कुबेर का छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह - भोलापुर के कहानी

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कथाकार - कुबेर जन्मतिथि - 16 जून 1956 ।   छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 से सम्मानित प्रकाश...

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कथाकार - कुबेर

जन्मतिथि - 16 जून 1956  

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा

मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012 से सम्मानित

प्रकाशित कृतियाँ

1 - भूखमापी यंत्र (कविता संग्रह) 2003

2 - उजाले की नीयत (कहानी संग्रह) 2009

3 - भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2010

4 - कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2011

5 - छत्तीसगढ़ी कथा-कंथली (छत्तीसगढ़ी लोककथा संग्रह 2012)

प्रकाशन की प्रक्रिया में

1 - माइक्रो कविता और दसवाँ रस (व्यंग्य संग्रह)

2 - और कितने सबूत चाहिये (कविता संग्रह)

संपादित कृतियाँ

1 - साकेत साहित्य परिषद् की स्मारिका 2006, 2007, 2008, 2009, 2010

2 - शासकीय उच्चतर माध्य. शाला कन्हारपुरी की पत्रिका 'नव-बिहान' 2010, 2011

सम्मान

गजानन माधव मुक्तिबोध साहित्य सम्मान 2012, जिला प्रशासन राजनांदगाँव

(मुख्मंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा)

पता

ग्राम - भोड़िया, पो. - सिंघोला, जिला - राजनांदगाँव (छ.ग.), पिन 491441

kubersinghsahu@gmail.com

संप्रति

व्याख्याता,

शास. उच्च. माध्य. शाला कन्हारपुरी, राजनांदगँव (छ.ग.)

मो. - 9407685557

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कथाकार कुबेर की छत्तीसगढ़ी कहानियों का संग्रह :

1 - भोलापुर के कहानी (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2010 तथा

2 - कहा नहीं (छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह) 2011

भोलापुर के कहानी

(छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह)

लेखक : कुबेर

सर्वाधिकार : लेखकाधीन

प्रथम संस्करण 2010

मूल्य : 120

प्रकाशक

मेघ ज्योति प्रकाशन, तुलसीपुर, राजनांदगाँव ( छ. ग. )

 

भूमिका

भोलापुर के कहानी

उपन्यास के सुवाद वाला कहानी संग्रह

( डॉ. जीवन यदु)

चाहे संस्कृत भासा होय के चाहे हिन्दी भासा होय - कविता के रचना पहिली होइस। पाछू कहिनी-लेख-नाटक लिखे गे हे। संस्कृत म त आने-आने गियान के पोथी मन ल घलो कविता म लिखे के परंपरा रहिस। बइद-गुनिया मन के ग्रंथ ल कविच मन ह उल्था करंय, हाथ-नारी देखंय, जड़ी-बुटी घला बतावंय। तउने सेती बइदराज मन ल जुन्ना जुग म कविराज घलो कहंय। छत्तीसगढ़ी भासा म कविता के लिखइ ह कहिनी ले पहिली होय हे। कविता के बहुत बाद म कहिनी-लेख-नाटक मन ल लिखे गे हे।

छत्तीसगढ़ी म कहिनी के लिखइ ह लोक कथा ल लिखे के रूप म होय हे। डोकरी दाई अउ ममा-दाई मन जउन कहिनी मन ल अपन नाती-नतुरा मन ल सुनावंय, उही कहिनी मन ल हमर सियान-विद्वान लेखक मन चारों मुड़ा ले सकेल-सकेल के छत्तीागढ़ी भासा म लिखंय अउ छपवावंय। छत्तीसगढ़ी साहित्त के नामी समीक्षक डॉ. नंदकिशोर तिवारी ह घलो मानथे के लोककथा के आधार म कहिनी लिखइ ह सुरू होय हे। कहिनी के सुरू म ' एक सहर म राजा रहिस, या बनिया रहिस, या बाम्हन रहिस' जइसन वाक्य अउ आखरी म 'जइसन उनकर दिन बहुरिस, तइसे सबके दिन बहुरे ' जइसे वाक्य लिखे जाय। डॉ. नंदकिशोर तिवारी ह यहू मानथे के छत्तीसगढ़ी मं कहिनी के रूप बने के पहिलिच उपन्यास के रूप ह प्रकास मं आ गे। उनकर कहना हे - ''कहानी विधा की स्वतंत्र-धारा छत्तीसगढ़ी में औपन्यासिक-कृति से आरंभ हुई। ( छत्तीसगढ़ी साहित्य का ऐतिहासिक अध्ययन )।'' इही तरा ले डॉ. विनय पाठक के किताब ले जानकारी मिलथे के सन् 1928 मं सीता राम मिश्र के कहिनी 'विकास' पत्रिका म छपे रहिस। सन् 1961 ले सन् 1964-65 तक श्री रंजन लाल पाठक के कई ठन कहिनी सरलग छपिस। ये कहिनी मन मं हंसी-ठठ्ठा के गोठ-बात जादा रहिस हे। कई झन लेखक मन इही समझ ले रहिन हे के छत्तीसगढ़ी ह हंसी-दिल्लगी के भासा आय, एमा गंभीर साहित्त नइ हो सकय। ओकर मन के भरम ह अब टूट गे होही। हमर सियान साहित्तकार मन ह अइसे-अइसे ठाहिल बिचार छत्तीसगढ़ी भासा म लिखिन, जउन ह कभू-कभू पोठ-भासा म घलो नइ मिलय। सर्व श्री नारायण लाल परमार, हरि ठाकुर, विप्र, भगवती लाल सेन, डॉ. नन्दकिशोर तिवारी, उॉ. बल्देव, भगत सिंह सोनी, जइसे लिखइया मन ह छत्तीसगढ़ी ल गंभीर बिचार वाला भासा बनाय के गंज उदिम करे हें। केयूर भूषण, लखन लाल गुप्त, जइसे गंज लेखक मन ये भासा म अपन गंभीर बिचार भरिन।

छत्तीसगढ़ी मासिक पत्रिका निकले के पाछू कइ्र ठन छत्तीसगढ़ी पत्रिका निकले लगिस। समाचार पत्र मन घलो छत्तीसगढ़ी ल जघा दे खातिर तियार हो गें। नवा-जुन्ना लिखइया मन के रचना छपे लगिस। वोमा कविता के गिनती जादा रिहिस हें, कहिनी कमती। पन एमा दू मत नइ हो सकय के इही बहाना छत्तीसगढ़ी कहिनी के रूप निखरे लगिस। कहिनी के जउन रूप के सपना हमर सियान समीक्षक मन देखत रहिन हे, अब वो रूप ह देखे मं आवत हे। अतका जरूर हे, के आज घलो छत्तीसगढ़ी कहिनी ह गांव ले बाहिर नइ निकल सके हे। कहिनी लिखइया बहिनी मन के कहिनी ह अभी घलो घर के भीतरी मं खुसरे हे। काबर ? का छत्तीसगढ़ी भासा ह लोकभासा के मेंड़ो ल नइ नहक सके ?

छत्तीसगढ़ी ह जब ले राजभासा के पद मं बइठे हे, तब ले वोला लोकभासा कहे के मन नइ होवय। लोकभासा के अपन सीमा होथे, मेंड़ो होथे। अब वो ह ' भाषा ' हे, आने भासा असन। एकर सेती वोमा लिखे कविता-कहिनी ल छत्तीसगढ़ी के मेंड़ो ल खुंदे बर परही, नहके बर परही। माने राष्ट्रीय अउ अंतर्राष्ट्रीय बिसे अउ समस्या ऊपर साहित्त गढ़े बर परही। तभे हमर छत्तीसगढ़ी भासा ह दूसर भासा मन के आगू मुंड़ी उठा के रेंग सकत हे।

जब ले छत्तीसगढ़ ह अलग राज के दर्जा पाय हे, वोकर प्रभाव ह छत्तीसगढ़ी लेखन ऊपर घलो परे हे। आज कहानी लेखन के बिसे ह बदल गे हे। समय के संगे-संग गांव के रंग-रूप अउ सुभाव ह घलो बदलत जावत हे। गांव के लोगन मन भोला-भाला कहे के लइक नइ रहि गे हें। पहिली 'भोला-भाला' सब्द के प्रयोग बड़ चलाकी ले करे जाय। ' भोला-भाला कहिके वोला चुहके के मउका जादा हाकथे। चतुरा मनखे मन ककरो 'अग्यानता' ल 'भोला'-भाल' कहिके सहिंराय बर आजो ले नइ छोड़े हें। अइसन चतुरा मनखे मन ल दूसर के 'भोकवा-पन' ह जादा बने लगथे। ये चलाकी आय। अइसन चलाकी अब जादा दिन नइ चलय। सिकछा के प्रचार-प्रसार अउ नवा जमाना के बिग्यान अउ तकनीक के प्रभाव के सेती छत्तीसगढ़ के गांव म एक कोती जागरन आइस त दूसरा कोती कई ठन समस्या घलो ठाड़ हो गे। आज के कहिनी लिखइया मन वो समस्या ल पकड़े के कोसिस करत हें। कुछ जुन्ना समस्या त अइसे हे, जेन ह अपन जर जमा ले हे। वोहू समस्या ल कहिनी म लाय के कोसिस होवत हे, पन अइसन समस्या के नवा अउ तर्क वाला समाधान दे जावत हे - ये ह नवा बात आय। अइसने कहिनी लिखइया मन मं एक नाव कुबेर के आय। पत्र-पत्रिका मं वोकर कहिनी मन सरलग छपत हें। अब कहिनी के सइघो संग्रह 'भोलापुर के कहानी'आप मन के हाथ मं हे।

'भोलापुर के कहानी' ल पढ़त खानी मन मं पहिली बिचार आथे के ये भोलापुर कहां हे ? मोला तो लगथे, ़के हमर राज्य अउ हमर देस के जम्मों गांव के नाव ' भोलापुर' हे। काबर के एमा के कहिनी ह कोनो एक गांव के कहिनी नोहे, जम्मों गांव के आय। कहिनी लिखइया कुबेर ह घलो कहे हे - ''भोलापुर गांव घला देस के दूसर गांव मन सरीखेच हे।'' कहिनी लिखइया ह अपन कहिनी मन मं जइसन चरित गढ़े हे, वइसन चरित ह जम्मों गांव म देखे ल मिलथे। कुबेर ह गांव के चरित ल पकड़े के बढ़िया उदिम करे हे। संपत महराज, मुसुवा, मरहा, घना मंडल डेरहा बबा, फुलबासन, रघ्घू,, सुकारो दाई, नंदगहिन, लछनी काकी, - ये चरित मन ह कहिनी मं रहि के सिरिफ कहिनी के चरित नोहे, येमन जीयत-जागत दुनिया के जीयत-जागत मनखे आंय। संग्रह के कहिनी मन ल पढ़त बेरा अइसे लगथे, जइसे वोमा के चरित मन ह कहिनी ले निकल-निकल के हमर आगू म चलत-फिरत हें। ये ह कहिनी अउ कहिनी लिखइया, दुनों के सफलता आय।

ये बात सच आय के संग्रह के कहिनी मन ल छत्तीसगढ़ के गांव ल दृष्टि मं रख के लिखे गे हवय, पन छत्तीसगढ़ के गांव के समस्या असन समस्या ल देस भर के गांव के मन भुगतत हें। पन यहू बात ह सच हे, के कुछ समस्या ह सिरिफ छत्तीसगढ़े के आय।

छत्तीसगढ़ के सबले बड़े समस्या - आने-आने प्रदेस के वो मनखे मन के दबाव आय, जेमन ये प्रदेस के मनखे मन ल चुहकेच बर आय हें अउ अभी घलो आवत हें। वो मन छत्तीसगढ़ के भुंइंया ल कभू अपन भुइंया नइ मानिन। इहां के मनखे मन ल कभू अपन प्रदेस के मनखे कस नइ जानिन, चाहे वो मन बैपारी होय, के कारखाना के मालिक। चाहे वो मन अफसर होंय के नानकुन बाबू-चपरासी। वोकर मन के मन म एके बिचार हाकथे - इहां के मन ल चाहे जितना चुहको अउ धन कमाव। पन कतको झन अइसे घलो परदेसिया आय रहिन जउन मन अपन तन-मन-जीवन ल इही धरती के उन्नति बर खपा दिन अउ खपावत घलो हें। एमन ल चीन्हें के जरूरत हे। अइसन परदेसिया मनखे के गिनती कमती हे। एक कोती बड़हर बैपारी मन 'ऊन के दून' दाम वसूल करत हें, त दूसर कोती कारखाना मालिक मन छत्तीसगढ़ के सोनहा धान उपजइया खेत-खार ल औने-पौने दाम दे के बिसावत हें। जे किसान अपन खेत-खार ल नइ बेंचय तेकर बर लउठी-बंदूक उबावत हें। सरकारी साहेब मन घलो ओकरे मन कोती हो गे हें। चारों कोती 'पइसा के मेख, तंय खड़े तमासा देख' के तमासा होवत हे। अइसन मं 'मरहा राम' के संघर्ष ह छत्तीसगढ़ ल बचा सकत हे। अब जम्मो मरहा राम मन ल एकजुट होय ल परही। 'मरहा राम के जीव,' 'मरहा राम के संघर्ष,' 'साला छत्तीसगढ़िया,' 'अम्मा हम बोल रहा हूं आपका बबुआ' - ये कहिनी मन गांव के मनखे मन के सोसन ल दृष्टि म रख के लिखे गे हे। गांव म घलो सुवारथ ले भरे मनखे होथें। एमन परदेसिया अउ देसिया , दुनों के चुहकइ के काम मं मदत करथें। अइसन सुवारथी मन ल थोरिक-बहुत चुहके ल मिल जाथे। गांव म एको झन मनखे मरहा राम अउ मंगलू राम कस हो जाथे, तभे गांव ह मनखे चुहकइया रक्साबानी मनखे मन के फांदा ले छूट पाथे। छत्तीसगढ़िया मन के सबले बड़े कमजोरी ये आय के वो मन एकजुट नइ हो पांय। कुबेर के मंसा हे के इहां के मनखे मन एकजुट हो के अपन सोसन के बिरोध म मुंह ल उलोवंय।

एक दूसर समसया जो छत्तीसगढ़ भर मं नइ हे, पूरा देस के गांव मं हे , सहर ल घलो बियापे हे, वो समस्या हे धरम-करम के नांव मं आर्थिक अउ सामाजिक सोसन के समस्या। आज जउन ह जतका बड़ पाखंडी, लबारी मारे मं वस्ताज अउ गोठकारा होही, वोहा वोतके बड़ महात्मा अउ बिदवान बाजही। आज त यहू देखे मं आवत हे, पढ़े-लिखे मनखे, छोटे-बड़े अपीसर, बड़े-बड़े नेता मन घलो इही 'तीन-पांच' मं फंसे हवंय। वोमन के देखा-सीखी जम्मों सिधवा मनखे मन ढ़ोंगिहा मन के फांदा म फंस जाथें। ढ़ोंगिहा मनखे मन सोंच-समझ वाला मनखे मन ल 'फूटे आंखी नइ भांय। वोमन ल डर रहिथे के ये सोंच-समझ वाला मनखे मन ऊंकर लबारी के दुकान के बेंस ल झन दे देवंय। कुबेर ह अइसने किसिम के समस्या ल दू ठन कहिनी म उजागर करे हे - 'घट का चौंका कर उजियारा' अउ 'चढौतरी के रहस' । ये कहिनी मन मं 'नंदगहिन' अउ 'समधी' के चरित ह कहिनी के परान आय। ये दूनों चरित ह अइसे आंय, जेमन अपन तर्क अउ बुध ले ढ़ोंगिहा मन के धरम-करम ह कतेक पोन्डा हे, तेला देखा देथंय।

वइसे त संग्रह के जम्मों कहिनी ल जोर के पढ़े म उपन्यास के सुवाद मिलही, पन एमा के दू कहिनी - 'संपत अउ मुसुवा' अउ 'लछनी काकी' ल एके कहिनी मान के सरलग पढ़े मं एक बड़े कहिनी के मजा मिलही। टोनही-भुतही के गोठ ह हमर राज्ये भर म नइ हे, देस के जम्मों गांव मं हे। टोनही मन गांवेच मं काबर मिलथें ? सहर-पहर म काबर नइ मिलंय? येकर कुछ कारन हे - आपस के इरखा अउ लड़ाई, नारी परानी ले अपन सुवारथ ल साध नइ सके के घुंस्सा, पर के जमीन-जैदाद ल रपोटे के चलाकी। इरखहा, गुस्सौल अउ चलाक मनखे मन एकर-ओकर बहू-बेटी ल फोकटंउहां 'टोनही-भुतही' कहके दोसदारी बनावत रहिथंय।

कुबेर ह अपन कहिनी मन मं एक ठन कारन ल तपासे हे, अभी कई ठन कारन ह बांचे हें। कहिनी-कविता लिखइया मन ह एक ठन कारन कोती अंगरी देखा देथें। इही साहित्त अउ साहित्तकार के बुता आय। मनखे मन साहित्तकार के इसारा ल समझके, अपन हिरदे अउ मन के आंखी ल उघार के जाग जाथें, तहां ले आने कारन मन ल अपनेच ले तपास लेथें।

संग्रह के छे ठन कहिनी ह बिसेस समसया ल धियान म रख के लिखे गे हवय। जइसे - 'डेरहा बबा' ( इक्कीसवीं सदी मं छुआछूत के समसया ), 'राजा तरिया' ( पर्यावरण अउ जल समस्या ), 'सुकारो दाई' ( परिवार नियोजन ), 'सरपंच कका' ( गांव के राजनीति ), 'पटवारी साहब परदेसिया बन गे' ( राजस्व विभाग के लुचपतखोरी ) अउ 'पंदरा अगस्त के नाटक' ( निसा-पानी )। संग्रह म एक ठन नाटक घलो हे, पन उहू म कहिनी के सुवाद मिलथे।

जुग बदल गे पन मनखे के बिचाार नइ बदलिस। बिचार ल बदलना चाही, तभे जुग बदले के कुछू अरथ हे। बिगर बिचार बदले जुग बदले के गोठ करना - निचट लबारी आय, सिरिफ फदूली आय। डेरहा बबा के इही बिचार ह कहानी ल पोठ बनाथे। पर्यावरण संतुलन अउ पानी के समस्या चारों मुड़ा ठाड़े हे। हमर पुरखा मन के 'मानता' के पाछू कुछू कारन होथे। वो कारन मन ल खोज के लिकाले ल परथे। नइ ते पुरख मन के मानता ह अंध-बिसवास मं संघर के रहि जाथे। ' छे आगर छे कोरी तरिया ' के बात ह आज हाना अउ कहिनी बन के रहि गे हवय। 'जमीन माफिया' मन तरिया ल पाट-पाट के बिल्डिंग खड़ा करत जावत हें। भुंइया के कोख ह सुक्खा अउ जुच्छा होवत हे। गरमी के मउसम मं पानी बर त्राहि-त्राहि मचे रहिथे। 'जमीन माफिया' ल न जनता ह रोकन सकत हे अउ न सरकार। पटाय तरिया ल फेर खनाय बर कोनों सरकारी योजना नइये। हावा-पानी आरूग नइ रहिगे। पिये के पानी ल बोतल म बिसाय ल परथे। 'पर्यावरण-पर्यावारण' चिल्लाय मं पर्यावरण ह आरूग नइ हो जाय, उदिम करे मं होथे। हमर पुरखा मन तरिया के बिहाव करावत रिहिन हे। एकर पाछू कारन रहिस हे। बिहाव के बहाना म तरिया के साफ-सफाई घलोे हो जाय। कुबेर ह अपन कहिनी ( राजा तरिया )मं इही कारन ल फरिहा के बतावत हे।

हमर देस ह दुनिया मं सबले जादा घन आबादी वाला देस आय। चीन देस ह घलो आय पन वोकर तिर जमीन के रकबा जादा हे। घन आबादी वाला देस के बिकास ह धिरलगहा होथे। चीन के बिकास होइस, पन वोकर आने कारन हे। वोकर बिकास के रद्दा अलग हे। पढ़े-लिखे लइका मन ह आबादी ल जल्दी बढ़ाय के पक्ष म नइ रहंय। वो मन 'सुकारो दाई' के लइका किसुन के बिचार ल मानथें।

पंचायती राज मं सरपंच अउ पटवारी ह गांव के धुरा आंय। ये मन बने नीत-नियाव वाले होथें त गांव के किसान मन सुखी होथंय, अउ नइ रहंय त दुखी होथंय। सरपंच के बिगड़े ले पंचायती राज के मजा उखड़ जाथे। आज कल के नेता मन के आगू-पाछू लंगू-झंगू मन के भीड़ रहिथे। एकरे मन के 'कनफुंकउनी' मं नेता मन रेंगथे। गांव के बिकास बर धियान नइ देवंय। गांव म एकाो झन रघ्धू कस, सरपंच कका ल रद्दा देखइया अउ गांव के जवान-लइका मन ल एकजुट करइया हो जाथे, तभे गांव के बिकास ह होथे। काबर के बिकास ह बाते-बात के जमा खरचा नो हे। बिकास बर हांथ -पांव डोलाय बर परथे, नवा पीढ़़ी ल आगू आय बर परथे।

पटवारी के गोड़ तरी गांव के जम्मों किसान के हाथ चपकाये हे। वोला कोन बोल सकत हे। किसान के नान-नान काम ल सिधोय बर अपन जेब ल गरम करे के उदिम करइया पटवारी ह 'देसिया' हो के घलो 'परदेसिया' बरोबर लगथे। सवाल ये हे, काा आजो घलो हमर देस म परदेसिया मन के राज चलत हे ? गरीब के पुछन्तर काबर कोनों नइ हे ? कहिनी लिखइया के मंसा हे के येकरो जुवाब खोजे जाय। जेन सवाल के जुवाब बिदवान मन तिर घलो नइ रहय, वोकर जुवाब जनता मेर होथे। ' भोलापुर ' के जनताा ह जरूर जुवाब खोजत होही।

कथा-रस ह ये संग्रह के सबले बड़े बिसेसता आय। कहिनी मं कथा रस नइ रहय त वो ह पढ़इया मन ल बांध के नइ राख सकय। पढ़इया के मन ह घेरी-बेरी उचाट खाथे। कुबेर के जम्मों कहिनी मन मं कथा-रस के बहाव हे। अइसने वोकर भासा म घलो मधिम नदिया के धार कस बहाव मिलथे। कोनों-कोनों जघा हाना के लहरा के अनुभो घलो होथे। ये कहानी मन ल पढ़त खानी अइसे लगथे, जइसे हम कहिनी ल पढे के बल्दा सोंच-समझ वाला सनीमा देखत होवन। कहानी के चरित मन आंखी-आंखी म झूले लगथे। हम कतका बेर भोलापुर पहुंच गेन, तेकर गम नइ मिलय। कहिनी ल पढ़ते-पढ़त मोला श्री लाल शुक्ल के 'राग दरबारी' के खियाल आथे, त कभू प्रेमचंद के । मंय ह कुबेर के कहिनी के तुलना ओकर मन ले नइ करत हंव, कुबेर के कहिनी मन मं कुछ अइसे बात हे, जेहा पुरखा अउ सियान लेखक मन के सुरता देवा देथंय।

कहिनी लिखइया कुबेर म एक ठन बिसेसता अउ हे। जब वो ह कहिनी म बरनन करथे, तब आज के जिनगी म जउन विसंगति आय हें, वहू ल ओरियावत रेंगथे। ये ह कहानीकार के सजगता आय। समाज मं, धरम-करम मं, राजनीति मं जउन गिरावट आय हे, वो ह बरनन म पढ़े ल मिलथे। कुबेर ह गांव के मनखे आय। एकर सेती वो ह गांव के चाल-चलन अउ बोली-बात ल निचट लकठा ले देखे-सुने हे। इही कारन वोकर कहिनी मन मं गांव के सच्चाई के दरसन होथे। गांव के अतेक निमगा अउ आरूग कहिनी सहर-पहर मं रहवइया लेखक मन बर असंभो नइ तो कठिन जरूर हे। संग्रह के जम्मों कहिनी मन पढ़े अउ गुने के लइक हें कुबेर ह भविस म एकरो ले बढ़िया कहिनी, पोठ अउ ठाहिल बिचार के कहिनी लिखहीं अउ छत्तीसगढ़ी साहित्त के कोठी ल भरही - इही बिसवास के संग, वोला हिरदे ले बधाई देवत हंव।

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गीतिका , दाऊ चौंरा

खैरागढ़ ( छ. ग. )

मो. - 975202392

पूर्वावलोकन

डॉ. नरेश कुमार वर्मा

कुबेर की छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह 'भोलापुर के कहानी' में कुल चौदह कहानियां संग्रहित हैं। ये कहानियां वास्तव में किसी एक गांव की कहानी नहीं है अपितु छत्तीसगढिया ़लोगों की पीड़ा, शोषण, अस्मिता, संघर्ष और स्वाभिमान से ओतप्रोत कहानियां हैं जिनमें डेरहा बबा, राजा तरिया, संपत अउ मुसुवा, लछनी काकी. सुकारो दाई, घट का चौंका कर उजियारा, चढ़ौतरी के रहस, सरपंच कका, पटवारी साहब परदेसिया बन गे, साला छत्तीसगढ़िया, पंदरा अगस्त के नाटक, अम्मा हम बोल रहा हूं आपका बबुआ, मरहा राम के जीव अउ अंत म मरहा राम के संघर्ष कहानी सम्मिलित हैं।

'कहानी जीवन की समस्याओं के सुलझााव का साधन है,' - यशपाल का यह कथन 'भोलापुर के कहानी' के लिए सटीक बैठता है। कुबेर की प्रत्येक कहानी मानवीय जीवन की किसी न किसी समस्या से प्रारंभ होती है और निराकरण हेतु संकेत भी करती है।

पहिली कहानी 'डेरहा बबा' इक्कीसवीं सदी के स्वागत के साथ नई पीढ़ी में आये पारिवारिक एवं सामाजिक संबंधों के विघटन पर व्यंग्य प्रहार करते हुए छुआछूत जैसे सामाजिक बुराई को रेखांकित करती है। गांव के पेटला महराज द्वारा छुआछूत मानने पर डेरहा बबा यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि - ''इक्कीसवीं सदी म हो सकथे महराज ह छुआ माने के छोड़ दे होही, फेर अइसनो नइ होय रहय, सब जस के तस....। बबा कहिथे - ''पचासेच बरिस म कइसे नवा सदी आही ?'' इसी कहानी की ये पंक्तियां पाठक को सोचने विचारने को विवश कर देती है - ''अब तो भाई ह भाई के मुंह देखना नइ चाहे अउ रूंधना रूंध डारथे। मया परेम अब तो तइहा के गोठ लागथे।'' 000 ''पढ-लिख के का बनत हव जी ? तुमन तो अंगरेज बन गेव तइसे लागथे। 000 ''साले टेसिया मन इक्कीसवीं सदी म खुसरिन होहीं।'' आदि..

'राजा तरिया' कहानी में भोलापुर गांव की बसाहट के बहाने कथाकार ने समाज में व्याप्त उच्च वर्ग, निम्न वर्ग तथा पिछड़े वर्गों का उल्लेख करते हुए लिखा है - मंझोत ( पिछड़ा ) वाले मन के दसा सबले जादा खराब हे। येमन खालहे कोती देख के अपन आप ल ऊपर वाला समझथें तब ऊपर वाला मन कहिथें - ''तुम साला सब नीचा।''

राजा तरिया कहानी का केन्द्रीय भाव अंधविश्वास पर केन्द्रित है जिसमें गांव के दो तालाबों का पानी सूख जाने पर समस्या निवारण का उपाय पेटला महराज के पुरखों के पास सुरक्षित है - ''दुनों तरिया के बिहाव जब तक नइ होही, पानी कभू नइ मांड़य। वइसे भी सास्त्र के अनुसार बिना बिहाव करे तरिया के पानी से निस्तार नइ करना चाहिये।'' इस कहानी में ग्रामीणें द्वारा स्वस्फूर्त किये जाने वाले वृक्षारोपण के महत्व का चित्रण दर्शनीय है - ''तरिया के पार मन म चारों मुड़ा बर, पीपर अउ आमा के बिरवा लगाय गिस। गांव के सोभा अउ पहिचान, बर-पीपर के पेंड़ अउ आमा के बगीचा ले होथे।''

'संपत अउ मुसुवा' कहानी गांव के सबसे सुंदर नारी फुलबासन के चरित्र को उद्घाटित करती है, जिसका पति सुंदरू हमाली करते हुए भी उनकी सभी मांगों को पूरा करता है। कारण साफ है - ''फुलबासन के मोहनी म सुंदरू ह तो मोहाएच हे, गांव भर के बुड़वा-जवान मन घला मोहाय हें।'' चाहे गांव का वैद्य - बैगा मुसुवा राम हो चाहे संपत महराज। अर्थात - ''मुसुवा राम ह नांगनाथ आवय त संपत महराज ह सांपनाथ हरे।'' फुलबासन के साथ कई लोगों के अवैध संबंध का पर्दाफास इस कहानी में है - ''मुसुवा राम ह फुलबासन देवी के मंदिर म नरियर चढ़ाय बर पहुंच गे। मुंहाटी बंद रहय। जइसने खोले के उदिम करिस , अपने-अपन खुल गें संपत महराज ह तोलगी भीरत सुटुर-सुटुर निकलत रहय। दुनों के दुनों हड़बड़ा गें।''

'लछनी काकी' कहानी गांवों में व्याप्त टोनही अंधविश्वास रूपी अभिशाप के खिलाफ जागरूकता लाने के उद्देश्य से लिखी गई हैं। बीस साल पहले भी इस गांव में टोनही का आरोप मढ़कर एक निर्दोष महिला की हत्या हुई थी। वही कहानी फिर दोहराई जा रही थी। संपत और मुसुवा अपने हवस और स्वार्थ की पूर्ति के लिए, अपने चरित्रहीन चेहरों के मुखौटौं को बनाए रखने के लिए सारा षडयंत्र रचते हैं परंतु आधुनिक विचारधारा वाले पढ़े-लिखे सरपंच की सूझबूझ एवं अकाट्य तकरें तथा मेडिकल की पढ़ाई कर रहे रघ्घू के चिकित्सकीय ज्ञान की वजह से षडयंत्र का पर्दाफास होता है। सत्य यह था कि फुलबासन अपनी चरित्रहीनता के कारण लाइलाज एड्स से ग्रस्त होकर मरने वाली है। वह इसे टोना-जादू का रूप देकर अपनी चरित्रहीनता को छिपाना चाहती है।

नारी जीवन की पीड़ा, वेदना और व्यथा की कहानी का नाम है सुकारो दाई और उसके सुख-दुख की साक्षी है नंदगहिन। दोनों के वार्तालाप से कहानी आगे बड़ती है। सुकारो अपनी बहु के जल्दी मां नहीं बनने को लेकर भगवान को दोष देती है। नंदगहिन उनको समझाती है - ''बहिनी, नारी हो के नारी बर अइसन बात झन सोंचे कर। बहु ह घला बेटिच आय। सोला आना बहु पाय हस। 000 अउ दुसरइया बिहाव करइया के किस्सा ल भुला गेस क ? सुरता कर मुरहा के, का हाल होय रिहिस ?'' वास्तव में दो बीवी वाले मुरहा की अंतर्कथा ने इस कहानी को अधिक रोचक बना दिया है। सुकारो का पढ़ा-लिखा बेटा किसुन जल्दी बच्चा नहीं चाहता। तभी तो नंदगहिन नर्स के मार्फत कहती है, ''पहला बच्चा अभी नहीं दो के बाद कभी नहीं।''

'घट का चौका कर उजियारा' आत्मबोध की कहानी है, जिसमें नंदगहिन के बीमार पड़ने पर उसकी बेटी द्वारा उसकी प्राण रक्षा के लिए कबीर साहेब को बदना बदा जाता है। पहुंचा हुआ महंत चौका करने आमंत्रित है। उसे अपने ज्ञान का अहंकार है। दारू की एक पुरानी बोतल में तेल देखकर वह क्रोधित हो जाता है और नंदगहिन से कहता है - ''तंय सिरिफ अनपढ नइ हस, मूरख अउ अज्ञानी घला हस। अपन धरम के नास तो करिच डारेस, अब गुरू के धरम के नास करे बर सोंचत हस ?'' नंदगहिन के तर्कपूर्ण और मासूम जवाब से महंत साहेब को आत्मबोध होता है।

'चढ़ौतरी के रहस' कहानी में व्यंग्यात्मक प्रहार है। भागवत कथा की चढ़ौतरी में कम चढ़ावा आने पर वृंदावन का पंडित दुखी है। झाड़ू गंउटिया का समधी अपने सवालों से उसे निरूत्तर कर देता है। यहां धरम-करम की आड़ में होने वाले आर्थिक शोषण को अनावृत्त किया गया है।

'सरपंच कका' कहानी जहां एक ओर पंचायती राज व्यवस्था की पोल खोलती है तो दूसरी ओर लखन, ओम प्रकाश, फकीर, चंदू और रघ्घू जैसे नवयुवकों की सृजनात्मक योगदान एवं ग्राम विकास को रेखांकित करती है। इस कहानी की सुंदरता इस बात में नीहित है कि जहां एक ओर सरपंच स्वयं की गलती स्वीकार करते खुद पंचायत से क्षमायाचना करता है परंतु पंचायत कहती है कि - ''आप ल क्षमा नइ मिल सकय। काबर कि हम तो आप ल कभू गलत बनाएच नइ हन।''

पढ़ाई और नौकरी के लिए आय तथा जाति प्रमाण-पत्र बनवाना टेढ़ीखीर है। 'पटवारी साहब परदेसिया बन गे' कहानी में पटवारी द्वारा किसानों के आर्थिक शोषण को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस कहानी के माध्यम से किसानों को एन किसानी के दिन में प्रमाण-पत्र बनवानें में होने वाली व्यवहारिक कठिनाइयों को भी रेखांकित किया गया है। रतनू के इस कथन में कि - ''किसान के तो मुस्किल हो जाथे। पानी गिरइ तो भगवान के हाथ म रहिथे, फेर स्कूल खोले के काम तो सरकार के हाथ के बात आय। वो हर तो आगू-पीछू कर सकथे।'' किसानों की सारी विवशता परिलक्षित होती है।

'साला छत्तीसगढ़िया' कहानी में परदेसिया दुकानदारों द्वारा सथानीय दुकानदारों को यह कहकर गाली दिया जाता है, कि -'' गांव के जितने छत्तीसगढ़िया दुकानदार है, सब सालों ने रेट खराबकर दिए हैं।'' यह सुनकर रतनू जवाब देता है - ''समझगेंव, बने कहत हस तंय। विही मन हमर सगा आवंय। हमर छत्तीसगढ़िया भाई आवंय। तुमन हमर का लगथो जी ? तुमन तो इहां बेपार करे बर आय हव।''

'पंदरा अगस्त के नाटक' कहानी विशुद्ध रूप से संदेश प्रधान कहानी है जिसमें प्रामीणों द्वारा दारू, गुड़ाखू, बिड़ी सिगरेट आदि का सेवन नहीं करने तथा इस लत की पूर्ति हेतु खेत-खार नहीं बेचने का संकल्प लिया जाता है। इस कहानी में इस सामाजिक बुराई को खत्म करने में महिला स्व सहायता समूह की महिलाओं की शक्ति को महत्व दिया गया है।

बाहरी अधिकारियों द्वारा सीधे-सरल छत्तीसगढ़िया लोगों के अपमान एवं शोषण की मुखर अभिव्यक्ति हुई है '' अम्मा हम बोल रहा हूं आपका बबुआ' कहानी में। बड़े साहब का यह कथन कि - ''ये साला लोकल जिनिसवा से अउ लोकल आदमी से हमला बहुतेरा नफरत होत है।'' छत्तीसगढ़ियों के शोषण की पराकाष्ठा है। बड़े साहब और उनकी अम्मा का फोन में बातचीत इस कहानी की आत्मा है। अम्मा का यह कथन कि - ''सच बबुआ ! ऊहां के लोग का इतने सीधे , इतने बेवकूफ होत हैं? यकीन नहीं होत है बचुआ कि आज की दुनिया में भी कोई इतना बेवकूफ लोग रहत होहीं।'' सचमुच छत्तीसगढ़ियों के लिए करारा प्रहार है कि अब तो अपने शोषण का विरोध करना शुरू करो। यह विरोध शुरू भी हो गया है, चाहे प्रतीक रूप में मरहा राम द्वारा बड़े साहब के सबसे प्रिय और जड़ रोप चुके पौधे पर कुठाराघात द्वारा ही सही।'

भोलापुर के कहानी' की प्रतिनिधि कहानी है 'मरहा राम के जीव'। इसे पढ़कर हरिशंकर परसाई की 'भोलाराम का जीव' एवं 'मैं नर्क से बोल रहा हू' व्यंग्य का सहसा स्मरण हो आता है। इस कहानी में छत्तीसगढ़ राज बनने के बाद तीव्र औद्योगीकरण, बाहरी पूंजीपतियों का प्रभुत्व , छत्तीसगीड़यों का शोषण एवं उत्पीड़न की मार्मिक एवं उत्तेजक अभिव्यक्ति हुई है। जोगेन्दर सेठ के अत्याचार और आतंक को देखकर हरि ठाकुर की ये पंक्ंितयां याद आ जाती है -

''लोटा ले के आने वाला, इहां टिकाइन बंगला।

जांगर टोर कमइया बेटा, हे कंगला के कंगला।''

किस प्रकार मरहा राम की हत्या की जाती है और किस प्रकार उसके भूख से मरने का प्रोपेगंडा किया जाता है वह सब यमराज के दरबार में सपष्ट हो जाता है। भगवान मरहा राम को उत्तेजित करते हुए कहता है - ''जउन दिन तंय अपन दिमाग म सोंचे लगबे, अपन हक बर लड़े लगबे, शोषण अउ अन्याय के बिरोध करे लगबे तउन दिन मंय तोल अपन तीर बला लेहूं। इंटा मारइया बर पथरा उठा लेबे, हाथ उठइया के हाथ ल मुरकेट सकबे, आंखी देखइया के आंखी ल निकाल सकबे तउन दिन तोर बर सरग के मुंहाटी ल मंय खोल देहूं।'' यही भाव इस कहानी का रहस्य है।

अंतिम कहानी 'मरहा राम के संघर्ष' में शोषण, अन्याय व अत्याचार के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष का आह्वान है। इस कहानी में भोलापुर गांव के सारे पात्र एक स्थान पर नजर आते है। मरहा राम के संघर्ष के आह्वान पर गांव के सारे लोग एकजुट होते नजर आते हैं। इस कहानी में प्रोफेसर वर्मा की उपस्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण है। कहानीकार की स्पष्ट मंशा है कि शोषित वर्ग की लड़ाई में प्रबुद्ध वर्ग को भी अपनी भूमिका सुनिश्चित करनी ही होगी। प्रोफेसर वर्मा का आंदोलनकारियों को संबोधित करते हुए कहना कि - ''नशाखोरी बंद करो .....। जइसे खाय अन्न, तइसन होय मन। एक रूपिया अउ दू रूपिया के अन्न खा-खा के हमर मन घला दु कौड़ी के हो गे हे। बंद करो येला। एक रूपिया म मांगना हे त खाद मांगव, बीज मांगव, अपन खेत बर पानी मांगव।''

इस प्रकार निर्भीक मरहा राम के नेतृत्व में संघर्ष का एलान होता है।

इस कहानी संग्रह की सभी कहानियों के पा़त्र एक ही हैं, एक ही गांव के हैं इसलिए मुझे लगता है कि आरंभ में कहानीकार की योजना उपन्यास लिखने की रही होगी, परंतु किसी कारणवश घटनाओं का पृथक करण करके इसे कहानी संग्रह का रूप दे दिया गया होगा। कुछ भी हो इस संग्रह की कथावस्तु, पात्र, चरित्र-चित्रण, संवाद योजना, वातावरण की सटीक अभिव्यक्ति, कहावतों और मुहावरों का लाक्षणिक प्रयोग सरल-सहज और पात्रानुकूल हैं। इन सबके साथ भाषा सुंदर और प्रवाह युक्त तथा कहानियां सजीव बन पड़ी है। कहानियों को पढ़ते हुए आप अपने ही वातावरण में विचरण कर रहे होंगे, अपनी ही समस्याओं से दो-चार हो रहे होंगे। सभी कहानियां आपकी अपनी कहानियां हैं आपके गांव की कहानियां हैं।

डॉ. नरेश कुमार वर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग

शास. ग. अ. स्नातकोत्तर महाविद्यालय

भाटापारा, जिला - रायपुर ( छ. ग. )

मो. - 98278.77895

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लोक की कहानी

(भोलापुर के कहानी, प्रथम संस्करण की समीक्षा; विचार वीथी, नवंबर10-जनवरी11)

डॉ. गोरे लाल चंदेल

आंचलिक भाषा पर कहानी लिखने की हमारी परंपरा बहुत लंबी है। इंशा अल्ला खाँ की 'रानी केतकी की कहानी' यों तो हिन्दी खड़ी बोली की कहानी मानी जाती है पर उस कहानी में आंचलिकता बोध स्पष्ट दिखाई देता है। रेणु की 'परती परिकथा' बिहार की लोक बोली के रस से सराबोर दिखाई देती है। उनकी कहानियों में भी इस आंचलिक रंग को आसानी से देखा जा सकता है। बहुत से हिन्दी कहानियों में भी आंचलिक भाषा के प्रयोग से कहानी को अधिक प्रभावशाली बनाया गया है। किन्तु यह भी सही है कि आंचलिकता के नाम पर बहुत सतही कहानियाँ भी लिखी गई है। और उन सतही रचनाओं के बलबूते पर आंचलिक लेखक का तमगा लगाकर सामाजिक और राजनैतिक लाभ उठाने वाले तथाकथित रचनाकारों की भी कमी नहीं है। ऐसे रचनाकार आंचलिकता को जीते नहीं केवल भुनाते हैं। जब तक आंचलिक भाषा की रचनाओं में अंचल के लोक जीवन की संवेदनाओं को पकड़ने, उनके भीतर की ऊर्जा और जीवनी शक्ति को तलाशने तथा लोक की संघर्षशील चेतना को पकड़ने में रचनाकार कामयाब नहीं होंगे तब तक आंचलिक रचनायें केवल सतही या मस्ती की रचनायें ही हो सकती हैं। उनमें रचनात्मक गहराई का अभाव दिखाई देगा। ऐसी रचनाओं का आंचलिक साहित्य के विकास में कोई योगदान नहीं होता। रचना का समाज शास्त्र विसंगतियों और अंतर्विरोधों से भरा हुआ दिखायी देगा।

हम छत्तीसगढ़ी पर लिखी आंचलिक रचनाओं की परंपरा की ओर देखें तो यह परंपरा खींच-तानकर धर्मदास तक जाती है। वैसे धर्मदास की रचनाओं को विशुद्ध छत्तीसगढ़ी कहने पर भी प्रश्न उठाये जा सकते हैं किन्तु र्ध्मदास से लेकर सन 2000 तक छत्तीसगढ़ी में जितनी रचनाएँ लिखी गई उससे कई गुना अधिक 2000 से 2010 के बीच लिखी गई। स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के बाद छत्तीसगढ़ी रचनाओं की बाढ़-सी आ गई, इस बाढ़ से छत्तीसगढ़ का संस्कृति, संस्कृति का आधार, उसका विचार पक्ष सब कुछ बह जाने के दुख में आज भी आँसू बहाते हुए दिखायी दे सकते हैं। अधिकांश छत्तीसगढ़ी रचनायें 'ठेठरी' और 'खुरमी' ,'चीला' और 'फरा' , 'लुगरा' और 'पोलखा', 'पंछा' और 'पटका' में सिमटकर रह गयी। लोक जीवन की ऐतिहासिक संघर्षशीलता को पहचानने में नाकाम रही।

कुबेर छत्तीसगढ़ी के एक संभावनाशील कथाकार हैं। कथाकार की दृष्टि न केवल लोक की ऐतिहासिक संघर्षशीलता को पहचानती है वरन् उसके भीतर के जीवन मूल्यों को तलाशती भी है। उनकी कहानियाँ सांस्कृतिक मूल्यों की ऊपरी कलेवर पर ही नहीं टिकती वरन् संस्कृति कोे व्यापक समाजिक जीवन के भीतर से देखती है। यदि कुबेर गाँधीवादी आदर्श के आग्रह से मुक्त होकर, कठोर सामाजिक यथार्थ से रूबरू होकर, लोक मूल्यों को पकड़कर कहानी लिखे तो एक मुकम्मल कहानीकार के रूप में उनका विकास हो सकता है। हालाकि ''भोलापुर के कहानी'' संग्रह की कुछ कहानियों में इस आदर्श से बाहर निकलने की छटपटाहट उनमें स्पष्ट दिखाई देती है जिससे उनमें अच्छे कहानीकार की संभावनाएँ दिखाई देती है। 'घट का चौंका कर उजियारा' ,'चढ़ोत्तरी के रहस', 'पटवारी साहब परदेसिया बनगे', 'अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ', 'मरहा राम के जीव' कहानियों में कुबेर के आदर्श से बाहर निकलने की कश्मकश को देखा जा सकता है और यथार्थ की ठोस जमीन पर डरते झिझकते हुए नहीं वरन् पूर्ण आत्मविश्वास के साथ, मजबूती से कदम रखते हैं। धर्म और धार्मिक कार्यों के भीतर छुपे हुए यथार्थ को पकड़ने में उनकी दृष्टि कहीं चूकती नहीं, चाहे कबीर पंथी संत का यथार्थ हो अथवा 'पेटला महराज' या बनारस का कथावाचक हो। हमारी सामाजिकता को रौंधते हुए अर्थ तंत्र की धड़कन पहचानने में कुबेर कोई गलती नहीं करते। आम आदमी के धार्मिक शोषण के रहस्य को भी वे समझ जाते हैं और संत या कथावाचक को हास्यास्पद बना देते हैं। नौकरशाही के चरित्र को 'पटवारी' और 'बबुआ' के माध्यम से, कड़ुए यथार्थ के भीतर से देखते हैं। मंगलू राम के विरोध की चेतना शोषित-पीड़ित व्यक्ति की संघर्षशील चेतना का ही प्रतिफलन है। रतनू राम को पटवारी परेशान करता है। वह कोई और नहीं, उनके अपने ही व्यक्ति है, छत्तीसगढ़िया है। नौकरशाह के चरित्र को परखने में कुबेर कहीं चूकते नहीं।

कुबेर के यहाँ छत्तीसगढ़ का गाँव है; एक समूचा गाँव, जहाँ गाँव की अच्छाई भी है और बुराई भी; और हैं दोनों को जीते हुए लोग। गाँव में अंधविश्वास का एक मजबूत जाल होता है जिसमें हर आदमी फंसा होता है और जाने अनजाने उसे जीवन का हिस्सा बना लेते हैं। यह अंधविश्वास कुछ चालाक लोगों के प्रतिशोध का अस्त्र भी होता है और कुछ लोगों के जीवन यापन का साधन भी। ''पेटला महराज के बाप ह तरिया के कुंडली बनाथे''(राजा तरिया )। वे यह भी कहते हैं - ''जजमान मोर बात ला धियान दे के सुनिहव। दुनों तरिया मन के बिहाव जब तक नइ होही, पानी कभू नइ माड़य।'' (राजा तरिया)। तालाब की गाँव वालों द्वारा बेटी वाले और बेटा वाले, दो ग्रुप में बँाटकर 'लद्दी' निकालकर सफाई की जाती है। पानी भरने का मुख्य कारण यह है जिस ओर संकेत करके कुबेर अंधविश्वास पर प्रहार करते हैं। छत्तीसगढ़ के हर गाँव में पेटला महराज और उसकी पीढ़ी को देखा जा सकता है। पेटला महराज का दूसरा रुप कबीर पंथी संत और तीसरा रुप कथावाचक और बरन ( चढ़ौतरी के रहस ) में देखा जा सकता है। वास्तव में इनकी पूरी जमात होती है जो गाँव के लोगों का सांस्कृतिक शोषण करती है और अपनी थैली भरती है। लोक जीवन धार्मिक कार्यों के प्रति बहुत संवेदनशील होती है और उसी संवेदनशीलता को शोषण का आधार बनाया जाता है। एक दूसरे तरह के लोग 'संपत' और 'मुसवा' जैसे होते हैं (लछनी काकी) जो अंधविश्वास को प्रतिशोध का हथियार बनाते हैं। घना मंडल के सामाजिक जीवन का गाँव के लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव को समाप्त कर अपना अस्तित्व और कमाई को बदस्तूर जारी रखने के लिय,े घना मंडल को बदनाम करने के लिये, षडयंत्रपूर्वक इसी अंधविश्वास का सहारा लिया जाता है और संपत, मुसवा और नानुक सुंदरू को साम, दाम, दण्ड और भेद से इस बात के लिये राजी कर लेते हैं कि भरी पंचायत में वह लछनी पर टोनही होने का आरोप लगाये और उसकी पत्नी पर टोना करने का दोष मढ़े। किन्तु उनका खेल गावँ के ही, मेडिकल कालेज का छात्र रघ्घू बिगाड़ देता है और पंचायत में जाँच रिपोर्ट पढ़कर बता देता है कि फुलबासन को एड्स है। कुबेर अंध-दृष्टि और वैज्ञानिक-दृष्टि की द्वन्द्वात्मकता दिखाकर समाज में अंधविश्वास के विरुद्ध चेतना जागृत करते हैं।

कथाकार की सहज दृष्टि में बड़ी सजगता हर कहानी में दिखाई देती है इसलिये समाज विरोधी तत्वों परंपराओं और रिवाजों का वे प्रतिरोध करते हैं। उनका यह प्रतिरोध रचनात्मक प्रतिरोध है; प्रतिरोध के लिये प्रतिरोध नहीं है- चाहे वह संपत और मुसवा का प्रतिरोध हो या नंदगहिन द्वारा कबीर पंथी संत का व्यंग्यात्मक प्रतिरोध हो ( घट का चौंका कर उजियारा ) अथवा मरहा राम का प्रतिरोध हो ( मरहा राम के जीव ) या फिर मंगलू का प्रतिरोध हो ( अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ )। इन प्रतिरोधों का संग्रह ही कहानी में एक सामाजिक चरित्र बनता ह,ै जो चेतना के समाजशास्त्र को प्रभावित करता है और चेतना के विकास की दिशा तय करता है। प्रतिरोध का यह स्वर कभी दबा हुआ रहता है तो कभी मुखर। मजे की बात यह है कि मुखर स्वर रघ्घू, जगत आदि नई पीढ़ी के लोगों में दिखाई देता हैं ( सरपंच कका, लछनी काकी )। कहानीकार की दृष्टि नई पीढ़ी के भटकाव को भी पकड़ने में सफल दिखाई देती है। ( डेरहा बबा ) नई पीढ़ी का यह भटकाव न केवल लोक जीवन को अशांत करता है वरन् उनके अपने जीवन में भी अंधेरे का विस्तार करता है। 21वीं सदी का उत्सव ( डेरहा बबा ) नई पीढ़ी के सांस्कृतिक भटकाव को रेखांकित करता है। यह बात अपनी परंपरा और इतिहास से कटी हुई पीढ़ी की त्रासदी की ओर इशारा करती है और कहानीकार का यह इशारा हमारी समूची सांस्कृतिक विरासत पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। किन्तु मंगलू के प्रतिरोध की चेतना एक दूसरी तरह की चेतना है ( अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ )। वह अपनी प्रतिरोध की चेतना को अपने अफसर के प्रिय विदेशी पौधे पर कुल्हाड़ी चलाकर व्यक्त करता है। मरहा राम की चेतना फेन्टेसी में फंसी होने के बाद भी मुकम्मल प्रतिरोधी चेतना के रूप में दिखई देती है ( मरहा राम के जीव )। नंदगहिन की विरोधी चेतना बड़ी मासूमियत और विनम्रता से भरी हुई चेतना है। ''बने कहिथस साहेब। हम मूरख अज्ञानी। दारू-मंद के मरम ल का जानबोन। जानतेन त अइसन अपराध काबर करतेन। आप मन गुरू हव, गियानी- धियानी हव, तउन पायके जानथव।''( घट का चौंका कर उजियारा )। मासूमियत और विनम्रता में लिपटी यह चेतना तिलमिला देने वाली है। कहानी ने विरोध की चेतना के मूक रूप को भी दिखाया है। रतनू के मूक विरोध में भी बड़ी ताकत दिखार्द देती है, चाहे वह 'पटवारी साहेब परदेसिया बन गे' में पटवारी के प्रति हो या 'साला छत्तीसगढ़िया' में दुकानदार के प्रति। मूक विरोध होकर भी यह प्रभावशाली ढंग से उभर कर सामने आता है। 'मरहा राम के जीव' कहानी में मरहा राम के मिथ और फेन्टेसी में जाने के पूर्व के चरित्र को भी विरोध की चेतना के रूप में देखा जा सकता है।

'भोलापुर के कहानी' रिश्तों की सामूहिकता में बंधी हुई कहानियों का भी संग्रह है। समूह की चेतना लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है; जहाँ हर आदमी रिश्तों की डोर में बंधा हुआ दिखाई देता है। गाँव के विरोधी तत्वों के बीच भी इस बंधन में कोई झोल दिखाई नहीं देता, चाहे सुकारो दाई का नंदगहिन से रिश्तों का बंधन हो या उनकी अपनी बहु से। अछूत समझे जाने के बाद भी पेटला महराज से डेरहा बबा का रिश्ता, रघ्घू और जगत का सरपंच कका, मुसवा, संपत और नानुक के रिश्तों का बंधन; रतनू उसका बेटा और उसकी पत्नी का बंधन; नंदगहिन का गुरुदेव संत साहेब से रिश्ता, न जाने कितने-कितने रिश्तों का बंधन। न जातिवाद की बाधा न सम्प्रदायवाद की। ऊँच की न नीच की । वहाँ केवल सामूहिकता की अविरल धारा है। बूँदों का विलय ही धारा का अस्तित्व है और यही लोक जीवन का भी अस्तित्च है। मरहा राम का संघर्ष और राजा तरिया कहानियों में सामूहिकता की दो अलग-अलग रूप दिखाई देती है। एक में समूह की शक्ति उत्सव की पृष्ठभूमि में दिखाई देती है तो दूसरी में यह प्रतिरोध की शक्ति के रूप में दिखाई देती हैं। दोनों लोक की सामूहिकता के दो अलग-अलग रंग हैं।

साहित्य में मिथ का उपयोग करते समय रचनाकार का सावधान रहना आवश्यक है। मिथ हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। उसके अपने ऐतिहासिक और सामाजिक महत्व हैं। किन्तु कालक्रम से उसकी व्यंजना को परिवर्तित करना आवश्यक होता है। 'मरहा राम के जीव' में कुबेर ने यमराज, यमलोक, यमदूत तथा श्री हरि या भगवान और भगवान के लोक के मिथ पर जो फंतासी रचते हैं वह रोेचक होने के साथ ही साथ नकारवादी न होकर सकारवादी है। भवसागर और वैतरणी जैसे मिथों का यमदूत द्वारा व्याख्या हमारे अपने सामाजिक चेतना को विकसित कर मिथ को एक अलग संदर्भ में देखने-समझने की दृष्टि देती है। मरहा राम प्रतिरोधी शक्तियों से अकेला संघर्ष करते हुए मारा जाता है; बल्कि उनकी हत्या की जाती है। पूंज्ीवादी शोषक व्यवस्था में कई मरहा रामों की हत्याएँ हो चुकी है। हिंसा, हत्या, आतंक यह सब तो इस व्यवस्था का चरित्र ही है। 'मरहा राम के संघर्ष' कहानी के प्रारंभ में अपनी जमीन न छोड़ने का मूक संघर्ष है किन्तु कहानी के अंतिम अंशों में यह संघर्ष प्रबल विरोध में रूपान्तरित होता है। कहानीकार ने शायद मूक विरोध को प्रबल मुखर विरोध में बदलने के लिये ही मिथ और फंतासी का उपयोग किया है। यह प्रयोग कहानी को बहुत ऊपर उठा देता है। यदि कहानी के ऐसे अंशों को, यथा - ''छत्तीसगढ़िया के निर्णय भगवान हा करही'' , '' लदलद लदलद कांपना'' जैसी बातों को विलोपित कर दिया जाय तो यह और भी प्रभावशाली कहानी बन सकती थी। मरहा राम के संघर्ष को हाशिये पर रखकर भगवान के आदेश से संघर्ष की परिकल्पना कहानी को नाटकीय ढंग से यथार्थ से दूर हटा देती है जबकि कहानी का कलेवर यथार्थवादी जमीन पर विकसित होती है। छत्तीसगढ़िया लोगों के भोलेपन का फायदा चालाक लोग उठाते हैं, यह सत्य है। उनकी चालाकी और उनकी बाहुबलियों से छत्तीसगढ़ियों के भयभीत होने में भी यथार्थ की झलक है पर छत्तीसगढ़ के लोग कमजोर नहीं हैं, वह हर परिस्थिति में जीने की क्षमता रखता है, उनकी इस क्षमता को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिये। यह क्षमता मरहा राम में भी है और रतनू में भी और डेरहा बबा में भी है। यही क्षमता उनकी ताकत है। फिर भी यह कहानी शक्तिशाली शोषकों के विरुद्ध जंग के एलान की कहनी बन जाती है और लोक में प्रतिरोध की चेतना का विकास करती है।

कहानी के शिल्प पर विचार किया जाय तो कहानी बुनने की कला तो कुबेर में है ही कथानक का विकास भी इस तरह करते हैं कि कथाक्रम में कहीं व्यतिरेक दिखाई नहीं देता। लोक-भाषाओं में यों ही बड़ी मिठास होती है। लयात्मकता तो लोक-भाषा का प्राण ही है पर यह सब तभी संभव है जब लोक की शैली में इसका प्रयोग हो। यदि लोक शैली को नजरअंदाज कर लोक-भाषा का प्रयोग किया जाय तो भाषा बोझिल हो जाती है और स्वभाविकता समाप्त हो जाती है। कुबेर ने ठेठ लोक शैली में कहानी लिखी है। लोक मुहावरे, लोकोक्तियाँ तथा लोक व्यवहार के शब्दों का कुबेर ने ऐसा प्रयोग किया है कि कहानी का शिल्प-सौंदर्य प्रभावशाली बनता ही है, पाठक को डुबा भी देता है। कुबेर तो यमदूत, यमराज और भगवान से भी छत्तीसगढ़ी में बात करवा देते हैं। विषयानुकूल छत्तीसगढ़ी के शब्दों का चयन आसान काम नहीं है, उसके लिये अध्ययन से अधिक अनुभव की आवश्यकता पड़ती है। कुबेर के पास भाषा का ठेठ अनुभव है, इसीलिये बहुत प्रभावशाली भाषा का उपयोग करने में वे सफल होते हैं।

कुबेर की कहानियों में अधिकांश पात्र प्रतिनिधि पात्र बनते-बनते रह जाते हैं। एक अजीब तरह के गाांधियन हृदय परिवर्तन का भी कहानीकार सहारा लेते हैं। गाँधी-युग के बाद हिन्दी कहानी की जमीन गाँधियन आदर्श से हट गई है और ठोस यथार्थ की जमीन पर हिन्दी कहानी फल-फूल रही है। ऐसे समय में गाँधीवादी हल देना कहानीकार की भावुकता ही मानी जा सकती है। जब-जब कुबेर गाँधीवादी भावुकता से बाहर निकलते हैं, कहानी बहुत प्रभावशाली बन जाती है - चाहे 'घट का चौंका कर उजियारा ' हो, 'सुकवारो दाई' हो 'पटवारी साहेब परदेसिया बन गे' हो 'अम्मा हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ' हो या 'मरहा राम के जीव' हो। इन कहानियों में सामाजिक विसंगतियों का यथार्थपरक रूप सामने आता है। कुबेर में कहानी बुनने की बहुत अच्छी कला है, अच्छी भाषा है और वे विषयवस्तु का चुनाव करने में सक्षम हैं। यदि भावना के प्रवाह में बहने के प्रति सचेत अथवा सजग रहें तों वे बहुत अच्छी आंचलिक कहानियाँ दे सकते हैं। हिन्दी साहित्य में अच्छी आँचलिक कहानियों की कमी कुबेर की कहानियों से पूरी हो सकती है।

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दाऊ चौंरा', खैरागढ

जिला - राजनांदगाँव (छ. ग.)

मो. - 9425560759

संपादकीय

भोलापुर के कहानी ' के का बतावंव। किताब तुंहर हाथ म हे। पढ़ के खुद देख लव। संगवारी हो ! भोलापुर गांव, जेकर कहानी ये किताब म लिखाय हे, कोन जगा हे? कोन तहसील अउ कोन जिला म हे? उहां के आबादी कतेक हे? उहां के रहवइया मन कइसन हें ? उहां का अइसन घटना घट गे कि जेकर कहानी बन गे? कहानी के कलाकार मन कइस-कइसन हें ? सबो झन विहिंचेच के आवंय कि अनगंइहां घला हें ? अबड़ अकन सवाल हे।

लेखक के गांव के नांव भोड़िया हे। मोर अनुमान रिहिस कि इही भोड़िया गांव ह बदल के भोलापुर हो गे होही। पेटला महराज, डेरहा बबा, झाड़ू गंउटिया, सुकारो दाई, नंदगहिन काकी, मंगलू राम, मरहा राम, किसन, रघ्घू , जगत, संपत, मुसवा विहिंचे के रहवइया होहीं। फेर लेखक-कवि के मन के बात ल भला कोई जान सके हें ? कोन्हों समझ सके हें ?

भोलापुर गांव हमरे तुंहर गांव जइसन हे फेर बड़ा विलक्षण घला हे। सड़क के किनारे बसे हे। छानी ले दे के दु सौ होही। फेर जइसे-जइसे किताब के पत्ता पलटत जाबे, वोकर विस्तार होवत जाथे। कभू लगथे कि भोलापुर म पूरा छत्तीसगढ़ ह आ के समावत जावत हे, समा गे हे, त कभू लगथे कि भोलापुर गांव ह खुद फैलत-फैलत अतका फैल गे हे कि वो ह पूरा छत्तीसगढ़ म व्याप्त हो गे हे। फेर तो ये कहानी मन केवल भोलचपुर के नई रहि जाय, पूरा छत्तीसगढ़ के कहानी हो जाथे। कहानी मन खाली भोलचपुरिहा मन के कहानी नइ रहि जाय, पूरा छत्तीसगढ़िया मन के कहानी हो जाथे। भाषा के अपन गुण अउ सामर्थ्य होथे। बता देथे कि बोलइया ह कहां के रहवासी आय। वोकर नीयत का हे।

कुबेर के कहानी कहे के भाषा अउ शैली धला दूसर कथाकार मन से अलग हे। ये कहानी संग्रह के खास बात ये हे कि एकर सबो कहानी मन के सूत्र ल जोड़ देबे त येमा उपन्यास के घला मजा आ जाथे। व्यंग्य के अइसन बघार हे कि स्वाद के का पूछना। बहुत झन साहित्यकार मन बहुत दिन से छत्तीसगढ़ी कहानी लिखत हें फेर ये कहानी मन उन सब ले अलग हें।

कुबेर ककरो परंपरा के कहानीकार नोहे, इंखर खुद के अपन परंपरा हे।

26 सितंबर 2010 सुरेश 'सर्वेद'

साधु चाल

तुलसीपुर, राजनांदगांव

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लेखकीय

सोंचव

छत्तीसगढ़ी भाषा-साहित्य-लेखन आज पर्याप्त मात्रा म होवत हे। बड़ा शुभ लक्षण हे। फेर छत्तीसगढ़ी समकालीन साहित्य के बात जब होथे तब हमला मुंह ताके बर पड़ जाथे। साहित्य के प्रवृत्ति अनुसार विद्वान मन वोकर नाम घरथें, जइसे -रीतिकालीन साहित्य, प्रगतिशील साहित्य आदि। अइसनेच समकालीन साहित्य ह घला प्रवृत्ति-विशेष के साहित्य होथे, येकरो अपन लक्षण अउ गुण-धर्म होथे। जइसे कोन्हों घला रचना ल प्रगतिशील रचना नइ कहे जा सके वइसनेच कोन्हों रचना ल समकालीन साहित्य घला नइ केहे जा सके। जउन रचना ह सामकालीन साहित्य के विशेष्ता से युक्त होही विही रचना ह समकालीन साहित्य माने जाही। समकालीन साहित्य म विद्रोह के स्वर प्रमुख होथे।

छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य के बात करन तो गद्य के अन्य विधा के तुलना म कहानी लेखन संतोष जनक हे। पं. सुंदर लाल शर्मा ले ले के आज तक निरंतर साहित्य सृजन होवत आवत हे फेर कतका रचना ह समकालीन साहित्य के कसौटी म खरा उतरत हे? सोचे के जरूरत हे।

कहानी हमर जीवन शैली के अभिन्न अंग आय। लोक जीवन म कहो कि शिष्ट समाज म, कहानी हर जगा मौजूद हे। कहानी न सिर्फ मनोरंजन के साधन आय बल्कि लोक शिक्षण के सबले सशक्त माध्यम आय। कहानी अपन मौखिक रूप म जउन नीति, ज्ञान-विज्ञान, इतिहास, राजनीति अउ समाज सुधार के शिक्षा के दायित्व-भार निभावत आवत हे वो ह वोकर लिखित रूप म अउ जादा स्पष्ट

धारदार अउ असरकारक होना चाही, जन-चेतना, जन-जागरण अउ जन-आंदोलन के दायित्व-बोध से युक्त हाोना चाही। विद्वान मन कहिथें , साहित्य ह प्रत्यक्ष रूप से क्रान्ति नइ करे, क्रान्ति आम जनता के द्वारा होथे फेर क्रांति के वातावरण, के निर्माण, क्रांति के जमीन के निर्माण साहित्य ह करथे। मानस ल प्रेरित अउ उद्वेलित घला तो करथे ? साहित्य ल चकमक पथरा तो कहिच सकथन।

छत्त्ीसगढ़िया मन ल 'अमीर धरती के गरीब लोग' केहे जाथे, बिलकुल सच कहिथें। जंगल के बीच बसइया मन घर बइठे बर टुटहा पिड़हा घला नइ हे, शहर म रहवइया मन के घर ह सैगोना ले पटाय हे। जेकर कई पीढ़ी के नेरवा इही धरती म गड़े हे वोकर घर के छानी ह ओदरे पड़े हे, काली आ के बसइया मन बिल्डिंग खड़ा कर लिन, करोड़ों के मालिक बन गिन।

बड़े-बड़े सरकारी पद ले लेके हमाली के पद म घला दूसर कोती के आदमी आ-आ के भरत जावत हें। कुछू कहिबे त कहिथें, योग्यता म कंपीटीशन करव। मंय पूछथंव, आजादी के बाद इहां बर सांसद के प्रत्यासी घला बंबई के आदमी ल बनाय, इहां सांसद बने के लाइक एको झन आदमी नइ रिहिन होही ? इहां के खदान मन ल विदेश म बेचे बर कते छत्तीसगढ़िया ले सलाह लिन हें। छत्तीसगढ़ म के ठन आई. आई. टी. अउ आइ्र. आई. एम. खोलिन ? के ठन मेडिकल अउ इंजिनियरिंग के कालेज खेलिन ? इहां के जंगलिहा आदिवासी अउ गांव-गंवइ के लइका मन ल योग्य बनाय खातिर का उदिम करिन हें ? आज तक रेल्वे, खान अउ गृह मंत्रालय म कोई छत्तीसगढ़िया सांसद ल मंत्री बनाइन ? कहिथें, कंपीटीशन करो। वाह भाई ! ये तो विही कहानी हो गे, एक झन राजा ह अपन परजा मन के चतुराई के परछो लेय खातिर राज म मुनादी करवाइस। किहिस कि एक ठन बोकरा हे, वोला छै महीना कोई रखंय। बोकरा ह न तो मरना चाही, न मोटाना चाही। एक झन चतुर सियान रिहिस। वो ह बोकर ल बघवा के पिंजरा के बगल म बांध दिस। छै महीना बाद राज ह देखिस। बोकरा ह न मरे रहय न मोटाय रहय।

संगवारी हो, हमन अपन आप ल 'छत्तीसगढ़िया सब ले बढ़िया' कहिथन। ये तो हमर आत्ममुग्धता आवय। अइसन कहिके हम अपन आप म मोहाय रहिथन। बाहर ले आवइया मन इहां के गंउटिया मन ल दाऊ जी , दाऊ जी कहिके चुहक डारथें, नंगरा बना देथें। 'छत्तीसगढ़िया सब ले बढ़िया ' के नारा ह घला अइसनेच उदिम आवय। कबीर दास ह केहे हे ' कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय' अइसन बात हे तब तो ठीक हे, नहीं ते मंय ह कहूं कि- 'छत्तीसगढ़िया सब ले परबुधिया।' बाहर ले आवइया मन बर तो न सिरिफ हमन, बल्कि हमर रहन-सहन, हमर खान-पान, हमर तीज-तिहार, हमर बोली-भाखा, सब हेय हे। हमर दाई-बहिनी मन उंखर मन बर कोठा वाली से जादा नइ हे। आज विही मन असली छत्तीसगढ़िया बन गे हावंय, हमन तिरिया गे हाबन। हमू मन विहिच मन ल अपन अगुवा बनाथन। गांव के जोगी जोगड़ा, आन गांव के सिद्ध। हमन परबुधिया नो हन त अउ का आवन ? सोंचव।

डॉ. नरेश कुमार वर्मा अउ डॉ. जीवन यदु के आभार मंय कोन ढंग ले प्रगट करंव, समझ नइ आवत हे। शब्द के अपन सीमा होथे। आप दुनों के जउन नैतिक साहस अउ मार्गदर्शन मोला मिलत रहिथे वोकर मंय सदा आकांक्षी रहूं , ऋणी रहूं। संपादक सुरेश 'सर्वेद' के घला मंय अंतस ले आभारी हंव।

दिनांक : 26 सितंबर 2010 कुबेर

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1 : डेरहा बबा

मोर गांव के नाम भोलापुर हे। पहिली इहां सौ छानी रिहिस होही। अब कतको छानी के दू-दू , चार-चार टुकड़ा हो हो के गिनती दू सौ ले ऊपर हो गे होही। छानी बंटा गे, खेत-खार घला बंटा गे। मन तो पहिलिच बंटा जाय रहिथे। मन बंटाइस तंहा ले गांव घला बंटा गे। अब घर अउ घर,, आदमी अउ आदमी के बीच बेर्रा बबूर के ढ़ेंखरा रुंधावत कतका देर लगही। पहिली बखरिच बियारा म रुंधना रुंधाय, बोंता बिरवा के रक्छा खातिर। अब तो भाई ह भाई के मुंह देखना नइ चाहे अउ रुंधना रूंध डारथे। मया-परेम अब तो तइहा के गोठ लागथे।

दू साल पहिली के बात आय। सन दू हजार के पहिली वाले रात, दुनिया जब इक्कीसवीं सदी म परवेस करिस, भोलापुर गांव घला, मुसवा जइसे भुस ले बिला म खुसरथे, इक्कीसवीं सदी म खुसर गे। मुसवा ठहरिस निसाचर, वोकर कारोबार रातेच म जम सकथे। इक्कीसवीं सदी काबर रात म आइस होही ?

गांव के जम्मों टूरा मन दू दिन पहिलिच ले इक्कीसवीं सदी म ओइले के तियारी म लगे रहंय। बेलबेलावत-इतरावत घरो घर जावंय अउ चंदा मांगंय। डेरहा बबा घर घला आइन। डेरहा बबा अपन घर के चांवरा म बिड़ी पीयत बइठे रहय, पूछ परथे, ''कस बाबू हो, ये इक्कीसवीं सदी काला कहिथे जी ?''

