मुक्तिबोध की कविता : ‘अँधेरे में’, भाष्यालोचन-5 // शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

SHARE:

मुक्तिबोध की कविता : ‘ अँधेरे में ’ , भाष्यालोचन-5 एक विचारणीय प्रश्न : पहल-108 में अपने लेख (‘शताब्दी पुरुष : ग. मा. मुक्तिबोध में’) में अ...

clip_image002

मुक्तिबोध की कविता : अँधेरे में, भाष्यालोचन-5

एक विचारणीय प्रश्न:

पहल-108 में अपने लेख (‘शताब्दी पुरुष : ग. मा. मुक्तिबोध में’) में अच्युतानंद मिश्र ने मुक्तिबोध की फैंटेसी के संबंध में एक प्रश्न खड़ा किया है- आखिर मुक्तिबोध को फैंटेसी की जरूरत क्यों पड़ती है..अपने समय के दवाबों से तो मुक्तिबोध इस ओर नहीं मुड़ते? वह कहते हैं, इसपर कम ही विचार किया गया है, उनकी पैंटेसी को अमूमन उनकी काव्य-कला या टेकनिक से ही जोड़ कर देखा गया है. मुझे भी उनकी फैंटेसी, कला का एक रूप ही लगती है. लेकिन लेखक का प्रश्न भी ध्यान खींचता है.

नयी कविता से कुछ पहले चलें तो छायावाद के कवियों पर अपने समय का दबाव साफ दिखाई देता है. खासकर ब्रिटिश सत्ता का दबाव. तब देश में उस सत्ता से स्वतंत्र होने की छटपटाहट थी. प्रेमचंद के सोजे वतन में इस स्वतंत्रता की मुहिम की ध्वनि महसूस कर ब्रिटिश सत्ता ने उसपर प्रतिबंध लगा दिया था. समय के इस दबाव ने ही छायावादियों को प्रस्तुत को अप्रस्तुत के माध्यम से व्यक्त करने को बाध्य कियाः

यमुने! तेरी इन लहरों में किन अधरों की आकुल तान (निराला)

लेकिन मुक्तिबोध पर समय का ऐसा कोई दबाव नहीं दिखता. तारसप्तक में उनकी प्रकाशित कविताएँ गाँधी के “अंग्रेजों! भारत छोड़ो” की मुहिम के आसपास ही लिखी गईं होंगी. पर इन कविताओं पर न इस मुहिम का कोई दबाव दिखता है न उसमें इसकी कोई गूँज ही है. हाँ, इन कविताओं में वह साम्यवाद की ओर झुके जरूर दिखाई देते हैं. और उनका भारतीय साम्यवाद, कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसी विदेशी संस्था के पर-चिंतन में डूबा दिखता है. इस संस्था का मानना था कि भारतीय स्वतंत्रता का साथ देना उचित नहीं है क्योंकि सोवियत रूस द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सत्ता का साथ दे रहा है. मुक्तिबोध पर इस पर-चिंतन का दबाव अवश्य दिखता है. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने जनता का पक्ष न लेकर साम्राज्यवादी शक्ति का पक्ष लिया. इसीलिए कभी कभी उनका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करना एक व्यंग्य-सा लगता है. मुक्तिबोध वस्तुतः अपनी ही आकांक्षाओं के दबाव में थे. हिंदी काव्य के क्षेत्र में वह स्वयं एक दबाव लेकर आए - छायावादी काव्यानुभव और काव्यरीति को बदल देने का दबाव लेकर.

मुक्तिबोध की यह कविता स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नेहरू-शासन में लिखी गई थी. इस शासन में न तो मार्क्सवादी पार्टी पर कोई पहरा था न मार्क्सवादी विचारों पर ही कि मुक्तिबोध अपने मार्क्सवादी विचारों पर कोई दबाव महसूस करते. अलबत्ता उनकी इतिहास और संस्कृति विषयक स्कूली पाठ्यपुस्तक पर म प्र सरकार द्वारा प्रतिबंध अवश्य लगा था. पर वह, कुछ प्रकाशकों और एक संगठन विशेष के अनुरोध पर लगाया गया था. कुछ कम्युनिष्ट भी उसपर प्रतिबंध लगाने के पक्ष में थे. यह प्रतिबंध सत्ता की किसी नीति के तहत नहीं लगा था न यह पूँजीवादी या सोंतवादी प्रतिबंध था. वैसे भी यह पुस्तक मुक्तिबोध के स्वतंत्र चित्त का अध्ययन नहीं थी. यह हिटलर और गोलवरकर के विचारों की प्रतिक्रिया में लिखी गई धी. इसमें ऐतिहासिक तथ्य पर कम, प्रतिक्रिया पर ध्यान अधिक था. इस प्रतिबंध का दवाब उनपर अवश्य था पर इसे समय का दबाव नहीं कहा जा सकता.

