रामजी मिश्र 'मित्र' की कहानी - आत्मा का निरपराध पाप

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कभी कभार हमारी अपनी स्वतंत्रता की महत्वाकांक्षा जाने अंजाने दूसरों को टीस दे जाती है। उसके बदले हमें ऐसी शाप लगती है जो उसके प्रति मन में क...

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कभी कभार हमारी अपनी स्वतंत्रता की महत्वाकांक्षा जाने अंजाने दूसरों को टीस दे जाती है। उसके बदले हमें ऐसी शाप लगती है जो उसके प्रति मन में करुण भाव उत्पन्न कर देती है। भले ही हम उसका ढिंढोरा न पीट पायें पर हमेशा एक अपराधी की भाँति दाह होते रहते हैं। मुझे आज भी एक ऐसी ही शाप को लादे लादे घूमना पड़ रहा है। नतीजतन दाह जारी है एक ऐसा दाह जिससे छुटकारा मरणोपरांत भी मिलता नहीं दिखाता। दूर - दूर तक मुक्ति का कोई साधन तो नहीं दिखाई पड़ता। आज उसकी शादी एक शराबी के साथ हो चुकी है। घटना ही कुछ ऐसी घटी कि मैं दोषी न होते हुए भी निर्दोष पापी बन बैठा। आज सुबह तड़के ही घर में शादी वाले आ धमके। सूरज की पौ फटी ही थी। पिताजी पूरा दिन कार्यालय में रहते और माता जी एक प्राइमरी अध्यापिका थीं। दोनों जल्दी ही घर से निकल जाते थे। शायद वह लोग इसी लिए कुछ जल्दी ही आ गए ताकि मिला जा सके। मुझको देखा भाला गया। और बात को आगे बढ़ाने की दिशा तलाशना शुरू कर दिया गया। दोनों तरफ से रिश्ते के लिए खामोश हाँ सी स्पष्ट नजर आ रही थी।

मेरे घर की लाइट कुछ गड़बड़ थी सो आज लाइनमैन को फोन किया पर वह आने में असमर्थता व्यक्त कर गया। मुझे बिना लाइट के लेखन और खबरों के काम में काफी दिक्कत थी, पर विद्युत के कर्मचारी मुझे अच्छी तरह से जानते थे और उसका खूब नाजायज लाभ भी उठाते थे। इस विभाग में वर्तमान में पुराने अधिकारी तबादला किए जा चुके थे। अधिकारियों का स्टॉप नया था। मुझे अपनी परेशानी की चिंता तो थी पर उससे अधिक उन कर्मचारियों के आराम की भी। मैं कभी उन पर अनावश्यक या आवश्यक दबाव बनाने की कोशिश न करता था। आज बिजली गड़बड़ हुए तीसरा दिन था कि सुबह सुबह मोटर साइकल की आवाज दरवाजे के पास सुनाई दी। मैं तिलमिला गया कि शायद शादी वाले होंगे। मुझे सुबह सुबह कुर्सी की उठापटक करनी तय लग रही थी। लकड़ी की वजन कुर्सियाँ एक बार में एक ही ले जा सकता और उनकी संख्या न मालूम कितनी हो। सुबह का पूरा लेखन बाधित हो जाने से मुझे बहुत क्रोध भी भर आया। पर सामने आयी परिस्थिति को भोगना तो था ही।

