शबनम शर्मा की ताज़ा कविताएँ

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सोच प्रार्थना का मैदान, बच्चे और हम सब, प्रथम चरण प्रार्थना की समाप्ति पर प्रधानाचार्य ने अपने विचार साँझे किए, ‘‘भारतीय हैं हम, ‘‘ये ...

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सोच

प्रार्थना का मैदान,

बच्चे और हम सब,

प्रथम चरण प्रार्थना

की समाप्ति पर

प्रधानाचार्य ने

अपने विचार साँझे किए,

‘‘भारतीय हैं हम,

‘‘ये वैलनटाइन डे’’

हमारा मातृ-पिता दिवस

भी तो हो सकता है,

कौन कर सकता,

धरती पर वो कुरबानियाँ,

जो माँ करती अपने हाथ जलाकर,

गीले बिस्तर में सो कर

और रतजगे कर।

हमारी जरूरतों की पूर्ति हेतु

भूल जाता पिता अपना पुराना

जूता बदलना, बदलवा लेता

दर्जी से फटा कमीज का काॅलर,

करता घंटों ‘ओवरटाइम’

थके माँदे शरीर में भरता मुस्कान

व लौटता हाथ में लिफाफे लिये

बच्चों की खुशियों खातिर।’’

फिर कहा, ‘‘सब बच्चे करबद्ध

प्रार्थना करें अपने माता-पिता के लिये,

आराधना करें और कहें हम आपको

सर्वाधिक प्यार करते हैं।’’

बच्चे खड़े हुए, आँखें खुलते ही

माहौल कुछ और था

अश्रुधारा बह रही थी,

कुछ अश्रु रोक रहे थे।

आश्चर्य, जो लाये थे कुछ

अरमानों के फूल देने हेतु,

सोच बदल, वो माँ-बाप

के लिये रख रहे थे।

हम सब भावुक थे

नतमस्तक थे इस सोच

के समक्ष।

कितने शक्तिशाली हैं यह

शब्द जो नई सोच से

बदल देते हैं हमारा जीवन।

चाहिये हमें, चाहिये हमें

इक ऐसा इन्सान, जो

नकारात्मक को इतने

प्यार से सकारात्मक

कर दे।

 

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लोग

दूरदर्शन की सुर्खियाँ बनते

कुछ लोग,

अपनी छोटी-छोटी शिकायतें

करते कुछ लोग

बाँस-फूंस, मिट्टी, गोबर

से बना अपना बसेरा

दिखाते कुछ लोग,

पीठ-पेट चिपका हुआ,

हाथों के छाले,

तन को चिथड़ों से छुपाते

कुछ लोग

बिखरे बाल, मैले कपड़े

नंगे बदन, गन्दे

नाले में मिट्टी से बच्चे

नहलाते कुछ लोग,

शायद मालूम नहीं

ऐश में रहने वालों को,

इनके पसीने, खून, भूख

की ईंटों से ही बनते

हैं इनके महल

जिन्हें तुच्छ कहते हैं

कुछ लोग।

 

मायका

घर से कोसों दूर

ब्याह दी गई थी,

बूढ़ी हो गई थी अब,

पर कभी-कभार हवा के

झोंके की तरह,

इसे याद आती थी पीहर

के हर इंसान की

वो छप्पर के पास वाला

स्कूल का मैदान

और हाँ सबसे ज्यादा शाम

को उस मैदान में सखियों

संग खेलना।

खो जाती, ख्यालों में, फिर

इसका ध्यान जाता अपने

झुर्रियों वाले चेहरे,

और कंपकंपाते हाथों पर।

छलक ही जाते हर बार

2 बूंद आँसू, उसकी आँखों से,

आज सिर पर ओड़नी लिये

क्यूँ संवार रही वो घर,

ढूंढ रही अपने पुराने

बक्सों की चाबियाँ।

बनवा रही दाल, देसी घी

का हलवा।

कभी मुस्काती, कभी पोंछ रही

अपने चेहरे से आँसू।

कि बहू पूछ ही बैठी,

‘‘अम्मा आज कुछ अलग

सी क्यूँ लग रही?’’

हिलते बदन को समेटती,

चेहरे पर मुस्कुराहट लाये

बोली, ‘‘बहू, आज 40 बरस

बाद मेरा मायका आ रहा है?

नंदू आया था बताने,

भाई का छुटकवा निकलेगा

मेरे गाँव से, कह रहा था

बुआ को देखना है?’’