''तुम देहाती लोग क्या समझोगे? तुम्हारे दाई-ददा लोग तुम लोगों को पढ़ाये लिखाये होते तब न समझते ?'' एक झन टेसिया मुंहा टुरा, जउन ह कालेज पढ़े बर जाथों कहिके पांच साल हो गे हे, सहर जाथे अउ चाहे रेंगत रहय कि दंउड़त रहय, बात-बात म हवा म किरकेट खेलत रहिथे, हाउज दैट, हाउज दैट कहिके चिल्लावत रहिथे, तउन ह पथरा मारे कस जवाब दिस।

डेरहा बबा के जीव कलप गे। पहिली के लइका मन अपन ले बड़े मन के लिहाज करंय। अब के मन ल तो बड़े-छोटे के कोई लिहाज नइ हे। रघू अउ किसन के सुरता आ गे। वहू मन इहिच गांव के लइका आवंय। वो मन तो अइसन नइ हें। सबो एके बराबर नइ होवंय। कहे गे हे, 'जइसन-जइसन घर दुवार,वइसन-वइसन खरपा, जइसन-जइसन मां-बाप तइसन-तइसन लइका।' गुस्सा अउ अपमान ल समोस के कहिथे - ''हमर दाई-ददा मन हमला नइ पढ़ाइन बाबू हो, हमन देहाती बन गेन जी। तुमन तो पढ़त-लिखत हो। पढ़ लिख के का बनत हव जी? तूमन तो अंगरेज बन गेव तइसे लगथे।''

बेसरम टुरा मन ल का लगतिस। लात के देवता कहीं बात म मानहीं? इतरावत-जिबरावत स्कूल कोती चल दीन।

सांझ होइस। सब झन स्कूल म सकला गें। स्कूल तीर के बिजली खंबा मन म बड़े-बड़े पोंगा रेडियो बंधा गे। परछी म अलमारी सरीख डग्गा मांड़ गे। चकमकी लाइट लग गे। झालर गुंथा गे। बिजली लाइन म तार फंसा के डारेक्ट लाइन खींच डरिन। फेर का पूझना हे? सुरू हो गे पोंगा, भांय-भांय। विडियो लाने रहय, वहू सुरू हो गे। एक डहर चुल्हा जल गे। रंधई-गढ़ई घला सुरू हो गे। खाइन-पीइन, रात भर वीडियो देखिन, नाचिन-कूदिन, गजब हा हा, ही ही करिन। रात भर जागिन, गांव भर ल जगाइन। देवारी म नइ फूटय ततका फटाका फोरिन।

दूसर दिन दस बजे गुरू जी मन आइन। स्कूल खोलिन। तरवा धर लिन। बड़े-बड़े बोतल जतर कतर फेंकाय परे रहंय। जूठा-काठा के मारे गोड़ धरे के जगा नइ रहय। किहिन -''साले टेसिया मन इक्कीसवीं सदी म खुसरिन होही। निसानी छोंड़ के गे हें।

गांव के कोनों आदमी नींद भर नइ सुत सकिन। डेरहा बबा घला नइ सुत सकिस। सब कोइ्र जान गें कि हमर गांव ह आज रात म इक्कीसवीं सदी म खुसर गे। इक्कीसवीं सदी के रंग-ढंग ल घला जान गें। डेरहा बबा ह जनम के चरबज्जी उठइया मनखे। उठ के चारों मुंड़ा तुक तुक के निहारे कि आज कोई जिनिस बदले होही का? फेर कुछू बदलाव वोला नइ दिखिस। रोज जइसन होथे, वइसनेच आजो होवत रहय। बियारा मन म दंउरी चलत रहय। पनिहारिन मन बोरिंग म ठकर-ठकर पानी भरत रहंय। पहटिया ह गरू-गाय ल खेदारत खरकाडांड़ डहर लेगत रहय। पेटला महराज ह तरिया कोती ले हरे राम, हरे कृष्ण कहत, कच्चा कपड़ा पहिर के, लदलद-लदलद कांपत आवत रहय।

पेटला नाम ह महराज के बढ़ावल नाम हरे। वोकर असली नाम पं.राधा रमण मिश्रा आय। गजब धरम-करम के मनइया। दिन भर माला फेरत रहिथे। उमर ह सत्तर साल ले कम नइ होही।स्कूल मास्टरी ले रिटायर होय हे तब ले गांवेच म रहिथे। रोज सांझ के चार बजे चांवरा म चटाई-कमरा बिछ जाथे। आसन लग जाथे। आसन के आगू रही ऊपर लाल बस्तर म लपटाय रमायन ह बिराजित हो जाथे। केसरिया धोती पहिरे, रामनामी दुसाला ओढ़े, मुंड़ म पगड़ी अउ माथा म तिलक लगा के, एक हाथ म तम्बूरा अउ दूसर हाथ म चटका धर के महराज ह परगट होथे। पीछू-पीछू बाई मन, कोई मंजीरा धर के त कोई्र खंजेरी धर के आथे, अपन-अपन जगा म बइठथें अउ सुरू हो जाथे भक्ति रस के धारा बोहाय के। गांव भर के जम्मों बुजरुग सियान मन राम कथा सुने बर सकला जाथें। डेरहा बबा अउ मरहा राम एकर परमानेंट श्रोता आवंय।

कड़कड़ंउवा ठंड के दिन। महराज के कंपई के का पूछना। सियाना सरीर कतेक ल सहे। श्लोक बोलत रहय कि चौपाई, कुछू समझ नइ आवत रहय। डेरहा बबा दुरिहच ले अजम गे कि पेटला महराज ह असनान कर के आवत हे। दुनों हाथ जोर के कहिथे - ''पांय लागंव देवता।''

मुंहझुलझुलहा के समय। महराज अपन सुर म रहय। डेरहा बबा ल देख नइ पाइस। झकनका गे। दू हांथ पीछू घूंचिस। किहिस - ''खुस रह, खुस रह।''

डेरहा बबा ह सोंचत रिहिस, इक्कीसवीं सदी म हो सकथे महराज ह छुआ माने के छोंड़ दे होही, फेर अइसनो नइ होय रहय। सब जस के तस। कहीं कोई रत्ती भर घला हेर फेर नइ दिखिस। बबा कहिथे - ''पचासेच बरिस म कइसे नवा सदी आही?''

ओती उत्ती अगास म सुरूज देवता ह झांके लगिस।

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2 : राजा तरिया

भोलापुर गांव के जमीन न तो सरलग अउ सोझहा हे,अउ न चिक्कन-चांदर हे। खोधरा-डिपरा ले पटाय हे, बारा मरोड़ के भूल-भुलइया हे। मंदिर ह डोंगरी के टिप म बने हे त जइत खाम ह खाल्हे तला म। ऊपर डहर ऊपर पारा, खाल्हे कोती खाल्हे पारा अउ बीच म मंझोत पारा। खाल्हे पारा वाले मन बर ऊपर डहर मूंड़ी उचा के देखना तको अपराध रहय,चढ़े के तो बातेच मत सोंच। फेर सारकारी नियम कानून अउ बदलत जमाना के असर के कारण अब बड़े-बड़े खोधरा-डिपरा मन पटावत आ गे हे। ऊच-नींच के अंतर घला अब कम हो गे हे। ये तो होइस खाल्हे अउ ऊपर वाले मन के गोठ। मंझोत वाले मन के दसा सब ले जादा खराब हे। ये मन खाल्हे कोती देख के अपन आप ल ऊपर वाला समझथें, तब ऊपर वाले मन कहिथें, -''तुम साला सब नींचा।''

राजा मन के राज खतम होय म अभी टेम लगही। अभी खाली नाम बदले हे, राज उंखरेच चलत हे। पहिली के मन राजा, मुकड़दम अउ गंउटिया कहलावंय, अब मंत्री, संत्री अउ नेता कहलावत हें। ऊपर पारा अउ खाल्हे पारा वाला मन कतको सरकारी नउकरी लग के अपन बनवती बना लिन। कतरो साहब बन गें, कतरो डाक्टर बन गें, कतरो मन मास्टर अउ बाबू बन गिन। ऊपर पारा वाला मन नेतागिरी म घला आगू हें। झाड़ू गंउटिया कहत लगे, रायपुर दिल्ली सिवा कोई बातेच नइ करय। मरे बिहान हे मंझोत पारा वाला मन के। थोरिक बहुत मास्टर मुंसी वहू मन बन गे हें, फेर जादा मन पढ़ लिख के बेकार हो गे हें। कथे न, धोबी के कुत्ता घर के न घाट के। न सरकारी नउकरी मिलिस, न खेती-खार म मन लगिस। दाइ-ददा के कमइ ल दिन भर पान-गुटखा खा के थूंकत रहिथें। कुकुर मन सरिख लुहुंग-लुहुंग नेता मन के पीछू-पीछू लुटलुटावत रहिथें। दाई-ददा के मान करंय चाहे मत करंय, इंखर मन के तलवा चांटत रहिथें। जब दाई-ददा के इज्जत नइ करंय, तब दूसर के का करहीं।

पहिली के लइका मन के बाते दूसर रहय। बड़े-बुजरुग मन ल आवत देख के बेरेंच-कुरसी ले उठ जातिन। आघू म पान-सुपारी ल घला नइ खातिन। गांव भर ल परिवार कस मानतिन। कका-बबा, गंगाजल-महापरसाद के नता म नेताय रहितिन। जमाना बदल गे। न पढ़इ-लिखइ म चेत, न खेती-बारी म धियान। मरजाद ल जइसे खूंटी म टांग देय हें, कुछू कहे म सोझ रगड़थें -''अरे चल, अपन जघा म खेल। जादा झन उचक। अपन बेटा-बेटी ल पहिली संभाल।''

नाता गोता के जम्मो मिठास ह सिरा गे हे।

भोलापुर गांव घला देस के दूसर गांव मन सरीखेच हे। गांव के अमरतिच म संघरा दू ठन बड़े-बड़े तरिया हे। तरिया मन के मंझोत म एक-एक ठन पक्का चंवरा बने हें। सियान मन बताथें कि पहिली ये चंवरा मन के ऊंचाई अच्छा लाम लहकर आदमी के टीप छुअउल रहय। अब तो लद्दी पटइ के मारे तरिया मन ह खेत बन गे हें। चंवरा मन माड़ी माड़ी भर हो गे हें। चंवरा मन के बीचों बीच सइघो पेंड़उरा बरोबर, चिक्कन-चिक्कन छोलल खंबा गडे रहय। दुनों तरिया मन के, अउ ये खंबा मन के घला अपन कहानी हे। अतराब के चार-चार कोस तक इंखर कहानी परसिध्द रिहिस। गांव के बुजरुग सियान मन आजो ये कहानी ल बताथें। लोग लइका मन भले अइसन बात ल आलतू-फालतू समझ के रेंग देथें, फेर सियान मन गजब गरब-गुमान के संग ये बात ल बताथें।

तइहा के बात आय। देस म सुक्खा अंकाल पड़े रहय। खेत के धान ह पिकिया-पिकिया के भुंजा गे। त्राहि-त्राहि मच गे। भूख-पियास म आदमी मरे लगिन। उही बछर जनता ल पोंसे खातिर राजा ह ये तरिया मन ल खनवाय रिहिस। दूसर साल भगवान के किरपा होइस। झमाझम पानी गिरिस। सोला आना खेती होइस। तरिया मन घला लिबलिब ले भर गें। फेर अलकरहा हो गे। एती चउमास बीतिस, ओती तरिया ठकठक ले। समुंदर सरिख तरिया, पानी कइसे सुखइस, कहां गिस, कोनों गम नइ पाइन। दूसर साल घला अइसनेच होइस। आगू साल घला इहिच उपद्रव।

गांव के सियान मन बिचार करिन। आखिर तरिया मन म पानी काबर नइ थिराय? देखा-सुनी करिन। बाम्हन-पंडित मेर पोथी-पंचांग देखाइन। गांवेच म, पेटला महराज के पुरखा मन म एक झन महराज अबड़ ज्ञानी रहय। पटृटी कलम धर के तरिया मन के कुंडली बनाइस। घंटा दू घंटा ले गिरह-नछत्तर के चाल अउ दसा देखिस। बने बिचार कर लिस, जांच-परख लिस तब बताइस - ''जजमान मन मोर बात ल बने धियान दे के सुनिहव। दुनों तरिया मन के बिहाव जब तक नइ होही, पानी कभू नइ मांड़य। वइसे भी सास्त्र के अनुसार बिना बिहाव करे तरिया के पानी से निस्तार नइ करना चहिये।''

सियान मन महराज के खूबेच इज्जत करंय। वहू मन ल बात जंच गे। किहिन - ''ये काम ल तुंहर सिवा अउ कोन कर सकही देंवता। काम ल कब करना हे, कइसे करना हे, तुहिंच मन जानव। बड़ किरपा होतिस।''

धरम के काम समझ के महराज घला एके भाखा म तइयार हो गे। किहिस - ''संकर भगवान ह आसिरवाद अउ बरदान देय हे कि बर-बिहाव खातिर अकती के दिन ले जादा सुभ अउ कोनों दिन ह नइ होवय। विही दिन बर सबो तियारी कर डारव।

अतराब म बात बगर गे। अकती के दिन भोलापुर म तरिया मन के बिहाव होने वाला हे।

गांव गांव नेवता पठोय गिस। अकती के दिन भोलापुर म हजारों आदमी सकला गें। बजनिया मन दमउ, दफड़ा, मोहरी धर के आइन। अखाड़ा पारटी वाले मन अखाड़ा धर के आ गें। गांव सइमो सइमो करे लगिस।

आधा गांव बेटी वाले बन गें। आधा गांव दुल्हा पक्ष वाले बन गें। बेटी वाले मन अपन तरिया के लद्दी ल निकालिन। बेटा वाले मन अपन तरिया के लद्दी ल निकालिन। जम्मों डहर साफ-सफाई करिन। लीप-बहर के मड़वा छाइन। आन गांव के देखइया मन बरतिया बन गें।

बड़ धूम धाम ले बरात निकलिस। बाजा-गाजा के धूम हो गे। कलाकार मन घोड़ा-हाथी के स्वांग धरे रहंय। जोक्कर-परी मन के नाच अलग चलत रहय। मोटियारी मन बिधुन हो के, खांद जोरे-जोरे जोत्था के जोत्था भड़ोनी गाय म भिड़े रहंय। गोधूलि बेला म बिहाव संपन्न हो गे। इही बिहाव के निसानी आय वो खंबा मन।

चौमास आइस। झमाझम बरसा होइस। दुनों तरिया मन लिबलिब ले भर गें। चौमास बीतिस। पानी जस के तस। काजर सरिख निरमल जल लहर-लहर लहराय लगिस।

तरिया के पार मन म चारों मुड़ा बर, पीपर अउ आमा के बिरवां लगाय गिस। गांव के सोभा अउ पहिचान, बर-पीपर के पेंड़ अउ आमा के बगीचा ले होथे।

ये बात कोन जाने कते जुग के होही ते। बिहाव के खंबा मन अब सर-घुन के नंदा गे हे। बोरिंग के जमाना म तरिया के कोन पुछंता हे? लद्दी म तरिया पटा गे। चौमास नंहके के बाद लइका मन इंहचे किरकेट खेलथें।

छत्तीसगढ़ राज बनिस। सरकार अब इही तरिया मन ल बोरिंग के पानी ले भरे के उदिम करथे।

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3 : संपत अउ मुसवा

उतेरा एसो गजब घटके रहय। माड़ी-माड़ी भर लाखड़ी, घमघम ले फूले रहय। मेड़ मन म राहेर ह घला सन्नाय रहय। फर मन अभी पोखाय नइ रहय, फेर बेंदरा मन के मारे बांचय तब।

फुलबासन ह सुक्सा खातिर लाखड़ी भाजी लुए बर खार कोती जावत रहय। मेड़ के घटके राहेर के बीच चिन्हारी नइ आवत रहय। हरियर लुगरा, हरियरेच पोलखा, राहेर के रंग म रंग गे रहय।

राहेरेच जइसे वोकर जवानी ह घला सन्नाय रहय।

फुलबासन, जथा नाम, तथा गुन। फूल कस सुंदर चेहरा। पातर, दुब्बर सरीर। कनिहा के आवत ले बेनी झूलत हे, जउन म लाल फीता गुंथाय हे। महमहाती तेल, क्रीम अउ पावडर लगा के जब गली खोर म निकलथे, चारों मुड़ा ह आमा बगीचा कस महमहाय लगथे। करिया करिया आंखी, कुंदरू चानी कस पातर-पातर ओंठ, भरे पूरे छाती, देखइया के लार चुचवा जाथे। सात-आठ बछर हो गे हे ये गांव म बिहा के आय, फेर लोग लइका एको झन नइ होय हे। वोकर घर वाला सुंदरू वोला अघातेच मया करथे। अपन आप ल भागमानी समझथे कि गांव भर ले जादा सुंदर बाई हे वोकर।

सुंदरू बारो महीना सहर म हमाली करे बर जाथे। भिनसरहच सायकिल धर के निकल जाथे। दिन भर खटथे। आठ-नौ बजे रात के लहुटथे। घाम-पानी म दिनभर कमाथे। पाइ-पाइ जोड़थे। एक कप चहा भले नइ पीही फेर फुलबासन के फरमाइस ल जरूर पूरा करथे।

फूलबासन जतका सुंदर हे, वोतकेच मटमटही अउ फूलकझेलक घला हे। फैसन म रत्ती भर के कमी नइ होना चाही। मुंहबाड़िन अतेक कि गांव के कोनों वोकर संग नइ पूर सकय। फेर वाह जी सुंदरू। बाई्र के कोनों किसम के तकलीफ ल देख नइ सकय।

फुलबासन के मोहनी म सुंदरू ह तो मोहाएच हे, गांव भर के बुढ़वा जवान मन घला मोहाय हें। फुलबासन के सुभाव घला फूलेच सरीख हे। फूल ह भला कते भंवरा ल मना करथे? सब बर रस छलकत रहिथे।

मुड़ी म खाली टुकनी बोहे, राहेर मेड़ म मठरत-मठरत, ददरिया झोरत, एती ले फुलबासन जावत रहय। ओती ले मुसमुसात मुसवा राम आवत रहय। बीच मेड़ म ओरभेटठा हो गे।

मुसवा राम बढ़ावल नाम आय। वोकर असली नाम हाबे भुलवा राम। आदत सुभाव हे मुसवा सरीख। जेकर नही तेकर कोठी म बिला कर करके धान फोले म माहिर। ताकइया ह ताकते रहि जाथे, मुसवा राम ककरो सपड़ म नइ आवय। गांव के नामी डाक्टर। गुल्लूकोस, पदीना अउ दराक्छस (ग्लूकोज, पोदीना और द्राक्षासव) म सब किसम के बीमारी ल ठीक कर डारथे। लाख मर्ज के एके दवा। जउन बीमारी ह ये दवा मन म बने नइ होवय, तउन ह पक्का बाहरी हवा होथे। कोनो सोधे-बरे के कारू-नारू। तब? झाड़-फूंक, तेला-बाती बर घला उस्ताद हे। दारू-कुकरी के जुगाड़ होनच हे।

मुसवा राम म अतकेच खूबी होतिस तब तो। वो आय पक्का गम्मतिहा। नाचा-पेखा म जोक्कड़ बन के परी मन संग जब बेलबेलाथे, देखइया मन म चिहुर उड़ जाथे। पेट रमंज रमंज के हांसथें। समझ लेव हीरो नं. वन। असल जिंदगी म घला वो ह वइसनेच हे। वोकर बात सुन सुन के कतरो जती-सती रहंय, मोहा जाथें।

फुलबासन ददरिया झोरे म मस्त रहय। मुसवा राम के गम ल नइ पाइस। फेर मुसवा राम मुसवच आय। दुरिहाच ले वो ह फुलबासन ल ओरख डारे रहय। जान सुन के गउखन बने रहय। ओरभेट्ठा करे के ताक म तो सबर दिन के रहय। गांव नता म फुलबासन ह मुसवा राम ल कुराससुर मानथे। कट खाय रहिगे। आसते ले खखार के मुसवा राम ह आगू म खड़े हो गे। रद्दा बंद। फुलबासन ह हड़बड़ा गे। एती मुंड़ के गिरत चरिहा ल संभाले के उदिम करिस, त ओती छाती के अंचरा ह कनिहा म झूल गे। सरम के मारे वोकर मुंहू-कान ह ललिया गे।

बारा घठैांदा के पानी पियइआ मुसवा राम, फेर लहर-लहर लहरा मारत, अथाह गहिरी, अइसन घाट वो ह कभू नइ देखे रिहिस। देखिस त देखते रहि गे। जनम के बेलबेलहा, फेर चेत सुरता अइसे हराइस के सब भुला गे।

फुलबासन ह वोकर ले का कम हे? भांप गे कि मुसवा राम ह बिला ले बाहिर निकले बर अकबकावत हे फेर रद्दा नइ पावत हे। थोरिक देर अउ अकबकावन दिस तब अपन अंचरा ल सोझियावत किहिस - ''टार हो बड़का, खांसो-खखारो घला नहीं।''

मुसवा राम अब अपन होस म आ गे रहय। कहिथे - ''ये ले, छोटकी के बात। काला टेंकाय हाबन भइ, तेला टारबोन। तुम्हीं बताव।''

फुलबासन ह मुच ले हांस के कहिथे -''मोर मुंहू ल झन खोलवाव। काला टेंकाय के तुंहर नीयत हे, हम वहू ल जानथन।''

''बने कहिथो। तुंहर जइसे सुंदर अउ समझदार नारी हमर गांव म अउ कोन हे। ''मुसवा ह हांसत-हांसत कहिथे।

फुलबासन ह कहिथे - ''लुगरा ल छुवे हव। डांड़ लगही। एक ठन म नइ बनय, दू ठन नरिहर लगही।''

मुसवा ह कहिथे - ''हमर देवता ह नइ रुसाय। तुंहरे ह रुसाय होही। कहू त मनाय बर नरिहर धर के संझा बेरा आ जाहूं।'

फुलबासन कुछू नइ बोलिस। मुच ले हांस दिस। कनखही देखत, कनिहा ल मटकावत, मुसवा राम ल रगड़त आगू बढ़ गे। मुसवा राम ह पथरा कस मुरती जिहां के तिहां ठाढ़े रहिगे।

तीन चार खेत के दुरिहा म संपत महराज के खेत हे। वहू ह चरवाहा-बनिहार मन संग ढेंखरा कंटवाय बर आय रहय। फुलबासन अउ मुसवा राम ल राहेर झुंझकुर ले निकलत देख डारथे। का गुलाझांझरी होइस होही, समझे म वोला देर नइ लगिस। मने मन कहिथे -''आज तोला देखहूं रे मुसवा, कइसे बोचकबे ते।''

संपत महराज के चरित्तर के का बखान करंव। पुरखा मन गांव के जमींदार रिहिन। ये गांव म उंखरे राज चलय। परिवार बाढ़त गिस, जमीन खिरत गिस। कका-बबा, भाई-भतीजा मन पढ़- लिख के डाक्टर, इंजीनियर बन गे हें। नेतागिरी म तो इंखर मन के खंबा गड़ेच हे। सब झन सहर म जा के बस गे हावंय। संपत महराज गांवेच म अटके पड़े हे। पढ़इ- लिखइ म चेत नइ करिस। छोट-मोट नौकरी करे म इज्जत जातिस। सहर म दाल नइ गलिस तब इहां अपन रौब झाड़त रहिथे। जनम के अंखफुट्टा। ऊपर छांवा तो गांव भर ल नाता गोता मानथे, फेर मतलब के सधत ले।

मुसवा राम ह नांगनाथ आय, त संपत महराज ह सांपनाथ हरे।

फुलबासन के न तो सास-ससुर संग बनिस, न देरानी-जेठानी संग। पठोनी आय छै महिना घला नइ पूरिस, सुंदरू ल अइसे पाठ पढ़ाइस कि चुल्हा चक्की सब अलग हो गे। घर दुवार धला अलग हो गे।

सुंदरू ह गजब रात के लहुटथे। नरिहर चढ़इया मन इही बेरा के अगोरा करत रहिथें।

बियारी के बेरा रिहिस। निझमहा देख के मुसवा राम ह फुलबासन देबी के मंदिर म नरिहर चढ़ाय बर पहुंच गे। मुहाटी बंद रहय। जइसने खोले के उदिम करिस, अपने अपन खुल गे। संपत महराज ह तोलगी भीरत सुटुर सुटुर निकलत रहय। दुनों के दुनों हड़बड़ा गें। संपत महराज ह कहिथे - ''अरे मुसवा, तहूं आय हस? हाथ-गोड़ के पीरा म बिचारी ह गजब कांखत हे। फूुंके बर बलाय रिहिस। फूंकत ले गजब जम्हाय हंव। बैरासू धरे होही। तोरे ह काट करे त करे। जा तहूं फूंक देबे। अबड़ तकलीफ म हे बिचारी ह।

मुसवा राम सुट ले बिला म खुसर गे।

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4 : लछनी काकी

सोवा परे के बेरा हो गे रहय फेर सुते कोनों नइ रहय, जइसे ककरो अगोरा म बइठे होवंय। संपत, मुसवा, नानुक अउ एक दु झन जउन मन खुद ल गांव के सियान मानंय, घंटा दु घंटा ले अघात सोंच विचार करिन अउ कोतवल ल हाका पारे के आडर कर दिन। संपत अउ मुसवा ,गांव के भिंयफोर सियान आवंय। इंखर बिना न ककरो नियाव होवय न गांव म बइसका बइठे। संपत ह ता थोडिक़-बहुत पढ़े घला हे, मुसवा तो काला अक्षर भंइस बराबर हे। फेर गांव के मनखे मन ल बांध के कइसे रखना हे, इंखर ले बने अउ कोन जानही ? इंखर खाल्हे म जेकर हाथ चपका गे वो अउ उबर नइ सकय। न वोकर धन बच सकय न इज्जत। अउ नानुक आवय इंखर मन के मुंहलगा। जुटहा बरोबर इंखरे पीछू-पीछू लुटलुटावत रहिथे।

गांव भर म हांका पर गे। लोगन इही हांका के अगोरा करत रहंय। गांव खलक उजर गे। अटल चंवरा म सकला गे बइसका। कभू नइ आवय तउनों मन आय रहंय। बइसका काबर सकलाय हे, सबो जानत हें, फेर पूछब म कोनों नइ जानंय।

दू दिन हो गे, गांव म सुनगुन-सुनगुन एकेच गोठ होवत रहय। खुल के हंसना गोठियाना नोहर हो गे रहय कि जइसे कर्फू लगे होय। फुलबासन ल खटिया धरे महिना भर होवत हे। हफ्ता दु हफ्ता संपत अउ मुसवा के दवा-गोली, फूंका-झारा चलिस। अब झोला डाक्टर के सूजी पानी चलत हे। ककरो नइ लहत हे। अतराब के बइगा-गुनिया मन घला थर खा गें। सबो झन एके बात कहत हें, येला बाहिरी हवा लगे हे, कोनो टोनही येला चुहकत हे।

कटकटाय बइसका बइठे हे। एकदम चुप। सब कोती सन्नाटा छाय हे। गांव के कुकुर मन डरडरान कस कुंकवात रहय। संपत महराज ह कोतवाल ल पूछिस - ''कइसे जी कोतवाल, सब घर के सियान मन आ गें?''

कोतवाल ह गांव भर के आदमी मन के नाव टीप-टीप के हाजिरी लिस। सब आय रहंय।

संपत महराज ह फेर किहिस - ''बइसका के नियम ल सब जानत हव। जउन अपन घर के सियान आय, विही बोल सकथे। जउन ल बोले बर केहे जाही, उही बोलही। कोनो ल बोलना होही त आडर ले के बोलहीं। बइठ के बोलहीं, धिरलगहा बोलहीं ............। सोवा परती आज काकर घर गाज गिर गे, जउन बइसका बलाय हे, बोलय।''

सुंदरू हाथ जोर के खड़ा हो गे। किहिस - ''पंच परमेसर के पांव परत हंव। भइया हो, मोरे घर गाज गिरे हे। ये बइसका ल मिहीं बलाय हंव।''

नानुक किहिस - ''का बात ए, बने फोर-फोर के बता। गांव म सब एक दुसर के मुंह देख के बसे रहिथें। एक झन के दुख-पीरा गांव भर के दुख-पीरा आय। आज तोर घर समस्या आय हे, कल हमरो घर आ सकथे।''

सुंदरू - ''भइया हो ! गांव भर जानत हव, महिना भर हो गे, मोर घरवाली ल सुते। खटिया के खटिया म पचत हे। एक ठन बीमारी होतिस तेला बतातेंव। डाक्टर-बइद कर-कर के हार गेंव। बइगा-गुनिया घला लहत नइ हे। गरीब आदमी, मोर तो चारों खूंट अंधियारे अंधियार दिखत हे। अब तुंहरे सहारा हे।''

सुंदरू के बाई फुलबासन ल भला कोन नइ जानय ? गांव ते गांव, अतराब के मन घला वोला जानथें। रंग-रूप अउ सुंदरता म वोकर कोई जोड़ नइ हे। फेर चाल म कीरा परे हे। बोइर जतका मीठ होथे, वोतका वोमा कीरा घला परथे।

नानुक ह बात के रद्दा ल चंतवारत कहिथे - ''आदमी जनम धरे हन, जर-बुखार, बिमारी-हारी लगेच रहिथे। पंचायत ह एमा का करही ? अउ कोनों बात होही ते बने फोर के बता। कोन डाक्टर के इलाज चलत हे? कोन बइगा के तेला-बाती चलत हे? वो मन का बीमारी बतावत हें?''

सुंदरू - ''बीमारिच भर होतिस ते सक घला जातेंव भइया हो। इहां तो रोज-रोज बइरासू धरई के मारे मर गेन। बड़े -बड़े बइगा-गुनिया मन घला थर खा गे हें। चोवा डाक्टर ल पूछ लव। हमर तो विही ह सदा दिन के डाक्टर आय। मुसवा भइया अउ संपत महराज ल पूछ लव, वहू मन तो गांव के डाक्टरेच आवंय।''

नानुक ह तरवा धर लिस किहिस - ''का कहिथस ! बइरासू ? हे भगवान ! फेर यहा का चरित्तर सुरू हो गे हमर गांव म। ..... कोन ल बइरासू धरिस ? कोन-कोन झारइया-फुंकइया, अउ कोन आय बइरासू धराने वाला, एक-एक ठन बात ल बने फरिया-फरिया के बता। बाबू रे ! बात छोट-मोट नो हे। बने ठोसलगहा सबूत होही तब तंय बात ल लमा। गय तइहा के जुग, जब कोनों ल टोनही-टोनहा कहि देवंय। अब तो कानून हे, पुलिस हे, कोट-कछेरी हे।''

सुंदरू - ''मोर बाई फुलबासन ल बइरासू धरथे भइया हो। मुसवा भइया अउ संपत महराज ह झाड़-फूंक करइया आवंय। गांव के आधा आदमी ये तमासा ल देखे-सुने हे। आन गांव के बड़े-बड़े बइगा मन घला थर्रा गे हें। आज उतरही, काली फेर झपा जाही। जेकर ऊपर आथे, विही ह भोगथे, विही ह जानथे।''

नानुक - ''बइरासू धरइया के नाम बफरत होही ते बता वहू ल।''

सुंदरू - ''सब सुन डारे हें भइया। मुसवा भइया अउ संपत महराज के सामने के बात आय। चार झन के आगू के बात आय। लछनिच के नाम रोज-रोज आथे।''

नानुक - ''कोन लछनी ? बने चिन्हारू करके बता।''

सुंदरू - ''हमर घर के आगू म वोकर घर हे। घना मंडल के घरवाली आय। ............मोर बाई ल वोकर ले बंचा लेव ददा हो, मंय अब तुंहर सरन म परे हंव।''

कांटो ते खून नहीं। घड़ी भर बर सन्नाटा पसर गे। ककरो मुंह ले बक नइ फूटय। घना मंडल ठाड़े ठाड़ सुखा गे। लदलद-लदलद कंपई सुरू हो गे।

नानुक कहिथे - ''मोला जतका पूछना रिहिस, पूछ डारेंव। समस्या सब के सामने हे। सुंदरू के समस्या हम सब के समस्या आवय। आज वोकर ऊपर आय हे कल हमरो ऊपर आ सकथे। जुर-मिल बने बिचार करव अउ कोनो उपाय खोजो कि सांप तो मर जाय, फेर लउठी झन टूटय।''

वोतका म संपत रकमका के कहिथे - ''सुंदरू के बात सोला आना सच हे। रहि गे बात नियाव के, अइसन मन के नियाव इहां पहिली घला हो चुके हे। विही नियाव आजो होही।''

मुसवा कहां पीछू रहने वाला। किहिथे - ''महराज ह बने कहत हे। टोनही मन के विही हाल होना चाही जइसन एकर पहिली हो चुके हे। मंडल होही अपन घर के। कहां हे घना राम ह ? आय हे कि नइ आय हे। नइ आय होही त जाव, वोला खीच के लाव। आय हे त काबर चिट-पोट नइ करय?

घना मंडल ह मने मन गुनत बइठे रहय। बीस बछर हो गे हे लछनी ल ए गांव म बिहा के आय। नाती नतुरा खेलाय के दिन आने वाला हे। आज ले ककरो संग झगरा-लड़इ नइ करिस। ससुर ल ससुर, जेठ ल जेठ, ननंद-देवर ल ननंद- देवर मानिस। जइसन-जइसन नत्ता-गोता वइसने नत्ता सबरदिन ले मानत आवत हे। पारा भर के लोग-लइका मन काकी-बड़े दाई कहत सकलाय रहिथें, सब ल मया-दुलार करत रहिथे। घर-परिवार म कहस कि पारा-मोहल्ला म, कोनो एक ठन ऐब नइ जानिन। अउ आज ये कुलक्छिन-पापिन ह अपन पाप ल दाबे खातिर विही लछनी ऊपर अतेक बड़ लांछन लगावत हे ? अउ जनम के अंखफुट्टा ये संपत अउ मुसवा, जउन मन न तो ककरो बनती देख सकंय न ककरो सुम्मत। गांव के कते दाई-माई बर ये मन नान्हें नीयत नइ करिन होहीं ? इंखर पाप ल कोन नइ जानय। अपन पाप ल ढांपे खातिर अउ गांव ल दबाय खातिर आज ये मन अइसन परपंच रचे हें। इंखर थाप म नइ आय तेकर बर ये मन अइसने दांव खेलथें। अच्छा बदला लीन दुस्मन मन। फेर का करय घना मंडल। बइसका ह बइसका आय। नियाव ह सबूत मांगथे। का सबूत हे वोकर करा ? सब ल गुन के वोकर मुंहूं ह बंधा गे। दुनों हाथ जोड़ के कांपत-कांपत कहिथे -'' आय हंव भइया हो, येदे बइठे हंव।''

मुसवा - ''सुनेस कि नहीं। सुंदरू ह का कहत हे ?''

घना मंडल - ''लछनी ल ये गांव म बिहा के आय बीस बछर हो गे। वोकर अंचरा म कोनो प्रकार के दाग नइ लगिस। आज फुलबासन के कहे ले वो टोनही बन गे? सुंदरू का किहिस, मंय सुन डारेंव। पंचायत ह का कहत हे अब वहू ल मंय सुनना चाहत हंव। अउ कोन-कोन ल टोन्हाय हे लछनी ह, वहू मन बता डरंय।''

मुसवा - ''तोर बाई सती-सतवंतीन हे, चलनदार हे, अउ सुंदरू के बाई बदचलन हे, अइसने कहना चाहत हस का तंय। बने साफ-साफ बता।''

वोतका म संपत फेर रोसिया गे। कहिथे - ''होही जी तोर बाई ह सती-सतवंतीन। फेर सिधवा के पेट म दांत घला रहिथे। साबित हो चुके हे। फुलबासन ल तोरे बाई ह चुहकत हे। ........अरे का देखथस रे सुंदरू। हिम्मत हे ते उठ। जा अउ घर ले खींचत लान मंडलीन ल। नंगरी करव अउ केंरवछ चुपर के गली म घुमाव। देखबोन,सतवंतीन मन कइसन होथे।''

सुंदरू अउ मुसवा के पाट दबइया मन कलर-कलर करे लगिन।

घना मंडल कें तन-बदन म आगी बर गे। छाती अड़ा के कहिथे - ''कोन माई के लाल दूध पिए हे। मोर घर के मुहाटी म चढ़ के तो बताय।''

बात ल बिगड़त देख के सरपंच ह खड़ा हो गे। सब ल सांत कराइस। किहिस - ''कोनो कहि दिस कान ल कंउआ ले गे त कंउआ के पीछू नइ भागना चाहिये। कान ल पहिली टमड़ के देख लेना चाहिये। कहिथें, तइहा के बात ल बइहा ले गे, तभो तइहा के बात करथव। बीस बछर पहिली के बात करत होहू त सुनव। बात इहिच आय। वहू म एक झन फुलबासन रिहिस, लछनी मंडलिन रिहिस, मुसवा अउ संपत घला रिहिन। वहू समय इही भूत-बइरासू के नाम ले के गदर माचिस। वो समय के मुसवा अउ संपत के उभरउनी म भूत धरइया के परान ले लिन। उंखर परिवार के सती-गति हो गे। ..............फेर वो दिन के फुलबासन आजो जीयत हे। आज ले वोला भूत धरत हे। टोनही के तो परान ले लिन तब वोकर भूत धरइ ह माड़िस काबर नहीं ? उभरइया मन घला का हाल हो के मरिन सब जानथव। वो दिन के बात करथव। कुछू लगथे? अरे, जउन ल टोनही समझ के मारिन वो ह टोनही रिहिस? कि वो उभरइया मन टोनहा रिहिन, जउन मन एक निरपराध के परान लेवा दिन?''

''तंय घना मंडल के सरोठा मत तीर सरपंच साहब। अइसन मन बर अइसनेच करना चाही।'' नानुक किहिस।

सरपंच - ''तब घना मंडल अउ लछनी काकी के परान ल लेहुच तुमन ? इंखर परान लेय से फुलबासन के बीमारी माड़े के गारंटी हे त बताव। फुलबासन तहां ले अमर हो जाही क, यहू ल बताव। गारंटी हे ते बताव। तुंहला कुछू करे के जरूरत नइ हे। लछनी ल मंय मारहूं।''

मुसवा ह रखमखा के कहिथे - ''पहिली तंय गारंटी दे सरपंच कि दुनिया म टोनही नइ होवय। भूत-परेत नइ होवय। जादू मंतर नइ होवय।''

सरपंच - ''तब फुलबासन,संपत अउ मुसवा ह बतांय कि वो मन कते स्कूल,कते कालेज म टोनही विद्या पढ़े हें। कोनो आदमी ल टोनही नाव धरे के प्रमाण-पत्र ये मन ल कोन देय हे ? टोनही के मंतर कइसन होथे, बतांय कोनों, जानत होहीं ते।''

अब संपत ह उमिंहा गे। कहिथे - ''मंतर के बात तंय झन कर सरपंच। दुनिया म मंतर सच्चा होथे।''

सरपंच - ''मंतर सच्चा होथे, महुं जानथंव। मानथंव घला। फेर बताव भला मंतर काला कहिथे ? चारों वेद के ऋचा मन ल मंत्र कहे जाथे। ओमकार मंत्र अउ गायत्री मंत्र ले बड़ के दुनिया म अउ कोनों मंत्र होथे ? होवत होही त बताव। भगवान के नाम ह खुद सबले बड़े मंत्र होथे। भगवान ऊपर बिसवास हे कि नइ हे ? है त बताव, दुनिया म भगवान बड़े होथे कि टोनही बड़े होथे ? टोनही ब़ड़े होवत होही त वोकरे नाम लेय करो, भगवान ल काबर मानथो ?''

संपत - ''सरपंच, तंय टोनही-टमानी, भूत-परेत ल नइ मानस ते झन मान। सरकार नइ मानय ते झन मानय। सियान मन मानत आवत हें। दुनिया मानत हे। तोर एक झन के नइ माने ले दुनिया नइ बदल जाय। उठ रे सुंदरू का देखत हस? का केहेंव तोला नइ सुनेस ?''

फेर तो जहू-तहू चींव-चांव करे लगिन। हो-हल्ला मात गे। कहे लगिन - ''संपत महराज बने कहत हे। उठ रे सुंदरू, का देखथस। खींच के ला मंडलीन ल। नइ ते तोर बाई ल खटिया सुद्धा उंखरे घर म लेग के सुता दे।''

रघ्घू घला रायपुर ले आय रहय। खड़े हो के कहिथे - ''भाई हो, चुप हो जावव। हल्ला-गुल्ला करे म कोनों काम ह नइ बनय। महूं कुछ बोलना चाहत हंव।''

संपत - ''इहां सियान मन बोल सकथे। लइका मन ल बोले के आडर नइ हे। तोर घर के सियानी तंय करथस कि तोर बाप करथे तउन ल पहिली बता?''

रघ्घू - ''आज ले मोर घर के सियान मंय हरंव। मोर बात ल पंचायत ल सुनेच बर पड़ही। मंय रायपुर म रहि के पढ़थंव फेर गांव म आवत-जावत रहिथंव। गांव म का होवत हे वहू सब ल जानथंव। भइया हो, सरपंच कका ह बने बात कहत हे। जमाना आज कहां ले कहां निकल गे हे। आदमी चद्रमा अउ मंगल म पहुंच गे हें। पहिली जउन बीमारी मन के इलाज नइ हो सकय आज वहू बीमारी मन के शर्तिया इलाज होवत हे। कतको लाइलाज बीमारी मन के पहिचान अउ वोकर इलाज के तरीका, वोकर दवाई के खोज घला होवत हे। फेर कतको बीमारी आजो लाइलाज हे। आदमी के सरीर ह बीमारी के घर आय। बइगा-गुनिया के चक्कर म नइ पड़ के जानकार डाक्टर से इलाज कराना चाहिये।''

मुसवा - ''काली के तंय लइका, चुटुर-चुटुर झन मार। इलाज होवत हे कि नहीं, चोवा डाक्टर ले पूछ।''

रघ्घू - ''चोवा कका के मंय अपमान करना नइ चाहंव। बात के लाइन म बोले बर पड़त हे। चार-छः महीना कोनो डाक्टर के कंपाउण्डरी करके, सूजी लगाय बर सीख लेय से कोनो डाक्टर नइ बन जावय। अइसन होतिस तब बड़े-बड़े मेडिकल कालेज काबर खुलतिस। लाखों रूपिया खरचा कर के सात-आठ साल तक कोनों डाक्टरी के पढ़ाई्र काबर करतिन ? महूं ल तो हो गे हे आज चार साल डाक्टरी पढ़त।''

संपत - ''सरकारी अस्पताल म घला जांच कराय हे। वहू मन तो कुछू बीमारी नइ बताइन।''

रघ्घू - ''जांच रिपोर्ट तो लिख के देय होही ? लाव तो मंय देखथंव।''

अब तो संपत, मुसवा अउ सुंदरू सिटपिटा गें। बोलती बंद हो गे।

रघ्घू ह फेर तिखारिस - ''लाओ न कका, जांच रिपोर्ट कहां हे, चुप काबर हो गेव ? ....... आजकल एक ठन नवा बीमारी निकले हे जउन ल एड्स कहे जाथे। भगवान से बिनती हे, कोनों दुस्मन ल घला ये बीमारी झन होवय। दुनिया म येखर कोनो ईलाज नइ हे। फेर फुलबासन काकी के बीमारी के जउन लक्षन मंय सुनथंव वोकर से तो मोला एकरे आसंका जनावत हे। सुंदरू कका ! पंच ल परमेसर कथें। सच-सच बता, डाक्टर कहूं अइसने तो नइ बताय हे।''

सुंदरू - ''तंय बने कहिथस बेटा।'' बीच सभा म हाथ जोर के कथे - ''रघ्घू कहत हे तउने ह सच आय भइया हो। संपत अउ मुसवा के उभरवनी म मोर मति मारे गे रिहिस। मोला माफी देहू।''

संपत अउ मुसवा, दुनों झन के कांटो तो खून नहीं। अब तो सब संपत अउ मुसवा बर खांव-खांव करे लगिन। दूनों झन उठिन अउ सुटुर-सुटुर अपन-अपन घर के रद्दा धरिन।

सरपंच ह कहिथे - ''वाह बेटा रघ्घू , आज तंय भोलापुर के नांव ऊंचा कर देस।''

घना मंडल ह सरपंच अउ रघ्घू ल पोटार लिस।

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5 : सुकारो दाई

सुकारो अपन घर मुहाटी के आगू आंट म बइठ के मेरखू के गोंटी मन ल बीनत रहय। मेरखू बिनइ हर तो बइठे बिगारी बुता आवय, वो तो नंदगहिन के रस्ता देखत रहय। दिन के बारा बजे के बेरा रिहिस होही, अग्घन-पूस के घाम, बने रुसुम-रुसुम लगत रहय। देखत देखत घंटा भर हो गे, घाम ह घला बिटौना लगे लगिस। नंदगहिन के दउहा नहीं। सुकारो ह गोठियाय बर कलकलात रहय। जी उकुल-बुकुल होय लगिस। मने मन कहिथे - 'कहां झपाय होही रोगही मन ह आज। नंदगहिन ह नइ हे त नइ हे, कांकेतरहिन ह तो दिखतिस। कोन जानी कहां मुड़ाय होही आज दुखाही मन। आन दिन कइसे सुकारा,े सुकारो हहिके सोरियावत आवंय। जोम दे के बइठे रहंय। मरे रोगही मन, कहीं घला जांय-मरें।' गुस्सा के मारे सूपा ल आंट म भर्रस ले पटक दिस अउ तरवा धर के बइठ गे।

सुकारो मने मन गुंगवात रहय। असल बात ये हरे; वोकर बहू ह आज होत बिहनिया मइके चल दे हे। घर म रहितिस त कोनो न कोनो ओखी करके कतको घांव ले वोकर संग झगरा मता डारे रहितिस। फेर हाय रे किस्मत, आज के दिन कइसे पहाही ते?

ठंउका उठे बर गोड़ ल लमात रहय, ओतकी बेर नंदगहिन ह कोन जानी कते डहर ले आइस ते, वोकर आगू म झम्म ले खड़ा हो गे। ठुमक के कहिथे - ''झाऊ।''

सुकारो ह तो कंझाय बइठे रहय। नंदगहिन के आय के गम ल नइ पाइस। वोकर झाऊ म अलकरहा झकनका गे। लटपट अपन पागी पोलखा ल संभालिस अउ हफरत-हफरत मुटका बांध के नंदगहिन ल चमकावत कहिथे - ''तोर रोना पर जाय ते। सियान सामरत मनखे ल झझका-चमका के मार डारबे?''

सुकारो ह अपन छाती के अंचरा ल अभी तक बने सोझियाय नइ पाय रिहिस। पोलखा भीतरी ले गोलिंदा भाटा कस छाती मन लसलसात दिखत रहय। विही डहर कनखही देखत नंदगहिन ह बेलबेलावत कहिथे - ''ओ हो... कब ले हो गेस तंय सियान? मंय कोनो डउका जात होतेंव, अभीचे तोला झिंकत-झिंकत पइठू ओइलातेंव।''

सुन के सुकारो के मुंह कान ह लाल बंगाला हो गे। मुंह बिचका के कहिथे - ''जादा झन इतराय कर रे बिलइ, भंइसी, छिनार। तोर बकचंडी कतेक चढ़े हे ते गांव भर के बिजाड़ मन ल तिंही नइ अपन घर म ओइला डरस।''

अतका ल सुन के नंदगहिन ह कठल के हांसे लगिस। सुकारो घला मुसुर-मुसुर मुसकाय लगिस। अइसने हंसी ठिठोली कर के बिचारी मन कभू-कभू हांस गोठिया लेथें, नइ ते जिंदगी म उंखर दुख के सिवा अउ का हे?

भगवान ह बिचारी सुकारो के जिन्दगी म गजब के परछो लेय हे। भरे जवानी म वो ह खाली हाथ हो गे। बेटा किसन ह पांच साल के रिहिस होही। बेटा के मुंहू ल देख देख के वो ह अपन जिनगी ल खुवार कर दिस। देवर-जेठ अउ पारा मोहल्ला के भला-बुरा नीयत ले अपन मरजाद अउ जायदाद के रक्क्षा करना रांड़ी मोटियारी बर कोनो सरल काम नइ होवय। ककरो नीयत वोकर जवानी म लगे रहय त ककरो नीयत वोकर जायदाद म। फेर वाह रे सुकारो! कोन जाने वोकर अंतस म कोन देवी आ के बिराजिस ते; न अपन जायदाद म, न तो अपन मरजाद म, कोनो किसम के टिकी लगन नइ दिस। अउ आज वो ह बेटा ल पढ़ा लिखा के, वोकर बर-बिहाव कर के गंगा नहा डारिस। बेटा किसन ह अब सरकारी नउकरी के आस लगाय बइठे हे। ख्ेात-खार कोती चिटको ध्यान नइ देवय। बिचारी सुकारो ह कतिक ध्यान करे। कतेक हलाकान होय? सोंचे रिहिस, नाती-नतुरा आ जाही तहां ले विही मन ल खेलात-खवात बचे खुचे जिनगी ह घला पहा जाही। फेर वाह रे किस्मत, पांच साल हो गे हे बहु आय; एको ठन तो फूल फुलतिस? बेटा तो अब बहु अलंग हो गे हे। एके झन म दिन कइसे पहाय? वोकरे सेती वो ह अब बात-बात म कंझावत रहिथे अउ बहु ल झगरत रहिथे।

वइसनेच हाल नंदगहिन के हे। नंदगहिन के दु झन बेटिच बेटी हे। दुनाों के बर-बिहाव हो गे हे। भगवान के किरपा ले दूनों झन अपन अपन घर म हंसी-खुसी कमावत खावत हें। नंदगहिन अपन घर म एके झन रहिथे। गजब के बेलबेलही नारी आय। नत्ता देख देख के ठिठोली करे बर कभू नइ चूकय। गांवेच म नहीं, अतराब म घला वोकर सही जचकी निबटइया अउ कोनो नइ हे। वोकर बिना ककरो घर के छट्ठी-बरही नइ निभय।

सुकारो अउ नंदगहिन जिंदगी भर के निकता-गिनहा, सुख-दुख के पक्का संगवारी आवंय। सुकारो ह नंदगहिन ल कहिथे - ''कते डहर झपाय रेहेस रे छिनार, दिन भर म अभी दिखत हस। गोठियाय बतराय बर घला तरस गेन।''

नंदगहिन - ''अइ, बड़े-बड़े बम फटाका फूटिस हे तेला नइ सुनेस का भइरी ?'' घर भीतरी के आरो लेवत फेर कहिथे - ''बहु के आरो नइ मिलत हे, नइ हे का ?''

''अपन दाई घर गे हे छुछवाही ह।'' हुड़से सही सुकारो कहिथे।

''ओकरे सेती तोर मुंहू ह उतरे हाबे न ? बने करिस बिचारी ह। दू दिन घला तो हित लगा के खाही-पीही ।''

सुकारो ह रिसा गे, कहिथे - ''हव दाई, हम तो जनम के झगरहिन आवन। दुनिया भर ल झगरत गिंजरत रहिथन।''

नंदगहिन ह फेर ताना मारिस - ''राजा रिसाही ते अपन गांव लिही, अउ का करही ?''

सुकारो अउ भड़क गे। मुंह फुलो के दूसर कोती देखे लगिस।

नंदगहिन ल कोनो ल भड़काय बर आथे त मनाय बर घला आथे। सुकारो के कान म मुंहू ल टेंका के कहिथे -'' सुनथस मंडलीन, मुकड़दम के बेंड़ा म कोनो नइ हे तइसन फकफक ले पंड़रा, सांगर मोंगर टूरा लइका होय हे वोकर बहु के। तभे तो दनादना-दनादन पांच ठो बम फोरिस हे।''

सुन के सुकारो के मुंहू ओसक गे। कथे -'' अउ वोकर मुंहरन-गढ़न काकर सरीख हे तउन ल तो नइ बताएस रे रोगही। गंउटिया के टुरा सरीख तो नइ हे ?''

इसारा ल समझ के दुनों झन कठल के हांस डरिन।

सुकारो कहिथे - ''गंउटिया के रोगहा हरामी टुरा ह चार दिन हमरो घर कोती रमे सही करे। फेर एक दिन सात पुरखा म पानी रुकोयेंव रोगहा के। जोम दे देय रहय। जादा करतिस ते खंड़री नीछे रहितेंव रोगहा के। महूं अपन बाप के बेटी आवंव।''

दुनों झन के मुंह करुवा गे। छिन भर बर चुप्पी छा गे। सुकारो बोटबिटा गे रहय। नंदगहिन आय सबर दिन के वोकर संगवारी। वोकर मन के बात ल ताड़ गे। पांच बछर हो गे हे बहु आय, फेर नाती नतुरा के दउहा नइ हे। एकरे संसो-फिकर वोला खाय रहिथे। रात दिन घुरत रहिथे। कहिथे - ''जादा संसो-फिकर झन करे कर मंडलिन। भगवान के किरपा होही ते एसो के दिन के आवत ले तुंहरो घर बम फूट के रही।''

सुकारो - ''मत ले तंय भगवान के नाम ल नंदगहिन बहिनी। दुनिया बर वो भले होही, हमर बर नइ हे। रहितिस ते जिनगी भर हमला का अइसने रोवातिस ?'' अंचरा के कोर म आंसू ल पोंछ के फेर कहिथे - ''बहिनी, मंय तो बइद-गुनिया, तेला-बाती अउ दवइ- पानी करत-करत हार गेंव। बेटा ल कहिथंव येला निकाल, अउ दूसर बिहाव कर, फेर वो ह अब मोर बात ल काबर सुनही?''

नंदगहिन - ''बहिनी ,नारी हो के नारी बर अइसन बात झन सोंचे कर। बहु हर घला बेटिच आय। सोला आना बहु पाय हस। भगवान ह नइ चिन्हय, तब बिचारी ह का करही ? सरीर ताय, ऊंच-नीच होवत रहिथे। बहु आय, गरू गाय नोंहे। बिहा के लाये हन तब हमर घर आय हे। कइसे निकाल देबे? अउ दुसरइया बिहाव करइया के किस्सा ल भुला गेस का ? सुरता कर मुरहा के। का हाल होय रिहिस वोकर ?''

मुरहा के किस्सा ल सुरता कर के दुनों झन कठल के हांस डरिन।

इही गांव म एक झन मुरहा नांव के आदमी हे। चरवाहा लग लग के अपन गुजर-बसर करथे। भाई बंटवारा म एक खोली के घर मिले रहय। अपन मन खोली म सुतंय, दाई ह परछी म। लइका लोग नइ होइस तब बरे बिहाती ल बक्ठी हे कहिके झगरा मताय। दाई के उभरौनी म आ गे। एक झन छड़वे डउकी ल चूरी पहिरा के ले आइस। अब सुते-बसे के बेवस्था कइसे करे जाय? एक ठन खोली म दुनों बाई के निरबाह नइ होइस तब बिहाती के खटिया ल पटंउहा म चढ़ा दिन। चढ़े-उतरे बर निसैनी टेंका दिन। भगवान के लीला घला अपरम्पार होथे। जउन बिहाती ल बक्ठी कहिके रात दिन झगरा लड़ंय, वोकरे पांव पहिली भारी हो गें।

जड़कला के समय रहय। एक दिन अलकरहा हो गे। रात के जेवन करके मुरहा ह पान खाय के बहाना घूमे बर निकल गे। नौ-दस बजे लहुटिस। खाल्हे वाले के नींद पर गे होही सोंच के पटंउहा डहर चढ़े लगिस। नींद न खाल्हे वाले के परे रहय, न ऊपर वाले के। खाल्हे वाले ह रटपटा के उठिस अउ वोकर दुनों गोड़ ल चमचमा के धर लिस। किहिस - ''एकरे बर मोला चूरी पहिरा के लाय हस ? उतर खाल्हे।''

पटंउहा वाले ह घला झपटिस। वो ह दुनों हाथ ल जभेड़ के धर लिस। किहिस - ''अतेक दुरिहा चढ़ के अब उतरबे कइसे?''

खाल्हे वाले ह खाल्हे दहर खींचे, ऊपर वाले ह ऊपर डहर। खींच तान म निसैनी ह घला गिर गे। अब तो मुरहा के देखो देखो हो गे। सकत ले हाथ गोड़ ल चलाइस। कतका छटपटातिस? लाज-सरम करे म तो पराने निकल जाही। जोर-जोर से गोहराय लगिस - ''मर गेंव दाई ओ.... बंचा मोर दाई.....परान छुट गे वो....।''

दाई ह सबो बात ल समझ गे। बेटा ल बचाय बर दंउड़िस। फेर कपाट ह भीतर कोती ले बंद रहय। कइसे खुले अउ कोन खोले? मुरहा अधमरहा हो गे फेर वाह रे राक्षसिन हो। कोनो ह तो दया करतिन।

दाई ह सोंचथे, जग हंसाई होय ते होय, बेटा के परान तो बांच जाय भगवान। बीच गली म खड़ा हो के गोहार पारे लागिस - ''दंउड़ो ददा हो, दउड़ो बबा हो, मोर बेटा के परान ल बचा लेव।''

गांव म सोवा पर गे रहय फेर पान ठेला म दू चार झन लफाड़ू टुरा मन गप सड़ाका करत जागत रहंय। अनहोनी जान के वहू मन चिल्लावत दंउड़िन। देखते देखत आधा गांव वोकर मुंहाटी म जुरिया गें। कपाट के गुजर ल उसाल के लटपट मुरहा के परान ल बंचाइन।

कहिथें, बोकरा के परान छूटे, खवइया बर अलेना। वोतका बेर तो कोई कुछू नइ किहिन, फेर बिहान दिन लोगन बड़ा रस ले ले के ये घटना के बरनन करंय अउ कठल कठल के हांसंय। आजो येकर गम्मत मड़ाथें।

हंसी ल लटपट थाम के सुकारो ह कहिथे - ''त का उपाय करबो बहिनी, तिंही बता? तोर ले जादा अउ कोन जानही?''

नंदगहिन - ''मंडलिन बहिनी, आज कल के पढ़े-गुने लइका मन के बिचार घला अलगेच रहिथे। नरस बाई ह कहिथे 'पहला बच्चा अभी नहीं, दो के बाद कभी नहीं।' बहु-बेटा मन कहूं अइसने सोचें होही तब? नरस बाई ल मंय तुंहर घर आवत-जावत घला देखथों। ''

सुकारो - ''उंखर सोंचे ले का होही? भगवान दिही तेला कोई रोक सकथे का?''

''तंय हस निच्चट अंड़ही। आज कल रोके के घला कतको उपाय निकल गे हे। हम तुम भले नइ जानन। ये मन सब जानथें।'' नंदगहिन ह समझाइस।

ठंउका वोतकेच बेर किसुन ह बजार ले आइस। नंदगहिन ह सुकारो ल अंखिया के कहिथे - ''रुक जा, मंय अभी भेद ले के आवत हंव।''

थोरिक देर म नंदगहिन ह हांसत-हांसत आइस अउ किहिस - ''आखिर मोरे बात सच निकलिस न। फोकट रात-दिन चिंता फिकर म दुबरात रेहेस। बाबू ल मंय सब समझा दे हंव। इही दिन के आवत ले तोरो घर फटाका नइ फूटही ते मोर मरे मुंह ल घला झन देखबे।''

सुकारो - ''भगवान तोला सौ बछर जियावय बहिनी। हम अंड़ही आजकल के नवा-नवा टेम-टाम ल का जानबो।'' किसुन ल बला के कहिथे - ''किसुन, सुनथस बेटा। काली बिहाने जा के तंय बहु ल ले आतेस गा। नइ हे ते घर ह उदसहा-उदसहा लागत हे।''

किसुन - ''तंय तो कभू झन आबे केहे हस मां।''

सुकारो - ''कहि परे होबोन रिस म। रिस के बात ल धर के अइसने रिसाहू त भला मंय काकर भरोसा जीहूं। वो बहु नो हे, हमर बेटी आय, लक्ष्मी बेटी। तंय नइ जाबे ते हम चल देबो। का के लाज सरम?''

सुकारो मंडलिन के हिरदे के बदले भाव ल नंदगहिन ह ताड़ गे। किसुन ल कनखियाइस। दुनों झन के हांसी छूट गे। सुकारो सिट ले हो गे। सेत मेत के गुस्सा करत कहिथे - ''बेटा, तोर तीर चिटको घला बुध हे रे? दाई ल एलथस। चंडाल कहीं के।''

किसुन ह भीतर कोती भागिस। एती ये मन खिलखिला के हांसे लगिन।

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6 : घट का चौका कर उजियारा

कातिक पुन्नी के दिन आय। नंदगहिन के घर म गजब उछाह मंगल होवत हे। जम्मों सगा-सोदर मन सकलाय हें। दूनों बेटी-दमाद, सबो नाती-नतनिन, भाई-भतीज, ननंद-डेड़सास, गंगाजल-महापरसाद, हितू-पिरीतू सब आय हें।

बिहिनिया सातेच बजे पोंगा बंधा गे। भांय-भांय बाजे के सुरू घला हो गे। दू ठन खोली अउ एक ठन परछी। घर अतकिच अकन ताय। बखरी म अबड़ दूरिहा ले चंदेवा लगा के रांधे-गढ़े, मांदी-पंगत के बेवस्था बना देय हें। पलास्टिक के कुरसी लग गे हे, दरी-तालपत्री सब जठ गे हे। रंधइया-गढ़इया मन साग-पान, चांउर-दार, लकड़ी-फाटा के बेवस्था म लगे हें। सुकारो दाई के देख रेख म सब काम बने-बने निपटत हे।

असाड़ के बात आय। नंदगहिन ह एक दिन संझा बेरा खेत ले आइस। आतेच हाथ-गोड़, मुड़-कान के पीरा म खटिया धर लिस। सुतिस ते दुबारा उठे के हिम्मत नइ होइस। देंह लकलक ले तीप गे। लदलद-लदलद कांपे लगिस। घर म अउ कोई होतिस ते हियाव करतिस? सुकारो के घर ह दू घर के आड़ म रहय। जादा दुरिहा नइ रहय तब ले जाय के हिम्मत नइ होइस। अपन अनभो ले वो ह जान गे कि मलेरिया झपा गे हे।

सुकारो ह अपन घर मुंहाटी म बइठ के नंदगहिन के रस्ता देखत रहय। सोंच म पड़े रहय। सब घर के छानी ले धुंगिया उठत हे, नंदगहिन के छानी ले काबर धुंगिया नइ उठत हे? रोज अतका बेर वो ह बइठे बर आ जाय। आज काबर नइ आवत हे? मन म भुरभुसहा जना गे। उठिस अउ सुरूकुरू वोकर घर डहर चल दिस। कपाट ह ढंकाय भर रहय। ठेलिस अउ आरो लेवत भीतर चल दिस। देखथे कि घर भर के कथरी-चद्दर ल घुमघुम ले ओढ़ के नंदगहिन सुते हे। लदलद-लदलद कांपत हे। मनमाने हकरत हे।

नान्हें करेजा के मनखे सुकारो; नंदगहिन के हालत ल देख के खुदे कांपे लग गे। बोटबिट ले हो गे। अंचरा के कोर म आंसू ल पोंछत-पोंछत कहिथे - ''तोला का हो गे मोर बहिनी? कइसे लागत हे? काबर सुते हस?''

नंदगहिन - ''कुछू नइ होय हे मंडलिन, मलेरिया बुखार कस लागत हे। घंटा दू घंटा म उतर जाही।''

सुकारो कहां मानने वाला। बालेबाल किसन ल डाक्टर बलाय बर भेज दिस।

गांव के झोला छाप डाक्टर। हफ्ता दिन ले रोज दुनों जुवार सूजी गोभिस। गोली-टानिक दिस। संपत अउ मुसवा के फूंका-झारा घला चलिस। तब ले नंदगहिन बने नइ होइस। दुनों बेटी-दमाद मन सेवा जतन करे बर सकलाय रहंय। बीमारी बाढ़ते गिस। वहू मन ल चिंता धर लिस। माई पिला सलाह होइन अउ वोला नांदगांव लेग के भरती कर दिन। डाक्टर मन दू दिन ले खून, पिसाब के अउ नाना परकार ले जांच करिन। तिसरइया दिन सिस्टर मन बताइन - ''येकर मलेरिया ह मस्तक म चढ़ गे हे। पीलिया अउ मोतीझीरा घला हो गे हे। तुरते खून चढ़ाय बर परही। भगवाने के सहारा हे।''

भगवान घर के बुलउवा नइ आय रिहिस। रुर-घूर के नंदगहिन ह बांच गे। अब तो टंच घला हो गे हे। सबर दिन के चुलबुलही मनखे, घर म पांव नइ मांड़य, विही रेवाटेवा फेर सुरू हो गे।

एक दिन बड़े बेटी-दमाद मन देखे बर आइन। किहिन - ''दाई, अब तोर गत्तर खंगत आ गे हे। चल हमर संग। संग म रहिबे। इहां घर के सिवा अउ का रखे हे?''

नंदगहिन - ''तुंहला खाली घर भर नजर आथे मोर बेटी-बेटा हो। बने कहिथव। घर म का रखे हे। आज हे, काली नइ रहही। फेर ये गांव म मोर सुख-दुख के बंटइया मोर संगी जहुंरिया हें। सबर दिन के संगवारी खेत-खार, नंदिया-तरिया, रुख-राई, धरसा-पैडगरी हें। मोर खरतरिहा के आत्मा हे। पुरखा मन के नाव-निसानी हे। इही अंगना म मोर डोला उतरिस। अब इहिंचेच ले मोर अरथी घला उठही। बेटी-बेटा हो, अपन घर, अपन देहरी, अपन गांव, अपन देस, अपनेच होथे ग। कइसे ये सब ल छोड़ के तुंहर संग चल देहूं? अउ फेर सुकारो बहिनी के राहत ले इहां मंय अकेला नइ हंव। तुहंर अतकेच मया मोर बर गजब हे।''

बेटी कहिथे - ''दाई, तंय बने कहिथस। फेर एक बात अउ हे। तंय बीमार रेहेस। बांचे के आसा नइ रिहिस। मंय कबीर साहेब ल बदना बद परे रेहेंव कि हे साहेब, मोर दाई ल एक घांव बचा दे, तुंहर चौंका आरती कराहूं। साहेब ह मोर बिनती ल सुन लिस। अब वचन पूरा करे परही।''

नंदगहिन - ''तुंहर सेवा अउ साहेब के किरपा से मंय नवा जनम धरे हंव बेटी। जउन बदना बदे हव, वोला पूरा करे म देरी झन करव। केहे गे हे कि काल करे सो आज कर।''

ये तरहा ले अवइया मंगलवार, कार्तिक चौदस पुन्नी के दिन चौका आरती तय हो गे। नंदगहिन घर आज विही उछाह होवत हे।

दस बजत ले अपन फौज फाटा संग महंत साहेब ह घला आ गे। साहेब ल सुंदर अकन आसन म पधार के नंदगहिन ह जम्मों परिवार सहित साहेब के चरण पखारिस। चरणामृत पान करिन। आरती उतारिन।

कहत लगे महंत रामा साहेब। बड़ ज्ञानी। बीजक के एक-एक अक्षर के बिखद अरथ करइया। परसिघ्द परबचनकार। फेर गजब के नेम धरम के मनइया। नल अउ बोरिंग के पानी ल छुए नहीं। कुंआ के पानी पीथे फेर पलास्टिक डोरी बाल्टी नइ चलय। ये सब दमाद मन ल पता रिहिस। विही ढंग ले बेवस्था करे रिहिन।

देवान साहेब ह तइयारी म लग गे। बड़े दमाद ह सब समान ल झोला सहित लेग के मढ़ा दिस। पान, सुपारी, नरिहर, खारिक, बदाम, घी, तेल, आटा; जतिक लिख के देय रहय वतका सब। तब ले कतरो समान खंगेच रहय। थाली, लोटा,, कोपरा.........। एक झन आदमी समानेच डोहारे म लगे रहय।

अइसने एक घांव तेल के बलावा हो गे। नंदगहिन ह संउहत एक ठन सुंदर अकन चौकोर सीसी भर तेल लेग के मढ़ा दिस। लहुटत रहय तइसने महंत साहेब के बात ल सुन के ठिठक गे। महंत साहेब ह कहिथे - ''काला लाय हस माई?''

- ''तेल ताय साहेब।''

- ''कामा लाय हस?''

- ''सीसी म तो लाय हंव साहेब।''

- ''का के सीसी आय?''

