्रगति में बाधक होती है।
यही तथ्य गज़ल के लिए भी सत्य है। प्रायः जब भी गज़ल की बात की जाती है तो वही घिसी-पिटी बातें, वही लीक से युक्त तथ्य व कथन-कहानियां....गज़ल कही जाती है लिखी नहीं, रदीफ, काफिया, विशेष चिन्हांकित बहरें आदि की रटी रटाई उक्तियाँ... की बातें होने लगती हैं। यहाँ तक कि जिन्होंने अभी-अभी काव्य जगत में पैर रखा है वे भी नए-नए प्रयोगों पर भोहें तानते हुए ..वही तक्तीहों आदि की रटी-रटाई बातें करते हुए, किसी भी पुस्तक से निकाल कर आलेख लिखते हुए दिखाई देते हैं जो उनके तथाकथित गुरु ने या ब्लोग्गर गुरु ने सिखाई होती है। सामूहिक ब्लोगों के संचालक भी स्वयं को गुरु मान / समझ बैठते हैं।
आखिर गज़ल है क्या ?
गज़ल दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का एक माकूल व खुशनुमां अंदाज़ है। हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती। हिन्दी फिल्मों के गीतों में वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की सुविधा हेतु गज़ल व नज़्म को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है। छंदों व गीतों के साथ-साथ दोहा व अगीत-छंद लिखते हुए यह अनुभव हुआ कि उर्दू शे’र भी संक्षिप्तता व सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे व अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति ...।
गज़ल का मूल छंद उर्दू का शे ’र या शेअर है। शेर वास्तव में ‘दोहा’ का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र व सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है। आजकल दोहा के अतुकांत रूप-भाव छंद ..अगीत, नव-अगीत व त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं। अरबी, तुर्की फारसी में भी इसे ‘दोहा’ ही कहा जाता है व अंग्रेज़ी में कसीदा मोनो राइम( qusida mono rhyme)। शे’रों की मालिका ही गज़ल है।
गज़ल मूलतः अरबी भाषा का गीति-काव्य है जो काव्यात्मक अन्त्यानुप्रास युक्त छंद है और अरबी भाषा में “कसीदा” अर्थात प्रशस्ति-गान हेतु प्रयोग होता था जो राजा-महाराजाओं के लिए गाये जाते थे एवं असहनीय लंबे-लंबे वर्णन युक्त होते थे जिनमें औरतों व औरतों के बारे में गुफ्तगू एक मूल विषय-भाग भी होता था। कसीदा के उसी भाग “ताशिब “ को पृथक करके गज़ल का रूप व नाम दिया गया। और तत्पश्चात उसके विभिन्न नियम बनाए गए।
गज़ल शब्द अरबी रेगिस्तान में पाए जाने वाले एक छोटे, चंचल पशु हिरण ( या हिरणी, मृग-मृगी ) से लिया गया है जिसे अरबी में ‘ग़ज़ल’ (ghazal या guzal ) कहा जाता है। इसकी चमकदार, भोली-भाली नशीली आँखें, पतली लंबी टांगें, इधर-उधर उछल-उछल कर एक जगह न टिकने वाली, नखरीली चाल के कारण उसकी तुलना अतिशय सौंदर्य के परकीया प्रतिमान वाली स्त्री से की जाती थी जैसे हिन्दी में मृगनयनी। अतः अरब-कला व प्रेम-काव्य में स्त्री-सौंदर्य, प्रेम, छलना, विरह-वियोग, दर्द का प्रतिमान ‘गज़ल’ के नाम से प्रचलित हुआ। यही गज़ल का मूल अर्थ भी ..अर्थात ‘इश्के-मजाज़ी‘ –महिलाओं से या महिलाओं के बारे में वार्ता, आशिक-माशूक वार्ता या प्रेम-गीत, जिनमें मूलतः विरह-वियोग की उच्चतर अभिव्यक्ति होती है। गज़ल ईरान होती हुई सारे विश्व में फ़ैली और जर्मन व इंग्लिश में काफी लोक-प्रिय हुई। यथा.. अमेरिकी अंग्रेज़ी शायर ..आगा शाहिद अली कश्मीरी की एक अंग्रेज़ी गज़ल का नमूना पेश है...
Where are you now? who lies beneath your spell tonight ?
Whom else rapture’s road will you expel to night ?
My rivals for your love, you have invited them all .
This is mere insult , this is no farewell to night .