तो फिर मुक्तिबोध के लिए, कविता में फैंटेसी के प्रयोग का क्या कारण हो सकता है. मिश्र कहते हैं कि मुक्तिबोध की फैंटेसी को हम उनके अवचेतन को चेतन के अनुभव में बदलने की प्रक्रिया के रूप में देख सकते हैं...समूची अँधेरे में कविता एक भविष्यतकाल को निरूपित करती है. यहाँ सोचने जैसी बात है कि “जब चेतन व्यक्तित्व की छिपी स्मृतियाँ ही अवचेतन मन कहलाती है (बी के चंद्रशेखर, मन का सहज विज्ञान) तब अवचेतन को चेतन के अनुभव में बदलने की प्रक्रिया क्या चीज है. हाँ यह स्मृति के रूप में संचित अनुभव को अवचेतन से चेतन में बाहर निकालने जैसी बात अवश्य है. इस प्रक्रिया में उनकी यह फैंटेसी प्रकट यथार्थ से एक रचनात्मक दूरी की तरह है. तो क्या यह माना जाए कि मुक्तिबोध ने “अँधेर में” कविता में जिस पैंटेसी की रचना की है वह उनकी कभी की अनुभूत है, जो उनके अवचेतन में छिप अथवा संचित हो गई हो. तब यह भविष्य का यथार्थ रचने जैसी बात कैसे हुई. लेकिन मार्क्सवादी आलोचकों की दृष्टि में मुक्तिबोध की फैंटेसी भविष्य की बात करती है (मिश्र के नुसार निरूपित है). उदाहरणस्वरूप वे उस कविता के रचना-समय के बाद देश में लगी इमर्जेंसी की ओर संकेत करते हैं. लेकिन उस तानाशाही निर्णय पर लोकतंत्र की शक्ति की विजय की तरफ से अपनी आँखें मूँद लेते हैं जैसा देश की स्वतंत्रता के विषय में उन्होंने किया. मुक्तिबोध को तो इस बात की कल्पना भी नहीं थी कि लोकतंत्र की शक्ति तानाशाही शक्ति को मात दे सकती है. लगता है मार्क्सवादी आलोचक किसी भी बात को बंद कपाट से देखते हैं. उन्हें यह नहीं दिखता कि नब्बे के दशक में (यदि जन के मनोनुकूल अर्थात जनाकांक्षाओं को पूरी करने वाली सत्ता के संदर्भ में सोचें) सोवियत संघ की साम्यवादी सत्ता किस तरह ध्वस्त हो गई, और चीन की साम्यवादी अर्थव्यवस्था किस तरह पूँजीवादी व्यवस्था की ओर मुड़ गई, इसका भविष्यकथन मक्तिबोध की इस कविता में है या नहीं. उस कविता की समयावधि को लें तो यह भी तो भविष्य का यथार्थ है. तो फिर किस प्रकार मुक्तिबोध की यह कविता, उनकी विश्वदृष्टि के परिप्रेक्ष्य में, भविष्य को निरूपित करती है. उनके मन में यह प्रश्न तो उठता है कि क्या बेबिलोन नष्ट हो जाएगा पर यह सवाल नहीं उठीता कि क्या यु एस एस आर की साम्यवादी सत्ता भी बिखर जाएगी.

मुझे लगता है, मुक्तिबोध के फैंटेसी के प्रयोग की वजह वर्तमान के यथार्थ से उनका बच निकलना हो सकता है. क्योंकि सन् 1962 में भारत पर साम्यवादी चीन का आक्रमण होता है, साम्राज्य की सीमा बढ़ाने के लिए ही तो. यह एक साम्राज्यवादी घटना थी. लेकिन इस घटना की कोई ध्वनि उनकी इस कविता में नहीं मिलती. जबकि यह कविता इसी घटित घटना के आस-पास लिखी गई थी. इसमें मुक्तिबोध चीनी-साम्यवाद की इस साम्राज्यवादी मनसा की ओर से अपनी आँखें मूँदे रहते हैं. इस कविता के प्रारंभिक ड्राफ्ट में वह देश में जिस पूँजीवादी, साम्राज्यवादी और सामंतवादी शासन के पैलने की आशंका करते हैं, वह एक राजनीतिक चातुर्य से अधिक नही लगता.