- ''रस्ता म परे रिहिस हे साहेब। बने दिखिस त ले आयेंव। चार साल हो गे। मंय अपढ़, का जानंव, का के आय।''

- ''तंय सिरिफ अपढ़ नइ हस, मूरख अउ अज्ञानी घला हस। अपन धरम के तो नास करीच डरेस। अब गुरू के धरम के नास करे बर सोंचत हस। दारू के सीसी म तेल देथस।''

नंदगहिन सन्न खाय रहिगे। हे भगवान, ये का अपराध कर परेंव। हिम्मत कर के किहिस - ''बने कहिथव साहेब। हम मूरख अज्ञानी। दारू मंद के मरम ल का जानबोन। जानतेन त अइसन अपराध काबर करतेन। आप मन गुरू हव, ज्ञानी धियानी हव, तउन पाय के जानथव।''

महंत साहेब भड़क गे। रोसिया के कहिथे - ''एक तो पाप करथस, ऊपर ले गुरू के अपमान करथस।''

- ''दारू ह नसा करथे कहिथें साहेब। चार साल हो गे, ये सीसी के तेल ल खावत, गोड़ हाथ म चुपरत। हमला तो आज ले नसा नइ होइस। तुंहला तो देखेच म नसा हो गे तइसे लागथे।''

नंदगहिन के जवाब ल सुन के महंत साहेब गुस्सा के मारे अरे तरे हो गे। कुछू कहत नइ बनिस। रटपटा के उठ गे।

नंदगहिन कांप गे। सोंचिस, 'हे भगवान, कोन जनम म पाप करेंव, भरे जवानी म जुग-जोड़ी ल खोयेंव। जिंदगी भर दुख भेागत हंव। गुरू ल नराज कर के अपन परलोक ल घला बिगाड़ डरेंव।' वोला अपन चारों कोती अंधियारेच अंधियार दिखिस। दुनों आंखी ले तरतर-तरतर आंसू बोहाय लगिस। गुरू के चरन म डंडा सरन हो गे। रोवत रोवत कहिथे - ''हे गुरू, मंय जनम भर के पापिन, तुंहर अपमान करके अउ पाप म बूड़ गेंव। मोर तो चारों खूंट अंधियारेच अंधियार हे। पाप ल छिमा करो साहेब।''

महंत साहेब के गुस्सा हिरन हो गे। सांत भाव ले अपन आसन म बइठ गे। थोरिक देर सोंचिस। वोकरो आंखी भर गे। किहिस - ''माई उठ, तंय पापिन नइ हस। पाप तो हमर दिल म भरे हे; अंधियार म तो हम डूबे हन। कबीर साहेब ह केहे हे - 'अहंकार अभिमान विडारा, घट का चौंका कर उजियारा।' तोर घट अउ तोर घर के चौंका तो उजियारा से भरे हुए हे माई। अंधियारा मोर घट म रिहिस हे, जउन ल आज तंय दूर कर देस। तोर देहरी म आ के आज मोर सब पाप धोवा गे। आज मंय तोर गुरू नो हंव, तंय मोर गुरू बन गेस। ''

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7 : चढौत्तरी के रहस

अभी हमर गांव म भागवत कथा होइस। मोर जानती म इहां अइसन जग पहिली अउ नइ होय रिहिस।

डोकरा सियान मन कहिथें कि पैतिस चालिस साल पहिली झाड़ू गंउटिया के डोकरा बबा मरिस त अंतू गंउटिया ह ए गांव म वोकर बरसी बर भागवत जग रचाय रिहिस। अतराब म वोकर किस्सा आज ले परसिध्द हे। डेरहा बबा ह घला बताथे। बताथे त अइसे लगथे कि वो ह विही जुग म वापिस चल दे हे। एक-एक ठन सीन के बरनन करथे। बताथे कि गंउटिया के बरसी ह ठंउका बैसाख के महीना म सपड़े रहय। लकलक ले तीपे जमीन। लूक असन झांझ चले। वो समय म कहां के सामियाना अउ कहां के चंदेवा। का बेवस्था करे जाय कि देखइया सुनइया मन ल तकलीफ मत होवय। गजब सोंच बिचार करिन। आमा बगीचा ऊपर सबके रजामंदी हो गे।

गांव ले धाप भर दुरिहा म सुंदर अकन सिवनाथ नदिया बोहावत हे। गरमी म धार सुखा जाथे फेर जगा-जगा अथाह गहिरी दहरा मन म सुंदर काजर सरीख निरमल जल भरे रहिथे। लाखों जीव, चिरइ-चिरगुन, बेंदरा-भालू कहस कि मनखे कहस, इही दहरा मन म अपन प्यास बुझाथें। नदिया के दुनों बाजू कइ एकड़ के कछार हे। इही कछार म हे बगीचा। जिंहा तक नजर दंउड़ा ले, आमा, जाम अउ चिरइजाम के बड़े-बड़े रुख के सिवा अउ कुछू नइ दिखय। कतरो झांझ चलत रहय, बीच बगीचा म सुदर ठंडा-ठंडा हवा चलय। अब के ए. सी. कूलर सब फेल रहय। इही बगीचा म ब्यास गद्दी लगाय गिस।

बगीचा के चारों मुड़ा आधा दर्जन गांव हे। सबे गांव के दाई-मांई लोग-लइका, सब के सब कथा सुने बर उमड़ परंय। घरो घर कोरी-कोरी सगा सकलाय रहंय। साधू-सन्यासी मन के अखाड़ा अलगेच रहय। नौ दिन ले मेला मड़इ कस गजब रेल पेल होय रहय।

अंतू गंउटिया घला अपन ददा के आत्मा के सांति खातिर कुछू कोर कसर नइ छोड़िस। मन भर के खरचा करिस। ंजउन जइसने सलाह दिन, वइसनेच करिस। कांसी ले बड़ परसिध्द पंडित बलाइस। नांदगांव ले बैटरी वाले पोंगा रेडियो मंगा के पेंड़ मन म बंधवा दिस। रात बर दसों ठन गेस बत्ती के बेवस्था कर दिस। भंडारा खेालवा दिस। पहट म चरबज्जी चुल्हा जल जातिस अउ सरलग सोवा के परत ले जलत रहितिस। विंहिचे खाना विहिंचे रहना।

लोग बाग दिन भर कथा सुनतिन अउ रात म नींद के परत ले पंडित महराज के ज्ञान के अउ अंतू गंउटिया के जजमानी के गुन गातिन। कहितिन - ''अंतू गंउटिया के सात पुरखा तर गे भइया ,संग म हमू मन अउ ये बगीचा के हजारों बेंदरा-भालू , चिरइ-चिरगुन मन घला तर गें।''

डेरहा बबा ह बताथे कि वो जग्य के चढौतरी म चार कोल्लर धान, दू कोपरा रूपिया-पइसा अउ पांच-छः ठन धनाय बछिया चढ़े रिहिस हे। पंडित महराज खुस हो के अंतू गाउटिया ल मन भर आसीस दे के अपन देस गिस।

एसो इही अंतू गंउटिया के एकलउता बेटा झाड़ू गंउटिया ह वइसनेच भागवत जग्य रचा के वो दिन के सुरता करा दिस। एकरो किस्सा कम नइ हे।

साल भर पहिली अंतू गंउटिया ह गुजर गे। ए साल वोकर बरसी हे। चालीस साल ह कम नइ होवय। जमाना बदल गे, दुनिया बदल गे। झाड़ू गंउटिया गांव म कम अउ सहर म जादा रहिथे। भारी नेता आय। एक गोड रायपुर म त दुसरइया दिल्ली म रहिथे। बेटी-बेटा, नाती-पंथी सब सहर म रहिथें। कोनो डाक्टर हे त कोनो साहब हे। तिहार बार म कुल-देवी देवता के दरसन खातिर घंटा दू घंटा बर इहां आ जाथे। गांव म दिन बिताना उंखर बर सजा ले कम नइ होय।

गंउटिया बगीचा, जिंहा चालीस बछर पहिली अंतू गंउटिया ह भागवत जग रचाय रिहिस, अब ईंटा भट्ठा बन गे हे। रूख राई के नामोनिसान नइ हे। दसों ठन चिमनी ले दिन-रात करिया-करिया धुंगिया निकलत रहिथे। भांय-भांय रात-दिन टरक अउ टेकटर दंउड़त रहिथे। धरसा के धुर्रा उड़ गे हे। बांचे खुंचे रुख-राई मन धुर्रा अउ धुंगिया के मारे मरो-मरो हो गे हे। बगीचा के बेंदरा मन अब गांव म आ के रहिद मचाथें। छानी-परवा के धुर्रा बिगाड़थें।

मनहर महराज ह गांव अउ गंउटिया के खानदानी पुरोहित आय। एकर ददा माधो महराज के गजब मान सनमान रिहिस हे। अंतू गंउटिया के जमाना म कांसी वाले पंडित के, गंउटिया बगीचा वाले भागवत जग के पुरोहिती इहिच महराज ह करे रिहिस। जावत-जावत कांसी वाले पंडित ह वोला अपन चेला बना के गजब आसीरबाद देय रिहिस। बरन बने रिहिस तेकर सेती चढ़ौतरी के गजब अकन समान, रूपिया-पइसा घला देय रिहिस। वोकर मरे ले अब मनहर महराज ह पुरोहिती करथे। मनहर महराज ल ये बात के थोर-थोर सुरता आजो ले हे। अब, जब अंतू गंउटिया के बरसी होवइया हे, तब वोकरो मोक्ष खातिर वइसनेच जग रचाना एकर जिम्मेदारी बनथे। अइसने काम करे म तो नाम चलथे।

छः सात महीना पहिलिच ले मनहर महराज ह झाड़ू गंउटिया ल समझात आवत हे - ''गंउटिया ,आप मन के पिताजी ह बड़ धरमी चोला रिहिस हे। पूजा-पाठ अउ दान-धरम बर कोई कमी नइ करय। अपन पुरखा मन ल तारे बर कतका बड़ जग रचाय रिहिस हे। एक ठन कहानी बन गे हे। गांव-गांव म आज घला लोगन ये कहानी ल कहिथें अउ नाम लेथें। वइसने पुण्य कमाय के, नाम कमाय के अब आपके बारी हे। दिन लकठावत जात हे।''

झाड़ू गंउटिया ह चिटको ध्यान नइ देवय। हां हूं कहिके टरका देवय। वो ह जब जब गांव आतिस, मनहर महराज आ जातिस। धरम करम के मरम ल घंटा भर ले समझातिस। मन म वोकरो स्वारथ रहय। हजार दू हजार मिल जातिस ते छानी परवा के सुधार हो जातिस।

झाड़ू गंउटिया ठहरिस पक्का नेता आदमी। नेतागिरी ले टैम मिले तब। बिना फायदा दिखे न तो कोनो काम करय न एक पइसा खरचा करय। नेतागिरी म नाम भी होना चाही अउ खजाना म बढ़ोत्तरी भी होना चाही। लोग लइका मन ऊपर तो आधुनिकता के रंग चढ़े हे। धरम-करम के काम ल वो मन एकदम फालतू समझथें।

फेर विही समय चुनाव होवइया रहय। झाड़ू गंउटिया ह टिकिट के जुगाड़ म रहय। वोकर मन म झट एक ठन आइडिया आ गे। सोंचिस - ''बरसी के महीना भर बाद चुनाव होने वाला हे। जनता ल अपन पक्ष म करे के अच्छा मौका हाथ लगे हे। जतका धूम धड़ाका ले भागवत होही, वोतका दुरिहा ले नाम होही। पार्टी वाले मन घला मोर लोकप्रियता ल देख लेहीं। फेर तो टिकिट पक्का हो जाही। जीत गेंव ते छोट-मोट मंत्री तो बनिच जाहूं।'' मन म लड्डू फूटे लगिस।

बेटा-नाती मन ल ये बात ल समझाइस। सब झन बाप के दूरंदेसी अउ सूझबूझ के गजब तारीफ करिन। किहिन - ''वाह डैडी वाह! आप तो सचमुच जीनियस हैं। एक तीर से क्या दो निशाना साधे हैं। राजनीति तो कोई आप से सीखे।''

बरसी ह महीना भर बचे रहय। झट मनहर महराज मेर खबर भेजे गिस कि भागवत यज्ञ के तइयारी सुरू कर दे जाय।

तुरते गांव के पंच-सरपंच, नवयुवक पारटी, महिला सहायता समूह, भजनहा-सेवक पारटी सब मन के बैठक बला के सलाह-मसवरा करे गिस। गजब जोर-सोर से तइयारी सुरू हो गे। कथा बाचे बर बिन्दाबन के एक झन परसिध्द पंडित ल न्योते गिस। गाड़ा भर चिट्ठी अउ निमंत्रण कारड छपवा के दस-दस कोस दुरिहा तक बंटवाय गिस। छोटे-बड़े सबो अखबार मन म रोज बड़े-बड़े विज्ञापन छपे के सुरू हो गे जउन उरकत ले छपिस। विज्ञापन म पारटी के बड़े-बड़े नेता मन के संग गंउटिया के, दुनो हांथ जोरे बड़ मनमोहक फोटू छपय।

गंउटिया के पांच एकड़ के बियारा ल बराबर छोल के, लीप पोत के गजब अकन सामियाना लगाय गिस। गांव भर, चौक चौक अउ ओनहा कोनहा म पोंगा रेडिया बांधे गिस। तोरन-पताका अउ बिजली के झालर से गांव भर ल सजाय गिस। गांव ह गोकुल धाम कस लगे लगिस। सुनइया भगत मन बर रात-दिन के भंडारा खोले गिस।

बियारा से लगे हुए बड़े जबर बांड़ा म पारटी कार्यालय घला खोले गिस। पारटी के कोई न कोई नेता, मंत्री, अपन अपन चेला चपाटी मन संग रोजे आवंय। कार अउ मोटर के रेला लगे रहय। बिहाने-संझा कथा परबचन होतिस अउ मंझनिया नेता मन के भासन।

कथा सुने बर रोज हजारों अदमी जोरियाय लगिन। भीड़ अउ भीड़ के भक्ति भाव ल देख के पंडित गजब खुस रहय। मने मन सोंचे, 'साल भर की कमाई एक ही बार में हो जाएगी।'

मनहर महराज ह घला बड़ खुस रहय, बरन बने रहय। सोंचय, 'लाख रुपिया के चढ़ौतरी म आठ-दस हजार तो मिलनच मिलना हे।'

रोज रात म पंडित महराज तीर सतसंगी मन के भीड़ लग जाय। सतसंगी मन भक्ति, ज्ञान, अध्यात्म अउ भिन्न-भिन्न कथा प्रसंग मन के बिसकुटक, रहस्य मन के बात ल पंडित महराज ल पूछंय। पंडित जी घला रस ले-ले के, कई ठन उदाहरण दे-दे के सतसंगी मन के, मन के संका के समाधान करय।

गंउटिया के समधी घला भागवत सुने बर आय रहय। वहू ह रोज सतसंग करय। सतसंग के बात ल बड़ ध्यान से सुनय, फेर एको दिन कुछुच प्रस्न नइ पूछय। पंडित जी ल अचरज होवय। रहि नइ गिस त एक दिन पूछ बइठिस - ''भगत जी, आप तो रोज ही सतसंग में आते हैं, पर पूछते कुछ भी नहीं।''

घाट-घाट के पानी पियइया, देस दुनिया के समझ रखइया, घुटे हुए समधी। कहिथे - ''कुछू संका होही ते जरूर पछूबोन देवता। अभी तो आप मन दू चार दिन रहिहौच।''

अबड़ आनंद मंगल म छ दिन गुजर गे। सातवां दिन ले पंडित जी ह श्रोता मन ल नोखियाय लगिस - ''प्रिय भक्तों, अब तक आपने अमृत रूपी श्रीमद्भागवत कथा का पान किया है। कल भगवान के श्री चरणों में श्रध्दा सुमन अर्पित कर पुण्य कमाने का दिन है,। ऐसा अवसर जीवन में बार-बार नहीं आता, याद रखियेगा।''

चढ़ौतरी के दिन घला आ गे।

चढ़ौतरी ल देख के पंडित जी के मन खिन्न हो गे। कहां तो लाख रूपिया के आसा रिहिस हे अउ कहां लटपट चालीस-बयालिस हजार जुड़िस। ऊपर ले हिस्सा मांगे बर मनहर महराज धमक गे। गजब देर ले मोल-भाव होइस। सौदा नइ पटिस। मनहर महराज ह जोम दे के बइठ गे, किहिस - ''पांच हजार ले एक पइसा कम नइ हो सकय। चरबज्जी उठ-उठ के पुरान के बाचन करे हंव। जोत के रात-दिन रखवारी करे हंव।''

दुनों महराज मन गजब बातिक बाता होइन। बोजिकबोजा होय के नौबत आ गे। एन मौका म आ के झाड़ू गंउटिया ह बात ल संभाल लिस।

झगड़ा होवत देख के बांकी सतसंगी मन सरक गिन। समधी कहां जातिस? मौका के ताक म रहय। अच्छा मौका मिल गे। पंडित जी ह तरवा धर के बइठे रहय। समधी ह कथे - ''पंडित देवता, अभिच मोर मन म एक ठन संका पैेदा होइस हे। आडर देतेव ते पूछतेंव।''

पंडित जी ह बनावटी हंसी हंस के कहिथे - ''पूछो भइ, ऐसा मौका रोज थोड़े ही आता है।''

समधी - ''महराज! काली आप मन परबचन म कहत रेहेव, 'भगवान को दीनबंधु कहते हैं क्योकि वह गरीबों से प्रेम करता है। गरीब ही भगवान के सबसे निकट होता है। धन संपत्ति तो ईश्वर के मार्ग की बाधाएं हैं।' फेर आज आप मन विही धन बर काबर अतिक दुखी हव?''

सुन के महराज अकबका गे। कहिथे - ''हम तो आपको भक्त और ज्ञानी समझ रहे थे, पर तुम तो मूरख निकले। कहीं ऐसा भी प्रश्न पूछते हैं।''

समधी ह हाथ जोड़ के कहिस - ''गलती हो गे महराज, छिमा करव। एक ठन प्रश्न अउ पूछत हंव, नराज झन होहू। आपे मन केहेव कि सबले पहिली राजा परीक्षित ह श्रीमद्भागवत जग्य कराइस। सुकदेव मुनि ह ब्यास गद्दी म बइठ के कथा सुनाइस। राजा परीक्षित के मोक्ष होइस। अतकी बतातेव महराज, राजा परीक्षित ह ओमा कतका धन, कतका रूपिया-पइसा चढ़ाय रिहिस। सुकदेव मुनि ह कतका धन दौलत अपन घर लेगे रिहिस? का वहू ह पइसा के बटवारा बर अइसने झगरा होय रिहिस ?''

सुनके पंडित जी ह बमक गे। कहिथे - ''मूरख! पंडित का अपमान करते हो। घोर नरक में जाओगे। पापी, हट जा मेरे सामने से।''

समधी कथे - ''मोर संका के समाधान हो गे महराज। चढौतरी के रहस ल घला जान गेंव।''

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8 : सरपंच कका

सांझ के बेरा रिहिस। बरदी आवत रहय। गरमी के दिन म संझा बेरा तरिया के पार ह बड़ सुहावन लगथे। किसुन अउ जगत, दुनों मितान टुरा घठौंदा के पथरा मन म बइठ के गपसप करत रहंय। थोरिक पाछू लखन, ओमप्रकाश, फकीर अउ चंदू घला आ गें। बैठक जम गे। नवयुवक दल के अइसनेच रोज बैठक होथे। गपसप के बहाना तरह तरह के चर्चा होवत रहिथे। सहर के टाकीज मन म कोन कोन नवा फिलिम लगिस। गांव म काकर घर का होंवत हे। कोन कोन टुरा-टुरी के बिहाव माड़ गे, काकर काकर माड़ने वाला हे। परीक्षा म कोन पास होइस, कोन फेल। कोन ह नौकरी के दरखास्त देवत हे, काकर इंटरव्यू होने वाला हे। काकर घर भाई-भाई के झगरा माते हे अउ बटवारा होने वाला हे, आदि, आदि...।

गांव के जवान मन के घला विचित्र हाल हे। पढ़ लिख के सब निठल्ला हो गे हें। खेती कोई करना नहीं चाहे। हजार बारा सौ के पीछू सब सहर कोती भागथें। सेठ मन के अरे तरे भले सुन लेहीं फेर दाइ-ददा के बरजना ल नइ सुनंय।

बात के छोर बदलत किसुन ह कहिथे - ''भइया, मंय सुने हंव कि रघ्घू ह आय हे।''

चंदू ह घला समर्थन कर दिस - ''हव, मंय वोला बिहने खेत डहर जावत देखे रेहे्रंव।''

रघ्घू के अवइ ल सुन के जगत गदगद हो गे। खुसी के झक म पूछथे - ''चंदू, कब? आजे देखे हस न?''

चंदू - ''हव भइया आजे के बात आय।''

जगत के मन उचट गे। कहिथे - ''तब चलव भाई हो, मिले बर।''

सब के सब उठ के रेंगे लगिन।

रघ्घू अउ जगत बचपन के संगवारी आवंय। संगे खेलिन-कूदिन, पढ़िन-लिखिन। बारहवीं के बाद जगत ह नइ पढ़ सकिस। रघ्घू ह कालेज पढ़े बर रायपुर चल दिस। संग ह छूट गे। महीना दू महीना म रघ्घू ह गांव आथे। तब तक जगत ह रद्दा देखत रहिथे।

स्कूल तीर पहुंचिन। देखथें कि स्कूल के आगू म लइका मन रघ्घू ल घेर के खड़े हें। दुनों मितान एक दूसर ल दूरिहच ले देख डरिन। दंउड़ के लिपट गें।

इही स्कूल म सब संगवारी मन पढ़े रहंय। सांझ के अंधियारी म घला रघ्घू के धियान ह स्कूल के दुर्दसा कोती रहय। दीवाल ह जगा जगा ले चटक गे रहय। बेंदरा कुदइ के मारे छानी के सती गती हो गे रहय। छेल्ला गरवा के गोबर-मूत के कारण परछी ह गरवा कोठा सरीख दिखत रहय। दू चार दिन के बाद स्कूल खुलने वाला रहय।

जगत ह मितान के मन के बात ल ताड़ गे, फेर का कहय।

रघ्धू - ''भाई हो आज कल म स्कूल ह खुलने वाला हे, गांव के सियान मन ल स्कूल के ये हालत ह नइ दिखय का?''

फकीर ठहरिस जनम के टेचरहा। कहिथे - ''दिखथे, फेर केवल पइसा ह।''

रघ्धू ल उदास देख के लखन ह गप्प सप के बात निकाल दिस।

सबे झन रघ्धू घर कोती जाय लगिन। गली म घुप्प अंधियार हो गे रहय। रघ्धू ह एक ठन पथरा म हपट गे। गिरत गिरत बचिस। बदबू के मारे नाक नइ दे जात रहय। रघ्घू ह काली घला इही बेरा बस ले उतर के घर जावत समय लकड़ी के गोला म झपाय रिहिस।

आज बिहिनिया के बात आय। रघ्धू ह नहाय बर तरिया जाय के तइयारी करत रहय। बाबू जी ह कहिथे - ''घरे म नहा ले। तरिया म लद्दी के सिवा कुछू नइ हे।''

बोरिंग मन घला बिगड़े परे रहय। इही सब बात मन आज दिन भर रघ्धू के दिमाग म घूमत रहय।

दुनों मितान संगे जेवन करिन अउ तरिया पार कोती फेर निकल गें। घठौंदा म फेर सब संगवारी जुरिया गें।

रघ्घू ह संगवारी मन ल कहिथे - ''भाई हो, आज सब जगा विकास के बात होवत हे। सरकार ह गांव के विकास खातिर भरपूर मदद करत हे। सब गांव म विकास होवत घला हे, फेर हमर गांव ह उल्टा दिसा म जावत हे।''

जगत - ''एक अकेला मंय का कर सकहूं भइया। कुछू कहि देबे, ते मुंह दोखनहा बन जाबे। तरिया बर डेढ़ लाख रूपिया आय रिहिस। पचास टेक्टर लद्दी घला नइ निकलिस होही, पइसा ह पच गे। गांव समिति के पइसा कहां जाथे, कोई ल गम नइ मिलय।''

रघ्घू - ''भाई हो, अत्याचार ल सहना घला अत्याचार करे के बराबर होथे। एक झन के बोले म कुछू नइ होवय। हम सब झन ल मिल के आवाज उठाय बर पड़ही।''

घंटा भर ले मिटिंग चलिस। रघ्घू के बात सुन सुन के सब जोसिया गें। का करना हे, कइसे करना हे, सब तय हो गे। तय होइस कि सबले पहिली गांव भर के सियान मन ल बैठक म बला के गांव के समस्या मन ल सुलझाय के सलाह मांगे जाय।

बिहिनिया बात ह गांव भर म फैल गे। सब के मुंह म एकेच बात। मुसवा राम ह कहत रहय - ''सुनेस जी मरहा राम, काली के डिंगहा टुरा मन आज बैठक सकेल के सरपंच से हिसाब मांगहीं। हें हें ...।''

सबर दिन के घुचपुचहा अउ डरपोक मरहा राम। वहू ह दांत ल निपोर दिस।

वोती ले संपत आ गे। कहिथे - ''बड़े बड़े आदमी मन जेकर कुछ बिगाड़ नइ सकिन, वो सरपंच के ये मन का उखाड़ लेहीं रे मुसवा। साले मन ल जूंता पड़ही, तहां ले सब सोझिया जाहीं।''

सांझ होइस। हांका पड़ गे। कोटवार ह घूम घूम के हांका पारत रहय।

सरपंच के बाड़ा म आज वोकर जम्मों चेला चपाटी मन सकलाय रहंय। संपत, मुसवा, धुरवा, नानुक.....। सरपंच आरामी कुरसी म अनमनहा कस बइठे रहय। गंजेड़ी मन गांजा के धुंगिया उड़ात रहंय त मंदहा मन चेपटी ढरकात रहंय। कोटवार ह बांड़ा तीर आइस। सरपंच ह वोला बला के कहिथे - ''का हांका पारथस रे कोतवार?''

- ''बैठका के मालिक।''

- ''का बात के बैठका होवत हे?''

- ''पता नहीं।''

- ''कोन आडर दिस?''

- ''नवयुवक दल वाले मन।''

- ''ये कब ले पैदा हो गे रे। बने हे। जा हांका पार। टिटर्री के थामे ले अगास नइ थमे।''

एके हांका म गांव खलक उजर गे। पंचायत घर के आगू म चमचमउवा बैठक बइठ गे।

मुसवा ह कहिथे - ''कइसे कलेचुप बइठे हो जी। बैठक बलइया कोन हरे, काबर नइ गोठियाय?''

कोनो अउ कुछ कहय वोकर पहिली रघ्घू ह कहिथे - ''सबो सियान मन ल प्रणाम। आज के बैठक ल हम सब नवयुवक संगवारी मन बुलाय हन।''

संपत - ''का पहाड़ टूट गे हे तुंहर ऊपर कि सियान मन के बिना सलाह के बैठक बला डारेव।''

जगत - ''पहाड़ेच टूटे हे, फेर ककरो एक झन के ऊपर नहीं, सबके ऊपर। समस्या व्यक्तिगत नो हे, सार्वजनिक आय, गांव भर के आय।''

संपत - ''गांव म काली तक तो कुछू समस्या नइ रिहिस, आजे कहां ले आ गे?''

मुसवा - ''अरे भइ, बतावन तो दे एकात ठन ल।''

नानुक - ''अरे कुछू समस्या नइ हे जी। समस्या के नाम म ये मन गांव म फूट पैदा करना चाहत हें।''

जगत - ''फूट के बात तंय झन कर कका। पहिली स्कूल ल जा के देख, वोकर का हाल हो गे हे। चार-छै दिन बाद स्कूल खुलने वाला हे। वो ह गांव के समस्या नो हे का? उहां ककरो एक झन के लइका नइ पढ़य, गांव भर के लइका पढ़थे।''

फकीर ह मौका देखत रहय। कहिथे - ''जेकर आंखी म पट्टी बंधाय हे, वो अउ सुने। गांव के दाई बहिनी मन एक लोटा पानी खातिर रात भर पहरा देथें। आधा बोरिंग मन बिगड़े पड़े हें। गली लाइट बंद होय छै महीना हो गे हे। होइस कि अउ गिनांव।''

संपत अउ मुसवा के बोलती बंद हो गे।

गावं के सबो आदमी जानत रहंय कि नवयुवक दल वाले मन के कहना वाजिब हे। फेर कोनों ऊंखर पाट दाबे बर खड़े नइ होइन।

सरपंच अउ वोकर मुंहलग्गू मन से कोन दुस्मनी मोल लेय।

रघ्घू - ''आप सब जानथव कि हमर गांव के अतका आमदनी जरूर हे, जेकर से ये सब समस्या ल हल करे जा सकत हे।''

सरपंच ठहरिस पक्का घाघ आदमी। राजनीतिक परपंच म वोकर संग कोन सकय। वो तो हर बात के तोड़ धर के, पूरा सोंच-विचार के आय रहय। जगा खोजत रहय। जगा मिल गे। कहिथे - ''भाई हो ! दसों साल हो गे मोला सरपंची करत। ककरो अहित करे होहूं ते बतावव। रहि गे बात समस्या के, जेकर कोनो अंत नइ हे। घर के कहस कि गांव के। एक ठन समस्या ल सुलझाबे, दूसर आ के खड़ा हो जाथे। हमर लइका मन जउन समस्या के बात करत हें, वो वाजिब हे। वोकरो निदान होही। फेर ये तो एक ठन अटघा आय। अभी रघ्घू किहिस, विही असली बात आय। गांव के समस्या के आड़ म ये मन मोर से हिसाब मांगना चाहत हें। आप मन विसवास करके मोला सरपंच बनायेव, महूं विसवासघात नइ करंव। आप मन ल एक-एक ठन चीज के हिसाब देहूं। फेर हिसाब मांगे के भी तरीका होना चाही। बीच सभा म अइसन अपमानित हो के कोन ल अच्छा लगही? विसवास अउ इज्जत सबले बड़े चीज होथे। हमर तो दुनों लुट गे। हिसाब भी मिल जाही अउ इस्तीफा भी। दू दिन के समय मांगत हंव।''

सरपंच के गांजा पारटी अउ मंद पारटी वाले मन इही मौका के ताक म रिहिन। मुसवा रोसियागे - ''ये मन हमर गांव के सियान आवंय कि इंकर दाई-ददा मन अपन घर के सियानी ल इही मन ल सौंप देय हे? जउन सियान होही , विही मन ल हिसाब मांगे के अधिकार हे। अइसन हगरू-पदरू मन हिसाब मांगही तब सियान के का मरजाद रहि जाही? या फेर करंय इंहीं मन गांव के सियानी ल।''

नानुक घला चेपटी के असर देखाइस - ''जाओ रे बाबू हो, अपन दाई-ददा ले अपन घर के हिसाब मांग के आहू पहिली,।''

संपत ह अपन फैसला सुनाइस -''लइका मन के बात ल धर के रेंगहू, ते गांव दुफुटिया हो जाही। हिसाबेच लेना हे ते सियान मन के मुंहू म लाड़ू गोंजा गे हे का? इंकर तरफ अउ कोन कोन हेा? काबर नइ बोलव।''

अतका म गंजहा पारटी वाले मन हो हल्ला सुरू कर दिन। सब उठ उठ के जाय लगिन।

सरपंच ह गदगद हो गे। मने मन सोंचिस - ''मोर दारू अउ गांजा के कीमत आज वसूल हो गे।''

थेरिक देर म रघ्घू अउ वोकर संगवारिच मन बांच गे।

रघ्घू ह अपन संगवारी मन ल सकेल के कहिथे - ''भाई हो, जउन बात के आसंका रिहिस, विहिच होइस। फेर निरास नइ होना हे। हमन म सच्चाई होही ते हमर जीत हो के रही।''

सब झन काली के योजना बनाय म लग गें।

मुंधेरहच बोरिंग मन म ठकर-ठकर सुरू हो गे। पनिहारिन मन के मुंहूं म एकेच गोठ - ''अइ सुनथस या जेंवारा, बइसका म लइका मन बने बात ल उठाय रिहिन कहिथें। फेर ये गंजहा-मंदहा मन के रहत ले ककरो चलय तब?''

नंदगहिन कहिथे - ''पागा बंधइया मन सब चुरी पहिर के बइठे रिहिन होहीं। फेर हमन चुप नइ बइठन। हमर महिला समूह ह लइका मन के पाट जरूर दाबही।''

बेर उवत उवत अचंभा हो गे। नवयुवक दल वाले अउ जम्मों पढ़इया लइका मन बहरी, झंउंहा अउ रापा धर धर के स्कूल मैदान म सकलाय लगिन। पांच-पांच झन के दल बन गे। देखते देखत स्कूल के साफ-सफाई हो गे। फेर एक-एक ठन दल ह एक-एक ठन गली म बगर गें। तब महिला समूह वाले दीदी मन पीछू थोड़े रहितिन, लइका मन के पीछू वहू मन निकल गें। नौ बजत ले गांव चकाचक हो गे।

बारा बजत ले जगत अउ किसुन नांदगांव ले बोरिंग वाले सरकारी मिस्त्री मन ल धर के आ गें। सांझ होत ले आधा बिगड़हा बोरिंग मन बन के तइयार हो गे।

दूसर दिन बानर सेना फेर तइयार हो गे। स्कूल बर पांच-पांच ठन खपरा मांगे बर घरो घर घूमे लगिन। देखते देखत गाड़ी भर ले जादा खपरा सकला गे। अब तो सियान मन घला उमिंहा गें। जेखर जइसे बनिस, काड़-कोरइ, आरी-बसला धर के स्कूल म सकला गें। सांझ के होत ले स्कूल घला चकाचक हो गे।

नवयुवक दल के जय जयकार हो गे। कल तक जिंखर मुंह म ताला लगे रहय, अब वहू मन गोठियाय लगिन।

गंजहा-मंदहा पारटी वाले मन के मुंहू ओरम गे।

सरपंच ह दू दिन ले मुंह नइ देखाइस।

दू दिन बाद फेर बैठका सकला गे। आज तो गली लाइट मन घला जलत रहंय।

सरपंच ह बीच सभा म खड़े हो के कहिथे - ''भाई हो आज के बैठका ल मंय सकेले हंव। मोर समझ गलत रिहिस। अपन करनी ऊपर मोला पछतावा हे। मंय आप सब से, अउ, रघ्घू अउ वोकर संगवारी मन से झमा मांगत हंव।''

बैठक म छिन भर बर सन्नाटा छा गे।

संपत, मुसवा अउ नानुक कते जगा लुकाय रहंय, आरो नइ मिलिस।

रघ्घू ह किहिस - ''सरपंच कका, आप मन ल क्षमा नइ मिल सकय...।

चकित खा के सब कोई एक दूसर के मुंहूं देखे लगिन कि रघ्घू अब का बोलही।

रघ्घू ह फेर किहिस - ''आप मन ल क्षमा नइ मिल सकय। काबर कि हम तो आप ल कभू गलत बनाएच नइ हन।''

छिन भर फेर सन्नाटा छा गे। तभे जगत ह ताली बजा दिस। किसुन अउ फकीर ह घला ताल म ताल मिला दिस। फेर तो चारों खूंट ले तड़-तड़ तालिच ताली बजे लगिस।

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9 : गनेसी के टुरी

आज संझा बेरा पारा भर म शोर उड़ गे - ''गनेसी के टुरी ह मास्टरिन बनगे..............।''

परतिंगहा मन किहिन - ''काबर अइसने ठट्ठा करथो जी? ओली म पइसा धरे-धरे किंजरत हें, तिंखर लोग-लइका मन कुछू नइ बनिन; गनेसी के टुरी ह मास्टरिन बनगे? वाह भइ ! सुन लव इंखर मन के गोठ ल।''

हितु-पिरीतू मन किहिन - ''अब सुख के दिन आ गे ग गनेसी के। अड़बड़ दुख भोगत आवत हे बिचारी ह जनम भर।''

तिसरइया ह बात ल फांकिस - ''अरे, का सुख भोगही अभागिन ह? बेटी के जात, पर अंगना के शोभा ; के दिन संग म रहिही? काली-परोन दिन बिहा के चल दिही, तहां गनेसी के कोन हे? फेर का के सुख?''

बसंती के जउन संगी-सहेली अउ गांव वाले मन वोकर पढ़ाई के मजाक उड़ावंय, अउ जिंखर लइका मन के नौकरी नइ लग सकिस, उंखर मन के मुंह ओरम गे रहय। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे। कहत रहंय - ''मास्टरिनेच् तो बनिस हे, कलेक्टरिन तो नइ बनिस?''

जे ठन मुंह, ते ठन गोठ।

बात सोला आना सच आय। बसंती ह पढ़-लिख के आज मास्टरिन बन गिस। जउन प्रण करिस, वोला पूरा करके देखा दिस। मने-मन वो ह आज फेर प्रण करिस - 'अब मंय दाई ल कोनों तकलीफ नइ होवन दंव।'

बसंती ह आज गजब खुश हे।

दाई गनेसी ह घला गजब खुश हे। कब सोंचे रिहिस हे वो ह कि वोकर बेटी ह मास्टरिन बन जाही? बसंती ह बेटी आय, बेटा नोहे, अइसनो फांस वोकर हिरदे म गड़े रहय, वहू ह आज निकल गे।

गांव वाले मन, चाहे लइका होय कि सियान; बसंती ल कभू बसंती कहिके नइ बलाइन। जब किहिन, गनेसी के टुरिच् किहिन। सच तो कहिथें सब। बसंती ह गनेसिच् के टुरी आय। दाई कहस कि ददा कहस, गनेसी के सिवा वोकर अउ कोन हे? जनम धरे के पहिलिच् ददा ह बइमान हो गे। मुड़ी म राख चुपर के कहां भागिस ते गांव म लहुट के फेर नइ आइस। खार म खेत नहीं, गांव म घर नहीं; कहां जातिस, का करतिस बिचारी गनेसी ह? गोसंइया ह तो नोहर हो गे। फेर गजब हिम्मत गनेसी के। दू खोली के टुटहा-फुटहा घर; न खपरा के ठिकाना, न खरिपा के। इही घर म वोकर डोला उतरे हे, इहिंचेच् ले वोकर अर्थी उठही। भरे जवानी, गोसंइया के जीते-जी वो ह रांड़ी-रउठी कस हो गे। कतरो सगा आइन। संगी-सहेली मन घलो उभराइन, फेर कोनों जगह हाथ नइ लमाइस। बेटी के मुंह ल देख-देख के जिनगी ल खुवार कर दिस। दिन-रात रांय-रांय कमाइस, लांघन-भूखन रिहिस, पानी-पसिया पी-पी के दिन बिताइस, फेर बेटी ल पढ़ाय म कमी नइ करिस। अपन मरजाद ल कभू नइ छोड़िस। बसंती ह वोकर टुरी नइ होही त काकर होही? अब वोला सुख के दिन दिखे लगिस।

अंगना म हितु-पिरीतू मन सकलाय रहंय। बसंती ह वो मन ल चहा-पानी पियावत रहय। कोनो मन वोकर नौकरी के कागद ल टमड़-टमड़ के, उलट-पुलट के देखंय, त कोनों मन वोला तिखार-तिखार के पूछंय - ''कोन गांव के स्कूल म लगिस हे बेटी?''

कोनों पूछंय - ''तनखा कतिक मिलही नोनी? जाबे तिंहा आपन दाई ल घला लेग जाबे। गजब दुख सहि के तोला पढ़ाय-लिखाय हे बपुरी ह।''

जउन आवंय, मन भर के आसीस दे के जावंय।

का मन होइस ते दुशाला ओढ़ के ठकुराइन काकी ह घला गनेसी....गनेसी कहत आ गे। वोकर हाथ म मिठाई के डब्बा रहय। बसंती ह धरा-रपटा अंगना म खटिया ल जठाइस। ठकुराइन काकी ल बड़ सनमान सहित बइठारिस अउ वोकर पांव परिस। ठकुराइन ल अपन अंगना म बइठे देख के दुनों दाई-बेटी के आंखी डबउबा गे। ठकुराइन काकी घला बोटबिट ले हो गे। मिठाई के डब्बा ल बसंती ल देवत-देवत कहिथे - ''खुश रहा बेटी, खुश रहा। तंय आज अपन दाइच् के नाव ल उजागर नइ करे हस, ये गांव के नाव ल घला उजागर कर देस।''

ठकुराइन काकी ल देख के बसंती ल पांच-छः साल पहिली के एक ठन बात के सुरता आ गे। ठकुराइन काकी अउ गनेसी दाई ल घला विहिच् बात के सुरता आ गिस होही तइसे लगथे।

बिहिनिया के बेरा रिहिस। ठकुराइन काकी ह तिसरइया घांव मुहाटी ले निकल के गनेसी के घर कोती के गली ल देखिस। गनेसी के दउहा नइ रिहिस। रात के जूठा बरतन मन के नहानी तीर कुढ़ी गंजाय हे। घर के बाहरी-पोंछा नइ होय रहय। धोय के कपड़ा मन के खरही माड़ गे रहय। स्कूल के बेरा हो गे रहय, कइसनो करके लइका मन ल स्कूल भेजिस। बेरा चढ़ गे फेर गनेसी के अता-पता नइ चलिस। ठकुराइन काकी के एड़ी के रिस ह तरूवा म चढ़गे। गारी-बखाना शुरू कर दिस।

परोसिन, साहेबिन बाई ह ठकुराइन के गारी-बखाना ल सुन के परदा डहर ले झांकत कहिथे -'' अइ, का हो गे ठकुराइन? बिहिने-बिहिने कोन भगवान के नाव ल लेवत हस?''

''अब तहूं ह जरे म नून झन डार साहेबिन बाई। घर म सब छिंहीं-भिहीं परे हे। रोगही गनेसी ल आजेच् मरे बर रिहिस होही? अभी ले नइ आय हे, कहां मुड़ाय होही ते।'' ठकुराइन ल अपन मन के भड़ास निकाले के बहाना मिल गे।

साहेबिन बाई ह तो ठकुराइन काकी के कुलबुलाई ल देख के मने-मन कुलकत रहय। ऊपरछांवा रोनहू बानी बना के कहिथे - ''झन पूछ ठकुराइन बाई, तुंहर घर के होय कि हमर घर के, काम वाली बाई मन के इहिच रवइया। दू दिन जाय न चार दिन, नांगच्-नांगा। काम होय कि झन होय, महीना पूरे रहय कि झन पूरे रहय, पइसा बर जोम दे के बइठ जाहीं। फेर तोर गनेसी ह तो कभू नांगा नइ करय। का हो गे होही वोला आज?''

''मरे चाहे सरे, हमला तो काम से मतलब हे...'' कहत-कहत ठकुराइन ह गनेसी घर कोती चल दिस।

थोरकिच दुरिहा म गनेसी के घर रहय। मुहाटी म बसंती ह कापी-किताब खोल के बइठे रहय। उनिस न गुनिस, जाते भार ठकुराइन काकी ह शुरू हो गे -'' तोर दाई ल मरना आय हे अउ तंय गजब पढ़ंतिन बने बइठे हस। कहां गे हे रोगही ह ? बेरा ह वोला जनावत नइ होही?''

लइका जात। का बोलतिस बसंती ह? फेर मान-अपमान, समय-कुसमय ल सब समझथें। भीतर म दाई ह जर म हकरत रहय, एती पथरा कचारे कस ठकुराइन काकी के बात; रोना आ गे बसंती ल। कापी-किताब ल धर के रोवत-रोवत घर भीतर भागिस ।

ठकुराइन ह भांप गे, कुछू न कुछू बात जरूर हे। ठक ले खड़े रहि गे, बक नइ फूटिस।

भीतर ले हकरत-हकरत गनेसी ह किहिस - ''मरनच् तो नइ आय ठकुराइन। महूं सोचथों, मर जातेंव ते दुख-पीरा ले छुट्टी पा जातेंव; फेर कहां जा के मुड़ी ला खुसेरंव?''

ठकुराइन काकी ह कहिथे - ''रहन दे, जादा ढेंचरही झन मार। कतेक बीमार पड़े हस ते तंय सुते रह। तोर टुरी ह तो बने हे, नइ होय हे का काम-बूता करे के लाइक।''

गनेसी - ''बिहिने के पांव परत हंव ठकुराइन, जा बेटी जा; बरतन-भांड़ा ल तो घला मांज-धो के आ जा; फेर काबर मानही मोर बात ल? परीक्षा देय बर जाहूं कहिके बिहिनिया ले किताब म मुड़ी ल गड़ाय बइठे हे।''

ठकुराइन काकी - ''हां, अउ पढ़ा-लिखा। अरे, जादा पढ़ाय-लिखाय म अइसनेच होथे। अप्पत हो जाथें लइका मन। तेकरे सेती तोला घेरी-बेरी बरजथंव, जादा पढ़ा-लिखा के का करबे टुरी ल? कोन्हों मास्टरिन तो बनना नइ हे वोला। आठवीं पढ़ डारिस, नांव-गांव लिखे के पुरती हो गे। एसो पास होय कि फेल, भेज येला काम करे बर; नइ ते अपन हिसाब करा ले।''

बसंती ह रोवत-रोवत कहिथे - ''हव हम मास्टरिन बनबो। कुछू हो जाय, फेर हम पढ़े बर नइ छोड़न।''

''बहुत बात करे बर सीख गे हस, छोटे-बड़े के घला कोनों लिहाज नइ हे तोला? छोड़ ये किताब-कापी ल, चल मोर संग। निकता-गिनहा म दाई के अतको काम नइ करबे?'' कहत-कहत ठकुराइन ह वोकर कापी-किताब ल झटक के परछी म फेंक दिस अउ चेचकारत वोला अपन घर कोती लेग गे।

ठकुराइन के बात ह बसंती के कलेजा म बाण कस गड़ गे। मने-मन प्रण करिस - 'एक दिन मंय जरूर मास्टरिन बन के देखाहूं ठकुराइन काकी। आज तोर दिन हे, काली हमरो दिन आबे करही।'

बसंती ह आज अपन विही प्रण ल पूरा करके देखा दिस।

विही ठकुराइन काकी ह आज मिठाई के डब्बा धर के आय हे।

ठकुराइन काकी ह कहिथे -''कते बात के सुरता करके रोथस बेटी। भूल जा वो दिन के बात ल तंय; मोला माफी दे दे।''

बसंती - ''अइसन कहिके तंय मोला पाप के मोटरा झन बोहा ठकुराइन काकी। वो दिन के बात ल कहिथस, वोला कइसे भुला जाहूं? विही ह तो मोर गुरू-मंत्र आय। वो दिन वइसन बात नइ होतिस ते कोन जाने, मंय मास्टरिन बन सकतेंव कि नहीं।''

ठट्ठा मड़ाय म घला ठकुराइन काकी ह कोई कम थोड़े हे, मिठाई के डब्बा ल झूठ-मूठ के नंगावत कहिथे - ''वइसन बात हे, तब तंय हमर मिठाई के डब्बा ल वापिस कर। अब तो तंय जउन दिन साहेबिन बाई बन के देखाबे, विही दिन मंय तोला मिठाई खवाहूं।''

ठकुराइन काकी के गोठ ल सुन के जम्मों झन हांसत-हांसत कठल गें।

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10 : पटवारी साहब परदेसिया बन गे

दिन भर नांगर के मुठिया धरइ अउ ओहो त..त..त.. कहइ म रग रग टूट जाथे। ढलंगते साट पुट ले नींद पर जाथे। फेर आज तीन दिन हो गे हे रतनू के नींद उड़े। मन म जिंहा चिंता फिकर समाइस तहा न तो नींद परे अउ न भूख लगे। रात आंखी म पहावत हे।

बात बड़े जबर नो हे। बुता छोटे हे, फेर रतनू बर विही ह पहाड़ कस हो गे हे। कोट-कछेरी अउ पुलिस निस्पेक्टर के सपड़ म पड़े से तो बड़े-बड़े के होस गुम हो जाथे, फेर इहां अइसनो बात नो हे।

एक डेढ़ महीना पहिली के बात आय। खेत म ढेलवानी के काम चलत रहय। बारा बजे के बेरा रिहिस होही। रतनू ह खेत ले आय रहय। झंउंहा-कुदारी ल मड़ा के पसीना सुखावत बइठे रहय। राजेस के कुलकइ के अवाज दुरिहच ले सुनावत रहय। अपन लुगाई ल कहिथे - ''राजेस के दाई, सुनत हस, राजेस ह इसकूल ले आवत हे तइसे लगत हे। कतेक कुलकत आवत हे। परीक्षा म पास होइस होही तभे अतेक खुस हे।''

दुनों के बात अभी पुरेच नइ रहय, राजेस ह आ के आगू म धम्म ले खड़े हो गे। कहिथे - ''बाबू बाबू, मंय पास हो गेंव। सबले जादा नंबर पाय हंव।''

- ''सेठ के टुरा ले घला जादा?''

- ''हव, गुरूजी ह बताइस हे, मंय मेरिट म आय हंव।''

- ''फस्ट किलास म पास होय हस का?''

- ''वोकरो ले जादा बाबू।''

रतनू ल फस्ट किलास ले जादा के बात समझ नइ आइस। बात ल बंहकात कहिथे - ''लेड़गच हो जाबे का रे। पास हो के आय हस अउ दाई-ददा के पांव घला नइ परस।''

राजेस ह लजा गे। टुप-टुप दाई-ददा के पांव परिस अउ हाथ गोड़ धोय बर बखरी कोती भाग गे।

गरमी के छुट्टी कइसे बीतिस पता नइ चलिस। एक दिन रतनू ह खेत कोती जावत रहय। स्कूल तीर बड़े गुरूजी संग भेंट हो गे। बड़े गुरूजी ह किहिस - ''रतनू बने हबरेस जी। तोर राजेस ह बड़ होसियार हे। जउन विसय ल एक घांव समझा देबे, वोकर दिमाग म जस के तस छप जाथे। वोला तंय कंस के पढ़ाबे। समझे।''

गुरूजी संग ओरभेट्ठा होय के सेती रतनू ह हड़बड़ा गे रहय। चेत आइस त कहिथे - ''राम राम गुरूजी, सब आप मन के आसीरवाद ए। फेर मेरिट काला कहिथे, अतकिच ल समझातेव गुरूजी?''

गुरूजी - ''हत तेरे के भोकवा। पूरा जिला भर म सबले जादा नंबर पावइया दस झन ल मेरिट कहे जाथे। तोर राजेस के पांचवा स्थान हे।''

रतनू - ''ओहो...। धन भाग हे गुरूजी। आपे मन के मेहनत आय।''

गुरूजी - ''तंय तो बड़ कंजूस निकलेस भइ। मिठाई घला नइ खवाएस। फेर बने सुन। परसों ले स्कूल खुलइया हे। टी. सी. ले जा। वोला झपकिन छठवीं कक्षा म भरती कर देबे।''

बेटा के प्रसंसा सुन के रतनू के छाती गज भर चौड़ा हो गे।

एती स्कूल के खुलइ हो गे, वोती चौमास के बरसा सुरू हो गे। केहे गे हे कि 'घुरुर घारर जेठ करे, बुढ़वा बइला चेत करे।' नांगर बइला के चेत तो पहिलिच हो गे रिहिस। बांवत सुरू हो गे। रतनू ल चिंता धर लिस। नांगर बक्खर के चेत करे कि लइका ल भरती करे के चक्कर म पड़े। सोंचथे, हर साल स्कूल खुले के अउ खेती किसानी के काम काबर संघरथे। किसान के तो मुस्किल हो जाथे। पानी गिरइ तो भगवान के हाथ म रहिथे, फेर स्कूल खोले के काम तो सरकार के हाथ के बात आय। वो हर तो आगू पीछू कर सकथे।

रतनू के चिंता इहिंचे ले सुरू होथे। भरती करे के दिन मिडिल स्कूल के बड़े गुरूजी ह साफ-साफ कहि दे रिहिस - ''जतका प्रमाण पत्र धर के लाय हस, वोला जमा कर दे। पटवारी तीर ले आय अउ जाति प्रमाण-पत्र बनवा के लाय बर पड़ही। अभी राजेस ह स्कूल तो रोज आही, फेर येकर बिना वोकर नाव नइ लिखा सके। जउन दिन लाबे, विही दिन नाम ह लिखाही।''

अब पंदरही पूर गे। आय-जाति प्रमाण-पत्र बनेच नइ हे। आज तो राजेस ह साफ सुना दिस - ''बिना प्रमाण-पत्र बने मंय ह स्कूल नइ जावंव। गुरूजी ह रोज रोज खिसियाथे।''

अब तो मजबूरी हो गे। दूसर दिन रतनू ह कुकरा बासत रटपटा के उठ गे। खटिया तरी लोटा म पानी माड़े रहय, विही म आंखी धोइस। लकर धकर मंजन मुखारी करिस। ठुकुर ठाकर सुन के देवकी धला जाग गे। रतनू कहिथे - ''राजेस के मां, मंय पटवारी तीर जावत हंव। परमान पत्र बनवाना जरूरी हे। जल्दी जाहूं, जल्दी आहूं। बांवत के पाग बढ़िया हे, खेती म नांगा करना उचित नइ हे। तंय बइला मन ल दाना-भूंसा खवा के अउ मोरो बर बासी-पेज धर के खेत पहुंच जाबे। मंय नौ के बजत ले सीधा खेतेच म पहुंचहूं।''

देवकी का किहिस। ''डारा के चूके बेंदरा, अषाड़ के चूके किसान। चहा पी लेव। कतका बेर आहू का पता।''

तब तक रतनू ह बिड़ी सुपचात, लउठी धर के खोर म निकल गे। चिल्ला के कहिथे - ''चहा ल घला खेतेच म ले आबे।''

हल्का पटवारी ह घाप भर दुरिहा दूसर गांव म रहय। रतनू ह हिसाब लगाइस - ''आधा घंटा जाय के, आधा घंटा आय के। जादा से जादा घंटा भर पटवारी ह लगाही। आठ बजे तक तो लहुटिच जाहूं।'' उत्ताधुर्रा रेंगे लगिस।

मुंहझुलझुलहा होय रहय। रतनू ह अगास डहर देखिस। पानी गिरे के लक्षन नइ दिखिस। तब तो आज जोरदार बांवत बनही। जैराम ह मुड़ म बिजबोहनी टुकनी ल बोहे, भंइसा मन ल खेदारत खेत कोती जावत रहय। दुरिहा ले चीन्ह डारिस। कहिथे - ''राम राम रतनू भइया। कमा डरेस? कोन गांव जावत हस जी?''

रतनू घला राम राम करिस अउ किहिस - ''का बतांव भइया, बताय म घला जीव कलपथे। पटवारी करा जावत हंव।''

जैराम - ''वहू तो जरूरी हे भइया, लइका के भविस के सवाल हे।''

रतनू के धियान अब खेत-खार कोती चल दिस। आधा खार जोता गे रहय।

पटवारी घर पहुंच के रतनू ठगाय कस हो गे। कपाट बंद रहय। का पता घर म होही कि नहीं? गगरा बोही के जावत एक झन पनिहारिन बहिनी ह बताइस - ''कोन गांव रहिथस गा भइया। पटवारी करा आय होबे ते वो ह दस बजे सुत के उठथे।''

सुन के रतनू ह तरवा धर के बइठ गे। मन म कहिथे 'कइसे कोनो आदमी ह दस बजत ले सुत सकथे।' मन ह फेर कहिथे 'काबर नइ सुत सकथे। साहब मुंसी मन के बातेच अलग होथे।'

थोरिक देर बाद विही पनिहारिन ह फेर लहुट के आइस। अब रतनू ह पूछिस - ''कस बहिनी, पटवारी ह दस बजे सुत के उठथे, बने हे। फेर पटवरनिन बाइ्र ह घला दस बजे तक सुते रहिथे?''

पनिहारिन - ''एके झन रहिथे भइया। बार्इ्र अउ लोग लइका मन, संग म नइ रहय।''

बइठे बइठे आठ बज गे। रतनू ल रोवासी आय लगिस। मन ल कड़ा करिस, 'आज के खेती जाय ते जाय, इंहां के टंटा टोरिच के जाहूं।'

बासी खाय के बेरा हो गे रहय। भूख के मारे रतनू के पोटा अंइठे लगिस। मने मन पछताइस कि बने बनाय चहा ल काबर छोड़ के आइस।

चहा घला एक ठन नसच आय। तलब लगे लागिस। नसा के तलब ल रोक पाना बड़ मुस्किल होथे। जानत रहय तब ले बंडी के जेब ल टटोल के देखिस। दस-दस के दु ठो नोट जस के तस रखे रहय। राजा के दरबार चढ़स कि भगवान के मंदिर म। भेंट चढ़ावा तो लेगेच बर पड़थे। आजकल के भगवान साहबेच मुंसी मन तो आय।

रतनू ह पटवारी घर के चंवरा म अनमनहा बइठे रहय। धियान ह खेत कोती गे रहय। एक झन आदमी कोन डहर ले आइस अउ झम्म ले वोकर आगू म खड़ा हो गे। कहिथे - ''राम राम भइया। भोलापुर रहिथस का जी? तोर नांव रतनू हे का?''

रतनू चकित खा गे। राम राम ल झोंकिस अउ वो आदमी ल चिन्हें के कोसिस करे लगिस। रतनू ल असमंजस म देख के वो अदमी ह फेर कहिथे - ''मोला नइ चिन्हेस? ले का होइस। नान्हे राम आंव। तंय चिंता झन कर। सबले पहिली तोरेच काम ल करवाहूं। मोर कहना ल पटवारी कभू नइ टारय।

रतनू ह नान्हे राम के नाव ल सुने रिहिस। पटवारी के पिछलग्गू ए। वोकर सरी काम ल इहिच ह करथे। पटवारी तो खाली दसखत करइया हरे। पइसा झोरे म पटवारी के बाप आय। वोला लगिस कि कोई पाकिटमार के संगत पड़ गे का? पइसा वाले खीसा ल चमचम ले चपक के बइठ गिस।

नान्हे राम ठहरिस घाघ आदमी। कहिथे - ''आय-जाति बर आय होबे? अरे अभी झार विहिच काम चलत हे।''

रतनू - ''हव भइया बने परखे। फेर नौ बजत हे। खेती किसानी के दिन। नांगर बइला ल खेत म खड़े करके आय हंव। जल्दी करवा देतेस ते बने होतिस।''

''सरकारी आदमी। सरकार के दसों ठन काम। दिन लगे न रात। खाली लिखइच पढ़इ तो आय। रात-रात भर जागे ल पड़थे।'' जोरदार जम्हावत जम्हावत नान्हे ह कहिथे - ''भइया एकदम अल्लर अल्लर लागत हे। चल चहा पी के आबोन। तब तक पटवारी घला जाग जाही।''

रतनू ह समझ गे। अब दुनों नोट के बचना मुस्किल हे।

वइसनेच होइस। चहा अउ गुटखा-माखुर म वो बीस रूपिया ह स्वाहा हो गे।

दस बजत रहय। नान्हे ह कहिथे - ''ले चल अब साहब ह उठ गिस होही।''

पटवारी ह अभिचे सुत के उठे रहय। कुरसी म बइठे-बइठे जम्हावत रहय। रकत चुहे कस आंखीं मन दिखत रहय। दूरिहच ले दारू के गंध आवत रहय। नान्हे संग गिराहिक आवत देख के खुस हो गे। आंखी म चमक आ गे। वो मन पहुंचेच नइ रहंय। दुरिहच ले चिल्ला के कहिथे - ''ओ.....हो...नान्हे, कहां रेहे यार, अभी आवत हस।'' रतनू डहर इसारा करके कहिथे -''अउ ये महासय ह कोन ए?''

नान्हे - ''नमस्कार साहब, ये रतनू मंडल ए। भोलापुर वाले। आय-जाति प्रमाण-पत्र खातिर आय हे।''

जेवनी हाथ के डुड़ी अंगठी अउ डेरी हाथ के हथेली म माखुर-चूना रगड़त पटवारी ह थेरिक देर सोंचिस। माखुर ल ओठ अउ दांत के बीच म दबाइस। बगल के खिड़की बाहिर पिच ले थूंकिस, अउ किहिस - ''हूं..... कुछू लाय हे कि अइसने आय हे?''

रतनू सब समझ गे, फेर का कहितिस। बोकखाय देखत रहिगे।

नान्हे ह जेवनी हाथ के अंगठा अउ डुड़ी अंगठी ल लफलफा के इसारा करिस कि पइसा पूछत हे। लाय हस कि नहीं।

रतनू ल रोना आ गे। किहिस - ''काली ला के दे देहूं साहब,फेर आज मोर काम ल बना देतेव। तुंहर दसों उंगली के बिनती करत हंव।''

अतका म पटवारी ह भड़क गे। नान्हे राम ल कहिथे - ''अरे यार तोला के घांव ले चेतांव कि आलतू फलतू आदमी धर के मत लाय कर कहिके। भगा येला। बोहनी बट्टा के बेरा मूड खराब कर दिस।''

बस्ता के पीछू दारू के बोतल ल लुका के रखे रहय। निकालिस। चाब के ढक्कन ल टोरिस, अउ गट गट आधा ल पी गे। बचत ल नान्हे ल दे के कहिथे - ''ये ले तोर बाटा।'' अउ तरिया कोती निकल गे।

रतनू राम ल चारों खूंट अंधियारेच अंधियार दिखे लगिस। सोंचिस - ''गरीब के कोनों नइ हे। पहिली गंउटिया-मुकड़दम मन लूटंय, अब ये मन लूटत हें। कहिथें कि गरीब छत्तीसगढ़िया किसान-मजदूर मन ल इंहां आ के परदेसिया मन लूटत हें, फेर ये तो परदेसिया नोंहे।''

सब कुरसी के माया आय। कुरसी पा के सब परदेसिया बन जाथें।

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11 : साला छत्तीसगढ़िया

''इसकुल खुले महिना भर हो गे, लइका ह रात दिन रेंध मतावत हे, तंय का सुनबे? तोर कान म तो पोनी गोंजा गे हे। पेन-कापी लेय बर कहत हे, ले नइ देतेस।'' देवकी ह अपन नंगरिहा रतनू ल झंझेटिस।

रतनू ह कहिथे - ''हित लगा के दू कंवरा बासी ल तो खावन दे भगवान। पेन-कापी ह भागत थोरे हे। कालिच बांवत उरकिस हे। हांथ म एको पइसा नइ हे। खातू-दवाई घलो अभिचे लेना हे। निंदइ-कोड़इ ल आन साल जुर मिल के कर डारत रेहेन, फेर पर साल ले तो बन-झार के मारे खेत ह पटा जाथे। एसो कोन जाने का होही? बनिहार लेगे बर झन परे। इही ल कहिथे, 'दुब्बर बर दू असाड़।' करंव ते का करंव, तिंही बता?''

देवकी ल कुछू कहत नइ बनिस। अपन गलती ल संवास के वो ह चुप हो गे। थोरिक देर दुनों झन एक दूसर के रोनहू सूरत ल करलइ अकन देखत रहि गें। अइसन म कइसे बनही? देवकी ह अपन जी ल कड़ा करके कहिथे - ''जउन होना होही, होवत रहही, फिकर काबर करथो। हित लगा के बासी ल तो खा लेवव। महूं अड़ही, जकही-भुतही सरीख, बिना गुने अलकरहा कहि परथों। नराज झन होय करो।''

रतनू - ''काबर नराज होहूं राजेस के मां। तोला का सुख देवत हंव कि तोर बर नाराज होहंव। फेर का करंव, एक फिकर छूटे नहीं कि दस ठन ह अउ मुंह फार के खड़े रहिथे। एकरे सेती टांठ भाखा निकल परथे।''

जोंड़ी के मुंह ले अतिक सुघ्घर मया के गोठ सुन के देवकी के मन गदगद हो गे। फेर घर के जुच्छा कोठी के सुरता करके अउ रतनू के अइलहा मुंहरन गढ़न ल देख के वोकर आंसू बोहाय लगिस। अंचरा के कोर म ढरत आंसू ल कलेचुप पोंछ के कहिथे - ''कइसे तुंहर मुंहूं-कान ह अइलहा अइलहा दिखथे? जर-बुखार धरे होही ते सूजी-पानी नइ लगवा लेतेव।''

''दु-चार दिन हो गे हे राजेस के मां, सुस्ती-सुस्ती कस लागथे। गोड़-हाथ घला पिराथे। नांगर-बक्खर के दिन म का आदमी ल कहिबे, का बइला-भंइसा ल कहिबे, सबके रगड़ा टूट जाथे। हफ्ता पंदरा दिन के बात रहिथे। फेर तो अरामे अराम रहिथे। तंय फिकर काबर करथस, मोला कुछू नइ होय हे।'' रतनू ह अपन गोसाइन ल ढाढस बंधाइस।

देवकी ह झिचकत झिचकत कहिथे - ''नांदगांव वाले साहेब बाबू ह काली सांझ के आय रिहिस। कहत रिहिस के भइया ह अपन खेत ल जोंत डरिस होही त हमरो खेत ल बों देतिस। हर साल तुंहिच मन तो कमाथो। भइया के रहत ले मंय कोनों दूसर ल नइ तियारों।''

''तब तंय का केहेस राजेस के मां ?'' रतनू ह टप ले पूछथे।

''का कहितेंव, तुमला पूछे बिना। एसो भर हो गे हे तुंहर बदन ह झुकते जावत हे। वइसने हाल बइला मन के हे। सब डहर सोंच के बक्का बंधा गे।'' देवकी ह कहत कहत बोटबिटा गे।

रतनू - ''दू चार दिन भाड़ा कमा लेतेंव ते हाथ कच्चा हो जातिस। आज बुधवार ए। बिरस्पत, सुकरार अउ सनिच्चर, तीन दिन के कमाय ले लइका के कापी-किताब के पुरती हो जातिस। इतवार के दिन नांदगाव के बजार चल देतेंव।''

महिला मन के बुध्दि ह जादा सरल रस्ता खोज लेथे। देवकी ह कहिथे - ''नांदगांव घूमे के संउक लगे हे नइ कहव। गांव के गंउटिया दुकान म तो घला पेन कापी मिलथे। उंहे नइ ले लेहव। किताब तो इसकुल डहर ले मिलिच गे हे।''

रतनू - ''बने कहिथस राजेस के मां। पाछू साल गंउटिया दुकान म लेय रेहेंव। छपे कीमत ले आना दू आना कम कर के देय रिहिस। पान बिड़ी के पुरती अउ छोड़ाय रेहेंव। ये तो छोटे दुकान ए। नांदगांव के बड़े दुकान मन म लेय से रूपिया दू रूपिया अउ बच जाही। इही सोंच के नांदगांव जाहूं कहत हंव। तंय कहिथस घूमे के संउक लगे हे। जब गोठियाबे उल्टच गोठियाबे।''

''जानत हंव फेर मोर बर का लाबे?'' कहिके देवकी ह मुच ले हांस दिस।

रतनू - ''नांदगांव के गोल बजार ल।''

देवकी ह रतनू कोती कनखही देख के जिबरा दिस। रतनू के हिरदे म घला मया उमड़ गे। कहिथे - ''तोर बर करधन अउ पैरपट्टी बनवाहूं कहत कहत जिनगी बीत गे। फेर ए साल भगवान ह बने बने पानी बादर दे देही ते जरूर बनवाहूं।''

इतवार के दिन। रतनू ह बिहिनिया ले नहां धो के बासी-पेज खा के तियार हो गे। पंदरही हो गे हे, सायकिल के पीछू चक्का भरस्ट होय। बनवाय बर मिस्त्री तीर लेगे रिहिस। टैर-टूब कंद गे हे कहिके नइ बनाइस। अब अढ़इ-तीन सौ रूपिया वो कहां ले लातिस। वइसने के वइसने माड़े हे। अब का करे? बड़े भइया के सायकिल ल मांगे के सोंचिस, फेर भउजी के सुभाव ल देख के वोकर हिम्मत नइ होइस। आखिर म रेंगत जाय के तय करिस; न उधो के लेना न, माधो के देना। झोला झंगड़ धर के जइसे घर ले निकले के होइस, राजेस ह संग पड़ गे। रेंध मता दिस। कहे लगिस - ''हम एको घांव नांदगांव ल देखे नइ हन। हमू संग म जाबो त हमर मन पसंद के लेबो। पाछू साल तंय उल्टा-पुल्टा ले देय रेहेस।''

देवकी के पलोंदी पा के राजेस अउ जिद करे लगिस। आखिर म रतनू ल मानेच बर पड़़िस। राजेस के का पूछना।

गांव के सड़क म गड्ढच गड्ढा। रात म जोरदार पानी गिरे रहय। गड्ढा मन तरिया कस भरे रह। चिखला के मारे चप्पल फदक फदक जाय। खिसिया के रतनू ह दुनों झन के चप्पल ल हाथ म धर लिस। राजेस के भाग खुल गे। रतनू ह सुक्खा सुक्खा देख के रेंगय, तब राजेस ह डबरा के पानी म चभक्की मारय, खेले बर रम जाय।

सड़क के दुनों बाजू जतिक दुरिहा ले देख ले खेतेच खेत। कतको खेत हरिया गे रहय त कतको म अभी नांगर चलतेच रहय। रतनू के मन खेतखार म रमे रहय। राजेस के सुरता आ गे। पाछू लहुट के देखथे, वो ह पानी खेले म रमे रहय। रतनू खिसियाइस - '' झपकिन आ, पानी खेले म झन भुलाय रह। पानी बादर के दिन।'' राजेस दंउड़ के आइस।

बड़ मुस्किल से माइ सड़क म पहुंचिन। बड़े सड़क गजब ऊंच, बिकट चाकर। डामर के बनल, चिक्कन चांदर। रतनू ह पाइ के डबरा म गोड़ धो के चप्पल ल पहिनिस। राजेस घला वइसनेच करिस। अब दुनों बाप बेटा सड़क के डेरी बाजू कोरे कोर रेंगे लगिन। सड़क ह मोटर 7गाड़ी ले दमदमावत रहय। किसम किसम के बस, टरक, कार, फटफटी पूछी चाबे चाबे कभू एती ले त कभू वोती ले, भर्र भर्र आवय, बड़ोरा उड़ात चल देवय। पें..पों..पीं.... के मारे चेत हराय के पुरती रहय। पें... करत एक ठन गजब सुंदर कार सांय ले उंखर बाजू ले निकलिस। राजेस ह वोकर नकल उतारिस। पीं.....। आगू डहर ले एक ठन अब्बड़ लाम के टरक आवत रहय। वोमा बड़ भारी मसीन जोराय रहय। पचासों ठन चक्का लगे रहय। कनखजूर जइसे टरक देख के राजेस चकित खा गे। वोकर चक्का मन ल गिने लगिस। एक दू तीन चार.....पचीस। आंखी चकमका गे। गिनती भुला गे। कन्झा के बाप ल पूछथे -''बाबू बाबू, एकर के ठन चक्का हे?''

रतनू ह लइका के हाथ ल चमचमा के धरे रहय। अपन डहर खींचिस। किहिस - ''सड़क ल देख के रेंग। चक्का गिने म झन भुला।''

राजेस ह फेर पूछिस - ''एमा का मसीन जोराय हे?''

''कोनो कोती कारखाना बनत होही। वोकरे होही।''

राजेस के मन नइ मानिस। टरक ह गुजर गे रहय। दुरिहात टरक ल लहुट लहुट के देखे लागिस। वोतका म एक ठन बस पों.....करत आइस अउ बड़ोरा उड़ात चल दिस।राजेस ह कहिथे -''बाबू बाबू ,थकासी लागत हे मोटर म चढ़ के जाबो।''

''टिकिट बर पइसा नइ हे बेटा।''

''बिन पइसा के नइ चढ़ाय क?''

''तोर आजा बबा नों हे।''

''तंय तो पइसा धरे हस।''

''बस वाले ल देय बर नइ धरे हंव। तोर समान लेय बर धरे हंव। बांच जाही तेकर खजानी खाबो। बस वाले ल काबर देबो। ''

खजानी के बात सुन के राजेस के मुंहूं म पानी आ गे। अतिक मोटर गाड़ी देख के वोकर मति चकराय रहय। थोरिक देर गुनिस। दिमाग नइ पूरिस तब बाबू ल फेर पूछिस - ''बाबू बाबू , ये मोटर मन काकर होहीं। ''

''बड़े बड़े आदमी मन के आय।''

''हमरो मन ले बड़े?''

''भोकवा ! हमी मन बड़े आदमी आवन?''

राजेस अचरज म पड़ गे। दुनों हाथ ल ऊपर उचा के कहिथे -''अतेक बड़े?''

''अरे वइसन बड़े नहीं। खूब रूपिया पइसा वाले आदमी। समझे? हमन तो गरीब आवन।''

राजेस ह अपन दुनों हाथ ल आगू कोती लमा के कहिथे - ''अतीक रूपिया?''

''वोकरो ले जादा।''

''अतेक पइसा वो मन कहां ले पाथें ?''

'' भगवान देथे।''

''हमन ल काबर नइ देवय। ''

''अपन-अपन करम कमइ तो आय बेटा। ''

''तहूं तो अब्बड़ कमाथस। रात-दिन कमाथस। तब ले भगवान ह हमन ल बस चढ़े बर घला पइसा नइ देय।''

रतनू ह राजेस के बात ल सुन के अकबका गे। कुछू कहत नइ बनिस। अइसन तो वो ह कभू सोंचेच नइ रिहिस। मन उदास हो गे। कहिथे - ''सब भगवान के माया ए।''

वोतका म असोक गुरूजी ह उंखर आगू म फटफटी ल धम ले रोक के खड़ा हो गे। रतनू झकनका गे। कहिथे - ''राम राम गुरूजी।''

असोक गुरूजी - ''राम राम कका। दुनों बाप-बेटा कहां जावत हव जी? नांदगांव जावत हव क?''

''हव गुरूजी। सायकिल ह पंचर पड़े हे। रेंगत जावत हन भइ।''

''रेंगत-रेंगत लइका ह लथर गे हाबे। आवव मोर संग बइठ जावव।''

''आप मन ल तकलीफ नइ होही गुरूजी ?''

''का के तकलीफ होही जी?''

''उपरहा पइसा नइ हे गुरूजी। पिटरोल खरचा कहां ले देहूं।''

''कका, अब तंय गारी खाबे। अरे ! ये पइसा के बात कहां ले आ गे ? बिरान समझथस का ? अरे हमला तंय लोटा धर के अवइया अउ चार साल म बिल्डिंग टेकइया समझ गेस तइसे लागथे। हम वइसन नो हन। हमर तुंहर कई पुरखा के नेरवा इही माटी म गड़े हे। चलो बइठो। ''

''दूध के जरइया मही ल घला फूंक-फूंक के पीथे बेटा। एक घांव सेठ टुरा संग अइसने बइठ परेंव। दस रूपिया ले लिस। लइका मन के मुंहूं म पेरा गोंजा गे। चना चबेना घला नइ ले सकेंव। ''

''सही बात आय कका। हमर मन के मुंहूं म पेरा गोंजही तभे तो उंखर बिल्डिंग खड़े होही।''

दुनों बाप बेटा गुरूजी के फटफटी म बइठ के नांदगांव पहुंच गिन। राजंस ह कभू फटफटी नइ चढ़े रहय, गजब खुस हो गे। उतरत समय असोक गुरूजी ह कहिथे - ''आफिस जावत हंव। दू बजत ले मोर काम हो जाही। इही करा अगोरा कर लेहू। आय हन वइसने चल देबो। राजेस ह पढ़ाई म गजब होसियार हे। वोकर मन पसंद के समान लेबे।''

बेटा के प्रसंसा सुन के बाप गदगद हो गे।

राजेस के अंगठी धरे धरे रतनू ह बड़े दुकान कोती के रस्ता म चल पड़िस। राजेस के धियान ह सडक के दुनों बाजू के नाना प्रकार के सजे धजे दुकान अउ दुमंजिला-चरमंजिला मकान मन कोती रहय। सोंच म परे रहय कि अतेक ऊंच-ऊंच मकान ल कइसे बनाय होहीं। इंहा के रहवइया मन कइसन होत होहीं। राजकुमारी के कहानी के सुरता आ गे कि कइसे वो ह सतखंडा महल के झरोखा ले राजकुमार ल देख के मोहा गे रहय। वोतका बेर एक झन अबड़़ सुंदर सेठाइन टुरी ह तीसर मंजिल के झरोखा ले झांकिस। राजेस ह अपन बाबू से पूछथे -'' बाबू बाबू , वो झांक के देखत हे तउने ह राजकुमारी आय क ?''

''कोन राज कुमारी?''

''काली रात के कहानी सुनात रेहेस न, विही।''

''अब कहां के राजा अउ कहां के राजकुमारी। फेर बने केहेस। आजकल के राजा अउ राजकुमारी इहिच मन तो आवंय।''

''सेठ मन कइसन होथें ?''

''वो दुकान म बइठ के पइसा गिनत हे तउन ल देख ले। एक झन सेठ विही आय।''

''हमू मन अइसने घर काबर नइ बनान ?''

''पइसा वाले मन बनाथे। हमन कहां ले बना सकबो।''

''सेठ मन तीर बहुत पइसा होथे क?''

''हव।''

''तब हमू सेठ बनबो।''

रतनू ह राजेस के सवाल पुछइ म थर्रा गे रहय। गुस्सा आ गे। कहिथे - ''तोला सेठ बनाय बर नइ पढ़ात हंव। अरे ये सब तो गरीब किसान मन के खून चुहकइया हरे। तोला खून चुहकइया नइ बनना हे। तोला तो बड़े साहब बनना हे। इंखर मन के काल।''

भूख के मारे राजेस के पेट अंइठत रहय। बाप के गोठ वोला समझ नइ आइस। हलवाई दुकान मन डहर ले जावत रहंय। दुकान मन म किसम किसम के मिठाई सजे रहय। भट्ठी मन म बड़े बड़े कड़ाही चढ़े रहंय। कहीं समोसा-कचौरी त कहीं इमरती-जलेबी चुरत रहंय। तेल अउ मसाला के सुगंध म राजेस के भूख अउ बाढ़ गे। मुंह पनछिया गे। मुंह के पानी ल गुटकत कहिथे - ''बाबू बाबू , अबड़ भूख लागत हे। पियास घला लागत हे।''

रतनू घला पियास मरत रहय। लइका के दसा ल देख के वोला रोना आ गे, फेर मन मसोस के कहिथे - ''थोरिक दम धर बेटा, पहिली तोर कापी-किताब ल ले लेथन। बांचही तेकर मन भर मिठाइ खाबो। तोर मां बर घला लेगबो।''

दुनों बाप बेटा बड़े दुकान म गिन। दुकान के नाम अतराब म परसिध्द हे। छोटे दुकानदार मन इ्रहें ले थोक भाव म खरीदी करथें। गजब भीड़ रहय। लटपट इंकर समान निकलिस। सबो के कीमत जोड़ के सेठ ह बताइस। सुन के रतनू अकबका गे। बड़ मुस्किल म मुंहूं उलिस - ''अबड़ मंहगा लगाएस सेठ जी।''

सेठ - ''ये साल मंहगाई बाढ़ गे हे कका। सब म कीमत छपे हे। बने देख ले, जोड़ ले, तब पइसा दे।''

रतनू - ''देख डरेंव सेठ जी। छपे कीमत ह ब्रह्मा के लिखा नो हे। थोरिक तो कम करके जोड़।''

सेठ - ''एक पइसा कम नइ हो सकय। लेना हे ते ले नइ ते आगू बढ़। इहां मोल भाव नइ चलय।''

रतनू - ''कइसे नइ हो सकही ? हमर गांव के दुकानदार मन कइसे कम करथें ? तंय तो बड़े दुकानदार आवस। इहां दू पइसा अउ सस्ता मिलत होही कहिके आय रेहेन। उल्टा हो गे भइ।''

रतनू के बात सुनके सेठ कलबला गे। बाजू म दूसर सेठ बइठे रहय तउन ल कहिथे - ''सुन रहे हो न सेठ जी। गांव के जितने छत्तीसगढ़िया दुकानदार हैं, सब सालों ने रेट खराब कर दिए हैं। हम तो परेशान हो गए हैं।'' फेर रतनू डहर देख के कहिथे - ''अरे लेना हे त ले कका, नइ ते जा अपन गांव म ले लेबे। वो मन तुंहर सगा होहीं, तउन पाय के दे देवत होहीं। समझे?''

रतनू - ''समझ गेंव। बने कहत हस तंय। विहिच मन हमर सगा आवंय। हमर छत्तीसगढ़िया भाई आवंय। तुमन हमर का लगथो जी ? तुमन तो इहां बेपार करे बर आय हव, हमर सगा बने बर थोड़े आय हव। छत्तीसगढ़िया बने बर थोड़े आय हव। समान के बिकत ले, मुटृठी म पइसा के आवत ले हमन तुंहर कका-बबा आवन। पाछू तुंहर बर हम साला छत्तीसगढ़िया बन जाथन। साला देहाती बन जाथन।''

रतनू ह लेय समान ल सेठ के आगू म पटक दिस अउ अपन गांव डहर लहुट गे।

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12 : पंदरा अगस्त के नाटक

चउदा तारीख के बात आय। रतनू ह खेत ले आइस। बियासी नांगर चलत रहय। बइला मन ल चारा चरे बर खेते डहर छोंड़ के आय रहय। देवकी ल कहिथे - ''राजेस के मां, आज दिन भर के झड़ी म कंपकंपासी छूट गे। चहा बना के तो पिया दे। राजेस ह स्कूल ले आ गिस होही, आरो नइ मिलत हे, कहां हे?''

देवकी - ''हव आ गे हे। काली पंदरा अगस्त के तियारी करे बर जल्दी छुट्टी होइस होही। कोठा डहर अपन संगवारी मन संग खेलत हे।''

रतनू सोंचथे, कोठा डहर पेरा भ्ूांसा धराय रहिथे। कीरा मकोरा के डर रहिथे। ये मन उंहां काबर खेलत होहीं। जा के देखथे, उंखर मन के नाटक के रिहलसल चलत रहय। रतनू ल देख के सब झन सरमा गें। राजेस ह कहिथे - ''बाबू तंय जा न। काली स्कूल म देखबे।''

रतनू ह ऊखर मन के नकली दाढ़ी मेछा अउ कोइला छुही के मेकप ल देख के हांस डरिस। हांसत हांसत लहुट गे।

पंदरा अगस्त के दिन बिहाने ले झड़ी करे रहय फेर प्रभात फेरी के लहुटत ले थिरा गिस। लइका मन के पोरोग्राम बने जम गे। असोक गुरूजी ह गाना-बजाना, गम्मत-नाटक के गजब सौकीन। गांवेच के रहवइया आय। लइका मन संग खुदे लइका बन जाथे। वोकरे सब कलाकारी रहिथे। देखे बर गांव भर के लइका-सियान, दाई-माई उमिंहा जथे। रतनू घला बेटा के नाटक ल देखे बर आय रहय। नाटक अइसन आय।

पात्र-परिचय

1. थुकलू - सराबी जउन खुद ल गांव के नेता कहिथे

2. जुठलू - थुकलू के चमचा

3. डाक्टर - गांव के अस्पताल के कम्पाउंडर

4. सुशीला - थुकलू के घरवाली

5. रामू - थुकलू के बेटा, होनहार छात्र

6. प्रथम महिला - महिला सहायता समूह के अध्यक्ष

7. महिला सहायता समूह के दु-चार झन सदस्य

(पहला सीन)

( पंदरा अगस्त के दिन। सांझ के चार बजे के बेरा। गांव के झंडा चंउक म थुकलू अउ जुठलू नसा म झुमरत हें। ं)

थुकलू - ( एक हांथ म तिरंगा झंडा अउ दूसर हांथ म बोतल धरे झूमरत झूमरत आवत हे। जुठलू ल देख के धरालका बोतल ल बनियाइन भीतर लुकाथे अउ दूसर कोती मुंहू करके कहिथे ) भारत माता की जय। महात्मा गांधी की जय। झंडा ऊंचा रहे हमारा।

जुठलू - जय हिंद, नेताजी, काबर मुंहूं ल टेंड़गा करत हस?