बाहर आकर देखा तो लाइनमैन खड़ा था। मैंने राहत की सांस ली। लाइनमैन मुझे देखते ही फफक कर रो पड़ा। मैं अवाक था अकारण ऐसा क्यों? मैंने कहा बंधू स्पष्ट कहें, रो क्यों रहे हो? उसने कहा मेरा कोई जुगाड़ तो है नहीं इसलिए वह मुझसे मदद चाहता है। मैंने कहा भाई आप मेरी मदद करने आए हो या मज़ाक करने। वह हुचहुचा भरे भरे बोला कि पड़ोस के गाँव में एक हादसा हो गया और मेरा पंद्रह हजार वेतन काट लिया गया। मैंने पूरा विवरण लिया और अधिशासी अभियंता के पास पहुँच गया। मैं उनसे ताबड़ तोड़ सवाल कर रहा था। तो यह बताएं कि जर्जर तार है ही क्यों? वह जवाब दे पाते तब तक दूसरा सवाल तो क्या टूटते तार को कोई लाइनमैन हवा में पकड़ सकता है जिससे वह जमीन में गिरे ही ना और हादसा बच जाये। अधिशासी अभियंता झल्ला पड़े। मैंने कहा आपकी झल्लाहट मेरे सवालों का जवाब नहीं है न ही इसका कोई दूर दूर तक कोई संबंध मालूम होता है। पानी पीजिएगा और सोच समझकर उत्तर दीजिये। कुछ देर मुझे गुस्से से घूरने के बाद फोन उठा लिया और थाने फोन लगाने को कहने लगे। मैं निडर होकर आसीन था। मुझे उनके क्रोध का पूरा भास था। एक अधिकारी अपनी शक्ति दिखाने पर उतर आए तो मुझ जैसों की औकात ही क्या।

अधिशासी अभियंता मेरी ओर अचानक अजीब निगाहों से देखने लगे। ऐसा लगने लगा जैसे वह अचानक आश्चर्य से भर गए हों। कुछ छणों में उनके कर्मचारी ने ठाणे फोन लगाकर उन्हे पकड़ा दिया उनहोंने फोन काट दिया और मेज पर फोन रखकर खड़े हो गए। अधिशासी अभियंता कुछ लड़खड़ाती आवाज में मेरा नाम लेकर बोले क्या आप‘अमुक’ हो? मैंने जवाब बिना दिये उनका कार्यालय छोड़ दिया। अगले दिन ऑफिस खुलते ही मैं उनके साथ उनकी बहुनी खराब करने उनके कार्यालय में प्रवेश कर गया। उन्होंने मुझे बैठ जाने का इशारा किया और बोले कल का जवाब पेंडिंग है। मैंने भी पूछ दिया ‘अमुक’ जी मेरा कि आपका? वह हंस कर बोले कहिए क्या मदद करें। मैंने तीन चार अखबारों की प्रतियाँ पेश कर दीं जिनमें लाइन मैन पर हुए अत्याचार को मैंने लिखा था और अधिशासी अभियंता के रवैये का खुलकर उल्लेख था।

देखते ही देखते चारों ओर उनके फोन जाने लगे। आनन फानन में लाइनमैन का वेतन बन गया। संयोग वश मेरी लाइट फिर बिगड़ी तो फिर वह चौथे दिन ही बनाने आया। अधिशासी अभियंता अब मुझे शक्ल से पहचानते थे। उन्होंने मेरा नंबर अपने मोबाइल में फीड कर लिया था। कुछ ही समय में अन्य कई सरकारी विभाग के अधिकारी मेरे मित्र से बन गए। कई बार अधिकारियों के साथ देशहित की खूब चर्चाएं होती। उनके साथ चाय पानी होता और मैं जनहित के मुद्दे बताकर चला आता। अधिकारी भी मुझे मानने लगे और देश हित के कामों को करने के बाद वह कभी कभार मेरे घर आकर पूरी जानकारी दे जाते।