मुझे इस कविता में उनकी फैंटेसी का एक कला-रूप ही दिखता है. वह अपनी अतृप्त इच्छाओं को केवल इसी विधि से कविता में व्यक्त कर सकते थे. उनकी अतृप्त इच्छा थी पूँजीवादी और सामंतवादी विरूपता और उसकी भयावहता को जनता के सामने रखना जिसके लिए पाश्चात्य साम्यवादी चिंतकों द्वारा वातावरण बनाया गया था. इसमें एक राजनेता की-सी मनोवृत्ति काम करती दिखती है. किंतु नेहरू शासन में ऐसी किसी भयावह घटना घटने की गुंजाइश उन्हें नहीं दिखी तो उन्होंने इस कविता के ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ में प्रकाशन के लिए जाने से पूर्व इसके पहले के शीर्षक से ‘आशंका के द्वीप’ अंश हटवा दिया. मुक्तिबोध ने अपनी फैंटेसी में एक जन-क्रांति की कल्पना करते हैं है पर इस जन-क्राति के स्वरूप की कोई चर्चा नहीं करते. इस जनक्रांति को एक भविष्य-कथन के रूप में देखा जाए तो इमर्जेंसी के विरोध में जयप्रकाश नारायण द्वारा छेड़ी गई संपूर्ण क्रांति की ओर हमारा ध्यान जाता है. पर यह गाँधी के तरीके की क्रांति थी, जनता की लोकतंत्री शक्ति के इजहार की क्रांति, बोल्सेविकों और माओवादियों की तरह की क्रांति नहीं जिसमें सत्ता के प्रतिष्ठापन के लिए खूनी खेल खेला गया.

भाष्यः

एकाएक मुझे.......................................................................................................स्वप्न सरीखा

सेना द्वारा पकड़े जाने के डर से भागता हुआ कवि एक बरगद के पेड़ के पास आकर खड़ा हो गया. यहाँ खड़ा वह सामने का दृश्य देखने रहा है. एकाएक उसे भान होता है जैसे किसी अजनबी ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया हो. इस स्पर्श से वह चौंक उठता है. अचानक उसके शरीर में सिर से पैर तक एक थर-थराहट की भयानक अनुभूति रेंग जाती है (शायद उसे पकड़ जाने की प्रतीति हुई हो). किंतु अगले क्षण उसे अनुभव होता है, यह स्पर्श बरगद के पत्ते का है जो ऊपर से गिर कर उसके कंधे से आ लगा है. वह सोचता है क्या यह किसी प्रकार का ईशारा या संकेत है. क्या यह किसी अदृश्य की चिट्ठी है. इसमें क्या इंगित है, कौन सा ईशारा है (अदृश्य की इस चिट्ठी में, किसी पूँजीवादी या सामंतवादी शक्ति की प्रताड़ना से कवि की चेतना को सतर्क करने का ईशारा तो नहीं). फिर कवि का ध्यान उसके अपने परिवेश की ओर जाता है. वह सैन्य-जुलूस के एक सैनिक द्वारा देख लिए जाने से सजा पाने के डर से भागा हुआ है. स्मरण होते ही वह फिर दम छोड़ कर भागने लगता है और एक ही दम में कई मोड़ पार कर जाता है. वह भाग रहा है और बंदूकें धाँय-धाँय चल रही हैं. मकानों के ऊपर गेरुआ प्रकाश (गोलियों के साथ निकलता प्रकाश) छा रहा है ( बताया जाता है कि सोवियत रूस में स्टालिन द्वारा जनता पर कुछ इसी तरह गोलियाँ चलवाई गईं थीं सत्ता पर कबजा बनाए रखने के लिए, इस कविता के लिखने के कुछ ही वर्ष पूर्व). कई मोड़ घूमने में दम छोड़ भागते हुए कवि को लगा कि वह पृथ्वी और आकाश को ही घूम लिया अर्थात उसने काफी दूरी तय कर ली. और फिर वह एक मुँदे हुए घर के पास पहुँचा और उसमें लगी हुई पत्थर की सीढ़ी के उस पार (छुप कर) अपना सिर पकड़ कर बैठ गया. दिमाग चक्कर खाने लगा और भँवरें आने लगीं. उन भँवरों में उसे स्वप्न सरीखा कुछ दिखा. स्वप्न में डूबा कवि उस स्वप्न के अंदर स्वप्न देखने लगा-