थुकलू - धत तेरे कहीं के। जुठलू आवस का रे?

जुठलू - तब तोला का मंय भूत परेत कस दिखथंव? जादा तो नइ होय हे?

थुकलू - तोर सत्यानास हो जातिस रे। डरवा डरे रेहेस अउ जादा हो गे हे का कहिथस।

जुठलू - मोर सींग जागे हे का?

थुकलू - बात वइसन नो हे यार। हम आवन इज्जतदार आदमी।। बदनामी ले डर लगथे। डरे बर पड़थे। समझे?

जुठलू - वा रे इज्जतदार! दू दिन पहिली घुरवा के गोबर म सड़बड़ाय सड़क म परे रेहेस। भुला गेस का?

थुकलू - चुप रहि न यार। बेइज्जती खराब काबर करत हस। थोरिक थोरिक सुरसुरावत रिहिस तउनो डाउन हो गे।

( टरकाय बर ) खेत जावत हस का? जल्दी जा। मुंहीं-पार फुटे फुटाय होही, देख के आ जाबे।

जुठलू - ( कंझाय कस ) उं हूं ! तंय खेत खार के नांव झन ले यार। सुन, आज झंडा तिहार आय न?

थुकलू - हव।

जुठलू - बिहिनिया झंडा लहराय रिहिस न?

थुकलू - हव।

जुठलू - भुला गेस का?

थुकलू - हव, हमला कुछू के सुरता नइ रहय। घर जावत हन।

जुठलू - काला भुलाएस, सुरता करांव का? वा जी हुसियार।

थुकलू - अंय, तहूं बेंझवा डारथस यार। घर दुवार ल भुला जाहूं, लइका लोग ल भुला जाहूं, फेर तोला नंइ भुलांव यार। तंय तो मोर लिंगोटिया यार हरस।

जुठलू - तब निकाल।

थुकलू - काला?

जुठलू - बनियान के भीतर, अउ चड्डी के अंदर लुकाय हस तउन ल।

थुकलू - अंय, तोर आंखी ह गिधान आंखी कस हे का रे?

जुठलू - हव। अउ हमर नाक ह कुकुर नाक सरीख हे। एकदम पावरफूल। समझे?

थुकलू - तउने सेती सुंघियाय म माहिर हस।

जुठलू - हव।

थुकलू - अच्छा ये बता, हमर देस के नेता कोन?

जुठलू - ( थुकलू के पांव परत ) थुकलू भइया।

थुकलू - खुस रह। तोर मुंह म का कहिथे तइसने परे। अउ हमर गांव के नेता कोन?

जुठलू - ( चुप )

थुकलू - का हो गे? तोर मुंहूं म लाड़ू काबर गोंजा गे?

जुठलू - चोपिया गे।

थुकलू - का ह?

जुठलू - मुंहूं ह। अउ का ह?

थुकलू - कइसे म बनही?

जुठलू - कच्चा करे बर थोकुन दे न।

थुकलू - काला?

जुठलू - ( झल्ला के ) उही ल कहिथों त। दिमाग चांट के रख देस।

थुकलू - जथा नाम तथा गुन। नाम जुठलू काम घला जुठलू। जूठा हो गे हे कहिके लुकावत रेहेंव। तोर नीयत गड़ गे। नीयतखोर कहीं के। ( बोतल ल देवत ) ले कलेचुप पी। कोनों झन देखे।

जुठलू - बेइज्जती खराब हो जाही क?

थुकलू - अरे, कोनों अउ आ जाही। एक तो आज भट्ठी बंद हे। काली के जुगाड़ कर के रखे हंव। समझता काबर नहीं यार।

जुठलू - ( दारू पीथे )

थुकलू - अब बता।

जुठलू - ( चेथी खजवात ) का पूछे रेहेस यार? ( थुकलू राम ह बोतल ल नंगाय कस करथे ) अरे बतावत हंव न यार। असर करही तब तो सुरता आही। ( झुमर के )आ गे। हमर गांव के नेता थुकलू राम। थुकलू भइया जिंदाबाद।

थुकलू - तोला कोन पूछिस?

जुठलू - काला?

थुकलू - इही ल।

जुठलू - ( चुप )

थुकलू - अउ का हो गे, तोर पोंगा फेर कइसे बंद हो गे?

जुठलू - ( इसारा से गुटका अउ सिगरेट मांगथे। )

थुकलू - अच्छा...अब तोला गुटका चाहिये?

जुठलू - ( हामी म मुड़ी हलाथे। )

थुकलू - गुटका नइ हे त मुटका म काम चलही? ( मुटका मारे के नकल करथे। )

जुठलू - ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद यार।

थुकलू - (गुटका देवत )धर रे जीछुट्टा। मुंह म गरमी हो गे हे कहिके नइ खाय रेहेंव।

जुठलू - ( कुकुर जइसे सुंघियावत। ) हूं....हमारा नाक कुकुर के नाक ले जादा पावरफुल हे।

( दूसर सीन )

( सांझ के सात बजे के समय हे। कम पावर के एक ठन बलफ जलत हे। थुकलू राम के घर परछी म खटिया म बीमार लइका ह सुते हे। दाइ्र ह दवइ खाय बर मनावत हे।घर के हर जिनिस ले गरीबी नजर आवत हे। गांव के डाक्टर ह नाड़ी देखत हे। थुकलू ह धड़ाम ले कपाट ल खोल के भीतर आथे। )

थुकलू - (एक हाथ म बोतल अउ दूसर हाथ म झंडा धरे हे। झुमरत हे। गाना गावत हे।) मो...र सारी प..रम पिंयारी।... सारी ..सारी.. (ओठ म उंगली रख के चुप रहे के नकल करथे। ) फेर कहिथे -

''रामू के दाई

काबर हो गे हे करलाई

डाक्टर काबर आय हे?

दार भत रंधाय हे?

कि नइ रंधाय हे।''

सुसीला - ( अंचरा के कोर म आंसू ल पोंछत। ) घर म एक बीजा चांउर नइ हे। लइका ह काली ले बुखार म तीपत हे। एकर खियाल नइ हे? बिहिनिया के निकले अब आवत हस। दार-भात पूछथस। कुछू सरम लागथे कि नइ लागे?

थुकलू - ( मुंह म उंगली धर के ) श...चुप। जबान बंद। ( बरतन मन म खाना खोजथे। चार ठन सुक्खा रोटी अउ बंगाला के चटनी मिलथे। ) अंए! रोटी अउ मिरी के चटनी। दार काबर नइ रांधे? मोर मुंहूं के गरमी ल महीना दिन हो गे हे, तेकर तोला कोई चिंता नइ हे। काली के जर धरे हे तेकर चिंता हे।

सुसीला - रोटी-चटनी ल तंय हाथ झन लगा। सुकारो दार्इ्र घर ले मांग के लाय हंव। लइका ह काली ले मुंह म सीथा नइ डारे हे।

थुकलू - ( जबरन रोटी-चटनी खाथे। ) थू...थू.....। चुच्चुर म मर गेंव। पानी...पानी। (लड़खड़ाथें तिरंगा झंडा ह हांथ ले छूट के गिरे लगथे। बीमार लइका, रामू ह उठथे। दंउड़ के गिरत झंडा ल संभालथे। )

डाक्टर - साबास रामू बेटा। ( दंउड़ के रामू ल संभालथे। ) वाह! बेटा, आज तंय तिरंगा के सान ल बचा लेस। कालीतिंही ह देस के रक्षा करबे। ( झंडा ल आदर के साथ लपेट के रखथे। थुकलू से कहिथे। ) थुकलू राम, तंय खुद ल तो संभाल नइ सकस। अपन आप ल गांव के नेता कहिथस। पुरखउती खेत खार ल बेंच बेंच के दारू म लुटा डारेस। गुटका माखुर के खवइ म तोर मुंहूं ह केंदवा चरे कस हो गे हे। तोला कब के कहत हंव। बड़े सरकारी अस्पताल म जा के जांच कराय बर। आज ले नइ गेस।

थुकलू - चुप, साला बड़ा डाक्टर बने घूमता है। एक रिपोट करूंगा। सब घुंसड़ जाएगा। हमर खेलाय लइका अउ हमी को भासन पिलाता है। अरे, पिलाना हे त दारू पिला, गांजा पिला। ये साला भासन झन पिला। हमर दाई-ददा के चीज ल बेंचेन। तोर बाप के का उरकिस?

डाक्टर - तोर दाई-ददा के चीज म तोरेच हक हे का? रामू अउ सुसीला भउजी के कोई हक नइ हे? अरे पुरखा के जैदाद म सबके बराबर हक रहिथे। तंय बेंचबे , हमर का जाही, फेर अपन लोग लइका के बारे म तो सोंच। अइसने तोर बाप ह सोंचे होतिस तब तंय कहां रहितेस?

( थुकलू नसा म उत्पात मचाथे। हल्ला सुन के महिला स्व सहायता समूह के सदस्य मन जुरिया जाथे। जुठलू ल घला चिंगिर- चांगर धर के लाथें। )

महिला नं.1 - डाकटर बाबू ह बने कहत हे। अरे चंडाल हो! दारू गांजा म सरी जैजाद ल फूंक देव। तोर मुंहूं ल केंदवा चर डारिस। ये ह पेट पीरा म दिन रात छटपटात रहिथे। अपन कमाय चीज होतिस तब दरद पीरा होतिस। पुरखा के जोरे चीज ल बेंचे म का दरद होही? फेर आज सुन लेव तुमन। सुसीला अउ सुसीला सरीख जम्मों बहिनी मन अब अकेला नइ हे। हम सब ऊंखर साथ हन। अब कइसे खेत खार ल बेंचहू अउ कोन ह खरीदही। कइसे वोकर रजिस्टरी होही, देखबोन। आज ले दारू पी के घर के भीतर कइसे खुसरहू वहू ल देखबोन। चलो तो बहिनी हो, ये मन ल धर के घर के बाहिर फेंको।

थुकलू - ( सबो नसा उतर जाथे। ) मोला छिमा कर देवव मोर माता हो। तुंहर पांव परत हंव। आज ले नइ पीयंव। ( एक ठन कागज निकाल के डाक्टर ल दे के। ) डाक्टर भइया ! येदे रिपोट ल पढ़ के बता ददा का लिखाय हे।

डाक्टर - अच्छा, तोर मुंहूं के जांच रिपोर्ट आय। ( पढ़थे ) मोर संका ह सही होइस। फेर अभी जादा बिगड़े नइ हे। सुरुआत हे। परहेज करबे। सरलग दवाई खाबे ते बिलकुल बने हो जाही। दारू, गुटखा, गुड़ाखू, बिड़ी सिगरेट सब छोड़े बर पड़ही। नइ ते केंसर ह कोई ल नइ छोंड़य। बांकी तोर मरजी। ( जुठलू कोती देख के। ) तंय काबर बिन पानी के मछरी कस तलफत हस जुठलू कका?

जुठलू -पोटा नंगत अंइठत हे ददा। परान निकले परत हे। मोला बंचा ले ददा, तोर पांव परत हंव।

डाक्टर -कका, छै महीना हो गे हे समझावत तोला। दारू पियइ म तोर पेट म अल्सर हो गे हे। लीवर घला जवाब देवत हे। ये सब ल छोंड़हू तभेच दवइ्र ह असर करही। नइ ते भगवान घला तुंहर रक्षा नइ कर सकय।

( जुठलू अउ थुकलू हाथ जोर के संघरा दरसक मन से ) हमन आज ले अपन अपन कान पकड़ के, उठक बैठक करके कसम खा के, कहत हन डाक्टर ददा। आज ले -

जुठलू - कभू दारू नइ पीयन।

थुकलू - मंजन गुड़ाखू नइ घिंसन।

जुठलू - बिड़ी-सिगरेट नइ पीयन।

थुकलू - गांजा नइ पीयन।

जुठलू - खेत-खार ल नइ बेंचन।

थुकलू - मोर रामू बेटा ह आज मोर आंखी ल उघार दिस। आज ले तिरंगा ल कभू नइ गिरन देंव। भारत माता की जय। छत्तीसगढ़ माता की जय।

डाक्टर - ( दरसक मन से )वा भइ ! ये मन अब सचमुच चेत गें तइसे लागाथे। ये कमाल तो महिला सक्ति के आय। सब झन बोलो, नारी सक्ति की जय।

ताली के मारे स्कूल गदक गे। इनाम के झड़ी लग गे। राजेस अउ वोकर संगवारी मन के सोर उड़ गे।

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13 : अम्मा, हम बोल रहा हूँ आपका बबुआ

बड़े साहब के रुतबा के का कहना। मंत्री, अधिकारी सब वोकर आगू मुड़ी नवा क,े हाथ जोड़ क़े खड़े रहिथें। वोकरे चलाय तो सरकार चलथे। वोकर भाखा, ब्रह्मा के लिखा। इंहां काकर हिम्मत हे कि वोकर विरोध कर सके। मुंह उलइया मन के का गति होथे सब जानथें। देख सुन के कोन बघवा के मुंह म मुड़ी खुसेरही?

बिहने-बिहने के बात आय। साहब अपन आदत मुताबिक बगीचा म टहलत रहय। वोकर पहला सिध्दांत आय - सुबो साम के हवा, लाख रूपिया के दवा। डेरी हाथ के हथेली म मुठा भर नस ल धर के, जेवनी हाथ के डुड़ी अंगठी म घिसिर-घिसिर घीसत, जगा जगा पिच पिच थूकत, ये गली ले वो गली धूमत रहय। दस एकड़ के प्लाट म बीचोें बीच हे आलीसान बंगला अउ वोकर चारों मुड़ा हे बाग-बगीचा। बाग म नाना प्रकार के, फूल वाला, फल वाला, सोभादार, छायादार पेड़ पौधा लगे हें। साग-भाजी के डोहरी घला बने हें। पानी पलोय बर जगा-जगा फव्वारा लगे हे, जउन ह बाग के सुंदरता ल अउ बढ़ा दे हे।

जम्मो नौकर चाकर मन अपन अपन काम म मरो-जियो भिड़े रहंय। निंदइया मन नींदत रहंय। पानी पलइया मन पानी के पाइप ल एती ले ओती घुमावत रहंय। पेड़ पौधा मन के काट छांट करइया मन घला अपन काम म मस्त रहंय। कांदी लुवइया मन बोझा बोझा कांदी गउसाला डहर डोहारत रहंय जिहां गाय-भंइसी मन बंधाय रहंय। दुहइया मन दुहे म मगन रहंय।

बड़े साहब ह एक एक ठन पेंड़ अउ एक एक झन कमइया मन के जांच परख करत अउ नस के पीक ल थूंकत रामअधीर डहर मुड़क गे। बड़े साहब ल अपन कोती आवत देख के रामअधीर ह सावचेत हो गे। पचास-पचपन के उमर म घला पचीस-तीस के जवान मन ल चुटकी बजात उड़ा देही, अइसन रामअधीर के सरीर रहय। बाग बगीचा के पुरखउती काम करत अउ ताजा फल फूल के सेवन करत वोकर जिंदगी बीतत हे। पेड़ पौधा के एक ठन पाना ल देख के वोकर तासीर समझइया रामअधीर ह मनखे के घला चाल ढ़ाल देख के वोकर मन के बात ल भांप जाथे। बड़े साहब ल अपन कोती आवत देख के वो जान गे कि साहब के मन आज तनिक खिन्न हे। बड़े साहब के बरन ल देख के कोनो लोकल आदमी होतिस ते कांप जातिस। फेर रामअधीर तो साहब के मुंहलगा देसी आदमी रहय। साहब ह खुदे वोला ये बाग के देख रेख करे बर बिसेस रूप से देस ले लाय हे, वो काबर कांपे? दुरिहच ले दुनों हांथ जोर के साहब के पैलगी करिस - ''पालागंव मालिक।''

बड़े साहब आसीस दिस - ''खुस रहा।'' तनिक ठहर के फेर कहिथे - ''का रे रामअधीरवा, एही खातिर हम तुंहला इहां लाय हन? हम तुंहला पहिलिच चेताय रेहेन कि ये साला लोकल जिनिसवा अउ लोकल आदमी से हमला बहुतेच नफरत होत है। भूल गवा का? ये देखव, ये...ये....ये साला लोकल पेड़ पौधा कहां से उगत है? इन्हें काहे उगन देत हौ ? बुड़बक कहीं के। उखाड़ फेंका इन सबको ससुरा। इन्हें उखाड़ नहीं फेंकोगे तो अपन देसी पेढ़ पौधा कहां रोपोगे? काहे इतनी सी बात तुंहर खोपड़ी म नाहीं घुंसत है ? हम कहे देता हूं , इस बगीचवा म एक ठो पाना भी साला लोकलवा नहीं होने का।''

अब तो रामअधीर घला कांप गे। कहिथे - ''आइन्दा अइसन गलती अउर न होइ हुजूर, माफी देवा।''

बड़े साहब - ''लगता है निराई-गुड़ाई खातिर आदमी कम पड़त हैं। कल ही देस से अम्मा का फोनवा आया था कि उंहां साला दो चार छोकरवा हैं। बड़ काम के हैं। कोनों ने एक दू मरडरवा किया है, कोनों ने छोटी मोटी डकैती किया है तो कोनों ने साला दू चार रैप वैप किया है। पोलीटिकल परेसर पड़ी होगी। पोलिस सता रही है। हमने भी अम्मा से कह दिया हूं कि बेचारे कहां चंबल वंबल की खाक छानते फिरते रहेंगे। उन सब को इंहां भेज दो। इहां बहुत बड़ा बगीचा है। समझो चारागाह है। निराई-गुड़ाई के बहाने कोनों कोन्टा म लुकाय रहेंगे। इंहा साला ककरो हिम्मत जउन उन्हें पहिचान सके। फेर रामअधीरवा के रहते का चिंता ?''

साहब के देस प्रेम अउ अपन बड़ाई सुन के रामअधीर गदगद हो गे।

विही जगा मंगलू राम ह निंदत रहय। बड़े साहब के बात सुन के वोकर तन बदन म आगी लग गे। मने मन कहिथे - ''साले हरामी के पिला हमर राज म आ के हमरे ऊपर राज करत हस अउ हमी मन ल लोकल कहि के दुत्कारत हस। '' वोला बीर नारायन सिंह के सुरता आ गे, जउन ह अंगरेज मन संग लड़त लड़त अपन परान निछावर कर देय रिहिस हे। लहू पिये म ये मन अंगरेज मन ले कम हे क? वो ह मने मन बुढ़ा देव ल सुमरिस। सहीद बीर नारायन सिंह ल सुमरिस। वोकर तन बदन म आगी लगे रहय। गुस्सा के मारे एक ठो पेड़ ल, जउन ल बड़े साहब ह गजब प्रेम करय अउ जउन ल बिसेस रूप ले देस ले मंगा के लगाय रहय, उखाने लगिस। जोर लगा के ताकत लगाइस फेर वोकर उद नइ जलिस। हालिस तको नहीं। उल्टा एक ठो बड़े जबर कांटा वोकर हथेली म गोभा गे। दरद के मारे मंगलू राम के परान निकल गे। वोला समझ आ गे कि इंखर जड़ इंहां कतका गहिरी तक रोपाय हे। वोकर मुंह करुवा गे। मन के घिन ह थूक बन के वोकर मुंह म सकला गे। सब ल वो ह विही पेड़ के ऊपर पचाक ले थूंक दिस अउ अपन काम म लग गे।

मंगलू राम ह बड़े साहब संग गोठियाय म भुलाय रहय तभो ले वोला जना गे कि मंगलू राम ह कुछू न कुछू गड़बड़ी जरूर करत हे। वो ह मंगलू ल धमकाथे - ''का बे मंगलू , तुंहार चरबी जादा हो गइल का? फेर बड़े साहब कोती ध्यान लगा के कहिथे - ''हम सब समझ गया हूं मालिक। कोनों फिकर की बात नाही। हमार देस के बिचारा बिटवा मन के दुख हमार से सुने नाही जावत। वो मन ल तुरते बुलवा लेवा हजूर।''

वोतकी बेर लहकत लहकत दुनों हाथ म मोबाइल धरे सिंग साहब आ गे। ये ह बडे साहब के बड़े पी. ए. आय। बड़े साहब ह कहिथे - ''का हो सिंग साहब, किस बात की उतावली हो रही है?''

सिंग साहब - ''मंत्री जी का फोन है सर।''

बड़े साहब - ''मंत्री हैं तो का हगने मुतने भी नहीं देंगे। कह दो, साहब टायलट में हैं। और हां, पुलिस वाले बड़े साहब से जरा बात तो कराओ।''

पुलिस वाले बड़े साहब के फोन लगते सात सिंग साहब ह फोन ल बड़े साहब ल दे दिस।

वोती ले अवाज आइस -''गुड मॅारनिंग सर।''

- ''गुड मारनंिग। बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि सुबह मां बाप के दरसन करे से दिन अच्छा बीतता है। अब इहां हमार माई बाप तो आप ही हैं।''

- ''अच्छा मजाक कर लेते हैं।''

- ''मजाक नहीं, धरम की बात कह रहे हैं। हमार खातिर भी तो समय निकाल लिया करो।''

- ''क्या आदेश है बोलिये न?''

- ''आदेस देने की हमर औकात है का ? भइ छोटा सा रिक्वेस्ट जरूर है। फुरसत हो तो आज डिनर हमारे साथ ही कर लीजियेगा। ......हां हां..... अरे जादा लोगों का मजमा थोरे न लगाएंगे। रेल साहब होंगे अउ कारखाना साहब होंगे बस।....अरे नहीं नही। लोकल लोगों को बुलाकर रंग में भंग थोरे न डालेंगे। और सुनो, इंहां बंगले में जितने लोकल रंगरूट तैनात करवाए हो न, उन सब सालों को हटवाकर अपन देसी रंगरूट तैनात करवा देना। लोकल लोगों से हमें बेहद घिन आती है। और फिर दीवारों के भी तो कान होते हैं न? दावत बहुत खास है। रिस्क बिलकुल भी नहीं लेने का। समझ गए?''

रात के दस बज गे रहय। बंगला के चारों खूंट बड़े-बड़े टावर मन म बड़े-बड़े लाइट लगे रहंय जेकर अंजोर म बंगला उबुक-चुबुक होवत रहय। बंगला के चारों मुंड़ा अउ छत म चार चार कदम म मशीनगन धारी कमांडो पहरा देत रहंय। एक झन कमांडो ह अपन नजदीक वाले दूसर कमांडो ल कहिथे - ''यादो जी, निकालव हो तनिक खैनी। बड़ी तलब लगी है।''

यादव जी - ''सरमा जी ठीके कहत हव। खैनी को चेतन्न चूर्न ऐसेइ नहीे न कहत हैं। ओंठ म दबातेइ दिमाग की बत्ती जल जात है।''

ओंठ अउ दांत के बीच म खैनी ल दबा के सरमा जी ह यादव जी ल कहिथे -''देखत हौ यादो जी बड़े साहब के रुतबा। अइसन रुतबा तो हमर देस म हमार मुख्य मंत्री के भी नहीं होगी।''

यादव जी - ''भइया, अपन काम म लगे रहो। उन्हीं की कृपा से तो हम तुम इहां मौज करत हैं।'' खैनी ल चगला के अउ पीक मार के यादव जी ह फेर कहिथे -''कोई खास मीटिंग लग रहा है। परताप साहब, बहादुर साहब अउर पहलवान साहब की गाड़ी अब तक बाहर नहीं आई।''

सरमा जी - ''अब चुपौ भइया दीवारों के भी कान होत है।''

फेर बंगला के चारों मुड़ा सन्नाटा पसर गे।

गजब रात ले दावत चलिस। दावत म का खिचड़ी पकिस होही , भला कोन जाने? सरकार ल हवा नइ लगिस, मंगलू राम के का गिनती।

मंगलू राम अप्पड़, बनिहार आदमी तो आय, न बोले बर आय न बतियाय बर। अपन रद्दा ले रद्दा। रात दिन बइला-भंइसा मन सरीख कमाय के सिवा वोला अउ का आथे? फेर वोला अपन आप के अउ अपन दू करोड़ भाई मन के अपमान सहन नइ होय। बड़े साहब ह जब इनला लोकल आदमी कहि के मजाक उड़ाथे, हिनमान करथे, तब वोकर तन मन म आगी बर जाथे। एड़ी के रिस ह तरुवा म चढ़ जाथे। हमरे कंवरा ल नंगा-नंगा के खाथें हरामी मन अउ हमरे हिनमान करथें। थू.....। पाप के घड़ा एक दिन जरूर भरही, बूढ़ा देव सहाइ हे।

दू चार दिन बीते पाछू गजट म एक ठन खबर छपिस। जगा जगा वोकरे गोठ होवत रहय। मंगलू राम घला सुनिस।

''पुलिस में भरती होने आए बाहरी लोगों को सर्किट हाउस में ठहराया गया।'' लोग बाग यहू गोठियावत रहंय कि, ''पुलिस भरती म लोकल उम्मीदवार मन के कोई माइ्र बाप नइ हे।''

दू चार दिन पीछू गजट म भरती होवइया मन के नाम घला छप गे। पढ़इया मन एकेच गोठ करत रहंय - ''सर्किट हाउस वालों का ही बोल बाला है भइया, लोकल लोगों को कौन पूछेगा।''

मंगलू राम ल किसन, जगत, लखन अउ फकीर के सुरता आ गे। सब वोकरे गांव के टुरा आवंय। कोनों मेटरिक पढे हे, त कोनो कालेज पढ़ के सरकारी नउकारी के आस लगाय बइठे हे। किसन ल तो पांच साल हो गे हे। तियारी म भिड़े हे। रोज पहाती दौड़ लगाथे, दंड बैठक करथे। ऊंच पूर हट्टा कट्टा जवान हे। हर साल अर्जी लगाथे। आज ले हवा नइ लगिस। कतको संगवारी मन के तो आज ले निवास प्रमाण पत्र तक नइ बन पाय हे। दफतर के चक्कर कांट-कांट के हदास हो गे हें। देसी मन के ह रातों रात बन जाथे। कइसे होत होही?

एक दिन किसन ह मंगलू तीर आय रिहिस। केहे रिहिस - ''कका ! तंय तो बड़े साहब के बंगला म काम करथस ग। सिफारिस कर देतेस ते मोर जिन्दगी बन जातिस। पइसा वइसा के बेवस्था कर डारे हंव। मरत ले तोर नांव लेतेंव।''

मंगलू राम ह केहे रिहिस हे - ''किसन, तंय अपन आप ऊपर बिसवास रख बेटा। तोर म का कमी हे? हमर पढ़े-लिखे अउ जवान मन म का कमी हे? मोला बूढ़ा देव ऊपर बिसवास हे बेटा, ये बखत तोर नउकरी लग के रहही। अउ एकरे सेती तो हमर अलग राज बने हे। हमर राज म हमरे सुनइ नइ होही त हम अउ कहां जाबो जी? करम नइ फूट जाही?''

किसन केहे रिहिस - ''तंय नइ जानस कका। आज बूढ़ा देव के जगा ल घला इही बड़े साहब मन पोगरा डरे हें। इंखर कृपा बिना कुछ नइ हो सकय।''

मंगलू राम तरमरा गे रिहिस - ''तंय ये भेट्ठा चोरहा मन ल बूढ़ा देव के जगा म झन बिठा बेटा। मोला कहिथस सिफारिस करे बर त सुन ले, घर म लिंगोटी छोड़ के अउ लोटा धर के अवइया इन नंगरा मन के आगू मंय हाथ नइ जोंड़व। बेटा, मोला माफी देबे।''

आज वोला एकरे सुरता आ गे। मंगलू राम ह तुरते एक ठन गजट खरीद के ले आथे। एक झन पढ़े-लिखे आदमी तीर जा के कहिथे - ''बेटा, आज पुलिस म भरती होवइया मन के नांव छपे हे कहिथें। पढ़ के बता तो, एमा किसन, जगत, लखन अउ फकीर के नांव छपे हे कि नहीं।''

आदमी - ''ये मन कोन ए कका?''

मंगलू राम - ''हमर गांव के आवंय बेटा, नता म भतीजा लगथें।''

आदमी - ''एमा सिरिफ सर्किट हाउस वाले मन के नाम छपे हे कका। हमर तुंहर गांव के कोनों अकीर फकीर के नाम नइ छपे हे। समझे?''

मंगलू राम - ''समझ गेंव बेटा, समझ गेंव। अरे मंय तो कब के समझ गे हंव जी, फेर कोन जाने तुमन कब समझहू ते?''

अतेक बड़ अन्याय हो गे फेर न तो किसन के पेट म पिरा होइस न लखन-फकीर के। न कहीं आंदोलन होइस, न कहीं प्रदर्सन होइस।

थोकुन दिन बीतिस। एक ठन खबर फेर उड़िस - ''रेलवे के जिन पदों पर लोकल उम्मीदवारों का हक था, उन पदों पर भी बाहरी उम्मीदवारों की भरती की गई।''

इही हालत कारखाना के हे। इंहां के एको झन आदमी के भरती नइ होवत हे तभो ले उहां के कर्मचारी मन के संख्या रोजे बाढ़त जात हे। लोग बाग तरी तरी गोठियावत रहंय - ''भइया, कौन क्या कर सकता है? ये सारा खेल तो सीधे ऊपर से हो रहा है। ''मंगलू राम सोंचथे - ''ये मन भगवान घर ले भरती हो हो के आवत होहीं क?'' गुस्सा के मारे वो ह कांपे लगिस।

एक दिन मंगलू राम ह बगीचा म कमावत रहय। अपन आदत मुताबिक बड़े साहब ह मारनिंग वाक बर निकले रहय। नस के पीक ल थूंकिस अउ मोबाइल म गोठियाय के सुरू करिस - ''हां......अम्मा! हम बोल रहा हूं, आपका बबुआ, परनाम।''

- ''खुस रहा बेटा, जुग-जुग जिया। इत्ती सुबो-सुबो काहे फोन किया है रे बबुआ?''

- ''अम्मा, बस आसीरबाद लिये खातिर। तुहांर तबीयत ठीक है कि नाहीं। हमको इंहां बड़ी फिकर रहती है। अउ सुनौ, तुंहार खातिर हम ए. सी. वाली नई कार भिजवा रहा हूं। बंगले की ए. सी. तो चालू हो गई हागी न?''

- ''बबुआ, तुंहर परताप से इंहां सब ठीक-ठाक है बचुआ। अब का कहें बिटवा। हम तुमको न जाने का समझत रेहेन, अउ तुम का निकलेव। पर बबुआ, एक बात बतावा बचुआ। इंहां के हजारों निठल्लू लोगन का तुम उंहां नौकरी लगात हौ। उंहां ले जब तब लाखों करोड़ों रूपिया इंहां भेजत रहत हौ। उहां कोई बोलने टोकने वाला नहीं है का ? हमको बड़ी फिकर होती है।''

- ''अरे ! अम्मा, फोकट चिंता न किया करा। इंहां के लोग बड़े भोले-भाले , सीधे-सादे अउ सच कहें अम्मा तो बड़े बेवकूफ किस्म के होत हैं। अउ अम्मा, इंहां चारों कोती हमी हम तो हैं। ये बेचारे करें भी तो आखिर का करें? बेफिकर रहा करो अम्मा।''

- ''सच बबुआ ! ऊंहां के लोग का इतने सीधे, इतने बेवकूफ होत हैं? यकीन नहीं होता बचुआ कि आज की दुनिया में भी कोई इतना बेवकूफ लोग रहत होहीं। वो दुनिया कइसन होही, कभू हमका भी दिखावा बिटवा, बड़ा मजा आइ। पर बबुआ हमरी भी एक बात सुना। अतेक बेखयाली ठीक नहीं है। जरा सावधान रहा कर।''

- ''ठीक है अम्मा, परनाम।''

मंगलू राम ह साहब के जम्मों गोठ ल सुनत रहय। वोकर तन बदन म आगी लग गे। वो ह साहब के विही सुंदर अकन देसी पेंड़ तीर, जेकर बड़े जबर कांटा वोकर हांथ म गड़े रहय, अउ जउन ल साहब ह बिसेस रूप ले देस ले मंगा के लगाय रहय, क्यांरी मन के गोड़ाई करत रहय। विही तीर डारा मन के कांट-छांट करे बर एक ठन टंगिया परे रहय। टंगिया ल झपट के उठाइस। मने मन बूढ़ा देव ल सुमरिस, बीर नारायन सिंह के जय बोलाइस, मुंड़ी ले ऊपर उचाइस अउ विही देसी पेड़ के मरुउा अतेक मोठ पेंड़उरा म कचार दिस। कच ले अवाज आइस अउ एके घांव म वो पेंड़ ह हरहरा के गिर गे।

बड़े साहब ह मंगलू राम ल घुड़कथे - ''अबे मंगलू, क्या कर डाला? साला मेरे सबसे प्रिय पेंड़ को कांट दिया। ठहर जा, हरामखोर।''

मंगलू राम कुछ नइ बोलिस। टंगिया ल खांद म टांग के बरनिर बरनिर करत बड़े साहब कोती आइस। मंगलू राम के अइसन बानी बरन ल देख के साहब कांप गे। अम्मा अभी जउन चेताय रिहिस, वोकरे सुरता आ गे। डर के मारे सुटुर-सुटुर बंगला म जा के खुसर गे।

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14 : मरहा राम के जीव

रात के बारा बजे रहय। घर के जम्मों झन नींद म अचेत परे रहंय। मंय कहानी लिखे बर बइठे रेहेंव। का लिखंव, सूझत नइ रहय। विही समय बिजली गोल हो गिस। खोली म कुलुप अंधियारी छा गे। बिजली वाले मन बर बड़ गुस्सा आइस। टेबल ऊपर माथा पटक के सोंचे लगेंव। तभे अचरज हो गे। मोला लगिस कि बिजली आ गे हे। खोली ह सीतल दुघिया रोसनी से भर गे। मुड़ी उचा के आंखी खोले के प्रयास करेंव फेर आंखी काबर खुलय? चउंधियाय कस हो गे। मन म डर समाय लगिस फेर विही समय मंदरस कस मीठ बोली सुन के मन आनंद से भर गे। कोई कहत रहय - ''वत्स ! तोर मन के व्याकुलता ल मंय भलीभांति जानत हंव। तंय चाहे जइसन हस, मोला बड़ प्रिय हस। तोर उद्देस्य मोरे इच्छा ले प्रेरित हे विही कारन आज मंय तोर मदद करत हंव। जब तोर आंखी खुलही तब जउन जउन बात ल तंय सोंचत रेहेस फेर लिख नइ सकत रेहेस वो सब बात तोला तोर कापी म कहानी के रूप म लिखे लिखाय मिल जाही। ये ह वो कथा आय जउन ल मंय आज तक गुप्त रखे रेहेंव। फेर ये देस के जनता के दुर्दसा देख के एला प्रगट करे बर मंय विवस हो गे हंव। वत्स ! जउन ह ये कथा ल पढ़हीं-सुनहीं अउ तदनुसार आचरन करहीं, वोला जीवन म अपार सुख संपत्ति मिलही अउ स्वर्ग के प्राप्ति होही।''

आंखी खुलिस त टेबल लेंप ह बरत रहय अउ वोकर खाल्हे, कापी म जउन कहानी ह लिखाय माड़े रहय वो जस के तस एदे हरे।

सबले पहिली खोजी चैनल म न्यूज आइस - ''भूख से मौत। आदमी की भूख से मौत। मरहा राम की भूख से मौत। भोलापुर गांव में एक आदमी की भूख से मौत।''

समाचार वाचक ह भीतर ले इहिच समाचार ल जोरदार स्टाइल म रहि रहि के दुहरावत रहय। चित्र म एक झन मोटियारी, जउन ह आधा सिसी रहय अउ एक झन डोकरी जउन पचासे साल के उमर म बुढ़ा गे रहय, लास तीर बइठ के कलप कलप के रोवत रहंय। डोकरी कहत रहय - ''मंय का करो बेटा..... एक कप चहा घला तोला नइ मिलिस रे। अंहा.......'' खाले समाचार के पट्टी चलत रहय जउन म एकेच ठन समाचार लिखाय रहय। ''भूख से मौत..........।''

देखते देखत जम्मों चैनल मन म इहिच समाचार सरलग आय लगिस।

मुख्यमंत्री अउ गृहमंत्री के टेलीफोन घनघनाय लगिस। एस.पी. अउ कलेक्टर के होस गायब हो गे। पक्ष विपक्ष के छोटे बड़े नेता अउ कार्यकर्ता, मानव अधिकार के मंतर पढ़इयां, पत्रकार अउ कलेक्टर, एस. पी. सब भोलापुर गांव डहर दंउड़े लगिन। सत्ता पक्ष वाले दिल्ली तक के नेता चिंता के दलदल म डूब गें। विपक्ष वाले मन के भाग खुल गे।

भोलापुर गांव राजमार्ग के किनारे बसे हे। डेढ़ दू हजार के आबादी होही। सहर नजीक हे। इंहा के मालगुजार मन के माल ह तो तइहा के सिरा गे हे, अब ले दे के गुजारा होवत हे। आठ दस एकड़ ले जादा के जोतदार अब इहां एको नइ हे।

पइसा के लालच कहव कि पइसा वाले मन के दबदबा, सड़क तीर तीर के जम्मों जमीन किसान मन के हाथ ले निकल गे हें। अब कोनों खेत म राइस मिल खड़ा हो गे हे, कोनों म बड़े बड़े कारखाना बन गे हे, कोेनों म कालेज त कोनों म कालोनी आबाद हो गे हे।

गांव ले फर्लांग भर दुरिहा म एक ठन बड़ भारी कारखाना बनत रहय। का के कारखाना बनही तेला कोनों नइ जानंय। जे ठन मुंह ते ठन गोठ। कोनो कहय लोहा के कारखाना बनही, कोनो कहय कागद के कारखाना बनही त कोनो कहय दारू के कारखना बनही।

एकरे ले लग के मरहा राम के एक ठन खेत रहय। एक एकड़ के मालिक मरहा राम। जथा नाम तथा गुन। तन मन धन, सब प्रकार ले मरहच तो आय। कारखाना वाले मन वोला कतको लालच दिन, डराइन धमकाइन फेर मरहा राम ह अपन खेत ल नइ बेंचिस। अब कारखाना वाले मन दूसर उदिम करे के सुरू करे रहंय। सरासर नंगरइ अउ गुंडागिरी म उतर गे रहंय। मरहा राम के खेत ह अब गिट्टी मुरुम ले पटा गे। बड़े बड़े टरक खड़ा होय के सुरू हो गे।

मरहा राम के खेत ह कारखाना वाले मन के आंखी के किरचा बन गे रहय। एकर बिना कारखाना के नक्सा बनतेच नइ रहय।

कारखाना के मालिक ल न गांव वाले मन, न अतराब के मन, कोनों नइ चिन्हंय। ये कोती के वो रहवइया नो हे। दूसर डहर ले आ के कारखाना लगावत रहय। फेर नाम वोकर परसिध्द हो गे रहय; जोगेन्दर सेठ। अब का पता कि ये वोकर असली नांव आय कि नकली?

कारखाना के जम्मों कमइया मन तको विही डहर ले आय रहंय। एको झन छत्तीसगढ़िया नइ रहंय। गांव म आतिन, बजार हाट जातिन, नदिया तरिया जातिन, जोत्था के जोत्था, छुरी चाकू धर के। न तो गांव के दाई-बहिनी के इज्जत करंय न कोनों ल घेपंय। बात बात म मारपीट म उतर जावंय। गाना गावंय - ''इहां के मरदवा कमजोर ब, अउरतिया सजोर ब।''

बात सोला आना सच घला रहय। गांव के कोनो तो वो मन ल रोकतिन-टोंकतिन।

भगवान जाने आज का होइस ते। बिहिनिया मरहा राम ह रापा झंउंहा धर के खेत जाय बर निकले रिहिस। अब खेत के मेंड़ म कउहा रुख तरी वोकर लास चित परे रहय। वोकर बेवा दाई अउ वोकर आधासिसी घरवाली, लास तीर बइठ के कलप कलप के रोवत रहंय। वोकरे सीन टी. वी. मन म आवत रहय।

गांव म मुर्दानी छाय रहय। बैसाख जेठ के महीना। दिन के एक डेढ़ बजे होही। डर के मारे सब अपन अपन घर म ताला-बेड़ी लगा के खुसर गे रहंय। गली म बांड़ी बछरू के तको आरो नइ मिलत रहय। कुकुर मन जरूर अजीब अजीब अवाज म कुंकवात रहंय। मरहा राम के दाई अउ बाई के पाट दबइया, आंसू पोछंया कोनो नइ आइन।

रोवइ, गवइ अउ नचइ के एके हाल। सुनइया-देखइया नइ हे त नचइया ह कतिक देर ले नाचही अउ रोवइया ह कतिक देर ले रोही?

डोकरी सोंचथे - ''हे भगवान! ये गांव के आदमी मन ल का हो गे हे। अतेक डरपोक अउ कायर कइसे हो गे हें। जम्मों झन चूरी पहिन के घर म काबर खुसर गे हें। ये दुनिया अउ ये गांव म तंय हमर बर एको झन इन्सान नइ बनाय हस?'' वोकर दुख ह अब क्रोध अउ घृणा म बदल गे। दुख जब मर्यादा लांघ जाथे तब वोकरे ले हिम्मत उपजथे। डोकरी दाई के मन म क्रोध के ज्वालामुखी फूटे लगिस। वो ह बेटा के हत्यारा मन ल जी भर के कोसे लगिस।

कारखाना के कमइया परदेसिया टुरा मन वोती डोकरी के मजाक उड़ात रहंय। एक झन टुरा ह अपन संगवारी ल कहिथे - ''देखा अवध बिहारी बाबू , इहां के मरद वाकई कमजोर ब। पर ये डोकरी को देखा, इहां के अउरतिया मन कतेक सजोर ब।''

अवध बिहारी - ''सच कहत हव रामपियारे भइया। इंखर आंसू पोछइया इंखर गांव म तो एको नहीं हैं। चला हमी मन इंखर सहारा बन जाई।''

चार पांच झन टुरा मन आ के उंखर चारों मुंड़ा खड़े हो गें। डोकरी ल लगिस, यम दूत मन आ के खड़े हो गे हें। उंखर मन के भीतर के पिसाच उंखर आंखी म झांकत रहय।

राम पियारे - ''ऐ बुढ़िया, तोहरे गांव वाले साले सब नामरदवा बा। पर तू फिकर न कर। हम सब मरदवा हैं न तुंहार मददवा खातिर।''

अवध बिहारी - ''ऐ डोकरी तुंहार बिटवा मर गइल, पर तुंहार बहुरिया हमार रहत रांड़ न होई। हम सब हैं न। अब हमीं को अपन बिटवा समझो। हो...हो....।''

अवध बिहारी संग जम्मों झन हो....हो... करके हांसे लगिन। एक झन ह तो बहु के मरुवा तक ल धर लिस।

दाई रणचंडी बन गे। कछोरा भिरिस अउ टंगिया उबा के दंउड़िस। ''खबरदार,मोर बेटी के मरुवा धरइया रोगहा राक्षत हो। बेटा के परान ल तो लेइच लेय हो अब, इज्जत घला लेना चाहत हो। गोंदी-गोंदी कांट के कुकुर कंउवा मन ल नइ खवा देहूं ते मंहू अपन बाप के बेटी नहीं।''

परदेसिया टुरा मन सुकुड़दुम हो गे। चोर के कतका बल। सब अपन अपन परान बचा के भागिन।

वोतका बेर पीं.... पों...करत गजब अकन कार आइस अउ सड़क म खड़े हो गें। दाई ह जकही-भुतही कस टंगिया ल घुमातेच रहय, गरजतेच रहय।

कलेक्टर अउ एस. पी. दुनोें झन उतर के चारों मुड़ा के मुआयना करिन। बड़ा चकरित खा गें। सोंचे रिहिन, घटना स्थल म हजारों आदमी के मजमा लगे होही। बड़ा उग्र धरना प्रदर्सन अउ नारा बाजी होवत होही। पब्लिक ह तोड़-फोड़ करत होही। पचासों पत्रकार मन सवाल पूछ-पूछ के जीना हराम कर दिहीं। फेर अइसन कुछू नइ होवत रहय। दुनों झन के जीव हाय किहिस। अब तो दुनों झन एकदम बेफिकर हो के गपियाय लगिन।

एस. पी. ह कलेक्टर के संसो ल देख के कहिथे - ''अरे डोन्ट वरी सा'ब, हमार रहते कोनों चिंता करने का नाही। एकाध टाइम खाना नहीं मिला होगा, मर गया साला। साले छत्तीसगढ़ियों में दम ही कितना होता है?हमार देस म तो लोगों को कई कई दिन खाना नहीं मिलता, तब भी कोई नहीं मरता। वइसन दमदारी इंहा के भुक्खड़ों में कहां?''

कलेक्टर - ''मिस्टर सिंग, डोन्ट जोकिंग यार, बी सीरियस। कुर्सी कैसे बचेगी इसकी सोंचो। पत्रकारों को, सरकार और जनता को क्या जवाब दोगे, ये सोंचो।''

- ''अरे, कहना क्या? कह देंगे, बहुत दिनों से बीमार था, मर गया।''

- ''नो........।''

- ''हार्ट फेल का मामला भी तो हो सकता है?''

- ''और सोंचो......।''

- ''जादा दारू पी के मर गया होगा साला।''

-'' व्हाट अ सिली आइडिया। और सोंचो यार।

- ''सन स्ट्रोक से मार दें तो क्या हर्ज है?''

- ''गुड! व्हेरी गुड आइडिया। यह भूख से नहीं, सन स्ट्रोक, लू लगने से मरा है। ऑल राइट।''

अब दुनों झन घटना स्थल कोती दंउड़िन। दू चार झन पुलिस वाले मन पहिलिच अगवा गे रहंय। पुलिस ल आवत देख के गांव के कोतवाल, जेकर अब तक कोई अता पता नइ रिहिस, सरकारी ड्रेस लगा के अउ छ फुट के सरकारी ठेंगा ल पटकत हाजिर हो गे।

अपन पार्टी वाले नेता मन ल आवत देख के सरपंच घला महुआ टपके कस टपक गे।

पुलिस अपन काम म भिड़ गें।

मरहा राम के आत्मा ह विही करा लदलद लदलद कांपत खड़े रहय। यम दूत ल देख के अउ जोर से कांपे लगिस। घिघ्घी बंधा गे रहय। हाथ जोड़ के लटपट किहिस - ''मोला अउ झन मार ददा, तोर हांथ जोरत हंव, पांव परत हंव। आज ले खेत के नाम नइ लेवंव।''

यम दूत चकरित खा गे। कहिथे - ''तंय अतेक काबर कांपत हस रे मरहा राम के जीव। बैसाख जेठ के गरमी म तोला अग्घन पूस के कंपकंपी काबर छूटत हे? चल तोला लेगे बर आय हंव।''

- ''अंय, तंय कोन अस ददा?''

- ''यम दूत आवंव। नाम नइ सुने हस क?''

- ''सेठ के गुंडा मन सरीख दिखत हस महराज, विही पाय के डर्रा गे रेहेंव।''

- ''यहा का डर आय रे? आत्मा ल परमात्मा के अंस माने जाथे। निर्विकार माने जाथे। फेर तोर लदलदइ ल देख के मंय संका म पड़ गेंव।''

- ''का करबोन महराज। चारों मुड़ा ले आ आ के परदेसिया मन हमला चपकत जावत हें। उंखर गुंडागिरी म हमर आत्मा तको लदलदा गे हे।''

- ''जउन कहना हे, विहिंचे जा के कहिबे। चल जल्दी।''

यम दूत ह मरहा राम के जीव के मुस्की बंधना बांध के यम लोक डहर रवाना हो गे। रस्ता भर मरहाराम के कंपकंपी चलतेच रहय। रस्ता म वैतरणी मिलिस न भवसागर। वोला पेटला महराज के परवचन के सुरता आ गे। यम दूत ल पूछथे - ''कस महराज, भवसागर अभी कतका दुरिहा हे?।

- ''भवसागर? अरे मूरख जीव! जिहां ले तंय आवत हस, विही तो भवसागर आय। इहां अउ कहां के मिलही?''

- ''अउ बैतरणी कब आही? मंय तो गउ दान घला नइ कर सकेंव महराज। काकर पूछी ल धर के नहंकहूं?''

- ''बैतरणी म तो तंय पहिलिच डूब चुके हस रे जीव। आदमी के जीवन हर तो बैतरण्ी आय। येला नहके बर गउ के पूछी के नहीं, हिम्मत, साहस अउ उत्साह के जरूरत परथे। तोर तीर तो कुछू नइ हे। कइसे पार नहकतेस? ये डहर कोनो बैतरणी नइ होवय।''

मरहा राम चकरित खा के कहिथे - ''यहा का कहिथस महराज। तब हमार गांव के पेटला महराज ह लबारी कहिथे क?''

- ''कोनों महराज मन लबारी नइ कहंय। तुंहर समझ म फेर रहिथे। सब होथय, फेर ये डहर नइ होवय। सब विहिंचेच, होथे ; धरती म।''

अइसने गोठ बात करत दुनों झन यमलोक पहुंच गिन। गोठ बात म मरहा राम के कंपइ कम हो गे रहय, यमराज ल देखतेच फेर चालू हो गे।

यमराज ह दूत ल पूछिस - ''दूत! ये ह कोन ए। कोनो छत्तीसगढ़िया तो नो हे ?डर के मारे लदलद लदलद कांपत हे। जल्दी येकर खाता बही खोल के बतावव तो।''

चित्रगुप्त ह लकर-धकर खाता बही खोल के देखिस। पढ़ के सुनाइस - ''नाम -मरहा राम, आत्मज -घुरवा राम, ग्राम - भोलापुर, छत्तीसगढ़.....।''

यमराज - ''बस बस बंद कर। एकर फैसला इहां नइ हो सकय। भगवान ह कालिच एक ठन आदेस निकाले हे। छत्तीसगढ़िया मन के नियाव आज ले विही करही। येला विहिंचे लेगव।''

मरहा राम ह यमराज के बात सुन के खुस हो गे। वोला पेटला महराज के परवचन के सुरता फेर आ गे कि भगवान के दरसन करइया मन सोज्झे सरग जाथें।

दूत ह मरहा राम ल भगवान के दरबार म पेस करिस। मरहा राम के हालत देख के भगवान ल हंसी आ गे। हांसत हांसत कहिथे - ''हरे! हरे! मरहा राम कोनों परदेसिया नो हे, छत्तीसगढ़िया आय। छत्तीसगढ़िया मन ल न हड़बड़ाय बर आय, न छटपटाय बर आय। न चालाकी आय, न हुसियारी आय। न लंदी होवंय, न फंदी होवंय। इंखर मेर न बुध्दिबल हे न बाहुबल। तब येला काबर अतेक मुस्की बंधना बांध के लाय हो। छोरो सब ल।''

मरहा राम मने मन सोंचथे -''हे प्रभु! एकरे सेती तोर नाम दीनबंधु हे।''

मरहा राम के खाता बही खेले गिस। नाम - मरहा राम, आत्मज - घुरुवा राम, गांव - भोलापुर, छत्तीसगढ़, मौत के कारण - भूख।''

मौत के कारण सुन के भगवान अकबका गे। माथा गरम हो गे। डपट के कहिथे - ''का बोलेस? ये ह भूख म मर के आय हे? वाह रे निकम्मा छत्तीसगढ़िया हो, जीयत भर भूख मरथो ते मरथो, परान घला भूख म त्यागथो? सृष्टि म मंय ह चांटी मिरगा ले लेके हाथी तक चौरासी लाख जोनी के रचना करे हंव। सब झन के खाय पिये के बेवस्था करे हंव। कोनो प्राणी भूख म नइ मरंय, आदमी छोड़ के। वहू म छत्तीसगढ़िया सबले जादा। हत्त रे अभागा हो, मंय तो आदमी जोनी बना के खुस होवत रेहेंव कि सबले श्रेष्ठ जोनी के रचना करे हंव, फेर तुंहर जइसन आदमी ल देख के सोंच म पड़ गे हंव कि कहीं सबले निकृष्ट आदमीच तो नइ हे? अरे! तुंहर छत्तीसगढ़ म तुहांर खातिर मंय का नइ बनाय हंव। धन-धान्य ले भरेंव। हीरा-जवाहरात, सोना-चांदी, जंगल-पहाड़, नदिया-झरना का नइ देय हंव तुंहला? सरग के खजाना लुटा देय हंव तुंहर छत्तीसगढ़ म। तभो ले तंय भूख म परान तियागेस? वाह रे मरहा राम छत्तीसगढ़िया! तोर जइसे अभागा, निकृष्ट, अउ निकम्मा ये दुनिया म अउ कोन होही? अपन आप ल छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया कहिथव? भूख म प्राण त्याग के आय हस। तोर तो मुंह देखे म घला पाप हे रे दुष्ट, नारकी।''

भगवान के बात ल सुन के मरहा राम के कंपइ फेर सुरू हो गे। कांपत कांपत कहिथे - ''भूख म नइ मरे हंव भगवान, भूख म नइ मरे हंव। तुंहर देय पेज पसिया पीतेच हन प्रभु। सरकार घला एक रुपिया म चांउर अउ चार आना म नून देथे। पेट भरे बर अलवा जलवा मिलिच जाथे प्रभु।''

मरहा राम के चिरौरी सुन के भगवान के क्रोध अउ भड़क गे। कहिथे - ''खामोस! अभागा छम्मीसगढ़िया, तोला सरम घला नइ आवय। पेज-पसिया ल मंय जानवर खातिर बनाय हंव कि आदमी बर? अउ ये अलवा-जलवा का होथे रे? मंय तो आदमी खातिर कोनों अलवा जलवा चीज नइ बनाय हंव। मंय तो तुंहर खातिर अमृत समान अन्न बनाय हंव। दूध, दही, घी बनाय हंव। नाना प्रकार के कंद-मूल, फल-फूल अउ मेवा बनाय हंव। तंय अलवा जलवा खा के मर गेस? हत्त रे पापी! बता तो ये अलवा जलवा का होथे? काला खा के मरे हस तंय।''

- ''एक रूपिया वाले चांउर के भात ल चवन्नी नून संग अगल-चिगल खा लेथन भगवान।''

- ''खाली नून भात खाय रेहेस?''

- ''संग म चेंच भाजी के साग घला खाय रेहेन भगवान।''

- ''येला कब खाय रेहेस?''

- ''रात म।''

- ''वोकर पहिली का खाय रेहेस?''

- ''अमारी भाजी।''

- ''वोकर पहिली?''

- ''कांदा भाजी।''

- ''वोकर पहिली?''

- ''सुकसा भाजी।''

सुन के भगवान के मति छरिया गे। दुख अउ सोग म तरुवा धर लिस। किहिस -'' वाह रे मरहा राम छत्तीसगढ़िया हो! तुम तो कीरा मकोरा ले घला गे गुजरे हव। चार जुवार ले खाली भाजी भात खावत रेहेस, इही ल खवइ कहिथे? तंय सचमुच भूख म मरे हस। जिंदगी भर भाजी खा खा के तुम तो आंत के रोगी हो गे हव। ताकत कहां ले आही? दार-भात, दूध-दही-घी, मेवा-मिष्ठान नइ मिलय?''

- ''सेठ-साहूकार, मंत्री-संत्री मन के मारे नइ बांचय प्रभु।''

- ''वो मन खावत होहीं, तुमन टुकुर-टुकुर देखत होहू?''

- ''का कर सकथन प्रभु।''

- ''अपन बांटा के चीज ल नंगा नइ सकव? हाथ गोड़ काबर देय हंव।''

- ''अइसन पाप काबर करबोन भगवान?''

- ''अच्छा..... पाप-पुन के फैसला घला तुंहिच मन कर लेथव रे? तब मंय काबर बइठे हंव।''

- ''छीना-झपटी, झगड़ा-लड़ाई म हिंसा होथे। पेटला महराज ह बताथे प्रभु। अउ सरकारी कानून ल घला डरे बर पड़थे।''

- ''वाह रे मरहा! चोर-उचक्का मन बेधड़क, छेल्ला घूमत हें, खीर-तसमइ झोरत हें, काजू-बदाम के हलवा उड़ावत हें, तुमन ल डर धरे हे। तुम छत्तीसगढ़िया मन तो पेटला मन के बीच चपका के फड़फडा़वत हो रे। तुंहर महराज पेटला, सेठ-साहूकार मन पेटला, मंत्री-संत्री मन पेटला, अधिकारी-कर्मचारी मन घला पेटला। ....कस रे मरहा, अतेक अकन पेटला तुमन कब कब बना डारेव? ......अउ का का बना डारे हव रे, बने बने फोर फोर के तो बता?....... मंय तो तुंहर करनी देख के चकरित खा गे हंव ।''

मरहा राम ह सोगसोगान हो गे। कहिथे - ''हे भगवान! सब तुंहरे लीला आय प्रभु। सब तुंहरेच बनावल आय।''

- ''मोर बनावल आय? पेटला महराज ह बताय होही?''

- ''हव भगवान, पेटला महराज ह हमर गांव अतराब के बड़ भारी ज्ञानी पुरुष आय। तुंहर एक एक ठन लीला के रहस्य के बिखेद कर कर के समझाथे प्रभु।''

- ''अउ तुमन पतिया लेथव?''

- ''कइसे नइ पतियाबोन प्रभु।''

- ''बिना सोंचे बिचारे पतिया लेथव?''

- ''येमा का सोंचना बिचारना प्रभु?''

- ''तुंहर छत्तीसगढ़ म लोटा धर के अवइया मन साल भर म हजारों सकेल डारथें। दू साल नइ पूरे, लखपति बन जाथें। अउ तीन साल पूरत पूरत करोड़ पति बन जाथें। कार, टरक, बड़े बड़े बंगला, के मालिक बन जाथें। तुमन जस के तस। ये कइसे हो जाथे, यहू ल नइ सोंचव?''

- ''अपन अपन भाग तो आय भगवान! येमा का सोंचना।''

- ''भाग्य के रोना रोवइया करम छंडा! मंय तो दुनिया म हवा, पानी, जंगल, जमीन, नदिया, पहाड़ सब ल सब बर बराबर बराबर बनाय रेहेंव रे। पोगरइया मन तुंहरो हिस्सा के चीज ल पोगरा डरिन। तुंहला दुख नइ होवय? थोरको नइ सोंचव? तुंहला दिमाग काबर देय हंव? एकरे सेती भूख म प्राण त्याग के आय हस। मंय तो चिंता म पर गेंव कि तोला कते नरक म डारंव। सोंचे नइ रेहेंव कि अइसनों पापी के नियाव करे बर पड़ही।''

मरहा राम ल पेटला महराज के प्रवचन के चतुर बनिया वाले दृष्टांत के सुरता आ गे। कहिथे - ''मंय तो तुंहर साक्षात दरसन कर डरेंव प्रभु। अब तो मोला सरग म जगा देएच ल पड़ही।''

- ''इहां पेटला महराज के प्रवचन काम नइ आवय रे मूरख, मोर कानून चलथे। चतुर बनिया के कहानी सुनाय होही। तुंहर पेटला पंडित मन अतेक अगमजानी हो गे हें रे कि इहां का होथे तउन ल उहां बइठे बइठे जान डरथे। बिना सोंचे समझे कपोल कल्पित दृष्टांत मन ऊपर बिसवास करइया, अरे निरीह छत्तीसगढ़िया हो, तुंहर ले बने तो कुकुर बिलइ हें। बिना सूंघे, बिना जांचे परखे कोई चीज ल मुंह नइ लगांय। तंय तो जिहां ले आय हस, विहिंचे फेर जा ,काबर कि वोकर ले बड़का नरक मोर सृष्टि म अउ कहीं नइ हे।''

भगवान के फैसला सुन के मरहा राम चक्कर खा के गिर गे। दुहाई देय लगथे।

भगवान कहिथे - ''तोर मरे के घटना अउ वोकर बाद उहां का का होवत हे, तउन ल महूं जरा देखंव भला।''

भगवान घर के टाइम मसीन के ऑपरेटर ह मसीन ल एक घंटा रिवर्स कर देथे। मरहा राम के मरे के घटना दिखे लगथे। मरहा राम घला अपन मौत के सीन ल देखे लगिस।

.........

बैसाख जेठ के महीना। चढ़ती बेरा के बात आय। सांय सांय लू चले के सुरू हो गे रहय। खेत खार चंतराय के दिन आ गे रहय। मरहा राम बिहिनियच ले कांद बूटा छोले बर खेत चल दे रहय।

चकमिक चकमिक करत एक ठन कार बनत कारखाना तीर आ के खड़े होइस। कारखाना के मालिक जोगेन्दर सेठ अंटियावत कार ले उतरिस। झक सफेद कुरता पैजामा पहिरे रहय। मुंहू चिक्कन, लाल बंगाला कस दिखत रहय। पिछलग्गा दूसर कार खड़ा होइस। उहां ले वोकर दू झन मुस्टंडा उतरिन जिंखर हाथ म बंदूक रहय।

मालिक ल आवत देख के कमइया मन उत्ताधुर्रा कमाय लगिन। मरहा राम घला सावचेत हो गे। सेठ ह सत्तू नांव के अपन एक झन मुसटंडा संग गोठियात कारखाना कोती चलिस। मुरहा राम के खेत बीच म पड़य। सेठ ह मुस्टंडा ल कहिथे - ''अरे सत्तू , कल और लोग आ रहे हैं, एक दो दिनों में मशीनें भी आ जायेंगी। काम जल्दी पूरा करना है। ध्यान रहे, किसी भी छत्तीसगढ़िया को काम पर नहीं रखना है। और सुनों, इस खेत (मरहा राम के खेत कोती इसारा करत) को भी अपने कब्जे में ले लो। मैं सब देख लूंगा।'' मरहा राम के खेत तीर जा के रुक गें।

सत्तू यस सर, यस सर कहत पीछू पीछू रेंगत रहय। दुसरइया मुस्टंडा ह कार तीर रुके रहय। गांव वाले दू चार झन सियान मन सेठ से मिले खातिर आवत रहंय। वो ह दुरिहच ले धमकाइस - ''कौन है बे भगो यहो से सब।'' हवा म दन दन दू ठन गोली दाग दिस। सब अपन अपन घर कोती पल्ला भागिन। एती मरहा राम के कंपकंपी छूट गे।

सेठ ल खड़ा होवत देखिस त मरहा राम ह बड़ हिम्मत कर के वोकर तीर म आइस। कांपत कांपत हाथ जोड़ के किहिस - ''राम राम सेठ जी! खेत के इंटा पथरा ल हटवा देतेव, खेती किसानी के दिन नजदीक आवत हे।''

अतकिच बात म सेठ अरे तरे हो गे। एक ठन हाना कहिथें - माछी खोजे घाव ल, राजा खोजे दांव ल। लाल लाल आंखी छटका के अउ मुटका उबा के सेठ ह कहिथे - ''मादर.....मेरी ओर आंख उठाकर देखने की तेरी हिम्मत कैसे हुई?'' अउ कंस के एक मुटका लगा दिस।

मरहा राम पहिलिच ले कांपत रहय। भीम के गदा कस मुटका के मार ल संउहार नइ सकिस। चक्कर खा के गिर गे।

सेठ ल रोसियात देख के सत्तू घला बगिया गे। वफादार कुकुर ह मालिक के छू कहे के पहिलिच झपट्टा मार देथे। ''अरे मादर....... तेरी इतनी हिम्मत? सेठ साहब की ओर ऊंगली उठाता है।'' कहत कहत छटपटात मरहा राम के पेट म कंस के एक लात जमा दिस।

मरहा राम ह छिन भर छटपटाइस फेर मुंह फार दिस। आंखी छटक गे। हाथ गोड़ अल्लर हो गे। परान निकल गे।

पल भर सेठ अउ सत्तू दुनों झन सन्न खाय रहिगें।

सत्तू कहिथे - ''लगता है, मर गया। साला भुक्खड़। पता नहीं कब का खाया पीयां था।''

सेठ ह घबरा गे रहय फेर सत्तू के बात सुन के वोकर आंखी म चमक आ गे। कहिथे - ''अबे! सत्तू क्या कहा तूने, भुक्खड़? साला भूख से मर गया क्या रे? ह ..हा....।''

सत्तू - ''एकदम गुड आइडिया सेठ जी। ये साला भूख से ही मरा है। मैं यहां सब संभाल लूंगा। आप फौरन यहां से निकलिए।''

सेठ जी - ''अब तो यहां की गव्हर्नमेंट को भी देख लूंगा।''

सेठ जी ह तुरत फुरत जा के कार म बइठिस अउ फुर्र हो गे।

मुस्टंडा के गोली के धमाका गांव भर म गूंजे रहय। सुन के मरहा राम के दाई अउ बाई के परान टोंटा म अटक गे। चेत बुध हरा गे। पागी पटका ल सकेलत खेत डहर दंउड़िन। मरहा राम ल मार खा के गिरत देख डरिन। दंउड़त दंउड़त गोहार पार पार के रोय लगिन -'' दंउड़ो ददा हो.....दंउड़ो बबा हो..... मोर बेटा ल बंचाव....परदेसिया रोगहा मन मोर बेटा के परान लेवत हें।''

फेर गांव के एक ठन करिया कुकुर तक उंखर पत राखे बर नइ आइस।

सत्तू के हिम्मत बाढ़ गे। उंखर पहुंचतेच वो ह दाई ऊपर बंदूक टेका दिस। किहिस - ''अरे बुढ़िया! चुप हो जा साली। तेरे बेटे को हमने मारा ह क्या? वो तो साला भूख से मरा है। कब से खाना नहीे खिलाए थे?''

डोकरी दाई - ''रोगहा हत्तारा हो ! मोर बेटा के परान ल ले के कहिथव भूख म मर गे। तुंहर मुंह म कीरा परे। बंदूक के डर कोन ल बताथस रे रोगहा।''

सत्तू - ''अब तुम लोगों की बारी है। ऐसा ठिकाना लगाएंगे कि तुम तीनों की लास भी नहीं मिलेगी। जिंदा रहना चाहते हो तो चुप रहो।''

डोकरी अउ बहु चारों मुंड़ा नजर घुंमा के देखिन। पाट दबइया कोनों नइ दिखिस। जी के डर घला बहुंत होथे। उंखर घिघ्घी बंधा गे। सत्तू समझ गे। काम बन जाएगा। नोट के बड़े अस गड्डी ल देखावत कहिथे - ''हमारा सेठ बहुंत पहुंच वाला है। सरकार अउ पुलिस वोखर मुट्ठी में है। उसका तुम लोग क्या उखाड़ लोगे? मरने वाला मर गया। तुम्हारा खेत भी जाता रहेगा। कहीं के नहीे रहोगे। मिलकर रहने में ही भलाई है। जैसा कहता हूं ,वैसा ही करो। मजे में रहोगे। ......तुम्हारे बेटे को हम लोगों ने नहीं मारा है। भूखा प्यासा था, मर गया बेचारा। भूख से मरने वाले के परिवार वालों को सरकार लाखों रूपियों की सहायता देती है। तुम लोगों को भी मिल जाएगा। तुम्हारी जमीन भी बच जाएगी। अभी क्रिया करम के लिए रखो ये पचास हजार रूपय। हमारे सेठ बड़े दयालु हैं। मिल के रहोगे तो और मिल जाएगा।''

डोकरी दाई के जग अंधियार हो गे रहय। लास ले लिपट के दुनों झन कलप कलप के रोय लगिन। डोकरी रोवत रहय - ''मंय का करो बेटा...... एक कप चहा घला तोला नइ मिलिस रे। अंहा.......।

सत्तू मौका के ताक म रहय। सीन माफिक लगिस। झट वीडियो कैमरा निकालिस अउ सूट कर लिस। काम के चीज हाथ लग गे। रुके ले अब का फायदा? पहिली वाले मुस्टंडा संग वहू चंपत हो गे।

थोरिक देर बाद इही सीन ह टी. वी. मन म आय लगिस।

भगवान घर के टाइम मसीन म मरहा राम ह सब ल देखिस। अपन निर्बलता अउ कायरता ल देखिस। अपन दाई अउ घरवाली के लचारी ल देखिस। परदेसिया मन के चोरी अउ सीनाजोरी ल देखिस। पइसा म लोगन कइसे बेंचा जाथे तउनों ल देखिस। लस खा के कहिथे - ''हे जगत पिता, अब बस करव प्रभु ! सच म मोर जइसन नरकी ये दुनिया म अउ कोनों नइ हे।''

भगवान - ''मरहा राम ! तोर बर एके ठन नरक हे। जिंहा ले आय हस, विहिंचे फेर जा। जउन दिन तंय अपन दिमाग ले सोंचे लागबे, अपन हक बर लड़े लागबे, शोषण, अउ अन्याय के विरोध करे लागबे तउन दिन मंय तोला अपन तीर बला लेहूं। इंटा मारइया बर जउन दिन तंय पथरा उठा लेबे, हाथ उठइया हे बंहा ल मुरकेट सकबे, आंखी देखइया के आंखी ल निकाल सकबे तउन दिन तोर बर सरग के मुहाटी ल मंय खोल देहूं।''

- ''हिंसा करे बर कहिथव प्रभु !''

- ''तुंहर दुनिया म हिंसा-अहिंसा के बड़ा गुलाझांझरी होवत हे रे। अपन धरम करम ल निभाय म का के हिंसा?''

- ''थोरिक फरिहा के बतातेव प्रभु।''

- ''गीता म सब बता डरे हंव मूरख। दुनिया म कहां संघर्ष नइ हे? अहिंसा के मार्ग म चले बर हे त पहिली निडर अउ बलवान बनो। सत्य, न्याय अउ आत्मरक्षा खातिर संघर्ष करना ही अहिंसा आय। असत्य, अन्याय ल सहना, निर्बल अउ कायर बनना ही सबले बड़े हिंसा आय, सबले बड़े पाप आय।''

- ''तब हिंसा अउ पाप ले छुटकारा कइसे मिलही प्रभु।''

- ''दुसर जोनी ले आदमी ल मंय एक चीज उपरहा देय हंव। विवेक। जिंहा विवेक होही, विंहिचेच ज्ञान रहिही। अपन विवेक ल कभू मत छोंड़ो। इही ह आदमी ल इन्सान बनाथे। हिंसा अउ पाप ले बचाथे।'' अतका कहिके भगवान ह मरहा राम के जीव ल वापिस धरती म ढकेल दिस।

एती पुलिस ह वोकर लास ल डग्गा म जोरे के तइयारी करत रहय। वइसने म वोकर सांस चले के सुरू हो गे। मरहा हड़बड़ा के खड़ा हो गे।

भीड़ म चिहुर उड़ गे - ''मरहा राम जी गे। मरहा राम.......।''

मरहा राम ह भीड़ म चारों मुड़ा नजर फेर के देखिस। सेठ अउ वोकर मुस्टंडा मन उहां कहां दिखतिन? रामप्यारे अउ अवध बिहारी दिख गे। ललकारिस अउ जा के उंखर घेंच ल धर लिस।

किहिस - ''भाई हो ! वोतका दिन तक सचमुच मंय मरे समान रेहेंव, फेर अब मंय जी गे हंव।''

भगवान ह आज घला मरहा राम छत्तीसगढ़िया मन बर सरग के मुंहाटी खोल के अगोरा म बइठे हे।

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15 : मरहा राम के संघर्ष

असाड़ लगे बर दू दिन बचे रहय। संझा बेरा पानी दमोर दिस। उसर-पुसर के दु-तीन उरेठा ले दमोरिस। गांव तीर के नरवा म उलेंडा पूरा आ गे। परिया-झरिया मन सब भर गें। मेचका मन टोरटोराय लगिन। एती दिया-बत्ती जलिस कि बत्तर कीरा उमिंहा गें। किसान मन के घला नंहना-जोताार निकल गे।

बिहने फजर घरो-घर नांगर-पाटी अउ जुंड़ा निकल गे। बसला-बिंधना अउ आरी निकल गे। छोलइ-सुधरइ सुरू होगे। माल- मत्ता के हिसाब से खर-सेवर के जांच परख सुरू हो गे। फेर का ?खांध म नांगर अउ हाथ म तुतारी धरे, बइला मन ल हंकालत नंगरिहा मन चलिन अपन-अपन खेत कोती। पीछू-पीछू नंगरिहिन चलिन मुंड़ म बिजहा धान बोहि के। आज पहिली दिन हरे। काली ले तो नंगरिहा मन पंगपंगाय के पहिलिच खेत म पहुंच जाहीं। नंगरिहिन मन निकलहीं अठबज्जी, तावा सरीख अंगाकर रोटी अउ बगुनिया-बटलोही मन म बासी धर-धर के।

सड़क तीर-तीर के खेत मन ल तो पइसा वाले बड़े-बड़े सेठ मन बिसा डारे हें। कतको म कारखाना बन गे हे, कतको म काम चलत हे। सब म तार के घेरा पड़ गे हे। कतरो म पक्का दिवाल के घेरा पड़ गे हे। खेत-खार जाय बर जउन मेंड़ मन म किसान मन पुरखा पहरो ले रेंगत आवत रिहिन वो सब बंद हो गे हें। जउन खेत म नंगरिहा मन ल जाय बर आधा घंटा लगय विही खेत मन म पहुंचे बर अब जुआर भर के समय लगथे। घुमत-घुमत परान निकल जाथे। काली के दिन वहू रद्दा मन ह बंद हो जाने वाला हे। फेर तो मरन हे।

मरहा राम के खेत घला सड़क किनारे हे। वो तीर के सब्बो खेत ल जोगेंदर सेठ ह बिसा डारे हे। बड़े जबर कारखाना बने के सुरू हो गे हे। जोगेंदर सेठ के दलाल मन मरहा राम ल कतको लालच, कतको धमकी दिन फेर मरहा राम ह अपन खेत ल नइ बेंचिस। अब तो जोगेंदर सेठ ह मरहा राम के खेत ल जबरन कब्जा करे बर गुंडइ म उतर गे हे। वोकरो खेत ल तार के घेरा म घेर डरे हे।

एती मरहा राम हलाकान हो गे हे। पहिली सेठ अउ वोकर मुख्तियार मन तीर जा-जा के गोहराइस। ग्राम पंचायत म सोरियाइस। अब तो का पुलिस कहिबे का कलेक्टर अउ तहसीलदार, दरखास्त देवत-देवत मरहा राम थक गे हे। गांव वाले भाई मन घला पीछू घूंच दिन। सब ल अपन जान प्यारा होथे। पर खातिर कोन अपन जान दिही। अब वो काकर सरन म जाय? फेर वा रे मरहा राम ! हिम्मत नइ हारिस। खेत ले ही किसान हे अउ किसान के पहिचान हे। खेत हे त मरहा राम हे। खेत हे त गांव हे। खेत हे तभे जीवन हे। जीवन ल कोई कइसे त्याग देही? का कोई जीये बर छोड़ देही। जीये के अधिकार सब ल हे। जीये बर लड़े पड़ही त वो लड़ही घला। मरना होही ते लड़त-लड़त मरही। बसुंदरा हो के, भूख मर के काबर मरही?

