त्रेता : एक सम्यक मूल्यांकन - उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल - भाग 9 // दिनेश कुमार माली

SHARE:

भाग 1   भाग 2   भाग 3    भाग 4    भाग 5    भाग 6   भाग 7   भाग 8 उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल भाग 9 दिनेश कुमार माली -- तेइसवाँ सर...

भाग 1  भाग 2  भाग 3   भाग 4   भाग 5   भाग 6  भाग 7  भाग 8

उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल

भाग 9

दिनेश कुमार माली

--

तेइसवाँ सर्ग

सुलोचना का दुख

सुलोचना रामायण का एक उपेक्षित पात्र है जिसके बारे में जन-सामान्य को बहुत कम जानकारी है। त्रेता के माध्यम से कवि उद्भ्रांत ने सुलोचना के चित्रांकन में कोई कमी नहीं छोड़ी है। सुलोचना एक ऋषिकन्या थी, शिवभक्त थी, सदैव शिव आराधना में लगी रहती थी। एक दिन शिव मंदिर में एक सुंदर सुगठित शरीर बाले तेजस्वी युवक को देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गई। उसे यह पता नहीं था कि वह रावण का पुत्र मेघनाद है। मेघनाद से प्रथम प्रेम दृष्टि शीघ्र ही विवाह में बदल गई। उसके जादू भरे सम्मोहक लोचनों को देखकर मेघनाद ने उसका नाम सुंदर लोचन वाली अर्थात सुलोचना रखा। ससुराल में माँ मंदोदरी सदैव उसकी कपूर के दिए से आरती उतारती ताकि उस पर किसी की भी कुदृष्टि न पड़े। जब सुलोचना को रावण द्वारा सीता का अपहरण, रामदूत हनुमान द्वारा अक्षय का संहार और उसके बाद मेघनाद द्वारा अशोक वन में हनुमान से लड़ाई करने के लिए पहुँचना आदि घटना क्रम याद आते तो उसका रोम-रोम काँप उठता था और “शिव-स्तोत्र” पढ़ना शुरू कर देती थी। जब सुलोचना ने सोने की लंका को आग की लपेटों में धू-धू जलते देखा तो उसे किसी अनहोनी घटना की आशंका होने लगी और वह लंका की सुरक्षा के लिए रात-दिन शिव की पूजा-पाठ करने लगी। जब सुलोचना को यह पता चला कि उसके पति मेघनाद ने दधीचि की हडिडयों से बने बज्र के द्वारा लक्ष्मण को सांघातिक चोट पहुंचाकर मूर्च्छित किया है और सिवाय संजीवनी बूटी के प्रयोग के वह बचाया नहीं जा सकता, तब लक्ष्मण के प्रति मन में एक अलग प्रकार के भाव प्रकट हुए। वह सोचने लगी शायद उसे शत्रु मानकर ही युद्ध में अपनी अमोघ शक्ति का प्रयोग नहीं किया होगा। सुलोचना को लक्ष्मण की चेतना लौट आने पर कुछ अनहोनी घटने का आभास होने लगा। मेघनाद के युद्ध में जाने से पहले उसके मस्तिष्क पर विजय तिलक लगाते हुए कहने लगी थी- क्या यह युद्ध टाला नहीं जा सकता था? क्या राम के पक्ष से युद्ध न करने के लिये आए हुए संदेश माने नहीं जा सकते थे? तरह-तरह के सवाल करते हुए सुलोचना ने युद्ध संबंधित निर्णय पर पुनर्विचार करने की प्रार्थना की। कवि उद्भ्रांत ने सुलोचना के मनोविज्ञान को अच्छी तरह व्यक्त किया हैं:-

रण के लिए प्रस्थान करते

मेघनाथ को विजय-टीका मस्तक पर लगा

विदा करने से पहले

मैंने पूछा, “प्रिय!

क्या यह युद्ध अपरिहार्य था?

नहीं टाला जा सकता था इसे?

जनकनंदिनी सीताजी को

जो ले आए महाराज रावण

लंका नगरी में,

क्या उनका कार्य यह उचित था?

प्रत्युतर में मेघनाद ने गंभीरता पूर्वक सुलोचना का अवलोकन करके उत्तर दिया कि रावण ने महा पंडित, वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता होने के बाद भी, अगर सीता का अपहरण किया है तो इसके पीछे भी कोई राज होगा और युद्ध के परिणामों से भली-भाति परिचित होंगे? मैं तो केवल उनका पुत्र होने के साथ-साथ सेना–नायक हूँ और युद्ध से सम्बन्धित सारे निर्णयों का फैसला राजा को करना होता है, न कि सेना–नायक को। मैं जानता हूँ युद्ध से सम्बन्धित कोई भी निर्णय उचित नहीं होता, क्योंकि उसका परिणाम आने वाली पीढ़ी भुगतती है। मेरे लिए तो केवल अस्मिता की खातिर युद्ध करना अपरिहार्य हो जाता है। अन्यथा लोग मुझे प्राणों के मोहवश हुआ जान अनुचित समझेंगे। फिर भी मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ आज शाम को सेना नायक की नहीं, वरन् पुत्र की हैसियत से सम्पूर्ण विषय पर मैं रावण से बात करूँगा। उद्भ्रांत जी अपनी पारंपरिक शैली में मेघनाद की मन:स्थिति को उजागर करते हैं:-

“फिर भी मैं

तुम्हें भरोसा याद दिलाता हूं

आज सायं

युद्ध के पश्चात मैं

महाराज से,

सेनानायक नहीं-

एक पुत्र की तर से

करूंगा विमर्श-

इस समग्र स्थिति पर। ”

