प्रकाश चन्द्र पारख की पुस्तक - Crusader or Conspirator? by P C Parakh का हिन्दी अनुवाद अनुवादक - दिनेश माली भाग 1 // भाग 2 // भाग 3 // ...
प्रकाश चन्द्र पारख की पुस्तक - Crusader or Conspirator? by P C Parakh का हिन्दी अनुवाद
अनुवादक - दिनेश माली
भाग 1 // भाग 2 // भाग 3 // भाग 4 //
9. उद्योग विभाग : घूस की होम डिलीवरी
अगस्त 1993 में मैंने उद्योग विभाग के कमिश्नर का चार्ज लिया। वैश्वीकरण एवं भूमंडलीकरण के दौर में भारत की अर्थनीति भी बदलने लगी थी। भारत में कई राज्यों में निवेश को बढ़ावा देने के लिए प्रयास किए जाने लगे। परंतु आंध्रप्रदेश में राजनैतिक स्तर पर ऐसा कोई कदम नहीँ उठाया गया था। अभी भी विभाग में लाइसेंस और परमिट वाली पुरानी मानसिकता बनी हुई थी। आधुनिक दृष्टिकोण का विकास नहीँ हो पा रहा था।
एक दिन शांता बायोटेक (वर्तमान में एनोफी एसए की अनुषंगी कंपनी) के संस्थापक श्री वर प्रसाद रेड्डी मुझसे मिलने आए थे। वह अपने किसी प्रोजेक्ट के लिए अल्कोहल का लाइसेंस लेना चाहते थे।इंडस्ट्रियल प्रमोशन ऑफिसर को इसके लिए उनके औद्योगिक इकाई की जाँच करनी होती है और अल्कोहल की आवश्यकता के कारणों पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट देनी होती थी। इस कार्य के लिए उस ऑफिसर ने उनकी इकाई की जाँच तो की, मगर अपनी रिपोर्ट जनरल मैनेजर को सबमिट नहीं की। वह कंपनी से रिश्वत की मांग कर रहा था। जब मैंने जाँच पड़ताल की तो पता चला कि उस अधिकारी ने न सिर्फ अपनी रिपोर्ट समय पर प्रस्तुत नहीं की बल्कि अपने स्थानांतरण पर अपने साथ उनकी फाइल लेकर चला गया। मैंने श्री रेड्डी जी कहा, ‘‘मेरी एक सलाह है आपसे। उस अधिकारी को एंटी-करप्शन ब्यूरो द्वारा ट्रैप करवाने में हमारी मदद करें।’’
श्री रेड्डी ने अपना सिर हिलाते हुए उत्तर दिया, ‘‘सर, यह काम हम नहीँ कर सकते हैं। किसी अधिकारी को फँसवाने में हम हमारी ऊर्जा और समय खर्च नहीँ कर सकते हैं। फिर हमें तो इन लोगों से रोज रोज काम पड़ता है।’’
श्री रेड्डी की औपचारिक शिकायत के अभाव में और उसे पकड़वाने की अनिच्छा के कारण उस अधिकारी पर लगने वाले भ्रष्टाचार जैसा गंभीर कदाचार केवल ‘काम की उपेक्षा’ में बदल कर रह गया। उसे एक छोटी-सी सजा ही हुई। भ्रष्ट अधिकारी के खिलाफ शिकायत करने से लोग आखिरकार क्यों डरते हैं? क्या उनका शिकायत नहीँ करना अप्रत्यक्ष भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीँ देता हैं? क्या वे इसके अंग नहीँ हैं? थोड़ी-सी अनुपयुक्त सहानुभूति, उत्पीड़न का डर, और लम्बी-जटिल न्यायिक प्रक्रियाओं में समय की बरबादी - इन सवालों का सटीक उत्तर है कि कोई भी उद्योगपति सरकारी तंत्र से पंगा लेने के बजाए रिश्वत देकर अपना काम करवाने में ज्यादा बुद्धिमानी समझता है। भले ही, भ्रष्टाचार से पीड़ित क्यों न हो, मगर शिकायत नहीँ करेगा।
एक ऐसा ही दूसरा उदाहरण भी लें। मेडक जिले के कलेक्टर ने एक औद्योगिक इकाई को पेट्रोलियम उत्पाद रखने के लिए अनापत्ति पत्र अर्थात् एनओसी जारी करने में मेरी उनको फोन पर हिदायत देने के बावजूद भी अनावश्यक विलंब किया। उसने फाइल पर हस्ताक्षर तभी किए, जब उसे अपना हिस्सा मिल गया। यह जग जाहिर है कि कोई भी बिजनेसमेन प्रतिरोध दिखाने की बजाए घूस देना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि उनकी निगाहों में रिश्वत में दी गई धनराशि की तुलना में रेगुलेटरी क्लियरेन्स पाने में लग रहे समय की कीमत कई गुणा ज्यादा होती है। भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारी राजनेताओं से आनन-फानन में संबंध बनाने में माहिर होते हैं।उनका राजनैतिक संरक्षण के कारण उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं होती है, इसलिए वे लगातार इन गतिविधियों में लगे रहते हैं। ऐसे ही एक अधिकारी थे मेडक के कलेक्टर।
जब मैं कमिश्नर नियुक्त हुआ था तब मुख्यमंत्री थे श्री विजय भास्कर रेड्डी। एक साल के भीतर ही चुनाव होने वाले थे, इसलिए उद्योग विभाग के लिए उनके पास समय नहीँ था। चुनाव हुए। कांग्रेस का सत्ता से सफाया हो गया और दिसम्बर 1994 में भी श्री एन.टी. रामाराव फिर से मुख्यमंत्री बने। जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ कि वे नेता कम, अभिनेता ज्यादा थे। उनका ज्यादा ध्यान कल्याणकारी योजनाओं की तरफ था, उद्योग और वाणिज्य विभाग उनकी प्राथमिकताओं में नहीं था।