जउन खेत म जोगेंदर सेठ के कारखाना खड़ा होवत रहय विही डहर ले तइहा बखत ले खेत-खार जाय के रद्दा रहय। रद्दा बंद होय ले खाली मरहच राम ल तकलीफ नइ होवत रहय, गांव भर के आदमी पेरावत रहंय, फेर लड़ाई लड़त रहय अकेला मरहा राम ह, बांकी सब तमासा देखइया रहंय।

सब किसान मन फर्लांग भर दुरिहा ले चक्कर लगा-लगा के जावत रहंय। मरहा राम ह कहिथे - ''संगवारी हो, हमला सेठ के कारखाना से का लेना-देना। खेत जाय बर हमला कारखाना म जाय के का जरूरत? एक ठन मेड़ भर चाहिये, जउन ह हमर सबर दिन के रद्दा आवय। खेत जाय बर खेतेच म रेंगे ल पडथे। उड़ के कोनों नइ जा सके। चलव मोर संग। आगू म मंय रहिहंव। तुम मोला संग भर देवव। इंखर चाल ल समझव। ये मन हमला सताना चाहत हें, ताकि खार भीतर के खेत ल घला हमन बेंचे बर मजबूर हो जावन। औने-पौने भाव म खरीदे बर ये मन लुहूटुपुर तो करतेच हें। कंउआ के मुंहू ले रोटी छूटे भर के देरी हे। ''

कोनों संगवारी मन कान नइ दिन।

मरहा राम कब हिम्मत हारने वाला रिहिस ? नांगर बइला धर के टेंक गे वो मेंड़ तीर जउन ह सबर दिन के खेत जाय के रद्दा आय, अउ जउन ल सेठ ह रूंधवा दे रहय। सेठ के परदेसिया गुंडा मन मरहा राम के नीयत ल भंप गें। बड़े जबर झबरा कुकुर ल मरहा राम बर छुआ दिन। मरहा राम घला तियारी म रहय। अच्छा झपेटा तुतारी लउठी धरे रहय। मुंड़ी ऊपर ले घुमा के कचार दिस कुकुर ऊपर। बजर गिर गे। कुकुर विही करा चित्त हो गे। अब गुंडा मन चाकू-छुरी घर के दंउडिऩ। मरहा राम जोम दे के खड़े हो गे। किहिस - ''घर म लिंगोटी छोंड़ के अवइया कुकुर हो, आवव, कोन अपन मां के दूध पीये हव। जादा से जादा मोर परानेच ल लेहू न? तब का तू मन जीयत बांच जाहू का?''

एक झन गुंडा ह चाकू घर के दंउड़िस। मरहा राम के बजर वोकरो मुंड म गिर गे। विही करा गांव के दू-चार झन किसान मन नांगर फांदे रहय। मरहा राम ल अकेला लड़त देख के अब उंखरो मन के जग उमिंहा गे। वहू मन दंउड़िन। महाभारत मात गे।

बात कहत पुलिस आ गे। मरहा राम रकत म बूड़ गे। गुंडा मन के घला इही हाल रहय। गुंडा मन के घाव ह पुलिस ल दिख गे, मरहा राम के रकत ह वो मन ल नइ दिखिस। मरहा राम ल बांध के ले गें।

महीना दिन के बाद मरहा राम आज जेल ले छूट के आइस।

किसन, रघ्घू अउ जगत वोला लाने बर गे रिहिन। जेल के मुंहाटी म ये मन वोकर अगोरा म दस बजे ले खड़े रिहिन। निकलते साट पोटार लिन। मरहा राम ह ये मन ल देख के पहिली तो अकबका गे। गांव के कोनों मनखे वोला लेगे बर आय होहीं, अइसन वो ह सोंचे नइ रिहिस। वोकर आंखी ले खुसी के आंसू झरे लगिस। कहिथे -'' मोर असन पापी ल लेगे बर आय हव बेटा हो ?''

रघ्घू - ''तोला पापी मानबो त दुनिया म हमला कोन पुण्यात्मा मिलही कका। भला हो भोलापुर के जिंहा तोर असन मनखे जनम धरे हे।''

- ''का हाल चाल हे?''

- ''सब बने बने हे कका।''

आधा घंटा के रस्ता। पहुंचना भी जल्दी रहय। रस्ता भर जादा बातचीत नइ होइस। चरबज्जी गांव म पहुंच गिन। दुरिहच ले डमउ-दफड़ा के अवाज सुन के मरहा राम ह पूछथे - ''का के बाजा बजत हे बेटा?''

- ''ककरो बरात परघाय बर होही।''

जइसने ये मन गांव के खरकाडाड़ तीर पहुंचिन, मरहा कका ह देखथे कि गांव भर उंहा जुरियाय हे। बजनिया मन बाजा घटकात हें। वोकर दाई ह आरती धर के अउ वोकर बाई ह हार-फूल धर के आगुच म खड़े हें।

मरहा कका ह दाई के पांव के धुर्रा ल अपन माथा म चुपरिस। गांव के माटी म मुड़ी नवाइस। सरपंच, संपत अउ मुसवा आगुच म खड़े रहंय। नता देख-देख के जोहार भेंट होइन।

लखन, ओमप्रकाश, फकीर अउ वोकर जम्मों संगवारी मन घला हार फूल धर के खड़े रहंय। लखन ह जोरदार नारा बोलिस - ''मरहा कका ....।''

भीड़ म गूंज गे - ''जिंदाबाद, जिंदाबाद।''

मरहा राम हार-फूल म लदका गे। गुलाल म पोता गे।

बड़ हंसी खुसी, नाचा बाजा संग मरहा राम के परघवनी सुरू हो गे।

रात म मरहा कका के घर म फेर सबके सब जुरिया गें। मरहा कका ह कहिथे - ''सुनाव भइया हो, गांव के का हाल चाल हे?''

ओम प्रकाश ह कहिथे - ''तिंही बता कका, तोर जेल के हाल चाल ल। का खावस, कइसे रहस, का करस? इहां सब अच्छा हे अउ जउन होही, अब अच्छच होही।''

- ''का करहू बेटा जान के? फेर हां! बाहना म मुंड़ी डार के मूसर ले का डरना? अब तो आना-जाना लगेच रहिही। चाहे कइसनो राखंय, कइसनो खवावंय।''

- ''ससुराली माल गजब भाय हे कका ल। तभे तो घुसघुस ले मोटा के निकले हे।'' फकीर ह ठट्ठा मड़ाइस।

- ''अब हमर बर तो सब जघा बराबर हे बेटा। गांवेच म रहि के कतिक सुरक्षित अउ कतिक सुतंत्र हन? उंखर गुंडा मन जब हमर गांव अउ घर म आ के हमर इज्जत अउ हमर मान सम्मान ल रंउद सकत हे तब जेल के का हाल तोला बतावंव। उहां तो उंखरे राज हे। फेर पांव अब आगू बढ़ गे हे, पीछू हट नइ सकय। हमरो प्रन हे।''

- ''ऊंखर तीर धन ह,े बल हे, बम अउ बंदूक हे। हमर तीर तो लउठी घला नइ हे। कका, कइसे लड़बोन उंखर से?'' किसन ह कहिथे।

- ''मन के हारे हार, मन के जीते जीत। असली ताकत तो मन के होथे। मन म ताकत आथे तहां ले तन म खुदे ताकत आ जाथे बेटा। असली लडाई बम अउ बंदूक से नहीं, मन से लड़े जाथे। गांधी जी तीर का रिहिस हे?''

ओम प्रकाश ह कहिथे - ''आज कोनों दफ्तर म जा के देख ले, बड़े-बड़े कुरसी म विहिच मन ल बइठे पाबे। अउ यहू जान ले कका, ककरो सेवा करे बर वो मन इहां नइ आय हें। अपन पेट भरे बर आय हें। सरकारी खजाना ल तो खाली करतेच हें, लुचपत खा-खा के जनता ल अलग लूटत हें। राजा विही मन, नेता विही मन, अफसर विहिच मन। हमर कोन सुनही? तोर कोन सुनिस भला। मार खाय तिंही, जेल गेस तिंही।''

- ''दुनिया ह सुनहीं। दुनिया ह नइ सुनही ते भगवान हर तो सुनही? भगवानो ह नइ सुनही, त तोर आत्मा ह सुनही कि नही? मरे के बेरा कम से कम आत्मा ह तो नइ धिक्कारही।....... जीबो ते इज्जत, अउ मान-सम्मान के साथ जीबो। कायर बन के जिये ले मर जाना अच्छा हे। बलिदान ह अकारथ नइ जाय। शहीद बीर नारायन सिंह ल भुला गेव का?''

अइसने गोठ बात म रात के बारा बज गे।

बिहान दिन ग्राम पंचायत म गाव भर के आदमी फेर सकला गें।। सरपंच ह कहिथे - ''तोर जाय के बाद तो बड़ अलकरहा हो गे मरहा भइया। ये परदेसिया मन तो हमर जीना हराम कर देय हें। सड़क तीर-तीर के सबो खेत अब उंखरे कब्जा म चल देय हे। मेड़ म चढ़न नइ देवंय। चमचम ले रूंध-बांध डरे हें। हमर खेत मन भीतर-भीतर म हें। खेती-किसानी कइसे करबोन, नांगर बक्खर ल कते डहर ले लेगबोन। हवा म उड़ के तो नइ जा सकन।''

- ''कका ! करखाना के तीर-तीर वाले जतका खेत हें, सब म रेती गिट्टी बगरा देय हें। चंतराय बर जाबे त धमकी चमकी लगाथें। छुरी-बिछवा निकालथें। जीना हराम हो गे हे। हमरे गांव म हमी मन परदेसी बन गे हबन।'' जगत किहिस।

फकीर - ''झाड़ू गंउटिया तीर गे रेहेन। आहूं किहिस। आज ले दरसन नइ हे।''

मरहा राम ह कहिथे - ''बड़े के सगा बड़े। छोटे मन बर दुनिया म कोइ नइ हे। भगवान घला वोकरे मदद करथे, जउन अपन मदद खुद करथे। संगी हो, आज के जुग म एकता म ही ताकत हे। हमर म एकता होही तभे हम इंखर से लड़ सकबोन। आवव ! सब एकजुट हो जावन। कसम खावन कि मर भले जाबो फेर संग ल नइ छोड़न। पहिली मंय कसम खावत हंव........ये लड़ाई म यदि मरे के नौबत आही त सबले पहिली मरहा राम ह मरही।''

सब एक दूसर के मुंहूु देखे लगिन। नंदगहिन ह घला अपन महिला सहायता के बहिनी मन संग बइठे रहय। सुकारो दाई अउ डोकरी दाई घला बइठे रहंय। सब के सब रटपटा के उठिन। किहिन -''कोन रोगहा ह मरहा बेटा के परान लिही, हमू देखबोन।''

फेर तो चारों खूंट मुठच मुठा दिखे लगिस।

मरहा राम ह जय बोलाइस - ''महादेव की...... जय। बीर नारायन सिंह की ...जय।''

भीड़ ले अगास-फोड़ अवाज आइस - ''जय ....।'' जयकारा ह दसों दिसा म गूंज गे।

वोतका बेर रघ्घू ह प्रोफेसर वर्मा ल धर के आ गे। प्रोफेसर वर्मा ह कालेज म अध्यापक हे। छत्तीसगढ़ के नामी साहित्यकार आवंय। किसन, जगत, ओम प्रकाश, रघ्घू , जम्मों झन ल कालेज म पढ़ाय हे। ये मन ल आवत देख के भीड़ म चुप्पी छा गे। रघ्घू ह आगू आ के किहिस - ''चुप काबर हो गेव भाई हो ! एक घांव फिर से बोलो - ''बीर नारायन सिंह की ...जय।''

रघ्घू ह बोले के सुरू करिस - ''जम्मों दाई-ददा अउ भाई मन। मोर संग आज हमर गुरूदेव, प्रोफेसर वर्मा आय हें। जोरदार ताली बजा के उंखर स्वागत करव।''

चारों खूंट ताली गूंज गे। रघ्घू ह बात ल आगू बढ़ाइस - ''अब मंय गुरूदेव से निवेदन करत हंव कि ये मुसीबत ले लड़े बर हमला रस्ता बतावंय।''

प्रोफेसर वर्मा - ''सबले पहिली मंय भोलापुर गांव के धरती ल माथ नंवा के वंदन करत हंव, जिहां नंदगहिन काकी, सुकारो दाई, डोकरी दाई अउ मरहा भइया जइसन मनखे जनम धरे हें। जिहां आप जइसन जागरुक आदमी रहिथें। संगवारी हो! इहां के हालचाल मंय गजट म पढ़त रहिथंव। बांकी सब मोला रघ्घू बता डरे हे। मंय तो सोझ अउ संच बात कहवइया मनखे आवंव। आप मन ला बुरा लगही। फेर सच बात तो इही आय कि आज हमर जउन हालत हे वोकर असली जिम्मेदार हम खुद हन। सरकार ल या कोनों दूसर ल दोस देना बेकार हे। .......न हम बोल सकन, न चिल्ला सकन। कोन चपके हे हमर मुंहूं ल? न हम हड़बड़ा सकन, न छटपटा सकन। कोन बांध के रखे हे हमला? ..... हमर डर। ..... वाह! चोर उचक्का मन बेधड़क घूमत हें, हमला डर धरे हे। हमर मन म का के डर समाय हे?......घर-द्वार मत बिक जाय? जीव मत चल देय? अरे! जब मान-सम्मान अउ इज्जते नइ बाचही तब जी के का करहू?.....डर-डर के कब तक अपन खेत-खार अउ इज्ज्त ल बचाय सकहू। बचा सकतेव त आज ये नौबत नइ आतिस। .....तब का इमान-धरम के डर हे? जान हे त जहान हे। जिन्दगिच नइ रहिही त कहां के इमान अउ कहां के धरम। जउन जीतथे, वोकरे जयकार होथे। जीत के कोई विकल्प नइ हे भाई हो। .........अपन अंदर के ऐब ल देखव। पान, बिड़ी, तमाखू के बिना रहि नइ सकन। गांजा-दारू के तो पूछ झन। इही पइसा ल बचा के देखव। दस साल म तुंहरो बिल्डिंग खड़े हो जाही। .......जइसन खाय अन्न, तइसन होय मन। एक रुपिया अउ दू रुपिया के अन्न खा-खा के हमर मन घला दू कौड़ी के हो गे हे। बंद करो येला। एक रुपिया म मांगना हे त खाद मांगव, बीज मांगव। अपन खेत बर पानी मांगव। ..... संगवारी हो ! ये समस्या केवल भोलापुर के नोहे। सब गांव के हे। पर तुम भागमानी हो कि तुंहर साथ मरहा राम जइसे हिम्मती आदमी हे। जय हिंद, जय छत्तीसगढ़।''

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अनंतिम कुबेर

कहा नहीं

(छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह)

कुबेर

प्रथम संस्करण : 2011

आवृत्ति : 300

सर्वाधिकार : लेखकाधीन

मूल्य : 125 रु.

:: प्रकाशक ::

प्रयास प्रकाशन

सी - 62, अज्ञेय नगर, बिलासपुर ( छ.ग. )

दूरभाष - सचल : 09229879898

़भूमिका

कथात्मकता से अनुप्राणित कहानियाँ

डॉ. विनय कुमार पाठक

आज या वर्तमान आधुनिकता के अर्थ में अंगीकृत है। आज जो है वह 'अतीत-कल' का अगला चरण है और जो 'भविष्य-कल' में 'अतीत-कल' बन जायेगा, इसलिए आज का अस्तित्व समसामयिक संदर्भों तक सीमित है। परंपरा का अगला चरण आधुनिकता है लेकिन यही रूढ़ हो जाता है तब युग के साथ कदम मिलाकर नहीं चल पाता। जब हम दाहिना चरण बढ़ाते हैं तब वह आधुनिकता या विकास का सूचक है। बायाँ चरण परंपरा का प्रतीक है, लेकिन जब पुनः बायाँ चरण बढ़ाते हैं तब यह आधुनिकता को अंगीकार करती है और दाहिना चरण परंपरा का स्थान ग्रहण करती है। इस तरह परंपरा आधुनिकता विरोधी नहीं है, परस्पर पूरक है। परंपरा का बीज परिपक्व होकर आधुनिकता का फल सिद्ध होता है और इसी आधुनिकता के फल से परंपरा का बीज जन्म लेता है। युग का सूप परंपराओं को फटक कर सार-सार को ग्रहण करता है और थोथे को उड़ा देता है। यह सार ही आधुनिकता या प्रगति का उद्भास है और असार तत्व रूढ़ परंपरा का प्रतीक है। इस तरह परंपरा और रूढ़-परंपरा को पृथक-पृथक समझना आवश्यक ह़़ै।

छत्तीसगढ़ी कहानियाँ लोककथा की संस्कृति और हिन्दी कथा की सभ्यता का समन्वित स्वरूप है। हीरालाल काव्योपाध्याय की कहानियाँ लोककथात्मक ( और लोकगाथात्मक भी ) धारा से उद्भूत हैं और यह परंपरा पालेश्वर प्रसाद शर्मा, पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी, श्री शिवशंकर शुक्ल, डॉ. विनय कुमार पाठक, से सरला शर्मा की सद्यः प्रकाशित कथा-कृति में विकसित है। संवेदना के स्तर पर आँचलिकता और भाषा-शैली की दृष्टि से किस्सा-गो के वैशिष्ट्य को संधारण करके यह छत्तीसगढ़ीपन को अक्षुण्ण रखे हुए है। समीक्षक इसे ठहराव कह सकते हैं लेकिन यह अस्मिता को अक्षुण्ण रखने का उद्यम ही कहा जावेगा। 'भोला भोलवा राम बनिस' की प्रायः सभी कहानियाँ लोककथात्मक ही हैं। पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी की कहानी 'पतिबरता के पानी' में 'ये बात तइहा-तइहा के आय' से शुरू होकर 'दार-भात चूर गे मोर किसा पूर गे' से संपन्न होता है। इसी तरह इनकी 'रतनपुरहिन सियानिन' - शीर्षक की नायिका ही लोककथक्कड़ है। डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा की 'सुसक झन कुररी! सुरता ले!!' की कहानियाँ लोककथा के 'कच्चा' माल को 'पक्का' बनाने की प्रविधि है। शिवशंकर शुक्ल की 'डोकरी के कहिनी' हो या फिर इन पंक्तियों के लेखक की 'छत्तीसगढ़ी लोककथा' हो, लोककथा को ही शिष्ट स्वरूप में प्रस्तुति का प्रयास कहा जवेगा। जब इनके विषय सीमत और लगभग मध्यकालीन जीवन को विवेचित करने, रूढ़ि, परंपरा और लोकविश्वास को प्रोन्नत करने, संयुक्त परिवार को पोषित करने, बुद्धि की जगह हृदय से सोचने के आग्रही होते हैं, सी़मित संसाधनों में प्रसन्न रहना और 'संतोषम् परम सुखम' को अंगीकार करना गंतव्य हो जाता है, तब कथा की डोर जीवन में न होकर नियति के हाथों सौंप दी जाती है। लोक कथात्मकता से असंपृक्त होकर आज की कहानियाँ सामाजिक यथार्थ से सरोकार रखती हैं।

यदि आधुनिक कथा के विकास पर दृष्टि डालें तो वह स्थूल से सूक्ष्म, निर्जीव से सजीव, तथा सरल से जटिल शिल्प की ओर बढ़ती जा रही है। वस्तु पशु से मनुज की ओर और फिर से मनुज से मन और अंतर्मन के अंतराल तक पहुँच गयी है। अब कथाकार जीवन की ही कथा कहता है। छत्तीसगढ़ी कथा-साहित्य भी वर्णनात्मकता को तज कर विश्लेषण की ओर जा रहा है। लोककथा में जो अलौकिक तत्व रहता है, वह अब सर्वदा अविश्वसनीय और अस्वाभाविक माना गया। इसी से आधुनिक छत्तीसगढ़ी का मूलाधार यथार्थ का कठोर धरातल है, विपन्न जीवन की विवशता है, आँसुओं का अर्ध्य देने वाली व्यथा-कथा है, करूण-कातर मन का क्रंदन है और अकाल पीड़ित धरती-पुत्र की आत्मा की पुकार। धर्म के प्रति आस्था कृषक की बेबस आस्था है। उसकी आस्था खूँटे में बँधे उस गाय की तरह है जो कहीं नहीं जा सकती। छत्तीसगढ़ी साहित्य अभी भी धर्म और समाज के नाम पर घुट रहा है, रूंध रहा है फिर भी इस तड़प से उसे मुक्ति नहीं। संभवतः नई पीढ़ी इस घुटन से मुक्त हो सकेगी।

छत्तीसगढ़ी कहानियाँ लोककथात्मक और सामाजिक, इस तरह दो भागों में वर्गीकृत की जा सकती है। लोककथात्मक कहानी के अंतर्गत कथाकार अपनी कहानियाँ उसी तरह सुनाता है जिस प्रकार ज्ञानवृद्ध-वयोवृद्ध बाबा अंगीठी के चारों ओर बैठे हुए नाती-पोतों को सुनाते है। यह इतिवृत्तात्मकता इन कथाओं की प्राण-शक्ति है। इस किस्सागोई में कुछ ख्वाब हैं, कुछ असल हैं, कुछ तर्जे-बयाँ भी - 'दलहा पठार के तराई म नानकुन गाँव म बंधवा पार .......... जहाँ एक ठन गोंड़ किसान रहिस। किसान के चार बेटवा ..............अउ एक्के ठिन बेटी रिहिस। किसान बने पोट्ठ खात-पियत किसान रहिस।'1

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'एक गाँव म पैली अउ पैला रहँय। उन दूनों में बड़ मया। फेर एक दिन गोठ-गोठ म बात बढ़ गे अउ नउबत इहाँ तक आ गे के पैली ल पैला ह मार दिहिस.............. पैली ल मारिन पैला, तौ पैली चलिन रिसाय।'2

छत्तीसगढ़ी कहानियों का विकास एक ओर यदि लोककथात्मकता से कथात्मकता की ओर केंद्रत हुआ तो दूसरी ओर वह लोकतत्व उससे छूटता रहा जो लोक जीवन का अंग, संस्कृति का रंग और अध्यात्म का ढंग बना हुआ था। किस्सा-गो से छूटने से अलौकिकता, रहस्यात्मकता, रोमांच, एय्यारी और इहलोक का इतिवृत्त तिरोहित होने लगा। कुलीन, संभ्रांत और आभिजात्य की जगह मध्यवर्ग का जीवन-संघर्ष और आर्थिक ढंग से पिछड़े और निम्न वर्ग से निर्दिष्ट दलितों, आदिवासियों, कृषक-मजदूरों का जीवन केंद्रिय बनने लगा। नारी जो युगों-युगों से पीड़ित-शोषित, उपेक्षित, तिरस्कृत थी, उसकी अस्मिता पर अन्वेषण का आरंभ औरतों के द्वारा ही आयोजित हुआ। शिक्षा के प्रचार व यातायात के साधनों की अभिवृद्धि से संकुचित दृष्टि उदार होने लगी, परिणामतः छत्तीसगढ़ी कथाकार संवेदना की जगह तथ्याश्रित होने लगे। कृषक-मजदूर, शोषित-दमित-दलित वर्ग में चेतना का संचार दृष्टिगत हुआ। स्त्रियाँ पढ़ने लगीं और अधिकारों के प्रति सजग-सचेष्ट भी होने लगीं। सती-प्रथा, पर्दा-प्रथा, वैधव्य, बाल-विवाह, अनमेल-विवाह, बहुविवाह पुराने जमाने के साधन रह गये। स्त्रियों ने समाज को अपने पक्ष में करके एक ओर सकारात्मक सोच को अभिव्यक्ति दी तो दूसरी ओर क्रांति और आंदोलन के पथ पर अग्रसित होकर अधिकारों की लड़ाई भी जारी रखीं। कुछ ने नकारात्मकता को महत्ता दी, फलतः स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता को आधार मिला। इससे अन्य प्रकार की समस्याएँ भी उभरी जो नारियों को गुलाम बनाने के नवीन अस्त्र बने। नारी केवल देह नहीं है, वह आत्मा भी है। इस आधुनिक चिंतन ने जहाँ नारी विमर्श को उत्कर्ष दिया, वहीं 'देह' को साधन की तरह इस्तेमाल कर प्रगति के शीर्ष पर पहुँचने की प्रवृत्ति का भी पथ प्रशस्त किया।

इसी तरह लिंग और जाति से रहित विशुद्ध मानवतावादी दृष्टि पर केंद्रित विकलांग-विमर्श इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक के दस्तक के रूप में छत्तीसगढ़ी कथाकारों की जागरूकता का प्रमाण बनी।

आतंकवाद व नक्सलवाद से जूझ रहे इस नव विकसित राज्य की भीषण समस्या को भी जानने समझने का प्रयास छत्तीसगढ़ी कहानियों में उभरता जरूर है लेकिन विषय के संज्ञान के अभाव और गहरी पड़ताल के अलगाव के कारण यह क्षेत्र औपचारिकता बन कर रह जाता है। केयूर भूषण की कहानी 'हाय तोला नइ बचाए सकेंव' में सांप्रदायिक सद्भाव का समावेश है जबकि आतंकवाद पर इनकी एक उल्लेखनीय कहानी भी 'कालू भगत' संग्रह में समावेशित है। 'बन बीच ठाढ़े हवेली' शीर्षक कहानी में उर्मिला शुक्ल छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की समस्या को उठाती तो है लेकिन उसका निर्वाह नहीं कर पातीं। केवल सपना दिखाकर नव विहान की प्रतीक्षा के लिये नेताओं की मुद्रा में एक आस भर जगा देती हैं।

छत्तीसगढ़ में जाति-पाँति की कट्टरता के अभाव और एक पारिवारिक इकाई की तरह समन्वित सद्भाव के कारण यहाँ दलित-विमर्श की आवश्यकता ही महसूस नहीं की गयी, फिर भी राजनीति के चलते इक्की-दुक्की कहानियाँ लिखी जाती रही हैं। भारतीय सेस्कृति की मर्यादा और त्यागमय जीवन पर आधारित नारियों के आदर्श पर जहाँ छत्तीसगढ़ी के अनेक कथाकारों ने लेखनी चलाई हैं, ठहराव की इस स्थिति के मध्य डॉ. उर्मिला शुक्ल की एक कहानी 'गोदना के फूल' को उदाहरणार्थ प्रस्तुत किया जाता है। यह खानाबदोश देवार जाति की स्त्री की व्यथा-कथा है जो धर्म-परिवर्तन के द्वारा देवरनिन से करीमन बनती है और फिर न सामंत की सुध लेती है और न करीम के घर जाती है। इस कहानी के संदर्भ में श्री नंदकिशोर तिवारी लिखते हैं - 'यह कहानी सिर्फ नारी के अस्तित्व पर ही ऊंगली नहीं उठाती अपितु धर्म के ठेकेदारों पर भी ऊंगली उठाती है। धर्म में बँटे लोग करीम और गौंटिया दोनों को वह त्यागती है और अकेले निकल जाती है - एक नयी जिंदगी को तलाशने।'3

एक नई जिंदगी की तलाश क्या देह तक ही सीमित होगी? इस संदर्भ में श्री कुबेर द्वारा प्रकाशित द्वितीय कथा संग्रह 'कहा नहीं' में उत्तर देने की कोशिश की गई है। 'कहा नहीं' शीर्षक नायिका प्रधान कहानी है जिसमें चंपा छरहरे बदन की कोमलांगी नायिका है जिसे नवा बाबू परी समझने का भ्रम पाल लेता है। आँचलिक उपमानों और प्रतीकों का प्रयोग उसके सौंदर्य निरूपण में हुआ है -

'चिरौंजी के बीजा कस दांत हे, लाल खोखमा फूल के पंखुरी कस ओंठ हे। कनिहा के आवत ले बेनी झूलत हे, भुरवा-भुरवा चुंदी ह जब खुलथे तब अइसे लगथे कि अगास गंगा के धार ह लहर-लहर करत धरती म उतर आय हो। सतरा-अठारा साल के जवानी के का पूछना हे? चोली म समात नइ हे, उछल-उछल जावत हे; देख के काकर नीयत ह नइ डोल जाही? दिन भर घाम-प्यास, सर्दी-गर्मी, पानी बरसात म रांय-रांय रोजी-मजूरी करथे चंपा ह, फेर बदन ह बिहने-बिहने फूले खोखमा के फूल कस, ताजा के ताजा।'

चंपा बर्तन मांजकर गुजारा करती है। उसकी माँ भी यही काम करती थी। जवानी में एक परदेसी बाबू को दिल दे बैठी जो चंपा और उसे छोड़ कर चला गया। चम्पा की माँ को डर है कि कहीं चम्पा भी नवा बाबू के जाल में पड़ कर जिंदगी बर्बाद न कर बैठे। चम्पा को अपने पर पूरा विश्वास है और वह चौकस भी है। नवा बाबू उसे अन्य आदमियों की तरह नहीं लगते जो नारियों को मात्र मादा मानें। उस पर भी उसे विश्वास है लेकिन एक दिन जब वह उसका रास्ता रोक कर हाथ पकड़ लेता है तब वह चंडी रूप दिखाती है जिससे भयभीत नवा बाबू रास्ता छोड़ देता है। उसे पश्चाताप होता है और कई दिनों तक चम्पा का सामना नहीं कर पाता। चंपा उसके घर का काम करना छोड़ती नहीं लेकिन गुमसुम-गुमसुम रहती है। चम्पा का विवाह एक जगह नियत हो जाता है। वह नवा बाबू को प्यार की अहमियत सिखा कर नये जीवन की ओर अग्रसर हो जाती है। 'शिवनाथ-सतवंती' की किंवदंती के आधार पर लोक कथात्मकता से अनुप्राणित यह कहानी यहाँ की नारी की अस्मिता से साक्षात्कार कराती है।

'बसंती' शीर्षक कहानी में बर्तन मांज कर गुजारा करने वाले परिवार का प्रसंग है। बसंती मास्टरिन बनकर माँ को चाकरी से मुक्ति दिलाने का जो महत् कार्य करती है, वह गाँव की सीमित-संकुचित दृष्टि, पारंपरिक दृष्टि पर एक महिला की जीत साबित होती है। शिक्षा के द्वारा एक महिला स्वाभिमान के साथ आत्म-निर्भर जीवन-व्यतीत कर सकती है, इस उद्देश्य को यहाँ उपस्थित किया गया है।

'आज के सतवन्तिन : मोंगरा' शीर्षक कहानी में 'बाम्हन चिरई' गौरैया की उपस्थिति कथा के विकास के साथ कथाकार की आत्मा की उपस्थिति भी कही जा सकती है। डोकरी दाई के बेटा ( छोटे भाई बच्चन सिंह गँउटिया के बेटा ) बिसु का व्याह हुआ - मोंगरा की तरह सुवासित गौरवर्णी अनिंद्य सुंदरी कन्या मोंगरा से। विवाह के तुरंत बाद बिसु परदेस प्रस्थित हो गया। पारंपरिक सास का षडयंत्र शुरू हो गया। जिसकी इजाजत के बिना साँस न ली जा सके, वही तो सास की अहमियत का तकाजा है। कथाकार सतवंतिन की लोककथा से बिसु के घटनाक्रम को समीकृत करता है। इधर मोंगरा रूपवती है तो उधर सतवंती रूप और गुणों की खान है। दोनों को क्रमशः सास और जेठानी का कोप-भाजन बनना पड़ता है। इस संघर्ष से नारी का जीवन नारकीय हो जाता है। नारी ही नारी की दुश्मन बनी बैठी है, यह विडंबना आज की इक्कीसवीं सदी में भी लोग भोग रहे हैं। सतवंती का पति तो उसे चाहता है लेकिन मोंगरा को, सास की राह पर पति भी प्रताड़ित करने से बाज नहीं आता। आज भी दहेज के नाम पर बहुओं को जलाने या आत्महत्या के लिये प्रेरित करने के अनेकानेक उदाहरण मिल जायेंगे। मोंगरा की दुर्दशा देख कर माँ-बाप भी मुँह मोड़ लेते है क्योंकि एक बार कन्या किसी के घर की बहू बनी तो फिर ससुराल से ही उसकी अर्थी उठती है। नारी अस्मिता के लिये यह स्थिति भी चिंतनीय है।

'बाम्हन चिरई' शीर्षक एक अन्य कहानी पृथक होकर भी पूरक प्रतीत होता है। कथाकार ने प्रस्तुत कहानी में पक्षी-मनोविज्ञान का जो आश्रय लिया है, वह सामान्य घटना होकर भी असामान्य बन गयी है। आज जब बाम्हन चिरई की प्रजाति विलुप्ति के कगार पर है, कथाकार ने उसे अंतरंग निर्दिष्ट कर लोकजीवन के अंग के रूप में आत्मीयता के साथ अनावृत्त किया है।

'फूलो' शीर्षक कहानी की नायिका फूल जैसी कोमल कमनीय है जो गरीब के आँगन में सुवासित है। गाँव में सामंत का साम्राज्य है जो मालिक के नाम से सब के मर्ज की इलाज है। फूलो के माँ-बाप काले हैं लेकिन मालिक की कृपा के कारण फूलो गौर वर्ण की है। फुलो की सुंदरता के रूप-गुण की चर्चा सुनकर विवाह के लिये उसे मांगने हेतु रिश्ता आता है और विवाह की तिथि सुनिश्चित भी हो जाती है लेकिन गरीब माँ-बाप के पास लड़की की बिदाई के लिये कपड़े-गहने व नेग का सामान तक नहीं है। मालिक की कृपा बरसती है और फूलो को सब सामान मिल जाता है। गरीबों की विवशता का लाभ उठाने वाले, कृपालु और मालिक के रूप में सम्मानित है, यह विडंबना इस कहानी की केंद्रीयता है।

'दू रूपिया के चाँउर अउ घींसू-माधव : जगन' शीर्षक कहानी एक शिक्षित रिक्शे वाले की व्यथा-कथा है जो विवशता के कारण इस व्यवसाय से जुड़ जाता है क्योंकि गलत काम करना उसे मयस्सर नहीं। वह गरीबों और मेहनत मजदूरी करने वालों के प्रति भ्रष्ट अधिकारियों-कर्मचारियों की घटिया सोच को भी उजागर करता है और शिक्षित होने के कारण स्वाभिमान की रक्षा भी करता है। इस स्थिति में समाज के प्रति उसका आक्रोश अभिव्यक्त होता है।

आँचलिक तत्वों के अनायास आगमन से कहानियों में आँचलिकता का सहजाभास हो जाता है। आधुनिक छत्तीसगढ़ी कथाकारों में इसकी अल्पता या नगण्यता के निर्दिष्ट होने से केवल भाषायी रूपांतरण वाली समक्ष प्रस्तुत हो रही हैं। इसी तरह लोककथात्मकता से असंपृक्ति के कारण कथा-रस का अभाव भी चिंता का विषय बना हुआ है। इस दृष्टि से कुबेर की कहानियाँ उल्लेखनीय प्रमाणित होती हैं। भाषा सहज-सरल और संप्रेषणीयता को संधारण करती हैं। मुहावरे-कहावतों का यथावसर प्रयोग भाषा को भावोत्पादक बनाती है। इसके अतिरिक्त ठेठ सांस्कृतिक शब्दों और ध्वन्यात्मक प्रयोगों से भाषा सजीव-सार्थक प्रतीत होती है, यथा - उकुल-बुकुल, ( उभुक-चुभुक ), सइमों-सइमों, कोल्लर-कोल्लर, सुटुर-सुटुर, लकलक-लकलक, कलर-बिलिर, रिगबिग-रिगबिग, टुप-टुप, टुकुर-टुकुर, उलांडबाटी, लिबलिब ( टिपटिप ), चोचन-चोचन, दंदर-दंदर, छटका-छटका के, डिगडिग-डिगडिग, लिचलिच-लिचलिच, छि्रंहीं-भिहीं, तनतिन-तनतिन आदि। प्रलंब कहानियों में पूर्व दीप्ति-पद्धति का प्रयोग परम्परानुसार ही अनुस्यूत है, अर्थात इस शैली से रोचकता की वृद्धि हो जाती है जो कथा का वैशिष्ट्य कहा जा सकता है।

कुबेर का प्रस्तुत संग्रह उनके पूर्व के संग्रह के विकास का अगला चरण ही कहा जाना चाहिए। कथाकार कुबेर इस संग्रह से पृथक पहचान प्रस्थापित करेंगे, इसमें दो मत नहीं।

शुभकामनाओं सहित -

1. सुसक झन कुररी! सुरता ले!! - डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा, पृष्ठ 26.

2. छत्तीसगढ़ी लोककथा, - डॉ. विनय कुमार पाठक, पृष्ठ 11.

3. छत्तीसगढ़ी साहित्य : दशा और दिशा - नंदकिशोर तिवारी, पृष्ठ 97.

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समीक्षा

सौंदर्य भी है और सुगंध भी

(कहा नहीं : प्रथम संस्करण की समीक्षा)

मुकुंद कौशल

लेखक को मैं किसी वैचारिक खूँटे से बाँधने का पक्षधर कभी नहीं रहा अतः प्रस्तुत कथा संग्रह पर विचार व्यक्त करते हुए मेरा कोई पूर्वाग्रह भी नहीं है कि छत्तीसगढ़ी कहानियों के कथ्य में क्या होना चाहिये और क्या नहीं होना चाहिये। हाँ, आज लिखी जा रही छत्तीसगढ़ी कहानियों की भाषा और शिल्प पर चर्चा अवश्य की जानी चाहिये क्योंकि यही कहानियाँ, आगे लिखी जाने वाली कहानियों का मार्ग प्रशस्त करेंगी।

छत्तीसगढ़ी कहानियाँ, चाहे वे पारंपरिक लोक कथाएँ हों या लेखकों द्वारा लिखी गई कहानियाँ, सभी कहानियों में अपने समय की वास्तविकता तो चित्रित होती ही रही है, इस अर्थ में छत्तीसगढ़ी की तमाम कहानियाँ कहीं न कहीं लोक जीवन की संघर्षशीलता की ही कहानियाँ हैं।

श्री कुबेर का कथा संग्रह कहा नहीं मेरे समक्ष है। कुल जमा छः छोटी-बड़ी कहानियों के संग्रह की सभी कहानियाँ अत्यंत रोचक हैं।

छत्तीसगढ़ी कथा लेखन में कुबेर का नाम अब नया नहीं है। कहा नहीं कुबेर का द्वितीय कथा संग्रह है। उनका प्रथम संग्रह 'भोलापुर के कहानी' शीर्षक से सन् 2010 में प्रकाशित हो चुका है।

गीतों में जैसे गेयता अनिवार्य होती है वैसे ही कहानियों में रोचकता। कथा कहने का अंदाज़ और घटनाक्रम कहानी को गति देते हैं। हमारे आसपास जो भी घटित हो रहा होता है उसकी तीव्रतर अनुभूति कल्पना का आश्रय पाकर जब शिल्पित होती है तो वह एक कहानी का स्वरूप ग्रहण कर लेती है। हर कथाकार के पास घटनाओं को देखने की जहाँ एक अलग दृष्टि होती है वहीं उन्हें व्यक्त करने का एक अपना अंदाज़ भी होता है।

ज़ाहिर है कि यह अंदाज़ कुबेर के पास भी है। कुबेर, मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्षियों तक की आंतरिक सम्वेदना को अत्यंत निकट से महसूस करते हैं और शायद इसीलिये उनके कथ्य उनकी अंतर्दृष्टि के संवाहक प्रतीत होते हैं।

संग्रह की पहली कहानी आज के सतवन्तिन : मोंगरा ऐसी कंगारू है जिसमें कहानी के गर्भ में एक और कहानी है। प्राचीन तोता-मैना के किस्सों में इसी तरह कहानी से कहानी निकाली जाती थी। सच तो यह है कि कोई भी कहानी कभी पूरी नहीं होती, हो भी नहीं सकती, बस एक पड़ाव पर जाकर रुक जाती है; वहीं से आगे की कहानी आरंभ होती है।

(आज के सतवन्तिन : मोंगरा कहानी में) सतवंतिन की लोककथा को एक दहेज विषयक कहानी के भीतर अंतर्कथा के रूप में प्रयोग किया गया है। यह मोंगरा की कहानी है। समाज में प्रचलित दहेज की कुप्रथा, पारंपरिक स्त्री की दारूण व्यथा और दबी मनोवृत्ति की मनोदशा को व्याख्यायित करती इस कहानी में चिड़िया का मानवीकरण कर लेखक ने जो अद्भुत प्रयोग किया है, वह पाठकों की संचेतना को झकझोरने में सक्षम है। संपूर्ण कथा में यह पक्षी ही एक ऐसा पात्र है जो अद्योपान्त उपस्थित रहकर कहानी के सिक्वेंस को क्रमशः आगे बढ़ाता चलता है और कथा के ताने-बाने को अंत तक बाँधे रखता है। मानवीय संवेदना को गहरे तक स्पंदित करती, यह एक ऐसी शोषित-दमित-उत्पीड़ित और निरीह स्त्री की व्यथा-कथा है जिसकी विवशता हमें विगत सदी की नारी के कथित आदर्शों का दिग्दर्शन कराती है। 'बाम्हन चिरई' के माघ्यम से फेन्टेसी गढ़ते हुए वर्तमान स्थितियों की छवि दिखाना असंभव भले ही न हो, कठिन अवश्य है।

कुबेर की स्वानुभूत संचेतना जब किसी घटना को आकृति प्रदान करती है तो वह 'बाम्हन चिरई' जैसी कहानी बन जाती है।

'बसंती' कहानी आकांक्षा और निश्चय की दृढ़ता को वाणी प्रदान करती, जीवनोत्कर्ष की एक प्रेरणास्पद् कथा है। खेतिहर मज़दूरों और बनिहारों के रूप में गाँवों में जहाँ सर्वहारा वर्ग की बहुतायत है वहीं मालगुज़ार, गंउटिया और दाऊओं के रूप में ग्रामीण अभिजात्य भी मौज़ूद हैं। सर्वहारा 'गनेसी' और अभिजात्य 'ठकुराइन' की मनोवृत्तियों का बोध कराती इस कहानी में शिक्षा के महत्व को प्रतिपादित करती 'बसंती' निश्चय ही एक संभावना बनकर उभरती है। ठकुराइन का संवाद, कि ''अब तो तंय जउन दिन साहेबिन बाई बन के देखाबे, विही दिन मंय तोला मिठाई खवाहूं।'' केवल अपनी झेंप मिटाने के लिये किया गया परिहास मात्र नहीं बल्कि एक निर्धन पर किये गए कटाक्ष-सा प्रतीत होता है। कुबेर अपनी छत्तीसगढ़ी कहानियों में इसी तरह की अर्थपूर्ण व्यंजनात्मक भाषा से कथाओं का अभिनव श्रृँगार करते चलते हैं।

'दू रूपिया के चाँउर अउ घीसू-माधव : जगन' एक रिक्शा चालक की इस व्यथा-कथा में लेखक तमाम मानवीय प्रवृत्तियों की विवेचना करते चलते हैं। रिक्शा चालक जगन का कथन - ''हमन कहाँ इंसान आवन साहब, हमन तो रिक्शा आवन।'' सुविधा भोगी वर्ग का ऐसा कटु सत्य है जो तीर की तरह चुभता है। यह कहानी चिंतन और चेतना के आयाम को स्पर्ष करती है।

रागात्मक संबंधों की कथा 'कहा नहीं' में प्रेम की शुचिता को प्रतिपादित करने का भरसक प्रयास किया गया है। इस कथा का बेहतरीन संवाद - ''पवित्रता के आगू म पाप भला टिक सकही?'' एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की तरह उभरता है। यह कथा शारीरिक आकर्षण के पार्श्व में स्त्री-पुरूष के अन्तर्सूत्र को स्पर्ष करती, यौनाकर्षण तथा प्रांजल स्नेह की महीन रेखाओं को व्याख्यायित करती एक रोचक कथा है। मुझे लगता है, इस कहानी का शीर्षक 'चंपा' रखा गया होता तो संभवतः अधिक समीचीन होता।

संग्रह के आरंभ में 'अपनी बात' (मन के बात) कहते हुए लेखक ने स्वयं यह स्पष्ट कर दिया है कि संग्रह में निहित गाथाओं की प्रामाणिकता को लेकर उनका कोई आग्रह नहीं है। किंवदंतियों व लोक कथाओं में ऐतिहासिक सत्यता भले ही शोध का विषय हो किंतु उन कथाओं सहित कल्पनाओं की अथाह गहराइयों में डूबे बिना लोक जीवन के कथ्य ढूँढ़ पाना भी असंभव है। कल्पनाओं के पारदर्शी आवरण से झाँकती सत्य की देह का सौदर्य अलग ही आकर्षक होता है।

जीवनानुभवों का सार्थक प्रकटीकरण और उसमें परिव्याप्त वैविध्य, कुबेर के शाश्वत चिन्तन का मूलाधार प्रतीत होता है। उनकी दृष्टि अंधश्रद्धा, सामाजिक कुरीतियाँ, सड़ी-गली मान्यतााएँ रूढ़ियाँ और व्यक्तिकेन्द्रित विद्वेष पर तो है ही किन्तु समस्या के साथ समाधान की ओर संकेत हो, तो रचना संदेश परक बन जाती है।

संग्रह की अंतिम कथा 'फूलो' में भी छत्तीसगढ़ के गाँवों के निर्धन वर्ग के मध्य का आपसी सौहार्द्र, उनकी नेक नीयती उनके बीच भावात्मक लगाव और सहयोगात्मक भावना का सजीव चित्रण है।

कुबेर, सौंदर्य वर्णन क्षमता के धनी हैं। उनके पास रूप और दृष्य को शब्दों के माध्यम से साकार कर देने की अद्भुत क्षमता है। कथा के ताने-बाने में छोटी-बड़ी घटनाओं को पिरो कर अपनी सृजनात्मक शक्ति का परिचय देती ये तमाम कहानियाँ छत्तीसगढ़ी कथा जगत के व छत्तीसगढ़ी गद्य साहित्य के क्रमिक विकास की महत्वपूर्ण पादानें हैं।

किसी भी सफल कहानी का प्रमुख सूत्र है रोचकता व जिज्ञासा। प्रतिपल पाठक को यह जिज्ञासा हो कि अब आगे क्या होगा? किन्तु कभी-कभी अधिक लम्बी वर्णनात्मकता इस जिज्ञासा के आड़े भी आती है। कहानी यदि वर्णनात्मक कम और तथ्यात्मक अधिक होगी तो संभवतः वह और अधिक प्रभावी होगी।

विविध छबियों और दृश्यावलियों से समृद्ध इन कथाओं में लेखक का वाक्य विन्यास देखते ही बनता है, यथा - ''सत के बघवा म सवार रणचण्डी ह निकल गे बड़ोरा कस।'' या ''बइहा पूरा ह ककरो छेंके ले छेंकाथे का?''(कहा नहीं)। 'फूलो' कहानी के अंत में फूलो को नथनी, झुमका और पैरपट्टी कहाँ से प्राप्त होते हैं, यही इस कहानी का मर्म है।

इन छत्तीसगढ़ी कहानियों में हिन्दी के कुछ शब्द अच्छी व्यंजना प्रस्तुत करते हैं जैसे - 'लहुट के आयेंव तब तक इंखरो गृह प्रवेश हो चुके रहय।' (बाम्हन चिरई) और 'कते फिल्टर म छन के आवत होही अतका सुंदर हवा?' (कहा नहीं)। वस्तुतः प्रत्येक भाषा के दो प्रकार होते हैं, पहली बोली जाने वाली और दूसरी लिखी जाने वाली भाषा। लिखी जाने वाली भाषा परिमार्जित होती है। कथाओं के संवाद जहाँ बोली जाने वाली भाषा के लेते हैं वहीं वर्णन परिमार्जित साहित्यिक भाषा में होता है।

छत्तीसगढ़ी भाषा की निजता से संपृक्त और ठेठ आँचलिक वाक्य विन्यास से सराबोर कुबेर की इन कहानियों में अनेक स्थान पर हिन्दी की ऐसी शब्दावलि सम्मिश्रित है जिसका अनुवाद भले ही संभव न हो भाषायी रूपान्तर तो किया ही जा सकता हैं यथा - मज़ाक, खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे, संगी-सहेली मन, सोचथों (बसंती) प्राणी, पीछा करे लगथें, पसीनाभींग के (जगन) मीनमेख, प्रतिबिंब, प्रचलित विश्वास, अनुभव के आधार म, विरोध के प्रबलता, आक्रोश अउ संकल्प, हृदय परिवर्तन, मोर प्रति कृतज्ञता, सृष्टि के रचना (बाम्हन चिरई) जी ल कड़ा करके, चोली म समात नइ हे, मन तो चंचल होथे, बातूनी, शरीर, खाना, वासना, प्यार, काबिल, क़ुरबान, जीवन, चाहिये, सिवा, छलावा, खुशबू, पोशाक, वाहन, सुंदरता, आदमी, दोनों, संभव, महसूस, स्पर्श, धत् (कहा नहीं) कोरा म बिठा के, जानबूझ के, याद, भी,नाज़ुक-नाज़ुक, शोर इत्यादि ऐसे श्ब्द हैं जिससे छत्तीसगढ़ी कहानियों को बचाना होगा क्योकि एक ओर जहाँ ये शब्द आँचलिकता की सुगंध से सराबोर चाँवल रूपी साहित्य में कंकड़ की तरह खटकते हैं वहीं ये भाषा के ेंसामर्थ्य को भी प्रभावित करते हैं।

एक बात का और भी ध्यान रखना होगा कि छत्तीसगढ़ी में तालव्य 'श' या 'ष' का प्रयोग नहीं होता। इन तमाम छोटे-बड़े अवरोधों के बावजूद ये तमाम कहानियाँ केवल कहानियाँ नहीं, अनुभवों के उपवन से चयनित पुष्प हैं जिनमें सौदर्य भी है और सुगंध भी।

वस्तुतः रचनाकार के भीतर जब कोई बात भीतर तक कचोटती है तो ज़ाहिर है कि उसकी छटपटाहट दिशा ढूढ़ने लगती है और तब अभिव्यक्ति का कोई माध्यम ही उसे मन के बाहर आने का रास्ता देता है। अपने दर्द को, अपनी पीड़ा को और अपनी छटपटाहट को व्यक्त करते हुए कुबेर भले ही सीधे-सीधे अपनी पक्षधरता न ज़ाहिर करते हों किंतु अपने कथ्य को लेकर वे शोषितों-दमितों, और पीड़ितों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। उनकी इन कहानियों में भले ही विद्रोह न हो, क्रांति की दुंदुभी भी न सुनाई पड़े और शोषक वर्ग के विरुद्ध कोई प्रतिक्रियात्मक प्रहार भी न दिखाई पड़े परंतु किसी प्रकार की नारेबाजी न करते हुए भी कुबेर छत्तीसगढ़ के दमितों-पीड़ितों, मज़दूरों-किसानों और सीधी-सरल स्त्रियों के पक्षधर बनकर उनकी आवाज़ बुलंद करते दिखाई पड़ते हैं।

कुबेर के द्वारा किया गया विषयवस्तु का चुनाव अच्छा है किन्तु मुझे लगता है कि छत्तीसढ़ी कहानियों के परिवेश, शब्दावलि, विन्यास, शैली और कथ्य पर और अधिक गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है।

लेखक कुबेर संभावनाशील रचनाकार हैं और उनसे और अधिक बेहतर रचनाओं की उम्मीद तो की ही जानी चाहिये।

एम आई जी, 516

साहित्य पथ, पद्मनाभपुर

दुर्ग (छ.ग.)

मो. 9329416167

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लेखकीय

मन के बात

पंचतंत्र अउ हितोपदेश म ज्ञान के भण्डार भरे हे। कथा के जरिया; बिलकुल लोककथा के रूप म; विभिन्न पशु-पक्षी के अटघा (माध्यम ले) तरह-तरह के विषय आधारित ज्ञान ल व्यवहारिक ढंग ले प्रस्तुत करे गे हे; ज्ञान के ज्ञान, शिक्षा के शिक्षा, अउ मनोरंजन के मनोरंजन। एक कथा अइसन हे, -

चार भाई रहंय। तीनों बड़े भाई मन गुरू के आश्रम म जा के खूब पढ़िन-लिखिन। ज्ञान-विज्ञान, धर्म-अध्यात्म, संगीत आदि सोलहों कला, इतिहास, ज्योतिष, यंत्र-तंत्र-मंत्र आदि सबके ज्ञान प्राप्त करिन।

तीनों भाई मन किताबी ज्ञान म तो प्रवीण हो गें फेर जीवन अउ व्यवहार के ज्ञान म शून्येच् रहि गिन।

छोटे भाई ह गुरू के आश्रम म नइ जा पाइस, अपढ़ के अपढ़ रहि गे, न वेद के ज्ञान न शास्त्र के ज्ञान, फेर दीन-दुनिया के व्यवहारिक ज्ञान वोला खूब रिहिस।

बड़े भाई मन छोटे भाई के, अपढ़ अउ मूर्ख हे कहिके, खूब हिनमान अउ तिरस्कार करंय।

एक बेरा के बात ए ; चारों भाई मन जंगल के रस्ता कोनों गाँव जावत रहंय। जंगल म बघवा के हाड़ा-गोड़ा परे रहय। देख के बड़े भाई मन कहिथें - ''अहा! देखो तो, कोन्हों जानवर के कंकाल परे हे।''

छोटे भाई ह कहिथे - ''ये तो बघवा के हाड़ा-गोड़ा आय।''

सबले बड़े भाई ह अपन ज्ञान के घमंड म कहिथे - ''वाह! तब तो इही समय हे कि हम अपन ज्ञान के परछो कर सकथन। ईश्वर ह अच्छा मौका देय हे। मैं अपन ज्ञान से येती-वोती बगरे कंकाल मन ल सकेल के जोड़ सकथों।''

छोटे भाई ह कहिथे - ''येकर से का फायदा होही भइउा? समय के बर्बादी होही। घनघोर जंगल म जादा देर रूकना उचित नइ हे। जतका जल्दी हो सके, हमला जंगल ले निकल जाना चाही।''

बड़े भाई मन ल अपन ज्ञान के बड़ा अहंकार रहय। छोटे भाई के बात ऊपर कोनों ध्यान नइ दीन।

बड़े भाई ह अपन मंत्र विद्या के बल से येती-वोती बगरे बघवा के हाड़ा-गोड़ा मन ल सकेल के जोड़ दिस।

मंझला भाई ह कहिथे - ''मंय अपन विद्या के बल से ये कंकाल ल शरीर के रूप दे सकथंव।'' मंत्र के बल से वो ह बघवा के शरीर ल ताजा कर दिस, मानो अभी-अभी प्राण त्यागे होय।

छोटे भाई ह फेर समझाइस। बड़े भाई मन के आँखी मन म तो ज्ञान के अहंकार के टोपा बंधाय रहय। छोटे भाई के बात ल अनसुना कर दिन।

अंतर मंझला भाई ह कहिथे - ''मंय अपन मंत्र विद्या के बल से ये शरीर म प्राण फूंक सकथों।''

अब तो छोटे भाई ह, अब का होने वाला हे, येला सोंच के कांप गिस। किहिस - ''भाई! जइसे ये दूनों भाई के विद्या ह सच्चा हे वइसने तोरो विद्या ह सच्चा हे। मोला पूरा भरोसा हे कि तंय अपन विद्या से ये बघवा ल जिया डारबे। तब तो जीते सात ये बघवा ह हमला खा जाही। वो विद्या ह घला का काम के, जेकर से प्राण ह संकट म पड़ जाय, जी के जंजाल बन जाय?''

छोटे के बात ल वो मन ह अपन विद्या के अपमान समझिन, नइ मानिन।

छोटे भाई ह कहिथे - ''भाई हो! तुमला जउन करना हे करव, फेर पहिली मोला ये पेड़ म चढ़ जावन दव।''

समय रहत छोटे भाई ह एक ठन पेड़ म चढ़ गे।

तीनों बड़े भाई मन के विवेक ल ज्ञान के अहंकार ह नष्ट कर दे रिहिस।

ज्ञान रूपी बड़े भाई मन ह विवेक रूपी छोटे भाई ल अपन ले विलग कर दिन। आदमी अउ पशु म विवेक भर के तो अंतर होथे।

अंतर मंझला भाई ह मंत्र पढ़िस। बघवा ह तुरते जी के ठाड़ हो गे। येकर पहिली कि वो तीनों विद्वान भाई मन कुछ समझ पातिन, कुछू कर पातिन, बघवा ह उन तीनों ल मार के खा गे।

बिना विवेक के ज्ञान ह अधूरा अउ अहितकर होथे।

साहित्यकार मन के अंदर आज भी ये चारों भाई ह मौजूद हे, पर विही साहित्यकार ह जीवित रहि सकथे जेकर ज्ञान रूपी बड़े भाई मन ह विवेक रूपी छोटे भाई के अधीन हो के सृजन करथें।

साहित्यकार के पास एक ठन अउ उपरहा चीज होथे; जब वो ह कोनों रचना के सिरजन करथे त वोला वो ह कई तरह ले देखथे, नजीक ले देखथे, दुरिहा ले देखथे, आजू-बाजू ले देखथे, उलट-पलट के देखथे, अपन नजर से देखथे, दुनिया के नजर से देखथे। जउन ल वो ह दुनिया-समाज के हित म देखथे, वोला अउ सजाथे, जउन ह हितकर नइ होवय वोला छाँट देथे। सजाना अउ काँट-छाँट करना इही ह तो साहित्यकार के शिल्प आय।

साहित्य ह घला एक ठन ललित कला आवय। कला के लिये कल्पना के दरकार होथे। बिना कल्पना के साहित्यकार के, कलाकार के शिल्प ह अधूरा होथे। कल्पना ह जतका उड़ही, व्यापक होही, शिल्प म वोतके निखार आही। बिना कल्पना के कोनों भी कला के सिरजन संभव नइ हे। विचार अउ कल्पना ले ही तो साहित्यकार ह एक ठन नवा संसार के सिरजन करथे, एकरे से तो रचना म मौलिकता आथे, सौंदर्य आथे। बिना कल्पना के साहित्य ह साहित्य नइ बन सकय, इतिहास बन जाथे।

हर साहित्यकार ह निरंतर समाज रूपी जंगल म विचरण करत रहिथे, समाज हित के चीज के खोज अउ अन्वेशण करत रहिथे। अपन विवेकि से बरोबर, समाज हित के मरे, बगरे,-परे चीज मन ल सकेल के वोला नवा-नवा रूप देवत रहिथे; वोमा नवा प्राण फूंकत रहिथे।

ये कहानी संग्रह म कल्पना के अइसने एक ठन संसार हे जउन ह आप मन ल सुंदर घला लगही अउ सोंचे-बिचारे बर विवश घला करही।

ईश्वर स्वयं अमूर्त हे अउ वोकर बहुत अकन रचना मन घला अमूर्त हें। अमूर्त चीज, अमूर्त भाव मन ह, मन जइसे साधारण ज्ञानेन्द्रिय के पकड़ म नइ आय; मन से इनला अनुभव नइ करे जा सकय। ये मन ल अनुभव करे बर, जाने बर वो इन्द्रिय चाहिये जउन खुद अमूर्त होथे, जउन ल कहिथन दिव्येन्द्रिय। दिव्येन्द्रिय ह नासमझ मनखे अउ जन साधारण मन ल सहज-सुलभ नइ होवय, इही पाय के साहित्यकार मन ह यहू कोशिश करथें कि वो ह ईश्वर के अमूर्त रूप ल, अमूर्त रचना मन ल, अमूर्त भाव मन ल मूर्त रूप म जन साधारण के समक्ष पेश कर सकंय, ताकि येला अनुभव करे म आसानी हो सके। अवतार के अवधारणा अउ राम-कृष्ण म ईश्वर के दर्शन साहित्यकार मन के इही प्रज्ञा से संभव हो सके हे।

प्यार घला अमूर्त होथे; इही पाय के केहे गे हे कि 'इश्क अहसास है ये रूह से महसूस करो...।' प्यार जइसे अमूर्त चीज ल घला साहित्यकार मन मूर्त रूप प्रदान करे के कोशिश करथें ताकि जन साधारण येला समझ अउ परख सकंय, जीवन म निभा सकंय। इही कोशिश म कतको साहित्यकार मन ह, फिल्मकार मन ह तको, प्यार ल ले के एक से बढ़ के एक काल्पनिक अमर कथा के रचना करे हवंय। साहित्यकार मन ह मूर्त रूप, मूर्त भाव ल घला अमूर्त के रूप म प्रस्तुत करे के प्रयास करथें। मूर्त से अमूर्त अउ अमूर्त से मूर्त रूप म रुपान्तरण के इही प्रयास म कल्पना के बड़ सुघ्घर उपयोग होथे अउ इही प्रयास म साहित्य के सौंदर्य सिरजित होथे।

लोक साहित्य म घला कतको अइसनेच् कथा मिलथे; चाहे ये मन ल ऐतिहासिक कहन कि काल्पनिक कहन कि किंवदन्ती कहन। इही प्रयास म हम शिरी-फरहाद, अउ हीर-रांझा के रूप म प्यार के मूर्त रूप ला अनुभव करथन।

हर समाज अउ हर लोक म हमला हीर-रांझा अउ शिरी-फरहाद के कहानी भरपूर मात्रा म मिल जाथे; राजनांदगाँव जिला के वनांचल म शिवनाथ नदी के उद्गम ल ले के विख्यात लोकगाथा ह घला अइसनेच् एक ठन कहानी आवय, एक ठन प्रयास आवय।

रचना प्रक्रिया ह प्रसव प्रक्रिया के समान होथे। कोई विचार या कोई कथानक ह कागज म तब तक आकार ग्रहण नइ कर सकय जब तक वो ह रचनाकार के मास्तिष्क म परिपक्व न हो जाय, पक न जाय। फर पाकथे तभे डारा ले गिरथे। पाकेच् फर म सुवाद अउ मिठास होथे। प्रकृति ह कभू आधा-अधूरा अउ अनुपयोगी चीज के रचना नइ करय। रचना प्रक्रिया के ये अवधि ह एक घंटा भी हो सकथे, एक साल भी हो सकथे अउ दस साल भी हो सकथे। दस साल से जादा घला हो सकथे।

ये संग्रह म शामिल आज के सतवन्तिन :मोंगरा अउ कहा नहीं ये दूनों कहानी के कथानक मन ह मोर मन ल विगत पंद्रह-बीस साल से मथत रिहिन। येकर चर्चा मंय ह कई घांव ले डॉ. नरेश वर्मा अउ सुरेश सर्वेद के सामने कर चुके रेहेंव। ये रचना मन कहीं अब जा के आकार पाइन हें अउ आप मन के हाथ म हें। निर्णय आप मन करिहव कि ये मन कतका पूर्ण अउ उपयोगी हे।

हर रचना के पीछू एक उद्देश्य होथे; रचना पूर्ण होय के मतलब उद्देश्य के पूर्ण होय से समझना चाहिये।

ये तो भाषा के मजबूरी हरे, कि कहिथन कि कहानी ह पूर गे; पूरा हो गे। सच तो ये हरे कि कहानी ह कभू पूरा नइ होवय। दुनिया के जतका श्रेष्ठ कहानी हें, कोनों पूरा नइ हें। कफन ल का कोई पूरा कहानी कहि सकथे?

आज के सतवन्तिन : मोंगरा के रचना छत्तीसगढ़ म प्रचलित एक लोक कथा ल आधार मान के नारी विमर्ष के आधुनिक संदर्भ के साथ करे गे हे। भले ही छत्तीसगढ़ी समाज म दहेज ल ले के नारी मन ऊपर अत्याचार के घटना अभी अन्य समाज के तुलना म कम हे, फेर सर्वथा मुक्त नइ हे। बहू ल बेटी के रूप म स्वीकार्यता के मामला म सब समाज ह एके जइसे हें।

कहा नहीं कहानी म छत्तीसगढ़ के जीवन-दायिनी नदी शिवनाथ के उद्गम ल ले के राजनांदगाँव जिला के वनांचल म प्रचलित किंवदन्ती (लोककथा) ल आधार बना के छत्तीसगढ़ के नारी हृदय के पवित्र प्रेम ल, छत्तीसगढ़ के नारी के दिव्यता अउ अस्मिता ल अभिव्यक्ति करे गे हे। प्रेम के पवित्रता ल अनुभव करे के कोशिश करे गे हे। प्रेम ल मूर्त रूप म समझे के प्रयास करे गे हे।

प्रेम ह आत्मा के जरिया अनुभव करे के विषय आय, मुँह से कहना जरूरी नइ हे।

लोक के पास लोककथा अउ लोकगाथा के खजाना रहिथे। बहुत अकन लोककथा ह अइसन हे कि बोली-भाषा, देश-काल अउ सामाजिक संरचना के अनुसार थोड़-बहुत अंतर के साथ व्यापक रूप से सब तरफ मिल सकथे। कुछ लोकगाथा के साथ घला अइसने होथे; जसमा ओड़निन, नल-दमयंतिन, ढोला-मारू आदि लोकगाथा ह येकर उदाहरण आय; पर कुछ लोकगाथा ह अइसन हे जउन ह केवल लोक विशेष म ही प्रचलित रहिथे; शिव-नाथ के लोककथा ह अइसने हरे।

संग्रह म बरनित शिव-नाथ के लोककथा ल लोक म प्रचलित स्वरूप म ही रखे गे हे, येकर पीछू कोनों किसिम के कोई शोध नइ करे गे हे। कथा के प्रमाणिकता के संबंध म मोर कोई आग्रह नइ हे। वइसे भी लोक प्रचलन म पात्र के नाम अउ घटना क्रम म भिन्नता होना स्वभाविक हे, पर कथा के आत्मा, वोकर मूल स्वरूप ह विहिच रहिथे।

कहानी अउ इतिहास के विषय म एक ठन ऊक्ति प्रचलित हे कि कहानी म पात्र अउ देश-काल-परिस्थिति के अलावा सब प्रमाणिक होथें जबकि इतिहास म पात्र अउ देश-काल-परिस्थिति के अलावा सब अप्रमाणिक होथें; आप मन खुद विचार करके देखव।

साहित्यकार ह विही ल लिखथे जउन ल समाज म अनुभव करथे, घटित होवत देखथे, तब वो ह काल्पनिक कइसे हो सकथे?

आज के सतवंन्तिन : मोंगरा अउ कहा नहीं, ये दूनों कहानी मन आकार म कुछ बड़े हें, पर मोला विश्वास हे, जब आप इनला पढ़े के शुरू करहू ते उरकाय बिना बंद नइ करहू।

संग्रह के अन्य कहानी मन के पीछू भी कोई न कोई उद्देश्य नीहित हे। आशा हे आप मन ल जरूर पसंद आही।

कहानी के भाषा ल आम बोल-चाल के भाषा के अनुसार रखे ेके प्रयास करे गे हे। मोर मत हे कि छत्तीसगढ़ी भाषा के ध्वनि अउ उच्चाण के फेर म पड़ के तत्सम शब्द मन के वर्तनी मन ल न बदले जाय। जइसे - शब्द सब्द अउ ऋषिरिसी न करे जाय। हिन्दी बोलइया मन घला, ष अउ : के सही उच्चारण नइ करंय तभो ले ऋषिरिशी कोनों नइ लिखंय, दुःख दुख अउ अतःअतह कोनों नइ लिखंय। तत्सम शब्द मन ल जस के तस लिखे के ये परंपरा ल छत्तीसगढ़ी म घला अपना लेना मोला उचित लगथे।

कहानी के रचना करत खानी बीच-बीच म वरिष्ठ साहित्यकार, संपादक अउ आलोचक श्री दादू लाल जोशी 'फरहद' के अमूल्य सुझाव मिलत गिस, जोशी जी के मंय हृदय से आभारी हंव। हमर छत्तीसगढ़ के नामी साहित्यकार डॉ. विनय कुमार पाठक अउ प्रयास प्रकाशन के घला मंय जनम भर आभारी रहूँ। हमर छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गीतकार डॉ. जीवन यदु 'राही' अउ श्री मुकुंद कौशल, साहित्य अउ भाषा के मर्मज्ञ, छत्तीसगढ़ी 'माटी महतारी' के सुप्रसिद्ध कवि, प्राध्यापक डॉ. नरेश कुमार वर्मा के स्नेह-दुलार, सलाह अउ सुझाव खातिर मंय सबर दिन बर इँखर हिरदे ले आभारी बने रहना चाहहूँ। आभारी अउ आभार के सब बात व्यवहारिक ए, सच बात ये हरे कि मोला तो ये मन भाई समान मया करथें, दुलार देथें, सहीं मारग दिखाथें; मोला तो इंखर मया-दुलार के हक बनथे।

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कुबेर

कहा नहीं

ओरियावन

(अनुक्रमणिका)

01 आज के सतवन्तिन : मोंगरा

02 बाम्हन चिरई

03 बसंती

04 दू रूपिया के चाँउर अउ घीसू-माधव : जगन

05 कहा नहीं

06 फूलो

1 : आज के सतवंतिन : मोंगरा

बाम्हन चिरई ल आज न भूख लगत हे न प्यास । उकुल-बुकुल मन होवत हे। खोन्धरा ले घेरी-बेरी निकल-निकल के देखत हे। बाहिर निकले के चिटको मन नइ होवत हे। अंगना म, बारी म, कुआँ-पार म, तुलसी चांवरा तीर, दसमत, सदा सोहागी, मोंगरा, गुलाब, अउ सेवंती के फुलवारी मन तीर, चारों मुड़ा वोकर आँखी ह मोंगरा ल खोजत हे; मने मन गुनत हे, हिरदे ह रोवत हे। मोंगरा ह आज काबर नइ दिखत हे भगवान? कहाँ गे होही? घर भर म मुर्दानी काबर छाय हे? कतको सवाल वोकर मन म, हिरदे म घुमरत हें। काकर ले पूछय? कोन वोला बताय। मोंगरा ल कहाँ खोजे, कहाँ पाय? अब काकर संग गोठियाय, काकर संग बतियाय? वोकर संग अब कइसे भेंटाय?

बाम्हन चिरई के छाती ह लोहार के धुंकनी कस धक-धक, धक-धक धड़कत हे। आँखी मन ह बोटबिट ले हो गे हे। पाँखी मन टूटे-परे कस अल्लर पर गे हे।

सोंचत-सोंचत पीछू छै महिना के सब्बो बात वोकर आँखी-आँखी म सनीमा कस झूले लग गे।

वो दिन ये घर म खूब उछाह-मंगल होय रिहिस। तीन-चार दिन ले दमउ-दफड़ा अउ बेन्जो-मोहरी के मारे कान भर गे रिहिस। छानी-परवा अउ गली-खोर, चारों खूँट, बड़े-बड़े पोंगा अउ डग्गा रात-दिन भाँय-भाँय अलग बजत रहंय। बिजली के लट्टू अउ झालर मन के मारे घर ह जगमग-जगमग जगमगावत रहय। सगा-सोदर के मारे महल जइसे घर ह सइमो-सइमो करत रहय, गोड़ मड़ाय बर घला तिल-भर जघा नइ रहय।

बाम्हन चिरई ह अपन खोन्धरा ले मुड़ी निकाल के देखिस, मोटियारी मन के झत्था अलग अउ डोकरी-सियान मन के झत्था अलग। सब अपन-अपन झत्था म गाय-नाचे म मगन हें। डोकरी मन के झत्था म वो डोकरी दाई ह घला बिधुन हो के गावत रहय; जेकर किरपा ले दू दिन पहिली वोकर खोन्धरा अउ वोकर अधसिगे पिला मन के बिंदरी बिनास ह होवत-होवत रहि गे रिहिस।

बात अइसन ए। मड़वा छवइया अउ चंदेवा लगइया मन अपन-अपन काम म लगे रहंय। बड़े मालिक ह कमइया मन ल घूम-घूम के तियारत रहय। तभे झरोखा डहर वोकर आँखी ह गड़ गे। एड़ी के रिस तरुवा म चढ़ गे। लिपइया-पोतइया मन के तीन पुरखा मन ऊपर पानी रूकोइस, कि - ''कते साले अँधरा-अँधरी मन लीपिन-पोतिन होही रे, उँखर आँखी म चिरई के अतेक बड़ खोन्धरा ह नइ दिखिस होही; येला सोभा दिही कहिके बचाय होहीं।''

विही करा वोकर बड़े चरवाहा मुरहा राम ह थुन्ही गड़ाय बर गड्ढा कोड़त रहय, गाज वोकरे ऊपर गिरे लगिस, ''कस बे मरहा साले, सबके आँखी फुटे हे ते फुटे हे, तोरो फुट गे हे रे; चिरई के अतका जबर खोन्धरा ह तहुँ ल नइ दिखिस होही। लान बे निसैनी, येला निकाल अउ घुरूवा म ठंडा करके आ।''

काँटो तो खून नहीं। बड़े मालिक संग मुँह लड़ाय के, कि वोकर हुकुम उदेली करे के काकर हिम्मत हे भला; घर-परिवार म कहस कि गाँव अतराब म?