 

कागज़

शायद नहीं जानता

ये अबोध बालक,

इस कागज़ के

टुकड़े की कीमत,

तभी मरोड़ रहा,

फाड़ रहा और हँस रहा।

हो जायेगा बड़ा,

सिखायेगा यही कागज

इसे सबक,

जब सामने आयेगी

पोथी, पैसा और

हर खाना कागज़ में

लिपटा,

बन जायेगा कागज़ ही

उसकी कसौटी

कभी रिजल्ट, तो कभी

परीक्षा, कभी प्रश्न तो

कभी उत्तर, कभी चिट्ठी

तो कभी जवाब।

कभी रसाले तो कभी

अखबार,

कभी हँसी, तो कभी दुलार।

नहीं होगा उसका

रिश्ता इससे खत्म,

लाठी टेकने तक,

अरे नहीं मरणासन्न पर

भी ले आएगा कोई

कागज़,

पकड़ कर लगवा देगा

अंगूठा, खींच लेगा

तस्वीर कागज़ पर

और फिर बहा दिया

जायेगा इक पुड़िया

बनाकर गंगा के

पानी में नाव की

तरह इस कागज़ पर।

 

 

जन्मदिन

साल भर इन्तजार अपने

जन्मदिन का,

पहनाता है भगवान इक

माला हमारे गले में

वर्षों के मनके पिरोकर,

दिखती नहीं, पर पहने

रहते हम,

हर वर्ष निकाल लेता वो

अपना इक मनका,

वक्त के साथ ये मनके

कम होते चलते व

रह जाता सिर्फ वह कच्चा

मैला सा धागा,

जो अब उठा नहीं पाता

हमारे जीवन का बोझ,

छूते, महसूस करते हम

इसकी मौजूदगी, पर

पता है ये अब सह न

पायेगा हमारा बोझ, टूट

जायेगा व ले जायेगा संग

साँसों की डोर।

 

 

वो पल

वो पल जब तुम आये,

मेरा हाथ माँगने, पर

निकाल दिये गये घर से,

ये कहकर, ‘‘तुम्हारी जाति

हमसे मेल नहीं खाती।’’

टूट गई मैं

ब्याह दी गई अपनी जाति में,

जहाँ सदैव कुंठित रही,

एक भी साँस आज़ाद न था,

ज़लालत की हदें पार थी,

प्यार का मतलब सिर्फ

स्वार्थ ही था।

बर्बाद हो गया मेरा सम्पूर्ण

अस्तित्व। मैं सिर्फ बनी

उनके घर का इक पायदान।

याद आता मुझे सदैव

तुम्हारा वो बाँहों में समेटना,

छोटी-छोटी बात पर मुझे संभालना,

कहाँ थी जाति, सिर्फ मन और

आप। क्यूँ बंधते हैं हम

इन ढकोसलों में

मन की जगह।

 

 

पीड़ा

कितनी कठिन वो पीड़ा

सहनी, जो शब्द नहीं

रखती,

सिर्फ और सिर्फ

आप महसूस कर सकते,

जो तुम्हें अपनों ने

दी हो,

कुछ शब्दों से,

कुछ इशारों से,

टूट जाता है सब

बिखर जाता है सब

रह जाती सिर्फ़ ये

देह जो कुछ कर नहीं सकती,

तड़पता है दिन,

रोती है रात

पर क्या फ़र्क पड़ता है

किसी को?

पीड़ा सिर्फ उसकी है

जो सहन करते हैं

उनकी नहीं जो

देते हैं।

 

 

मेरी तस्वीर

मैंने अपने हाल में,

अपने बचपन, जवानी

और आज की तस्वीर

लगा दी,

आया वो बरसों बाद,

बैठा, निहारने लगा, कमरे में

लगी तस्वीरों को,

धीमे-धीमे कदमों से

चलता रहा, बुदबुदाता,

मुस्कराता, खुद से खुद

को कुछ कहता, फिर से

बैठ गया सोफे पर,

पूछ ही बैठी, ‘‘क्या सोच रहे हो?’’

चाय की चुसकी लेते,

मेरी ओर देखते मुस्कराया,

बोला, ‘‘ये तुम्हारी सब

तस्वीरें कुछ बोल रही,

वही सोच रहा था,

बस क्या कहूँ, बस इतना ही काफी

कि तुम बच्चा भी प्यारा थी,

लड़की भी और आज इक माँ और

बीवी भी सुन्दर हो।’’

 

 

रास्ता

होश संभलते ही

शुरु हो गया चलना

ज़िन्दगी के रास्ते की ओर,

बिन परवाह किये, गरम हवाओं की,

सरद थपेड़ों की, बर्फीले टीलों की,

गरम रेगिस्तानों की, मैं बढ़ती ही गई,

कई बार कोशिश थी ओलों की

जो बरसे मेरे सिर पर,

पर मैं न रुकी, क्यूंकि मुझे

पकड़नी थी मंजिल की वो हवा

जो सुकून देती ताउम्र,

आ गया मंजर, धीमी पड़ गई

दौड़ की गति,

लगा उलटी गिनती शुरु हो गई थी

कभी भावनाएँ, किसी भी मौसम से

न डरी,

अब मन सिर्फ सोच भर से कांपने लगा,

क्यूंकि दौड़ में शामिल हो गये थे

कई ज्वालामुखी, जिन्हें पार करना

मेरे बस में न था।

 

 