इस तरह सुलोचना ने मेघनाद के हृदय में युद्ध पर पुनिर्वचार के बीज को बो दिए थे। मन्दोदरी युद्ध की नवीनतम स्थिति के बारे में बार-बार पूछती थी। रावण ने उस दिन कुम्भकर्ण को जगाया था तो उसके सद् परामर्श देने के बावजूद भी युद्ध के लिए भेज दिया था। बाद में जब पता चला कि कुम्भकर्ण राम के हाथों मारे गए हैं और सेना का उत्साह धीमा पड़ता जा रहा था। यह देख उनका उत्साह-वर्द्धन करने के लिए मेघनाद लक्ष्मण से विकट युद्ध कर रहे थे और इधर सुलोचना उनकी रक्षा के लिए तीव्र गति से शिवस्त्रोत का पाठ कर रही थी। देखते-देखते लक्ष्मण ने शेषनाग का रूप धारण कर लिया और मेघनाद पर टूट पड़ा। चूँकि सुलोचना की माता नागवंशी थी इसलिए कभी-कभी हँसी मज़ाक में शेषनाग की पुत्री के रूप में पुकारी जाती थी। जैसे ही सुलोचना का चिंतन का भंग हुआ तो उसने देखा उसके आँचल में पति का रक्तस्नात बाणबिद्ध सिर पड़ा हुआ था। मानो वह कह रहा हो देखो प्रिये, मैं युद्ध भूमि से तुम्हारे पास तुम्हारे आँचल में लौट आया हूँ, इस निरर्थक विनाशकरी युद्ध पर विमर्श करने के लिए। सुलोचना के मस्तिस्क पर क्या गुजरी होगी, यह नहीं कहा जा सकता। मगर सती सुलोचना के जीवन की सबसे बड़ी मर्मांतक लोमहर्षक घटना के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। उसने उस भोले-भण्डारी का आशीर्वाद मानकर इस घटना को स्वीकार कर लिया। कवि उद्भ्रांत जी की कल्पना की लंबी उड़ान निम्न पंक्तियों में अभिव्यक्त होती है:-

मेरे आंचल में

पति का रक्त-स्नात बानबिद्ध शिर था पड़ा,

और पति की सुंदर आंखें

मेरी आँखों में दृष्टि डालकर

कह रही थी मुझसे-

प्रिय! देखो

लौट आया मैं

युद्धभूमि से तुम्हारे पास

फिर से तुम्हारे ही आँचल में-

लंकाधीश से उनके द्वारा छेड़े गए

इस निरर्थक विनाशकारी युद्ध

पर विमर्श करने के लिए;

अब तो मुस्करा दो तुम,

अब तो हो जाओ प्रसन्न भी!

चौबीसवाँ सर्ग

धोबिन का सत्य

कवि उद्भ्रांत ने इस पात्र की मौलिक कल्पना की है। धोबिन एक जातिवाचक शब्द है, जिसका अर्थ है राम के समय हिन्दू धर्म में अनेकानेक जातियाँ व्याप्त थी। इस सर्ग में हिन्दी भाषा का प्रयोग न करके बृज भाषा का प्रयोग ज्यादा हुआ है। जिसके पीछे उनका उद्देशय तत्कालीन समाज की लोक प्रचलित भाषाओं को आगे लाने के साथ-साथ उस पात्र को सशक्त बनाने का प्रयास किया है।

अनेक लोगों के मैले-कुचेले कपड़े लेकर धोबिन सरयू नदी के घाट पर उन्हें धोती और नदी में सूरज भगवान की प्रतिमा देखकर ईश्वर की आराधना करती है। उसका पति दिन भर मटरगश्ती करता व गलत दोस्तों के साथ चौपड़, जुआ खेलना या फिर पूरे दिन निठ्ठला होकर बैठना, रात में खूब दारू पीना, घर में पत्नी से मार-पीट और गालियों की बरसात करना आदि सारे काम थे। यह कैसा राम राज्य था, जहाँ औरत की कमाई पर पति गुलछर्रे उड़ाता हो? यह सोचकर धोबिन ने राम के जनता दरबार में जाकर अपनी दुःख व्यथा को रखने का निर्णय लिया कि अगर कोई मेरे आदमी की बुद्धि ठीक कर ले तो उससे ज्यादा उसे और कुछ नहीं चाहिए। धोबिन ने सोचा कि अगर वह घर में एक पहर खाना नहीं बनाएगी तो उसके मर्द की बुद्धि ठिकाने आ जाएगी। यह सोचकर वह अपने पीहर चली गई। मगर माँ ने एक सीख दी कि पति का घर ही ब्याही गई बेटी का असली घर होता है, इसलिए कभी भी बिना बताए उसे नहीं निकलना चाहिए। यह सोचकर जब वह वापस अपने घर लौटी तो उसने देखा उसका पति खाट पर बैठा देशी दारू पिया हुआ है और उसे देखते ही बुरी-बुरी गालियाँ देते हुए कोठरी के भीतर खींचकर ले गया और लात-घूँसों की बरसात करने लगा। “धिक्कार! सारे दिन तुम कहाँ रही थी? धोबिन के पति ने उससे सवाल किया तो उसने सारी कहानी बता दी कि माँ कि तबीयत ठीक नहीं होने के कारण उसे देखने गई थी। उसकी पोटली में से खाने के सामान के साथ-साथ सोने की गिन्नी गिरी, तो धोबी उसे और ज्यादा पीटते हुए कहने लगा कि तू सती सावित्री होने पर भी, अग्नि–परीक्षा देने पर भी मैं तुम्हें नहीं रखूँगा। तुम्हारे छिनालपन का प्रमाण मुझे मिल गया। मैं भले ही छोटी जाति का हूँ, मुझे रामचन्द्र समझने की गलती मत करना, जिसने अनदेखी नौटंकी अग्नि-परीक्षा की बात कहकर दुश्मन के घर में कई महीने बिताकर आई सीता को फिर से अयोध्या की महारानी बना दिया। मुझे बिना बताकर दिन भर बाहर रहकर अपने प्रेमी के साथ मटरगश्ती कर सोने की गिन्नी लाकर मेरे सामने नाटक कर रही है। जा तू यहाँ से भाग, राजा से मेरी शिकायत कर- यह कहते हुए फिर से उसने धोबिन के पेट पर ज़ोर से लात मार दी।

देखते-देखते यह सारी बात एक साँस से दूसरी साँस, एक कान से दूसरे कान में पहुँचती हुई, राजमहल के धवल पत्थरों की चार दीवारों को लाँघकर सीता-राम के शयन कक्ष में पहुँच गई और इस हवा के अर्थ की गूँज सुनकर सीता फिर से सुनसान जंगल की तरफ साँय–साँय करती निकल पड़ी। धोबिन के मन में उसके पति के अत्याचार के विरुद्ध उठ खड़ा होने के लिए गहरा विश्वास पैदा हो रहा था। उसकी दृष्टि में चाहे रामराज्य हो या रावण राज्य, उसे अपने सतीत्व का प्रमाण देना ही होगा, चाहे अग्नि से, नहीं तो जल से, नहीं तो हवा से, आसमान से या फिर इस धरती मैया की मिट्टी से सच का प्रमाण देना ही होगा।