मरहा राम ह तुरते साबर ल आँट म ओधाइस अउ मुड़ी ल गड़ाय-गड़ाय सुटुर-पुटुर निसेनी लाने बर चल दिस।

तभे ये डोकरी दाई ह बड़े मालिक के आगू म आ के ठाड़ हो गे। किहिस - ''कखरो आँखी नइ फूटय बचनू , मोरे से गलती हो गे बाबू। फेंकत रिहिन हें, मिही ह छेंक देंव। नान-नान पिला हें बेटा वोमा, अभी ऊँखर आँखी नइ उघरे हे। फेंकवा देबे त का वोमन बांचहीं? चिरई चिरगुन के घर उजारे म पाप लगथे रे, सियान मन कथे। अपन बेटा के घर बसाय बर जावत हस, अइसन उछाह-मंगल के बेरा म तंय चिरई-चिरगुन के घर उजारे के पाप के भागी झन बन, रहन दे।''

बड़े मालिक ह चुरमुरा के रहि गे। किहिस - ''ये बुआ के मारे ककरो नइ चलय।'' अउ डाढ़ी खजवात दूसर कोती रेंग दिस।

अइसन तरह ले बाम्हन चिरई के घर अउ वोकर पिला-पादुर मन के रक्षा होए रिहिस। बड़े मालिक के भड़कइ ल देख के वोकरो लहू सुखा गे रिहिस, फेर ये डोकरी दाई ह वोकर बनउती ल बना दिस। झाला ले उतर के वो ह डोकरी दाई के तीर म आइस। खड़े रहय तेकर चारों मुड़ा फुदुक-फुदुक फुदके लागिस - चीं..चीं...चीं... । 'तोर जय हो माता, मोर घर-दुवार, मोर पील-पांदुर के तंय आज रक्षा करेस।'

डोकरी दाई ह का समझे चिरई चिरगुन के भाषा ल; कथे - ''भाग रे छिनार, इतरा झन, चीं-चीं करत हस। तोर किता बिचारा नौकर-चाकर मन के बुता बन गे।''

डोकरी दाई ह का जाने, बाम्हन चिरई ह इतरावत नइ रिहिस, वो ह तो वोकर गुन-गान करत रिहिस। डोकरी दाई के दुत्कार म घला बड़ मया रिहिस। चीं-चीं करत बाम्हन चिरई ह फुर्र ले उड़ गे।

वोती पिला मन खोन्धरा म चूं-चूं नरियावत, मुँहू फार-फार के देखत रहंय कि दाई ह कब आही, कब चोंच म चारा डारही।

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बचनू ! बच्चन सिंह गँउटिया ल डोकरी दाई ह इही नाव ले बलाथे। परिवार म कि गाँव म अउ ककरो हिम्मत नइ हे कि गँउटिया ल बचनू या कि बच्चन सिंह कहि के बलाय। बच्चन सिंह गँउटिया के ददा-कका मन सब भगवान घर रेंग दे हें। डोकरी दाई ह गँउटिया के फुफु ए। भाई-बहिनी मन म सबले बडे। छोटे मन सब रेंग दिन, डोकरी दाई ह आज ले जीयत हे। भोलापुर गाँव म वोकरो, बर के रुख सरीख बड़े जन परिवार हे। ससुरार अउ मइके, दुनों जगा डोकरी दाई के गजब मान-सनमान हे। बड़ सरधा ले जम्मों झन वोकर पाँव छूथें।

डोंकरी दाई के हिरदे म घला अतेक मया-दुलार हे कि सब ल बाँटत फिरथे। कतको बाँटथे तभो ले वोतका के वोतका। मया-दुलार ह बाँटे म कभू सिराथे?

बच्चन सिंह गँउटिया ह कोनों ल नइ घेपे, डोकरी दाई ल छोड़ के। सब बर डोकरी दाई ए, फेर बच्चन सिंह गँउटिया के सग फूफू ए; महतारी ए।

गँउटिया-गँउटनिन के नानुक परिवार; एक झन बेटा भर तो हे। बेटा के नाव हे विश्वनाथ, बोलइ-बोलइ म बिसनाथ हो गे अउ बिसनाथ ह हो गे बिसु; पढ़-लिख के सरकारी अफसर हो गे हे। बोलत-बोलत म एसो लटपट राजी होइस हे, बिहाव बर।

घर म अतेक बड़ जग रचाय हे। कोन ह देख-रेख करे। गँउटिया ह महिना दिन पहिलिच् मान मनौव्वल करके फूफू ल लेवा के ले आय हे।

आज बिसु के तेल चघत हे।

डोकरी दाई ह गजब खुश हे। बिसु ह वोकर सबले जादा मयारूक बेटा आय। होवइया बहु के पढ़ाई-लिखाई, रूप-गुन अउ सुंदरता के बखान पहिलिच् सुन डरे हे। अब तो वोला देखे भर के साध बाँचे हे।

बेटा के तेल चघत हे। गँउटनिन ह अँचरा देय हे। बहिनी, दीदी, भउजी मन तेल चघावत हें। बाजा-मोहरी वाला मन बाजा घटकावत हें। डोकरी दाई ह बड़ सुघ्धर अकन तेलचग्घी गीत गावत हे -

घर ले वो निकले,

घर ले वो निकले, दाई हरियर-हरियर

दाई हरियर-हरियर

मड़वा म दुलरू तोर बदन कुम्हलाय।

दाई के अँचरा,

दाई के अँचरा हो अगिन बरत हे,

दाई अगिन बरत हे,

फूफू के अ्रँचरा मोर देवाथे अषीश।

एक तेल चढ़ गे,....

एक तेल चढ़गे, दाई हरियर-हरियर

दाई हरियर-हरियर

मड़वा म दुलरू तोर बदन कुम्हलाय।

कहँवा रे हरदी...

कहँवा रे हरदी, भये तोरे वो जनामन

भये तोरे वो जनामन

कहँवा रे हरदी तँय लिये अवतार।

मरार बारी

मरार बारी, भये तोरे हो जनामन

भये तोरे हो जनामन,

बनिया दुकाने तँय लिये अवतार।

कहँवा रे करसा .......

बाम्हन चिरइ ह झरोखा के अपन खोन्धरा ले मुड़ी मटका-मटका के सबो नेग-जोग ल देखत, अचरज म बूड़े रहय। पिला मन के आँखी उघर गे रहंय, दाई ल सोंच म पड़े जान के पूछथें - ''अब्बड़ बेर होगे, तँय काला सोंचथस दाई?''

''सोंचंव नहीं बाबू हो, सुरता करथंव। मंय तुंहर सरीख रेहेंव, त मोर दाई ह बताय कि मनखे जात म बिहाव होथे, बहु लानथें, उछाह मंगल होथे, त ये घर म वइसने कुछूु होवत होही का कहिके। दू दिन होगे, घर ह सइमों-सइमों करत हे। बाजा-बजनिया मन के लेखा नइ हे, कोल्लर-कोल्लर जेवन चुरत हे, नाना परकार के कलेवा बनत हे, घर ह महर-महर करत हे, एके मांदी बइठत हे, एके उठत हे।''

''ओहो! सिरतोने कहिथस दाई, महमहई अतका उड़त हे, त सवाद ह कोन जाने कतका होही?'' पिला मन कहिथें।

बाम्हन चिरई के धला मुँह ह पनछियाय रहय, पिला मन के गोठ ल सुन के वोकर तिस्ना ह अउ बढ़़ गे। फुर्र ले उड़ के चूल कोती चल दिस। बड़े-बड़े परात मन म रंग-रंग के पकवान माड़े रहय। सब ढंकाय रहंय। सोंहारी के परात ह थोकुन उघरा रहय, विही डहन उड़िस।

को जानी कते करा ले बड़े मालिक ह देखत रहय, जोर से चिल्ला के कहिथे - ''अबे मुरहा, वो चिरई ल धर के मुसेट तो रे। खाय-पिये के जिनिस मन ल बने तोप ढांक के रखो। ......... एकरे सेती येला बरोय बर केहे रेहेंव फेर मोर काबर चलही?'' फुफू ह विही करा मंड़वा म नेंग-जोग म भुलाय रहय, विही डहर निशाना जोखिस बड़े मालिक ह।

फुफू के रग म तो घला इही खानदान के लहू बोहावत हे, सुन क़़़े कहूँ चुप रहितिस; रोसिया के किहिस - ''अई, एक ठन सोंहारी ल जुठार देही त गरीब नइ हो जास रे बाबू , तेकर बर मार पच्चर मारत हस।''

फुफू ल रोसियावत देख के बड़े मालिक ह ठठा के हाँस दिस अउ हाँसत-हाँसत खोर डहर निकल गे।

जुग हो गे रिहिस हे, फुफू ह बचनू ल अइसन हाँसत नइ देखे रिहिस हे, देख के गदगद हो गे। गोद म खेलावल लइका, अब भले बड़े मालिक बन के बइठे हे, दुनिया बर होही। वोकर बर तो बचनू ए, जेकर नेरवा कांटे हे, पेट सेंके हे, गोदी म खेलाय हे। वोकर बेटा मन ले घला छोटे आय, वोकर बर तो बेटच बरोबर आय,

मालिक ल खुश देख के चरवाहा मन के घला मन खुश हो गें।

बाम्हन चिरई ह डर के मारे खोन्धरा म जा के खुसर गे रहय। बड़े मालिक ल खुश होवत देख के वोकरो हिम्मत बाढ़ गे। मांदी होय रहय ते ठउर ह बहराय नइ रहय, जूठा-काठा बगरे रहय, आइस अउ चोंच म भर-भर के डोहारे लगिस।

खावत-खावत चिरई के पिला मन कहिथें - ''ओहो, गज्जब मिठाय हे दाई। हमरो मन के बिहाव करबे त अइसनेच मिठाई अउ बरा-सोंहारी बनवाबे।''

पिला मन के बात सुन के बाम्हन चिरई ह मुसका दिस - 'चीं, चीं, चीं, चीं।'

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बिहान दिन बिहने जुवार के बात आय। अँगना म घर-परिवार अउ आरा-पारा के जम्मों दाई-माई, टुरी-टानकी मन जुरियाय रहंय। बीच म एक झन नवा सगा ह डर्राय सरीख, लजाय सरीख, सुटपुटाय सरीख बइठे रहय। उज्जर-उज्जर दुनों हाथ म चरचर ले मेंहदी लगे हे, गोर-गोर मरवा मन ह हरियर-हरियर चूरी म ठस-ठस ले भराय हे अउ फूल सरीख नाजुक-नाजुक पाँव मन म रिगबिग ले माहुर ह अघात सुंदर दिखत हे। मंुँहू ह घूँघट म ढँकाय रहय, कहाँ दिखतिस भला बाम्हन चिरई ल। फेर जान डरिस वोहा, जा... इही ह नवा बहू होही। अहा हा..... हाथ-गोड़ के सुंदरता के का पूछना हे, को जनी मुँहू ह कतेक सुंदर होही ते? चिटिकन मुँहू ल तो घला देख लेतेंव।

अब्बड़ बेर हो गे हे वोला कोशिश करत, मुँड़ी ल कभू डेरी बाजू त कभू जेवनी बाजू मटका-मटका के, पुछी ल पुचुक-पुचुक नचा-नचा के। चीं,चीं, चीं ......। चिचोरी करिस, 'गोई! देखइया मन ल जादा झन तरसा, चिटको तो घूँघट ल सरका, देख लेतेंव तोर मुँहु ल।'

तभे डोकरी दाई ह घर मालकिन संग आइस। दाई-माई मन के जम्मो कलर-बिलिर ह माड़ गे। डोकरी दाई ह पहिली तो दुल्हिन के बलाई लिस फेर वोकर घूँघट ल हलु-हलु माथा म सरका दिस। पुन्नी के चंदा ह बादर ले निकल गे; धरती-अगास, चारों खूँट म बगबग ले अँजोर बगर गे।

छिन भर तो डोकरी दाई के बुध हरा गे; देखिस ते देखते रहि गिस। लक्ष्मी ह साक्षात बहू बन के आय हे। अहा..हा... भगवान ह का रूप गढ़े हे; एकेक अँग ल कूंद-कूंद के, नाप-जोख कर-कर के बनाय हे, कोन्हों ह न रत्ती भर कम हे, न रत्ती भर जादा हे। चंदा ह देख पाही ते वहू ह लजा जाही। डोकरी दाई ल होश आइस; तिसरइया अँगठी म अपन आँखी के काजर ल निकाल के वोकर गाल म टीक दिस, 'काकरो नजर मत लगे।' सुंदर गोल-गोल, लाल-लाल गाल ल चूमिस अउ अपन अँचरा के गांठ ल छोरिस। लकलक-लकलक करत सोन के हार बंधाय रहय। बहु के गर म बांध दिस। मांग कोती नजर चल दिस, दीवाली तिहार के दिया मन सरीख सिंदूर ह रिगबिग-रिगबिग करत रहय।

संग म बइठे सियान मन दुल्हिन ल कहिथें - ''बने चीन्ह ले रहा बेटी, इही ह तुँहर परिवार के माई मुड़ी आय। तोर ससुर के फूफू ए, भोलापुर के गँउटनिन। अउ येदे ह इहाँ के गँउटनिन आय, तोर सास।''

दुल्हिन ह टुप-टुप दुनों सियान मन के पाँव परिस।

डोकरी दाई ह मन भर आसीस दिस- ''जुग-जुग जी बेटी, तोर चूरी सदा अम्मर रहे।''

फेर तो सकलाय रहंय तउन जम्मों झन मन दुल्हिन के मुँहू देखे के अउ शक्ति भर-भर के चिनहा देय के शुरू कर दिन।

विही करा मड़वा के बांस म आमा डारा के पत्ता के आड़ म लुका के बाम्हन चिरई ह घलो गोई के मुँहरन ल देखत रहय; देख-देख के मोहाय कस चुपचाप बइठे रहय। सोंचत रहय; मंय अभागिन, पखेरू के जात, तोला का देवंव गोई, आसीस के सिवा। मुँह ले निकल गे - चीं, चीं, चीं .... 'तोर सुहाग सदा अमर रहय।'

डोकरी दाई के नजर पड़ गे बाम्हन चिरई ऊपर, कहिथे - ''अई! भाग रे छिनार फेर आ गेस; टुकुर टुकुर देखत हस। नजर लगाय बर बइठे हस का?''

सुन के जम्मों दाई-माई मन खिलखिला के हाँस दिन।

बाम्हन चिरई ह फुर्र ले उड़ गे। उड़त-उड़त कहिथे - चीं,चीं,चीं...... 'ये सब काम ल तुहींच मन करव डोकरी दाई, मनखे मन। हम पखेरू के जात, अइसन काम ल नइ करन।'

खुशी के मारे हवा म उलांडबाटी खावत, नाचत-कूदत बाम्हन चिरई ह अपन खोंधरा कोती चल दिस।

पिला मन माई ल कुलकत देखिन, रहि नइ गिस, पूछथें , चूं, चूं ,चूं ...... 'का मिल गे दाई, अतेक खुश काबर हस तंय?'

येती भीतर कोती जावत-जावत डोकरी दाई ह घर मालकिन ल कहत हे - ''छातछात लक्ष्मी कस बहू पाय हस बहू ,भागमानी मन ल अइसन बहू मिलथे।''

घर मालकिन के ध्यान ह अँगना के दूसर कोती बड़े-बड़े बाजवट मन म सजा के रखे दाहिज के समान मन कोती रहय। पलंग, गद्दा, सुपेती, सोफा, आलमारी, टी. व्ही, कूलर, फ्रिज, फटफटी, बरतन-भांड़ा, घर-गिरस्ती के समान, ठसाठस सब जिनिस तो रहय।

घर मालकिन ह मुँहू ल बिचका के कहिथे - ''हूँ! चाँटबोन मुँहू ल छुछवाही के।''

डोकरी दाई ह येखर सुभाव ल सबर दिन के जानत हे। जान गे, ललचहिन के मन ह दाहिज म नइ भरे हे। मने मन भगवान से बिनती करिस - 'हे भगवान, तंय तो दयालु हस, रक्षा करबे।'

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दूसर-तिसर दिन के बात होही, बिहने ले, बेर उवे के पहिलिच् बाम्हन चिरई ह तुलसी चाँवरा तीर के रिगबिग ले लाल-लाल फूले दसमत फूल के पेड़ के डारा म बइठ के गोई के अगोरा करत हे। कतिक बेर दरसन दिही?

सब सगा-सोदर मन झर गे हें। डोकरी दाई घला चल दे हे। आज तो वो ह गोई ल जी भर के देखही; मन भर के बतियाही, हे कोई आज रोक-टोक करने वाला?

अँगना म चकचक ले उजास बगर गे। बाम्हन चिरई ह घूम के उत्ती डहर देखथे, अइ! अभी तो बेर नइ उवे हे, का के अंजोर बगरत हे? झटकुन घूम के दुवारी कोती देखथे, गँउटिया घर के सुरूज ह घर ले निकलत रहय। बाम्हन चिरई ह सोंचथे, वाह! इही पाय के बगरत अंजोर ह अतका मुलायम, अतका नरम, अतका सीतल हे, आँच के नाम नइ हे। अगास के सुरूज ह तो गरम-गरम रहिथे।

एक हाथ म आरती हे, दूसर हाथ म फूलकास के लोटा हे। बाम्हन चिरई ह मोहाय बरोबर टकटकी लगाय देखत हे। अ हा..हा.का रूप हे गोई के, अभी-अभी फूले दसमत के लाल-लाल फूल कस बदन हे, जउन ल न तो अभी हवा के परस लगे हे, न तो कोई तितली ह जुठारे हे; बदन ले मोंगरा-चमेली के महर-महर महमहई ह उड़-उड़ के चारों कोती बगरत हे।

न हाथ के मेंहदी के रंग छूटे हे, न पाँव के माहुर फीका होय हे; सब जस के तस हे। धीरे-धीरे रेंगत, तुलसी चाँवरा कोती आवत हे; न आरती के दिया बुझे, न लोटा के पानी छलके अउ न मुड़ी के अँचरा सरके, सबके मान रखना हे।

पानी के लोटा ल तुलसी चाँवरा म मढ़ा दिस, दसमत पेड़ कोती मुँहू कर दिस, दसमत के फूल टोरे लगिस। एक ठन टोरिस अउ बड़ जतन-जोगासन से वोला थारी म मड़ाइस। दूसर फूल बर हाथ बढ़ाइस, बाम्हन चिरई ह विही करा लुकाय बइठे रहय। मुड़ी ल डेरी-जेवनी नचा-नचा के गोई के मुँहू-मुँहू ल देखे म बिधुन रहय। गोई ह दसमत फूल टोरत हे, एकरो वोला कोई गम नइ रहय।

गोई ल अतका नजीक ले पहिली कभू अउ देखे रिहिस हे क?

बाम्हन चिरई के मुड़ी मटकई ल देख के गोई ल हाँसी आ गे, हाँसत-हाँसत हाथ उचा के मारे के नकल करिस।

जानो-मानो कब के जान-पहिचान वाले कस, बाम्हन चिरई ल घला इतरई आ गे; मुड़ी ल अउ मटका दिस, पुछी ल घला टेटका दिस। चीं, चीं,.., जिबरा दिस गोई ल। 'गजब मार ते! मार के तो बता।'

गोई ह वोला पकड़े बर आस्ते ले हाथ लमाइस। चिरई फुर्र,; चीं, चीं, चीं .....। 'जरा दम धर न गोई, अतका का जल्दी हे? तंय ह मोला का नइ तरसाय हस?'

बड़ सरधा ले तुलसी माता के पूजा करत हे गोई ह; जानो-मानो संउहत आगू म खड़े हाबे तुलसी माता ह। लोटा के गंगा-जल ल रूकोइस, दिया जलाइस, आरती घुमाइस, जलत उदबत्तीे ल खोंचिस, तुलसी दल टोर के वोला दू बीजा चाँउर अउ गंगा जल संग गटकिस फेर मुड़ी नवा के पाँव परिस।

वोती बाम्हन चिरई ह घला मने मन तुलसी माता के दसोें अँगरी के बिनती करत हे - 'हे, तुलसी माता! दुनिया भर के दुख तकलीफ तंय मोला दे देबे फेर मोर गोई के गोड़ म एक ठन कांटा झन गड़न देबे।'

जेती-जेती गोई ह जावत हे, बाम्हन चिरई ह धला वोकर पीछू-पीछू जावत हे।

अंगनच् म एक कोन्टा म कुआँ हाबे। तीर म बड़े जबर टंकी हे। टंकी म लिबलिब ले पानी भरे हे। छोटकुन बाल्टी ल धर के गोई ह गमला म लगे फूल-पौधा मन म पानी रुकोवत हे। किसम-किसम के पौधा लगे हे गमला मन म। रंग-रंग के गुलाब हे, मोंगरा हे, सेवंती हे, केवरा हे, सदासोहागी हे, सब म पानी पलोवत हे गोई ह।

मोंगरा के काली साँझ कुन के डोंहराय जम्मों डोंहरू मन ह चरचर ले छितर गे रहय। खुशबू के मारे चारों खूंट ह महरे महर करत रहय।

गोई ह बाल्टी ल भिंया म मड़ा दिस। निंहर के बड़ सुंदर अकन मोंगरा के फूल मन म दुनों हाथ ल फेरे लगिस।

बाम्हन चिरई के हिरदे ह सिहर गे, कांटा गड़े कस पीरा होइस। उई माँ, मोर गोई के नाजुक-नाजुक हथेली मन खुरचाय मत।

गोई के मन घला मोंगरा के फूलेच् मन सरिख फूले रहय, महमहात रहय। एक ठन फूल ल टोर के अपन बेनी म खोंच लिस। बाम्हन चिरई ल अचरज हो गे, कते ह मोंगरा के फूल ए अउ कते ह गोई के मुँहू ए; कोई बता सकथे? मुँह ले हुरहा निकल गे, चीं, चीं, चीं, - 'मोंगरा'।

'मोंगरा', बाम्हन चिरई ह फेर कहिथे। हाव, आज ले हमर गोई ह अब हमर मोंगरा हो गे, जनम भर के मितानिन। चीं, चीं, चीं, 'सीता-राम मोंगरा'।

आज ले गोई ह बाम्हन चिरई के मोंगरा हो गे।

गोई ह मुड़ी उचा के बाम्हन चिरई कोती देखिस। मुस ले हाँस दिस। जेवनी हाथ ल उचा के मारे के फेर नकल करिस। खोची भर अनाज के दाना ल तुलसी चाँवरा तीर बगरा दिस। बाम्हन चिरई ह देखिस, कतेक मया दुलार भरे हे गोई के नान्हें-नान्हें आँखीं मन म? अपन सगा-परिवार मन ल नेवता दिस बाम्हन चिरई ह, चीं, चीं, चीं, ... 'आओ रे पील-पांदुर हो, मोर मोंगरा गोई ह आज हमर मन के पंगत करत हे।'

मोंगरा के फुलवारी म अब तो दिनों दिन चिरई-चिरगुन के चिंव-चाँव ह बाढ़त जावत हे; का तोता, का मैना, कोयली, रम्हली अउ कोन जाने का का? कंउवा घला कहाँ पिछवाने वाला रिहिस हे।

गँउटिया-गँउटनिन अचरज म पड़े हे- ''पहिली तो अतेक चिरई-चिरगुन नइ आवंय; अब कहाँ ले सकला गें?'

इही किसम ले दू-चार दिन बीत गे।

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बाम्हन चिरई ह दसमत पेड़ ले देखत हे, मोंगरा के चेहरा ह आज कुम्हलाय सरीख, मुरझाय सरीख दिखत हे। वोकर हिरदे ह धक ले हो गे, 'हे तुलसी माता! मोर मोंगरा ल आज कोन ह का कहि दिस? का दुख हमा गे हे वोकर हिरदे म?'

आज एको चिरई मन मोंगरा के देवल दाना ल मुँह नइ लगाइन।

अँगना म बिसु बाबू के मोटर-कार खड़े हे। डरावर ह पोंछ-पोंछ के चमकावत हे, हवा-तेल-पानी के जाँच करत हे। सब ठीक-ठाक हे। बैग-अटैची सब जोरा गे हे। चाबी अंइठना हे, अउ फुर्र। बस बिसु बाबू के अगोरा हे।

बिसु बाबू ह नास्ता कर के हाथ पोंछत सुरुकुरु कार कोती आवत हे। अपन खोली के दरवाजा म परदा के आड़ ले के मोंगरा ह खड़े हे, जोड़ी ल जावत देखत हे। मन ह कहत हे, जोड़ी ह एक नजर तो लहुट के देख लेतिस।

परछी ले गँउटनिन ह मोंगरा कोती अँगठी नचा के झिंगुर चिंचियाय कस बोलिस - ''अरे बाबू , तंय जावत हस ते जा, फेर अपन ये बोझा ल घला ले के जा। हमर छाती म दार दरे बर ये छुछुवाही ल इहाँ छोड़ के झन जा।''

हे भगवान ये ह बोली बोलत हे कि आरी चलावत हे? बाम्हन चिरई के जी कलप गे। बेंदरी मुँहरन के तो खुद हे, छुछुवाही तो खुद हे, कोन होथे ये ह मोर परी कस सुंदर मोगरा ल छुछुवाही कहवइया? बाम्हन चिरई के मन करिस, उड़़ के जाय अउ ये बेंदरी मुँहू के मुँहू ल चोंचन-चोंचन के, ठोनक-ठोनक के लहू-लहू कर दे।

जोड़ी ह एक घाँव तको मोंगरा डहर लहुट के नइ देखिस। वाह रे निर्दयी। मोंगरा ह परदा के आड़ ले जोड़ी ल जावत देखत हे। सास के बोली ह वोकर हिरदे म जा-जा के गड़त जात हे। दुनों आँखी ले तरतर-तरतर आँसू बोहावत हे, मनुहार करत हे 'हे जोड़ी पल भर तो लहुट के देख ले। तंय नइ रहिबे, वोकरे सुरता कर-कर के मंय दिन ल पहा लेतेंव। काकर अधार म तंय मोला इहाँ छोड़ के जावत हस?'

जोंड़ी तो निठुर हे; काबर देखे लहुट के? गाड़ी तो धुर्रा उडा़त फुर्र हो गे। मोंगरा ह जोड़ी के मोटर ल जावत देखत हे। न जोड़ी के दरसन होवत हे न वोकर गाड़ी के। इहाँ ले ऊहाँ तक केवल धुर्रच् धुर्रा दिखत हे, धुर्रच् धुर्रा दिखत हे।

मोंगरा ह पथरा कस मुरती जिहाँ के तिहाँ ठाढ़े हे, हालत हे न डोलत हे, तरतर-तरतर आँसू बोहावत हे।

सास ह फेर आरी चलाइस -''अरे ए छुछुवाही, रोना हे, मरना हे सरना हे त भीतर म जा के मर-खप, डेरौठी म खड़े हो के दुनिया ल तमाशा मत देखा। .......... हे भगवान, कोन जनम म पाप करे रेहेंव कि ये कुलक्छनी के संगत म पड़ गेंव?''

मोंगरा ह तुरते भितरा गे।

सास गँउटनिन के जहर कस बोली ल चरवाहा-चरवाहिन मन सुनिन, राउत-रउताइन मन सुनिन, पवनी-पसेरी वाले मन सुनिन, आरा-पारा वाले मन सुनिन, अटइत-बंटइत अउ जात-गोतियार मन सुनिन, बचनू गँउटिया ह घला सुनिस; ककरो हिम्मत नइ होइस कि गँउटनिन ल पूछय कि का गलती कर परिस हे बहू ह तेकर खातिर वोला अतका बेकलम-बेकलम गारी देवत हस? कोनों चींव नइ करिन।

अनीति-अन्याय के बात होवत हे, विरोध करइया कोनों नइ हे।

बाम्हन चिरई ह मने मन सोंचत हे, 'मनखे जात का अतका डरपोक होथें? कि ऊँखर आँखी के पानी ह उतर गे हे? कि ऊँखर छाती म हिरदे नइ होवय? कि ऊँखर नीर-क्षीर विवेक ह सिरा गे हे? कि ऊँखर आँखी मन म सुवारथ के पट्टी बंधा गे हे?'

बाम्हन चिरई ह मनखे नो हे। वोकर तन-बदन म आगी लगे हे। उड़ के परछी म चल दिस जउन तीर खड़े हो के सास ह आरी चलावत रहय, मन भर के बखानिस, चीं, चीं, चीं .......... 'हत् रे बेंदरी-मुँहू , बिलई, भंइसी मोर मोंगरा गोई ल गारी-बखाना करने वाली तंय होथस कोन? तंय छुछुवाही, तंय कुलक्छनी। तोर मुँहू म कीरा पर जाय ते। मरे-खपे के बात करथस। तोर तो नारी जनम धरई ह घला बिरथा हे रे बिलई। नारी हो के नारी के दुख ल तंय नइ जान सकेस? नारी हो के नारी ल नइ समझ सकेस, नारी ल नइ समोस सकेस? बने जांच-परख के, चार समाज अउ देवता- धामी के गवाही म बिहा के लाय हस तब वो ह तोर घर म आय हे, कोनों बरपेली नइ आय हे। बेटा के पीछू म बेटी बरोबर हे। फेर तोर तो छाती म पथरा माड़े हे, हिरदे होतिस त न समझतेस?'

मोंगरा के फुलवारी ह आज सुन्ना परे हे। न मिट्ठू के मीठ बोली सुनावत हे, न कोयली के कुहुक सुनावत हे। न चिरई-चिरगुन के चींव-चाँव सुनावत हे न, कंउवा के काँव-काँव सुनावत हे। सुनावत हे ते खाली मोंगरा के करलइ अकन रोवइ-सिसकइ ह।

बाम्हन चिरई के मन ह कलप गे। कते खोली म होही मोंगरा ह?

आखिर बाम्हन चिरई ह खोजिच डरिस। मोंगरा ह अपन पलंग म मुँह ढांप के ढलगे हे, रोवत हे, कल्पत हे। आस बंधइया, ढाढस देवइया कोनों नइ हे।

बाम्हन चिरई ह झरोखा म बइठे हे। वोकरो मन ह रोवत हे। सोंचत हे, भगवान ह सुख अउ दुख, प्रेम अउ घृणा, ये सब ल मनुसेच मन बर बनाय हे। कतेक सुंदर अउ कतेक अजीब चीज होथें ये मनखे मन?

कहिथें, सुख ह बाँटे म बढ़थे अउ दुख ह बाँटे म घटथे। बाम्हन चिरई ह सोंचत हे; मोंगरा के दुख ल मंय कइसे कर के बाँटंव? चीं........ ; नइ सुनिस मोंगरा ह। फेर आसते से किहिस चीं ........... ।

मोंगरा ह सुन डरिस बाम्हन चिरई के बोली ल, आँसू मन ल अँचरा म पोंछिस, मुड़ी उठा के वोकर कोती देखिस।

हे भगवान! हे तुलसी माई! देख तो दाई, रोवई के मारे मोंगरा के आँखी मन ह कतका ललिया गे हे। बाम्हन चिरई के करेजा ह मुँह म आ गे। फेर कहिथे चीं..... 'झन रो गोई, झन रो! नारी जनम धरे हस, नारी ह तो धरती समान होथे। पृथ्वी माता ह सबके झेल ल सहिथे, सबके गलती ल सहिथे, सबला छिमा कर देथे। नारी मन तो अइसन दुख ल सतजुग ले सहत आवत हें। सतजुग म शकुन्तला बहिनी ह सहिस, त्रेता म उरमिला माई ह अउ द्वापर म राधा ह सहिस। कलजुग म तोर सही दुखियारी के अब का गिनती बतावंव। दुख कतरो बड़ होवय, कटथे जरूर। घुरुवा के घला दिन ह बहुरथे बहिनी, चुप हो जा।'

गली कोती कोन जाने कते माई ह सुघ्घर अकन सुवा गीत गावत रहय -

तरि नारि नहना मोर,

तरि नारि नहना रे सुवना,

के तिरिया जनम झन देय

ना रे सुवना,

कि तिरिया जनम झन देय।

मोंगरा ह कलेचुप उठिस अउ हाथ-मुँह घोय बर नहानी कोती चल दिस।

अब तो रोज अइसनेच् होय लगिस।

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तीन महीना हो गे।

बाम्हन चिरइ ह नित आठों पहर टकटकी लगाय सड़क कोती निहारत रहिथे; कोनों मोटर नहकथे, कोनों फटफटी नंहकथे, झकनका के देखथे, कहूँ बिसु बाबू आवत होही।

बीसू बाबू के दरसन नइ हे।

मोंगरा गोई के हालत ल का बताँव, फूल सही काया ह सूख के काँटा हो गे हे। जीव ह को जनी कते करा लुकाय होही?

मोंगरा गोई ल न घर ले बाहिर निकले के इजाजत हे, न गोड़ म माहुर-आलता लगाय के। न हाथ म मेंहदी लगाय के, न चुंदी म तेल लगाय के। रसोई म जाना तो सक्त मना हे।

गोई ह दाना-दाना बर तरसत हे, तेल-फूल बर तरसत हे, चेंदरी-चेंदरी बर तरसत हे।

बाम्हन चिरई ह सोंचत हे - गोई! पखेरू होतेस, एक-एक दाना ला के तोर चोंच म डारतेन, तोर पेट भर जातिस; कइसे देखंव तोर करलई ल। तोर सुध लेवइया ये दुनिया म का कोनों नइ हें?

वोती सास भंइसी के का पूछना हे। दिन म दसों बेर आनी-बानी के खावत हे, चुंदी म नाना परकार के तेल लगावत हे, किसम-किसम के पाटी पारत हे; झलमला बने हे, झम ले एती आवत हे, झम ले वोती जावत हे। ओखी लगा-लगा के दिन म दसों घांव गोई ल बखानत हे।

बाम्हन चिरई के तन-बदन म आगी लगे हे, हत् रे चंडालिन! तोला दीन-दुनिया के कोनों डर नइ हे, ते नइ हे, भगवान ल तो थोकुन डर। गोई के का गलती हे? दहेज म कार नइ लाइस? सोना-चाँदी कम परगे? तब का रंग-रूप, गुन-व्यवहार, पढ़ाई-लिखाई के कोनों मोल नइ हे? कार अउ सोना-चाँदी ह इंकरो ले बढ़ के हो गे हे? तोरो बेटी रहितिस तब जानतेस तंय बेटी के मया ह का होथे, बेटी के मोल का होथे।

भगवान तो पथरा के बने हे; न कुछ देखे, न कुछ सुने अउ न कुछ बोले; आरा-पारा, जात गोतियार,, गाँव समाज वाले मन ल तो सब दिखत हे, सब सुनात हे; ये मन काबर कुछू नइ बोलंय? वाह रे आदमी के जात। आदमी जनम पाय हो फेर राक्षस ले गये-बीते हव।

एक दिन संझा बेरा बिसु बाबू के मोटर आ के झम ले अँगना म ठाढ़ हो गे। बाम्हन चिरई के मन हुलस गे। गोई के घला अइलाय बदन हरिया गे।

आज के रात गोई ह पिया संग सुख के नींद सुतही।

समाचार बात कहत बगर गे। मिट्ठू, मैना, कोयली, रम्हली, सब ल पता चल गे; आज गोई के पिया ह घर आय हे। बाम्हन चिरई के पिला मन कब के सज्ञान हो के अपन अलग-अलग खोन्धरा बना चुके हें; वहू मन खुश हें।

बाम्हन चिरई ह अब गोई के खोली के झरोखा म अपन बसेरा बना डरे हे। गोई ह बजरा दुख भोगत हे, अकेला कइसे छोड़ देय वोला?

कान ह गोई के गोठ सुने बर कब के तरसत हे, गोई के खिलखिलई सुने जुग हो गे हे, आज तो हाँसही जरूर। वोला चैन नइ आवत हे। कतका बेरा रात होही?

गोई ह जोड़ी ल गिलास म पानी ला के देवत हे। बिसु बाबू ह गोई ल गोड़ ले पाँव तक निहारत हे।

बाम्हन चिरई ह सोंचत हे, गोई के दसा देख के बिसु बाबू के आँखी ले आँसू निकल जाही; फेर बिसु बाबू के आँखी ल देख के, व्यवहार ल देख के वो ह ठाड़े-ठाड़ सुखागे। बिसु बाबू ह गोई ल धमका के पूछत हे - ''माँ कहाँ हे?''

का जवाब देतिस गोई ह?

बिसु बाबू ह माँ ल सोरियत वोकर खोली डहर झाँक के देखथे। अइसे दरी झाँकी-झलमला सही झम ले एती, झम ले वोती जावइया भंइसी ह अपन खोली म जा के मुँह फुलोय, धरना धरे बइठे हे।

बिसु बाबू के एड़ी के रिस तरवा म चढ़ गे। उनिस न पुनिस गोई के पीठ म धमाधम-धमाधम मुटका बरसाय लगिस। दहाड़ मार के गोई ह धरती म गिर गे। बिन पानी के मछरी कस तलफे लगिस। बिसू बाबू राक्षस बन गे हे; लात ह थिरावत नइ हे।

सास ह धरना धरे बइठे हे, मने-मन हाँसत अपन खोली म खुसरे हे।

बचनू गँउटिया के आय के अभी बेरा नइ होय हे।

आरा-पारा, जात-गोतियार मन अँधरा-भैरा बन गे हें।

गोई ह बेसुध धरती म परे हे। बाम्हन चिरई ह धारो-धार रोवत हे - 'हे धरती माई! दसों अंगरी के बिनती हे, मोर गोई के रक्षा करबे। तोर सिवा वोकर इहाँ अउ कोन हें?'

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गोई ह जानथे कि बाम्हन चिरई ह जानथे; बजरा बरोबर रात ह कइसे पहाइस? रात भर गोई ह कलप-कलप के रोय हे। रात भर बिचारी बाम्हन चिरई ह बचनू गँउटिया के चिरोरी करे हे, हे मालिक! तंय तो गाँव भर के नियाव करथस; कुछू तो नियाय कर। परोसी मन घर, जात-गोतियार मन घर, पंच-सरपंच मन घर जा-जा के दसों अँगरी के बिनती करे हे, चलो ददा हो, चलो बबा हो, मोर गोई के रक्षा करव। एक घर के बेटी ह गाँव भर के बेटी होथे, एक घर के बहु ह गाँव भर के बहु होथे। आज मोर गोई ऊपर बीपत आय हे, भगवान झन करे, काली ककरो ऊपर आय। इही सुख-दुख खातिर तो आदमी ह आदमी संग बस्ती म बसथे?

वाह रे इन्सान हो, गोई के आँसू पोंछे बर एक झन तो आतिन। कोनों ल काबर दोष देना? जेकर अँगठी धर के, जेकर मुँहू देख के, जेकर भरोसा करके आय हे, विही ह सबले बडे बैरी बन गे हे तब।

बिहने हो गे हे। दुनिया म उजास बगर गे, गोई के अँगना म अँधियारा पसरे हे।

बाम्हन चिरई ह मने मन सोंचत हे, दिन के उजियार म कहूँ बिसु बाबू के मन के रात रूपी कालिमा ह मेटा गे होही। फेर वाह रे निष्ठुर बिसु बाबू! तंय तो अब राक्षस ले घला बाहिर हो गेस।

पहिली गोई के बैग अउ सुटकेश ल धम्म ले अँगना म फेंकिस फेर गोई के छरियाय चुंदी ल धर के गोई ल घिरलात अँगना म निकालत हे। बेकलम-बेकलम गाली बकत हे। मुटका म मारत हे, लात म लतियावत हे।

गोई ह जोड़ी के गोड़ ल पोटार-पोटार के घार मार-मार के रोवत हे। सास के गोड़ म गिरत हे, सासो ह लतियावत हे, ससुर के गोड़ म गिरत हे, ससुरो ह लतियावत हे।

बाम्हन चिरई के आँखी ले गंगा-जमुना बोहावत हे। धरती माई ल गोहार पार-पार के बिनती करत हे, हे धरती माई! भगवान ह अइसन दुख तो सीता माई ल घला नइ देय हे। वोला तो तंय अपन गोद में समो लेय रेहेस, मोर गोई ल काबर नइ समोस? काबर तंय ह आज निठुर बन गे हस?

मुरहा राम अउ दूसर नौकर चरवाहा मन कोठा-परसार म मुँहू ल तोप-तोप के दंदर-दंदर के रोवत हें। अरोस-परोस के मन घला रोवत-रोवत अपन-अपन घर भीतर खुसरत हें।

तुलसी माता के पत्ता मन घला पिंवरा गे हे।

दसमत के डोंहरू मन छितरावत नइ हें।

पेंड़ मन के डारा-खांदी मन हाले-डोले बर भुला गे हें।

मिट्ठू ,मैना रम्हली, कोयली, कंउवा कोनों आज अपन ठीहा ले निकले नइ हें।

बिसु बाबू के आँखीं मन म शैतान समाय हे। अपन मोटर म बइठ के फरार हो गे।

बचनू गँउटिया के आँखी मन कांच के बने हे। कुछू दिखत नइ हे। कते डहर वहू रेंग दिस।

सास तो साक्षात डायन के अवतार ए। हाथ नचा-नचा के, मुँह मटका-मटका के अउ आँखी छटका-छटका के कहत हे - ''अरे सती सावित्री, राम-राम के बेरा, अँगना म अब तमाशा मत दिखा। तोर समान ल धर अउ अपन बाप घर कोती रेंग, नइ ते ये दे अतका बड़ कुआँ हे, वो दे माटी तेल के डब्बा माड़े हे, वो दे डोरी माड़े हे, कइसनो कर के तो मर।''

दुरिहा म रेडियों बाजत हे; गीत आवत हे -

तरि नारि नाना

मोर तरि हारि नाना न रे सुवा हो

कि तिरिया जनम झन देय।

तिरिया जनम मोर धरती बरोबर न रे सुवना

कि माड़े हाबे दुख के पहार

न रे सुवना

कि माड़े हाबे दुख के पहार

न रे सुवना

कि तिरिया जनम झन दे।

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का उपाय करे? बाम्हन चिरई ह दसमत के पेड़ म बइठे सोंचत हे। गोई के दुख ल कइसे हरे?

सतवंतिन के कहिनी सुरता आ गे। ननपन म दाई ह सुनाय; सुनात-सुनात वोकर दुनों आँखी ले तरतर-तरतर गंगा-जमुना के धार बोहाय लगे। लइका रहय तो का हो गे; सुनत-सुनत वहू ह रो डरे।

एक झन सतवंतिन रहय, बिलकुल मोंगरा गोई कस; सात झन भाई के एक झन दुलौरिन, सबले छोटे। भउजी मन के आँखी के पुतरी कस; बड़ मयारुक, बड़ सुकुमारी, फूल कस, परी कस। पराया धन बेटी, समात ले भाई-भउजी के कोरा म समाइस, खेलिस, दुनिया भर के मया-दुलार पाइस। बाबुल के कोरा म बेटी ह कब तक समाही? एक न एक दिन कोरा ह छोटे होइच् जाथे। भाई मन बड़ उछाह-मंगल से बहिनी के बिहाव कर दिन।

बड़ सुंदर दुल्हा रहय सतवंतिन के; गजब मया करे सतवंतिन ल। फेर जेठानी मन तो डायन रिहिन, देवर-देरानी के सुख ऊँखर आँखी म गड़े लगिस। झगरा शुरू हो गे।

रोज-रोज, रात-दिन के झगरा के मारे जोड़ी के मन उचट गे। सतवंतिन ल अघर म छोड़ के निकल गे परदेस, व्यापार करे बर। जावत-जावत सतवंतिन ल गजब समझाइस - 'सतवंतिन! मोर हिरदे के मया, मोर आँखी के पुतरी, तंय संसो झन कर; बहुत जल्दी लहुट के आहूँ ,तोर बिना का मंय जी सकत हँव? गाड़ा भर के पइसा कमा के लाहूँ , नवा घर बनाबोन, नवा दुनिया बसाबोन, सबले अलग, सबले दुरिहा; सबले सुंदर, सबले न्यारा जिहाँ बस तंय रहिबे, मंय रहिहू , अउ कोनों नइ रहय।'

पिया ह निकल गे पइसा कमाय बर परदेस; सतवंतिन ल चार-चार झन डायन मन के भरोसा छोड़ के।

जेठानी मन तो कलकलाय बइठेच् रहंय, तपे के शुरू कर दिन। सतवंतिन के दिन गिने के शुरू हो गे। एक दिन निकलिस, दू दिन निकलिस; रस्ता निहारत छः महिना निकल गे। जोड़ी के दरसन नइ हे। देखत-देखत आँखी पथरा गे। रोवत-रोवत आँसू सुखा गे। हे जोड़ी अब तो आ जा। मरे के पहिली तोर मुँहू ल एक घांव तो देख लेतेंव।

एक तो जोड़ी के दुख, ऊपर ले जेठानी मन के तपई; सतवंतिन के शरीर ह निच्चट हाड़ा-हाड़ा हो गे हे, पिया दरसन के आस म को जनी कते करा जीव ह अटके होही?

बड़े जेठानी के जी कलकलाय रहय, कथे - 'नांगर के न बक्खर के,दँउरी बर बजरंगा।अरे छिनार, हमला तपे बर तोर धगड़ा ह तोला इहाँ छोड़ के मुंड़ाय हे। को जनी, साधु बन गे होही कि जोगी? तंय काबर इहाँ हमर छाती म बइठ के दार दरत हस। बइठे-बइठे खाथस, शरम नइ आय?'

मंझली जेठानी तो वोकरो ले नहके हे। छटना भर धान ल ला के सतवंतिन के आगू म भर्रस ले मड़ा दिस। किहिस - 'अरे कलमुँही, बड़ा सतवंतिन बने बइठे हस। बिन बहना, बिन मूसर, बिन ढेंकी के ये धान ल अकेल्ला कुट के ला, तब जानबोन कि तंय सिरतोन के सतवंतिन आवस।'

सब झन घर म खुसर गें। संकरी-बेड़ी लगा दिन।

सतवंतिन के सत के परीक्षा हे।

छटना के धान ल मुड़ी म बोही के निकल गे जंगल कोती सतवंतिन ह। बदन म ताकत नइ हे। लदलद ले गरू धान, मुड़ी ह डिगडिग-डिगडिग हालत हे। कनिहा ह लिचलिच-लिचलिच करत हे। माथा ले तरतर-तरतर पसीना बोहावत हे। पेट म अन्न के एक ठन दाना नइ परे हे। भूख-पियास म जिवरा ह पोट-पोट करत हे। धकधक-धकधक छाती ह धड़कत हे। बइसाख-जेठ के दिन, मंझनिया के बेरा, धरती-अगास ह तावा कस तिपे हे। आगी के लपट कस झांझ चलत हे।

हे भगवान, हे धरती माई, तोरे सहारा हे; रक्षा कर।

बीच जंगल म बर रुख के छंइहा म बइठ के सतवंतिन ह धार मार-मार के रोवत हे। कोन सुने वोकर रोवइ ल? कोन पोंछे वोकर आँसू ल। न कँउवा काँव करत हे, न चिरई चाँव करत हे।

विही बर रुख म एक ठन बाम्हन चिरई ह अपन खोन्धरा म बेर ढारत बइठे रहय। सुन पाथे सतवंतिन के कलपना ल। तीर म आ के कहिथे - 'तंय कोन अस बहिनी? का नाव हे तोर? कोन गाँव के दुखियारिन आवस? का दुख पर गे हे तोला कि कटकटाय, बीच जंगल म बइठ के रोवत हस। बघवा-भालू के तोला डर नइ हे?'

सतवंतिन ह कहिथे - 'का दुख तोला बतांव बहिनी। छः महिना हो गे हे, पति ह परदेस निकसे हे। जेठानी मन धान कुटे बर पठोय हें। बिन मूसर, बिन बहना, बिन ढेंकी के ये छटना भर धान ल मंय कइसे कूटंव। एको बीजा चाँउर झन टूटय। का करंव? कइसे अपन सत के परछो देवंव?'

बाम्हन चिरई ह सतवंतिन के मुँहू ल देख परथे, हे भगवान, ये तो मोर सतवंतिन गोई आय। येकरे अंगना म खेल-कूद के जिनगी बीते हे। आज ये बीपत म हे, करजा उतारे के मौका आजे हे। कहिथे - 'हत् जकही, एकरे बर तंय जंगल म बइठ के रोवत हस? हमर रहत ले तंय फिकर करथस? ये तो हमर बर छिन भर के काम आवय। घर ले हुंत पारे रहितेस, हम दंउड़ के आय रहितेन। चुप हो जा बहिनी, चुप हो जा। रोवत आय हस, हाँसत भेजबोन। जोड़ी के फिकर करथस, झन कर; सच कहिथंव, तोर जोड़ी घला तोर बिना तरसत हे। गाड़ा भर सोना-चादी, मुंगा-मोती जोर के आवत हे। बड़ जल्दी पहुँचने वाला हे। बाम्हन चिरई के तंय बिश्वास कर।'

बाम्हन चिरई मन कभू लबारी बात नइ बोलय। जोड़ी जल्दी आने वाला हे? सुन के सतवंतिन के मन हरिया गे।

बाम्हन चिरई ह बर रुख के डारा म बइठ के अपन पील-पांदुर मन ल हुंत करात हे - 'अरे आवव रे मोर पील-पांदुर हो, दंउड़ के आवव। हमर सतवंतिन बहिनी ऊपर बजरा बीपत परे हे। छटना भर धान ल अइसे फोलव कि एको बीजा चाँउर झन टूटय। आज तुंहर परछो हे।'

छिन भर म जंगल भर के बाम्हन चिरई मन सकला गें। भिड़ गे धान फोले बर। बात कहत चाँउर अलग अउ फोकला अलग।

मिट्ठू मन बात कहत अमरित कस मीठ-मीठ गरती आमा के कूढ़ी लगा दिन। किहिन - 'खा ले बहिनी, जीव जुड़ा जाही।'

सतवंतिन ह खीला-खीला कस छटना भर चाँउर ल बोही के घर लहुट गे। वोकर मन हरियाय हे। जोडी जल्दी लहुटने वाला हे, बाम्हन चिरई के कहना हे।

देख के जेठानी मन ठाड़े-ठाड़ सुखा गें। सोंचत हें - 'अभागिन ह जरूर कोनों जादू-मंतर जानत होही।'

सतवंतिन के पसीना सुखाय नइ हे, अंतर-मंझली जेठानी ह कहिथे - 'वाह, बड़ सती सतवंतिन नारी हस। जेवन ल घला अपन सत के आगी-पानी म रांध डर? चुल्हा कामा जलही, तोर हाथ-गोड़ म? जा जंगल, अउ कतिक सती नारी हस ते बिन डोरी-बंधना के बोझा भर लकड़ी ला के बता।'

सबले छोटे जेठानी ह करसी ल कलेचुप वोकर आगू म ला के मड़ा दिस। एले कस किहिस - 'येदे म पानी घला ले आबे मोर मयारुक बहिनी, जेवन काइसे बनही बिन पानी के? थूँके-थूँक म बरा नइ चूरय।'

सतवंतिन ह करसी ल देखथे, एक आगर एक कोरी टोंका करे हें बइरी मन - 'हे भगवान कइसे लाहूँ येमा पानी?'

सतवंतिन ह निकल गे जंगल कोती। बोझा भर लकड़ी सकेल के बइठे हे भोंड़ू तीर। कलप-कलप के, सुसक-सुसक के रोवत हे, 'कामा बोझा बाँधंव?'

कटकटाय बीच जंगल म, जिहाँ न तो चिरई ह चाँव करत हे न कँउवा ह काँव करत हे। भोंड़ू के नागिन ह सोचथे, सरी मंझनिया के बेरा, कोन दुखियारिन ए, मोर भोंड़ू तीर बइठ के धार-धार रोवत हे? वोला दया आ गे। निकल के देखथे - हे भगवान, ये तो मोर मयारुक सतवंतिन बहिनी आय। दिया भर-भर के मोला रात दिन कतरो दूध पियाय हे। येकर करजा ल आज नइ छूटेंव तो कभू नइ छूट सकंव। कहिथे - 'हे सतवंतिन बहिनी, हमर रहत ले तंय काबर फिकर करथस?'

नागिन ह डोरी बनगे। बोझा ह बंधा गे। सतवंतिन ह हाँसत बदन बोझा भर लकड़ी ल धर के घर आ गे।

हे भगवान, अब टोंड़का करसी म पानी कइसे लाँव?

तरिया के पनिहारिन घाट म बइठ के कलप-कलप के रोवत हे, सतवंतिन ह। हे भगवान अब मोर सहायता करने वाला कोन हे?

घाट के मेंचकी मन कहिथें - हमर रहत ले काबर रोथस बहिनी, झन रो। एकेक ठन टोंड़का म अइसे चमचम ले बइठबोन कि बूँद भर पानी नइ गिरय। चल उठा करसी ल।

करसी भर पानी घला आ गे।

जेठानी मन सोचथे, नारी हो के एक सतवंतिन नारी के परछो ले के बड़ भारी अपराध कर परेन, हे भगवान छिमा करबे।

दिन बूड़े बर जावत हे। सतवंतिन ह जेवन बनाय के तियारी करत हे।

वोती जेठानी मन के चेथी डहर के आँखी मन अब आगू डहर आवत हे। 'हे भगवान! ये का कर परेन? सती सरीख सतवंतिन बहिनी ल बिन अपराध नाना प्रकार ले दुख देयेन, तपेन; क्षिमा करबे भगवान। हमर सतवंतिन सिरतोनेच के सतवंतिन हे।'

चारों जेठानी सतवंतिन ल पोटार-पोटार के क्षिमा मांगत हें।

सतवंतिन के जेवन चुरत हे। वाह, का महमहई बगरत हे जेवन के। गाँव भर महर-महर करत हे।

मिट्ठू मन के अमरित कस आमा घला अपन असर बतात हे। सतवंतिन के कोचराय-अइलाय बदन ह धीरे-धीरे भरात हे, हरियात हे, चेहरा ह फूल कस खिलत हे।

वोती परदेसी जोड़ी के बइला गाड़ी ह घला बियारा म ढिलात हे। बियारा म सब सकला गें। भउजी मन अचरज म बूड़े हे; देखथें, सेठ-महाजन कस दिखत हे देवर ह। गाड़ा भर ठस-ठस ले भराय हे धन-दोगानी ह। सबो परिवार ल देख के परदेसी के मन ह हुलसत हे। आँखी ह चोरी छुपा सतवंतिन ल खोजत हे, हे भगवान! कहाँ हे मोर सतवंतिन ह?

सतवंतिन ह मान करे बइठे हे अपन खोली म।

पाँचों भाई अउ भउजी मन जेवन करे बर बइठे हें। सतवंतिन ह हुलस-हुलस के सब ल जेवन परोसत हे। सब झन कहत हें - 'वाह! आज के जेवन तो अमरित कस मिठाय हे।'

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सतवंतिन के जोड़ी मिल गे। जेठ-जेठानी मन के मन घला साफ हो गे। वोकर दुख के दिन बीत गे। हे भगवान, हे तुलसी माई, मोर मोंगरा गोई के घला वइसने बनौती बना दे। यहू ह तो एक झन सतवंतिनेच् आय। बाम्हन चिरई ह दसमत पेड़ के डारा म बइठे सोंचत हे, देवी-देवता के बिनती करत हे, मनौती मनात हे, आँखी डहर ले तरतर-तरतर आँसू बोहावत हे।

मोंगरा गोई के समान मन अंगना म बगरे हे। मोंगरा गोई ह बइठे हे, कलप-कलप के रोवत हे। कोन वोकर आँसू पोंछे?

सास राक्षसिन के मुँह थिराय के नाव नइ लेवत हे।

बाम्हन चिरई ह कलप-कलप के अपन पील-पांदुर मन ल बलावत हे। अरे आवव रे मोर पील-पांदुर हो, दंउड़ के, झप कुन आवव; जइसे हमर पुरखा मन सतवंतिन के दुख हरे रिहिन, तहूँ मन मोर मोंगरा गोई के दुख ल हरव, आज बीपत के ये बेला म तुँहरे आसरा हे।

गाँव भर के बाम्हन चिरई मन बात कहत सकला गें। मिट्ठू, कोयली, रम्हली मन घला अपन-अपन पील-पांदुर संग आ गें। मोंगरा गोंई के दुख ल सब जानत हें, सबके आँखी ले आँसू चुचवात हे। सब झन सोंचत हें, कोन ढंग ले मोंगरा गोई के मदद करन?

बाम्हन चिरई ह सब ल सतवंतिन के कहिनी सुनात हे।

हमर पुरखा मन सतवंतिन के जउन तरह मदद करिन, का वइसने हमन मोंगरा गोई के मदद नइ कर सकन?

एक झन ह रोवत-रोवत कहिथे - 'सतवंतिन ह सतजुग के नारी रिहिस। सत के जमाना रिहिस, मनखे के मन म सत-ईमान थोर-बहुत बाँचे रिहिस, सिराय नइ रिहिस। हिरदे के कोनों कोन्टा म दया, मया, प्रेम, दुलार, बाँचे रहय। भला-बुरा, अच्छा-खराब के परख रहय। आत्मा म धन के लालच अमाय नइ रिहिस। आज के मनखे मन तो धन के लालच म अँधरा बन गे हें। हिरदे पथरा गे हे। शरीर तो मनखे के हे पर हिरदे म तो राक्षस बइठे हे। का कर सकथन?'

दूसर ह कहिथे - 'धान फोले के होतिस त छटना भर ल कोन कहय, गाड़ा भर धान ल मिलखी मारत फोल के मड़ा देतेन, कार, अउ लाखों रूपिया कहाँ ले लाबोन? इँखर मन के पेट ह अनाज म नइ भरय, ये मन तो धन के भूखे हें। का कर सकथन।'

बात सही हे।

मिट्ठू कहिथे - 'वो जमाना सत के रिहिस। पेड़ मन म अमरित कस फल फरंय। अब न तो वो जंगल हे, न वइसन अमरित फल देवइया पेड़ हें, कहाँ ले लावंव अमरित फल?'

न पखेरू मन तीर, न आरा-पारा वाले मन तीर, न जात-गोतियार वले मन करा, न गाँव के पंच-सरपंच करा, ककरो तीर कोनों उपाय नइ हें मोंगरा गोई के बीपत हरे के। सब अपन-अपन ठीया लहुट गें।

बाम्हन चिरई ह अकेला बइठे सोंचत हे - 'हे दुनिया बनाने वाला, नारी ल का तंय दुखेच भोगे बर गढ़े हस। काबर सिरजथस तंय बेटी? एक तो तंय बेटी झन सिरजे कर, सिरजथस त वोकर दहेज बर सोना-चाँदी, रूपिया-पइसा, धन-दोगानी, मोटर-कार, सब के बेवस्था पहिली-पहिली कर दे कर। खबरदार! आज ले तंय कहूँ गरीब बाप के कोरा म बेटी सिरजेस ते। गरीब माँ-बाप मन आँखी के पुतरी कस बेटी ल अँचरा के छाँव म रखथें, पढ़ाथें-लिखाथें, तोर सृष्टि के रचना करे बर बर-बिहाव करथें; तंय का करथस? बता निरदयी, तंय का करथस? दाईज के नाम ले के वोला जीते-जी जला के, फांसी म लटका के मार देथें ससुरार वाले मन। तंय का करथस, तंय का करथस बता? सरग ले तमासा देखथस? तोर हिरदे ह जुड़ाथे?.........अरे इंसान हो, अरे गाँव वाले हो, भगवान तो पथरा के होथे, वो का कर सकही? तुम तो हाड़-माँस के बने हो, भगवान ह तो तुँहला हाथ-गोड़ देय हे, दिल देय हे, दिमाग देय हे, तुम तो कुछ कर सकथो। तुँहर दुनिया म नियम हे, कानून हे; सोंचव, मोर मोंगरा ह का अपराध कर डरे हे? का के सजा देवत हव वोला? काबर तहूँ मन पथरा बन गे हव?'

मोंगरा गोई ह रोवत-कलपत उठ के लटपट समान मन ल उठा के अपन खोली कोती जावत हे। राक्षसिन ह रस्ता रोक के खड़े हे। सास के गोड़ म लपट-लपट के मोंगरा ह कल्पत हे।

वोती बाम्हन चिरई ह दसमत के डारा म बइठ के सोंचत हे। हे तुलसी माई, अब का उपाय करंव?

भोंड़ू वाले नागिन अउ तरिया के मेंचकी मन के सुरता आ गे। सतवंतिन के रक्षा वहू मन तो करे रिहिन; आज मोंगरा ऊपर आय हे, कुछ तो उपाय करहीं।

गाँव के बाहिर तरिया के पार म बड़े जबर भोंड़ू हे। उहाँ रहिथे दुधनागिन। विही भोंड़ू म बइठ के बाम्हन चिरई ह दुधनागिन ल मोगरा के बजरा-बीपत के कहानी सुनात हे। सुन-सुन के नागिन घला धारो धार रोवत हे।

दुधनागिन ह कहिथे - 'हे बहिनी, लकड़ी के बोझा होतिस ते एक बोझा ल कोन कहय, गाड़ी भर ल बाँध-बाँध के वोकर घर म लेग देतेंव। कहाँ ले लावंव मोटर-कार, कहाँ ले लावंव रूरिया-पइसा। तंय कहिबे, ते तुरते जा के डस आथों राक्षस-राक्षसिन मन ल। फेर येकर ले का मोंगरा गोई के दुख ह हरा जाही?'

बाम्हन चिरई ह कहिथे - 'बने कहिथस बहिनी, कोन्हों ल डसना हमर काम नो हे।'

तरिया के मेचकी मन ल सकेल के अपन गोई के कहानी ल सुनात हे बाम्हन चिरई ह। कलप-कलप के चिरोरी करत हे - 'चलव बहिनी हो, तुम तो सबर दिन के सतवंतिन के दुख हरइया आवव; चलव मोर गोई के दुख ल हर लव।'

का करंय बिचारी मेचकी मन? कहाँ ले लावंय मोटर-कार, कहाँ ले लावंय रूपिया पइसा?

बाम्हन चिरई अब कहाँ जावय? का उपाय करय?

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एक-एक जुग कस एक-एक दिन बीतत हे। दिन-दिन मोंगरा गोई के दुख ह बाढ़त हे।

एक दिन गोई के माँ-बाप ल को जानी कइसे गोई के सुरता आ गे, आइन देखे बर। गोई के हालत ल देख के उँखरो आँखी ले तरतर-तरतर आँसू बोहाय लगिस।

दाई-ददा के गोड़ मन ल पोटार-पोटार के, कलप-कलप के गोई ह कहत हे - 'माँ, मोला नौ महीना ले अपन उदर म धारन करइया माँ, दुनिया भर के दुख-तकलीफ ल सहि-सहि के मोला जनम भर सुख देवइया मोर मयारुक माँ, अपन छाती के बूँद-बूँद दूध ल मोर मुँह म निचो-निचो के मोर पालन-पोषण करइया माँ, मोर ये दशा ल देख के तोला मोर बर चिटको दया नइ लगय? बेटी के ये हालत ल देख के तोला चिटको दया नइ लगय माँ? मोला इहाँ ले ले चल माँ। ये मन मोला मार डरहीं माँ, मोला इहँा छोड़ के झन जा माँ ......।'

बाबू जी के गोड़ ल पोटार-पोटार के कहत हे - 'बाबू जी! मोर सबले जादा मयारुक बाबू जी, मोला अँगठी धर के रेंगे बर सिखइया बाबू जी, अपन गोदी म रात-दिन मोला झुलना झुलइया मोर बाबू जी, तोर गोद म अब मोर बर चिटको जगह नइ बाँचे हे? मंय का अतेक भारी हो गे हंव बाबू जी? मंय इहाँ नइ बाँचव बाबू जी, नइ बाँचव। मोला इहाँ ले ले चल। भाई-भउजी के सब तिरस्कार ल सहि लेहूँ बाबू जी। तुँहर जूठाकाठा ल खा-खा के जी जहूँ बाबू जी, मोला इहाँ छोंड़ के झन जा। बाबू जी, मोला इहाँ झोड़ के झन जा। मोला फेर जीयत नइ देखबे बाबू जी, मोला इहाँ ले उबार ले। कुकुर पोंसे बरोबर मोला अपन घर म राख लेबे बाबू जी फेर मोला इहाँ ले ले चल। मोला इहाँ ले ले चल बाबू जी, दया कर।'

मोंगरा के कलपना ल देख के पथरा घला टघल जातिस फेर दाई-ददा के हिरदे ह नइ टघलिस, बजरा-पथरा बन गे। नइ लेगिन बेटी ल। अपन आँखी के पुतरी ल, अपन करेजा के चानी ल ये नरक म मरे बर छोड़ के चल दिन।

बाम्हन चिरई हा सोंचत हे - 'हे भगवान! कोन जिनिस ले तंय बनाय हस आदमी ल? आदमिच् के भीतर देवता हे, आदमिच के भीतर राक्षस हे, पिशाच हे, शैतान हे, डायन हे, प्रेत हे। आदमिच के भीतर अमृत हे, जहर हे। प्रेम भी हे, घृणा भी हे; दया भी हे, निर्दयता भी हे; पापी भी हे पुण्यात्मा भी हे। एक आदमी के भीतर के आदमी रहिथें? का अजीब योनी गढ़े हस भगवान आदमी ल। ककरो हिरदे ह मोम के बने हे त ककरो हिरदे ह बजुर के।

दाई-ददा बर घला बेटी ह का अतेक पराया हो जाथे? बेटी के बिहाव करके माँ-बाप ह का अपन दायित्व से मुक्त हो जाथे, हो जाना चाहिये? का बेटी बर ये दुनिया म कोनों ठउर नहीं हे?..... ।'

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छः महिना पहिली ये अँगना म कतका उछाह होय रिहिस हे। अउ आज ? आज रोवा-राही पड़े हे।

बाम्हन चिरई व्याकुल हो के जिती-तिती अपन मोंगरा ल खोजत हे। ये झरोखा ले झाँकत हे, वो झरोखा ले झाँकत हे; मोंगरा के खोली के झरोखा ले झाँक के देखथे। मोंगरा ह अपन खोली म सुते हे। पर्रस म लकड़ी बरोबर पड़े हे। 'हे भगवान! पलंग-सुपेती म सोने वाली मोर फुलक-झेलक मोंगरा ह आज फर्रस म काबर सुते हे? चरबज्जी उठ के बुता-काम, पूजा-पाठ करइया मोर मोंगरा ह आज दस बजत ले लकड़ी बरोबर फर्रस म काबर परे हे ? दाई-माई मन वोकर चारों मुड़ा बइठ के काबर रोवत हें?'

बाम्हन चिरई के जी धक ले हो गे। करेजा ह मुँह कोती ले बाहिर आ गे। तब का मोर गोई ल, मोर गियाँ ल, मोर मोंगरा ल मोर सतवंतिन ल ये राक्षसिन-राक्षस मन आखिर मारिच् डरिन? वोकर हिरदे ले चित्कार निकल गे, चीं ...........। 'हत रे पापी हो, कसाई हो, हत्यारा हो; निरपराध, निष्पाप, निर्मल गंगा सरिख मोर गोई ल तड़पा-तड़पा के मार डारेव रे चण्डाल हो; सात जनम ले तुँहर आत्मा ल कभू शांति झन मिलय।'

गाँव भर जान गें, गँऊटिया के बहू मर गे। एक-एक झन कर के आरा-पारा, जात-गोतियार, सगा-सोदर, पंच-सरपंच अउ गाँव भर के आदमी गँउटिया के अँगना म सकला गें। दरोगा-पुलिस घला आ गे हें। सब मुड़ी ओरमाय बइठे हें।

बाम्हन चिरई के पील-पांदुर मन घला जान डरिन। मिट्ठू , रम्हली, कोयली, कउँवा, सब जान गे हें। सब सकला गे हें। कोन्हों छत म बइठे हें त कोन्हों छानी-परवा म बइठे हें। परवा म एको ठन खपरा अइसे नइ होही जेमा कोई पखेरू नइ बइठे होही। अँगना म कोरी अकन पेंड़ हे, कान्हों पेंड़ के एको ठन पत्ता अइसे नइ होही, जउन म कोई पखेरू नइ बइठे होही। न कोई चींव करत हे, न कोई चाँव करत हे। न कोई दाना चुगत हे, न कोई पानी पीयत हे। सब रोवत हें, सब कलपत हें - 'हमर मोंगरा के हत्या करने वाला हत्यारा हो, सातों जनम ले तुँहर आत्मा ल शांति झन मिलय।'

तरिया पार के भोंड़ू के दूधनागिन अउ पानी बीच रहवइया मेंचकी-मेंचका मन घला जान गे हें। उँखरो आँसू थमत नइ हे; वहू मन कलप-कलप के कहत हें - 'हमर सतवंतिन के, हमर मोंगरा के परान लेने वाला हत्यारा हो, सातों जनम तुँहर आत्मा ल शांति झन मिलय।'

फुलवारी म आज एको ठन नवा फूल नइ फूले हे। एको ठन पेड़ के न पत्ता डोलत हे न डारा मन हालत हें। सब रोवत हें; रो-रो के कहत हें - 'हत् रे चण्डाल हो, फूल सही कोमल, निरपराध बहू के हत्यारा हो, तुँहर आत्मा ह सातों जनम तक जुड़ाय मत।'

हजारों आदमी सकलाय हें। सब रमायन, गीता अउ भागवत के बात करत हें। पाप अउ पुण्य के बात करत हें, धर्म अउ मोक्ष के बात करत हें फेर सतवंतिन के गोठ कोन्हों नइ करत हें; मोंगरा के गोठ कोन्हों नइ करत हें।

बाम्हन चिरई ह सोंचत हे - सतवंतिन बिना, मोंगरा बिना, बेटी बिना, बहू बिना का धरम के रचना हो सकथे? सृष्टि के, दुनिया के रचना हो सकथे? समाज, साहित्य, संस्कृति अउ इतिहास के रचना हो सकथे?

कतेक विचित्र रचना रचे हे विधाता ह आदमी के रूप म? कतेक बिचित्र हे ये दुनिया ह? कतेक विचित्र होथें आदमी के जात?

दाई-ददा मन घला आ गे हें; रो-रो के बेहोश होवत हें। होश म आवत हें, फेर रोवत हें, फेर बेहोश होवत हें। फेर अब का पछताना जब चिड़िया चुग गें खेत।

डोकरी दाई घला आ गे हे। बीच अँगना म सबके आगू म खड़ा हो के दूनों हाथ ल अगास डहर उठा के, चूंदी ल छितरा के बही-भूती कस कलपत हे; कलप-कलप के बचनू ल कहत हे - 'अरे बचनू ! हत् रे अभागा, ये कर डरेस तंय?'

सैकड़़ों आदमी सकलाय हें, सब चुप हें, सब कायर हें, सब डरपोक हें। डोकरी दाई ह कलपत हे - ''हत् रे पापी हो, ये कर डारेव?''

बाम्हन चिरई ह सोंचथे, 'ये ह कलजुग ए; कलजुग म सरापा- बखाना करे ले कोई नइ मरे। कोई ल नइ लगे सरापा-बखाना, दुआ-आषीश ह। कोई चमत्कार नइ होय कलजुग म, करे बिना कुछ नइ हो सके। गाँव, परिवार, समाज, कानून भले चुप बइठे रहंय; मय नइ बइठों चुप। अपराधी ल सजा मिलनच् चाही।' वोकर हिरदे के दुःख ह अब रोश म बदल गे। मारे क्रोध के शरीर ह काेँपे लगिस । डेना मन फड़फड़ाय लगिन। शरीर म पता नहीं कहाँ के ताकत आ के समा गे, पूरा ताकत लगा के कहिथे, चीं ..........। उड़ के सीधा गिस, पूरा ताकत लगा के गँउटनिन के मुँहू म चोंच ल गड़ा दिस; डायन के चेहरा ह रकत म डूब गे। गँउटिया के मुँहू ल नख म कोकन के लहू-लहू कर दिस। बिसु बाबू डहर झपटिस, वोकर तो आँखिच् ल फोरना हे।

आदमी मन बोकखाय बइठे हें।

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2 : बाम्हन चिरई

बिहाव ह कथे कर के देख, घर ह कथे बना के देखा। आदमी ह का देखही, काम ह देखा देथे। घर बनात-बनात मोर तीनों तिलिक (तीनों लोक) दिख गे हे। ले दे के पोताई के काम ह निबटिस हे, फ्लोरिंग, टाइल्स, खिड़की-दरवाज अउ रंग-रोगन बर हिम्मत ह जवाब दे दिस। सोंचे रेहेन, छै-सात महीना म गृह-प्रवेश हो जाही। फेर गाड़ी अटक गे।

मुसीबत कतको बड़ होय, माई लोगन मन बुलके के रास्ता खोजिच् लेथें; घर वाली ह कहिथे - ''करजा ले-ले के कतिक बोझा करहू , आखिर हमिच ल तो छूटे बर पड़ही। दूसर के नकल म रहीसी देखा के का करबो। टाइल्स लगाय के, सागोन के खिड़की दरवाजा लगाय के, रंग रोगन कराय के हमर हैसियत नइ हे त फरसी पथरा लगवा लेथन, सागोन के जगह आड़ जात के लकड़ी लगवा लेथन, अलवा-जलवा पोतई तो होइच् गे हे। हँसइया के दाँत दिखही, इँखर का, करोड़ों खरचा करके सजाबे तउनों म दस ठो मीन-मेख निकालिच् दीहीं। दूसर के घर म के महीना ले रहिबोन। चउमास लगे के पहिलिच् हम कइसनो करके अपन घर म चल देबोन।

वइसनेच करेन। चउमास लगे के पहिली नवा घर म आ गेन।

अपन किताब मन ल मंय ह दीवाल म बने अलमिरा के खँड़सा (रेक) मन म सुंदर अकन ले सजा के रख देंव। अलमिरा म अभी काँच-खिड़की लगे नइ हे, ताला-संकरी के सवाले कहाँ आथे; मतलब मोर अनमोल खजाना ह सबके पहुँच के भीतर हे।

एक दिन देखेंव, एक ठन बाम्हन चिरई ह दीवाल के खूँटी म टँगाय दरपन, जेकर आगू खड़े हो के मंय ह कंघी करथंव, के चौंखटी (फ्रेम) म बइठ के अपन फोटू (प्रतिबिंब) ल निहार-निहार के देखत रहय। मुड़ी ल कभू डेरी बाजू त कभू जेवनी बाजू मटका-मटका के, पूछी ल नचा-नचा के गजब मगन रहय। मंय सोंचेव, वाह रे चिरई, तहूँ ल पाटी पारे के निशा हो गे हे। कभू चींव-चींव करके अपन प्रतिबिंब ल ठोनके; वोला लगे होही कि झोझा झपाय बर कते कोती ले अउ दूसरा ह आ गे हे?