अंधेरों में तैरते शब्द

कुछ अंधेरों में

जुगनुओं से तैरते

शब्द पकड़ने हैं मुझे,

पानी में उड़ती

तितलियों के परों

पर लिखनी है

कहानियाँ,

पर क्या करूँ,

बन्द हो गई है

मेरी ज़िन्दगी के

कमरे की सारी

खिड़कियाँ,

कभी-कभी आती

है रोशनी की

इक किरन,

चीर कर,

खिड़कियों के मोटे

परदों के बीच से,

तब तक सिर्फ

बुनती हूँ अपना

साँसों का स्वेटर

और ठिठुर जाती

है ज़िन्दगी,

कुछ आगे सोचते-सोचते।

 

 

जख्म

देख सकते हो तुम

मेरे बदन पर

उसके शब्दों के दिये

जख्म,

जो सिर्फ रिसते हैं,

रोते हैं, चीखते हैं,

पर उन्हें सहलाने वाला

कोई नहीं,

हो जाती है तड़प,

रो पड़ते हैं जख्म,

कभी दब जाते हैं

वक्त की तह तले

तो कभी छेड़ दिये

जाते हैं किसी ही

अपने से,

मिलती है सलाह,

इन्हें छिपाने की,

शब्दों को पोंछने की

पर ऐसा नहीं होता,

झाँकते हैं ये,

वक्त के झरोखों से

और ढाँप दिये जाते हैं

आँसुओं की चादर से

जो भीगती तो है

पर कभी सुखाई

नहीं जाती।

 

 

अंधेरा

तुम क्यों बार-बार

अंधेरे में, मेरे दिल

के इक कोने से

आवाज़ देते हो मुझे,

दौड़ती हूँ चहुँ ओर,

क्योंकि गूंजती है

तुम्हारी आवाज़ मेरे

मन के मानस पटल पर

तलाशती है सुकून,

याद दिलाती है

तुम्हारा गर्माहट भरा

बाहुपाश,

जो देता था मेरी

निश्चल देह को सुकून

मेरी आवाज़ को शब्द,

मेरी आँखों को नींद

और मेरी साँसों को जीवन।

पर इक अलग सी तड़प,

तुम्हें सच में छूने की,

तुम संग साँसों को साँझा करने की

सहलाने की तुम्हारे बाल,

कई किस्से, वो अधूरे से,

अधूरी ही रह जाती है

और मैं फिर से ढूंढने

लगती हूँ तुम्हें, उस

आवाज़ की दिशा में

दबे पाँव, दबी आवाज़ और

आत्महीन शरीर से,

जहाँ तुम कभी नहीं आओगे,

फिर भी लौट आती हूँ

पत्थरों के संसार में,

घसीटती हुई ये

निश्चल देह।

 

 

दादा का डंडा

कोने में रखा वो दादा का डंडा,

भगा देता चोरों का डर,

घर में घुसते कुत्तों का डर,

और ढूंढ लेता मुन्ने की बाॅल,

दादा की लुढ़की दवा की शीशी,

गिरे हुए कुछ नोट,

पाँव से धक्का खाकर गई

अन्दर चप्पल।

चल देता ये साथ ही

जब दादा जाते घर से बाहर,

टक-टक की आवाज़ में,

संदेश देता जाने का,

और कुछ देर बाद घर वापस, आने का,

लिवा लाता दादा संग, बच्चों की

छुटपुट चीज़ें, दादा का सामान।

बन जाता ये दादा का भाई

पर ले जाता क्यूँ उन्हें, उमर के

उस छोर पर, जहाँ से कभी कोई

लौट कर नहीं आता।

बस ताकता ही रह जाता बेबस,

लाचार सा, कोने में खड़ा

दादा को जाते हुए देख

उसके बिना,

सब उसे दादा की निशानी बताते,

दादा का डंडा कहते, पर कोई

न पोंछता उसके आँसू, जो

उसके मुट्ठे पर गिरते, जहाँ से

पकड़ दादा से घुमाने ले

जाते थे।

 

 

अलमारी की रद्दी

मन में आया,

पुराने कागज़, किताबें

फेंक दूँ,

अलमारी की कुंडी खोल

छाँटने लगी,

लग गया तितर-बितर ढेर,

कुछ पीले कागज़,

कुछ मुड़े-तुड़े और कुछ

किताबों से झांकते।

झाँक रहा था वो सूखा

गुलाब भी काॅलेज की

पुरानी डायरी में,

हाथ में लिये पुरानी

यादों की बिसात,

मेरे जन्म दिन पर दिया था तुमने

कंपकंपाते हाथों से

इक छोटी सी चिट्ठी लिखकर,

मुझे भी इसे रखने की

जगह न मिल रही थी

आज तुम कहाँ हो?

पर तुम्हारी याद ने

इस गुलाब संग हिला दी

मेरी देह,

सुनो, नहीं फेंका जा रहा मुझसे

आज भी ये कूड़े के संग,

रख रही हूँ अब नई डायरी में

जो जीवन के बोझ संग सदैव

ताकता रहे मेरी मजबूरियाँ।

 

 शबनम शर्मा -  माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र.

shabnamsharma2006@yahoo.co.in

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आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र 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रचनाकार: शबनम शर्मा की ताज़ा कविताएँ
शबनम शर्मा की ताज़ा कविताएँ
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