भूमि की सतहों............................................................................................भीतें हैं झिलमिल

कवि अपनी साधारण स्वप्न-कल्पना से और गहरे स्वप्न में प्रवेश करता है अर्थात गहराई से कल्पना करने लगता है. कल्पना की गहराई में वह महसूस करता है कि भूमि की सतहों के बहुत नीचे अँधेरा से युक्त एक प्राकृत खोह है. वहाँ बहुत एकांत है. वह खोह बहुत विस्तृत है. उस खोह के साँवले तल में अँधियारे को भेद कर कुछ पत्थर चमक रहे हैं. ये पत्थर सामान्य पत्थर नहीं हैं. इनमें तेजस्क्रिय (तेजोद्दीप्त) मणि हैं, रेडियोएक्टिव रत्न बिखरे पड़े हैं. इन रत्नों पर एक प्रबल प्रपात झर रहा है. प्रपात से झरते प्राकृत जल में आवेग है. उसकी लहरें द्युतिमान अग्नि सरीखी मणियों पर से फिसल फिसल कर बह रही हैं और लहरों के तल में से किरणें फूट रही हैं. और उनसे रत्नों से उसके रंगीन रूपों की आभा पूट रही है. इस खोह की बेडौल भीतें झिलमिल झिलमिल कर रही हैं. यह खोह क्या है और ये रत्न क्या हैं, यह अगले छंद में स्पष्ट होता है.

पाता हूँ निज को............................................................................................जूझना ही तय है

उस स्वप्न में कवि अपने को उस खोह के भीतर पाता है. और उन द्युतियों को विक्षुब्ध (कदाचित उसका उपयोग न कर पाने के कारण) नेत्रों से देख रहा है. और तेजस्क्रिय मणियों को हाथों में लेकर उन्हें विभोर (विमुग्ध) आँखों से देख रहा है. नेत्रों से देखने परखने से वह अकस्मात पाता है कि दीप्ति में वलयित ये पत्थर कोरे रत्न नहीं हैं, वरन ये हैं उसके अनुभव, वेदना, उसके विवेक से निकले निष्कर्ष जो यहाँ पड़े हुए हैं (अभी उसके विचारों के स्तर तक नहीं पहुँच सके हैं). ये उसके विचारों की रक्तिम अग्नि (विचारोत्तेजना) के मणि हैं. ये उसके प्राणों के जल-प्रपात में प्रतिपल घुल रहे हैं (अर्थात इसमें उसके प्राणों की स्निग्धता और स्नेह मिले हुए हैं). इनसे जो किरणें निकल रही हैं उसमें गीली हलचल है अर्थात उसमें प्राणों और हृदय की तरलता है. कवि अफसोस करता है कि उसने इन विचार-मणियों को अपनी अकर्मण्यता से गुहा वास दे दिया है (अर्थात सक्रिय विचार में लेने से विरत हो गया है). लोक-हित-क्षेत्र से और जनोपयोग से वह इन्हें बंचित कर दिया है. यही नहीं वह उन्हें खोह मे डाल कर (अपने से दूर कर) किसी के लिए उपयोगी होने से निषिद्ध कर दिया है. कवि यह स्वीकार करता है कि वे विचारादि खतरनाक थे. उनके व्यवहार में आने से यह नौबत आ पड़ती कि जनों के बच्चे भीख माँगने नगते (इससे कवि का आशय क्या इन विचारो के विकल्पहीन होने से है). फिर वह महसूस करता है कि इस तरह से विचार करने का यह समय नहीं है. इस समय केवल एक ही चीज तय है, समस्याओं से जूझना.