कुछ समय बाद तेलगु देशम पार्टी में आंतरिक कलह शुरू हुआ। सत्ता की खींचा-तानी होने लगी। सितम्बर 1995 में श्री चंद्रबाबू नायडु आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री बने। श्री नायडु रामाराव के कैबिनेट में वित्त और राजस्व मंत्री हुआ करते थे। उन्हें अर्थशास्त्र के मूल तत्त्व मालूम थे। वे जानते थे कि कल्याणकारी योजनाओं के लिए पैसों की जरूरत होती हैं और पैसे पेड़ पर नहीँ उगते। पैसों को पैदा करने के लिए उद्योग धंधे खोलने तथा उनके निवेश में वृद्धि करना आवश्यक है। उन्होंने सरकार की पुरानी कार्यशैली ही बदल दी और नई कार्यशैली का प्रतिपादन किया। वह एक बहुत परिश्रमी व्यक्ति थे और हमेशा सीखने के लिए तत्पर रहते थे। साथ ही साथ, अपनी आलोचना भी सहज भाव से लेते थे। दूरदर्शिता की भी उनमें कमी नहीँ थी। उनके सक्रिय नेतृत्व में राजनैतिक और नौकरशाही स्तर पर ऐसे ठोस कदम उठाए गए कि देखते-देखते आंध्रप्रदेश पूरी तरह से ‘इन्वेस्टर फ्रेंडली’ बन गया।
कोई भी नया प्रोजेक्ट लगाने में पूर्व उद्योगपतियों के लिए सबसे बड़ी बाधा थी, बहुत सारी सरकारी विभागों से स्वीकृति लेना। सभी विभागों के अपने अपने फार्मेट थे, जिनमें उन्हें सूचना देनी होती थी। इन फार्मेटों में बहुत सारी जानकारियाँ की पुनरावृत्ति होती थी। इन स्वीकृतियों के लिए उद्योगपतियों को हर विभाग में जाकर रिश्वत देनी पड़ती थी।
इसलिए यह तय किया गया कि एक कॉमन आवेदन-पत्र तैयार किया जाए, जिसमें सभी विभागों द्वारा चाही गई जानकारियों का समावेश हो। यह आवेदन पत्र उद्योग आयुक्त के कार्यालय में जमा कराने का प्रावधान रखा गया, जो कि नोडल डिपार्टमेन्ट का काम करेगा और सभी विभागों से क्लियरेंस प्राप्त करेगा। शुरू-शुरू में यद्यपि बहुत सारे विभागों ने भरपूर विरोध किया, फिर भी येन-केन प्रकारेण एक कॉमन फॉर्मेट तैयार कर लिया गया। यह भी तय किया गया कि हर विभाग चार हफ्ते के अंदर आयुक्त कार्यालय में अपना क्लियरेंस भेज दें। अनेक विभाग इस प्रक्रिया के पक्ष में नहीं थे,क्योंकि इस वजह से वे उद्योगपतियों के साथ सीधे संपर्क में नहीँ आ पाएंगे। ऐसे में रिश्वत कैसे मिल पाएगी?
इन विभागों ने आवेदन पत्र में गलतियाँ निकालकर चार हफ्ते की समय सीमा समाप्त होने के पहले उसमें संशोधन करने के लिए लौटाना शुरू कर दिया। आयुक्त-कार्यालय को अतिरिक्त सूचना पाने तथा स्पष्टीकरण के लिए उद्योगपतियों से लिखा-पढ़ी करने का अतिरिक्त भार बढ़ गया। सिंगल विंडो की जगह एक नई विंडो बन गई।
इससे क्लियरेंस मिलने में और ज्यादा देरी होने लगी।समस्याओं का समाधान होने की बजाय उद्योगपतियों के लिए एक अलग आयुक्त रखने से समस्याएँ बढ़ती गई-एक अतिरिक्त कार्यभार के तौर पर ही सही। फिर से ब्रेन स्टोर्मिंग शुरू की गई। औद्योगिक अनुमोदन के लिए और ज्यादा प्रभावी तरीका खोजा गया। मुख्य सचिव की अध्यक्षता में स्टेट इनवेस्टमेंट प्रमोशन कमेटी बनाई गई। यह कमेटी हर महीने संबंधित सचिवों के साथ बैठक करके लंबित केसों की समीक्षा करती थी। इससे विलंब घटाने में काफी फर्क पड़ा।
श्री नायडु ने अपनी अध्यक्षता में एक स्टेट इन्वेस्टमेंट प्रमोशन बोर्ड का भी गठन किया। इस बोर्ड की बैठक जी हर महीने होती थी और उसमें उन मामलों पर निर्णय लिया जाता था जिनमें विभागों के बीच कोई मतभेद होता था। इन दो शुरूआती कदमों से क्लियरेंस लेने में लगने वाले समय में काफी कमी आई और नीचे स्तर पर होने वाला भ्रष्टाचार भी कम हो गया। धीरे-धीरे उद्योग विभाग की छवि ‘कंट्रोलर’ से बदलकर ‘फेसिलिटेटर’ में बदल गई और अब निवेश को आगे बढ़ाने के लिए उद्योग आयुक्त मुख्य बिन्दु बन गए।
नवम्बर 1996 में मैं प्रिंसिपल सेक्रेटरी (इंडस्ट्रीज) बना। तब तक श्री नायडु की छवि एक मेहनती और दूरदर्शी सीईओ के रूप में उभरकर सामने आ गई थी। श्री तरुण दास के नेतृत्व में कानफ़ेडरेशन ऑफ इंडियन इंस्ट्रीज (सीआईआई) ने आंध्रप्रदेश में निवेश बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।सीआईआई के सौजन्य से दो सफल इनवेस्टमेंट प्रमोशन टूर दक्षिण पूर्व एशिया और अमेरिका में आयोजित किए गए, जिससे आंध्रप्रदेश को खासकर हैदराबाद को मुख्य निवेश स्थान बनाने में काफी सफलता मिली।
यहीं से आंध्रप्रदेश में उद्योग धंधों की स्थापना की नींव पड़ी। आंध्रप्रदेश इंडस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर कार्पोरेशन के अध्यक्ष श्री आर. चन्द्रशेखर और मुख्यमंत्री कार्यालय के ज्वांइट सेक्रेटरी श्री रणदीप सूडान कुशल और मेहनती अधिकारी थे। उन्होंने इन टूरों के सफल आयोजन तथा संचालन में बहुत योगदान दिया। बहुत बड़े-बड़े प्रोजेक्ट जैसे हाइटेक सिटी, हैदराबाद इंटरनेशनल एयरपोर्ट, आंध्रप्रदेश के प्राइवेट पोर्ट, आऊटर रिंगरोड तथा इंडियन बिजनेस स्कूल आदि श्री नायडु के प्रयासों का ही फल था।