मुझे जनहित के कामों में कोई भय न था। कई बार मुझे थाने में बंद कराने की धमकी दी गयी तो मैंने कह दिया ठीक है छूट कर आऊँगा तब फिर अपने काम में लग जाऊंगा। कई बार पूछा गया कि आप किसी को बताते क्यों नहीं कि आप अखबारों में लिखते हो। मेरा सीधा जवाब होता कि आम आदमी बनकर जनहित की बात क्या गुनाह है। अधिकारी मेरी ईमानदारी के कायल हो गए। मैंने कभी किसी अधिकारी से कोई स्वार्थ की बात कभी नहीं की। एक दो माह बाद वहीं शादी वाले फिर आ गए। उस समय न मुझे न किसी प्रेस कार्ड की भूख थी न पैसे की मैंने अन्य लोगों की तरह अपने वाहन पर प्रेस भी लिखवाना उचित नहीं समझा। सारे समाचार पत्र के कार्यालय मुझसे मुफ्त कार्य करवाकर शोषण का सुख पा रहे थे पर मुझे तो अपनी कर्तव्य निष्ठा दिखती थी। मैं जब अपनी खबरों को प्रमुखता से छपा देखता या उनकी सराहना सुनता तो ऐसा लगता जैसे सारी पूंजी और असली प्रेस कार्ड यहीं तो है। कोई कार्यालय बंधकर कार्य करने हेतु आमंत्रित करता तो मुझे यह अपनी स्वतन्त्रता में खलल लगता। निःसन्देह लोगों की मदद करना और पाजिटिव रेपोर्टिंग ही मेरा कर्म था। मेरे साथी पत्रकार मुझसे जलने लगे थे वह नकारात्मक लिखने और खिलाफ लिखने वाली धार को तेज मानते थे पर मैंने उनके द्वारा निस्तेज घोषित शैली को अपनाया वह भी स्वभावतः। मैंने हमेशा सकारात्मक और लोगों के लिए निष्पक्षता के साथ पक्ष में लिखा। प्रतिदिन समाचार पत्रों के कार्यालयों में जाता लिखता और वापस हो आता। एक एक समाचार पत्र में दो दो तीन तीन समाचार हो जाते। सारे ही प्रमुखता से छपते थे।

पर शायद मेरे अंदर कहीं न कहीं अहंकार घर कर गया था और वहीं अहंकार ही पूरी घटना की जड़ मालूम होता है। आज एक माह बाद अच्छे दिन शुरू होते ही वहीं शादी वाले फिर आ गए। शादी वाले मेरे बारे में बहुत अधिक जानना नहीं चाहते थे। उन्हें मेरी शिक्षा और डिग्रियाँ ठीक लग रही थीं। मेरे घर वाले मेरी पत्रकारिता और विचारों के खिलाफ थे। उनकी स्वयं की अपेक्षाएँ मुझसे थीं जो लाजमी थीं। मेरी शादी आखिर बिना मर्जी के फाइनल ही कर दी गई। मैंने घर में समाज सेवा की इच्छा जाहिर की तो माँ रो पड़ी। पिताजी को ऐसा लगा कि जीवन साथी का चुनाव मैं खुद करना चाहता हूँ। लड़की जॉब में थी वह भी अध्यापिका। सरकारी नौकरी के लाले पड़े थे। वैसे भी मेरे घरवालों को मेरा भविष्य दिशाहीन और संघर्ष पूर्ण दिख रहा था।

घरवालों का कहना था समाज सेवा वही कर सकता है जिसमें कमाने धमाने की दम हो तुम तो निठल्ले हो निठल्ले। पैसे से ही समाज सेवा हो सकती है। मेरे घरवाले पाश्चात्य विद्वान पाल एच॰ डगलस की भांति धन को ही सब कुछ मान रहे थे ऐसा मेरा मानना था। मैं न चाहते हुए भी विद्रोह पर उतारू था। दिखाई की तारीख स्थान सब पक्का हो गया। मुझे न कोई सुनने वाला था न समझने वाला और तो और शादी की हर बात मुझसे ही छिपाई जाने लगी। हर सदस्य मेरी चिंता करके यह रिश्ता मुझ पर थोप देना चाहता था। मेरी चिंता थी पर मेरी भावनाओं की न चिंता न कद्र।