पच्चीसवाँ सर्ग

मैं जननी शम्बूक की: दलित विमर्श की महागाथा

अधिकांश पाठकों को शम्बूक के बारे में जानकारी नहीं है। शम्बूक रामकथा का एक काला अध्याय है। जो तत्कालीन समाज की जाति-प्रथा पर सवाल उठाता है कि अयोध्या के महाराज रामचन्द्र के आदि पुरखे स्वायंभुव-मनु ने मनुसंहिता लिखी और उसके अनुसार समाज-रूपी पुरुष का मुख ब्राहमण, हाथ क्षत्रिय, उदर वैश्य और जांघ शूद्र है। ब्राह्मणों के कर्म में वेदाध्ययन, तपश्चर्या, राजदरबारों के कारोबार, पंडिताई और दक्षिणा लेकर जीवन यापन करना, क्षत्रियों को राजा के हित में तलवार उठाना तथा वैश्य को व्यापार एवं शूद्र को समाज की गंदगी साफ करने का निर्देश दिया गया था। शम्बूक की माँ शूद्र थी। वह ऊँची जातियों के साथ बैठ नहीं सकती थी, वैवाहिक संबंध तो दूर की बात, साथ में बैठकर भोजन करने का भी अधिकार नहीं था, मंदिर जाने में भी प्रतिबंध था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य दूर-दूर से खड़े होकर बातें करते हैं। तथा अस्पृश्यता तो इतनी भयानक थी कि उनके लिए पानी की व्यवस्था भी अलग से की जाती थी। इस तरह का सामाजिक विभाजन देखकर दस ग्यारह वर्षीय शम्बूक सदियों से चली आ रही भेद-भाव की रीति पर सवाल पूछता तो उसकी माँ या तो चुप रहकर या फिर हंसी-मज़ाक में टाल देती थी। शम्बूक का पिता अपने जाति-भाइयों के साथ सिर झुकाकर अपने को तुच्छ समझे जाने वाले काम करता जाता था। भले ही उसे गंदी-गंदी गालियाँ या झिड़कियाँ क्यों न मिले। रामराज्य में ये सारी विसंगतियाँ विडम्बनाएँ भरी हुई थीं।

मगर शम्बूक बचपन से गंभीर, अपने आप में खोया हुआ, ऋषि आश्रम में वेदाध्ययन करते बच्चों को देख भावपूर्ण होकर एकांत में वेदों की वाणी सुना करता था। शम्बूक की यह क्रिया–कल्पना देखकर उसकी माँ मन ही मन काँपने लगती थी और उसे भयभीत होकर समझाने का प्रयास करती कि वह इस तरह का “असामाजिक दृष्टि वाला जघन्य कर्म न करे। " शम्बूक जिज्ञासा-वश अपनी माँ से सवाल करता था कि अगर समाज का मुख ब्राह्मण है तो उसे पेट भरने की क्या जरूरत है? उनकी सारी रुचि, क्रियाएँ जब हमारी तरह ही है तो हमारे और उनके बीच में यह अंतर क्यों है? जब हमारे मुख, आँख, नाक, कर्ण, उदर, पाँव, जननेन्द्रिय सभी ऐसी ही हैं जैसे ब्राह्मणों के, तब हमें मंदिर में जाने से क्यों रोका जाता है? अगर हमारे पाँव हैं, तो क्या अगड़ी जतियों के लोगों के पाँव नहीं हैं? क्या ब्राह्मण मंदिरों में, क्षत्रिय युद्ध भूमि में और वैश्य व्यापार करने के लिए जिन पाँवों का सहारा लेते हैं, क्या वे पाँव हमारे नहीं है? अगर हमारी हमारी मदद से उनके कर्मों का सफल सम्पादन होता है तो फिर हम किस तरह से हीन है? जिस तरह सारी इंद्रियों के पारस्परिक सामंजस्य होने के बाद ही छोटे से छोटे कार्य को संपादित किया जाता है। इसी तरह मनुष्य के सारे अंग एक दूसरे से सामंजस्य बैठाकर अपने कार्य का निष्पादन करते हैं। हमारे शरीर का मस्तिष्क शरीर के समस्त अंगों को विधि पूर्वक काम करने के लिय निर्देश देता है, तो क्या उन अंगों की अनुशासनप्रियता को मानदंड मानकर क्या हीन समझा जाएगा? क्या यह एक संस्कार नहीं है? रामराज्य में इन चीजों को सम्मान नहीं मिलना चाहिए?

इस तरह के तर्क सुनकर शम्बूक की निरक्षर माता कुछ समझ नहीं पाती थी। मगर उसे लगता था कि वह छोटा–सा बालक गलत नहीं बोल रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं है कि गुरुकुल आश्रम के पीछे छुपकर जो वह सुनता है, उसी शिक्षा की प्रतिक्रिया तो नहीं है? सदियों से चले आने वाले सूर्यवंशियों के सर्वश्रेष्ठ राजा राम के अयोध्या के शासन में अगर जात-पाँत, भेद-भाव, छुआ-छूत, आर्य-अनार्य के झगड़े नित्य गली मुहल्ले, गाँव-नगर में देखने को मिलते हैं, तो रामराज्य का क्या अर्थ रह जाता है? क्या शूद्रों को विकसित जतियों की तरह सोचने का अधिकार भी नहीं है? शम्बूक का यह अंतर्द्वंद्व, उसके मस्तिष्क में उठ रहे झंझावात, किसी नए समाज की रचना हेतु स्वस्थ संविधान के रूप में मनुस्मृति को हटाकर शम्बूक-संहिता रचने का इरादा तो नहीं है? शम्बूक समाज की मुख्य धारा में जुड़ना चाहता था और उसके यह क्रांतिकारी विचार माँ-पुत्र की उग्र मनस्थिति को दर्शाते थे। एक बार जब अयोध्या में अकाल पड़ा, दूर-दूर तक बादल दिखाई देने का नाम नहीं ले रहे थे, जो बादल गरजते थे, भी बरसते नहीं थे। किसानों के घर के चूल्हे उदास थे। गायें कृशकाय हो गई थीं और मवेशी काल के कराल-गाल में समाते जा रहे थे। तब इन्द्र को दंडित करने के लिए ध्यान लगाकर कठिन तपस्या करने लगे। वे दिन राम राज्य के लिए अत्यन्त ही भयानक दिन थे। शम्बूक का परिवार भी अकाल की चपेट में आ गया। ऋण लेकर वे अपना घर परिवार पालने लगे। उस दौरान शम्बूक सुबह जल्दी निकल जाता था और रात को देर से आता था। जब उसे इस बारे में पूछा जाता था तो वह कुछ भी उत्तर नहीं देता था। एक बार उसके पिता ने उसे बड़े वटवृक्ष के नीचे पद्मासन लगाकर ॐ का सघोष उच्चारण करते हुए तपस्या में लीन देखा, तो उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी। शम्बूक की समाधि का यह समाचार जंगल की आग की तरह समाज के कोने-कोने में पहुँच गया और तत्कालीन समाज के समक्ष एक प्रश्नवाचक बनकर पुनः उठाने लगा कि त्रेता के इस युग में जब एक शूद्र तप करेगा, तो सारी सृष्टि उलट-पुलट क्यों नहीं होगी? जल की जगह बादल अग्नि-स्फुलिंग की वर्षा करेंगे। नदियों में आग बहेगी, हिमालय में ज्वालामुखी फूटेगी, रामराज्य में रावण के राज का आधिपत्य होगा। कारण- एक शूद्र जंगल में तप कर रहा है, तो मनुस्मृति से संरक्षित महान भारत देश को पतन के गर्त में गिरने से कौन रोक पाएगा? ‘मनुस्मृति’ की निरर्थकता को कवि उद्भ्रांत जी अपने शब्दों में लिखते हैं:-