भारत में शायरी व गज़ल फारसी के साथ सूफी-संतों के प्रभाव वश प्रचलित हुई जिसके छंद संस्कृत छंदों के समनुरूप होते हैं। फारसी में गज़ल के विषय रूप में सूफी प्रभाव से शब्द इश्के-मजाज़ी के होते हुए भी अर्थ रूप में ‘इश्के हकीकी’ अर्थात ईश्वर-प्रेम, भक्ति, अध्यात्म, दर्शन आदि सम्मिलित होगये। फारसी से भारत में उर्दू में आने पर सामयिक राजभाषा के कारण विविध सामयिक विषय व भारतीय प्रतीक व कथ्य आने लगे। उर्दू से हिन्दुस्तानी व हिन्दी में आने पर गज़ल में वर्ण्य-विषयों का एक विराट संसार निर्मित हुआ और हर भारतीय भाषा में गज़ल कही जाने लगी।
हिन्दी में गज़ल का प्रारम्भ आगरा में जन्मे व पले शायर ‘अमीर खुसरो’ (१२-१३ वीं शताब्दी) से हुआ जिसने सबसे पहले इस भाषा को ‘हिन्दवी’ कहा और वही आगे चलकर ‘हिन्दी’ कहलाई। खुसरो अपने ग़ज़लों के मिसरे का पहला भाग फारसी या उर्दू में व दूसरा भाग हिन्दवी में कहते थे। उदाहरणार्थ...
“ जेहाले मिस्कीं मकुल तगाफुल, दुराये नैना बनाए बतियाँ।
कि ताब-ए-हिजां, न दारम-ए-जाँ, न लेहु काहे लगाय छतियाँ।”
चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ, हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना, न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ ---।
यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम, बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये, प्यारे पी को हमारी बतियाँ।
शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़, वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ, तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ।
दो और प्रसिद्द ग़ज़लों को देखें----
भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है जेरे बहस ये मुद्दआ
"जमाने भर का कोई इस कदर अपना न हो जाये
कि अपनी ज़िन्दगी खुद आपको बेगाना हो जाये।
सहर होगी ये रात बीतेगी और ऐसी सहर होगी
कि बेहोशी हमारे देश का पैमाना हो जाये।"
कहने का अर्थ है कि गज़ल अपनी गेयता, लयबद्धता के साथ-साथ गतिमयता के कारण प्रसिद्द हुई न कि नियमानुशासन जडता के कारण एवं उसमें सतत परिवर्तन आते गए व आते जा रहे हैं। उपरोक्त अमीर खुसरो व अन्य की गज़ल को गैर रदीफ गज़ल कहा गया, इसी प्रकार तीसरे उदाहरण में भी मतले में दोनों मिसरों में अंतर है। यदि रदीफ में एक दम वही शब्द प्रयोग में आते हैं तो उसे हम-रदीफ गज़ल कहते हैं। इसी प्रकार नियमानुसार रदीफ मूलतः सिर्फ दो या तीन शब्दों का होना ही चाहिए..परन्तु निम्न गज़ल में पांच शब्द का रदीफ है ....
”जब फागुन रंग झलकते हों, तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की।” --नजीर अकबरावादी .
.......अर्थात नियम में छूट, बदलाव कोई छंदानुशासनहीनता नहीं अपितु प्रगति है और गज़ल की कहन में स्वीकृत है। और इस प्रकार कभी गज़ल–बिना काफिया व मतला के भी हो सकती है। यदि सुर, लय व गेयता का मूल काव्य-भाव हो तो शिल्प के उपनियमों आदि की जड़ता-रूप में आवश्यकता नहीं है। कालान्तर में गज़ल में सरलता एवं अन्य तमाम बदलाब आये हैं जिससे गज़ल का विश्व भर में सभी स्तर के श्रोताओं में प्रश्रय व प्रसार हुआ है।
बकौल शायर जहीर कुरैशी ---गज़ल की बाहरी संरचना में इल्मे–अरूज़ का अनिवार्य महत्त्व होने के वावजूद भी मैं गज़ल के शेरों में अरूज़ के महत्त्व को २५ % से अधिक नहीं आँक पाता, अगर सच पूछा जाय तो शे’र की भीतरी संरचना का महत्त्व ७५ फीसदी है जिसमें शायर अपने विचार, कथ्य को शऊर व सलीके से सम्वेदनशीलता व कल्पनाशीलता से रखता है।
गज़ल प्रेमी साहित्यकारों व शास्त्रकारों को इस पर विचार करना चाहिए .... गज़ल प्रेमी श्रोताओं, पाठकों को तो रसानुभूति चाहिए ...चाहे रदीफ हो या न हो, काफिया हो या न हो, मतला हो या न हो ।
प्रस्तुत हैं कुछ अपारंपरिक नव-सृजित गज़लें ---
क. बिना काफिया की गज़ल..........क्या इस में लय, सुर, गति, यति नहीं है...
जलती शमा का कहना वजा है।
कि परवाना खुद को समझता ही क्या है।
यूँ जल कर शमा पर शलभ पूछता है,
बताए कि कोई खता मेरी क्या है।
जो जल-जल के करते कठिन साधना-तप,
भला इससे बढकर के पूजा ही क्या है।
पिघलती शमा कह रही है सभी से,
पिघला न तिल-तिल, पिघलना ही क्या है।
तडपता हुआ एक परवाना बोला,
मेरी प्रीति है ये अदा तेरी क्या है।
यूँ बुझती हुई शम्मा बोली चहक कर,
जिए ना मरे साथ, जीना ही क्या है।
तभी लड़खड़ाता पियक्कड यूँ बोला,
नहीं साथी कोई तो पीना भी क्या है।
यही प्रीति की रीति है श्याम न्यारी ,
नहीं प्रीति जीवन में, जीवन ही क्या है।। --डॉ. श्याम गुप्त
ख.. त्रिपदा अगीत गज़ल .... मेरे द्वारा नवीन प्रयोग व अगीत-विधा में सृजित गज़ल -----इसका रचना-विधान निम्न है .....