उद्योग विभाग का प्रिंसिपल सेक्रेटरी होने के नाते मैं आंध्रप्रदेश खनिज विकास निगम का चेयरमैन भी था। इस निगम की मुख्य गतिविधि आंध्रप्रदेश में बेराइट का खनन तथा निर्यात करना था। हमने निर्यात करने के लिए निविदा जारी की। इस निविदा के अनुसार माइन स्टॉक यार्ड से बेराइट उठाकर गंतव्य स्थान तक पहुँचाने की सारी जिम्मेदारियाँ ठेकेदारों की थी। निविदा में उस साल बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धा थी, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेराइट की कीमतें आसमान छू रही थी। विगत वर्षों की तुलना में बहुत ज्यादा कीमत ऑफर की गई थी। उच्चतम बोली (एच-1 बिडर)कांग्रेस पार्टी का एक नेता था और दूसरे स्थान पर (एच-2 बिडर)तेलगू देशम पार्टी के पूर्व सांसद। मुख्यमंत्री के ऊपर टेंडर केंसल करने का दबाव था।
इस विषय पर विचार-विमर्श करने के लिए मुख्यमंत्री ने एक बैठक बुलाई, जिसमें एच-2 बिडर भी मौजूद थे। उन्होंने दलील दी कि एच-1 ग्रेट इतनी अधिक है कि उस पर काम किया ही नहीं जा सकता। ऐसा कहा जा रहा है कि वे ठेके का काम नहीँ कर पाएगा और निगम का सारा निर्यात बाजार बर्बाद हो जाएगा,जिससे राज्य को काफी क्षति पहुँचेगी। मैंने कहा,‘‘सर, भले विगत वर्षों की तुलना में निविदा में कुछ ज्यादा कीमत क्वोट की गई है, मगर इस रेट पर भी काम किया जा सकता है। ठेकेदार को भले ही पिछले साल की तुलना में कुछ कम फायदा होगा। अगर मान यह लिया जाए कि इस रेट पर ठेकेदार काम नहीँ कर पाएंगे तो भी निगम के हितों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त सिक्योरिटी डिपोजिट जमा है। एच-1 के फेल होने की अवस्था में हम शार्ट टेंडर नोटिस निकाल सकते हैं।दुबारा नया ठेकेदार नियुक्त कर सकते है। मेरे विचार से इस तर्क पर कि एच-1 काम नहीँ कर पाएगा, उसका टेंडर केंसिल करना उचित नहीं होगा।’’ मुख्यमंत्री को मेरी बात पसंद नहीं आई।
उनके चेहरे पर अंसतोष की लकीरें साफ झलक रही थी। मगर यह उनका बड़प्पन था कि उन्होंने मेरे ऊपर कोई दबाव नहीँ डाला। वह बात सही है कि एच-1 बिडर की क्वोट की हुई रेट बहुत ज्यादा थी इसलिए वह निर्धारित सही शेड्यूल के अनुसार बेराइट खनिज नहीँ उठा पाया किन्तु बाकी सभी बिडर एच-1 रेट पर स्टॉक उठाने के लिए तैयार हो गए। उस साल निगम को अठारह करोड़ का फायदा हुआ। यह निगम के शुरू होने से लेकर उस समय तक का सबसे ज्यादा फायदा था।
इन 4 सालों में मैंने मुख्यमंत्री श्री नायडू के साथ बहुत नजदीकी से काम किया। बहुत सारे महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। केवल बेराइट के निर्यात वाला एक ऐसा प्रकरण था, जिसमें वह मुझसे थोड़ा-बहुत नाराज हुए थे, मगर उस केस में भी मुझे अपने जजमेन्ट के खिलाफ काम करने के लिए दबाव नहीँ डाला। समय बदल चुका था। परवर्ती वर्ष बिलकुल विपरीत थे। आंध्रप्रदेश के अधिकारियों को अपने जजमेन्ट के खिलाफ निर्णय लेने के लिए बाध्य किया जा रहा था, इस वजह से वे काफी परेशान रहने लगे थे। मुख्यमंत्री श्री नायडु अधिकारियों के बार-बार इधर-उधर स्थानांतरण करने में विश्वास नहीँ करते थे। उनके समय बहुत सारे अधिकारी कई सालों तक अपनी-अपनी जगह पर रहे। मैं स्वयं उद्योग विभाग में छ: साल की लम्बी अवधि तक रहा। पहले कमिश्नर के रूप में, फिर प्रिंसिपल सेक्रेटरी के रूप में। इस दौरान मैंने यह देखा कि मीडिया अधिकतर समय सरकारी संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को ही उजागर करता है।उनका ध्यान प्राइवेट सेक्टर के करप्शन की तरफ नहीँ जाता था। जबकि प्राइवेट सेक्टर में भी उतना ही या उससे भी ज्यादा भ्रष्टाचार व्याप्त है।
उद्योग विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेटरी होने के नाते मैं बांगड ग्रुप की आंध्रप्रदेश पेपर मिल लिमिटेड के बोर्ड का सरकार की तरफ से नामित निदेशक था। सरकार की उसमें 26 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। वह आंध्रप्रदेश की सबसे बड़ी पेपर मिल थी।कंपनी का विस्तार और उसका आधुनिकीकरण शुरू होना था। इस कार्य में काफी कैपिटल इनवेस्टमेंट होना था। बड़े-बड़े आधुनिक संयंत्र उपकरणों की खरीददारी के लिए निविदाएँ आमंत्रित की जा रही थी। उनकी कीमतें विक्रेताओं से पारस्परिक बातचीत करके तय की जा रही थी।
एक शाम बांगड पेपर मिल के वाइस-प्रेसीडेंट (वित्त) श्री सीथारमैया मुझे मिलने मेरे निवास स्थान पर आए। जाते समय उन्होंने एक कैरी बैग टेबल पर छोड़ दिया। इस बैग पर भगवान वेंकटेश्वर की तस्वीर अंकित थी। मैंने सोचा कि उसमें तिरूपति बालाजी का प्रसाद होगा। मैंने बेटी से उसे फ्रीज में रखने के लिए कहा। जैसे ही उसने बैग खोला तो पता चला कि उस बैग में प्रसाद नहीं,रुपयों के बंडल थे। वह सकपकाई निगाहों से मेरी तरफ देखकर बोली,‘‘पापा इसमें तो रुपयों के बंडल रखे हुए हैं।’’ मैं हतप्रभ था।मैंने तुरंत श्री सीथारमैया को फोन लगाया,‘‘आप तुरंत यहाँ आइए और अपना तिरुपति बैग यहाँ से ले जाइए।’’ कुछ ही देर में वो वापस आए और मुझसे माफी मांगी। अपने किए का अफसोस जाहिर किया। यह बात मैं जान सकता हूँ, श्री सीथा रमैया के लिए अपनी कंपनी के उच्चतम अधिकारी की आज्ञा के बिना तो ऐसा कदम कभी नहीँ उठाना संभव नहीं था।
