(मारीशस में गोवर्धन यादव – बाएँ से दूसरे) मेरे अपने जीवन में यह दूसरा अवसर है जब मुझे भारत से बाहर मारीशस जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. पह...
(मारीशस में गोवर्धन यादव – बाएँ से दूसरे)
मेरे अपने जीवन में यह दूसरा अवसर है जब मुझे भारत से बाहर मारीशस जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ. पहली बार मैं थाईलैण्ड की यात्रा पर सन 2011 में गया था. थाईलैण्ड की यात्रा पर जाने का अवसर अनायास ही प्राप्त नहीं हुआ था, बल्कि सायास प्राप्त हुआ था इस यात्रा के बारे में बडा दिलचस्प वाक्या है. एक दिन मुझे रायपुर (छ.ग.) के मेरे मित्र श्री जयप्रकाश मानसजी का फ़ोन आया. फ़ोन पर उन्होंने मुझसे बैंकाक-यात्रा पर चलने का आग्रह किया और साथ ही उन्होंने मेल के जरिए उस कार्यक्रम की रुपरेखा भी उपलब्ध करवा दी. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी और हिन्दी-संस्कृति को प्रतिष्ठित करने के लिए बहुआयामी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था “सृजन-सम्मान एवं साहित्यिक वेव-पत्रिका “सृजनगाथा डाट काम”रायपुर का यह सात दिवसीय अनूठा प्रयास था. इस साहित्यिक यात्रा में देश के चयनित/अधिकारिक विद्वान, अध्यापक, लेखक, भाषाविद, शोधार्थी, संपादक, पत्रकार, संगीतकार, बुद्धिजीवी एवं हिन्दी सेवा संस्थाओं के सदस्य, हिन्दी प्रचारक, ब्लागर्स,तथा टेक्नोक्रेट भाग ले रहे थे. मन में इच्छा बलवती हो उठी कि मुझे इसमें जाना चाहिए लेकिन उस वक्त तक मेरा पासपोर्ट नहीं बना था सो चाहते हुए भी मैं इस यात्रा में शामिल नहीं हो सका. उन्होने आग्रह करते हुए मुझसे कहा कि आने वाले समय में मुझे अन्य देश की यात्रा के लिए तैयार रहना है और अपना पासपोर्ट भी समय रहते बनवा लेना है.
शुरु से ही मेरी प्रकृति घुम्मकड किस्म की रही है. डाक विभाग में कार्यरत रहने से चार वर्ष मे मिलने वाली एल.टी.सी का मैंने तीन बार फ़ायदा उठाया. पहली बार मैंने सपरिवार संपूर्ण दक्षित-भारत की यात्रा की. दूसरी बात जम्मु-कश्मीर और तीसरी बात गोवा की यात्रा की. उसके बाद यह स्कीम सरकार द्वारा बंद करा दी गई. सेवा निवृत्ति के बाद मैंने मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,हिन्दी भवन भोपाल की सदयता ग्रहण की. लेखन कर्म अपनी गति से चल ही रहा था. बच्चॊं के लिए भी मैं लिखने लगा. इस बीच मेरी मुलाकात साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्कार की मासिकी “बालवाटिका” के संपादक डा. श्री भैरुँलाल गर्गजी से हुई और इस तरह मैं उनकी संस्था से जुड गया. यह क्रम अभी रुका नहीं था. दूसरी कडी में मैं बालसाहित्य शोध एवं संवर्धन सामिति के संचालक श्री उदय किरोलाजी, अलमोडा(उत्तराखण्ड) से जुडा और इस तरह कई संस्थाओं से जुडता चला गया और इनमें होने वाले कार्यक्रमों में बराबर जाता रहा और सम्मानीत भी होता रहा. नए-नए प्रदेशों में जाना और ख्यातिलब्ध साहित्यकारॊ से मिलने में मुझे अत्यधिक आनन्द प्राप्त होता है. इस तरह प्रायः सभी प्रदेशों के बहुतेरे मित्रों की टोली जुडती चली गई. परमपिता परमेश्वर की विशेष कृपा मुझ पर सदा बनी रही और यह उन्हीं का आशीर्वाद है कि मुझे देश और देश के बाहर जाने के सुअवसर प्राप्त होते रहे.
जैसा की मैंने स्वीकार किया भी है कि मुझे यात्रा करने में काफ़ी आनन्द प्राप्त होता है. सो मैंने छिन्दवाडा स्थित “वसुन्धरा ट्रैवल” के संचालक श्री बकुल पंड्याजी से संपर्क किया और अपना पासपोर्ट तैयार करने के लिए आवश्यक दस्तावेज जुटाना शुरु कर दिए. माननीय वरदमूर्ति मिश्रजी उस समय एस.डी.एम के पद पर कार्यरत थे. आपने दो बार मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,जिला इकाई छिन्दवाडा द्वारा आयोजित प्रतिभा प्रोत्साहन प्रतियोगिताओं में मुख्य अतिथि के तौर पर समिति को अपना हार्दिक सहयोग दिया और समय-समय पर वे मार्गदर्शक के रुप में अपनी भागीदारी का निर्वहन करते रहे हैं. मैंने उनसे अपना तत्काल -पासपोर्ट बनवाने के लिए निर्धारित प्रपत्र में हस्ताक्षर करने के लिए निवेदन किया. उन्होंने बिना समय गवांए उस पर अपने हस्ताक्षर कर दिए.. लेकिन इस बीच पत्नि की तबीयत बिगड जाने और उस पर लगने वाले खर्चों को देखते हुए मैंने इस प्रक्रिया को रोकते हुए श्री बकुलजी से कहा कि वे सामान्य तरीके से इसे बनने दे. लगभग तीन माह बाद पासपोर्ट मेरे हाथ में था और मैं अब देश से बाहर जाने के लिए अधिकृत था.
