अर्जुन प्रसाद की कहानी - मृत्यु का सच

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मृत्‍यु का सच भारत नगर के राजेंद्र सिंह काश्‍तकार थे। वह बडे़ ही उदार और दयालु व्‍यक्‍ति थे। वह कभी किसी को सताते न थे। बहुत सज्‍जन और ईमा...

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मृत्‍यु का सच

भारत नगर के राजेंद्र सिंह काश्‍तकार थे। वह बडे़ ही उदार और दयालु व्‍यक्‍ति थे। वह कभी किसी को सताते न थे। बहुत सज्‍जन और ईमानदार भी थे। गांव के लोग बडी कद्र करते। उनकी पत्‍नी राधिका भी बड़ी शिक्षित और घर के कामकाज में निपुण थी। वह राजेंद्र सिंह का बड़ा ख्‍याल रखती थी। उन्‍हें कभी कभी किसी तकलीफ का अहसास न होने देतीं। एक चतुर गृहणी की भांति घर के कामों में बड़ी ही कुशल थीं।

राजेंद्र सिंह के पास दो चार बीघे खेताबाड़ी थी। वे दिन रात उसी में मरते खपते थे। गर्मी, सर्दी और बरसात के मौसम में भी रातोंदिन हाड़तोड़ कड़ी मेहनत करते। तब जाकर कुछ उनके हाथ लगता। उस पर भी सिर पर कभी बाढ़ का खतरा बना रहता तो कभी सूखे और अकाल का। परिवार का गुजर बसर बड़े मुश्‍किल से होता था। राजेंद्र सिंह चाहते थे कि उनके बीवी और बच्‍चों को रोटी कपडे़ की कमी न होने पाए। इसलिए कर्ज ़ऋण लेकर भी हंसी खुशी उसे खेती में लगा देते। उनमें नए-नए बीज और खाद डालते।

लेकिन एक बार अचानक आए अकाल ने उनका सब कुछ छीन लिया। उनके खेतों की सारी फसल सूखे की भेंट चढ़ गई। देखते ही देखते खेत की लहलहाती फसलें चौपट हो गईं। उनकी कड़ी मेहनत पर यकायक पानी फिर गया। सारी आशाएं मिट्‌टी में मिल गईं।

राजेंद्र सिंह साहस जुटाकर फिर अगली फसल की जुताई बुआई की तैयारी में लग गए। नई फसल उगाने के लिए वह रात दिन एक कर दिए। परंतु ईश्‍वर को कुछ और ही मंजूर था। समय आने पर यह फसल भी कुछ बहुत अच्‍छी न हुई। उनमें तरह तरह के रोग लग गए। पकने से पहले ही खेतों में खड़ी फसल बर्बाद हो गई। जैसे तैसे थोड़ा बहुत अनाज ही हाथ लगा। यह तबाही देख पति पत्‍नी छटपटाकर रह गए। जो कुछ था चंद दिनों में ही खत्‍म हो गया। इस तरह कुछ ही दिनों में वे दाने दाने को मोहताज हो गए। घर में रोटियों के लाले पड़ने लगे।

इतना ही नहीं परमात्‍मा की भृकुटि उन पर और तन गई। ईश्‍वरीय नाराजगी से कंगाली में राजेंद्र सिंह का सारा आटा ही गीला हो गया। उन्‍हें दो जून की रोटी को कौन कहे, सुबह का नाश्‍ता भी नसीब न होता था। संतान के नाम पर बस एक पु़त्र था माधव। वह खूब पढ़ा-लिखा और सुयोग्‍य था। बड़ा ही संस्‍कारवान और माता पिता का आज्ञाकारी पु़त्र था। सरकारी नौकरी पाने की खातिर बहुत हाथ-पांँव मारा। मगर तकदीर ने साथ न दिया। दुर्भाग्‍य से कहीं भी कामयाब न हुआ। वह हर जगह विफल ही होता रहा।

अंत में हार-थककर एक निजी कंपनी में पांच हजार रूपए महीना पर नौकरी करने लगा। मगर कंपनी की नौकरी उसे कुछ खास रास न आई। वह रातोंदिन चिंतित और उदास रहने लगा। जवान बेटे की मायूसी पति-पत्‍नी सहन न कर सकते थे। इसलिए उसे खुशहाल देखने की गरज से राजेंद्र सिंह एक सुघड़ और सुंदर लड़की से माधव का विवाह कर दिए।