आलोचनाः

बरगद के वृक्ष का बिंब खड़ा कर कवि ने दो बातें साधनी चाही है. गाँवों में बरगद का विशाल छायादार वृक्ष दीन हीनों का शरण होता है. अतः इस बिंब से वह शोषित, प्रताड़ित, दीन-हीन जनों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करता है और दूसरे एक सिरफिरे पागल कवि के माध्यम से आत्मालोचन करता है. उसका यह आत्मालोचन इस कविता-खंड में भी चलता है. भागते भागते पत्थर की एक सीढ़ी के पास छिप कर जब वह एक गहन सोच में डूब कर स्वप्न देखने लगता है- स्वप्न में स्वप्न- तो वह अपने को एक अँधेरी खोह में पाता है. जो कदाचित उसकी अंतर्गुहा की खोह है. वहाँ उस घुप्प अँधेरी खोह में चमकते रत्नों के रूप में उसे उसके अपने ही अनुभव, वेदना और विवेकपूर्ण निष्कर्ष पड़े दिखाई देते हैं. इनका उसकी अंतर्गुहा में पड़े रहना उसे अफसोस में डाल देता है. इसके लिए वह अपनी ही आलोचना करने लगता है या कहें अपने को कोसने लगता है कि इन विचार और अनुभव रूपी मूल्यवान रत्नों का लोक-हित के क्षेत्रों में उसने उपयोग नहीं किया. लेकिन कवि कुछ अतिरिक्त समझदारी में पगा लगता है- कहने लगता है अब यह सब सोचने से क्या फायदा. अब तो जूझना ही तय है. लेकिन कवि की उक्त निष्क्रियता हमें सोचने पर बाध्य करती है कि कवि का उक्त उनुभव उसकी एक किस्म की लापरवाही ही है. तो फिर इस लापरवाही के साथ समस्याओं से जूझने के लिए कितना आवेग हो सकता है.

यह कविता राजनीतिक है. इसमें कवि ने काव्य को उँड़ेलने की जगह एक विचार को गूँथने का प्रयास किया है. किंतु इस कविता में जिस विचार को गूँथा गया है उसमें कोई सौंदर्य नहीं झलकता. क्योंकि इसमें उदात्तता नहीं है. इससे हमारे पोरों में संवेदना नहीं उमड़ती. कवि केवल फैंटेसी की रचना में निमग्न है. इस फैंटेसी के माध्यम से ही उसे पता चलता है कि उसकी अंतर्गुहा में उसके अनुभव-विवेकादि दबे पड़े हैं. क्यों दबे पड़े हैं, क्यों उसके सत चित सक्रिय नहीं हो पाते उसका कोई चित्ताकर्षक और संवेदनात्मक चित्रण नहीं है. भाषा में प्रवाह नहीं दिखाई देता. अगर कहीं भाषा में प्रवाह बनता भी है तो अचानक कवि की अभिव्यक्ति-मुद्रा के बदलते ही उसके सहज प्रवाह में व्यवधान पड़ जाता है. कविता पंक्ति “क्या वह चिट्ठी है किसी की?” और “भागता मैं दम छोड़” पंक्ति के बीच संवेदनात्मक प्रवाह छिन्न सा प्रतीत होता है. अंतिम पंक्तियों- “वे (अनुभव, वेदना. विवेक निष्कर्ष) खतरनाक थे/(बच्चे भीख माँगते) खैर” में कवि के विचार का सौंदर्य बिखर कर रह जाता है. कविता के अंतिम वाक्य-विन्यासों “यह न समय है, जूझना ही तय है” में कुछ अटपटा संबंध है जिसे कवि के पक्ष में हमें ठीक करके अर्थ लिकालना पड़ता है. अन्यथा इनके सहज प्रवाह में निहितार्थ बाधित होता है.

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: मुक्तिबोध की कविता : ‘अँधेरे में’, भाष्यालोचन-5 // शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
मुक्तिबोध की कविता : ‘अँधेरे में’, भाष्यालोचन-5 // शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव
https://lh3.googleusercontent.com/-GbF_j9OMWU0/WtbtZZ6-rgI/AAAAAAABAzA/XlJk5v3oZd02slTBQ2nIMXo5KBW4v5asACHMYCw/clip_image002_thumb?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-GbF_j9OMWU0/WtbtZZ6-rgI/AAAAAAABAzA/XlJk5v3oZd02slTBQ2nIMXo5KBW4v5asACHMYCw/s72-c/clip_image002_thumb?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/04/5_18.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/04/5_18.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content