श्री मानसजी से मेरा संपर्क बराबर बना हुआ था. संयोग से वे वर्ष 2011 में सात दिवसीय ( 1 से 7 फ़रवरी) कार्यक्रम तय कर चुके थे,जिसकी सूचना उन्होंने ईमेल के जरिए तथा फ़ोन पर दे दी थी. इस तरह यह पहला मौका था जब मैं भारत के बाहर किसी अजनवी धरती पर अपना कदम रख रहा था. सारे कार्यक्रम अपने निर्धारित समय के अनुसार सान्नद संपन्न होते रहे. एक लंबा अरसा बीत गया है,लेकिन वे सारी यादें अब भी मन-मस्तिस्क पर जस की तस अंकित हैं.
इस आयोजन के बाद आपकी संस्था ने ताशकंद, संयुक्त अरब अमीरात, कंबोडिया-वियतनाम आदि देशों की यात्राएं की और हिन्दी के प्रचार-प्रसार और उन्नयन के लिए अनूठे कार्यक्रम किए. हालांकि मैं इन देशों की यात्रा भले ही नहीं कर पाया लेकिन मेरे दो अभिन्न मित्र श्री आर.एम.आनदेवजी और डी.पी.चौरसियाजी ने बराबर इसमें भाग लेकर जिले की शान बढाई है.
आधारशिला के संपादक-मित्र श्री दीवाकर भट्टजी थाईलैण्ड यात्रा में मेरे सहयात्री रहे हैं. आपने भी हिन्दी के उन्नयन और संवर्धन में अनेकों देशॊं की यात्राएँ की हैं, मुझसे लगातार साथ चलने का आग्रह करते रहे हैं और समय-समय पर फ़ोन से ईमेल के जरिए कार्यक्रम की रुपरेखा भेजते रहे हैं,लेकिन यात्रा में लगने वाली बडी राशि का जुटाना एक सेवानिवृत्त कर्मचारी के लिए असंभव सा प्रतीत होता रहा. इस बीच “अभ्युदय बहुउद्देशीय संस्था, वर्धा जिसके संरक्षाक श्री वैद्ध्यनाथ अय्यरजी तथा संस्था के महासचिव-संयोजक श्री नरेन्द्र दन्ढारेजी का पत्र प्राप्त हुआ. श्री दन्ढारेजी वर्तमान समय में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,वर्धा में कार्यरत हैं और समय-समय पर आपसे वर्धा में होने वाले कार्यक्रमों में तथा हिन्दी भवन भोपाल में भेंट होती रही है, ने दूरभाष पर मुझसे चलने बाबद अनुरोध किया. प्रथम आग्रह में ही मैंने उनसे स्पष्ट संकेत दे दिए थे कि खर्च की अधिकता को देखते हुए मेरा जाना संभव नहीं है.
श्री दण्ढारेजी के फ़ोन लगातार आते रहे. एक दिन मैंने उस पत्र की एक फ़ोटॊ-प्रति हिन्दी भवन भोपाल भेजते हुए संस्था के मंत्री-संचालक मान.श्री कैलाशचन्द्र पंतजी से निवेदन किया कि हम अपने स्तर पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार में कार्य तो कर ही रहे हैं लेकिन हम इतने सक्षम नहीं हैं कि मारीशस जैसे सुदूर देश की यात्रा कर सकें. निवेदन में यह भी मैंने जोडा कि यदि हिन्दी भवन इसमें हमें कुछ आर्थिक सहायता प्रदान करती है, तो बाकी की रकम का हम इंतजाम कर लेंगे. इस समय मारीशस यात्रा के लिए छियत्तर हजार रुपयों का खर्च बतलाया गया था.