मेरे पिता ने निश्चित तारीख पर अचानक तैयार हो जाने का फरमान जारी कर दिया और मैं सकते में आ गया। मैं चौक गया। मुझे संदेह था कि आज दिखाई होगी। मैंने स्थिति को भाँपते हुए तैयार होने से मना कर दिया। मेरे पिता जी ह्रदय रोग से परेशान रहने के कारण बात - बात पर क्रोधित हो उठते। आज मेरे अचानक मना करने पर वह सीना पकड़ कर बैठ गए वह कह रहे थे कि मैं किसी को मुंह दिखाने के लायक न रहा। पूरा घर परेशान हो उठा। मैं काँप उठा और उनकी हर बात मानने को तैयार हो गया। मैंने एक दांव खेला और अपनी प्रिय भाभी को साथ ले जाने की इच्छा जाहिर कर दी। मेरे पिता आखिर तो मेरे भी बाप थे न उन्होंने तुरंत इसे खारिज कर दिया। मैं लड़की देखने चल दिया। यह एक ऐसी दिखाई थी जिसमें एक दूसरे को समझने का कोई मौका न था। स्थिति ऐसी कि तुम मेरा मुंह देख लो मैं तुम्हारा। यह कार्य फोटो देखकर भी किया जा सकता था पर यहाँ तो रिश्ता थोपा जा रहा था। दिखाई स्थल पर गर्मजोशी से मेरा स्वागत हुआ। मुझे अपेंडिक्स था हर समय जी मिचलाता रहता। कुछ खा लिया तो समझो उल्टी को दावत दे दिया। शादी के विरोध में शायद इसीलिए इस ब्रम्हास्त्र को नहीं अपना पाया। भोजन न करने का उद्देश्य मैं बीमारी के साथ साथ इधर भी जोड़ सकता था पर इसे मानता कोई नहीं।

सात दिन से भूंखा लंघा ऊपर से दुबला पतला शरीर। मैं लड़की के सामने बैठाल दिया गया। न वो कुछ कहने भर न मैं। कहने को किसी ने बोलने को रोका न था पर कुछ बोल चाल न हो सके इसका पूरा वातावरण तैयार था। मर्यादाओं के पहरों ने शब्द शब्द पर प्रतिबंध लगा दिया था। लड़की काफी सभ्य सुशील और योग्य थी। मैं उसके सामने तुच्छ प्राणी था। लड़की की माँ ने मुझे अपने हाथों से कुछ खिलाना चाहा तो उल्टी के भय से मैं खा न सका मेरे घर के लोग भी कुछ खा पी नहीं रहे थे। मुझे उस महान देवी की माँ का अपमान महसूस हुआ। उसने जैसे ही मुझे अगली बार कुछ खाने का निवेदन किया मैंने झट दो टुकड़े उठा लिए एक अपने मुंह में रख लिया और एक उस देवी की मान की ओर बढ़ा दिया। महान देवी ने मेरी तरफ आशा भरी निगाहों से अजीब भाव से मुस्करा दिया फिर अचानक गंभीर हो उठी। मुझे बहुत विचित्र भाव का झेंप लगा। मैंने अपने व्यवहार को तुरंत नियंत्रित कर लिया।

एक अध्यापक बनने के लिए उसने काफी मेहनत की थी। आपकी शारीरिक भाषा, चेहरे के हाव भाव, और बोल चाल आपकी योग्यता की पहली झलक दे ही देता है। वह मुझसे कई गुना योग्य थी। मुझसे हर क्षेत्र में आगे थी। साथ ही वह भारत भविष्यों की गुरु थी इसलिए अति महान और पूज्य भी। कुछ ही समय में मुझे कुछ अधिकारियों के फोन आ गए पर चाह कर भी मैं संकोच वश वहाँ पर उनसे बात न कर पाया। थोड़ी देर बाद फोन न उठाने पर उन अधिकारियों के मुझे संदेश आ गए वह तुरंत बात करने की इच्छा जता रहे थे। मैं सोच रहा था यहाँ बात की तो बड़ी बदनामी होगी ये लोग अगर पूछ उठे तुम हो क्या तो क्या बताऊंगा समाज सेवक हूँ या फिर बिना पहचान और बिन पैसे का पत्रकार।

