कविता अगर अपने युग को बेचैन करके सोचने के लिए बाध्य न कर दे, तो ऐसा पूरा लेखन केवल बौद्धिक कचरा है, और कुछ नहीं। अगर साहित्य दिलों में बेचै...
कविता अगर अपने युग को बेचैन करके सोचने के लिए बाध्य न कर दे, तो ऐसा पूरा लेखन केवल बौद्धिक कचरा है, और कुछ नहीं। अगर साहित्य दिलों में बेचैनी पैदा करे और सोचने-समझने के लिए बाध्य कर दे तभी वह सच्चा साहित्य कहलाता है। यह मेरी अपनी परिभाषा है। इस परिभाषा में बहुत कम लोग फिट हो आते है। कविता को लोगों के दिलों पर राज करने के लिए बाध्य कर देने वाले कवियों में एक बड़ा नाम है साहिर लुध्यानवी का। वे उर्दू के महान शायर थे, लेकिन अपनी सहज-सरल रचनाओं के कारण हिंदी में भी बेहद पसंद किए जाते थे. हम कह सकते हैं कि उन्होंने 'हिन्दुस्तानी' में कविताएँ की। यानी ऐसी भाषा जिसमें हिंदी की मिठास है तो उर्दू की सुवास भी है। यहां मैं उनकी उन रचनाओं की बात करूंगा, जो समाज को चेतनावान बनाती है। उनकी अनेक ग़ज़लों और गीतों का फिल्मों में सार्थक इस्तेमाल किया गया है. उन ग़ज़लों के कारण फिल्में लोकप्रिय हुई। फिल्मों की सिचुएशन के हिसाब से साहिर ने अनेक ग़ज़लें कहीं लेकिन अनेक ग़ज़लें अपने कथ्य के कारण अमर हो गई। 'इज़्ज़त' फिल्म के लिए लिखी गई उनका यह गीत देखे -
क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे
नकली चेहरा सामने आए असली सूरत छुपी रहेजिनके जुल्म से दुखी है जनता , हर बस्ती हर गाँव में
दया-धर्म की बात करे वो बैठ के सजी सभाओं में।
दान का चर्चा घर -घर पहुंचे लूट की दौलत छिपी रहे
नकली चेहरा समने आए असली सूरत छिपी रहे।
पूरा गीत जनवादी चेतना से भरपूर है और समाज के उन चेहरों पर करारा प्रहार करता है जो पाखंड से भरे हुए हैं। साहिर समतामूलक समाज के पक्षधर थे. वे अन्याय और अत्याचार बर्दाश्त नहीं करते थे। भले ही वे अपने जीवन न में छल-प्रपंचों से दुखी भी रहते थे, लेकिन उन्होंने अपने निजी अवसादों की छाया साहित्य में नहीं पड़ने दी। वे सबको यही संदेश देते थे,
न मुँह छुपा के जियो न सर झुका के जियो
गमों का दौर भी आये तो मुस्करा के जियो।
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जिंदगी भीख में नहीं मिलती जिंदगी पढ़कर छीनी जाती है
अपना हक संगदिलज़माने से छीन पाओ तो कोई बात बनेसर झुकाने से कुछ नहीं होगा सर उठाओ तो कोई बात बने
थके उदास हताश लोगों में चेतना का स्वर भरने के लिए साहिर ने अनेक गीत लिखे। उनका एक मशहूर गीत है -
रात के रही थक मत जाना , सुबह की मंज़िल दूर नहीं।
ढलता दिन मजबूर सही, चढ़ता सूरज मजबूर नहीं।
क्रांति का श्रृंगार करती उनकी कविताओं की सूची बड़ी लम्बी है। यहां सबका जिक्र संभव भी नहीं। वे समाज चेतना को जाग्रत करने वाले कवि -शायर थे. आज उनके जैसे चेतनावान कवि कम ही है। जल के खिलाफ जगाने वाली कवितायेँ अब कम ही लिखी जा रही है इसलिए में आज भी साहिर की इन पंक्तियों को याद करना पड़ता है,
ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा।
देश के हालात शायद कभी भी ठीक नहीं रहे. न आज आकर न साहिर के समय भी। तभी तो वे जो कल कहते हैं , वो आज भी सामयिक बनी हुई है,