दूसरे ही दिन, मैंने कंपनी के चेयरमैन श्री एल.एम. बांगड को पत्र लिखा कि वे इस घटना की बोर्ड के इंडिपेंडेट डायरेक्टरों की कमेटी द्वारा जाँच करवाएँ। (परिशिष्ट 9-1)
अगली बोर्ड मीटिंग में मैंने श्री सीथारमैया को कंपनी की सेवाओं से हटाने का प्रस्ताव रखा। नौकरी से निकलाने के विरुद्ध श्री सीथारमैया ने आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दर्ज की। उच्च न्यायालय की एकल पीठ ने घुमावदार तर्कों द्वारा एक प्राइवेट कंपनी को पब्लिक अथॉरिटी घोषित कर उनकी बहाली के आदेश दे दिए। जिस व्यक्ति पर एक सरकारी अधिकारी को रिश्वत देने की कोशिश करने के लिए मुकदमा चलना चाहिए था, उसकी बहाली कर दी गई।
गनीमत है कि कंपनी की एक अपील पर दो जजो की बेंच ने एकल जज के इस आदेश को निरस्त कर दिया। भ्रष्टाचार पर केवल सरकार का एकाधिकार नहीँ है, वरन् वह हमारे समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त हैं ।
10॰ पब्लिक इंटरप्राइजेज डिपार्टमेन्ट : राजनैतिक दबाव
जुलाई 2000 में मेरी पोस्टिंग पब्लिक इंटरप्राइजेज विभाग में हो गई। आंध्रप्रदेश के ज्यादातर सरकारी उपक्रम घाटे में चल रहे थे। आंध्रप्रदेश सरकार के वित्तीय रिस्ट्रक्चरिंग का एक प्रस्ताव वर्ल्ड बैंक के विचाराधीन था। वर्ल्ड बैंक ने वित्तीय सहायता देने के लिए एक शर्त रखी कि घाटे में चल रही सरकारी कंपनियों निजीकरण कराया जाए। इस हेतु एक क्रियान्वयन सचिवालय बनाया गया, जिसे यू.के. इंटरनेशनल डेवलपमेंट डिपार्टमेन्ट की तरफ से मदद मिल रही थी। मैं लोक उपक्रम विभाग का सेक्रेटरी होने के नाते इस सचिवालय का एक्स-ऑफिसियो चेयरमैन था। एक बड़ी सरकारी कंपनी निजाम शुगर लिमिटेड के निजीकरण का काम चल रहा था। सन् 1934 में हैदराबाद के निजाम द्वारा इस कंपनी को खोला गया था और उस समय वह एशिया की सबसे बड़ी शुगर मिल मानी जाती थी। इस कंपनी के अंतर्गत राज्य के तीन अंचलों में फैली छह शुगर मिल और तीन डिस्टलरिज आती थी। यह निर्णय लिया गया कि कंपनी की सारी इकाइयों को एक-एककर खुली नीलामी के माध्यम से बेच दिया जाए। दो शुगर मिलों तथा एक डिस्टलरी को सफलतापूर्वक बेच दिया गया। उन्हें बेचने पर हमें सलाहकार द्वारा निर्धारित कीमतों से ज्यादा धनराशि प्राप्त हुई। जिन लोगों ने ये मिलें खरीदी थी, उनके पास पर्याप्त पैसा भी था और शुगर मिल का अनुभव भी। अधिकतम प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने के लिए मिलों की नीलामी अलग-अलग फेजों में की गई थी।
तीन यूनिटों के निजीकरण होने के बाद शक्कर नगर के मुख्य यूनिट के विज्ञापन प्रक्रिया शुरू की गई। विज्ञापन अभी जारी भी नहीं हुआ था कि एक प्राइवेट कंपनी मैसर्स गोल्डस्टोन एक्सपोर्ट लिमिटेड ने शुगर मिनिस्टर को अनापेक्षित प्रस्ताव दिया। शुगर मिनिस्टर इस प्रस्ताव को जांच के लिए मेरे पास भेज दिया।
सरकार ने वित्त मंत्री के नेतृत्व में एक कैबिनेट समिति का गठन किया। निजीकरण के प्रस्तावों की जाँच के अनुमोदन के लिए जहाँ-जहाँ पर ये यूनिटें अवस्थित थीं, वहाँ-वहाँ के मंत्रियों को समिति की बैठकों में विशेष तौर पर आमंत्रित किया जाता था। मैंने मेसर्स गोल्डस्टोन एक्सपोर्ट लिमिटेड के अनापेक्षित प्रस्ताव की जाँच की। जाँच करने के उपरांत मैंने समिति को सलाह दी, "चूँकि पहले तो निविदा प्रक्रिया जारी है, इसलिए गोल्डस्टोन के अनपेक्षित प्रस्ताव को स्वीकृत करना अनुचित होगा। दूसरा, गोल्डस्टोन को शुगर इंडस्ट्री का कोई अनुभव नहीँ है। गोल्डस्टोन तो कंपनी की बहाली के बारे बहाने थोड़ी-सी पूंजी लगाने का वायदा करके निजाम शुगर की करोड़ों रुपए की संपत्ति हथियाना चाहता है।’’ क्रियान्वयन सचिवालय के सलाहकार मेरे विचारों से पूरी तरह सहमत थे। मुझे उम्मीद थी कि समिति इस प्रस्ताव को जरुर अस्वीकार कर देगी। मगर ऐसा नहीँ हुआ। चेयरमैन ने गोल्डस्टोन को अपनी बात रखने के लिए आमंत्रित किया। उसने प्रेजेंटेशन दिया, तब भी मैंने उनके ऑफर को खारिज करने के बारे में अपने विचार दोहराए। मेरी बात फिर भी नहीँ सुनी गई। समिति ने गोल्डस्टोन को अपने ऑफर में वृद्धि करने की सलाह दी। समिति की छह-सात बार बैठकें हुई। हर बैठक में गोल्डस्टोन अपने प्रस्ताव में कुछ छोटा-मोटा सुधार कर नया प्रेजेंटेशन देता और मैंने हर बैठक में उनके हर ऑफर को खारिज करने की सलाह दी। अंत में, समिति ने इस मामले में अंतिम निर्णय के लिए मुख्यमंत्री की सलाह लेने का सुझाव दिया। इसलिए मुख्यमंत्री श्री चंद्र बाबू नायडु के साथ एक बैठक रखी गई। वित्तमंत्री ने मुख्यमंत्री के सामने गोल्डस्टोन के प्रस्ताव का संक्षिप्त ब्यौरा रखा और समिति द्वारा इस ऑफर पर सहमत होने के विचार भी रखे गए, मैंने अपनी पुरानी बात ही दोहराई और अनापेक्षित बिड को रद्द करने तथा खुली निविदा आमंत्रित करने के सुझाव दिए। दोनों तरफ की दलीलें सुनने के बाद मुख्यमंत्री ने कहा, ‘‘मेरे हिसाब से अगर कैबिनेट कमेटी के सारे मंत्री और संबंधित जिलों के मंत्री इस ऑफर के पक्ष में हैं तो इसे स्वीकार किया जा सकता है।’’ मैं नीरव था, मगर मुझे श्री नायडु से ऐसी उम्मीद नहीँ थी।
सारे मंत्रियों के जाने के बाद मैंने उनसे कहा, ‘‘इस ऑफर को स्वीकार करना ठीक नहीँ होगा। मेरे हिसाब से हमें खुली निविदा के प्रचलित और पारदर्शी नियमों का अनुपालन करना चाहिए।’’
मुख्यमंत्री मेरी बात से सहमत थे। मगर उन पर राजनैतिक दबाव उन्हें मेरी सही सिफारिशों के खिलाफ ले जा रहा था। मुख्यमंत्री ने मुझे कहा, ‘‘आप तो जानते ही हो, श्री चंद्रशेखर राव ने अभी-अभी तेलुगु देशम पार्टी छोड़कर एक नई पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति बनाई है। राज्य में शीघ्र ही पंचायत चुनाव होने वाले हैं।ऐसे समय में मेरे लिए सभी मंत्रियों की इच्छा के विरुद्ध कोई निर्णय लेना संभव नहीं है।’’
यह बात सुनकर मैं स्तब्ध था। श्री नायडु से कभी भी मुझे ऐसी उम्मीद नहीँ थी। इस प्रस्ताव के पक्ष में मेरी आत्मा गवाही नहीँ दे रही थी
ऑफिस पहुँचते ही तुरंत मैंने मुख्य-सचिव को एक नोट लिखा कि शायद कैबिनेट कमेटी को मुझ पर विश्वास नहीँ है। इस अवस्था में मेरे लिए यही उचित रहेगा कि मैं यह कार्य छोड़ दूँ, ताकि सरकार अपने किसी एक अधिकारी को सचिव नियुक्त कर सके,जिस पर कमेटी को पूर्ण विश्वास हो (परिशिष्ट 10-1)। इसके साथ-साथ मैं भी दो महीने के अर्जित अवकाश पर चला गया।
अभी भी मैं नहीँ समझ पाया हूँ कि किस तरह गोल्डस्टोन ने मंत्रियों के इतने बड़े समूह को ऐसा बेहूदा प्रस्ताव मानने के लिए राजी कर दिया?
आखिरकार निजाम शुगर लिमिटेड का निजीकरण एक बहुत बड़ा राजनैतिक मुद्दा बन गया। निजीकरण की प्रक्रिया की जाँच के लिए विधायकों की एक समिति बनाई गई। उस समिति ने मेसर्स गोल्ड स्टोन के अनापेक्षित ऑफर को मानने के लिए कैबिनेट कमेटी की कड़ी भर्त्सना की(परिशिष्ट 10-2)। बात तो सही ही थी, अंधेरे में आखिरकार कब तक तीर चलाए जाते? कभी न कभी तो प्रकाश होना ही था। खुली निविदा के पारदर्शी नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर गैर पारंपरिक तरीकों को अपनाने से वह मामला आखिरकार अनावश्यक रूप से कानूनी दाँव पेंच में उलझकर रह गया। दस साल गुजर गए। यह मसला हाईकोर्ट में हैं। राज्य सरकार अभी भी परेशान है।
11॰मेरी पहली कोयला मंत्री सुश्री ममता बनर्जी : सादगी के दूसरी तरफ
मुझे अट्ठावन साल पूरे होने जा रहे थे, मात्र दो साल बचे थे नौकरी पूरी होने में। इन दो सालों में क्या कुछ हो जाएगा, यह किसी त्रिकालदर्शी भविष्यवक्ता के सिवाय और कौन जान सकता है? क्या इन दो सालों की नौकरी पिछली चौंतीस साल की नौकरी को टक्कर दे देगी या मुझे ऐसे जाल में फँसा देगी, जिसकी मैंने कभी सपने में कल्पना नहीँ की होगी? मैं सत्य के रास्ते पर लगातार चलता जा रहा था, इधर-उधर दाएं-बाएं देखे बिना। हो सकता है मेरी जीवनी आने वाली पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त करेगी कि कितने भी दबाव झेलने के बावजूद भी मनुष्य को अपनी आत्मा की आवाज सुनकर अपने पथ से विचलित नहीँ होना चाहिए।
दूसरे बैचमेटों के साथ मेरा नाम भारत सरकार में सचिव की पोस्ट के लिए पैनल में चयनित हुआ, मैं जानता था कि सरकार में सीनियर पोस्टों के लिए लॉबी की जरूरत होती है।राज्य सरकार में मैं मुख्य सचिव की रैंक में आ गया था और विशेष मुख्य सचिव और मुख्य भू-प्रशासन आयुक्त के पद पर काम कर रहा था। यह राज्य सरकार में दूसरी उच्चतम पोस्ट थी और साधारण मुख्य भू प्रशासन आयुक्त ही अगले मुख्य सचिव बनते हैं।मैं अपने आप में पूर्णतया संतुष्ट था। यह भी मैं जानता था कि मेरे इनफ्लेक्सिबल नेचर के कारण से मेरे लिए राज्य-सरकार में मुख्य सचिव का काम करना थोड़ा मुश्किल होगा। वहां थोड़ा-बहुत लचीलापन जरूरी है।मैं आंध्रप्रदेश के मुख्य भू-प्रशासन आयुक्त के पद से सेवानिवृत्त होने पर खुश रहता। फिर भी कुछ दोस्तों की सलाह पर मैंने दिसम्बर 2005 में सेंट्रल डेपुटेशन के लिए स्वीकृति दे दी।