किसी भी पद के लिए योग्यता पूर्व निर्धारित होती है आप वहाँ अपने मन की डिग्री नहीं लगा सकते जबकि प्राप्त डिग्रियों में कितने भी कुशल क्यों न हों। कई जनहित के मुद्दे पेंडिंग थे सो मेरा मन भी अधीर हो उठा। वैसे भी दिखाई का बहुत मतलब था ही नहीं मेरे लिए। मैं उठा और पिता की ओर देख कर कहा कि क्या अब मुझे अनुमति है, वो हाँ या ना कर सके इससे पहले ही मैं चल दिया। लड़की की भाभी ने कहा भैया अभी जाना मत प्लीज। मैंने हाँ में सिर हिलाया और वहाँ से खिसक आया। दोनों पक्ष आपस में बातों में मशगूल थे। कुछ समय बाद मुझे पिता जी का फोन आया कहाँ हो? मेरा उत्तर था घर। कुछ समय बाद सब घर आ गए। घर में खुशी का माहौल था। मेरे पिता जी को मेरी मनः स्थिति पे दया आ गयी। पुत्र मोह नैसर्गिक है। पुत्र के सुख दुख की कल्पना पिता की मानवीय अभिव्रत्ति का एक अभिन्न अंग है। उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा दिक्कत क्या है। मैं अब सामान्य रहने का दिखावा करता था। पर न मालूम कैसे मेरे पिता ने मुझे असामान्य पाया। मैंने कहा अब हो ही क्या सकता है। पिता जी बोले लड़की पसंद नहीं। मेरा सीधा उत्तर था लड़कियां कोई खराब नहीं होती और फिर वह तो बहुत श्रेष्ठ है। पिता जी थोड़ा सा डांटने के अंदाज में बोले जितना पूछूं उतना बताओ।

मैंने बताया लड़की में कोई कमी नहीं है,वास्तव में यह मेरा सौभाग्य होगा कि उस देवी से मेरा ब्याह हो। वह मुझसे कहीं अधिक श्रेष्ठ है पर मैं उसकी सहमति जानना चाहता हूँ। पिताजी ने मेरी ओर देखकर कहा तुम क्या हो मैं आज तक समझ न पाया। लड़की वालों का फोन आया छिदन की तारीख पक्की कर ली जाये, तो पिताजी ने लड़की की सहमति के बारे में पूछ दिया। उधर से जवाब आया की लड़की की पसंद या ना पसंद होती ही नहीं। यह लड़के वालों पर निर्भर होता है। मैं समाज के इस मुखौटे पे तिलमिला उठा इधर से बोल उठा कि वाह यह कैसा समाज। मैं ऐसी पाबंदी का विरोधी हूँ। पिताजी फोन पर थे इधर से मैं बोलने लगा अतः वह डिस्टर्ब से होने लगे और कोई उचित उत्तर न दे सके। हड़बड़ाहट में लड़की का नंबर मेरे लिए मांग बैठे फिर फोन काट दिया। पिताजी बोले मैं अपराधी हूँ जो तुम्हारी शादी के चक्कर में पड़
गया।