तभे एक ठन दूसर बाम्हन चिरई ह फुर्र ले उड़त आइस अउ पहिली वाले के बाजू म बइठ गिस। येकर मुड़ी अउ डेना मन म कत्थहूँ धारी बने रहय। प्रचलित विश्वास अउ अनुभव के आधार म मोला चीन्हत देरी नइ लगिस कि ये ह नर पक्षी आय; पहिली वाले ह मादा पक्षी आय।

पहिली वाले ह येला कुछुच नइ करिस, बल्कि वोकर तीर म जाके आमने-सामने बइठ गे। थोड़ देर म दुनों झन चीं-चीं करत उड़ा गें। थोड़ देर बाद फेर आ गें। दिन भर वो दूनों झन अइसनेच मस्ती करिन।

दू-तीन दिन बीत गे। ये दूनों चिरई मन के धमाचौकड़ी चलतेच हे। अब ये मन के नीयत ह मोर खजाना ऊपर गड़ गे। किताब के अगल-बगल ऊँखर लुकाछिपी के खेल खेले बर बड़ जघा हे। ये सोंच के कि बिचारी पखेरू मन ल मोर किताब से का लेना देना, काला चोराहीं, आदमी थोड़े आवंय; मंय बेफिकर रेहेंव।

दूसर दिन बिहने देखथंव कि इही अलमिरा के खाल्हे फर्रस म अबड़ अकन कचरा बगरे परे हे। सियनहिन बर गुस्सा आ गे; घर के साफ-सफाई घला नइ कर सके? सियनहिन के धियान ह मोरे कोती रिहिस होही, मोर मन के बात ल ताड़ गे; मोर कुछू केहे के पहिलिच् कहिथे - ''बहार-बहार के हम तो थर खा गेन, बहारत देरी नहीं कि रोगही चिरई मन को जनी कतेक बेर फेर ला डरथें।''

मोर बोलती बंद होगे। किताब मन डहर देखेंव; बीच म एक ठन सेंध म बड़ अकन पैरा अउ सुक्खा कांदी गोंजाय हे, चिरई मन बर महूँ ल बड़ गुस्सा आइस। खोंधरा बनाय बर इनला मोरे अलमिरा ह दिखिस होही? झरोखा मन म काँच लगे रहितिस त अइसन काबर होतिस? झरोखा मन कोती देखेंव, विही दुनों चिरई मन अपन-अपन चोंच म पेरा धर के डरे-सहमे बइठे रहँय अउ मोरे कोती देखत रहँय। मोर मन म का हे, मंय का कर सकथंव, ये बात ल वो मन समझ गे रिहिन होहीं?

बहरी-सूपा धर के मंय ऊँखर खोंधरा के सफाया करे बर भिड़ गेंव। तब तक वो दूनों अपन काम करके दूसर तिनका के जुगाड़ म चल देय रिहिन। जइसे मोर हाथ बढ़िस, दूनों झन आ धमकिन; शुरू हो गें चीं,चीं करे के। ऊँखर मन के विरोध के प्रबलता, आक्रोश अउ संकल्प ल देख के मंय चकित खा गेंव। डर गेंव, कहीं चोंच मत मार देंय।

चिरई मन ले डर गेस ते बहुत हो गे। महूँ ल जिद हो गे।

चिरई मन के विरोध अउ बढ़ गे।

मन म मंय केहेंव -'वाह रे पखेरू हो, तुमन धन्य हो; अइसन विरोध तो आदमी मन घला नइ कर सकंय।'

सियनहिन ह देखत रहय, कहिथे - ''अब रहन देव; चिरई-चिरगुन के झाला उझारे म पाप लगथे। ठोनक-ठुनका दिहीं ते बाय हो जाही।''

मंय सोचेंव, अभी रहन दे; जब ये मन नइ रहिहीं, सियानिन ह घला नइ रहिही तब देखे जाही।

ये घर ल बनाय बर जुन्ना घर ल जउन दिन तोड़वाय के शुरुआत करेंव तउन दिन के सुरता आ गे। खपरा छानी वाले जुन्ना घर के ओरछा मन म बाम्हन चिरई मन के खूब अकन ले खोंधरा रहय। कब वोमन खोंधरा बनावंय, कब गार पारंय (अंडा देवंय), अंडा ल कब सेवंय, कब फोरंय, कब पिला मन ल चारा बाटँय, पिला मन बड़े हो के कब उड़ा जावंय ये डहर ककरो ध्यान नइ रहय। कोनों ये मन ल कुछू नइ करे। जइसे कि ये मन हमर बँटइत होंय, वो घर म इंखरो बरोबर के हक रहय। अब नवा घर बन गे त ये मन अपन हक ल कइसे छोड़ दिहीं?

खपरा उतर गे, कोनों चिरई कोई आपत्ति नइ करिन। कांड़-कोरइ निकले के शुरू होइस, इंखर छाला-खोंधरा के नंबर लगिस, शुरू हो गे इंखर चींव-चाँव। कमइया मन के मुड़ी-मुड़ी म मदरस माखी कस मंडराय लगिन। कमइया मन डर्रा गें। एक झन बाई ह कहिथे - ''टार दाई, रोगही मन ह मुड़िच मुड़ी म झूमत हें, ठोनक-ठुनका दिहीं ते जनम भर बर कनवी हो जाबों।''

दूसर ह कहिथे - ''बिचारी मन के घर ल उजारत हव, कइसे चुप रहिहीं? तुंहर घर ल कोनों उझारहीं तब तुंहला कइसे लागही?''

हमर सियनहिन ह कहिथे - ''इंखर गार पारे के दिन आय हे बहिनी हो, खोधरा मन ल जिती-तिती झन फेंकव; कोनों दूसर जघा थिरबहा लगा देव। आदमी होय कि पशु-पक्षी, महतारी ह महतारिच होथे। अपने सरीख यहू मन ल जानव।''

सियनहिन के बात ह सहिच निकलिस। सब खोंधरा मन म गार माड़े रहय। कमइया बाई मन सियनहिन के बताय अनुसार सब के थिरबहा, जुगाड़ कर दिन।

ले दे के मामला ह सुलटिस।

अब तों घर ह पक्की बन गे। अपन हक ल भला कोई कइसे छोड़ दिही?

जभे मंय ह वो कर ले टरेंव, तभे इंखर वींव-चाँव ह बंद होइस।

दुसरइया दिन आठ-दस दिन बर मंय बाहिर चल देंव। ये मन ल अपन हिस्सा म काबिज होय के पूरा आजादी मिल गे। लहुट के आयेंव तब तक इंखरो गृह प्रवेश हो चुके रहय।

बिहिनिया देखेंव, अलमिरा के खाल्हे, फर्श म अबड़ अकन कागज के नान-नान कतरन बिगरे रहय। मोर माथा घूम गे। पता नहीं किताब मन के का हाल करे होहीं?

तीन-चार ठन किताब के किनारा मन आरी के दाँता कस दिखत रहय। मोर एड़ी के रिस ह तरवा म चढ़ गे - 'रहव रे हरामखोर हो, मोर सबो किताब मन के सत्यानाश करे हव, अब मंय तुँहर सत्यानाश करिहंव।'

मंय पक्का ठान लेंव कि चाहे कुछू हो जाय, आज तो इंखर खोंधरा ल फेंक के रहिहंव। जइसने मंय खोंधरा डहर हाथ बढ़ायेंव चिरई मन चींव-चाँव करे के शुरू कर दिन। मोर हाथ ह आधच् बीच म ठोठक गे। आज चिरई मन मुड़ी के आस-पास नइ झूमत रहँय। झरोखा कोती देखेंव जिहाँ वोमन बइठे रहँय अउ फुदक-फुदक के चींव-चींव करत रहँय। आज ऊँखर स्वभाव म न तो वो दिन जइसे प्रबल विरोध के भाव रहय न वइसन आक्रामकता। बड़ा करलइ अकन ले चींव-चींव करत रहँय, जइसे कि कोई दूनों हाथ जोड़ के विनती करत होय, चिरौरी करत होय। मंय सोंच म पड़ गेंव; अब का करँव?

मातृत्व आय से ममता के संग विनम्रता घला आ जाथे।

सियनहिन ह रसोई घर ले निकलत रहय, मोला अलमिरा तीर खड़े देख के वो ह मोर इरादा ल भाँप गे। किहिस - ''का करथव, गार पार डरे होहीं, रहन दव।''

''मोर पोथी पुरान( सियनहिन ह मोर लिखे-पढ़े के कापी-किताब मन ल पोथिच् पुरान कहिथे।) मन के का हालत करें हें तउन ल देखे हस? गजब मार उँखर सरोखा तीरत हस।''

''कोनों जीव ले बढ़ के हो गे हे का तुँहर पोथी-पुरान ह। तुँहरे पोथी-पुरान ले होथे का दुनिया के रचना ह?'' आज वोला ज्ञान बघारे के अच्छा मौका मिल गे।

पल भर महूँ सोंच म पड़ गेंव। ज्ञान बघारे के बात? नहीं, नहीं ,येमा ज्ञान बघारे के का बात हे? व्यवहारिकता के बात हे, सच्चाई के बात हे, माँ के ममता के बात हे, प्रेम, करुणा अउ दया के बात हे, सृष्टि कर्ता के अनुभव के बात हे। नारी ह सृष्टि के रचना करथे। सृष्टि के बात ल सृष्टि के रचइयाच् ह जानही, नारिच् ह जनही; पुरूष ह का जानही?

पुरुष के ज्ञान म अहं के रूखापन रहिथे जबकि नारी के ज्ञान म करुणा के कोमलता।

सच हे, जेकर पास सृष्टि करे के ताकत नइ हे, वोला संहार करे के का अधिकार हे? संहार करे के मोर संकल्प अउ अहंकार ह पल भर म ठंडा पड़ गे।

मोर हृदय परिवर्तन ऊपर वो बाम्हन चिरई ल जइसे विश्वास नइ होइस, डरे-सहमे दिन भर वो ह मोरेच् आस-पास मंडरावत रिहिस; जइसे वो ह मोर निगरानी करत होय। दुसरइया दिन घला वइसनेच् करिस। तिसइरया दिन वो ह खुलिस। झरोखा म अइठ के मुड़ी मटका-मटका मोर कोती देखय, चींव-चींव करय।

वोकर आँखी म बड़ा अबोधपन के भाव रहय, जइसे मोर प्रति कृतज्ञता जाहिर करत होय।

अब तो बाम्हन चिरई मन के अवइ-जवइ अउ चींव-चाँव करइ म मोला आनंद मिले लगिस।

अइसने अउ कुछ दिन बीतिस। एक दिन बिहने खोंधरा भीतर ले गज्जब अकन पातर-पातर चीं, चीं, के आवाज आवत रहय। सृष्टि के रचना पूरा हो गे रिहिस; कब होइस का पता, कोन ल पता? सृष्ट के रचना अइसनेच् होथे, धीरे-धीरे।

पिला मन के चींव-चींव ल सुन के मोला लगिस कि मोर आँगन म बच्चा मन के किलकारी गूँजत हे।

देखते देखत एक दिन बच्चा मन बड़े हो गिन। डैना मन म अतिक ताकत आ गिस कि शरीर ल हवा म साध सके, हवा के छाती ल चीर सके।

बिहान दिन ले खोंधरा ह सूना हो गे। दू दिन बाद जब मोला पूरा-पूरा परतीत हो गे कि अब बाम्हन चिरई के परिवार ह येला छोड़ के जा चुके हे, मंय ह आसते ले खोंधरा ल टमड़ के देखेंव। खोंधरा ह सचमुच खाली हो गे रहय। विरोध करइया घला कोनों नइ रिहिन। अब तो सूपा-बहरी धर के भिड़ गेंव मोर पोथी-पुरान के साफ-सफाई करे बर। सबले ऊपर वाले किताब म खूब अकन ले गंदगी पड़े रिहिस, साफ करे ले साफ हो गे, थोड़ कुन दाग ह बच गे। तीन चार ठन किताब जिंखर किनारा मन ल कुतर-कुतर के आरी के दाँत कस बना दे रिहिन हे, येकर अलावा अउ कोई नुकसान नइ करे रिहिन।

मोर अलमिरा ह अब साफ तो हो गे हे फेर घर ह बड़ सुन्ना-सुन्ना लगत हे।

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3 : बसंती

आज संझा बेरा पारा भर म शोर उड़ गे - ''गनेसी के टुरी ह मास्टरिन बनगे..............।''

परतिंगहा मन किहिन - ''काबर अइसने ठट्ठा करथो जी? ओली म पइसा धरे-धरे किंजरत हें, तिंखर लोग-लइका मन कुछू नइ बनिन; गनेसी के टुरी ह मास्टरिन बनगे? वाह भइ ! सुन लव इंखर मन के गोठ ल।''

हितु-पिरीतू मन किहिन - ''अब सुख के दिन आ गे ग गनेसी के। अड़बड़ दुख भोगत आवत हे बिचारी ह जनम भर।''

तिसरइया ह बात ल फांकिस - ''अरे, का सुख भोगही अभागिन ह? बेटी के जात, पर अँगना के शोभा; के दिन संग म रहिही? काली-परोन दिन बिहा के चल दिही, तहां गनेसी के कोन हे? फेर का के सुख?''

बसंती के जउन संगी-सहेली अउ गाँव वाले मन वोकर पढ़ाई के मजाक उड़ावंय, अउ जिंखर लइका मन के नौकरी नइ लग सकिस, उंखर मन के मुँहू ओरम गे रहय। खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे। कहत रहंय - ''मास्टरिनेच् तो बनिस हे, कलेक्टरिन तो नइ बनिस?''

जे ठन मुँह, ते ठन गोठ।

बात सोला आना सच आय। बसंती ह पढ़-लिख के आज मास्टरिन बन गिस। जउन प्रण करिस, वोला पूरा करके देखा दिस।

मने-मन वो ह आज फेर प्रण करिस - 'अब मंय दाई ल कोनों तकलीफ नइ होवन दंव।'

बसंती ह आज गजब खुश हे।

दाई गनेसी ह घला गजब खुश हे। कब सोंचे रिहिस हे वो ह कि वोकर बेटी ह मास्टरिन बन जाही? बसंती ह बेटी आय, बेटा नोहे, अइसनो फांस वोकर हिरदे म गड़े रहय, वहू ह आज निकल गे।

गाँव वाले मन, चाहे लइका होय कि सियान; बसंती ल कभू बसंती कहिके नइ बलाइन। जब किहिन, गनेसी के टुरिच् किहिन। सच तो कहिथें सब। बसंती ह गनेसिच् के टुरी आय। दाई कहस कि ददा कहस, गनेसी के सिवा वोकर अउ कोन हे? जनम धरे के पहिलिच् ददा ह बइमान हो गे। मुड़ी म राख चुपर के कहाँ भागिस ते गाँव म लहुट के फेर नइ आइस। खार म खेत नहीं, गाँव म घर नहीं; कहाँ जातिस, का करतिस बिचारी गनेसी ह? गोसंइया ह तो नोहर हो गे। फेर गजब हिम्मत गनेसी के। दू खोली के टुटहा-फुटहा घर; न खपरा के ठिकाना, न खरिपा के। इही घर म वोकर डोला उतरे हे, इहिंचेच् ले वोकर अर्थी उठही। भरे जवानी, गोसंइया के जीते-जी वो ह रांड़ी-रउठी कस हो गे। कतरो सगा आइन। संगी-सहेली मन घलो उभराइन, फेर कोनों जगह हाथ नइ लमाइस। बेटी के मुँह ल देख-देख के जिनगी ल खुवार कर दिस। दिन-रात रांय-रांय कमाइस, लांघन-भूखन रिहिस, पानी-पसिया पी-पी के दिन बिताइस, फेर बेटी ल पढ़ाय म कमी नइ करिस। अपन मरजाद ल कभू नइ छोड़िस। बसंती ह वोकर टुरी नइ होही त काकर होही? अब वोला सुख के दिन दिखे लगिस।

अँगना म हितु-पिरीतू मन सकलाय रहंय। बसंती ह वो मन ल चहा-पानी पियावत रहय। कोनो मन वोकर नौकरी के कागद ल टमड़-टमड़ के, उलट-पुलट के देखंय, त कोनों मन वोला तिखार-तिखार के पूछंय - ''कोन गाँव के स्कूल म लगिस हे बेटी?''

कोनों पूछंय - ''तनखा कतिक मिलही नोनी?''

कोनो सिखावन कहय - ''जाबे तिंहा आपन दाई ल घला लेग जाबे। गजब दुख सहि के तोला पढ़ाय-लिखाय हे बपुरी ह।''

जउन आवंय, मन भर के आसीस दे के जावंय।

का मन होइस ते दुशाला ओढ़ के ठकुराइन काकी ह घला गनेसी....गनेसी कहत आ गे। वोकर हाथ म मिठाई के डब्बा रहय। बसंती ह धरा-रपटा अँगना म खटिया ल जठाइस। ठकुराइन काकी ल बड़ सनमान सहित बइठारिस अउ वोकर पाँव परिस। ठकुराइन ल अपन अँगना म बइठे देख के दुनों दाई-बेटी के आँखी डबडबा गे। ठकुराइन काकी घला बोटबिट ले हो गे। मिठाई के डब्बा ल बसंती ल देवत-देवत कहिथे - ''खुश रहा बेटी, खुश रहा। तंय आज अपन दाइच् के नाव ल उजागर नइ करे हस, ये गाँव के नाव ल घला उजागर कर देस।''

ठकुराइन काकी ल देख के बसंती ल पाँच-छः साल पहिली के एक ठन बात के सुरता आ गे। ठकुराइन काकी अउ गनेसी दाई ल घला विहिच् बात के सुरता आ गिस होही तइसे लगथे।

बिहिनिया के बेरा रिहिस। ठकुराइन काकी ह तिसरइया घाँव मुहाटी ले निकल के गनेसी के घर कोती के गली ल देखिस। गनेसी के दउहा नइ रिहिस। रात के जूठा बरतन मन के नहानी तीर कुढ़ी गंजाय रहय। घर के बाहरी-पोंछा नइ होय रहय। धोय के कपड़ा मन के खरही माड़ गे रहय। स्कूल के बेरा हो गे रहय, कइसनो करके लइका मन ल स्कूल भेजिस। बेरा चढ़ गे फेर गनेसी के अता-पता नइ चलिस। ठकुराइन काकी के एड़ी के रिस ह तरूवा म चढ़ गे। गारी-बखाना शुरू कर दिस।

परोसिन, साहेबिन बाई ह ठकुराइन के गारी-बखाना ल सुन के परदा डहर ले झाँकत कहिथे - ''अइ, का हो गे ठकुराइन? बिहिने-बिहिने कोन भगवान के नाव ल लेवत हस?''

''अब तहूं ह जरे म नून झन डार साहेबिन बाई। घर म सब छिंहीं-भिंहीं परे हे। रोगही गनेसी ल आजेच् मरे बर रिहिस होही? अभी ले नइ आय हे, कहाँ मुड़ाय होही ते।'' ठकुराइन ल अपन मन के भड़ास निकाले के बहाना मिल गे।

साहेबिन बाई ह तो ठकुराइन काकी के कुलबुलाई ल देख के मने-मन कुलकत रहय। ऊपरछाँवा रोनहू बानी बना के कहिथे - ''झन पूछ ठकुराइन बाई, तुँहर घर के होय कि हमर घर के, काम वाली बाई मन के इहिच रवइया। दू दिन जाय न चार दिन, नांगच्-नांगा। काम होय कि झन होय, महीना पूरे रहय कि झन पूरे रहय, पइसा बर जोम दे के बइठ जाहीं। फेर तोर गनेसी ह तो कभू नांगा नइ करय। का हो गे होही वोला आज?''

''मरे चाहे सरे, हमला तो काम से मतलब हे...'' कहत-कहत ठकुराइन ह गनेसी घर कोती चल दिस।

थोरकिच दुरिहा म गनेसी के घर रहय। मुहाटी म बसंती ह कापी-किताब खोल के बइठे रहय। उनिस न गुनिस, जाते भार ठकुराइन काकी ह शुरू हो गे - ''तोर दाई ल मरना आय हे अउ तंय गजब पढ़ंतिन बने बइठे हस। कहाँ गे हे रोगही ह? बेरा ह वोला जनावत नइ होही?''

लइका जात। का बोलतिस बसंती ह? फेर मान-अपमान, समय-कुसमय ल सब समझथें। भीतर म दाई ह जर म हकरत रहय, एती पथरा कचारे कस ठकुराइन काकी के बात; रोना आ गे बसंती ल। कापी-किताब ल धर के रोवत-रोवत घर भीतर भागिस ।

ठकुराइन ह भाँप गे, कुछू न कुछू बात जरूर हे। ठक ले खड़े रहि गे, बक नइ फूटिस।

भीतर ले हकरत-हकरत गनेसी ह किहिस - ''मरनच् तो नइ आय ठकुराइन। महूं सोचथों, मर जातेंव ते दुख-पीरा ले छुट्टी पा जातेंव; फेर कहाँ जा के मुड़ी ला खुसेरंव?''

ठकुराइन काकी ह कहिथे - ''रहन दे, जादा ढेंचरही झन मार। कतेक बीमार पड़े हस ते तंय सुते रह। तोर टुरी ह तो बने हे, नइ होय हे का काम-बूता करे के लाइक।''

गनेसी - ''बिहिने के पाँव परत हंव ठकुराइन, जा बेटी जा; बरतन-भांड़ा ल तो घला मांज-धो के आ जा; फेर काबर मानही मोर बात ल? परीक्षा देय बर जाहूँ कहिके बिहिनिया ले किताब म मुड़ी ल गड़ाय बइठे हे।''

ठकुराइन काकी - ''हाँ, अउ पढ़ा-लिखा। अरे, जादा पढ़ाय-लिखाय म अइसनेच होथे। अप्पत हो जाथें लइका मन। तेकरे सेती तोला घेरी-बेरी बरजथंव, जादा पढ़ा-लिखा के का करबे टुरी ल? कोन्हों मास्टरिन तो बनना नइ हे वोला। आठवीं पढ़ डारिस, नाव-गाँव लिखे के पुरती हो गे। एसो पास होय कि फेल, भेज येला काम करे बर; नइ ते अपन हिसाब करा ले।''

बसंती ह रोवत-रोवत कहिथे - ''हव हम मास्टरिन बनबो। कुछू हो जाय, फेर हम पढ़े बर नइ छोड़न।''

''बहुत बात करे बर सीख गे हस, छोटे-बड़े के घला कोनों लिहाज नइ हे तोला? छोड़ ये किताब-कापी ल, चल मोर संग। निकता-गिनहा म दाई के अतको काम नइ करबे?'' कहत-कहत ठकुराइन ह वोकर कापी-किताब ल झटक के परछी म फेंक दिस अउ चेचकारत वोला अपन घर कोती लेग गे।

ठकुराइन के बात ह बसंती के कलेजा म बान कस गड़ गे। मने-मन प्रण करिस - 'एक दिन मंय जरूर मास्टरिन बन के देखाहूं ठकुराइन काकी। आज तोर दिन हे, काली हमरो दिन आबे करही।'

बसंती ह आज अपन विही प्रण ल पूरा करके देखा दिस।

विही ठकुराइन काकी ह आज मिठाई के डब्बा धर के आय हे।

ठकुराइन काकी ह कहिथे -''कते बात के सुरता करके रोथस बेटी। भूल जा वो दिन के बात ल तंय; मोला माफी दे दे।''

बसंती - ''अइसन कहिके तंय मोला पाप के मोटरा झन बोहा ठकुराइन काकी। वो दिन के बात ल कहिथस, वोला कइसे भुला जाहूं? विही ह तो मोर गुरू-मंत्र आय। वो दिन वइसन बात नइ होतिस ते कोन जाने, आज मंय मास्टरिन बन सकतेंव कि नहीं।''

ठट्ठा मड़ाय म घला ठकुराइन काकी ह कोई कम थोड़े हे, मिठाई के डब्बा ल झूठ-मूठ के नंगावत कहिथे - ''वइसन बात हे, तब तंय हमर मिठाई के डब्बा ल वापिस कर। अब तो तंय जउन दिन साहेबिन बाई बन के देखाबे, विही दिन मंय तोला मिठाई खवाहूं।''

ठकुराइन काकी के गोठ ल सुन के जम्मों झन हाँसत-हाँसत कठल गें।

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4 : दू रूपिया के चँाउर अउ घीसू-माधव : जगन

रेल गाड़ी ह टेसन म छिन भर रूकिस अउ सीटी बजात आगू दंउड़ गिस।

छिने भर म टेसन ह थोड़ देर बर बदल जाथे। सइमों-सइमों करे लागथे। सोवत, नींद म बेसुध कोई प्राणी ह जइसे अकचका के, झकनका के जाग जाथे। कोनो चघत हे, कोनो उतरत हे। कोई आवत हे, कोई जावत हे। कोई कलेचुप हे, कोई गोठियावत हे। कोई हाँसत हे, कोई रोवत हे। कोई दंउड़त हे, कोई बइठत हे।

चहा बेंचइया, फूटे चना-मुर्रा बेंचइया, केरा-संतरा बेचइया, सबके सब मानों नींद ले जाग जाथें। कुली, आटो वाले अउ रिक्शा वाले मन के नजर ह गिराहिक मन के पीछा करे लागथे। किसम-किसम के कुली अउ किसम-किसम के रिक्शा वाले। सब ल काम मिलथे, सबके गुजारा होथे। कतरो रिक्शा वाले अउ आटो वाले मन या फेर वोकर आदमी मन गिराहिक ठसाय बर सरग निसैनी तक पहुँच जाथें त कतरो मन बाहिरेच म गिराहिक पटावत रहिथें - ''साहब रिक्शा? मेडम जी रिक्शा? बाबू साहब, चलें क्या?'' चिल्ल-पों मच जाथे। कतरो मन कोई यात्री से नजर मिलते सात आँखी ल चमका के अउ मुड़ी ल मटका के, मुँहू ले कुछू बोले बिना सवारी ल तउल डरथें - ''चलें क्या?''

कतरो के व्यवहार-सुभाव म सज्जनता रहिथे त कतरो के सुभाव म हुड पना। कतरो मन चिरौरी करथें त कतरों मन रहीसी बताथें; रिक्शा वाले मन धला अउ सवारी मन तको।

सबके आदत एक बराबर कइसे होही?

जउन ल गिराहिक मिलथे, जेकर गिराहिक पटथे वोमन रवाना हो जाथें। जउन ल सवारी नइ मिलय तउनों मन दूसर ठिकाना कोती रेंग देथें। थोड़ देर म माहौल ह धीरे-धीरे जस के तस।

गाड़ी गेय पाँचेक मिनट हो गे हे।

जगन रिक्शा वाला ह अभी तक खड़ेच् हे।

जगन पढ़े-लिखे हे। नौकरी नइ मिलिस त का करे, रिक्शा के हेंडिल ल थाम लिस। पेट बिकाली म कुछ न कुछ तो करेच् बर पड़ही। चोरी-चपाटी म लाज हे, मेहनत-मजूरी करे म का के लाज-शरम? बने चिक्कन-चांदुर रहिथे; रिक्शा ल घला नवा बिहाती कस सजा के, चमका के राखथे; सब के संग इज्जत से बात करथे। पहिनावा-ओढ़ावा अउ बात करे के तरीका ल देख के लोगन समझ जथें; आदमी ह पढ़े-लिखे होही। सब ला इज्जत देथे त सबले इज्जत घला चाहथे जगन ह, फेर रिक्शा वाले मन के कोन ह इज्जत-लिहाज करथे?

पढ़े-लिखे होंय कि अनपढ़, जइसे पनही के धँधा करइया ह पनही ल देख के आदमी के हैसियत ल अजम डरथे, वइसने रिक्शा वाले मन संदूक-पेटी, झोला-झाँगड़ी, अउ समान-तमान ल देख के सवारी के हैसियत ल अजम डरथें।

जगन ह तो पढ़े-लिखे हे, सवारिच् के नहीं, दीन-दुनिया के घला रंग-ढंग, बात-व्यवहार, चलन-चलागन, नीयत-नीति के एक-एक ठन बात ल अजमत रहिथे, गुनत रहिथे, विचारत रहिथे, सदा खुश रहिथे।

न रहीस मन रिक्शा चढ़े बर आवंय, न गरीब कना रिक्शा चढ़े बर पइसा रहिथे। छोटे-मोटे व्यपारी, करमचारी, बाबू , मास्टर-मुंशी, इंखरे ले रोज पाला पड़त रहिथे।

लोगन के मोल-भाव करई म जगन ल बड़ गुस्सा आथे। वो ह सोंचत रहिथे - कतरो पइसा ल बेमतलब पान-गुटखा, बिड़ी-सिगरेट म फूँक दिहीं फेर रिक्शा वाले मन संग एक-एक रूपिया बर झिकझिक करहीं। का कम मेहनत करवाथें? अपन समान ल जोरवाहीं, रस्ता म चहा पीये के मन करही तब होटल ले चहा-पानी मंगवाहीं, पहुँचेस तहाँ घर भीतर तक समान ल डोहरवाहीं, कुली समझ लेथें; खुद ल रहीस के औलाद समझथें। तब फेर एक-एक पइसा बर झिकझिक काबर करथें?

कालिच् के बात आय, दू झन साहब रिहिन, कोन्हों रिक्शा- आटो वाला मन संग मोल-भाव करइ म कंझाय रिहिन होहीं वोकरे उतारा ल उतारत रहंय; गोठियावत रहंय - ''दो रूपय के चाँवल ने सब सालों का दिमाग खराब कर रखा है। फालतू गपशप करके, ताश खेल कर या मटरगश्ती करके दिन बिता देंगे; और कुछ नहीं तो दारू पीकर सड़क पर लुड़के पड़े रहेंगे, पर काम नहीं करेंगे।''

जगन से रहि नइ गिस; तीर म जा के किहिस - ''एक बात कहंव साहब?''

साहब मन पहिली तो जगन ल एड़ी ले मुड़ी तक मिनट भर ले घूर के देखिन, फेर दुनिया भर के हिनमान अउ तिरस्कार ल अपन आँखी म भर के मुँह ल बिचका दिन, मानो कहत होंय - ''पूछो?''

जगन कहिथे - ''पैतीस किलो चाँउर म एक झन गरीब परिवार ल महीना भर म के रूपिया के सरकारी सबसिडी मिलथे?''

साहब मन कुछू नइ बोलिन।

जगन ह फेर किहिस - ''आप मन ल कतिक सरकारी सबसिडी मिलथे तेकर हिसाब कभू लगाय हव? नइ लगाय होहू त अब लगाव - गैस सिलेंडर के सबसिडी, पेट्रोल के सबसिडी, डेड़ लाख रूपिया म दस परसेंट इनकम टेक्स म छूट, कतिक होइस बताव?''

एक झन साहब ह गुस्सा-के किहिस - ''अरे जा ना यार .., बेमतलब क्यों मुँह लगता है।''

सच ल आँच का? जगन ह फेर किहिस - ''कोन्हों सरकारी कर्मचारी के, चपरासी के घला एक दिन के तनखा ह छै सौ रूपिया ले कम नइ हे। मन होवत हे ते काम करत हें, नइ ते अखबार पढ़ के, केंटिन म चहा पी के, या फिर एलम-ठेलम करके टाइम पास कर देथें; चार नइ बजे पाय खिसक जाथें; ये मन नइ दिखंय?''

दू रूपिया के चाँउर म सब मजदूर अलाल हो गें, निकम्मा हो गें, चाँउर ल बेच-बेच के दारू पी के ढँलगें रहिथे? अइसने बात ल सुन-सुन के जगन के मति ह छरियाय रहिथे। अइसने हे त अतेक काम ल कोन करथे?

रतन साहब के सौदा ककरो से नइ पटिस। बड़े-बड़े दू ठन, लदलद ले गरू शूटकेस हे नइ ते रेंगत चल देतिस; रेंगे म एक्सरसाइज घला हो जाथे। अउ नहीें ते बबलू ल बला लेतिस, बाइक ले के आ जातिस।

खड़े-खड़े दूरिहा ले रतन साहब ल देख डरे रहिथे जगन ह। दू ठन बड़े-बड़े शूटकेस ल दूनों हाथ म उठा के तनतिन-तनतिन आवत रहय। सीढ़िया म चढ़त-उतरत दसों धाँव ले सुस्ताइस हे। मार सइफों-सइफों करत हे। कपड़ा मन ह पसीना म भींग के बदन ले चिपक गे हें।

रतन जी ल जगन ह बनेच् जानथे। छोटे कद के आदमी, घूँस मुसवा कस घुस-घुस ले मोटाय हे। घूस खाय म उस्ताद हे, मोटाबेच् करही। मतलब रही तब बड़ा मीठ-मीठ गोठियाही; नइ हे ते रौब झाड़ही। जिला कार्यालय म बड़े बाबू हे। रोज पचासों आदमी के आवेदन पत्र वोकर हाथ म आथे। वोकर बिना आगू नइ सरके। सोझ मुँह बात नइ करे। आवेदक मन ल दसों दिन झुलाही, दसों ठन नियम-कानून बताही, पचासों ठन बहाना बनाही, जेब जभे गरम होही तभे काम करही।

बड़ कांइया हे। कोनों कुली, कोनों रिक्शा वाले संग सौदा नइ ठसिस होही। अपन कोती आवत देख के जगन ह जानबूझ के दूसर कोती मुँहू कर दिस।

नजीक आ के दुनों शूटकेस मन ल आस्ते से जमीन म मड़ाइस। पेंट के डेरी जेब ले झक धोवा उरमाल निकाल के चेहरा के पसीना ल पोंछिस। पल भर देखिस; सोंचिस होही, रिक्शा वाले ह 'कहाँ जाना हे साहब', कहिके पूछबेच् करही।

जगन ह कुछू नइ बोलिस।

हारे दाँव रतनेच् साहब ल पूछे बर पड़ गे- ''ऐ रिक्शा, खाली है?''

आदमी ल जब कोनों रिक्शा कहिथे तब जगन ल बड़ गुस्सा आथे। आदमी ल घला रिक्शा बना देथें, बेजान। फेर मन मसोस के चुप रहि जाथे; चलागन बन गे हे। फेर सोंचथे, रिक्शच् ताय आदमी ह, आदमिच् ह तो ढोथे सब ल।

जगन ह मुड़ी हला के कहि दिस - ''हाँ।''

''अरे भई पूछ रहा हूँ , खाली हो क्या? किला पारा चलना है।'' अब थोरिक नरमा के बोलिस रतन साहब ह। ''कितना लोगे?''

जगन ह मन म सोंचिस, नियम-कानून वाले मन संग नियम कानून वाले तरीका से ही बात करना चाहिये। हिसाब लगाइस - 'आदमी के पचीस, समान के पचीस, दस समान चढ़ाय के, दस समान उतारे के, कुल हो गे सत्तर - ''सत्तर रूपिया।''

''सत्तर रूपिया?'' रतन साहब ह मुँहू ल फार दिस। किहिस - ''अरे बाबा, लूट है क्या?''

''कोन लूटत हे साहब?''

''और नहीं तो क्या, बीस का सत्तर बता रहे हो।''

''बीस नहीं साहब, पच्चीस रूपिया हे किलापारा के एक सवारी के। इही हिसाब से बतावत हँव''

''तब का मंय ह तीन झन दिखत हंव जी?'' रतन साहब ह अब छत्तीसगढ़ी म उतर गे।

''एक सवारी के बरोबर ये शूटकेस मन हे''

''अउ?''

''चढाय-उतारे के बीस।''

''आदमी के साथ उसका सामान तो होता ही है न।''

''समान-समान म अंतर भी तो होथे न?''

''चढ़ाने-उतारने का काम हम खुद कर लेंगे भाई।''

''तब फिर पचास रूपिया लगही।''

रतन साहब ह तीस रूपिया ले आगू नइ बढ़िस अउ जगन ह पचास ले कम म राजी नइ होइस। काबर होही, मेहनत के सही मजदूरी लेय के वोकर हक बनथे, सबके हक बनथे।

रतन साहब ह झल्ला के कहिथे - ''इंसानियत भी कोई चीज होती है कि नहीं।''

''हमन कहाँ इंसान आवन साहब, हमन तो रिक्शा आवन।''

जगन ह मन म सोंचथे, जनता के जउन काम ल करे बर सरकार ह येला नौकरी देय हे, तनखा देवत हे, तउनो ल बिना घूँस लेय नइ करे अउ अब इंसानियत के बात करत हे। गरीब, मजदूर मन ल तुम कब इंसान समझथो?

रतन साहब ह चुरमुरा के अपन दूनों शूटकेस ल उठाइस अउ तनतिन-तनतिन करत होटल कोती रेंग दिस। जावत-जावत भुनभुनावत रहय, ''दो रूपिया के चाँवल ने सब सालों को घीसू-माघव बना दिया है।''

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5 : कहा नहीं

चंपा ल आठ बजे काम म जाना हे; वोकर पहिली घर के चौंका-बर्तन करना हे, बहरइ-लिपई करना हे, नहाना-धोना हे अउ येकरो पहिली नवा बाबू के घर जा के चौंका-बरतन करना हे। अँगठा के टीप ले छिनी अँगठी के गांठ मन ल गिन के समय के हिसाब लगाइस; एक घंटा बाबू घर लगही, एक घंटा खुद के घर म लगही, घंटा भर नहाय खाय अउ तैयार होय म लगही; बाप रे! तीन घंटा, तब तो पाँच बजे मुँधेरहच् ले उठे बर पड़ही; बेर तो छै बजे उवत होही?

आज पहिली दिन हे, देखे जाही।

बेर उवे के पहिलिच् पहुँच गे चंपा ह नवा बाबू के मुहाटी। कपाट बंद रहय, का करे? सोंचिस, पहिली घरेच् के काम ल निपटा लिया जाय; लहुट गे।

घर के चौंका बरतन करके फेर आइस, बेर चढ़ गे रहय फेर नवा बाबू के खोली के कपाट ह उघरेच् नइ रहय। असमंजस म पड़ गे चंपा। पछतावा होइस, कहाँ-कहाँ के पचड़ा म पड़ गेंव।

सुकवारो काकी ह देखत रहय, कहिथे - श्चौंका-बरतन करे बर आय हस बेटी?श्

श्देख न काकी, कतिक बेर उठही, कतिक बेर बर्तन-भांड़ा ल माजहूँ , का करहूँ , कब काम म जाहूँ ; का करों, मोर तो मति काम नइ करत हे?श्

श्कपाट ल ढकेल के, नइ ते संकरी ल बजा के देखस नहीं बेटी, बाबू-मुँशी मन के अइसनेच् ताय; वोती बारा बजे ले जागहीं, येती नौं-दस बजे ले सुतहीं।श् काकी ह अपन अनुभव ल बताइस।

चंपा ह संकरी ल आसते ले बजाइस। मन म डर समाय हे, बाबू कहूँ नराज मत होवय।

भीतर ले अवाज आइस - श्खुल्ला हे, ढकेल के आ जा। श्

चंपा ह कपाट ल आसते से धकेलिस, कपाट ह खुल गे।

मुहाटी तो खुल गे फेर चंपा के गोड़ ह उठय तब न। भीतर म अकेला जवान मरद सुते हे, अकेल्ली मोटियारी भला कइसे भीतर म जाय? तन-बदन म झुरझुरी कस रेंग गे, छाती ह जोर-जोर से धड़के लगिस, सांस ह जोर-जोर से चले लगिस। मन म फेर पछतावा होइस, काबर हामी भरिस होही वोहा ये काम बर?

चंपा के आँखी म नवा बाबू के चेहरा-मोहरा ह झूल गे; कालिच तो पहिली घांव देखिस हे वोला; छब्बीस-सत्ताइस साल के उमर होही, गोरा रंग हे, सुंदर अकन गोल चेहरा हे, चस्मा म कतका सुंदर दिखत रिहिस? सफेद रंग के कमीज, करिया रंग के पतलून अउ करियच् रंग के जूता-मोजा म कोनो हीरो ले कम नइ लगत रिहिस। चंपा ह सोचथे, शहरी बाबू मन सब सुंदरेच् रहिथें फेर ये बाबू ह तो सबो ले सुंदर हे।

गोठियाथे घला कतेक सुंदर अकन नवा बाबू ह? अउ बाबू मन तो चटर-चटर हिंदी बोलहीं, अंगरेजी झाड़हीं, साहबी झाड़हीं, रहीसी बताहीं; ये ह अइसन नइ करय। लंदी-फंदी घला नइ कहय, अपन बारे म साफ-साफ बता दिस; बिहाव-बर हो गे हे, बाई ह अभी नइ आ सके; जंगल-पहाड़ के मामला, लगती बरसात के दिन, आय के साधन, न जाय के साधन, ऊपर ले कोरी अकन ले नदिया-नरवा; चार-छै महीना पाछू , जब गाड़ी-मोटर चले लागही, तब देखे जाही।

शहर म खूब मोटर-गाड़ी चलत होही? कइसन होवत होही शहर ह?

चंपा ह आज ले शहर ल नइ देखे हे। का काम वोला शहर ले? अपन जंगल बने रहय। का के कमती हे इहाँ? का करे बर कोई शहर जाहीं? शहर वाले मन ल कमती होय रहिथे, तभे तो जंगल डहर आथें अउ टरक भर-भर के इहाँ ले लेगथें।

शहर के बारे म चंपा ह बहुत सुने हे कि उहाँ चाकर-चाकर चिक्कन-चिक्कन सड़क होथे, मोटर-गाड़ी के रेला लगे रहिथे, चांटी रेंगे कस आदमी रेंगत रहिथें, बड़े-बड़े, सुंदर-सुंदर घर होथें, सुंदर-सुंदर आदमी होथें, दुकान मन म किसिम-किसिम के समान बेचात रहिथे। मोटर म जाबे तब ले एक जुवार जाय म लागथे अउ एके जुवार आय म लागथे। रेंगत कोनों जा सकहीं भला?

का करना हे वोला शहर ले, अपन जंगल बने रहय।

सुकवारो काकी ह देखथे, चंपा ह तो मुहाटिच् म खड़े हे; सोंचिस, लजात होही बिचारी ह, अइसन काम कभू करे नइ हे, किहिस - श्अइ! मुहाटिच् म खड़े रहिबे बेटी कि भीतर जा के कमाबे घला, दिन चढ़त जात हे। डरबे, लजाबे-शरमाबे त काम कइसे होही? बीड़ा उठाय हस, करे ल तो पड़हिच्।श्

चंपा ल चेत आइस, मन ल कड़ा करिस; सोंचिस, काकर हिम्मत हे कि चंपा ऊपर नीयत डाल सके।

सही बात हे, कोन वोकर ऊपर नीयत नइ डालत होहीं, गाँव के आदमी होय कि साहब मुँशी मन। फेर चंपा ह तो चंपच् ए। अपन मरजाद के रक्षा करे बर वोला खूब आथे। चंपा के आँचल ल अब तक कोई मैला नइ कर सकिन। अपन खुद के नीयत साफ होना चाही, हिम्मत चाही, बस; कोन का कर सकथे? अउ फेर नवा बाबू ह तो देखे म वइसन नइ दिखे, नीयतखोर मन के आँखी अलगे होथे।

जी ल कड़ा कर के चंपा ह भीतर आइस अउ अपन काम म लग गे।

नवा बाबू ह रजाई म खुसरेच् हे। सुने हे, चंपा ह अघात सुंदर हे; गाँव म सबले जादा। मन के लालच ल सँउहार नइ सकिस; रजाई ले मुँहू निकाल के चोरी-लुका चंपा ल देखिस। देखिस ते देखते रहि गे। अहा.......ह...! जंगल के कोई परी ह तो संउहत नइ आ गे होही? बिहिनिया के नरम-नरम घाम ह खपरा छानी ले छना-छना के चंपा के बदन ऊपर झरत रहय; सोंचिस, कहीं उषा देविच् ह तो नारी रूप धर के नइ आ गे होही? बिहने-बिहने कहूँ सपना तो नइ देखत हँव?

अपन जिनगी म नवा बाबू ह लाखों लड़की देखे हे, लाखों औरत देखे हे; गाँव के, शहर के, सनीमा-टी. वी. म बड़े-बड़े हिरोइन देखे हे, देश-बिदेश के, फेर अइसन रूप वो ह आज तक नइ देखे हे। नहीं-नहीं! ये दुनिया के तो नइ हो सके ये ह। जरूर सरग के परी होही, जंगल के परी होही, उषा देवी के अवतार होही ये चंपा ह।

सिरतोनेच् ताय, नइ लगे चंपा ह ये लोक के नारी; को जानी भगवान ह वोला का जिनीस ले गढ़े होही? वो जिनीस ले तो बिलकुल नहीं जेकर ले वो ह अउ कोन्हों ल गढ़त होही। गोर-गोर बदन ल मानो महुवा के चाँदी जइसे सफेद-सफेद फूल ल मोती के संग पीस-कूट के लोई बना के बनाय होही; तभे तो वोकर बदन ले अघात मीठ-मीठ सुगंध अउ मादकता झरत रहिथें। धनबहार के पींयर-पींयर फूल ल गुलाब के फूल संग पीस-पीस के वोकर बदन म लेप करे होही; तभे तो वो ह पुन्नी के चंदा कस चमचम-चमचम चमकत रहिथे। चिरौंजी के बीजा कस दांत हे, लाल खोखमा फूल के पंखुरी कस ओंठ हे। कनिहा के आवत ले बेनी झूलत हे, भुरवा-भुरवा चुंदी ह जब खुलथे तब अइसे लगथे कि अगास गंगा के धार ह लहर-लहर करत धरती म उतर आय हो। सतरा-अठारा साल के जवानी के का पूछना हे? चोली म समात नइ हे, उछल-उछल जावत हे; देख के काकर नीयत ह नइ डोल जाही? दिन भर घाम-प्यास, सर्दी-गर्मी, पानी बरसात म रांय-रांय रोजी-मजूरी करथे चंपा ह, फेर बदन ह बिहने-बिहने फूले खोखमा के फूल कस, ताजा के ताजा।

तीन-चार दिन हो गे काम म आवत चंपा ल। वोकर मन के डर अउ झिझक ह अब खतम हो गे हे; नवा बाबू ह दूसर बाबू मन कस नइ हे। आदमी के नीयत ह वोकर आँखी ले जना जाथे।

आज वो गुस्साय हे; काबर नइ गुस्साही? अतेक दिन हो गे, सुते के खोली म पोतनी नइ परे हे। पलंग के आजू-बाजू कागज अउ कचरा के कूढ़ी गंजा गे हे। सुते रही त कोन वोकर खोली म जाही? जाते सात शुरू हो गे - ''अइ..... यहा का सुतइ ये दइ, दस बजत हे, बाबू के बिहिनिया नइ होय हे का? देखही तउन मन ह का कहिही, चंपा ल लीपे-बहरे बर नइ आय? टार दाई, अइसन म कोन कमाही, तियार लिही काली ले दूसर ल।''

बाबू ह सुते-सुते सुनत हे चंपा के खिसियाई ल; खिसियावत हे कि चेतावनी देवत हे चंपा ह? कुछू होय, झरना के धार कस झर-झर, झर-झर झरत हे चंपा के बोली ह, कोयली के बोली कस गुरतुर,-गुरतुर लागत हे चंपा के बोली ह; थोकुन अउ भड़कन दे न।

चद्दर ल घुम-घुम ले ओढ़ के अउ सुत गे बाबू ह।

जावत-जावत चंपा ह चेतावत हे - ''काली कहूँ नइ उठही, त देख लेही, बाल्टी भर पानी ल नइ रुकोही चंपा ह वोकर मुड़ी म, ते किरिया हे; तब कोनों बद्दी झन दिहीं, हाँ।''

सुकवारो काकी ह चंपा के बात ल सुन-सुन के खुलखुल-खुलखुल हाँसत हे। सोंचत हे, टुरी ह कब ले सियानिन हो गे हे।

00़

आज चंपा के आय के पहिलिच् उठ गे हे बाबू ह। माटी तेल के स्टोव ह भरभर-भरभर जलत हे, स्टोव के ऊपर केतली म चहा ह खदबद-खदबद खउलत हे। अभी बेर नइ उवे हे। बाबू ह उत्ती डहर के अगास ल निहारत हे, उत्ती डहर लाइन से बड़े-बड़े पहाड़ हे। पहाड़ मन म घम-घम ले जंगल हे। जंगल म महुवा हे, चार हे, तेुदू हे, कर्रा हे, हर्रा हे, बहेरा हे, आँवला हे, साजा हे, सागोन हे, बीजा हे, बाँस हे, अउ हे नाना प्रकार पशु-पक्षी। सूपा जइसे चाकर-चाकर पान वाले सागोन के पेड़ मन तो चरचर ले सफेद-सफेद चाँदी कस फूल ले लदका गे हें। इही पहाड़ी मन के पाछू डहर ले तो निकलत होही सुरुज देवता ह। वाह! सूर्योदय के कतका सुंदर नजारा देखे बर मिलही आज?

सब चंपा के कृपा हे।

जब अगास म करिया-करिया बादर उमड़थे तब एको ठन पहाड़ ह नइ दिखय, बादर म बादर, एकमेव हो जाथे। पानी बरस के जब थमथे तब पहाड़ म मानो आगी लग जाथे, अतेक करिया-करिया धुँगिया निकलथे कि जम्मों पहाड़ ह ढंका जाथे, पहाड़ ह घला बादर बन जाथे। तब सब जान जाथे, अउ बहुत जोर के पानी गिरने वाला हे।

काली बहुत पानी गिरे रिहिस, आज अगास म न तो बादर हे, न पहाड़ म आगी लगे हे।

पहाड़ी के पीछू अगास म धीरे-धीरे लाल रंग बगरत हे। अहा..ह..ह, कतका सुंदर तसवीर बने हे। बाबू ल आज मालूम होइस कि प्रकृति ले बड़का अउ कोनों चित्रकार दुनिया म नइ होवय। सुंदर अकन ठंडा-ठंडा बयार चलत हे, हवा म न धुर्रा के बादल हे, न पेट्रोल-डीजल के बदबू हे, न गंदा नाली के भभोका हे, जंगल के फूल मन के सुंदर अकन खुशबू अउ मदरस के महक हे, माटी के मनमोहक गंध हे बिहने के हवा म।

कते फिल्टर म छन के आवत होही अतका सुंदर हवा?

बाबू ल चहा बनात दुरिहच् ले देख डारिस चंपा ह; ठक ले हो गे, हे भगवान! काली काबर वइसने कहि परे होहूँ? अतका मुँधेरहा उठे म तकलीफ नइ होइस होही बाबू ल?

कुछू नइ बोल सकिस चंपा ह, सुटुर-पुटुर अपन काम म लग गे।

बाबू ल ठट्ठा करे सूझिस। कहिथे - ''आज तोर बहुत अकन काम के बचत हो गे चंपा।''

बाबू के गोठ ल सुन के चंपा के कलेजा ह धक ले हो गे, बक्का नइ फूटिस, मुश्किल से डरावत-लजावत बोलिस - ''का?''

''अरे, बाल्टी भर पानी लाय रहितेस, मुड़ी म रुकोय रहितेस, चिखला माते रहितिस तउन ल सुखोय रहितेस, कम हे?''

बाबू के गोठ ल सुन के चंपा के तन-बदन झनझना गे, शरम के मारे मुँहू ह लाल-बादर हो गे, दुनों हथेली म चेहरा ल ढाँक लिस, जीभ ह दाँत के बीच फँस गे, का जवाब देय चंपा ह? कतेक सुंदर अकन गोठियाथे नवा बाबू ह? फेर हे भगवान! ये ह तो एक-एक ठन बात ल सुनत रहिथे, सुरता म रखे रहिथे। ..... चेत जा...., चेत जा चंपा, खबरदार! अब ले बिना सोंचे-बिचारे कुछू केहे ते।

दू ठन मग म चहा ल छान के बाबू ह एक ठो ल चंपा कोती बढ़ा दिस - ''चंपा, तोर चाय।''

फेर अकचका गे चंपा; चहा कोती चंपा के हाथ नइ लामत हे।

''अरे ले.....।''

बड़ मुश्किल म मुँहू खुलिस चंपा के - ''हम चहा नइ पीयन बाबू।''

''काबर?''

''...............।''

''काबर नइ पीयस चहा?''

''माँ कहिथे, चहा पिये म बदन ह करिया जाथे।''

सुन के बाबू ल हँसी आ गे, कहिथे - ''तभे जंगल के टुरी मन अतका उज्जर, अतका सुंदर होथे।''

इशारा समझ गे चंपा ह; अतका अड़ही हे का वो ह? ये जंगल म अउ कोन हे वोकर छोड़ अतका सुंदर, अतका उज्जर भला? शरम के मारे बदन झुरझुरा गे, छाती ह लोहार के धुकनी कस जोर-जोर से चले लगिस। बदन के जम्मो लहू ह चेहरा म सकला गे; चेहरा ह लाल पाके बंगाला कस ललिया गे; दुनो हथेली म चेहरा ल ढाँक लिस, मन म संशय जनम लेवत हे; बड़ा धोखेबाज होथें शहरी बाबू मन, अइसने म तो मोहनी-थापनी डार के पिलाथें, अपन बस म करथें, इज्जत से खेलथें अउ पंछी कस उड़ जाथें। तरह-तरह के बिचार फूटत हे चंपा के मन म; कहूँ बाबू के नीयत म खोंट तो नइ अमा गे हे, मरद जात के का भरोसा? कनखहूँ बाबू के आँखी म झाँकत हे चंपा ह। बाबू के आँखी ल पढ़त हे चंपा ह। मन के दोष ह आँखी म जरूर प्रगट हो जाथे। मने मन तउलत हे बाबू के नीयत ल चंपा ह।

शिवनाथ के जल कस बिलकुल निर्मल, निर्दोष अउ थिर हे बाबू के आँखी ह। चंपा झेप गे; छी! भरम के का इलाज? कतका नेक हे नवा बाबू ह।

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तिनेक महीना हो गे हे, अब तो अतेक घसलहा हो गे हे चंपा ह कि बाबू ल रगड़त आही अउ रगड़त जाही। बाबू ल तिखार-तिखार के वोकर घर-परिवार के एक-एक ठन बात ल पूछ डरे हे। अपनो एक-एक ठन बात ल बता डरे हे बाबू ल; मन साफ हे त का के परदा?

आज काम म नइ जाना हे, फुरसत म हे चंपा ह। इतराय के अच्छा मौका मिले हे; पूछत हे - ''कब लाबे बाबू दीदी ल?''

''कोन दीदी ल? काकर दीदी ल?''

''ओ....हो... कोनों अइसने तिखारथे तब मोर एड़ी के रिस ह तरुवा म चढ जा़थे।'' चंपा ल गुस्सा आ गे। ''का .... बताँव भगवान? .....हमर दीदी, तोर बाई ल।''

''अरे! मोर बाई ह कब ले तोर दीदी हो गे?''

''हो गे न, चुप कर; तंय झन मान, हम तो मान लेन?''

''फोकट म जब अतका सुंदर सारी मिलत होही तब माने म भला कोन ल एतराज होही?'' बाबू ह नहला म दहला मारिस।

''सपना झन देख; कोन्हों रस्ता म परे-डरे नइ हे सारी ह कि फोकट म मिल जाही?''

''तब कीमत बता डर न?''

''रस्ता नाप, कतको देखेन तोर सही खरीददार। असली खरीदार ह कीमत नइ पूछे।''

बाबू ल कुछू बोलत नइ बनिस। का हे चंपा ल खरीदे बर वोकर पास?

चंपा के मुँहू ह कहाँ थिराने वाला हे, कहत हे - ''सुरता आतिस तब न लातेस?''

''तोर सही सारी के रहत ले घरवाली के भला कइसे सुरता आही?'' छेड़े बर बाबू ल फेर मौका मिल गे।

अब तो झेंप गे चंपा ह, शरम के मारे मुँहू-कान ललिया गे। कुछू कहत नइ बनिस त जीभ ल बीता भर निकाल के जिबरा दिस - ''ए............।''

बाबू ह अपन कागज-पत्तर के लिखा-पढ़ी म भिड़े रहय, चंपा के गुलाब जामुन कस जीभ ल देख के ठगाय कस हो गे। मुँहू म पानी आ गे।

अतका म मन नइ भरे हे चंपा के। चुप कहाँ बैठने वाली हे; फेर पूछत हे - ''गजब सुंदर होही न दीदी ह?''

''सारी ले बढ़ के कोनों घर वाली ह सुंदर होथे का? होथे का तिहीं बता? नइ सुने हस का वो गाना ल? मोर सारी परम पियारी रे..............।''

''गारी खाय बर भाय हे? आज बहुँत बढ़-चढ़ के बोलत हस।''

''चाहे कनवी रहय कि खोरवी रहय, विहिच ह काम आही; तंय थोरे काम आबे?''

चंपा ह बीता भर जीभ ल निकाल के फेर जिबरा दिस।

सुकवारो काकी ह चंपा के गोठ ल तइहा ले सुनत हे। मने मन कंझावत हे; ये टुरी ह आज कहीं जकही तो नइ हो गे हे? आगी म खुदे झपाय परत हे, लेसाही-भुंजाही कि नहीं? रहि नइ गिस त झंझेटिस - ''अइ चंपा, यहा का ए बेटी? पढ़न-लिखन दे बाबू ल।''

चंपा ल चेत आइस। काम निबटा के सुरूकुरू घर कोती भागिस।

00

घर म रस्ता देखत-देखत दाई के आँखी ह थक गे हे। आज गजब बेर लगाइस चंपा बेटी ह। मन म तरह-तरह के बिचार आवत हे। दाई ह जानत हे, चंपा ल जुठारे बर काकर नीयत नइ लगे होही? बाढ़े बेटी, डिड़वा के घर चौका बरतन करे बर जाथे। कभू वहू ह वइसने जावत रिहिस हे। हे भगवान! कहूँ बेटी ह घला दाई के रस्ता म तो नइ चल देय होही? चंपा अउ नवा बाबू ल ले के कइसन-कइसन बात नइ होवत हे गाँव म? सुकवारो दीदी ह घला आ-आ के बरजत रहिथे।

आते सात पूछथे चंपा ल - ''आज अघात बेरा लगाय बेटी?''

चंपा के गोड़ ह मुहाटिच् म ठोठक गे। चंपा ह जानत हे, एक न एक दिन तो ये बात ह होनच् रिहिस। दाई के आँखी म झाँक के देखथे, हे भगवान! इहाँ तो शंका-कुशंका के अथाह दहरा बन गे हे। काबर नइ बनही? दूध के जले ह मही ल फूँक-फूँक के पीबेच करही।

बड़ मया दुलार ले दाई के आँसू ल पोंछ के कहिथे चंपा ह - ''अपन बेटी ऊपर बिसवास कर दाई, नइ टोरंव तोर भरोसा ल कभू। बोहाय बर होतिस त चंपा ह क......ब के बोहा गे रहितिस।''

''डर्राथों बेटी, एक तो मंय अभागिन, पापिन, कोन जाने कते घड़ी म पाप कर परेंव, सजा ल आज ले भोगत हँव। छिन भर के पाप म जिनगी ह कइसे नरक बन जाथे, देखत हस न अपन दाई ल? गरीब के सब मजाक उड़ाथें बेटी। गरीब के गरीबी अउ मजबूरी के स....ब फायदा उठाथें। स...ब सुवारथ के संगी होथें। ये दुनिया म गरीबी ह खुदे अपन आप म सबले बड़े पाप आय बेटी।''

''कोनों पाप नइ करे हस दाई तंय ह। दुनिया ह कहिथे ते कहन दे न? हड़िया के मुँहू म परई ल ढाँकबे, आदमी के मुँहू म काला ढाँकबे? तोर बेटी ह जानत हे, तंय कोनो पाप नइ करे हस। तंय तो घुमियारिन दाई कस, सीता माई कस पवित्र हस। पाप तो वो आदमी ह करे हे, जउन ह तोर नादानी, तोर जवानी के फायदा उठाइस, तोला धोखा दिस, तोर विश्वास ल टोरिस। सात जनम ले तड़पही वोकर आत्मा ह, हाँ।''

क्रोध, क्षोभ अउ अपमान के कारण चंपा के मुँह ह तमतमा गे, क्रोध वो आदमी के प्रति जउन ह वोकर बाप होतिस, पर जेकर मुँहू ल वो ह आज तक कभू देखेच् नइ हे।

दाई ह चंपा ल पोटार लिस। मुँह म हाथ धर के कहिथे - ''झन सराप बेटी, वोला झन सराप। का मिलही येखर से? अपने जी ह करू होथे।''

चंपा के तमतमाय चेहरा म दाई ल वो आदमी के चेहरा ह साफ-साफ दिखे दिखे लगिस।

00

ये गाँव ह तइहा ले अइसनेच हे। बारो महीना कोरी भर सरकारी कर्मचारी इहाँ पड़ेच् रहिथें। जंगल विभाग के कहस कि पटवारी कहस, कि ग्राम सेवक कहस कि नरस बाई कहस, कि गुरूजी कहस। ए डहर के कोनों नइ रहंय, सब चाँतर कोती ले आथें, परदेस ले आथें, लोग-लइका ल घर म छोड़ के, इहाँ के नादान भोली-भाली, अपढ़ गरीब जवान बेटी मन ल, दाई-माई मन ल, अपन हवस के जाल म फँसाथें, अउ भाग जाथें।

चंपा के दाई ह घला अइसने धोखा खा के बइठे हे। चंपा ह वोकरे निशानी आवय। फेर चंपा के दाई ह दूसर मन सरीख नइ हे। दाई-भाई मन अलगा दिन, कोन रखही पापिन ल संग म? तभो ले रोजी-मजूरी कर-कर के, बेटी के मुँहू ल देख-देख के अउ वो परदेसी के सुरता कर-कर के आज ले वोकर नाम म बइठे हे, जिनगी ल खुवार करत हे। अभी कतकेच् उमर होय होही चंपा के दाई के; चालीस ले जादा तो कोनो हालत म नइ होही, फेर देखे म लगथे पचास-पचपन के।

वइसने कहूँ चंपा संग मत हो जाय। वइसने तो हे, विही परदेसी सरीख तो हे ये नवा बाबू ह; चंपा घला तो हे वइसने, वोकरे सरीख, दाई सरीख। दाई के कहानी ल बेटी ह झन दोहरावे, इही चिंता म रात-दिन परे रहिथे दाई ह। मन के बँहके म कतका समय लगथे?

शहर ले सौ-सवा सौ किलो मीटर दूरिहा घनघोर जंगल के बीच म बसे हे ये गाँव ह। गाँव ह एक ठन हे फेर टोला हे कोरी अकन; पटेल टोला, बइगा टोला, पद्दी टोला, माँझी टोला, कंगला टोला, बंगला टोला ......। ये कहानी ह बंगला टोला के आय। जंगल विभाग के करमचारी मन बर गजब अकन बंगला बने हे इहाँ; इही टोला म स्कूल हे, इही टोला म पंचायत घर हे, तउन कारन से ये ह बंगला टोला आय।

गाँव म हमेशा कोई न कोई टुरी के कहानी चर्चा म रहिथे। बारा-तेरा साल के कोनों होइस नहीं, कि जहाँ जवानी के पीका फुटे के शुरू होइस नहीं तहाँ फेर शुरू हो जाथे वोकर चर्चा।

''अबे! छोड़ न यार, अब माधुरी के गोठ ल, केटरीना के बात कर,, केटरीना के।''

''अरे यार जनउला तो झन पूछ, कते केटरीना, कोन केटरीना, बने खोल के तो बता।''

''अबे घोंचू ! गाँव म रहिथस कि लंदन म बे? दुनिया ह जान डरिस, गली-गली म शोर हे, फलानी टुरी के जोर हे। तोला पता नइ हे?।''

''अरे बाप रे! वो काली के रेमटही टुरी? जउन ल बने ढंग ले चड्डी पहिने ल नइ आय तउन ह?''

''अबे अब जा के देख, कइसे चोली पहिर के मटमटात घूमत रहिथे गली-गली, हाट-बजार म।''

''सारे कलजुग ह सिरतोने खरा गे हे रे।''

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अब तीन महीना हो गे हे, गाँव म बस एकेच् चर्चा होवत हे; चंपा के चर्चा। लइका कहस कि सियान, डोकरा कहस कि जवान, टुरी कहस कि मोटियारी; कुआँ म, घाट म, घटौंधा म, नरवा म, खड़का (सोता) म बस एकेच् गोठ - ''दाई ले घला नहक गे रे टुरी ह।''

''अपन नहीं त दाई के बारे म तो सोंचतिस।''

''का सोंचना यार, जघा-जघा मुँहू मारत जइसे दाई के दिन बीतत हे, बेटी के दिन ह घला वइसने बीत जाही।''

''अइसन एर्री-बेर्री के दिन ह अइसने तो नहकही भाई, जात के पता न गोत-गोतियार के, कोन आदमी ह वोकर संग बिहाव करही? अइसने एकाघ झन ल फाँसही तभे तो बनउती ह बनही।''

''फाँसही कि खुद फँसही, भगवान जाने?''

''तब ले तो टुरी ल न लाज हे न शरम हे। गली-गली म कइसे तितली कस उड़त-फिरत रहिथे, मटमटात? ही..ही.. ही.ही.......करत रहिथे?''

''पेट ल निकलन दे, तहाँ सब घुँसड़ जाही।''

''जरूरी हे का बे पेट निकलना?''

''बने कहिथस यार। ..... अरे हमन, हमर गाँव के जम्मो टुरा मन मर गे हन का बे, कि साले परदेसिया आदमी ह वोला भा गे हे।''

''अरे! दिलदार हे यार हीरो ह। देखस नहीं, कइसे चमका के रखथे हिरोइन ल।''

जे ठन मुँहू ते ठन गोठ।

चंपा घला जानत हे कि वोकर बारे म का का अफवाह उड़त हे गाँव म। जानहीं कइसे नहीं, मुँहू ऊपर ताना मारने वाला मन के इहाँ कोई कमी हे का? सोझ झड़कथें - ''अरे यार, अब तो इहाँ के टुरी मन ल जंगलिहा केरा ह नइ मिठाय, पारसली म मोहाय हें।''

चंपा घला कहाँ सुन के चुप रहने वाली, सोझ हाँकथे वहू ह - ''तुँहरे दाई-बहिनी मन खावत होहीं पारसली केरा ल, तुँहरो बर बचा के लावत होहीं, तभे पारसली केरा के तुँहला सुरता आवत हे।''

तभो ले चंपा ल कोनों फरक नइ पड़े। अफवाह ल धरही तउन ह तो मरिच् जाही। कुकुर भूँके हजार, हाथी चले बजार। कुकुर मन तो भूँकबेच् करहीं। सच ल का के आँच?

दाई ल फरक पड़थे। बिना आगी के धुँगिया तो नइ होवय न? रात-दिन संसो म दुबरात हे। बेटी के नहवई-खोरई के एक-एक दिन के गिनती करत रहिथे।

नवा बाबू ल घला फरक परथे। बइठे ठाले बदनामी, कोन ल सहन होही? आज काम म वोकर मन नइ लगत हे। कागज-पत्तर ल खोल के बइठे हे फेर लिखे-पढ़े के मन नइ होवत हे। कालिच् सांझ कुन के बात आय, वर्मा बाबू ह कहत रहय - ''वाह! का हाथ मारे हस यार, इही ल कहिथे, मारो तो हाथी, लूटो तो भंडार। कोन वोकर पीछू नइ परे होही? ककरो तो हाथ आतिस। किस्मत वाले हस तंय; मौज कर ले बाबू, फेर नरी म फंदा मत डारबे। घर परिवार वाले आवस, खयाल रखबे।'

वर्मच् के बात नइ हे, सबो संगवारी मन वोला अइसनेच कहिथें। सुन-सुन के बिट्टा गे हे नवा बाबू ह; काकर-काकर मुँहू ल बंद करे, कइसे समझाय संगवारी मन ल?

चंपा के चेहरा ह वोकर आँखी म झूल गे। वोकर हँसई, वोकर बेलबेलाई, ठठ्ठा करई, सब बात के वोला सुरता आवत हे। कहूँ चंपा ह वोकर से प्यार तो नइ करे लग गे होही? जरूर चंपा ह वोला मने मन चाहत होही, नइ ते का जरूरत हे वोला सारी के रिस्ता जोड़े के? का जरूरत हे वोकर कपड़ा-लत्ता के अतका ध्यान रखे के? कइसे घसीटत रेंगथे। नास्ता, चहा-पानी, खाय-पिये के, सब बात के अतका काबर ध्यान रखत होही? काबर सुनात होही शिवनाथ-सतवंतिन के कहानी ल?

तब का मही अतका ब़ुद्धू हंव? आगू थारी म कलेवा ह परसाय माड़े हे, मोला भूख नइ हे? नइ खाना बेवकूफी नो हे का? बाबू के मन म वासना के राक्षस समावत जात हे।

आवन दे काली चंपा ल, आर या पार। बाबू के मन म वासना के राक्षस ह अउ पक्का घर बना लिस।

00

रात भर नींद नइ आइस बाबू ल। रहि-रहि के चंपा के मोहनी सूरत वोकर आगू म आ आ के मोहनी नाच नाचे हे। बइगा टोला के चेलिक अउ मोटियारी मन बिधुन हो के रीलो नाचत हें, गावत हे, -

''रे...... रिलो रे.....

रिलो रे.....रिलो रे......

रे...... रिलो रे.....''

गीत सुन-सुन के बाबू के मन अउ व्याकुल होवत हे। देख तो ,मोटियारी मन के बीच म कतका लहरा-लहरा के नाचत हे चंपा ह? बीच म अंगीठी जलत हे। महुवा के बड़े-बड़े गोला मन कइसे सोन कस लकलक-लकलक दहकत हे अंगीठी म? अउ अंगीठी के सोन कस अंजोर म कइसे दहकत हे चंपा के बदन ह, सोना कस? मानों सोना के मूर्ती होय।

अउ चंपा के कनिहा ल पोटार-पोटार के बिधुन हो के नाचत हे तउन ह कोन ए? अरे! ये तो बाबू हरे।

00

बिहने चंपा ह आइस। कुछू फरक नइ पड़े हे चंपा ल, कोई खोट नइ हे चंपा के मन म; चकरघन्नी कस घूम-घूम के वइसने काम करना, वइसने इतराना, वइसने मजाक करना; कुछू फरक नइ हे चंपा के मन म, स्वभाव म।

बाबू ल बहुत फरक पड़े हे। बाबू के मन म वासना के राक्षस ह घर बना डरे हे। चंपा के निर्मल व्यवहार ल देख के बाबू के मन के वासना के राक्षस घला हिम्मत हारत हे। पवित्रता के आगू पाप भला टिक सकही? बाबू के हिम्मत नइ होवत हे कि चंपा के आँखी से आँखी मिला के देख सके।

चंपा ह जान गे, बाबू के तबीयत आज अच्छा नइ हे; कहिथे - ''तबीयत तो ठीक हे न बाबू?''

बाबू के तबीयत तो ठीक हे, मन ठीक नइ हे। कहिथे - ''तंय ककरो संग प्यार करे हस चंपा?''

बाबू के बात ल सुन के चंपा ठक ले हो गे। बाबू ल आज हो का गे हे?

''तंय ककरो संग प्यार करे हस चंपा?''

''आलतू-फालतू के काम बर चंपा के पास टाइम नइ हे बाबू।''

''प्यार.... आलतू-फालतू?''

''जेकर से न तो पेट भरे, न तन ढंके, न जिनगी चले, वो का काम के बाबू? जिनगी म का काम आथे प्यार ह?''

''सच बता चंपा तंय का मोर से प्यार नइ करस?'' अब मतलब के बात म आइस बाबू ह।

चंपा ह कहिथे - ''तोर से तोर बाई ह प्यार करत होही, हम काबर करबो तोर से प्यार?''

''नहीं, नहीं, तंय जरूर मोर से प्यार करथस; मुँह से भले झन बोल।''

खिलखिला के हाँस दिस चंपा ह, अंगठा के टीप ल छिनी अंगठी के गांठ मन म सरका-सरका के कहिथे - ''नहीं, बिलकुल नहीं; अतका...अतका...अतका एको कनिक नहीं।''

चंपा के ये अदा म बाबू के करेजा के चानी-चानी हो के बगर गे।

मौका आज अच्छा हे। सुकवारो काकी के घला आरो नइ मिलत हे, गली घला सुन्ना हे। अइसन मौका अउ नइ मिलही।

चंपा के काम ह उरक गे हे; घर जाय बर निकलत हे। फेर मुहाटी म तो रस्ता छेंक के बाबू ह खड़े हे।

हे भगवान! बाबू ल आज का हो गे हे? चंपा के निगाह बाबू के आँखी म गड़े हे। बाबू के हिम्मत नइ होवत हे चंपा संग आँखी मिलाय के। बाबू के आँखी म वासना के राक्षस मेंड़री मारे जो बइठे हे।

''जावन दे बाबू , रस्ता छोड़ दे।''

''तंय भले नइ करत होबे चंपा, मंय तो करथों न तोर से प्यार? मोर मन से पूछ, कतका प्यार करथे तोला?''