पर, शादी होने के बाद भी माधव की उदासी उसका साथ न छोड़ी। अच्‍छी नौकरी न मिल पाने की दुराशा में वह दिनरात यही सोचता रहता कि मुझे सरकारी सेवा में नौकरी क्‍यों नहीं मिली। इस मँहगाई के समय में पांच हजार रूप्‍ए से होता ही क्‍या है। कृषि कार्य में तो घाटा ही घाटा है। रात-दिन लगे रहो और मेहनत भी वसूल नहीं होती है। किसी न किसी बहाने फसल हमेशा नष्‍ट ही हो जाती है। इससे साहूकार को कुछ भी लेना-देना नहीं।

उसका व्‍याज दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही रहता है। किसान बेचारा बिना पानी की मछली की तरह तड़प-तड़पकर दम तोड़ देता है। अगर कभी माधव की धर्म-पत्‍नी उपासना उसे टोकती तो वह नपे-तुले शब्‍दों में कह देता-दूसरों को सलाह देने में बहुत से लोग कुशल होते हैं। उनमें से तुम भी एक हो। अब तुम्‍हीं बताओ कि मैं अपने लाचार और बूढ़े मां-बाप पर कब तक बोझ बना रहूं। उनके वश में जो था उन्‍होंने बखूबी पूरा किया। मुझे पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाया। परंतु देश की व्‍यवस्‍था ही कुछ ऐसी है कि हमारे जैसे नौजवानों के काबलियत की कोई कीमत ही नहीं। आज लाखों युवक बेरोजगार होकर दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं।

माधव का कथन सुनकर उपासना कहती-अरे तब इतनी टेंशन ही लेने से क्‍या हासिल होने वाला है। इसलिए जब तक जीना है हँस-खेलकर जीवन बिताना ही बुद्धिमानी है। वैसे भी इंसान को जीवन भर तमाम झंझटों का सामना करना पड़ता है। जिंदगी से ऊबकर इसे बोझ समझना परेशानी मोल लेना है। मेरी मानिए सारी चिंता त्‍याग दीजिए। इसी में सबकी भलाई है।

पर, माधव न जाने किस मिट्‌टी का बना था कि उपासना की बातों का उस पर तनिक भी असर न होता। वह न तो जीवन संगिनी की ही कुछ सुनने को तैयार था और न ही अपने माता-पिता की। बस अपनी धुन में ही रमा रहता।

आखिर, धीरे-धीरे माधव दुष्‍चिंता का शिकार हो गया। उसका अच्‍छा भला जीवन तनाव में बीतने लगा। नौकरी की फिक्र ने उसे अंदर से खोखला कर दिया। उसकी भूख-प्‍यास खत्‍म हो गई। उसे खाने-पीने की कोई चिंता ही न रहती। जब होता तभी सरकारी नौकरी पाने की उत्‍कंठा में हाय-हाय करने लगता। कभी उसके माता-पिता टोकते तो झुझलाकर सारा घर सिर पर उठा लेता। वह बार-बार घर से भाग जाने की धमकी देने लगता।

लेकिन,माधव के बृद्ध मां-बाप अपने इकलौते बेटे को खोने के लिए हरगिज तैयार न थे। वे क्‍या, कोई भी व्‍यक्‍ति अपनी औलाद को खोने का खतरा नहीं उठा सकता। लाचार होकर उन्‍होंने उसे समझाना-बुझाना छोड़ दिया और मन मारकर चुपचाप बैठ गए। कुछ दिन तो जैसे-तैसे बीत गए। पर, आहिस्‍ता-आहिस्‍ता माधव बीमार और काफी कमजोर हो गया। उसका कमल जैसा खिला हुआ चेहरा मुरझा गया। लगातार बीमार रहने से वह सूखकर कांटा हो गया। उसकी तबीयत काफी बिगड़ गई।