जब जब उधर से फोन आता पिता जी खुश्क होते चले जाते। उन्होंने जिद पकड़ ली लड़की की सीधे लड़के से बात ही करा दो मैं कुछ नहीं जानता मेरे तरफ से हाँ है। आखिरकार लड़की का फोन आया मैं एक सामूहिक कार्यक्रम में गया था। फोन पर जैसे तैसे समझ में आ पाया कि उसी देवी का फोन है। मैंने बाद को बात होगी कहकर फोन काट दिया। मैं घर पर आ गया और लगभग तीस मिनट बीते होंगे मैंने काल बैक कर दी। फोन लगाते ही बात चीत शुरू हुई। आपने फोन काट क्यों दिया था मेरा उत्तर था उस समय कई लोग थे और मैं विवश था क्षमा करें। क्या आप व्यस्त तो नहीं उधर से सीधा उत्तर था नहीं कहिए। मैंने प्रश्न दाग दिया आप स्वयं शादी से संतुष्ट हैं तो उत्तर था बिल्कुल। मेरा पहला वाक्य तो ठीक था पर फिर तो जैसे दिमाग पर कलयुग सवार हो गया। मैंने यह तक कह डाला कि अगर जबर्दस्ती शादी की जा रही हो तो बताएं मैं एस॰ पी॰ से कहकर आपके मन मर्जी की जगह शादी करवा दूँ या फिर अगर मैं न पसंद होऊँ तो भी कह डालिए मैं अपने इधर से मना कर दूँ आपका कहीं से नाम न आएगा।

वह बोली अगर आपको कोई दिक्कत हो तो अभी बता दीजिये कृपा करके अन्यथा बाद को कुछ सुधार न होगा। बेशक मेरी आत्मा व मन साफ थे पर मैं वाकई विचित्र हो चला था। लड़की तपाक से फिर बोल पड़ी आप मुझे खूब पसंद हो और मेरे माता- पिता और भाई मेरे हित में हैं शत्रु नहीं। वह लगातार कह रही थी वैसे मुझे एसपी की मदद की कोई जरूरत नहीं पर भविष्य में हुई तो जरूर बताऊँगी वैसे अब आपका फैसला क्या है कह डालिये। मैंने पूछा मतलब। वह बोली मतलब यही क्या मैं पसंद हूँ। मेरा उत्तर था देखिये आपको तो कोई अभागा ही नापसंद करेगा। वह बहुत भावुक होकर बोली वैसे आपकी एक बात बहुत कष्ट पहुंचा रही है। यह सुनते ही मैं चौंक सा पड़ा। मुंह से निकाल गया कि ऐसा क्या अपराध हो गया। बड़ी सौम्यता से उसने मन की पीड़ा कह डाली। देखो ! किसी लड़की की दिखाई में पसंद या नापसंद की बात कहना और बात है लेकिन उसे देखते ही भाग लेना यह कुछ खल सा गया।

उस वक्त मुझ पर क्या गुजरी होगी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। उसकी बात का कोई उत्तर मेरे पास न था। वह कुछ रुककर फिर बोली आप बुरा मत मानिएगा और अपना फैसला घर में सुना दीजिएगा मुझ पर बात करने का दबाव था सो बात कर ली। अब प्लीज ऐसा कोई दबाव न बनाइएगा। मेरे मुंह से जी के अलावा कोई शब्द न निकाल सका। मैं अंजाने में हुए अपराध की पीड़ा में जल उठा। वह कह रही थी मैं सुन रहा था तो फिर आप जल्दी से अपने घर में अपना फैसला सुना दीजिएगा क्योंकि अभी आपके पिता जी से बात होगी और मामला पेंडिंग न करना। आपको यह भी बता दूँ मैं अन्य लड़कियों जैसी नहीं हूँ इसलिए मुझे शादी से पहले बात करना या उसके लिए बाध्य करना मेरी इच्छा के विरुद्ध होगा आशा है आप मेरी भावनाओं को समझेंगे बाय।

मैं सन्न गन्न रह गया। मैं अंजाने में हुए अपराध की पीड़ा में जल उठा। उसकी बात के आधे घंटे बाद पिताजी के पास फोन आ गया। मैं अपराधी की भांति पश्चाताप के आँसू बहा रहा था। मन ही मन सोच रहा था यह कैसी स्वतन्त्रता की इच्छा थी। यह कैसी समाज सेवा जो किसी का इतना दिल दुखा दिया। किसी पर दोष थोप भी दूँ फिर भी नैतिक जिम्मेदार तो मैं ही रहूँगा। सबसे बड़ी बात है खुद की आत्मा को शांत कैसे करूँ। मैं जानता हूँ मेरा उद्देश्य गलत न था पर यह कहने से कुछ काम तो नहीं चलता। फिर लड़की की स्वीकृति जानना अपराध तो न था।