''मन से का पूछना बाबू ,मन तो चंचल होथे; भंवरा सरीख, आज ये फूल म तो कल वो फूल म। प्यार के मरम ल मन ह का जाने? .....फेर ये चंपा म का हे जउन ल तोर मन ह प्यार करत होही? यदि चंपा के शरीर ल प्यार करत होही बाबू तोर मन ह त शरीर तो मल-मूत्र के खान होथे, घुरुवा सरीख। घुरुवा से भला कोनों मन लगाथे का? ये शरीर ले तोर मन ल का मिलही मल-मूत्र के सिवा?........ प्यार करना सरल होथे, निभाना बड़ा कठिन होथे बाबू। का तंय चंपा के मांग म सिंदूर भर सकबे? मोर से बिहाव कर सकबे? ........तंय कर भी लेबे बाबू, मंय तो नइ कर सकंव न? तंय तो ककरो मांग म पहिलिच् सिंदूर भर चुके हस, एक ठन ल निभा नइ सकत हस, दूसर ल का निभा सकबे? ......रहि गे आत्मा के बात? आत्मा तो गंगा कस पवित्र होथे। गंगा के लहरा म वासना के पाप तो नइ रहय न? तोर आँखी म तो आज वासना के समंदर हाहाकार करत हे। मंय तो तोला देवता समझत रेहेंव, आज मोर विश्वास ल तंय टोर देस बाबू। हट जा सामने से। बाबू! तोर पांव पड़त हंव; अभागिन के परछो झन ले।''

बाबू ह आज राक्षस बन के रास्ता छेंक के खड़े हे चंपा के। आज वोला कुछू नइ दिखत हे, कुछू नइ सुनात हे, कुछू नइ सूझत हे; दिखत हे केवल अप्सरा कस मोहनी नृत्य करत चंपा के लचकत शरीर ह, सुनावत हे केवल झरना कस झरझर-झरझर झरत चंपा के मदरस कस मधुर बोली ह, सूझत हे केवल वासना; वासना, केवल वासना।

राक्षस के हाथ बढ़ गे चंपा के शरीर ल अपन आगोश म लेय बर।

चंपा घला अब वो चंपा नइ रहि गे हे; अबला, असहाय, लाचार। चंपा के शरीर म रणचंडी अवतरित हो चुके हे। केश खुल के हवा म बिखर गे हे, बड़े-बड़े आँखी ह राक्षस के रकत चुहके बर तैयार हो गे हे, शेरनी कस गुर्रावत हे चंपा ह - ''खबरदार! खबरदार बाबू , कहू चंपा के शरीर ल हाथ लगायेस ते। चंपा ह भले जान ले लेही कि जान दे देही, इज्जत नइ दे सके। हट जा सामने से।

राक्षस के का मजाल कि रणचंडी के सामना कर सके।

सत के बधवा म सवार रणचंडी ह निकल गे बड़ोरा कस।

00

बाबू के मन म समाय वासना के राक्षस ह रणचंडी के तेज म जल के भस्म हो चुके हे। पछतावा के आग म अब जलत हे बाबू के शरीर ह। ककरो से आँखी मिलाय के अब हिम्मत नइ हे बाबू के शरीर म, भला चंपा से का वो आँखी मिला सकही? भूख लगत हे न प्यास, बाबू ल। दिन भर घर म खुसरे हे, पलंग म सुते हे, सुते-सुते सोंचत हे; हे भगवान मोर से आज ये का पाप हो गे।

चंपा के कहे एक-एक ठन बात ह वोकर कान म गूँजत हे - 'शरीर तो मल-मूत्र के खान होथे बाबू , घुरुवा सरीख। घुरुवा से भला कोनों मन लगाथे का? ये शरीर ले तोर मन ल आखिर का मिलही मल-मूत्र के सिवा? .......... तंय तो ककरो मांग म पहिलिच् सिंदूर भर चुके हस, एक ठन ल निभा नइ सकत हस, दूसर ल का निभा सकबे बाबू? रहि गे आत्मा के बात? आत्मा तो गंगा कस पवित्र होथे। गंगा के लहरा म वासना के पाप तो नइ रहय न?'

चंपा के कहे एक-एक ठन बात ह कान म गूँजत हे बाबू के। रहि-रहि के हथौड़ा चलात हे बाबू के दिमाग म चंपा के एक-एक ठन बात मन ह। बाबू ह गुनत हे; ज्ञान के अतेक बात ल कहाँ ले सिखे होही चंपा ह? पुरूष के दंभ ल तोड़ के रख दिस; अतका ताकत कहाँ ले आइस होही चंपा के शरीर म? कहाँ ले पाय होही चंपा ह तन अउ मन के अतका अथाह शक्ति? शिवनाथ अउ सतवंतिन ले?

शिवनाथ अउ सतवंतिन के कहानी ल रहि-रहि के सुरता करत हे बाबू ह। चंपच् ह तो बतावत रिहिथे ये कहानी ल; बताथे त सनीमा देखे कस एक-एक ठन बात ह, एक-एक ठन दृश्य ह बाबू के आँखी के आगू म चले लगथे। आजो विही सीन मन ह खँाखी-आँखी म झूले लगिस।

गजब बातूनी तो हे चंपा ह, कब चुप रहिथे वो ह? कुछू गोठियाय बर नइ मिलिस ते शुरू हो गे कहानी सुनाय बर। बिना एती-वोती के छूट बाबू ल पूछत हे - ''शिवनाथ अउ सतवंतिन के कहानी ल सुने हस बाबू तंय?''

''कोन शिवनाथ-सतवंतिन?''

''धत्! फेर काला पढ़े हस? अरे विही शिवनाथ, जेला नहक के तंय ह इहाँ आथस। जेकर अमृत कस पानी म छत्तीसगढ़ के मनखे मन, जीव-जंतु मन अपन पियास बुझाथें। कतरो गाँव अउ शहर जेकर खांड़ म बसे हें।''

''वो नदिया? मंय तो कोनो आदमी के कहानी समझत रेहेंव।''

''आदमी के कोनों कहानी बनथे का? कहानी तो देवता मन के बनथे। ये मन कोनों नदिया नरवा नो हें, देवता आवंय, लीला करे बर, छत्तीसगढ़ ल तारे बर, प्यार का होथे येला समझाय बर आदमी के अवतार लेय रिहिन।''

''का होथे चंपा प्यार ह? ककरो से कभू करे हस का तंय?''

''धत्! दुनिया म जतका पवित्र चीज होथें, वोकरे मन के सार ले, वोकरे मन के सत् ले तो प्यार बनथे। आदमी के मन म तो दुनिया भर के मैल भराय रहिथे, आदमी ह का प्यार करही बाबू?''

''तब का देवतच मन ह प्यार करथे?''

''जउन मनखे ह सच्चा अउ पवित्र प्यार करथे वो ह देवता ले कम होथे का?''

''अब प्यार के ही बात बतावत रहिबे कि कहानी घला सुनाबे?''

''हमर पानाबरस राज म घोर जंगल बीच एक ठन गाँव हे बाबू कोटगुल। तइहा जमाना म उहाँ के पटेल के सात झन बेटा अउ सबले छोटे एक झन बेटी रिहिस। सात झन भाई के एक झन बहिनी, तउन पाय के सब झन वोला सतवंतिन कहंय। सातों भाई अउ सातों भउजी के गजब मयारुक। एक गिलास पानी बर घला वोला कोनों नइ तियारे, अतका फुलक-झेलक, फूल कस बदन, अघात सुंदर , अतराब म अउ कोनों नइ तइसन।''

''तोरे कस रिहिस होही?''

''धत्! वो कोनों मानुस थोड़े रिहिस, काली माई के अवतार रिहिस। वोकर अंग-अंग ले, चेहरा ले काली माई के तेज निकलत रहय। चंपा तो कलजुग के नारी आवय। एक नहीं, हजारों हजार चंपा मिल के वोकर बराबरी नइ कर सकंय बाबू।''

''फेर का होइस चंपा?''

''जवान हो गे सतवंतिन ह। घोटुल मा जावय सतवंतिन ह, संगी मोटियारी मन संग। रीलो नाचय, अइसे नाचय मानों कोनों अप्सरा नाचत होय। सतवंतिन ह जब नाचय तब मांदर अउ मंजीरा बजाय बर संउहत सरग के देवता मन आवंय। गाँव भर के चेलिक मन वोकर आगू-पीछू मंड़रावँय। काकर हिम्मत होतिस वोला हाथ लगाय के? अइसने नाचत-नाचत एक दिन एक झन चेलिक ह मंद के नशा म ओकर बांह ल धर दिस। जेकर अंग म संउहत काली माई के बास रिहिस; कोनो पाप के बसीभूत होके वोला छूही त का वो ह बाँचही? जल के भसम नइ हो जाही?''

''तब का वो ह भसम हो गे?''

''तुरते लुलवा हो गे। फेर तो अउ ककरो हिम्मत नइ होइस सतवंतिन के शरीर ल छुए के।''

''तब वोकर बिहाव कइसे होइस? काकर संग होइस?''

''ये धरती म का एके झन ह अवतार लेथे? देवी के संग देवता ह तो घला अवतार लेथे न? दूसर गाँव म वोकर देवता ह तो घला अवतार ले चुके रिहिस। ........ फागुन के महीना रहय। परसा मन सुंदर अकन ले चर-चर ले लाल फूले रहंय। महुवा मन अपने फूल के नशा म जानो-मानों मात गे रहंय। चार, आमा सब बउराय रहंय। तेंदू के पेड़ मन मीठ-मीठ फर ले लहसत रहंय। धनबहार के पींयर-पींयर फूल अइसे दिखत रहंय मानो कोनो ह हरदी ल पीस के, पानी म घोर के, जंगल देवी के अंचरा म छींच दे होय। ....... ...गाँव म सुंदर अकन मडई भराय रहय। इही मंडई म आय रहय वोकर देवता ह। भीम सही शरीर, दुरिहच ले सबले अलग, सबले न्यारा दिखत रहय। दूनों झन तो एक दूसर बर बनेच् रिहिन, मन मिले म कतका समय लगथे? सीता माई ह पुष्प वाटिका म जब भगवान ल देखिस त ऊँखर मन मिले बर टेम लगिस का?''

''तब का उँखर घर वाला मन दूनों झन के बिहाव कर दिन। का नाव रिहिस हे वोकर?''

''नाथ! अउ जानथस, सतवंतिन के का नाव रिहिस? शिव। भाई मन के जोर म नाथ ल लमसेना बने बर पड़ गे। लमसेना के का कदर? चरवाहा बरोबर ताय। घर भर के सरी काम ल करवांय। नाथ ह तो रिहिस देवता के अवतार, बड़े से बड़े काम के छिन भर म वारा-न्यारा। भाई मन अचरज म बूड़ जावंय। भउजी मन के मन म पाप पले के शुरू हो गे।''

''आगू का होइस चंपा? बता न।''

''शिव अउ नाथ दूनों झन एक दूसर ल गजब मया करंय। एक दूजा ल देखे बिना कोनों नइ रहि सकंय। दूनों झन के प्यार ह भउजी मन के आँखीं म काँटा गड़े कस गड़े लगिस। अषाड़-सावन के महीना रिहिस। झड़ी लगे सात दिन हो गे रहय। वो दिन तो मानों बादर ह फट के धरती म आ गे रिहिस। सुपा के धार कस पानी रटरट बरसे लगिस। बिहने ले संझा हो गे, संझा के फेर बिहने हो गे, काबर थिराय पानी ह? नदिया-नरवा बकबका गे, खेत-खार डोली-बहरा सब एकमेव हो गे। जेती देखतेस पंड़रच् पड़रा। सब डहर पानिच् पानी।''

''तब का प्रलय हो गे?''

''अभी कहाँ परलय होय हे बाबू? अभी तो छत्तीसगढ़ के इतिहास लिखाय बर बाँचे हे। प्रेम के अमर कथा ह पूरा होय बर बाचे हे। ........... भाई मन देखिन, बड़े-बड़े बहरा, जिंखर तरिया-पार कस मेंड़ हे, उँखर मुहीं-पार मन लिबलिब-लिबलिब करत रहंय। माई बहरा के मुंही ह अब फूटे तब फूटे होत रहय। सातों भाई मन मुहीं बाँधे बर दँउड़ गें। नाथ ल कब घर म छोड़ने वाला रिहिन?

सातों भाई मन चटवार म माटी के लोंदा चटका-चटका के देवत हें। बीच मुहीं म खड़े हो के नाथ ह सबके माटी-लोंदा ल झोंक-झोंक के रचत जावत हे मुंही म। माटी के लोंदा ल मड़ान नइ पावत हे, धार म बोहा जावत हे।''

''तब का मुंही ह नइ बँधाइस?''

''नइ बँधातिस विही म भलाई रिहिस हे बाबू। वोती भाई मन के मन म तो पाप पलत रहय, का जाने नाथ ह? भाई मन आँखीं-आँखीं म गोठया डरिन। बहुत दिन हो गे हे धरती माई ल पूजन देय। बिना बलि लेय मुही ह कइसे बँधाही? नाथ जइसे बलि ह आगू म खड़े हे, अउ कहाँ जातिन बलि खोजे बर? अब तो सातों भाई मन उत्ताधुर्रा माटी के लोंदा काँट-काँट के नाथ के मुड़ी म फेंके लगिन। डेड़सारा मन के नीयत ल समझ के काँप गे निाथ ह; फेर कनिहा भर लद्दी म सड़बड़ाय वो बिचारा ह भला का कर सकतिस? कलप-कलप के प्राण के भीख माँगत हे शिव ह, फेर राक्षस मन के हिरदे म दया रहितिस तब न?...............''

''.....आगू का होइस चंपा?''

''दमाद ल मुँहीं म पाट के आ गे राक्षस मन। येती सतवंतिन ह जोही के चिंता म बिन पानी के मछरी कस तड़फड़ात रहय। भाई मन संग जोही ल नइ देखिस ते वोकर मन ह धार मार के रो डरिस। सदा दिन आगू-आगू रेंगइया जोही ह आज को जनी कहाँ पिछवा गे होही? घेरीबेरी मुहाटी म निकल-निकल के देखत हे। ये भाई तीर जा के पूछत हे, वो भाई तीर जा के पूछत हे। करनी ल कर के तो आय रहंय, का बतातिन चण्डाल मन?........सांझ होय बर जावत हे, सूपा कस धार रझरझ-रझरझ रुकोवत हे बादर ह; चिरिरीरी ..चिरिरीरी..........बिजली चमकत हे; घड़घड़-घड़घड़ बादर गरजत हे। सब जीव-जंतु अपन-अपन ठीहा-ठिकाना म परान बचा के लुकाय हें। सतवंतिन ह निकल गे जोड़ी ल खोजे बर। कछोरा भिरे हे, कनिहा के आवत ले चुंदी ह बगरे हे। भाई मन छेंकत हें, भउजी मन छेंकत हे; बइहा पूरा ह ककरो छेंके छेकाथे का? न पाँव म पनहीं हे न मुड़ी म खुमरी हे, जकही-भुतही मन सरीख दंउड़त हे सतवन्तिन ह; खोचका-डबरा, भोंड़ू-भरका, नरवा-ढोंड़गा, डोली-बहरा, सब छलकत हे; कोनों म हिम्मत नइ हे, सतवन्तिन के रस्ता रोके के। चारों मुड़ा पानिच् पानी हे, पानी के मारे न जंगल ह दिखत हे, न पहाड़ ह दिखत हे, न रुखराई मन दिखत हे। धार मार-मार के चिल्लावत हे सतवन्तिन ह, 'नाथ.... तंय कहाँ हस?' सतवन्तिन ह जस-जस गोहार पारत हे, जोही ल पुकारत हे, जस-जस एती-वोती दंउड़त हे, तस-तस बिजली चमकत हे, चिरिरिरि.........., बादर गरजत हे, घड़घड़ घिड़ीड़ि .......रझरझ-रझरझ पानी गिरत हे। ........'नाथ तंय कहाँ हस?''

''नाथ के शरीर ह मुँही म बोजाय हे, निकले बर छटपटात हे, नरी ह दिखत हे, दुनों हाथ ह दिखत हे। शिव के गोहार ल सुन डरिस नाथ ह; वहू ह गोहार पारत हे, शिव......।''

''दूनों एक दूसर के गोहार ल सुन डरिन, दुनों एक दूसर ल देख डरिन, बंधिया-तरिया कस बड़े जबर बहरा हे जेकर मुँहीं म पटाय हे नाथ ह, मुड़ी अउ हाथ भर ह दिखत हे।''

''बगरे-छितरे चूंदी, भिरे कछोरा, का खोचका का डबरा, का भोंड़ू का भरका, सतवंतिन ह पल्ला दंउड़त हे अपन नाथ से मिले बर।''

''बजुर गिरे बरोबर बिजली कड़क ग,े चिर्र ........। अगास जइसे फट गे। अपन अनसंउहार वेग ल ले के गंगा मइया ह जइसे धरती म उतर गे। बहरा के मुँही ह गंगा के वेग ल भला संउहार सकतिस? फूट गे मुँही, बोहा गे नाथ ह अउ बन गे नदिया। गोहार पारत हे नाथ ह, शिव ............। एती ले शिव ह गोहरावत हे, नाथ.....मोला छोड़ के झन जा।''

''तब का दुनों झन नइ मिल सकिन?'' अधीर हो के पूछत हे बाबू ह।

''सच्चा अउ पवित्र प्यार करने वाला मन ल भला कोई रोक सके हें? सतवंतिन शिव ह गंगा माई ले कहत हे, हे गंगा माई जइसे मोर नाथ ल अपन आप म समो लेस, वइसने महूं ल अपन कोरा म समो ले।''

''फेर बजुर गिरे कस बिजली चमक गे। फेर प्रगट हो गे गंगा मइया ह। बोहा गे शिव घला ह नदिया बन के।''

''नाथ ह सोझ बोहावत हे। शिव ल तो अपन जोही से मिलना हे, घूम के अरकट्टा बोहावत हे वो ह। गोहार पारत हे, नाथ......।''

''येती ले नाथ घला अपन शिव से मिले बर तड़पत हे, पुकारत हे, शिव ...........।''

''एक कोस, दू कोस .... बीस कोस। आखिर कतिक दूरिहा ले नइ मिलतिन? दूनों मिल गें अउ बन गे शिवनाथ। ..................''

''शिव ह घूम गे तउन पाय के वो ह जहरित हो गे घुमरिया के नाव से।''

बाबू ह कहानी ल दम साध के सुनत रहय। एक आह भरिस अउ किहिस - ''कतका दुखद अंत हे चंपा ये कहानी के?''

''ये ह कोनों मन के उपजे कहानी नो हे बाबू , ये ह तो प्यार के सच्चा कहानी आय। शिवनाथ तो साक्षात, कलकल-कलकल करत तब ले अब तक प्रगट रूप म हम सब के जीवन ल पबरित करत आवत हे। येला कहानी कइसे मान लेबे? कर सकथें का कोनों आज अइसन प्यार?''

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इही कहानी ल सुरता कर-कर के बाबू ह रोवत हे। बाबू ह गुनत हे, नहीं..नहीं ... कलजुग के कोनो साधारण नारी नो हे चंपा ह। वो तो सतवन्तिन के अवतार ए। ये बन के देवी आय; ज्ञान अउ शक्ति के भंडार। हे भगवान! ये मोर से का अपराध हो गे? साक्षात देवी के अपमान कर परेंव। जल के भसम काबर नइ हो गेंव? क्षमा कर देवी, क्षमा कर।

का कहिथे चंपा ह, ''जउन मनखे ह सच्चा अउ पवित्र प्यार करथे वो ह देवता ले कम होथे का?'' ...........वो ह तो मानुष घला नो हे, राक्षस आय, राक्षस; वो का जाने प्यार के मरम ल?

चंपा के सवाल ह रहि-रहि के बाबू के मन म घन मारत हे- ''........ कर सकथें का कोनों आज अइसन प्यार?''

कइसे मुँहू देखाहूँ चंपा ल जब काली वो ह काम म आही?

काली काम म आही चंपा ह?

बाबू के जी धक ले हो गे जब दूसर दिन चंपा ह अपन समय म काम म हाजिर हो गे। कइसे नजर मिलाय चंपा से बाबू ह? अपन खोली म खुसर के कपाट ल बंद कर दिस।

चंपा ह अपन काम कर के चल दिस। आज के चंपा ह आन दिन वाले चंपा नो हे। कहाँ सबर दिन खुशी अउ हुलास म हुलसत, लहरावत-मेछरावत बदन वाले चंपा अउ कहाँ आज के ये दुख के दहरा म उबुक-चुबुक होवत उदास, अधमरही चंपा। बाबू ह बिन देखे जान डरिस चंपा के हालत ल।

आज तीन दिन हो गे हे, चंपा ह न ककरो संग हाँसे, न ककरो संग गोठियाय हे। दाई के मन ह कोनों अनहोनी के डर म रहि-रहि के कापँत हे। तिखार-तिखार के पूछत हे। दाई के मन म भुरभुस जना गे हे, बेटी के अँचरा ह अब मैला तो नइ हो गे हे; एक दिन जइसे वोकर अँचरा ह मैला हो गे रिहिस हे। बेटी ल तोषत हे - ''का होइस बेटी, होना रिहिस तउन तो हो गे, काबर मन ल उदास करथस? ..... एखरे बर तो भगवान ह नारी के तन ल गढ़े रहिथे, एक न एक दिन तो ये होनच् रहिथे। ..... रो मत, भगवान ह मालिक हे।''

दाई के बात के मरम ल समझत हे चंपा ह। रहि-रहि के दाई के बस इहिच् गोठ, कइसे समझाय दाई ल चंपा ह; वो जइसन सोंचत हे, बात वइसन नो हे। कहिथे - ''दाई ,तहूँ नारी, महूँ नारी,़ ये देख मोर अँचरा ल, कही दाग दिखथे का तोला? ये देख मोर शरीर ल, छाती ल, कनिहा ल, कहीं कोई दाग दिखथे? चंपा ल कोनों बात के दुख मनाय के घला अधिकार नइ हे का?''

''फेर का बात के अतका दुख मनात हस बेटी?''

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का दुख ल बताय चंपा ह?

का के दुख हे चंपा ल? का ये बात के कि जउन आदमी ल वो ह दूसर से अलग समझत रिहिस, वहू ह दूसरच् मन सरीख निकलिस? का ये बात के कि जेखर ऊपर वो विश्वास करिस विही ह वोकर विश्वास ल टोरिस? का ये बात के कि जउन ल वो ह देवता मान लेय रिहिस हे वो ह आखिर म राक्षस निकिलिस?

नहीं, नहीं कोन कहिथे वोकर बाबू ह दूसरेच् मन सरिख हे? वो तो लाखों म एक हे, कोई नइ हे दुनिया म वोकर बाबू समान।

तब का विश्वास ल टोरिस हे वोकर बाबू ह?

नहीं, नहीं बाबू ऊपर तो आजो वोला वोतकच् विश्वास हे। काली घला देवता समान रिहिस हे वो ह अउ आजो देवता समान हे वोकर बाबू ह। राक्षस होतिस बाबू ह, त का आज वो ह साबुत बाचे रहितिस?

वो दिन के, बाबू के बात के सुरता कर-कर के चंपा ल कभू रोना आथे त कभू हाँसी। का कहय? ''सच बता चंपा तंय का मोर से प्यार नइ करस?''........मोर मन से पूछ, कतका प्यार करथे तोला?''

धत्! बुद्धू कहीं के; प्यार ह का गोहार पार-पार के बताय के चीज आय? कि लुकाय-छिपाय के चीज आय?

तब का के दुख हे चंपा ल?

आज चार दिन हो गे हे बाबू ल वो ह देखे नइ हे। न घर ले बाहिर निकलत देखे हे, न काम म जावत देखे हे। न ककरो संग हासत देखे ह,े न ककरो संग गोठियावत देखे हे। न पढ़त देखे हे, न लिखत देखे हे। न खावत देखे हे, न पीयत देखे हे। बरतन के खाना ह बरतने म पड़े रहिथे, काला खावत होही? रात म का वोला नींद आवत होही? हे भगवान! कोन जाने, कोन हालत म होही मोर बाबू ह? बाबू ह अतका सजा भोगत हे त चंपा ह का मेछराही? हाँसही? गाही? नाचही?

बाबू ह अपन खोली म खुसरे हे। चंपा ह बाहिर ले कहत हे - ''बाबू ! खोल न कपाट ल। अइसन का बात हो गे, का गलती हो गे मोर ले कि तंय अपन आप ल अतका सजा देवत हस?''

बाबू भीतर ले सुनत हे, गुनत हे - 'तंय तो देवी अस चंपा, तोर से भला काई गलती हो सकथे का?'

''उठ बाबू, उठ! मंय अपराधिन, दसों अंगरी जोर के तोर से माफी मांगत हंव। छिमा कर दे।''

बाबू के मन ह कहत हे - 'नहीं, नहीं चंपा अपराध तो मंय करे हंव। अतका बड़ अपराध कि मोला तो तोर से क्षमा मांगे के घला कोई अधिकार नइ हे।' बाबू के हिम्मत नइ होवत हे चंपा के आगू म आय के।

तंय कहत रेहेस न वो दिन - ''मोर मन से पूछ, कतका प्यार करथे तोला?'' तोला तोर विही प्यार के कसम हे बाबू ! कपाट ल खोल दे।

'प्यार अउ बाबू के मन म? हूँ......। बाबू के मन म तो खाली वासना भरे हे चंपा, वासना। वो ह का जाने, प्यार का होथे।' बाबू के मन चित्कार मार-मार के कलपत हे। चंपा के बात ह सुरता आवत हे, ''दुनिया म जतका पवित्र चीज होथें, वोकरे मन के सार ले, वोकरे मन के सत् ले तो प्यार बनथे। आदमी के मन म तो दुनिया भर के मैल भराय रहिथे, आदमी ह का प्यार करही?''

वोकर मन म तो मैल भराय हे, कइसे खोले कपाट ल? का मुँहू ले के जाय वो ह चंपा के आगू म?

चंपा ह कहिथे - ''ठीक हे बाबू ! झन खोल कपाट ल; तोला अतेक दुख पहुँचा के अब भला मंय का जी के रहिहंव, जावत हंव, फेर सोच ले, काली तंय चंपा ल जीयत नइ देखबे।''

अब तो बाबू ह कांप गे। चंपा ह जउन कहिथे; कर के रहिथे। धरालका खोल दिस कपाट ल।

बाबू के हालत ल देख के चंपा ठाड़ो-ठाड़ सुखा गे। दाढ़ी ह बाढ़े हे, चूंदी ह बगरे हे। चेहरा म बूंद भर रकत नइ हे। छै महीना के बीमार कस दीखत हे बाबू ह।

बाबू ह मुँहू ल ढ़ँक के बइठे हे। हिम्मत नइ हे वोकर चंपा के सामना करे के।

चंपा ह कहिथे - ''का के अतका दुख मनावत हस बाबू? चंपा के ये शरीर ल भोग नइ सकेस तेकर? येला भोगे से तोला खुशी मिलही, तोर मन के संताप ह मिटही, ते आ, आज चंपा ह खुद तोला ये शरीर ल अर्पित करत हे।''

आज अपन ये कोन से रूप ल देखावत हे चंपा ह? कउनो भी रूप होय, नइ हे हिम्मत बाबू क पास चंपा के ये रूप ल देखे के। बाबू के आखीं चुधिंया गे हे, नइ देख सके चंपा के ये रूप ल वो ह।; आँखी नइ फूट जाही? दूनों हाथ ल जोड़ के कहिथे - ''बस कर चंपा, बस कर, मंय तो पहिलिच् अतका गिरे हुए हंव, अउ झन गिरा। जानथंव मंय, बहुत प्यार करथस तंय मोला; फेर मिही ह नइ हंव तोर प्यार के काबिल।''

मना डरिस चंपा ह अपन बाबू ल; चंपा के मन हुलस गे। पुराना चंपा फिर लहुट के आ गे। खिलखिला के हाँस दिस; कहिथे - ''ऐ बाबू! धोखा म झन रहिबे; काबर प्यार करही तोला चंपा ह? चंपा ह तो वोकरे ले प्यार करही, जेकर ले वोकर गांठ जुड़ही।''

चंपा ह सोचत हे, बाबू! मन लगाना दूसर बात हे, बिहाव करना, जिनगी भर साथ निभाना दूसर बात हे। प्यार के नाम ले के शरीर के वासना के भूख ल मिटाना अलग बात हे, प्यार म जीवन ल कुरबान कर देना अलग बात हे। भगवान ह जीवन देय हे, जीये बर। जीवन म दुख हे, तब सुख तो घला हे। सुख-दुख दूनो ल भोगे के नामे हर तो जिनगी आय? प्यार करे से का मिलथे? मोर माँ घला हर तो ककरो से प्यार करे रिहिस; का मिलिस वोला? जउन ह वोला प्यार के भरोसा दिस, विही ह वोला छोड़ के चल दिस, प्यार के नाम म अइसन धोखा? कोन बिश्वास करही अइसन प्यार ऊपर? आदमी ल जीये बर प्यार नहीं, विश्वास चाहिये, समाज चाहिये। जउन प्यार के संग विश्वास नइ हे, समाज नइ हे, वो ह प्यार के नाम म छलावा के सिवा अउ का हे?

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फागुन-चैत के महीना हे, जंगल ह महर-महर करत हे। आमा के पेड़ मन लटलट ले फरे हें। चार के पेड़ मन ह चिरचिर ले करिया-करिया पाके चार ले लहसे जावत हें। तेंदू के मीठ-मीठ फर के मीठ-मीठ खुशबू ले हवा ह सनसनावत हे। धनबहार ह सुंदर अकन पींयर-पींयर लुगरा पहिर के नवा दुलहिन सरीख मान करे बइठे हे। महुवा के पेड़ ले चाँदी कस फूल के रूप म रहि-रहि के मंद झरत हे। सागोन के पेड़ मन ह सूपा कस चाकर-चाकर पत्ता ले लदा गे हें। बाबू ह महीना भर बाहिर रहे के बाद आज आय हे; वोला का पता, काली चंपा के बिहाव होने वाला हे?

जब ले चंपा के लगन धराय हे, चंपा के आँखी मन तरस गे हे बाबू ल देखे बर। रोज जंगल ले मीठ-मीठ चार टोर के दोना भर-भर के लाथे चंपा ह अपन बाबू बर, संझा-बिहाने बाबू के रस्ता देखथे, कोनों घला बस-टरक आथे, चंपा के जी धक ले हो जाथे; बाबू ह कहूँ इही म आवत होही तब? रोज वोकर मन ह सूखे पात कस चूर-चूर हो के हवा म उड़ा जाथे। काली वो ह दूसर के हो जाही, तब कइसे मिल पाही वो ह अपन बाबू ले? दूसर के होय के पहिली छिन भर तो देख लेतिस वो ह अपन बाबू ल।

मड़वा छवइया मन मंड़वा छावत हें। संगी-सहेली मन बिधुन हो के दोहा पार-पार के लेंझा नाचत हें। हितु-पिरीतू मन सब सकलांय हे चंपा के बिहाव म। चंपा अपन खोली म बइठे हे उदास। जागत हे तब ले सपना देखत हे। सपना देखत हे बाबू के, सपना देखत हे खुद के, सपना देखत हे शिव अउ नाथ के, सपना देखत हे प्यार के ...........

कतका सुंदर-सुंदर हे बरतिया मन, कतका सुंदर-सुंदर पोशाक पहिरें हवंय, सरग लोक के देवता मन सरीख। सब अपन-अपन वाहन म सवार हें। आगू-आगू हे सोना के रथ, जउन म फंदाय हे लिलिहंसा घोड़ा, तितिली सही उड़ात हे रथ ह, जेमा बइठे हे दुल्हा राजा। का पूछना हे दुल्हा के सुन्दरता के, आदमी नो हे कोनों देवता हरे ये तो। आ गे दुवारी म बरतिया, आ के खड़े हे चंपा के दुवारी म दुल्हा बाबू ह, जउन ह चंपा ल रथ म बइठार के ले जाही अपन देश। ....... दुल्हा के स्वागत बर वर माला धर के निकलत हे चंपा ह, दुल्हा के मुँहू ल देखे बर जी ह व्याकुल हे। मंउर भीतर ले दुलहा के मुँह ह दिखत हे जगजग ले। चंपा के जी मारे खुशी के पंक्षी कस उड़ गे अगास म; काबर नइ उड़ही अगास म, बाबू ह आय हे दुल्हा बन के तब?

नहीं-नहीं, ये कइसे हो सकथे? बाबू अउ चंपा के दुल्हा? वो बाबू , जेकर एक दिन खुद वो ह तिरस्कार कर चुके हे; हिनमान कर चुके हे। का केहे रिहिस, ''..........का तंय चंपा के मांग म सिंदूर भर सकबे? मोर से बिहाव कर सकबे? ........तंय कर भी लेबे बाबू, मंय तो नइ कर सकंव न? तंय तो ककरो मांग म पहिलिच् सिंदूर भर चुके हस, एक ठन ल निभा नइ सकत हस, दूसर ल का निभा सकबे? ......।''

आज का मुँहू ले के कहिही चंपा ह बाबू ल, 'आ बाबू मोर मांग ल भर।''

तब कइसे जीही वो ह बाबू के बिना?

बाबू के आय के खबर सुनके चंपा के मन ह नाचे लगिस, बाबू ह आ गे हे?

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बाबू ह अपन खोली म अकेला बइठे हे। कागज-पत्तर म मन नइ लगत हे। रहि-रहि के चंपा के चेहरा ह वोकर आँखी म झूलत हे। आखिर चंपा ल वोकर देवता मिलि गे? का कहय चंपा ह, ''ये धरती म का एके झन ह अवतार लेथे? देवी के संग देवता ह तो घला अवतार लेथे न?.........।''

ये का देखत हे बाबू ह? चंपा ह साक्षात वोकर आगू म खड़े हे? हाथ म दोना हे, दोना म हे चार के मीठ-मीठ फर। आँखी म विश्वास नइ होवत हे। मुँह ले निकल गे - ''चंपा! तंय?''

''हाँ बाबू! मंय, तोर चंपा।''

हरदी के रंग म रंगे चंपा के बदन ह लकलक-लकलक करत हे। छिन भर ले जादा नइ देख सकिस बाबू ह चंपा के दमकत बदन ल।

चंपा ह आज मन भर के देखही अपन बाबू के चेहरा ल; अउ कहाँ देखे बर मिलही?

जबान से कोनो कुछ नइ बोल सकत हें, पर दोनों के मन, दोनों के आत्मा ह आज बहुत कुछ बोलत हे, बहुत कुछ सुनत हे, बहुत कुछ महसूस करत हें; वो सब जउन ल मुँह से बोल पाना संभव नइ हे, कान से सुन पाना संभव नइ हे, आँखी से देख पाना संभव नइ हे।

बाबू के मन ह कहत हे, चंपा मंय जानथंव, तंय मोला कतका प्यार करथस, मुँह से चाहे मत बोल।

चंपा के मन ह कहत हे, धत्! मुँह से बोलना जरूरी हे का?

आखिर चंपा ह कहिथे - ''बाबू! बहुत दुख पहुँचाय हंव मंय ह तोला, कहा-सुना माफ कर देबे।''

''नहीं-नहीं चंपा, अइसन झन बोल तंय। दुख तो मंय तोला देय हंव, मोर किता का नइ सुने होबे दुनिया वाले के मुख से तंय? बदनामी के सिवा भला मंय तोला अउ का देय हंव? ला, का लाय हस मोर बर दोना म, अपन बिहाव के मिठाई?''

''तंय कुछू नइ देबे बाबू?''

''का चाहिये चंपा बोल न?''

''वो दे दे बाबू, जउन जिंदगी भर मोर आत्मा म तोर सुरता बन के बइठे रहय, जेखर महक ल मंय जिदगी भर महसूस करत रहंव, जेखर सहारा मंय अपन जिंदगी बिता सकंव। ........ मोला अपन स्पर्ष दे दे बाबू! मोला एक घांव तंय अपन अंग लगा ले।'' लिपट गे चंपा ह अपन बाबू के शरीर ले, जइसे कोनो बेल के नार ह पेड़ के डारा म लिपट जाथे।

''ये का करत हस चंपा तंय?''

''.................।''

''एक पापी के अंग लग के अपन शरीर ल काबर तंय अपवित्र करत हस चंपा?''

''कल तो ये शरीर ह अपवित्र होबेच् करही बाबू।''

''धत्! कल तो तंय अपन देवता के परस पाबे,परस पा के देबी बन जाबे। कल अपन देवता ल, अपन नाथ ल का इही अपवित्र शरीर ल अर्पित करबे? कोन विश्वास ल ले के कल तंय अपन देवता ल अपन पवित्रता के प्रमाण देबे?''

''.................।''

''अगर तोर प्यार पवित्र हे, त वोला अइसन ढंग ले तंय अपवित्र झन कर चंपा।''

''.................।''

''मंय जानथंव, तंय तो मोला पहिलिच् अपन आत्मा ल सौंप चुके हस चंपा, ये शरीर म का रखे हे? तंही ह तो कहिथस न - '..........शरीर तो मल-मूत्र के खान होथे, घुरुवा सरीख। घुरुवा से भला कोनों मन लगाथे का? ये शरीर ले तोर मन ल का मिलही मल-मूत्र के सिवा?........।' आज का तंय अपन बाबू ल ये घुरूवा ल सौंपे बर आय हस?''

''....................।''

''एक बार, केवल एक बार तंय अपन जबान ले कहि दे चंपा कि बाबू! मंय तोर से प्यार करथों; बस।''

बाबू के बात ल सुन के खिलखिला के हाँस दिस चंपा ह। बाबू से जउन वोला पाना रिहिस, पा लिस चंपा ह। मुक्त कर दिस बाबू ल। कहिथे - ''धत्...।''

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6 : फूलो

फगनू घर बिहाव माड़े हे। काली बेटी के बरात आने वाला हे।

जनम के बनिहार तो आय फगनू ह, बाप के तो मुँहू ल नइ देखे हे। राँड़ी-रउड़ी महतारी ह कइसनों कर के पाले-पोंसे हे। खेले-कूदे के, पढ़े-लिखे के उमर ले वो ह मालिक घर के चरवाही करत आवत हे।

फूटे आँखी नइ सुहाय मालिक ह फगनू ल, जनम के अँखफुट्टा ताय हरामी ह; गाँव म काकर बहू-बेटी के इज्जत ल बचाय होही?

फगनू ह सोचथे - वाह रे किस्मत! जउन आदमी ह हमर बहिनी-बेटी के, दाई-माई के इज्जत लूटथे; बड़े फजर ले हमला वोकरे पाँव परे बर पड़थे? अरे पथरा के भगवान! गरीब ल तंय काबर अतका लाचार बनाय होबे? फेर सोंचथे, भगवान ल दोष देना बेकार हे; न भगवान के दोष हे न किस्मत के; सब हमरे कमजोरी आय। सब ल जानथन, अउ जानबूझ के सहिथन। काबर सहिथन? इज्जत बेंच के जीना घला कोई जीना ए?

फगनू ह मनेमन सोंच डरे हे, अब तो वो ह ये गाँव म, जिहाँ इज्जत के संग कोनों जी नइ सकय, नइ रहय। ये गाँव म रहत ले कभू बिहाव नइ करय। फेर सोंचना सरल हे, करना कठिन हे; जहाज के पँछी ह आखिर जाही कहाँ? दाई ह घला तो आँखी मूँद दिस।

मालिक मन के खेले फांदा ह अइसने-तइसने नइ रहय, गरीब ह कतरो चलाकी करही, आखिर फंदिच् जाथे। केहे गे हे, पुरुष बली नहि होत है, समय होत बलवान।

गाँव के आबादी पारा म मालिक ह फगनू बर दू खोली के घर बना दिस। बसुन्दरा ल घर मिल गे, अउ का होना?

मालिक ह जात-सगा के एक झन टुरी संग फगनू के बिहाव घला करवा दिस। मालिक ल एक झन अउ कमइया मिल गे अउ फगनू ल घरवाली।

एक दिन फगनू ह बाप घला बन गिस। छुहिन-बरेठिन मन फगनू ल कहिथें - ''अहा! कतिक सुंदर अकन नोनी आय हे बेटा, फकफक ले पंड़री हे; न दाई ल फबत हे, न ददा ल फबत हे, फूल सरीख हे, आ देख ले।''

दाई बिलइ, ददा बिलवा, लइका ह फकफक ले पंड़री; अउ काला देखही फगनू ह? वो तो सब ल पहिलिच देख डरे हे; उठ के रेंग दिस।

लइका ह फूल सरीख हे, नाव धरा गे फूलो।

इही फूलो के काली बरतिया आने वाला हे।

दू खोली के घर, सड़क म मंड़वा गड़े हे। जात-गोतियार अउ पार वाले भाई मन कहाँ-कहाँ ले बाँस के जुगाड़ कर डरिन हे; आमा अउ चिरइजाम के डारा काँट के लाइन हें अउ सुंदर अकन मंड़वा छा दिन हे। मंड़वा तरी बने ठंडा-ठंडा लागत हे। इही ल कहिथे, हरियर मंड़वा।

मड़वा के बाजू म चूल हे, भात के अंधना ह सनसनावत हे, बड़े जबर कड़ाही म आलू-भाटा के साग ह खदबद-खदबद डबकत हे। साग के खुशबू म घर भर ह महर-महर करत हे।

आजेच् तेलमाटी, चुलमाटी अउ तेल चढ़े के नेंग होना हे, काली बरतिया आही। फूलो बेटी ह काली सगा बन जाही।

कोनों महतारी-बाप ह बाढ़े बेटी ल कब तक भला कोरा म बिठा के राखही? दू साल पहिलिच् ले सगा आवत हें, सरकारी नियम-कानून के अटघा नइ होतिस ते आज ले फगनू ह आजा बबा बन गे रहितिस। अउ फेर बेटी के बिहाव करना कोनों सरल काम तो नो हे? हाल कमाना, हाल खाना। लाख उदिम करिस, बेटी के बिहाव बर दू पइसा सकला जाय, फेर मंहगाई के जमाना, गरीब ह काला खाय, काला बंचाय? आज वोकर अंटी म कोरी अकन रूपिया घला नइ हे।

बहिनी-भाँटो मन के गजब सहारा हे फगनू ल। इही मन तो ढेड़हिन-ढेड़हा बने हें। दू एकड़ पुरखउती खेत हे उँखर; साल भर के खाय के पूर्ती अनाज हो जाथे। भतीजी के बिहाव बर फूफू ह गजब अकन जोरा करे हे; भाई के हालत ल तो जानतेच् हे। झोला भर सुकसा भाजी, काठा अकन लाखड़ी दार, पैली भर उरिद दार, अउ पाँच काठा चाँउर धर के आय हे। जउन सगा से जइसे बनिस, मदद करिन हें। वइसने पारा-मोहल्ला वाले मन घला मदद करिन हें; गाँव म एक झन के बेटी ह सबके बेटी होथे। गरीब के मदद गरीब ह नइ करही त अउ कोन ह करही? फगनू ल बड़ हल्का लागत हे।

पारा के बजनहा पार्टी वाले टूरा मन के अभी सीखती हे, दमउ-दफड़ा तो अब तइहा के गोठ हो गे हे, नवा-नवा बैंड बाजा चमकाय हें; अपनेच् हो के किहिन - ''जादा नइ लेन कका, पाँच सौ एक दे देबे; फूलों के बिहाव म बजा देबों।''

फगनू ह हाथ जोर के किहिस - ''काबर ठट्ठा मड़ाथो बेटा हो, इहाँ नून लेय बर पइसा नइ हे; तुँहर बर कहाँ ले लाहू?''

बजनिया मन कहिथें - ''हमर रहत ले तंय फिकर झन कर कका, गाँव घर के बात ए, बस एक ठन नरिहर बाजा के मान करे बर अउ एक ठन चोंगी हमर मन के मान करे बर दे देबे; सब निपट जाही।''

इही किसम ले सब के मदद पा के फगनू ह ये जग ल रचे हे।

भगवान के घला मरजी रिहिस होही; तभे तो मन माफिक सगा मिल गे। होवइया दमाद ह तो सोला आना हाबेच् ; समधी ह घला बने समझदार लगिस; बात ह एके घाँव म चटपिट सध गे।

पंदरही पीछू के बात आय। सांझ के समय रिहिस। फगनू मन माई-पिला ठंउके वोतकेच् बेर कमा के आय रहँय; समारू कका ह धमक गे, मुहाटिच् ले हुँत पारिस - ''अरे! फगनू , हाबस का जी?''

समारू कका के हाँका ल सुन के फगनू ह अकचका गे। हड़बड़ी म किहिस - ''आ कका, बइठ। कते डहर ले आवत हस, कुछू बुता हे का?'' खटिया डहर अंगठी देखा के कहिथे - ''आ बइठ।''

समारू ह कहिथे - ''बइठना तो हे फेर ये बता, तंय एसो बेटी ल हारबे का? सज्ञान तो हाइच् गे हे, अब तो अठारा साल घला पूर गे होही। भोलापुर के सगा आय हें; कहितेस ते लातेंव।''

''ठंउका केहेस कका, पराया धन बेटी; एक न एक दिन तो हारनच् हे। तंय तो सियान आवस, सबके कारज ल सिधोथस, कइसनों कर के मोरो थिरबहा लगा देतेस बाप, तोर पाँव परत हँव।''

''होइहैं वही जो राम रचि राखा, सब काम ह बनथे बइहा। तंय चाय-पानी के तियारी कर, फूलो ल घला साव-चेती कर दे; मंय सगा ल लावत हँव।''

समारू कका ह सगा मन ल धर के बात कहत आ घला गे। फगनू ह सगा मन के बने मान-सनमान करिस, बइठारिस, चोंगी-माखुर बर पूछिस, समारू कका के अटघा धर के किहिस - ''सगा मन ह कोन गाँव के कका?''

जवाब देय बर सगच् ह अघुवा गे, किहिस - ''हमन भोलापुर रहिथन सगा, मोर नाँव किरीत हे।'' अपन बेटा कोती इशारा करके कहिथे - ''ये बाबू ह मोर बेटा ए, राधे नाँव हे; सुने रेहेन, तुँहर घर बेटी हे, तब इही बेटा के बदला बेटी माँगे बर आय हंव।''

फगनू ह अपढ़ हे ते का होइस, बात के एक-एक ठन आखर ल तउले म माहिर हे। सगा के बात ल सुन के समझ गे, सगा ह नेक हे। टूरी खोजइया मन के तो भाव बाढ़े रहिथे; कहिथे - 'बछरू खोजइया तावन जी सगा', तब कोनों मन कहिथे, 'गरवा खोजे बर तो निकले हन जी सगा, तुँहर इहाँ पता मिलिस हे ते आय हाबन।' सुन के फगनू के एड़ी के रिस ह तरुवा म चढ़ जाथे, वाह रे इन्सान हो, बेटी ल जानवर बना डारेव? जब तुँहर मन म अइसन भाव हे तब पराया के बेटी के का मान अउ दुलार कर सकहू?

ये सगा ह बड़ नीक हे, किहिस हे, बेटा के बदला म बेटी खोजे बर आय हंव, कतेक सुदर अकन भाव हे सगा के? लड़का ह घला लायक दिखत हे, सगा ह ठुकराय के लाइक नइ हे।

फगनू ह तुरते मनेमन बेटी ल हार डरिस।

रहिगे बात लड़की-लड़का के मन मरजी के, घर गोसानिन के, उँखरो राय जरूरी हे।

सब के मन आ गे अउ रिस्ता घला पक्का हो गे।

सगा ह कहिथे - ''जनम भर बर सजन जुड़े बर जावत हन जी सगा, हमर परिस्थिति के बारे म तो पूछबे नइ करेस, फेर बताना फरज बनथे। हम तो बनिहार आवन भइ, बेटी ह आज बिहा के जाही अउ काली वोला बनी म जाय बर पड़ही, मन होही ते काली घर देखे बर आ जाहू।''

फगनू घला बात करे म कम नइ हे; बात के बदला बात, भात के बदला भात; किहिस - ''बनिहार के घर म काला देखे बर जाबो जी सगा, हमूँ बनिहार, तहूँ मन बनिहार; चुमा लेय बर कोन दिन आहू , तउन ल बताव।''

इही तरह ले बात बन गे अउ काली बरतिया आने वाला हे।

फगनू ह तरुवा धर के सोंचत हे; बने तो कहिथे फूलो के दाई ह - 'बेटी ल बिदा करबे त एक ठन लुगरा-पोलखा घला नइ देबे, एक ठन संदूक ल नइ लेबे, नाक-कान म कुछू नइ पहिराबे, सोना-चाँदी ल बनिहार आदमी का ले सकबो, बजरहू तो घला ले दे, लइका ह काली ले रटन धरे हे।'

का करे फगनू ह, सबो असामी मन तीर तो हाथ पसार के देख डरे हे, गरीब ल कोन पतियाही?

सेठ मन ह रहन रखे बर कहिथे, का हे वोकर पास रहन धरे बर?

मालिक के बात ल का बताय, सुन के खून खौल गिस। गोंदी-गोंदी काँट के कुकुर-कँउवा मन ल खवा देय के लाइक हे साले नीच ह। कहिथे - 'जा, अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना हे वोला भेज देबे; मिल जाही पइसा।'

सब बात ल फूलो के दाई ल बता के फगनू ह बइठे हे तरुवा धर के।

एती ढेड़हिन-सुवासिन मन हड़बड़ावत हे - 'अइ! बड़ बिचित्र हे दाई, फूलो के दाई ह, नेंग-जोग ल त होवन देतिस; बजार ह भागे जावत रिहिस? नोनी ल धर के बजार चल दिस।'

आज फूलो के बारात आने वाला हे; फगनू ह बड़ खुश हे। मंद-मँउहा के कभू बास नइ लेने वाला फगनू ह आज बिहने ले लटलट ले पीये हे; बिधुन हो के नाचत हे।

फूलो के चेहरा ह फगनू के नजरे-नजर म झूलत हे। कइसे चँदा कस सुंदर दिखत हे फूलो ह; नाक म नथनी झूलत हे, कान के झुमका अउ गोड़ के पैरपट्टी म सरग के परी कस लागत हे।

बड़ जबर संदूक ह घला वोकर नजर ले जावत नइ हे; लुगरा-पोलखा, क्रीम-पावडर, साबुन-तेल अउ नाना प्रकार के समान म भरे पड़े हे।

सब ल बड़ा अचरज होवत हे; फगनू ह मंद पी-पी के नाचत हे?

बेटी ल बिदा करे म कतका दुख होथे तेला बापेच् ह जानथे; का होइस आज थोकुन पी ले हे बिचारा ह ते?

जतका मुँहू वोतका गोठ।

फगनू ह नाचत-नाचत बेसुध हो के गिर गे। कोन का कहत हे; कइसे करत हे, का होवत हे, फगनू ल कुछू खबर नइ हे; वोकर कान म तो मालिक के विही गोठ ह टघले काँच कस ढरावत हे, - 'जा, अउ जेकर बर लुगरा-कपड़ा लेना हे वोला भेज देबे; मिल जाही पइसा।'

फूलो के चंदा कस चेहरा, चेहरा ऊपर झूलत नाक के नथनी, कान के झुमका अउ गोड़ के पैरपट्टी ल देखे के वोकर हिम्मत नइ हे।

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कहा नहीं (कुछ अनुत्तरित प्रश्न)

प्रगतिशील लेखक संघ, राजनांदगाँव इकाई के अध्यक्ष साहित्यकार श्री प्रभात तिवारी ने कहा नहीं कहानी संग्रह को लेकर कुछ प्रश्न उपस्थित किए हैं। मैंने इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया है, जो इस प्रकार है।

आज के सतवंतिन : मोंगरा

प्रश्न 1 :- 'आज के सतवंतिन : मोगरा' में आपने पक्षी को प्रॉब के रूप में क्यों चुना? उसकी जगह आप किसी स्त्री या पुरूष को ले सकते थे।

उत्तर :- 'आज के सतवंतिन : मोगरा' कहानी नारी विमर्श की कहानी है। समाज में दहेज प्रताड़ना और नवविवाहिता की हत्या अथवा उसे आत्महत्या के लिये मजबूर करने वाली घटनाओं, परिस्थितियों की आए दिन खबरे पढ़ने को मिलती हैं। दहेज समस्या को लेकर निरंतर कहानियाँ लिखी जा रही है, इस लिहाज से इस कहानी के मूल कथानक में कोई नवीनता नहीं है। मेरा मानना है कि जब तक इस समस्या के प्रति समाज में प्रतिरोधी भावनाएँ विकसित न हो जाय, इस संवेदनहीन और क्रूर सामाजिक व्यवहार का प्रतिकार होते रहना चाहिये और इस प्रकार की कहानियाँ लिखी जाती रहनी चाहिये। दहेज की समसया मूल रूप से शिष्ट समाज की समस्या है। लोक समाज में भी बहुओं के प्रति क्रूरता के व्यवहार होते हैं, होते रहे हैं, परंतु इसका दहेज समस्या से कोई सरोकार नहीं होता। इस प्रकार नारी उत्पीड़न की समस्या का स्वरूप शिष्ट समाज और लोक समाज, दोनों में भिन्न है। 'आज के सतवंतिन : मोगरा' कहानी में सतवंतिन की लोककथा नारी उत्पीड़न का लोक स्वरूप है जबकि मोंगरा की कथा शिष्ट समाज की विशुद्ध दहेज समसया है। परिवार की स्त्रियाँ स्पष्ट रूप से बहुओं के पक्ष में खड़ी हो जायें तों मैं नहीं समझता कि यह समस्या नहीं सुलझ पायेगी, परंतु सच यह है कि दहेज हिंसा में परिवार की स्त्रियाँ ही प्रमुख भूमिकाएँ निभाती हैं, चाहे सास के रूप में हो या ननद अथवा अन्य रूप में। इन परिस्थितियों में परिवार के अंदर बहुओं के साथ जब हिंसा की घटनाएँ घटती हैं तो उसके पक्ष में कौन खड़ा होता है? मां-बाप भी तो किनारा कर जाते हैं।

'आज के सतवंतिन : मोगरा' कहानी में एक पक्षी को बहु के पक्ष में खड़ा करके बहु के प्रति समाज में स्त्री और पुरूष, दोनों वर्गों की संवेदनहीनता को चुनौती देने का, उनकी सुप्त संवेदनाओं को जगाने का प्रयास किया गया है। वस्तुतः इस कहानी में कथाकार की चेतना ही प्रतीकात्मक रूप में बाम्हन चिरई के रूप में उपस्थित हुआ है।

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प्रश्न 2 :- पक्षी में बाम्हन चिरई को क्यों चुना? ऐसी कौन सी विशेषता है बाम्हन चिरई में जो इस कहानी को सशक्त बनाती है?

उत्तर :- भाषा विज्ञान में भाषा की परिभाषा के अनुसार शब्द को यादृक्क्षिक माना गया है। पानी को पानी क्यों कहते हैं, इसका कोई तर्क नहीं है। बाम्हन चिरई को यह नाम क्यों और कैसे मिला इस पर भी किसी प्रकार का तर्क प्रस्तुत करना उचित नहीं होगा। घरों में पाई जाने वाली यह सर्वसुलभ, स्वतंत्र, अहिंसक (विशेष परिस्थितियों में हिंसक भी) सीधी, सरल और सामान्य पक्षी है जो अनायास ही सबका ध्यान आकृष्ट करती है। इसकी बोली बड़ी प्यारी लगती है। इसका फुदकना भी बड़ा प्यारा लगता है। प्रजननकाल में ये जोड़े बनाते हैं। अंडे और बच्चे पैदा करने के लिए इनके जोड़े मिलकर घोसले बनाते हैं। तोता और मैना या इसी तरह की कुछ और पक्षियों की तरह इसे पिजरों में पाला नहीं जाता। मेरी दृष्टि में यह पक्षी मानवीय रागात्मकता का प्रतीक है। इनका जोड़ा बनाना, और नर-मादा मिलकर अपने बच्चों की परवरिश करना, मानव समाज क लिए प्रेरक है। ऐसे में 'आज के सतवंतिन : मोगरा' कहानी में इसे ही असहाय और अकेली स्त्री के पक्ष खड़ा किया जा सकता था, कौए को नहीं।

इसकी उपस्थिति से कहानी कितनी सशक्त बन पड़ी है, बनी भी है अथवा नहीं, इस पर मैं कुछ भी टिप्पणी नहीं करना चाहूँगा।

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प्रश्न 3 :- पक्षी का खोंधरा न उजड़ जाय, इसकी चिंता कहानीकार को सताता है। खोंधरा फूफी दाई के चेतावनी से 'चिरई-चिरगुन के खोंधरा उजारे से पाप लगथे।' क्या आप सोचते हैं कि पाप-पुण्य की धारणा आम-गरीब लोगों के झोपड़े उजाड़े जाने से रोक सकती है। शायद नहीं, शायद हाँ भी - 'तोर जय हो माता, मोर घर दुवार, मोर पील-पांदुर के तंय आज रक्षा करेस। पर इसके विपरीत बच्चन सिंह गंउटिया के ऊपर पाप का डर नहीं दिखता। ये लोग चाहे पक्षी हो या आदमी अपने फायदे के लिए घर उजाड़ने में देर नहीं करेंगे। इस तरह कथाकार ने कहानी में दो तरह के पात्रों का बखूबी चयन किया है।

इस चरित्र का आगे भी विवरण है - बाम्हन चिरई के मुँहू ह घला पनछियात रहय। सोहारी के परात ह थोकुन उघरा रहय, विही डहन उड़िस।

'अबे मुरहा, वो चिरई ल धर के मुसेट तो रे।

फिर फुफू दाई के कहना - 'अइ एक ठन सोंहारी ल जुठार देही ते गरीब नइ हो जास रे बाबू, तेकर बर पच्चर मारत हस।'

यहाँ पर लेखक ने पाप-पुण्य का सहारा नहीं लिया है बल्कि गरीबी-अमीरी की बात की।

(लेखक का स्पष्टीकरण - कानून और दण्ड का भय समाज में अपराध कर्म को रोकता है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। अच्छाई और बुराई का संबंध नैतिकता से है। समाज और धर्म की मान्यता है कि बुरा कर्म पाप कर्म है। व्यक्ति को बुरे कर्म में प्रवृत्ति होने से रोकने के लिए पाप और नरक का भय दिखाया गया है। मैं मानता हूँ कि आज भी लोग इस भय की वजह से बुरे कर्म से बचना चाहते है। फिर भी अनजाने में, जानबूझ कर या परिस्थितिजन्य कारणों से, समाज में अपराध और बुरे कर्म होते हैं। समाज में अपराध और बुरे कर्म को न्यूनतम किया जा सकता है, समाप्त नहीं। इस कार्य में नैतिक तत्वों की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता।)

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प्रश्न 4 :- आपने कल की सतवंतिन की कथा इसमें लिखी पर कहानी का नाम 'आज के सतवंतिन : मोंगरा' क्यों रखा?

उत्तर :- सतवंतिन और मोंगरा, दोनों ही नवविवाहिता हैं, बहुएँ हैं। 'आज के सतवंतिन : मोंगरा' कहानी में दोनों की ही कहानियों को समान रूप से जगह दी गई है। नाम चाहे जो हों, पर अंततः वे बहुएँ ही है। सतवंतिन लोक की बहु है। उसे दी गई यंत्रणाएँ दहेज के लिये नहीं है। उसे मानवीय सहायता नहीं मिलती परन्तु विभिन्न मानवेत्तर प्राणी उनकी सहायता करते है। सभी बेटियाँ सतवंतिन ही होती हैं। मोंगरा आज की सतवंतिन है। उसकी भी सहायता करने वाला कोई नहीं है। जन्म देने वाले माता-पिता भी शादी के बाद बेटियों की ओर से आँखें फेर लेते हैं। आज के सतवंतिनों की `िस्थिति अधिक कारूणिक है।

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प्रश्न 5 :- कथा की सतवंतिन की कई तरह से परीक्षा ली गई पर आज की सतवंतिन की परीक्षा नहीं ली गई। क्या कारण है?

उत्तर :- यंत्रणाएँ और यातनाएँ आखिर यातनाएँ हैं, उसका स्वरूप चाहे जैसा हो।

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प्रश्न 6 :- बिसु के अत्याचार के कारण मोंगरा को मरना पड़ा, पर बिसु के बारे में ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया, ऐसा क्यों?

कहानी का अंत बाम्हन चिरई ने अपने चोंच से गउटनिन के मुँह को लहू-लुहान कर दिया और क्यों नहीं वह बिसू बाबू की आँख फोड़कर मोंगरा की मौत का बदला लेती?

उत्तर :- दहेज हत्या के लिए परिवार के किसी एक सदस्य को दोषी नही ठहराया जा सकता। प्रत्यक्ष हो या परोक्ष रूप से हो, इस अपराध में सब शामिल होते है। सास परिवार का अहम सदस्य होती है। कम से कम स्त्री होने के नाते उसे बहु के पक्ष में होना चाहिये। वह परिवार को, परिवार के सदस्यों को और अपने पुत्र को भी ऐसा अमानवीय अपराध कर्म करने से रोक सकती है। इस कहानी में माँ के द्वारा बिसु को मोंगरा (बहु) को प्रताड़ित करने के लिये उकसाया जाता है। इस नाते वही सबसे बड़ा दोषी है।

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बाम्हन चिरई

प्रश्न 7 :- ''कोनों जीव ले बढ़ के हो गे हे का तुँहर पोथी-पुरान ह। तुँहरे पोथी-पुरान ले होथे का दुनिया के रचना ह?'' इससे आपका क्या मतलब है?

उत्तर :- सृष्टि की रचना प्रकृति ने की है। माँ प्रकृति का साकार रूप है। यदि प्रकृति ईश्वर है तो माँ ईश्वर का अवतार है। मैं ऐसा ही मानता हूँ। जीवन प्रकृति का दिया हुआ है। जीवन की निरंतरता जीवों के द्वारा ही संभव है। दुनिया की सारी किताबें मनुष्यों ने लिखी है। किताबे फिर से लिखी जा सकती है। मनुष्य किताबें तो लिख सकता है, परंतु जीवन का निर्माण न तो मनुष्य कर सकता है और न किताबें। मनुष्य तथा जीवन ही, हर सिथति में तथाकथित हर धर्म और हर धर्म ग्रंथ से बड़ा है।

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प्रश्न 8 :- 'पुरुष के ज्ञान म अहं के रूखापन रहिथे जबकि नारी के ज्ञान म करुणा के कोमलता।' इसको स्पष्ट कीजिये।

उत्तर :- अज्ञानी की तुलना में ज्ञानी में अधिक अहं होता है। ज्ञान का अपना अहं तो होता ही है। प्रकृति ने स्वभावतः नारी को पुरूषों से अधिक कोमल, ममतामयी और करूणामयी बनाया है। नारी के ज्ञान पर इन कोमल भावनाओं का आधिपत्य होता है।

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बसंती

परतिंगहा मन किहिन - ''काबर अइसने ठट्ठा करथो जी? ओली म पइसा धरे-धरे किंजरत हें, तिंखर लोग-लइका मन कुछू नइ बनिन; गनेसी के टुरी ह मास्टरिन बनगे? वाह भइ ! सुन लव इंखर मन के गोठ ल।''

परंतु इसके विपरीत आपने अपनी कहानी में बसंती को मास्टरिन बना दिया?

(लेखक का स्पष्टीकरण - परतिंगहा का अर्थ होता है अविश्वासी। आम धारण है कि बिना रिश्वत सरकारी नौकरी नहीं मिलती। गरीब के पास रिश्वत देने के लिए कुछ भी नहीं होता। परंतु सत्य तो यह है कि आज भी बहुत से गरीब और योग्य उम्मीदवारों को बिना रिश्वत सरकारी नौकरियाँ मिलती है। बसंती अपनी योग्यता, मेंहनत, लगन और आत्मविश्वास के कारण मास्टरिन बन जाती है, परंतु अविश्वासी लोगों को इस पर विश्वास नहीं हो रहा था।)

बसंती का कहना - 'एक दिन मंय जरूर मास्टरिन बन के देखाहूं ठकुराइन काकी। आज तोर दिन हे, काली हमरो दिन आबे करही।'

जब तक अंतश्चेतना को झकझोरा नहीं जाता तब तक वह संघर्ष के लिये तत्पर नहीं होता। कहानी में इस तरह की बात उभर कर आई है।

बसंती - ''अइसन कहिके तंय मोला पाप के मोटरा झन बोहा ठकुराइन काकी। वो दिन के बात ल कहिथस, वोला कइसे भुला जाहूं? विही ह तो मोर गुरू-मंत्र आय। वो दिन वइसन बात नइ होतिस ते कोन जाने, आज मंय मास्टरिन बन सकतेंव कि नहीं।''

आज समाज में देखना यह है कि कितने लोग इस कहानी से प्रेरणा लेंगे? हम अपने पुरुषार्थ से सब कुछ हासिल कर सकते है।

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दू रूपिया के चँाउर अउ घीसू-माधव : जगन

प्रश्न 9 :- जगन ह फेर किहिस - ''आप मन ल कतिक सरकारी सबसिडी मिलथे तेकर हिसाब कभू लगाय हव? नइ लगाय होहू त अब लगाव - गैस सिलेंडर के सबसिडी, पेट्रोल के सबसिडी, डेड़ लाख रूपिया म दस परसेंट इनकम टेक्स म छूट, कतिक होइस बताव?''

दू रूपिया के चाँउर म सब मजदूर अलाल हो गें, निकम्मा हो गें, चाँउर ल बेच-बेच के दारू पी के ढँलगें रहिथे?

क्या इसमें कोई सच्चाई है? क्या आप महसूस करते हैं कि छोटे किसानों को काम के लिये मजदूर नहीं मिलते। जबकि मनरेगा एवं बड़ी फैक्ट्री में मजदूरों की कमी नहीं है। क्या उसके हल के लिये आपकी कहानी जमी तलाश करती है तो कहाँ तक सफल हो पा रही है?

(उत्तर :- छोटे किसानों को काम के लिये मजदूर नहीं मिलते, यह सच है, परंतु इसका कारण दो रूपया का चाँवल नहीं है। हम आज भी परंपरागत तरीके से खेती करते है। परंपरागत कृषक लाभ-हानि की भावना से खेती नहीं करता। खेती उनके लिए पूजा है। खेत, खेती के उपकरण, और अन्न, सभी उसके लिए देवतुल्य हैं। आज इस नजरिये में काफी बदलाव आ गया है। खेती लाभ का व्यवसाय नहीं है। शायद इसी वजह से आज का युवा वर्ग खेती से दूर रहना चाहता है। आज कोई भी किसान मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित दर के अनुसार मजदूरी नहीं देता। इतनी क्षमता किसानों में है भी नहीं। कम मजदूरी पर मजदूर क्यों काम करेगा? कम मजदूरी का बहिस्कार करके अपने शोषण के विरुद्ध विरोध दर्ज कराने का उनका अधिकार तो बनता है।

साहित्य अथवा साहित्यकार किसी समस्या का हल नहीं देता। वह समस्याओं की पड़ताल करता है, इशारा करता है। समस्याओं की हल के लिये पृष्ठभूमि तैयार करता है, समाज और उनकी व्यवस्थाओं को प्ररित करता है, सचेत करता है। किसी समस्या का हल निकालना तो समाज और उनकी व्यवस्थाओं का काम है। ऐसा नहीं होने पर कालान्तर में त्रस्त जनता क्रांति करती है।)

रतन जी ल जगन ह बनेच् जानथे। छोटे कद के आदमी, घूँस मुसवा कस घुस-घुस ले मोटाय हे। घूस खाय म उस्ताद हे, मोटाबेच् करही। मतलब रही तब बड़ा मीठ-मीठ गोठियाही; नइ हे ते रौब झाड़ही।

मुझे लगता है यह मिडिल क्लास कैरेक्टर है, जो आगे जा सकता है न पीछे।

यह जगन की समस्या हल नहीं कर सकता, बस दोराहे पर लाकर खड़ा कर देता है।

कहानी का सारांश इन शब्दों में कथाकार प्रगट करता है - 'जगन ह मन म सोंचथे, जनता के जउन काम ल करे बर सरकार ह येला नौकरी देय हे, तनखा देवत हे, तउनो ल बिना घूँस लेय नइ करे अउ अब इंसानियत के बात करत हे। गरीब, मजदूर मन ल तुम कब इंसान समझथो?

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कहा नहीं

गाँव में काम करने वाली लड़की की मानसिकता पराए मर्द के लिए कैसा होता है, उसकी बानगी देखिये - भीतर म अकेला जवान मरद सुते हे, अकेल्ली मोटियारी भला कइसे भीतर म जाय? तन-बदन म झुरझुरी कस रेंग गे, छाती ह जोर-जोर से धड़के लगिस, सांस ह जोर-जोर से चले लगिस। मन म फेर पछतावा होइस, काबर हामी भरिस होही वोहा ये काम बर?

बाबू क बारे में वर्णन देखिये - 'गोरा रंग हे, सुंदर अकन गोल चेहरा हे, चस्मा म कतका सुंदर दिखत रिहिस? सफेद रंग के कमीज, करिया रंग के पतलून अउ करियच् रंग के जूता-मोजा म कोनो हीरो ले कम नइ लगत रिहिस।

न न करते हाँ हो गया प्यार चंपा को बाबू से पर उसे मालूम था कि बाबू विवाहित है।

बाबू ह आज राक्षस बन के रास्ता छेंक के खड़े हे चंपा के। .......राक्षस के हाथ बढ़ गे चंपा के शरीर ल अपन आगोश म लेय बर।

''खबरदार! खबरदार बाबू , कहू चंपा के शरीर ल हाथ लगायेस ते। चंपा ह भले जान ले लेही कि जान दे देही, इज्जत नइ दे सके। हट जा सामने से।

शरीर तो मल-मूत्र के खान होथे, घुरुवा सरीख। घुरुवा से भला कोनों मन लगाथे का? ये शरीर ले तोर मन ल का मिलही मल-मूत्र के सिवा?........ प्यार करना सरल होथे, निभाना बड़ा कठिन होथे बाबू। का तंय चंपा के मांग म सिंदूर भर सकबे? मोर से बिहाव कर सकबे? ........तंय कर भी लेबे बाबू, मंय तो नइ कर सकंव न? तंय तो ककरो मांग म पहिलिच् सिंदूर भर चुके हस, एक ठन ल निभा नइ सकत हस, दूसर ल का निभा सकबे? ......

''जउन मनखे ह सच्चा अउ पवित्र प्यार करथे वो ह देवता ले कम होथे का?''

प्रश्न 10 :- इसके बाद लगता है कहानी हीर-रांझा की हो गई है। आपको कैसा लगता है? चंपा और बाबू में इस तरह का प्यार था?

उत्तर :- मेरी किसी भी कहानी में कथानक का आधार, कोरी कल्पना अथवा आदर्श नहीं है। उनके कथानकों के मूल तत्व और अंशों का मैं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूँ। मेरा अनुभव कहता है कि था।

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प्रश्न 11 :- शिवनाथ की कहानी का अंश -

''सच्चा अउ पवित्र प्यार करने वाला मन ल भला कोई रोक सके हें? सतवंतिन शिव ह गंगा माई ले कहत हे, हे गंगा माई जइसे मोर नाथ ल अपन आप म समो लेस, वइसने महूं ल अपन कोरा म समो ले।''

''......कर सकथें का कोनों आज अइसन प्यार?''

क्या ऐसे प्यार की कहानी लिखनी चाहिये जो हो ही नहीं सकता और लिखना चाहिये तो समाज में इसका क्या संदेश जाना चाहिये?

उत्तर :- मनुष्य का शरीर धरती पर पाए जाने वाले जड़ पदार्थों से ही बना है। जड़ पदार्थों की ही ऊर्जा जीवन ऊर्जा के रूप में प्रवाहित होती है। हमारी चेतना, हमारे विचार, हमारी कल्पनाएँ इन्हीं जड़ पदार्थों के चैतन्य परमाणुओं से निःसृत होती है। अतः हमारी कोई भी चेतना, हमारा कोई भी विचार, हमारी कोई भी कल्पना इस दुनिया से बाहर नहीं है, सभी संभव है और इसी दुनिया में संभव है। विज्ञान ने आज जिन बातों को संभव कर दिखाया है, पचास या सौ साल पहले ये कल्पनातीत और असंभव मानी जाती होगी। आने वाला समय नैनो पार्टिकल का होगा। मनुष्य की समस्त क्षमताओं को एक परमाणु द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है। कोई भी कल्पना, परिकल्पना अथवा विचार हकीकत से परे नहीं है।

प्यार की भावना हमारे चरित्र को उदात्त बनाती है। समाज में इसका सकारात्मक संदेश ही ध्वनित होता है।

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''ठीक हे बाबू ! झन खोल कपाट ल; तोला अतेक दुख पहुँचा के अब भला मंय का जी के रहिहंव, जावत हंव, फेर सोच ले, काली तंय चंपा ल जीयत नइ देखबे।''

........ मोला अपन स्पर्ष दे दे बाबू!

''एक पापी के अंग लग के अपन शरीर ल काबर तंय अपवित्र करत हस चंपा?''

''कल तो ये शरीर ह अपवित्र होबेच् करही बाबू।''

''धत्! कल तो तंय अपन देवता के परस पाबे,

''अगर तोर प्यार पवित्र हे, त वोला अइसन ढंग ले तंय अपवित्र झन कर चंपा।''

''मंय जानथंव, तंय तो मोला पहिलिच् अपन आत्मा ल सौंप चुके हस चंपा, ...।

प्रश्न 12 :- लगता है यह कहानी सूफी कहानी बन गई आप इस तरह की और कहानी लिखना चाहेंगे? लिखेंगे तो क्यों?

उत्तर :- प्यार मानव मन की सर्वाधिक उदात्त भावना है। दुनिया, समाज और परिवार को प्यार ही सुंदर और रहने योग्य बनाता है। प्यार हमें विश्वास और अपनापन देता है। प्यार संवेदनाओं को जन्म देता हैं। प्रेम कहानियाँ लिखी जाती रही हैं और आगे भी लिखी जायेंगी। विश्व की श्रेष्ठ कहानियों में इन्हीं कहानियों की संख्या सर्वाधिक है। नाइटिंगल एण्ड द रोज, गिफ्ट आफ मेजाई, मारे गए गुलफाम, देवदास, काबुलीवाला, उसने कहा था, जैसी विश्व प्रसिद्ध कहानियों का मूल स्वर प्रेम ही है।

सूफी मत के अनुसार प्रेम जब इतना उदात्त हो जाता है कि प्रेमियों के अंदर से स्वार्थ और अधिकार की भावना विलोपित होकर केवल समर्पपण की भावना ही शेष रह जाय तब प्रेमियों का अस्तित्व एकाकार हो जाता है। यह प्रेम का उच्चतर स्तर होता है, तब प्रेमी को सृष्टि की हर रचना में ईश्वर का ही रूप दिखता है। इस स्थिति में प्रेम लौकिकता की भूमि को त्यागकर अलौकिक स्वरूप प्राप्त कर लेता है और प्रेमी ईश्वर के साथ एकाकार हो जाता है।

'कहा नहीं' कहानी में कही भी अलौकिकता नहीं है। इसमें अंतर्निहित शिवनाथ की कथा लोक में व्याप्त जनश्रुति है। जनश्रुतियाँ भी कालान्तर में लोककथा का स्वरूप ले लेती है। लोककथाओं में कल्पना, चमत्कार और अलौकिकता, सब संभव है।

'कहा नहीं' के कथानक की तरह मेरे मन को, चेतना को उद्वेलित करने वाली कोई और कथानक मिले तो आगे भी इस तरह की कहानी संभव है।

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29 अगस्त, 2012

कुबेर

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: कुबेर का छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह - भोलापुर के कहानी
कुबेर का छत्तीसगढ़ी कहानी संग्रह - भोलापुर के कहानी
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