“मनुस्मृति कहती है-

हम ही वे पाँव हैं, तो-

बाम्हन के, क्षत्रिय और वैश्य के

निर्धारित कर्म,

होते संपन्न क्या-

हमारे ही द्वारा नहीं?”

“और अगर हमारी ही मदद से

कर्मों का होता सफल संपादन,

तो फिर हम-

हीन किस तरह से है?”

शम्बूक की साधना देखकर गाँव वाले लोग उसकी माँ पर भी व्यंग्यबाण छोड़ने से नहीं चूकते थे। वे कहते थे- तेरे बेटे की साधना से इन्द्र का आसन हिल रहा है, तेरा बेटा भी विश्वामित्र की राह पर चल पड़ा है। लोग तुझे अब शूद्र की माँ न कहकर इन्द्र की माँ कहेंगे। तेरे नाम का डंका चारों ओर बजेगा। इस तरह-तरह वेधक तीर जैसी बातों दवारा शम्बूक के माता-पिता पर आक्रमण किया जाता था। इन आक्षेपों से बचने के लिए एक दिन शम्बूक की माँ ने निर्णय लिया कि राम के दरबार में गुहार लगाई जाए कि एक दलित जाति के बच्चे को अपने बाल-मन के अनुसार जीवन जीने का भी अधिकार नहीं है? उसने ऐसा क्या भीषण अपराध कर लिया कि उसकी अभागी माता को समाज के लोगों द्वारा व्यंग्योक्तियों और लोकोक्तियों का शिकार होना पड़ा। इससे बेहतर तो उसके लिए जहर खाकर मरना ज्यादा उचित है। जब शम्बूक की माँ ने इस सामाजिक अन्याय के विरोध में राम के दरबार में गुहार लगाई तो उसे प्रतीक्षा करने के लिए कहा गया। उसे लगने लगा क्या राम भी बलवान लोगों का साथ देते हैं’, निर्बलों का नहीं? क्या रामराज्य में भी उसे न्याय नहीं मिल पाएगा? अन्ततः जब उसे राम जी के सभाकक्ष में बुलाया गया तो उस समय सभा में वशिष्ठ, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, हनुमान, मंत्री सुमन्त मौजूद थे। इसके अतिरिक्त, गाँव के बाहुबली, ब्राह्मण, मुखिया, व्यापारी, सेठ, मौजूद थे, मगर सीता अनुपस्थित थी। इससे पहले कि शम्बूक कि माँ अपनी बात रखती उससे पूर्व ही गाँव के मुखिया ब्राह्मण ने बोलना शुरू कर दिया कि यह तो शम्बूक की ही माँ है, जिसके पुत्र द्वारा समाज विरोधी कार्य किया जा रहा है। जिसके कारण राज्य में दुर्भिक्ष फैला है। बारिश नहीं हो रही है, राम-राज्य की उदारता का लाभ उठाकर अगर कोई शूद्र तपस्या करेगा तो ब्राह्मण क्या करेंगे? व्यापारियों का व्यापार ठप्प हो जाएगा, क्योंकि उनके अधिकांश ग्राहक तो ब्राह्मण और क्षत्रिय ही हैं। शम्बूक के कारण समाज का प्रगति चक्र रुक जाएगा। तरह-तरह की दलीलें देने के बाद समाज के तीनों वर्ग के ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य के स्वयंभू प्रभुओं ने आधी रात को गुपचुप मंत्रणा कर नमक-मिर्च लगाकर राम के चिंतन को पूर्वाग्रह से युक्त करने का सफल प्रयास किया। तब राम ने अपनी मधुर वाणी में शम्बूक की माँ को कहा कि मुझे कई विश्वसनीय सूत्रों से पता चला है कि तुम्हारा बेटा कोई अपवित्र यज्ञ कर रहा है, जिसके कारण समाज में बवंडर उठने वाला है। इसलिए इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने के लिए मैंने मंत्री-परिषद की आपात बैठक बुलाई है, ताकि समूचे समाज का हित किया जा सके। शम्बूक की माँ अपना पक्ष रखती हुई कहने लगी कि गाँव का मुखिया तो मुझे शम्बूक को जन्म देने के लिए आपके समक्ष दोषी सिद्ध कर चुका है। मेरा बेटा शम्बूक जिज्ञासु प्रवृत्ति का है। समाज की दुविधाओं, विडम्बनाओं और विचित्रताओं को देखकर उसके मन से हजारों सवाल उठते हैं। वह दूसरों का कष्ट देखकर खुद दुःखी हो जाता है। उसका बेचैन हृदय समाज के कठिन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए तड़पता है। ऐसा मेरे बेटे ने क्या अक्षम्य अपराध कर लिया? उसे दंड देने से पूर्व आप मुझे दंड दें। शम्बूक की माँ का पक्ष सुनने के बाद राम ने उसे आश्वासन देकर घर लौटा दिया कि उसके साथ किसी भी तरह का कोई अन्याय नहीं होगा। इससे पूर्व कि वह अपनी कुटिया में पहुँचती उससे पहले ही गाँव के बलिष्ठ, हृष्ट-पुष्ट ऊँची जाति के लोगों ने लाठियाँ बरसा कर उसके पति की नृशंस हत्या कर दी। इस नृशंस दृश्य का आँखों देखा वर्णन कवि की निम्न पंक्तियों से झलकता है:-

पहुंची जब कुटिया में अपनी तो

देखा शंबूक के पिता को

रक्त से लथपथ;

मेरी जाति के अनेक लोग वहां

उपस्थित थे आसपास,

जिन्होंने बताया मुझे-

गांव के बलिष्ठ हृष्ट-पुष्ट कई लोग ऊंची जातियों के

आए थे थोड़ी देर पहले ही

लाठियों से लैस हो,

और उन्होंने उसकी

कर दी हत्या नृशंस

बिन कहे-सुने कुछ भी!