एक दिन अचानक उसे दिल का दौरा पड़ गया। राजेंद्र बाबू और उनकी अर्धांगिनी अपने जिगर के टुकड़े को दौरा पड़ते देखकर छटपटा उठे। वे उसे इलाज के लिए सदर अस्‍पताल ले गए। चूंकि पहला अटैक था। अत डाक्‍टरों की मेहनत रंग लाई तो माधव जल्‍दी ही स्‍वस्‍थ हो गया। उसकी दवा-दारू में राजेंद्र बाबू महाजन का कर्जदार हो गए।

लेकिन,हास्‍पीटल से माधव को छुट्‌टी देते समय डाक्‍टर उत्‍तम चंद ने हिदायत देते हुए राजेंद्र सिंह से एकदम साफ साफ कहा़-देखिए आपका बेटा फिलहाल अभी तो बच गया है। पर, इसे कहीं अगर दूसरा हार्ट अटैक पड़ा तब समझिए कि इसका हर हाल में आपरेशन करना ही पड़े़़गा। यह सुनकर राजेंद्र बाबू पति-पत्‍नी सिहर उठे। क्‍योंकि तीसरा अटैक व्‍यक्‍ति की जान लेकर ही उसका पीछा छोड़ता है। आखिरी दौरे से बहुत ही कम लोग बच पाते हैं। राजेंद्र बाबू ने डाक्‍टर के आगे हाथ जोड़कर सिर झुका लिया।

फिर वह उदास मन से बोले-ठीक है डाक्‍टर साहब, मैं आपकी बात का पूरा ध्‍यान रखूंगा। इसके बाद पति-पत्‍नी माधव को लेकर अपने घर चले गए। घर जाकर उन्‍होंने भलीभांति समझा-बुझाकर माधव को भविष्‍य के खतरे से सजग रहने को आगाह किया। सारी झंझट भूलकर उसे बेफिक्र रहने का सुझाव दिया। उन्‍होंने बारी-बारी उससे कहा आजकल देश में तुम्‍हारे जैसे अनेक नौजवान पढ़-लिखकर बेकार घूम रहे हैं। वे बेरोजगार रहकर सड़कों की धूल फांक रहे हैं। इसलिए व्‍यर्थ ही चिंतित होने से कोई फायदा नहीं।

समय धीरे-धीरे गुजरता रहा। कुछ दिन शांत रहने के बाद माधव को नौकरी की फिक्र ने फिर जकड़ लिया। बेरोजगारी की टेंशन ने उसका पीछा न छोड़ा।़ एक दिन उसे दुबारा दिल का दौरा पड़ गया। जवान बेटे की जान खतरे में देखकर उसके माता-पिता के होश उड़ गए। जिगर के टुकड़े जैसे पुत्र को हाथ से निकलता देखकर वे तड़प उठे। राजेंद्र बाबू उसे फौरन उठाकर अस्‍पताल ले गए।

माधव की गहन जांच-पड़ताल के बाद डाक्‍टर उत्‍तम चंद ने राजेंद्र सिंह से कहा-भाई राजेंद्र जी, एक बार हमने जी तोड़ परिश्रम करके आपके बेटे को बचा लिया था। परंतु इस बार उसकी शल्‍य क्रिया करनी ही पड़ेगी। उसकी बाई पास सर्जरी होगी। उसके प्राण बचाने की खातिर यह निहायत ही जरूरी है। एक बात और आपरेशन में आपके करीब तीन लाख रूपए खर्च होंगे। अगर उसके जान की खैरियत चाहते हैं तो बिना किसी ना नुकर के पैसों का इंतजाम कीजिए। वरना बहुत देर हो जाएगी और जवान बेटा हाथ से निकल जाएगा। परमात्‍मा न करे कि उसे कुछ हो जाय और आप लोग हाथ मलते रह जाएं। अब ज्‍यादे सोच-विचार करने का वक्‍त नहीं है।