फरवरी 2004 में मुझे कोल-सेक्रेटरी पद पर नियुक्ति के आदेश प्राप्त हुए। यह मंत्रालय दूसरे मंत्रालयों की तुलना में ज्यादा लुभावना माना जाता है। मार्च 2004 के दूसरे सप्ताह में मैंने सचिव का पदभार ग्रहण किया। उस समय कोयला मंत्रालय में सुश्री ममता बनर्जी कैबिनेट कोयला मंत्री और बीजेपी के श्री प्रहलाद सिंह राज्य मंत्री थे। जिस समय मैंने पदभार ग्रहण किया, ममता बनर्जी कोलकाता में थी। मैं सीआईएल के कार्यवाहक चेयरमैन शशि कुमार के साथ उनके घर गया। उनका घर देखकर मैं अचंभित था,कोलकाता के निम्न मध्यम वर्गीय परिवेश में एक छोटा-सा घर था। लकड़ी के पलंग पर रुई के गद्दे बिछे हुए थे और उसके पास में रखी हुई थी प्लास्टिक की दो कुर्सियाँ।
राजनेताओं के जीवन में मैंने इतनी सादगी पहले कभी नहीं देखी। सुश्री ममता बनर्जी मुस्कराते हुए उस कमरे में आई और हमारा अभिवादन स्वीकार किया। औपचारिक बातचीत करने के बाद मैंने चेयरमैन की नियुक्ति के विषय में उनसे विचार विमर्श किया। मैंने उन्हें बताया,“पूर्व चेयरमैन श्री एन के शर्मा नौ महीने से निलंबित है और चेयरमैन की पोस्ट इतने लंबे समय तक खाली रखना कंपनी के हित में नहीं है।”
उन्होंने मेरी सारी बातें ध्यानपूर्वक सुनी, मगर जवाब में कुछ नहीँ कहा। बस, यही थी मेरी उनसे पहली और आखिरी मुलाकात। अप्रैल के आरंभ में संसदीय चुनाव की घोषणा हो गई। वह कोलकाता में चुनाव प्रचार में व्यस्त हो गई और दिल्ली नहीं आई। चुनाव में उनकी पार्टी बुरी तरह हार गई,टीएमसी से केवल वह अकेली ही जीती।एनडीए की भी चुनाव में हार हुई और ममता बनर्जी और कोयला मंत्री नहीँ रही। जब वह दिल्ली आई तो मैंने उनके फेयरवेल के लिए संदेश भेजा। मगर उन्होंने मना कर दिया।
उनकी व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था, और उनसे मुलाकात होने के बाद उसमें किसी प्रकार का संदेह नहीँ रहा। किन्तु वह स्वयं अपनी पार्टी के हितार्थ सरकारी तंत्र का दुरुपयोग करने से अपने आपको दूर नहीं रख पाई।अपनी पार्टी के पचास कार्यकर्त्ताओं को नार्दन र्इस्ट कोलफील्डस में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी देने के लिए उन्होंने कार्यकारी चेयरमैन श्री शशि कुमार पर दबाव डाला। बिना किसी विज्ञापन, बिना किसी टेस्ट, बिना किसी इंटरव्यू और बिना किसी प्रणाली का पालन करते हुए उन्हें नौकरी दे दी गई।
वह लोग केवल हाजरी लगाने ऑफिस आते थे और बाकी समय पार्टी का काम करते थे।
सीआईएल में ऐसे पहले से ही सरप्लस श्रमिक है । एक तरफ स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के माध्यम से उन्हें उन्हें कम किया जा रहा था और दूसरी तरफ मंत्री लोक प्रबंधन पर दबाव डालकर नई-नई भर्ती करवा रहे थे।मुझे बाद में बताया गया कि पहले वाले कोयला-मंत्री भी ऐसा ही करते थे।
और भी कई मामलों में उन्होंने चेयरमैन पर दबाव डाला।वे चाहती थी कि कोल इंडिया कोलकाता में एक सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल बनाए। कोलकाता म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन की जमीन पर से झुग्गी–झोंपड़ियाँ हटाने के लिए 25 लाख रुपये का अनुदान देने के लिए सीआईएल चेयरमैन पर दबाव डाला गया। कितनी असंगत बात थी! सीआईएल के वर्कफोर्स का 0.25 प्रतिशत ही कोलकाता में नहीं रहता है। पहली बात तो सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल बनाना और चलाना कोल इंडिया का काम नहीं है और अगर ऐसा हॉस्पिटल बनाना भी था तो फिर झारखंड में बनाना चाहिए था, जहां सीआईएल के 50% से भी ज्यादा श्रमिक काम करते हैं। कई एनजीओ को डोनेशन देने के लिए चेयरमैन पर दबाव डाला गया। हद तो तब हो गई,जब उन्होंने अपनी पार्टी के साधारण कार्यकर्त्ताओं को नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन में स्वतंत्र निदेशक बनाने के लिए तत्कालीन सचिव को अपने निर्देश दिए।
चुनाव के बाद जब सुश्री बनर्जी कोयला मंत्री के पद से हटी,तब सीआईएल प्रबंधन ने तृणमूल कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्त्ताओं को नौकरी से टर्मिनेट कर दिया गया और फिर कोलकाता में सुपर स्पेशियलिटी हॉस्पिटल बनाने का प्रस्ताव भी निरस्त कर दिया गया। उनके नामित व्यक्ति को नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन में डायरेक्टर बनाने का प्रपोजल स्वत: ही रद्द हो गया।
राज्यमंत्री भी कुछ कम नहीँ थे। उनके निजी सहायक अरजेंट फाइलें ले जाने के बहाने हवाई यात्रा से हर हफ्ते नागपुर जा रहे थे।राज्यमंत्री के निजी सहायक हवाई यात्रा के लिए इन टाइटल नहीं होते हैं। मैंने दो बार बिना कोई सवाल किए उनके हवाई यात्रा का अनुमोदन कर दिया। तीसरी बार फिर जब हवाई यात्रा की अनुमति के लिए फाइल मेरे पास आई तो मैंने उस पर एक टिप्पणी लिखी,“अर्जेंट फाइलों की लिस्ट सबमिट की जाए।”