क्या वह वापस राम के दरबार जाएगी ? शम्बूक को जन्म देने के लिये उसके पति को अपराधी मानकर मार दिया गया। जैसे–तैसे पति की लाश को श्मशान घाट में चिता पर जला रही थी, वैसे-वैसे उसे न्याय की आशा भी आग की लपटों में जलते हुए नजर आती थी। इस बात की सूचना कैसे अपने ही बेटे को दे पाती और कैसे समझा पाती कि तप-वप में क्या रखा है, यह तो पूर्ण अन्यापूर्ण कार्य है। तुम तो युवा हो और तुम्हें अपनी युवाशक्ति का रचनात्मक सदुपयोग करना चाहिये। कोई कार्य तुच्छ माने जाने पर भी तुच्छ नहीं होता, जब तक उसे तन्मय होकर एकनिष्ठ भाव से नहीं किया जाता है। दूसरी तरफ माँ की ममता उसे समझाने लगती है कि जब बालक ने कुछ करने का ठान ही लिया है तो उसे क्यों रोका जाए? जिसकी वजह से किसी का अहित तो नहीं होता, वह तो अपनी आत्म-शुद्धि करना चाहता है और आखिर कब तक करेगा वह? वह नई ऊर्जा, नए तेज और नव्यतम स्वर के साथ स्वप्नलोक में लौट आएगा और अनुत्पादक, अनुपयोगी, असफल सिद्ध हो चुकी तथा-कथित तपस्या से कुछ सार्थक संकेत ग्रहण करेगा। यह सोचते-सोचते जब वह श्मशान घाट से घर लौटी तो एकाकीपन की अनुभूति उसके ऊपर क्रूर संघात करने लगी और उसके समाज के निर्बल लोग आँखों में आँसू लिए, कतराते और असहायता के साथ गोल घेरा बनाकर खड़े थे, उनके चेहरे की हवाइयाँ उड़ी हुई थीं। तभी एक वृद्ध पड़ोसी ने उसे कहा कि राम के मंत्री परिषद ने शम्बूक को एक स्वर में समाजद्रोही घोषित किया है कि उसे बिना किसी को बताए सामाजिक विनियमों का उल्लंघन कर शिव की तपस्या के पावनतम कर्म को पूजन-अर्चन की मान्य विधियों से दूर रहकर, अपवित्र करने का अभूतपूर्व अपराधी घोषित किया है और उसके इस अपराध के कारण समाज में हर जगह अव्यवस्था, अशांति और अपरिपक्व क्रांति का खतरा मंडरा रहा है। मंत्री-परिषद की इस संस्तुति को मानकर राम ने भयंकर अपराध के लिए कठोरतम दंड देने का निर्णय लिया है। शम्बूक की माँ अविलम्ब किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उस जगह पहुँची, जहाँ उसका बेटा वटवृक्ष के नीचे बैठकर तप कर रहा था। जिसके चारों ओर अयोध्या के विशिष्ट नागरिक, सम्भ्रान्त व्यक्ति, समूचा मंत्री परिषद, सशस्त्र सैनिक, घुड़ सवार, महर्षि वशिष्ठ, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, सुमन्त सभी खड़े थे और शम्बूक के सामने इस युग के सर्वश्रेष्ठ मानव, सूर्यवंश के गौरव, मर्यादा पुरषोत्तम राम अपने दायें हाथ में तलवार तानकर खड़े थे, जिन्हें रावण पर विजय के उपरांत बढ़ती लोकप्रियता को देखकर लोगों ने भगवान तक कहना शुरू कर दिया था।

खड़े थे तपस्या-लीन

शंबूक के समक्ष

दाएं हाथ में खींचे तलवार-

इस योग के सर्वश्रेष्ठ मानव,

सूर्यवंशियों के गौरव

मर्यादा पुरुषोत्तम राम;

जिनकी रावण पर विजय के उपरांत

बढ़ी थी जनप्रियता इतनी-

कि उनको लोगों ने

शुरु कर दिया था कहना-

भगवान ही!

शम्बूक कहता था- मनुस्मृति के अनुसार राजा, प्रजा के लिए भगवान का स्वरूप ही होता है, जिस तरह पिता के लिए एक पुत्र। भगवान राम उसे वर देने के लिए वहाँ नहीं खड़े थे, वरन ॐ नमः शिवाय का जप करनेवाले उसके अपवित्र शीश को धड़ से पृथक करने के लिए खड़े थे। भगवान राम अपने राज्य में ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों को अभयदान देकर अपनी मर्यादा की स्थापना करने तथा शम्बूक की माँ की तरह निर्बल, असहाय, अनगिनत शूद्रों को अपनी सीमा में रहने की अपरोक्ष चेतावनी दे रहे थे। आखिरकार त्रेता युग में जो कुछ भी राम कहेंगे वे भगवान के वचन होंगे। उनका यश सभी दिशाओं में फैलेगा। जिसके तप में शम्बूक की माँ की आत्मा झुलसकर हमेशा-हमेशा बंद हो जाएगी और आने वाले किसी युग में खुलने का इंतजार करेगी।

-शंबूक ने बताया था

मनुस्मृति कहती है-

अपनी प्रजा के लिए

राजा तो होता भगवान का स्वरूप ही;

