व्यंग्य : बुद्धिजीवियों का अकाल .....// सुशील यादव

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भाई सा . इधर आपने बुद्धिजीवी को देखा है ? --कौन ... वो हकला मास्टर ? आप गाव से कितने साल बाहर रहे ...? उनकी ‘लाई लुटे’ तो सालों हो गए। -मैं ...

भाई सा . इधर आपने बुद्धिजीवी को देखा है ?

--कौन ... वो हकला मास्टर ?

आप गाव से कितने साल बाहर रहे ...? उनकी ‘लाई लुटे’ तो सालों हो गए।

-मैं उनकी बात नहीं कर रहा।

फिर किसे तलब कर रहे हैं। एक थे पंचायत में बैठते थे। वे तो ट्रांसफर में आये और गए साल ही कहीं चले गए। सही–सही पंचायत वाले बता देंगे।

हाँ , एक और हैं जो हाफ कप चाय पीने के लिए दो मील दूर से आ जाते हैं। इस टपोरी होटल में दो दैनिक अखबार आता है ,उसकी एक- एक खबर पढ़ लेने के बाद शाम को जाते हैं। होटल का मालिक उनके भरोसे होटल छोड़ अपना सौदा पास के शहर से निपटा आता है। हम लोग उसे सुदामा नाम से जानते हैं। कोई उसके असली नाम से वाकिफ हो,ये हमें नहीं लगता। वैसे वो उधर अभी भी बैठा है।

अपनी तरफ उंगली के उठते देख उस सुदामा नुमा फटेहाल हुलिए के आदमी ने सीधे मुझसे वार्तालाप का श्रीगणेश किया।

-वैसे भाई साहब ,आप हैं कौन और किस बुद्धिजीवी की तलाश कर रहे हैं ?

देखिये इस गाँव में ‘कांग्रेस राज’ के बाद इस किस्म की फसल अब पैदा नहीं होती।

जो पढाई बच्चे लालटेन जमाने में किया करते थे ,वो भी तब, जब घर में बारह -पन्द्रह लोगों के बीच एक लालटेन हुआ करती थी ।गिनती –पहाड़ा ,इमला ,मन- गणित सब ,अँधेरे में भाई –बहनों के बीच अंताक्षरी की तरह बोल सुन के समझ-सीख लिया जाता था। आज की तरह नहीं,बिजली का खटका दबाया और बिजली जल गई मगर पढाई गोल।

जानते हैं , इस उजाले ने, जिससे आसपास की तमाम चीजें साफ -साफ दिखने लग गई है , इसने अर्जुन की ‘आँख और लक्ष्य’ के बीच में दरार पैदा कर दी। यानी लक्ष्य के अलावा बाकी चीजें स्पष्ट दिखाई दे जाती हैं। समझ रहे हैं न आप ....उसकी घूरती आंखों ने बिना जाब की अपेक्षा वाला जुमला उछाल दिया। फिर अपनी आक्रामकता जारी रखते हुए कहने लगा ,

आप बुद्धिजीवी पैदा करने के सभी जुगाड़ करते हैं, तो आप की सोच में प्राथमिकता वाली जगह में बस ; ‘एजुकेशन सिस्टम’ में कसावट लाने की बात होती है। बड़े –बड़े भाषण देकर यह जताया जाता है कि अगर एजुकेशन सुधर गया तो समझो सब सुधर गया। इलेक्शन के वक्त तो इसे रीढ़ की हड्डी बता कर, बाकायदा लोगों के बीच उपचार और फिजियोथेरेपी का खेल खेला जाता है। शुरू –शुरू में साउथ आले दो कदम आगे बढ़ कर पढाई के बीच मध्यान भोजन की बात कर गए। आज हर प्रांत में अनिवार्यता की हद तक धांधली और घोटाले के साथ मजे से जारी है। कितने एन जी ओ कुकुरमुत्ते की तरह राजनैतिक संरक्षण आले खुल गए।

दोपहर भोज देकर क्या आप जानते है पुराने दौर के स्तर को छू पाएगा ...। खाने –पीने के अलावा गुरूजी ,मास्टर ,टीचर और पढ़ने वालों का उसी तल्लीनता से पढ़ाई में मन लगा रहेगा ...? सिरे से ये सोच गलत है। आज तमाम परिवार को जिन्हें बिलो पावर्टी लाइन के समझा करते थे कम कीमत में अनाज -राशन पा रहे हैं। वे हप्तों मजदूरी में जाने की जहमत भी नहीं उठाते, फिर उन्हीं के बच्चों को स्कूल में खाने की दावत पर बिठाना उन लोगों को और निकम्मा बनाने की साजिश है। हमारे एजुकेशन सिस्टम में दो स्तरीय व्यवस्था प्राइवेट और पब्लिक स्कूल के नाम पर है। दूसरे में केवल अभिजात्य वर्ग के खर्चीले शिक्षा प्रणाली का चलन है।