डाक्‍टर साहब की सलाह सुनकर राजेंद्र बाबू और राधिका का कलेजा फटने लगा। दोनों बड़े बेंचैन हो गए। उनकी समझ में न आ रहा था कि इस तंगी के कुसमय में क्‍या करें और क्‍या न करें। तीन लाख रूप्‍ए की रकम कोई इतनी छोटी तो होती नहीं है कि पलक झपकते ही एक़़़त्र कर ली जायं पहाड़ जैसी पूंजी के लिए आखिर कुछ तो वक्‍त चाहिए न। न जाने कहां-कहां हाथ पसारना पड़ेगा। राजेंद्र बाबू ने जब राधिका से मशविरा किया तो वह कहने लगी-ऐसा कीजिए, खेत बेच दीजिए। हमारा बेटा सलामत रहेगा तो खेती-बाड़ी फिर हो जाएगी। अगर हमारे लाल को कुछ हो गया तो हम कहीं के न रहेंगे। आप समझने की तनिक कोशिश कीजिए। जान है तो जहान है। जमीन-जायदाद होती भी इसीलिए है कि गाढ़े वक्‍त में जरूरत पड़ने पर काम आए। अन्‍यथा उसका कोई मोल नहीं। अब आप बिल्‍कुल भी देर न कीजिए। जाइए, जाकर जैसे भी हो रूपयों का तुरंत इंतजाम करके मेरे बेटे को बचाने का यत्‍न कीजिए। अपना गुजर-बसर हम मेहनत मजदूरी से कर लेंगे।

अपनी प्राणप्रिय पत्‍नी की पीड़ा देखकर राजेंद्र बाबू भला चुप कैसे रह सकते थे। वह बेधड़क बोले-प्रिये, तुम ऐसा क्‍यों सोचती हो। माधव तुम्‍हारा ही नहीं मेरा भी बेटा है। तुम अपने मन में लेशमा़त्र भी खटका न करो। मैं अभी घर जाकर कोई न कोई बंदोबस्‍त जरूर करूंगा।

इसके बाद राधिका को तसल्‍ली देकर राजेंद्र बाबू डाक्‍टर के पास गए और हाथ जोड़कर कहने लगे-डाक्‍टर साहब, मेरे लाल माधव को बचा लीजिए। उसका यह कष्‍ट न तो मैं ही सहन कर पा रहा हूं और न उसकी मां ही। यह हमारी इकलौती संतान है। आप शीघ्र उसका इलाज शुरू करें। मैं अपनी खेती-बाड़ी बेचकर पैसों की व्‍यवस्‍था करने घर जा रहा हूं। डाक्‍टर उत्‍तम कुमार बड़े ही नेक और सज्‍जन पुरूष थे। वह बोले-देखिए, हड़बड़ाइए मत। जरा धैर्य रखें। तनिक हिम्‍मत से काम लीजिए। मर्द होकर इतने अधीर न बनें। मैंने उसका उपचार आरंभ कर दिया है। आपरेशन भी हो जाएगा। हालांकि मैं कोई देव नहीं। फिर भी आपको वचन देता हूं कि उसे कुछ नहीं होगा। डाक्‍टर भी एक इंसान होता है। उसके अंदर भी दिल होता है। उसका पहला लक्ष्‍य मरीज का प्राण बचाना है। मा़त्र पैसे कमाना नहीं। वह मानव सेवा से बंधा होता है। आप बिना किसी हड़बड़ी के तसल्‍ली से अपना काम करें। हम अपना फर्ज अवश्‍य निभाएंगे। आप निश्‍चिंत रहें।

तब डाक्‍टर को धन्‍यवाद देकर राजेंद्र बाबू घर चले गए। उनके पास कोई और पूंजी तो थी नहीं। बस, जमीन का ही सहारा था। उन्‍होंने अपने नजदीकी पड़ोसी रामलखन के पास जाकर कहा-भाई चौधरी साहब, हमारे ऊपर मुशीबतों का पहाड़ टूट पड़ा है। मेरे ऊपर एक बड़ी आफत आ पड़ी है। माधव की जान खतरे में है। वह नर्सिंग होम में जिंदगी-मौत से जूझ रहा है। उसकी जान खतरे में है। डाक्‍टरों का कहना है कि उसका आपरेशन करना होगा। मैं एक गरीब आदमी हूं। मेरे पास कोई धन-दौलत नहीं है। बिरासत में पुरखों से मिले हुए कुछ खेत हैं। उसे आप ले लीजिए। मैं आपका बड़ा अहसान मानूंगा। बस, कहीं से ढाई-तीन लाख रूप्‍ए का जुगाड़ करा दीजिए।