पिता-

पुत्र के लिए

होता जिस तरह से।

साधना में,

चिंतन में आत्मलीन

अपनी ही प्रजा एक बेसुध जन,

एक पुत्र

एक भक्त के समक्ष-

शम्बूक की कथा वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में मिलती है। शम्बूक की कथा भवभूति जैसे प्राचीन संस्कृत नाटककारों की रचनाओं में तथा मध्ययुगीन क्षत्रिय रामायण में मिलती है। इन नाटकों में राम के इस कार्य को राजकीय कर्तव्य के रूप में निष्पादित करते हुए सही ठहराया है। भक्ति साहित्य में शम्बूक को भगवान के हाथों द्वारा मारे जाने के कारण जन्म–मरण के बंधनों से मुक्त होते दर्शाया गया है। आधुनिक समय में रामायण की यह कहानी तत्कालीन घोर जातिवाद के पक्षपात के रूप में देखी जाती है। ई.व. रामस्वामी (E.V.Ramaswami) के अनुसार यह कथा बताती है कि राम इतने अच्छे राजा नहीं थे, जितना उनके बारे में बताया जाता है। डॉ॰ भीमराव अंबेडकर का मानना है, यह कथा राम के चरित्र का न केवल उल्लेख करती है, बल्कि उस युग में जाति-प्रथा को जीवित रखने के लिए हिंसा के प्रयोग पर बल देती है। रामायण न केवल जातीय समुदाय का पक्ष लेती है बल्कि उसे बनाए रखने का भी प्रयास करती है। क्योंकि पारंपरिक तौर पर जातियों में अदल-बदल होने का अर्थ सामाजिक स्थायित्व को नष्ट करना है। यहाँ तक कि जातीय स्तर भारतीय इतिहास में विभिन्न जातीय समुदायों के ब्राह्मणों में परिवर्तित होती रही है। न केवल ब्राह्मण बल्कि जमींदार जातियाँ भी सामाजिक रूप से स्वीकृत जैसे शाकाहार को मानने लगी। भारतीय समाज शास्त्र विशेषज्ञ के अनुसार इसे संस्कृतिकरण कहते हैं। मगर पाश्चात्य विद्वान इसे ब्राह्मणीकरण कहना ज्यादा पसंद करते हैं। रामायण में समाज के नीचे तबके के सदस्यों का भी संदर्भ मिलता है। जैसे केवट गुह, आदिवासी, शबरी और कुछ लोग वाल्मीकि, वानर और राक्षस का भी उल्लेख करते हैं। राम का संबंध हर किसी के साथ अलग अलग है। कानून से हटकर भावनात्मक स्थल पर। राम के राजा बनने के बाद शम्बूक की घटना एक घोर अपवाद है। उद्भ्रांतजी की मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ इसकी व्याख्या करती हैं:-

खड़े थे भगवान-

उसे वर देने नहीं-

ओम नमः शिवाय

का जाप करने वाले

उसके अपवित्र शीश को

उसके धड़ से

पृथक करने!

सुस्थापित करने मर्यादा,

और भी सुदृढ़ करने रामराज्य,

ब्राह्मणों,क्षत्रियों,वैश्यों को देने अभयदान

और मेरे जैसे निर्बल, असहाय

अनगिनती शूद्रों को

देते हुए

-परोक्ष नहीं-

प्रत्यक्ष चेतावनी-

अपनी सीमा में रहने के लिए!

अंततः यह त्रेतायुग

राग का;

इस युग में

राम जो करेंगे

नीति-सम्मत वही होगा,

कहेंगे जो कुछ भी-

वह भगवान के वचन होंगे!

उनके चक्रवर्ती यश का सूर्य

चमक रहा सब दिशाओं में,

जिसके प्रचंड ताप से

झुलसती मेरी आत्मा;

और जिसके तीव्र प्रकाश से चौंधियाकर

बंद हो चुकीं आंखें मेरी

सदा के लिए-

खुलने के लिए

किसी आने वाले युग में।

छब्बीसवाँ सर्ग

उपसंहार: त्रेता में कलि

कवि ने त्रेता काव्य का ‘उपसंहार’ कविता के रूप में किया है, कि सत्ययुग से प्रारम्भ हुई मानवीय विकास की यात्रा त्रेता युग में आते-आते अपनी निकृष्टतम परिणति अथवा उच्चतम सोपान तक पहुँची, यह कहा नहीं जा सकता। मगर त्रेता ने सत्य की कठिन परीक्षा लेते हुए अग्नि देव की लपटों में उसे तपाकर संतति के रूप में द्वापर को जन्म दिया।

सत्य ने

जन्म दिया था

त्रेतायुग को,

त्रेता ने

सत्य की कठिन परीक्षा ली

अग्निदेव की लपटों में

उसे तपाकर

जिसने सत्य असत्य की महाभारत को देखा और असत्य को जीत कर अटटहास करते एवं सत्य को लहू-लुहान होते देखा। पहली बार रक्त-सम्बन्ध क्रय-विक्रय के सामान बने और मनुस्मृति का तीसरा वर्ण वैश्य संस्कृति के रूप में चारों दिशाओं में पाँव पसारने लगा। उद्भ्रांत जी कहते हैं:-

रक्त संबंध बने

पहली बार

क्रय-विक्रय का सामान!

मनुस्मृति के

तृतीय वर्ण की

वैश्य संस्कृति ने

अपने पसारे पांव चतुर्दिक

काल का सुदर्शन चक्र वायुवेग से चलता रहा। द्वापर के अंत में काल के व्याघ्र द्वारा कृष्ण के सुकोमल तलवे को बेधते ही कलि का प्रादुभाव होता है अर्थात कलि युग में ईश्वर की मृत्यु होने के साथ-साथ भयानक नर-संहार, नारी लज्जा का हरण, पिता द्वारा पुत्री पर यौन आक्रमण, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर की दुष्प्रवृत्तियाँ इस युग के प्रभाव से ही दिखने लगी। ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय ने शासन की बागडोर अपने हाथ में संभाल कर चौथे वर्ण को सदैव अपेक्षित किया, हाशिये पर रखा और पाँवों तले कुचला, दबाया। ऐसा ही व्यवहार स्त्रियों के साथ भी हुआ।

चौथे वर्ण को

किया प्रताड़ित सतत,

उसकी उपेक्षा की,

हाशिए पर

उसे सदा ही रखा;

दबाया और-

कुचला पाँवों के तले!

तीनों युगों ने

तीनों वर्णों ने

स्त्री-प्रकृति के संग भी

किया वैसा ही व्यवहार!

त्रेता ने जहाँ मर्यादा की सीमा का उल्लंघन कर एक सुहागिन की अग्नि परीक्षा तथा लोक अपवाद से बचने के लिए गर्भवती पत्नी के निष्कासन के उदाहरण द्वापर को महायुद्ध के महासागर में धकेलने के सिवाय क्या कर सकता था? जिसमें स्त्री प्रकृति के साथ पितामह, दादा और पिता जैसे सम्मानीय पुरुषों की उपस्थिति में क्रूरतम एवं दानवी व्यवहार हुआ। मगर कवि उद्भ्रांत को उम्मीद है कि कलियुग ही ऐसा युग है, जिसमें समाज का वंचित, उपेक्षित, अंतिम और असहाय, शोषित, पीड़ित वर्ग को आखिरकार समानता के अधिकार के माध्यम से प्राकृतिक न्याय मिलेगा और समाज से हमेशा–हमेशा के लिये विषमता का अंधेरा समाप्त हो जाएगा।

ताकि इस जगत का

हर शोषित, पीड़ित

और उपेक्षित प्राणी-

अंततोगत्वा पा सके न्याय,

गर्व से उठाकर सिर

चल सके।

सरपट दौड़ने वाले

घोड़े पर बैठकर-

हाथ में लिए

समानता की तेग

विषमता के अंधेरे का

नाश कर सके

समूल!

