कहानी संग्रह // तर्जनी से अनामिका तक ( प्रेरणादायक कहानियाँ एवं संस्मरण ) - भाग - 5 // राजेश माहेश्वरी

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कहानी संग्रह तर्जनी से अनामिका तक ( प्रेरणादायक कहानियाँ एवं संस्मरण ) राजेश माहेश्वरी पिछले भाग 4 से जारी... जुए की लत रामसिंह एक कारखाने म...

कहानी संग्रह

तर्जनी से अनामिका तक

( प्रेरणादायक कहानियाँ एवं संस्मरण )

राजेश माहेश्वरी

कहानी संग्रह //  तर्जनी से अनामिका तक ( प्रेरणादायक कहानियाँ एवं संस्मरण )  // राजेश माहेश्वरी

पिछले भाग 4 से जारी...

जुए की लत

रामसिंह एक कारखाने में उच्च पद पर कार्यरत था। उसे बुरी संगत के कारण जुआ खेलने की लत लग गई। इस लत के कारण प्रारंभ में तो वह ताश के पत्तों से जुआ खेलता था, धीरे धीरे कैसिनो जाना भी उसने शुरू कर दिया जिससे वह प्रतिदिन हजारों रूपयों का जुआ खेलने लगा। वहाँ पर उसकी मुलाकात कई धनाढ्य व्यक्तियों से होती थी जिस कारण उनके सुझावों पर उसने शेयर मार्केट में भी प्रतिदिन शेयर खरीदने और बेचने का काम शुरू कर दिया। उसकी पत्नी को जब इन सब बातों का पता हुआ तो उसने रामसिंह को बहुत समझाया कि इस प्रकार के कामों में यदि तुम्हें घाटा हो गया तो अपना परिवार बर्बाद हो जायेगा।

रामसिंह कहता था कि शेयर मार्केट का काम तो एक व्यवसाय है और इसमें नफा नुकसान का होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। मै बहुत होशियारी के साथ शेयर की खरीद फरोख्त करता हूँ यदि वक्त और भाग्य ने साथ दिया तो बहुत जल्दी ही तुम्हें लाखों रूपया कमाकर दे दूँगा। उसकी पत्नी बहुत समझदार थी उसने उससे कहा कि शेयर की प्रतिदिन खरीद और बिक्री करना एक जुए के समान है। तुम्हें ऐसे गलत कार्यों से बचना चाहिए। रामसिंह ने उसकी बात नहीं मानी और प्रतिदिन इस प्रकार की सट्टेबाजी करता रहा।

एक दिन उसने त्वरित धन कमाने की अभिलाषा में अपनी हैसियत से ज्यादा शेयर खरीद लिये और दुर्भाग्य से उसी दिन उनका दाम कम हो जाने के कारण उसे काफी लंबा घाटा लग गया। इस कारण उसके होश फाख्ता हो गये और उसे रकम चुकाने में अपना स्वयं का घर, कार और अन्य सामान बेचना पड़ा। इतना सब होने के बाद भी यह लत वह नहीं छोड़ पा रहा था और क्रमशः वह दिवालिया होता गया।

उसकी पत्नी ने उनके गुरू स्वामी राजेश्वरानंद जी को जाकर इस समस्या के बारे में बताकर उनसे समाधान हेतु निवेदन किया। उन्होंने कहा कि रामसिंह को मेरे पास आश्रम में भेज देना। यहाँ के वातावरण और मेरी निकटता, निश्चित रूप से उसके स्वभाव को परिवर्तित कर देगी। रामसिंह तदनुसार उनके आश्रम आ जाता है। वहाँ पर कुछ दिन तो वह शांत रहता है और स्वामी जी की इच्छाओं का पालन करता है परंतु धीरे धीरे उसके मन में जुए की इच्छा प्रबल होने लगती है। एक दिन वह स्वामी जी के पास जाकर स्पष्ट रूप से कहता है कि स्वामी जी मैं जुआ खेले बिना नहीं रह सकता हूँ। आप कोई ऐसा चमत्कार कर दे कि मेरे मन से जुआ खेलने की प्रवृत्ति खत्म हो सके।