चौधरी रामलखन बड़े दयालु और परोपकारी व्‍यक्‍ति थे। फौरन निर्द्वन्‍द्व मन से बोले-राजेंद्र बाबू, घबराइए मत। इतनी अधीरता से काम न चलेगा। आखिर आप मेरे पड़ोसी हैं। क्‍या आप हमें इस लायक भी नहीं समझते कि विपत्‍ति के समय मैं आपके किसी काम आऊं। जितने रूपयों की जरूरत हो आप अभी ले जाइए। सुबह तक पूरे मिल जाएंगे। रही बात खेत की तो उसकी लिखा-पढ़ी बाद में सोचेंगे। पहले अपने बेटे का जीवन देखिए। जाकर उसे बचाइए। मेरे पैसे लौटाने की तनिक भी चिंता न कीजिए। जब हो जाय तब दे दीजिएगा। एक साथ न हो तो अपनी सुविधा के मुताबिक थोड़ा-थोड़ा वापस कर दीजिएगा। न हो तब भी कोई हर्ज नहीं। आपका बेटा तो बच जाएगा।

चौधरी साहब ने बेझिझक तत्‍काल बैंंक से ढाई लाख रूपए निकालकर राजेंद्र सिंह को दे दिया। उनकी मदद से चिकित्‍सालय में तब जाकर कहीं माधव का सफल आपरेशन हुआ। डाक्‍टरों की मेहनत रंग लाई। माधव की जान जाते-जाते किसी तरह बच गई। चिकित्‍सको को बड़ी राहत महसूस हुई। शल्‍यक्रिया के कामयाबी की खबर मिलते ही राजेंद्र और राधिका के दिल को भी बड़ा सुकून मिला। उन्‍होंने चैन की सांस लिया। माधव की अर्धांगिनी उपासना विधवा होते-होते बच गई। उस बेचारी की तो दुनिया ही उजड़ने की नौबत आ गई थी। पति को जीवित पाकर वह धन्‍य हो गई। मारे खुशी के भावविह्‌वल होकर ईश्‍वर को धन्‍यवाद देने लगी। वह कहने लगी-हे प्रभु, तेरी लीला बड़ी न्‍यारी है। तुमने मुझ जैसी गरीब और बेबश की सुन ली। तू वाकई दीन दयाल है। मैं तुम्‍हारा यह उपकार मरते दम तक न भूलूंगी। उपासना की बीरान जिंदगी में फिर से बहार आ गई। राजेंद्र और राधिका भी मृत्‍यु सागर में हिचकोले खाते अपने पुत्र को पाकर वे निहाल हो गए। विधि के विधान में जिसे जितने दिनों तक जीना है,वह जरूर जीएगा। पर इस दुनिया से अन्‍न-जल उठते ही मृत्‍यु उसे अपने आगोश में समेट लेती है।

माधव का जीवन अभी समाप्‍त न हुआ था। मानो मौत की गोद में उसके लिए कोई जगह ही खाली न थी। वह मृत्‍यु देव को मात देकर साफ-साफ बच निकला। दो-चार दिन बाद ही माधव को अस्‍पताल से मुक्‍ति मिल गई। वहां से चलते वक्‍त डाक्‍टर ने राजेंद्र सिंह से कहा-पंद्रह दिन बाद आकर माधव को चेक करा लीजिएगा। राजेंद्र बाबू कृतज्ञता से सिर झुकाकर बोले-ठीक है डाक्‍टर साहब। पंद्रहवें दिन आपके पास आ जाऊंगा। यह कहकर पति-पत्‍नी हंसी-खुशी माधव को लेकर घर की राह पकड़ लिए। लेकिन, यमराज की लीला भी बड़ी न्‍यारी है। जिसे संसार के तमाम बंधनों से छुटकारा चाहिए ओर जो मरने को लालायित रहता है, उसे सांसारिक सजा भुगतने की खातिर विवश होकर सौ-सौ साल तक जीना पड़ता है। जो लंबी उम्र जीने का इच्‍छुक है उसे असमय ही उठा लेते हैं। डाक्‍टरों की बुद्धिमानी और लगनशीलता के आगे तरस खाकर यमदेव ने माधव को जैसे-तैसे अपने बंधन से मुक्‍त कर दिया।