देश के अदबार की बात करें
अजनबी सरकार की बात करें
अगली दुनिया के फ़साने छोड़कर
इस जहन्नुमज़ार की बात करें
(अदबार - दरिद्रता, जहन्नुमज़ार -नर्क )
सत्ता का चरित्र ही होता है उनके खिलाफ उठाने वाली आवाज़ों का दमन करना। इस प्रवृति पर साहिर ने जो प्रहार किया है, वो आज भी हमारे काम आ रहा है। आज भी इस कविता के सहारे हम लड़ाई लड़ने के लिए खड़े हो सकते है -
दबेगी कब तलक आवाजेआदम हम भी देखें
रुकेंगे कब तलक जज़्बाते -बरहम हम भी देखेंगे
यह गीत उन्होंने उस वक्त लिखा था जब पकिस्तान में लेखकों और पत्रकारों की गिरफ्तारी हुई थी. अपने देश में भी यह सिलसिला समय-समय पर चलता रहता है।
अन्याय के खिलाफ बुलंद आवाज़ का नाम साहिर है। वे साम्प्रदायिक मानसिकता और अलगाव को देख कर भी विचलित रहते थे। हर कवि चाहता है समाज में सभी जाति -धर्म के लोग प्रेम से रहे. प्रेम का, मोहब्बत का पैगाम सच्चा कवि देता है। इसीलिए साहिर कहते हैं,
काबे में रहो या काशी में , नसबत तो उसी की ज़ात से है
तुम राम कहो के रहीम कहो , मतलब तो उसी की बात से है।
वे यह भी समझाते है,
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा,
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा।
अपने इस गीत में वे आगे कहते है -
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया
हमने उसे हिन्दू य मुसलमान बनाया
अल्लाह ने बक्शी थी हमें एक ही धरती ,
हमने कहीं भारत कहीं ईरान बनाया।
साहिर ऐसे कवि थे जो कभी हताश नहीं होते. वे अपनी कविताओं के माध्यम से समाज को जगाने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। साहिर ने किसानों के लिए लिखा, मजदूरों के लिखा, वंचितों के लिए भी खूब लिखा, समाज में जरी शोषण-अन्याय पर कलम चलाई. शोषकों को भी जी भर कर लताड़ा। अपनी एक रचना में वे आस्थवादी स्वर मुखरित करते हुए कहते हैं,
जागेगा इंसान ज़माना देखेगा , उठेगा तूफ़ान ज़माना देखेगा।
फूटेगा मोटी बन कर अपना पसीना, दुनिया को कौमें हमसे सीखेंगी जीना
चमकेगा देश हमारा मेरे साथी रे, आँखों में कल का नज़ारा मेरे साथी रे
कल का हिन्दुस्तान ज़माना देखेगा।
जागेगा इंसान ज़माना देखेगा।
दुनिया को जगाने और बेहतर मनुष्य बनाने का ख़्वाब ले कर यह महान कवि -शायर अपने जीवन के साथ साल भी पूरा नहीं कर पाया लेकिन अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने जो उम्र पाई वो कभी ख़त्म नहीं होने वाली। जब -जब महान क्रांतिकारी शाइरी और कविताई की चर्चा होगी, साहिर के बिना चर्चा अधूरी रहेगी.
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गिरीश पंकज
संपादक, सद्भावना दर्पण
२८ प्रथम तल, एकात्म परिसर,
रजबंधा मैदान रायपुर, छत्तीसगढ़. 492001*
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निवास - सेक़्टर -3 , एचआईजी -2 , घर नंबर- 2 ,  दीनदयाल उपाध्याय नगर, रायपुर- 492010 
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पूर्व सदस्य, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली (2008-2012)
8  उपन्यास, 16  व्यंग्य संग्रह सहित 60  पुस्तके
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