स्वामी जी उसकी बात सुनकर अपने पालतू कुत्ते को आवाज देकर बुलाते है और उसे पकड़कर वहीं बैठ जाते हैं कुछ देर बाद कुत्ता छूटने के लिए छटपटाने लगता है। वह स्वामी जी के चेहरे को देखता है और बार बार छूटने का प्रयास करता है। यह देखकर रामसिंह घबराकर कि कही कुत्ता स्वामी जी को काट ना ले तो उनसे कहता है कि आप इसे छोड़ते क्यों नहीं है। ऐसे में यह नाराज होकर आपको काट सकता है। स्वामी जी कहते है मेरे हाथ इसे छेड़ नहीं पा रहे है। मैं क्या करूँ ? रामसिंह आगे बढ़कर उनके दोनों हाथों को अपने हाथ से अलग कर देता है ताकि कुत्ता छूट जाये।

स्वामी जी रामसिंह की ओर देखकर कहते हैं कि देखो जैसे मैंने कुत्ते को जकड़कर पकडा हुआ था उसी प्रकार तुम जुए की लत को अपने मन में पकड़कर रखे हुए हो। तुमने आगे आकर मेरा हाथ हटाकर कुत्ते को मुक्त कर दिया। तुम भी अपने इस व्यसन को पत्नी के अनुरोध पर क्यों नहीं छोड़ सकते हो ? यह सुनकर वह स्वामी जी का आशय जान गया और उसने जुआ ना खेलने का दृढ़ संकल्प ले लिया। इस घटना के बाद वह अपनी इस बुरी आदत से छुटकारा पा गया और पुनः कडी मेहनत करके उसने अपनी खोयी हुयी संपत्ति दुबारा हासिल कर ली और सुखमय जीवन बिताने लगा।

नवोदय

रामसिंह बहुत संपन्न परिवार से थे, उनका भारतीय पुलिस सेवा में चयन हो जाने से वे अत्यंत प्रसन्न थे क्योंकि जनता की सेवा की कामना उनके मन में बचपन से ही थी। वे बहुत ही कुशल, ईमानदार, साहसी एवं विनम्र व्यक्तित्व के धनी माने जाते थे। एक बार अचानक ही भूकंप आने से धरती दहल गई इससे जानमाल के नुकसान के साथ साथ बहुत बड़ी आर्थिक क्षति भी जनता को हुई।

इसकी गंभीरता को देखते हुये, सेवा को कार्य को और गति प्रदान करने के लिए रामसिंह की नियुक्ति भूकंप प्रभावित क्षेत्र में की गई। वे दिन रात अपने साथियों के साथ बचाव कार्य में लगे रहते थे। भूकंप की गंभीरता के देखते हुये सेना को भी मदद के लिए बुलाया गया था। रामसिंह ने देखा और महसूस किया कि सेना के जवान प्राकृतिक आपदा के हालात में बचाव कार्य हेतु पूर्ण रूप से प्रशिक्षित है। जिसके कारण वे बहुत तेजी से हालात संभालते जा रहे थे, जबकि रामसिंह के सभी साथी इस प्रकार के हालात से जूझने के लिए प्रशिक्षित नहीं थे और उन्हें बचाव कार्यों में अत्यंत कठिनाई का सामना करना पड़ रहा था।

रामसिंह रात में अपने कैंप में विश्राम हेतु जब लेटे हुये थे तो उनके मन में विचार आया कि हमारे देश के नागरिकों को भी प्राकृतिक आपदाओं के समय बचने की प्राथमिक शिक्षा का ज्ञान अवश्य होना चाहिए। सेना जिस प्रकार से इसमें निपटने में सक्षम है उसी प्रकार से सभी को ऐसी विषम परिस्थितियों से निपटने का प्रशिक्षण मिलना चाहिए। हमारे देश में ऐसी प्राकृतिक आपदायें प्रतिवर्ष आती हैं जिससे काफी जानमाल का नुकसान होता है। कुछ समय पश्चात रामसिंह का बचाव दल वापस अपने गृहनगर लौट आता है। रामसिंह के मनोपटल पर भूकंप की भयानकता के दृश्य अभी भी घूम रहे थे और वह चैन से नहीं सो पा रहा था।