सुश्री बनर्जी ने राज्य मंत्री को कोई काम ही नहीं दिया था तो फाइलें होने का सवाल ही नहीं उठता था। राज्यमंत्री यह देख कर आग बबूला हो गए। उन्होंने लिखा कि सचिव को ऐसे सवाल करने की आवश्यकता नहीं है।मुझे उनको समझाना पड़ा कि सचिव द्वारा अनुमोदन का प्रावधान इसलिए रखा गया है ताकि सरकारी पैसों का दुरुपयोग न हो।
मैंने अपनी पहली ही मीटिंग में कोयला मंत्रालय की सभी कंपनियों के चेयरमैन को यह हिदायत दी कि मंत्री के ऑफिस से यदि कोई भी ऐसा निर्देश आता हो जो कंपनी के हित में नहीं है तो बेहिचक इस संदर्भ में वे मुझे सीधे लिख सकते हैं।
इस बारे में जब मैंने अपने मित्र सचिवों से बात की तो उनका विचार था कि मंत्री और चेयरमैन के बीच में हमें पडने की आवश्यकता नहीं है।चेयरमैन खुद ही ऐसे मामले सुलझाने में सक्षम होते हैं। इन छोटी-छोटी चीजों की वजह से तुम्हारे और मंत्री के बीच खाई नहीँ पड़नी चाहिए। ’’
मगर मेरे विचार अलग है,यदि विभाग की इकाइयों के अध्यक्षों पर किसी प्रकार का अनुचित दबाव डाला जाता है तो सचिव का उत्तरदायित्व बनता है कि मंत्री को सही सलाह दें ताकि कंपनियों के अधिकारी बिना किसी दबाव के अपना काम कर पाएँ।
12.मेरे दूसरे कोयला मंत्री श्री शिबू सोरेन: ‘आए राम, गए राम’
पल भर में राजनैतिक चेहरा बदल जाता है। 2004 के आम चुनावों में एनडीए सरकार हार गई और दिल्ली में यूपीए की सरकार बनी। साझा सरकार। मई 2004 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन को कोयला मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री का पदभार दिया गया तथा कांग्रेस के श्री दसारी नारायण को कोयला मंत्रालय में राज्यमंत्री बनाया गया।
श्री सोरेन अपने साथ श्री प्रदीप दीक्षित को ऑफिसर ऑन स्पेशियल ड्यूटी के रूप में लाए। अत्यन्त ही प्रबुद्ध, सुशील एवं सुस्पष्ट इंसान। मगर उन्हें सरकार की कार्य पद्धति का बिलकुल भी ज्ञान नहीँ था। श्री दसारी नारायण के निजी सचिव श्री ए.ए. राव काफी अनुभवी होने के साथ-साथ तेज-तर्रार थे। मेरा यह सब-कुछ बताने का अर्थ वहाँ की पृष्ठभूमि के बारे में आपका ध्यान आकर्षित करना था।
उनके पदभार ग्रहण करने पर मैंने उन्हें कोयला मंत्रालय के कामकाज की जानकारी दी और कुछ ऐसे विषय जिन पर तुरंत कार्रवाई करने की जरूरत थी,उनका ध्यान आकर्षित किया। जैसे - देश में कोयले की भयंकर कमी, सारे पावर प्लांटों में कोयले का क्रिटिकल स्टॉक, नौ महीने से कोल इंडिया में कोई फुलटाइम चेयरमैन की नियुक्ति का न होना इत्यादि-इत्यादि। इसके अलावा, भूमि-अधिग्रहण की समस्याएं, पर्यावरण एवं फॉरेस्ट क्लियरेंस में होने वाली देरी,कॉमर्शियल माइनिंग के लिए कोल-सेक्टरों को खोलना, कोल ब्लॉक आबंटन में पारदर्शिता लाना और कोल मार्केटिंग में माफियाओं की भूमिका खत्म करना आदि राजनैतिक स्तर पर ध्यान देने योग्य मुद्दे थे। लेकिन मुझे आभास हो रहा था कि मंत्रियों में इन मुद्दों की खास अहमियत नहीँ थी। उनकी विशेष अभिरूचि के विषय थे- कोल ब्लॉकों का शीघ्र आबंटन, कोल कंपनी के अधिकारियों का स्थानांतरण, कोल इंडिया में अधिक रोजगार पैदा करना और कोल लिंकेज को अनुमति देना, भले ही, नए लिंकेज के लिए हमारे पास कोयला उपलब्ध न हो।इन मुद्दों पर मेरे विचार मंत्रियों से पूरी तरह अलग थे। कुछ सप्ताह ही बीते होंगे कि श्री सोरेन के खिलाफ किसी पुराने हत्याकांड के सिलसिले में गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया। श्री सोरेन भूमिगत हो गए। आखिरकार उन्होंने 24 जुलाई 2004 को कोयला मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।
13. प्रधानमंत्री के कोयला मंत्रालय का पदभार ग्रहण करना: तीन विशिष्ट सुधार
श्री सोरेन के इस्तीफा देने पर कोयला मंत्रालय का प्रभार श्री मनमोहन सिंह ने अपने हाथों में ले लिया। यही उपयुक्त समय था - कोल सेक्टर में सुधार लाने के लिए। अगस्त 2004 के प्रथम सप्ताह में जब मैं प्रधानमंत्री से ब्रीफिंग के लिए मिला तो मैंने निम्न तीन नीतिगत मुद्दे उनके समक्ष रखे -
1- वणिज्यिक खनन के लिए कोल सेक्टर की खोलना
2- प्रतिस्पर्धात्मक बोली के जरिए कोल-ब्लॉकों का आवंटन करना
3- नॉन-कोर ग्राहकों को ई-नीलामी के जरिए कोयला बेचना
1- वाणिज्यिक खनन के लिए कोल सेक्टर को खोलना
मैंने प्रधानमंत्री को बताया कि केवल कोल इंडिया हमारे देश में कोयले की बढ़ती मांग की आपूर्ति नहीँ कर पाएगा, इसलिए हमारे लिए अत्यावश्यक हो गया है कि इस सेक्टर को भी कॉमर्शियल माइनिंग अर्थात् वाणिज्यिक खनन के लिए जल्दी से जल्दी खोला जाए। निजी क्षेत्र के लिए कोल माइनिंग खोलने हेतु कोल माइन्स नेशनलाइजेशन एमेंडमेंट बिल सन् 2000 से संसद में लंबित पड़ा हुआ है। स्टैडिंग कमेटी द्वारा पहले से ही इस बिल को स्वीकार करने के लिए सिफारिश की हुई है और जितना जल्दी हो सके इस बिल को कानून में बदलने की जरूरत है। मैंने प्रधानमंत्री को कैप्टिव माइनिंग की कुछ पैतृक कमजोरियों के बारे में बताया, जो निम्न है -