हिन्दी भवन भोपाल का एक पत्र आया, जिसमें प्रदेश के सभी संयोजकों से यह पूछा गया कि क्या वे पासपोर्ट धारक हैं? इसका जवाब मैंने लिख भेजा और अपने साथियों के नाम लिख भेजे ,जिनके पास अपने पासपोर्ट उपलब्ध थे. माह मार्च की इक्कीस तारीख को मुझे भोपाल में आयोजित मिटिंग में जाना था .मिटिंग में मैंने अन्य प्रस्तावों के साथ इस प्रस्ताव को भी रखा, जो बाद में इस आशय के साथ स्वीकृत हुआ कि वर्तमान में हिन्दी भवन ट्रूस्ट प्रदेश के पाँच संयोजकों को पच्चीस-पच्चीस हजार रुपया बतौर अनुदान देगी. इतनी बडी रकम अनुदान में स्वीकृत हो जाने के बाद मैंने मारीशस जाने का मानस बनाया और श्री गोपाल दण्ढारेजी के खाते में तीस हजार रुपया जमा करवा दिए, जो बतौर रजिस्ट्रेशन के दिए जाने थे. शेष रकम तीस जनवरी 2014 तक जमा करना था. मैं यहाँ स्पष्ट बतला दूँ कि यदि हिन्दी भवन टृस्ट मुझे यह राशि स्वीकृत नहीं करता तो शायद ही मैं वहाँ जा पाता. मैं आभारी हूँ मान.श्री पंतजी का और हिन्दी भवन टृस्ट का,जिनके विशेष सहयोग से मैं यह यात्रा कर पाया.
श्री दण्ढारेजी ने अपने परिपत्र में स्पष्ट कर दिया था कि सभी व्यक्तियों को मुंबई तक अपने स्वयं के खर्च पर आना-जाना होगा. समय पर्याप्त था, सो मैंने दुरंतॊ से अपनी जाने और आने की सीट आरक्षित करवाली थी. ज्ञात हो कि दुरंतॊ नानस्टाप ट्रेन है, जो नागपुर से छत्रपति शिवाजी टर्मिनल तक प्रतिदिन रात्रि के आठ बजे रवाना होती है और मुंबई से नागपुर के लिए रात्रि आठ बजे खुलती है.
संस्था सचिव श्री नर्मदा प्रसाद कोरीजी ने मेरी तैयारी को देखते हुए अपना मानस बनाया कि वे भी इस यात्रा में शामिल हो सकते है. इस समय तक आपके पास अपना कोई पासपोर्ट नहीं था. पुनः हम श्री बकुल पण्ड्याजी के पास थे और आवश्यक दस्तावेक्जों के साथ पासपोर्ट बनाने के लिए आन लाइन आवेदन प्रस्तुत कर रहे थे. पासपोर्ट कार्यालय भोपाल में श्री कोरीजी के माह मई की किसी तारीख को उपस्थित होना था, जो हमारे अपने समय सारिणी से मेल नहीं खाता था.. सो उन्होंने एस.डी.एम से संपर्क साधने की कोशिश की. यह समय लोकसभा के चुवान का समय था और ऎसे समय में किसी शासकीय अधिकारी से मिल पाना संभव भी नहीं था. संयोग से मैंने इन्टरनेट के जरिए नियमों की जानकारी प्राप्त की कि किसी मेजर अथवा कार्यालय प्रमुख के हस्ताक्षर से तत्काल पासपोर्ट बनवाया जा सकता है. संयोग कि श्री कोरीजी के दामाद मेजर के पद पर कार्यरत हैं, सो उन्होंने तत्काल आवश्यक दस्तावेज हस्ताक्षरित कर भेज दिए और बैंक मैनेजर ने भी हस्ताक्षर कर दिए, आन लाइन आवेदन भेज दिया गया. पासपोर्ट कार्यालय ने कोरीजी को आवेदन की तिथि से दो दिन बाद उपस्थित होने एवं आवश्यक दस्तावेज लाने का निर्देश दिया. कोरीजी वहाँ उपस्थित हुए और वे घर भी नहीं पहुँच पाए थे कि पासपोर्ट अधिकारी ने पासपोर्ट बनाकर रजिस्ट्री डाक से भेजने बाबद मैसेज उनके मोबाईल पर दे दी. इस तरह श्री कोरीजी इस अभियान में मेरे सहयात्री बने.
इस रोमांचक यात्रा को संपन्न कराने का जिम्मा महिन्द्रा ट्रेवल, मुंबई ने लिया था. नागपुर में इस ट्रेवल की एक शाखा काम कर रही है. यात्रा सुचारुरुप से संपन्न हो, इस आशा और विश्वास के साथ नागपुर के श्री स्वपनिल वाल्केजी एवं सुश्री नीतूसिंह भी इस यात्रा के सहभागी बने. मारीशस के हवाई जहाज की फ़्लाइट एम.के.747,प्रस्थान तिथि 23-05-2014 की सुबह 0645 तथा वापसी 29-05-2014 फ़्लाइट एम.के.748 रात के 2120 बजे की थी, टिकटें भेज दी गईं. ज्ञात हो कि मारीशस समय और भारतीय समय में एक घंटा बत्तीस मिनट का फ़र्क रहता है. यदि भारत में दिन के आठ बजे हैं तो मारीशस में सुबह के 06.28 बज रहे होते हैं.
(क्रमशः अगले भागों में जारी…)
विदेश यात्रा पर जाने से पूर्व लेखक ने कई कठिनाइयों का सामना कर यात्रा प्रारम्भ की . यात्रा वृतांत का शेष भाग जानने की उत्सुकता है
जवाब देंहटाएंदिलचस्प वर्णन
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया यात्रा प्रसंग ! हिंदी भवन आपको दिया मॉरीशस जाने का ! आगे पढता हूँ
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुनीताजी,ओमकारजी,एवं योगीजी
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