समयचक्र तीव्रगति से चलता रहा। दो हफ्‌ते तक सब कुछ ठीक गुजरा। पंद्रहवें दिन राजेंद्र सिंह सपरिवार खुशी-खुशी माधव को लेकर सदर अस्‍पताल पहुंच गए। वहां जिधर देखिए उधर ही बीमारों की लंबी-लंबी कतारें लगी हुई थीं। माधव एक बेंच पर बैठकर अपनी बारी आने का इंतजार करने लगा। राजेंद्र सिंह मरीजों की लाइन में खड़े हो गए। कतार में इंतजार करते-करते करीब दो घंटे बीत गए। राजेंद्र बाबू डाक्‍टर उत्‍तम कुमार के पास पहुंचने ही वाले थे कि यकायक यम महाराज की नजर माधव पर फिर पड़ गई। उसे देखते ही वह व्‍यग्‍यपूर्ण कुटिल मुस्‍कान के साथ जल्‍दी-जल्‍दी अपने रोजनामचे का पन्‍ना उलटने-पलटने लगे।

उसमें उन्‍होंने देखा कि माधव की आयु आज से पंद्रह रोज पहले ही खत्‍म हो चुकी है। किंतु डाक्‍टर की लगन देखकर इसे जिंदा रखना पड़ा। यह कतई उचित नहीं है। धर्मराज के दरबार में ऐसा हरगिज नहीं हो सकता। यह दूसरे मृतको की आत्‍मा के साथ घोर अन्‍याय है। अतएव अब उसे एक पल भी और जीने का हक नहीं है। एक विजेता सम्राट की भांति वह अपने मन में बड़े हर्षित हुए। उन्‍होंने आव देखा न ताव। फौरन उसके पास जा धमके और और फटाफट माधव के शरीर से प्राण निकालकर चुपचाप यमलोक को चलते बने। बदन से प्राणों के अलग होते ही उसकी मृत देह बेंच पर लुढ़क गई। उसे लुढ़कते देखकर उसकी पत्‍नी उपासना उठाने की गरज से माधव को जगाने की कोशिश करने लगी।

परंतु वह हमेशा के लिए ऐसी गहरी नींद में सो गया कि उसे फिर जगाना मुश्‍किल हो गया। देखते ही देखते उसकी शरीर एकदम ठंडी हो गई। यह देखते ही उसकी मां और जीवन संगिनी उपासना के मुख से चीख निकल गई। वे दहाड़ मारकर फूट-फूटकर रोने लगीं। अचानक उनका रोना-धोना सुनते ही तनिक देर में वहां लोगों की काफी भीड़ जमा हो गई।

राजेंद्र बाबू भी झटपट उलटे पांव वापस लौट गए। उन्‍होंने देखा कि माधव सबको छोड़कर बहुत दूर जा चुका है। उनके नेत्रों से आंसुओं की धारा बहने लगी। बेचारी उपासना भरी जवानी में ही विधवा का जीवन जीने को विवश हो गई। राजेंद्र सिंह का धन तो गया ही था, आखिरकार उनका प्‍यारा एकलौता बेटा भी चला गया। मृत्‍यु का यह सच समझते ही वह अंदर से टूटकर विखर गए। जवान पुत्र खोकर बुढ़ापे में उसकी लाश को कंधा देने पर मजबूर हो गए। वह सोचने लगे कि यह सच है कि मौत बिल्‍कुल अटल है। यह कुछ वक्‍त के लिए टल तो सकती है। पर, आती अवश्‍य है। यही शास्‍वत सत्‍य है। माधव का पूरा परिवार आखिर छटपटाकर रह गया। डाक्‍टरों की सारी मेहनत पर जरा सी देर में पानी फिर गया। माधव के मरने की खबर पाकर उनका भी चेहरा उतर गया

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: अर्जुन प्रसाद की कहानी - मृत्यु का सच
अर्जुन प्रसाद की कहानी - मृत्यु का सच
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