उपसंहार: निष्कर्ष

        ‘त्रेताइस सदी का एक बहुचर्चित महाकाव्य है,जिस पर हिन्दी के बड़े-बड़े आलोचकों ने न केवल अपने विचारणीय आलेख लिखे हैं,बल्कि आलोचना ग्रन्थों की भी रचना की है,जिसमें खगेन्द्र ठाकुर,डॉ. बलि सिंह,ज्योतिष जोशी,नंदकिशोर नौटियाल,डॉ.पूनम सिन्हा,शरत दत्त,डॉ. राकेश शुक्ल और टेक चंद, डॉ॰आनंद प्रकाश दीक्षित, कंवल भारती आदि के नाम उल्लेखनीय है। आलोचकों ने इस महाकाव्य को प्रगतिशील चेतना,काव्यात्मक मिथक,दलित चिंतन,कलि-कथा,स्त्री-विमर्श तथा आर्य-अनार्य आदि अलग-अलग परिपेक्ष में प्रस्तुत किया है। हिन्दी आलोचक त्रेता को प्रबंधात्मकता,कलात्मकता और कवि-दृष्टि के निकषो पर महाकाव्य के रूप में मानते हैं। पाश्चात्य विचारक लौंगुनिस के उद्दातवाद के अनुसार उद्दात विषयवस्तु,उद्दात भाषा शैली,अलंकारों का प्रयोग,संरचना,गठन के अनुरूप भी इसे महाकाव्य की श्रेणी में लिया जा सकता है। बीसवीं सदी में हिन्दी में लिखे गए चार महाकाव्यों में जयशंकर प्रसाद की कामायनी,अयोध्या प्रसाद सिंह 'हरिओध' काप्रिय-प्रवास, मैथलीशरण गुप्त का साकेत,रामधारी सिंह दिनकर का ‘उर्वशी’ हैं। इक्कसवीं सदी में उद्भ्रांतजी का पहला महाकाव्य त्रेता सन 2009 में नेशनल पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित हुआ। यद्यपि कवि ने बाद में तीन अन्य महाकाव्यों अभिनव पांडव,’वक्रतुंड,’राधामाधव की रचना की हैं,‘स्वयंप्रभा उनका खंड-काव्य है,रुद्रावतारनकी लंबी कविता है,प्रज्ञावेणु गीता पर किया उनका अनुवाद है। डॉ.नामवर सिंह के अनुसार,“उद्भ्रांत जी के महाकाव्य त्रेता में एक कलि और कलि में एक त्रेता है। यह हिन्दी में पहली बार हो रहा है कि एक कवि रामायण काल की दर्जनों स्त्रियॉं को एक सूत्र में बांध रहा है। किसी की ध्यान में यह बात नहीं आई,कवि परंपरा से जुड़ी हुई स्त्रियों के साथ क्या सलूक करना चाहता है?”

मुझे नामवरजी की उपर्युक्त टिप्पणी उचित लगती है क्योंकि किसी भी उदात्त काव्य का महल सदैव परंपरा की नींव पर खड़ा होता है। नामवरजी की इस बात पर मुझे पाश्चात्य आलोचक टी.एस.इलियट की प्रसिद्ध आलोचना पुस्तक “ट्रेडिशन एंड इंडिविजुअल टेलेंट” में कहे गए मन्तव्य का स्मरण आता है कि “काव्य-हेतु,भले ही पौराणिक हो,मिथकीय हो,पारंपरिक हो, कवि अपनी व्यक्तिगत प्रज्ञा के द्वारा समकालीन समस्याओं को ध्यान में रखते हुए अपनी कृति की रचना करते हैं। ” यह काम उद्भ्रांतजी ने भी किया हैं। अपने महाकाव्य में ‘शंबूक की जननी,’धोबिन,’शांता आदि पात्रों की मौलिक कल्पना कवि उद्भ्रांतजी ने आधुनिक समस्याओं को ध्यान में रखते हुए किया है। त्रेता के बहुत सारे प्रसंग नवीन है।

डॉ.आनंद प्रकाश दीक्षित ने आलोचना-ग्रंथ “त्रेता: एक अंतर्यात्रा” में उद्भ्रांतजी के इस महाकाव्यकी प्रेरणा उनकी अद्भुत कल्पना-शक्ति को मानते हैं। कॉलरिज जैसे प्रसिद्ध पाश्चात्य आलोचक इसे कवि की गौण-कल्पना शक्ति मानते है,जो उसे साहित्य-सृजन में अपना सहयोग देती है। उद्भ्रांतजी ने अपने इस महाकाव्य में आत्मकथा शैली अपनाई है। जिसमें कथा को पूर्व-स्मृति पद्धति द्वारा आगे बढ़ाया है। इसमें ललित कल्पना का भी बिम्ब बनाने हेतु प्रयोग हुआ है। शबरी और सूर्पनखा का सफल चरित्र-चित्रण इन्हीं घटकों पर आधारित है। डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित के अनुसार त्रेता का काव्य विन्यास जटिल है,जिसमें कवि महाकाल,काल और समय की अवधारणाओं को समेटते हुए वर्तमान की कोली पर अतीत और भविष्य के बीच संतुलन और सामंजस्य साधता है। मेरी नजरों में सुदामा पाण्डेय 'धूमिल' की कविताओं की तरह त्रेता की काव्य-भाषा सपाट-बयानी प्रतीत होती है। मगर उनकी भाषा धूमिल की तरह ही वक्र तथा व्यंग्य की सांस लेता है।

दलित चिंतक कंवल भारती ने अपनी पुस्तक “त्रेता-विमर्श और दलित-चिंतन’ में लिखा है कि “उद्भ्रांत पहले कवि है जिन्होंने शंबूक की माँ की मौलिक कल्पना की है। शंबूक पर अभी तक जितने भी काव्य और नाटक लिखे गए हैं,उनमें किसी में भी उसकी माँ का चरित्र चित्रण नहीं मिलता है। यह सिद्ध करता है कि राम-राज्य और वर्णाश्रम धर्म के विरुद्ध कवि गहरे जनतांत्रिक मूल्य और सामाजिक न्याय में विश्वास रखता है। कवि की प्रेरणा भले ही वाल्मीकि रामायण,तुलसी के रामचरित मानस या लोक-परंपरा से मिली हो,मगर उनके सुख-दुख ,अंतर्द्वंद्व और संघर्ष को उभारने में कवि ने पृथक शैली अपनाई है। ”