यह सौ फीसद सच था कि मैं शादी करना तो नहीं चाहता था पर जब थोप ही दी गई तो मना भी कहाँ किया। माँ बाप के सामने मैं उससे हाँ या ना पूछ भी तो न सकता था। फिर भी लड़की नहीं महान देवी के दिल दुखाने का अपराध तो हुआ ही अंजाने में ही सही। उसके आधे घंटे बाद पिता जी को फोन आ गया। पिता जी को मैंने यह नहीं बताया था कि मेरे बात हो चुकी है। पिता जी ने अबकी बार कडक होकर कह दिया लड़की का नंबर देकर बात करावा दो न। लड़की वालों ने सोचा देखो ये लोग शादी न करने का बहाना ढूंढ रहे हैं। बात करवा दी फिर भी यह सब नाटक। शाम का समय था मौसम ठंढा हो चला था। मैं उदास बैठा था। पिता जी कार्यालय से घर आ चुके थे। सब लोग बात चीत में मशगूल हो गए। अचानक पिताजी का फोन बाजा। मैंने देखा तो खुश हो गया कि लड़की के घर से फोन है पिताजी मेरे पूर्ण सहमति से प्रसन्न होंगे। पर जैसे ही उन्होंने पूछा कहाँ का है मैंने हंसकर कहा लड़की वालों की तरफ से। यह सुनते ही पिताजी खुश होने के बजाय दुखी हो गए। फोन पर बात शुरू हुई। पिताजी कह रहे थे ठीक है फिर मेरी तरफ देखकर बोले क्या फैसला है मैंने उमंग में कहा अब बदलाव हो भी तो नहीं हो सकता सब ठीक है। पिताजी गंभीर थे वह बोले बदलाव क्यों नहीं हो सकता शादी तुम्हें करनी है और आव देखा न ताव बोले रिश्ता लड़के को पसंद नहीं।

मेरे ह्रदय में अचानक बहुत तीव्र पीड़ा हुई। अरे! यह क्या हो गया? जब मैं कहता था शादी करनी किसे तब कोई न समझा पर आज जब मेरे लिए यह शब्द कांटे समान थे तो वहीं प्रश्न मेरे सामने था। तब मेरे बात महत्वहीन थी जब जरूरत थी पर आज अनावश्यक इतना महत्व वाह रे समय। जब ना थी मेरी तब तब सब हाँ कर रहे थे और जब हाँ हुई तो सब न करने लगे। मामला कनफ्यूजन का था। “बनी बात बिगरन चहत” वाली बात कोई कर ही क्या सकता था। मैंने चुपके से लड़की के घर फोन लगाया और अपराधों की माफी मांगने लगा। वह जले भुने बैठे थे धन्यवाद धन्यवाद कहकर हड़काया भी और फोन भी काट दिया। आज भी उस देवी समान लड़की के वो शब्द मुझे श्राप की तरह कानों में चुभते हैं। शायद उसकी क्षमा मुझे श्राप से भी भारी है। मैं आत्मा का निरपराध पाप भोग रहा हूँ उस पश्चाताप की अग्नि में जलकर। ठीक ही तो कहा गया है “तुलसी क्षमा श्राप ते भारी, अपने करम जाई अपकारी”।

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रामजी मिश्र 'मित्र' (स्वतंत्र पत्रकार एवं आर टी आई कार्यकर्ता) ग्राम व पोस्ट- ब्रम्हावली ब्लाक-महोली जिला-सीतापुर पिन-261141
योग्यता- हिंदी में एम् ए, B.Ed.,उर्दू में अदीब व माहिर, आई टी।)

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: रामजी मिश्र 'मित्र' की कहानी - आत्मा का निरपराध पाप
रामजी मिश्र 'मित्र' की कहानी - आत्मा का निरपराध पाप
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