भाई साहब ,वहां के बच्चे मोबाइल में सेल्फी लेने के बाद, बचे समय का सदुपयोग जानते हैं। पालक की सतर्क निगाहें घेरे रहती हैं ,ट्यूशन के टीचर नैतिक शिक्षा की समय -समय पर घुट्टी पिलाते रहते हैं। देहाती बच्चों माफिक नहीं जो मोबाइल पा के गेम में ,फालतू के एस एम एस ,वीडियो चेटिंग में पैसा उड़ाएं। आप इधर देहात में ब्रिलियंट जिसे आप बुद्धिजीवी कह रहे है ढूँढना छोड़ दें।

हमारे गाँवों ने ऐसा नहीं कि बुद्धिजीवी पैदा ही नहीं किये ...? यहाँ भी टैलेंट है जो आम को टपकते देख न्यूटन माफिक गुरुत्व के सिद्धांत को आगे की सोच और दिशा दे सकते हैं। आर्कमिडीज के तैरने के नियमों में खासा जहाज तेरा सकते हैं ,आपने मौक़ा दिया कभी ....? ले दे के पी डब्लू  डी के भरोसे पानी की टँकी खड़ी कर देते हो जिसका भरोसा नहीं कब भरभरा के गिर जाय ....? और तो और केवल चन्द पंचायत के ओहदे वालों , विधायक के रिश्तेदारों और स्थानीय विपक्ष के नेता के घर6 तक पाइप लाइन डाल के किस्सा खत्म समझ लेते हो .....? अब बिना टपके आम और बिना सोमिग पुल के बताओ ये संभव है ..........?

आंय.......

-उसके लम्बू स्टाइल के आंय ने मुझे कटघरे में खड़ा कर दिया ...। मैंने सहजता के नाट्य रूपांतर में कहा ,आप ये सब कब से जानते हैं ....? कहीं इसके विरोध में आपने कुछ बोला ... कहीं मुंह खोला ...?

मेरी तुक बंदी पर प्रतिक्रिया देने में उन्होंने एक लंबी सांस छोड़ी ....? मुझे घूरने लगे ....।

-भाई साहेब आप सचमुच इधर नए हो .....?

-उसने उघाड़ कर अपनी पीठ सामने मेरे रख दी। ये है अपने स्वतन्त्र भारत की आजादी के बाद ,इमरजेंसी कानून के बीस साल बाद की मार खाई पीठ ..... पुलिसिया बर्बरता ,माफियाओं का दुस्साहस ,ठेकेदारों के जुल्म की इंतिहा शराब स्मगलरों के खिलाफ जाने का सबूत ......

-मैं अवाक देखता रहा .... पूछा पत्रकार थे क्या ....?

--पत्रकार होता तो गाँव के शुरू होते ही मेरी बिल्डिंग फार्म - हाउस के साथ नहीं नजर आती क्या ....?

मैंने गलती को महसूस किया, वाकई उनके जख्म काफी गहरे हैं। लगता है भ्रष्टाचार के अनेक मोर्चे पर वे लगातार जूझते रहे हैं

--खुद के उम्र दराज होने की हताशा उसके हांफते हुए इस बयान में थी,” मैं आम नागरिक ,बिना मफलर के ठंड गुजार देने वाला ,बिना छतरी के बरसात और पेड़ के नीचे भीषण गर्मी में बैठने वाला ....?” किसी ने टेलेंट को पहचानने की परवा नहीं की ...? बस लाठियां भांजते रहे , मैं गलत न होते हुए भी सब सहता रहा। कानून की लम्बी दुश्वारियां और तंग पैसों से हाथ ने घुटने टेकने को मजबूर कर दिया। लोग देश को और यहां की व्यवस्था को सब अपने -अपने तरीके से चलाते रहे .....। उनकी मर्जी को नियति समझ के चुप रहने में आजकल कोई बुराई नहीं लगती ....?

आधी कप चाय से ज्यादा की हैसियत नहीं .... आप पियोगे ....?

मैंने कहा .... ‘सुदामा’ .....?

उसने सर झुकाते हुए कहा चलो यही नाम सही .....?

**

दुर्ग 22.03.18

सुशील यादव ,

न्यू आदर्श नगर ,जोन 1-स्ट्रीट

दुर्ग (छ.ग.)

susyadav7@gmail.com

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रचनाकार: व्यंग्य : बुद्धिजीवियों का अकाल .....// सुशील यादव
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