मेरी दृष्टि में त्रेता में परंपरा के साथ-साथ आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता भी है। वर्तमान युग में इंटरनेट तथा सूचना-क्रांति के कारण पाठकों का बहुत बड़ा वर्ग साहित्यिक अभिरुचियों से अलग होता जा रहा है। पाठकों की भाषा,अभिव्यक्ति,शैली,संरचना सभी व्याकरणिक नियमों को ताक पर रखकर पिजिन अथवा क्रियोल भाषा का निर्माण कर रहे हैं। इस युग में हो रहे बदलाव के कारण,जहाँ एक लघु कविता लिखना कठिन होता है वहाँ महाकाव्य की रचना करना अपने आप में एक चुनौती भरा कार्य है। इस चुनौती भरे एकाधिक कार्य के लिए कवि उद्भ्रांतजी का जितना भी अभिनंदन किया जाए, वह कम होगा।

मेरा मानना है कि कवि ने अपने महाकाव्य में दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श को स्थान देकर अपनी सुषुप्त मार्क्सवादी विचारधारा के भभकने का परिचय दिया है। कबीर की तरह उद्भ्रांतजी भी एक अल्हड़,मस्तमौला और नृसिंह अवतार की तरह है,जो एक ऐसे चौराहे पर खडे है;जिसकी एक दिशा आधुनिकता की ओर जाती है तो दूसरी दिशा परम्पराओं की तरफ। तीसरी दिशा उत्तर आधुनिकता की ओर रुख करती है तो चौथी दिशा सांस्कृतिक मूल्यों की याद दिलाती है। मेरे ख्याल से कवि ने शायद इस महाकाव्य की रचना में मिथकों का प्रयोग साधारण जनमानस की सामूहिक स्मृति को जगाकर सामूहिक विकास हेतु आंदोलन खड़ा करने के लिए किया है। आजकल अनेक पाठक जहाँ मिथकों में विश्वास नहीं रखते या उनके प्रसंगों में वैज्ञानिकता खोजने का प्रयास करते हैं,उनके लिए यह महाकाव्य अपने आप में किसी वरदान से कम नहीं है। जैसा कि त्रेता की भूमिका में कवि ने लिखा हैं,“भारतीय वैज्ञानिक डॉ॰ यशपाल के अनुसार मिथक किसी समाज की कल्पना और इसके आश्चर्यों को रचनात्मक दृष्टि को ही दर्शाते हैं। ”

कवि उद्भ्रांतजी ने त्रेताकालीन रामराज्य की सामाजिक विद्रूपताओं,विसंगतियों को यथार्थता से प्रस्तुत कर महात्मा गांधी के आदर्शवादी रामराज्य की परिकल्पना को पूरे सिरे से नकार दिया है। त्रेता पढ़ने से कभी-कभी तो ऐसे लगता है कि त्रेताकालीन समाज वर्तमान कलियुग के समाज से भी काफी पिछड़ा हुआ रहा होगा। सीता की अग्नि-परीक्षा,वनगमन की घटना,लड़का-लड़की में भेद-भाव,घोर जातिवाद(धोबिन,शंबूक की जननी,शबरी) के कारण महिलाओं की प्रताड़ना और पुरुष वर्चस्व वाले समाज में व्याप्त अनेकानेक कुरीतियों को सामने रखकर कवि ने यह सिद्ध किया है कि आदर्श रामराज्य का कोई अस्तित्व त्रेता में नहीं था। केवल पूर्ववर्ती कवियों और साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में तत्कालीन घटनाओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया है।

भारत को जातिविहीन और धर्मविहीन देखने का सपना कवि के इस महाकाव्य में स्पष्ट झलकता है तथा आधुनिक युग के जनमानस में व्याप्त पूर्वाग्रह,मिथकीय अवधारणाओं का भंजन करता है। अतीत,वर्तमान और भविष्य को त्रेताकार समान दृष्टि से देखता है। कवि उद्भ्रांतजी के लिए अतीत भी वैसा ही था, जैसा आज वर्तमान है और भविष्य भी अतीत और वर्तमान से संबद्ध रहते हुए आगे प्रगति के पथ पर दिखाई देगा। भले ही,मनुष्य की भाषा,परिवेश,खान-पान,रहन-सहन, सोचने क ढंग आदि सामाजिक,सांस्कृतिक,राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण परिवर्तित क्यों न हो जाए।

संक्षिप्त में, त्रेता एक ऐसा महाकाव्य है,जो आधुनिक पाठकों की अतीत सामूहिक स्मृतियों को झकझोर कर मिथकीय गरिमा-महिमा पर आश्चर्यचकित हुए बिना आधुनिक समस्याओं के समाधान पर बल देता है। अगर हम हमारे देश में दलितों और स्त्रियॉं का उद्धार करते हैं,तो हम सही अर्थों में देश का विकास कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में,आदर्श रामराज्य यानि यूटोपिया की स्थापना कर सकते हैं। त्रेता-सृजन का मुख्य उद्देश्य इन्हीं समस्याओं का समाधान ढूँढना है। चीन,भारत के आजाद होने के दो वर्ष बाद आजाद हुआ, मगर दलित और स्त्री-विमर्श के माध्यम से उनकी समस्याओं का समाधान का आज विश्व की एक महान शक्ति बन चुका है। अतः हमें त्रेता जैसे उद्दात साहित्य की अत्यंत आवश्यकता है,जो देश के नीति-निर्धारकों में इन सामाजिक विषमताओं से मुक्ति दिलाने का कार्य कर सकें।


(समाप्त)

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: त्रेता : एक सम्यक मूल्यांकन - उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल - भाग 9 // दिनेश कुमार माली
त्रेता : एक सम्यक मूल्यांकन - उद्भ्रांत के महाकाव्य त्रेता की पड़ताल - भाग 9 // दिनेश कुमार माली
https://lh3.googleusercontent.com/-xaPl1nRixlA/WsNpDJIhp7I/AAAAAAABAoc/r1-976xF2X0STevT8VUuQQd9z6vFRfsrQCHMYCw/image_thumb%255B1%255D?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-xaPl1nRixlA/WsNpDJIhp7I/AAAAAAABAoc/r1-976xF2X0STevT8VUuQQd9z6vFRfsrQCHMYCw/s72-c/image_thumb%255B1%255D?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/04/9.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/04/9.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content