१.त्रिपदा-अगीत (अगीत विधा का एक छंद) छंदों की मालिका जिसमें तीन या अधिक छंद हों।
२.प्रथम छंद की तीनों पंक्तियों के अंत में वही शब्द आवृत्ति।
३-.शेष छंदों में वही शब्द आवृत्ति अंतिम पंक्ति में आना आवश्यक है।
४.अंतिम छंद में कवि अपनी इच्छानुसार अपना नाम या उपनाम रख सकता है।..यथा--
पागल दिल
क्यों पागल दिल हर पल उलझे ,
जाने क्यों किस जिद में उलझे ;
सुलझे कभी, कभी फिर उलझे।
तरह-तरह से समझा देखा ,
पर दिल है उलझा जाता है ;
क्यों ऐसे पागल से उलझे।
धडकन बढती जाती दिल की,
कहता बातें किस्म किस्म की ;
ज्यों काँटों में आँचल उलझे ।। ---- डॉ. श्याम गुप्त
ग़. -गज़ल की गज़ल....
शेर मतले का न हो, तो कुंवारी ग़ज़ल होती है।
हो काफिया ही जो नहीं, बेचारी ग़ज़ल होती है।
और भी मतले हों, हुस्ने तारी ग़ज़ल होती है ,
हर शेर ही मतला हो, हुस्ने-हजारी ग़ज़ल होती है।
हो रदीफ़ काफिया नहीं, नाकारी ग़ज़ल होती है,
मकता बगैर हो ग़ज़ल वो मारी ग़ज़ल होती है।
मतला भी, मक्ता भी, रदीफ़ काफिया भी हो,
सोच, समझ के, लिख के, सुधारी ग़ज़ल होती है ।
हो बहर में, सुर ताल लय में,प्यारी ग़ज़ल होती है ,
सब कुछ हो कायदे में, वो संवारी ग़ज़ल होती है।
हर शेर एक भाव हो, वो जारी ग़ज़ल होती है,
हर शेर नया अंदाज़ हो, वो भारी ग़ज़ल होती है।
मस्ती में कहदें झूम के, गुदाज़कारी ग़ज़ल होती है,
उनसे तो जो कुछ भी कहें, मनोहारी ग़ज़ल होती है।
जो वार दूर तक करे, करारी ग़ज़ल होती है,
छलनी हो दिले-आशिक, वो शिकारी ग़ज़ल होती है।
हो दर्दे-दिल की बात, दिलदारी ग़ज़ल होती है,
मिलने का करें वायदा, मुतदारी ग़ज़ल होती है।
तू गाता चल ऐ यार ! कोई कायदा न देख,
कुछ अपना ही अंदाज़ हो, खुद्दारी ग़ज़ल होती है ।
जो उस की राह में कहो, इकरारी ग़ज़ल होती है,
अंदाजे-बयाँ हो श्याम’ का, वो न्यारी ग़ज़ल होती है॥ ---डॉ. श्याम गुप्त
घ.गज़ल की गज़ल---
मतला बगैर हो गज़ल, न रदीफ ही रहे,
यह तो गज़ल नहीं, ये कोई वाकया नहीं।
लय गति हो ताल, सुर सुगम, आनन्द रस बहे ,
वह भी है गज़ल, चाहे कोई काफिया नहीं।
अपनी दूकान चलती रहे, ठेका बना रहे ,
है उज्र इसलिए, रदीफ-काफिया नहीं।
अपनी ही चाल ढालते ग़ज़लों को हम रहे,
पैमाना कोई नहीं, कोई साकिया नहीं।
मतला भी हो, मकता भी, रदीफ-काफिया रहे,
हाँ गज़ल है, अंदाज़े बयाँ श्याम’ का नहीं।। ---- डॉ. श्याम गुप्त
dhanyvaad ravi jee......
जवाब देंहटाएंDr Shyam Gupt ji, aapko is vistrit lekh ke liye sadhuvad! ye bat sach hai aaj bhi kuchh tathakathit ghazalgo, ghazal ko purane tarj par bandhna chahte hain. main bhi aksar angreji sahitya ke wyakhyata hone ke nate logo ko samjhane ki kosish karta hun par log niyam ko havi karne par havi rahte hain. mera manna hai ki content ko samahit karne ke liye form me badlaw wajiv hai. pahle sirf ishq par ghazlen kahin jati thi ab to anek vishayon par kahi jati hai ti lajimi hai ki form me kuchh liniency awe. poetic licence yahi hai.
जवाब देंहटाएंaapne mudde par bat ki hai, shukriya!
manoj 'aajiz'