1- पहला, हम उन उद्योगों को, जिनका कोल माइनिंग से कोई संबंध नहीँ है और जिनके लिए यह क्षेत्र एकदम नया है और जिनमें दक्षता भी नहीँ हैं। उन्हें जबरदस्ती इस क्षेत्र में निवेश करने के लिए बाध्य कर रहे हैं।
2- दूसरा, बहुत सारे मध्यम आकार के उद्योगों को कैप्टिव ब्लॉक देकर हम छोटी-छोटी खदाने खोलकर इस क्षेत्र के इकोनॉमी ऑफ स्केल और तकनीकी आधुनिकीकरण से होने वाले फायदों से वंचित रख रहे हैं।
3- कैप्टिव खदानों से निकाला गया कोयला कैप्टिव प्रयोग में आ रहा है अथवा नहीँ? इसकी निगरानी रखने के लिए हमारे पास कोई व्यवस्था नहीँ है। बाजार में कोयले के कमी के कारण काला बाजारी बढ़ेगी। परिणामस्वरूप कालाधन और भ्रष्टाचार दोनों बढ़ेंगे।
4- कैप्टिव ब्लॉकों के आवंटन की प्रचलित पद्धति से जिन कंपनियों को कोल-ब्लॉक मिलते है।उनके लिए कोयले की कीमत दूसरे कोयला उपभोक्ताओं के मुकाबले में बहुत कम पड़ती है, इसलिए यह पक्षपात पूर्ण नीति है।
प्रधानमंत्री मेरे सारे तर्कों से सहमत थे, मगर वे जानते थे कि ट्रेड यूनियन और लेफ्ट पार्टी के विरोध के कारण इस विधेयक को कानून में बदलना कठिन होगा। दुर्भाग्य की बात थी जो सरकार घोर राजनैतिक विरोध के बावजूद भी इंडो-यू.एस. न्यूक्लियर डील और रिटेल मार्केट में विदेशी निवेश जैसे मामलों में पीछे नहीं हटी,वह सरकार यह निर्णय नहीं ले सकी,जिसका लेफ्ट पार्टी और ट्रेड यूनियनों को छोड़कर विरोध नहीं था। यह निर्णय हमारे देश के ऊर्जा क्षेत्र के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण था।
अगर 1990 में ही पावर सेक्टर के साथ-साथ कॉमर्शियल माइनिंग भी प्राइवेट सेक्टर के लिए खोल दिया जाता तो आज हमारे देश की रूपरेखा कुछ दूसरी ही होती। हमारे पास कम से कम छह-सात बड़ी-बड़ी निजी कोल माइनिंग कंपनियाँ होती, ठीक वैसा ही जैसा टेलिकॉम सेक्टर में है। हमारे देश को कोयले की कमी का इतना विकत सामना नहीं करना पड़ता और इतनी बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा खर्च नहीँ होती। अगर भारत को अपनी ऊर्जा की मांगों को पूरा करना हैं तो हमारे यहाँ कम से कम छह:-सात ऐसी कंपनियाँ हों, जो हर साल 100 मिलियन टन से ज्यादा कोयला उत्पादन करें, न कि सौ ऐसी कंपनियां जो हर साल एक मिलियन टन से पाँच मिलियन टन कोयला का उत्पादन करें।
2- प्रतिस्पर्धात्मक बोली के जरिए कोल ब्लॉकों का आवंटन -
मेरा प्रधानमंत्री को दूसरा सुझाव यह था कि कोल ब्लॉक आवंटन की प्रचलित पद्धति बदलकर उसमें समानता और पारदर्शिता लाकर प्रतिस्पर्धात्मक बोली के माध्यम से कोल ब्लॉकों का आवंटन किया जाए। इससे आवंटन पद्धति में निष्पक्षता और पारदर्शिता आएगी। प्रधानमंत्री इस सुझाव पर तुरंत सहमत हो गए और मुझे इस संदर्भ में पेपर प्रस्तुत करने को कहा।
3- कोयले की ई-मार्केटिंग
कोल इंडिया में कोल माफियाओं का वर्चस्व है। उनके संरक्षण में कोयले की काला बाजारी भरपूर मात्रा में हो रही थी। इस काला बाजारी को रोकने के लिए मैंने प्रधानमंत्री से इंटरनेट पर आधारित कोयले की ई-मार्केटिंग शुरू करवाने का प्रस्ताव दिया। काश! हम कोल इंडिया के उत्पादन का 25 प्रतिशत ई-मार्केटिंग करवा पाते।
प्रधानमंत्री ने इस विषय पर भी सहमति प्रदान की। वह चाहते थे कि पहले एक कंपनी में प्रयोग के रूप में इसे शुरू किया जाए और अगर उसमें सफलता मिलती है तो इस पद्धति को दूसरी अनुषंगी कंपनियों में लागू किया जा सकता है।भारत में कोयला ऊर्जा का मुख्य स्रोत है और भविष्य में भी रहेगा। इस सेक्टर में बहुत सारी समस्याएँ है जैसे- भूमि-अधिग्रहण, वन एवं पर्यावरण संबंधित मुद्दे, पुनर्स्थापन, श्रमिकों के साथ संबंध, माफियाओं की भूमिका और कानून व्यवस्था में ढीलापन। इस सेक्टर के संचालन में ट्रेड यूनियनों, केन्द्रीय मंत्रालयों, राज्य सरकारों के साथ आपसी समन्वय के लिए बहुत राजनैतिक निवेश की आवश्यकता होती है। किन्तु इस विभाग को राजनैतिक नेतृत्व के रूप में वह स्थान और महत्त्व नहीँ दिया गया, जिसकी इसको जरूरत थी। अधिकतर मंत्रियों ने इस मंत्रालय का उपयोग अपने या अपनी पार्टी के हितों के लिए ही किया है। इस सेक्टर को सुधारने के लिए किसी ने भी दिल से प्रयास नहीँ किया। इसलिए जब प्रधानमंत्री ने इस विभाग का कार्यभार संभाला तो इस क्षेत्र में सुधार लाने के लिए यह एक अत्यंत उपयुक्त अवसर था और मैं उसका पूरा फायदा उठाना चाहता था।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी....)
COMMENTS