रात्रिभर विचार मंथन करने के पश्चात वह एक निश्चय पर पहुँच गया कि आम जनता के लिए ऐसा प्रशिक्षण संस्थान होना चाहिए जहाँ प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए सामान्य जानकारी एवं प्रशिक्षण प्रदान किया जाये। उसने इसकी कार्ययोजना बनाकर शासन की सहमति से ऐसे केंद्र का निर्माण किया और सेना की सहायता से आम नागरिकों को प्राकृतिक आपदा के समय बचाव एवं राहत कार्य के लिए प्रशिक्षित करना प्रारंभ कर दिया। कुछ माह में रामसिंह के संस्थान में काफी लोग जुड़ गये जो कि प्राकृतिक आपदा के समय सेना एवं प्रशासन के साथ उनका सहयोग करते थे। इन प्रशिक्षित लोगों के कारण बचाव कार्य में अभूतपूर्व तेजी आने लगी जिस कारण रामसिंह के संस्थान को बहुत प्रसिद्धि मिलने लगी।

ऐसे प्रशिक्षण की उपयोगिता को समझते हुए प्रशासन द्वारा विभिन्न स्थानों एवं शिक्षा संस्थानों में भी इसके प्रशिक्षण शिविर आयोजित होने लगे। इस संस्थान की उपयोगिता को देखते हुए देश भर में इसकी प्रसिद्धि फैलने लगी और जगह जगह ऐसे प्रशिक्षण केंद्र खुलने लगे। रामसिंह के इस प्रकार के प्रयासों को देखते हुए सरकार द्वारा सम्मानित किया गया। यदि हमारे मन में दूसरों के हित की भावना हो तो साधन उपलब्ध होकर सफलता अवश्य प्राप्त होती है।

संकल्प ही सफलता का सूत्र है

श्री संजय सेठ एक सुप्रसिद्ध चार्टर्ड एकाऊंटेंट होने के साथ साथ संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठ चिकित्सक स्वर्गीय डॉ. जे.एन. सेठ के ज्येष्ठ पुत्र भी है। वे नगर के सुप्रसिद्ध नर्मदा क्लब जिसका निर्माण ब्रिटिश शासन काल में सन् 1889 में हुआ था और इसी क्लब में विश्व में सबसे पहली बार स्नूकर का खेल खेला गया था। वह ऐतिहासिक टेबिल जिस पर इस खेल को खेला गया था आज भी यहाँ पर सुरक्षित है। ऐसे प्रतिष्ठित नर्मदा क्लब में वे सन् 2004 से लगातार अध्यक्ष पद हेतु निर्वाचित हो रहे है।

वे अपने बीते हुए जीवन के विषय में बताते हैं कि उन्होंने विज्ञान विषय में बी.एस.सी की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वे असमंजस में थे कि वे विज्ञान विषय में आगे अध्ययन करें या अपनी शैक्षणिक दिशा बदल ले क्योंकि उनकी अभिरूचि चार्टर्ड एकाउटेंट बनने की दिशा में हो गई थी। उनका कहना है कि वह समय बहुत ही चुनौतीपूर्ण लग रहा था और उनके शुभचिंतकों की सलाह थी कि विज्ञान विषय में उत्तीर्ण होने के पश्चात सी.ए. की परीक्षा में सफल होना बहुत कठिन है। उनके साथ पढ़ने वाले एक सहपाठी ने सबके सामने उन्हें ताना मारते हुए कहा कि ये तो पढाई में इतने होशियार है कि सी.ए बन ही जायेंगे।

उसकी इस उलाहना से उन्होंने मन में यह संकल्प लिया कि चाहे जो कुछ भी हो जाये, उन्हें कितना भी परिश्रम क्यों ना करना पड़े, वे सी.ए की परीक्षा को अवश्य उत्तीर्ण करके ही रहेंगे। इस दृढ़ निश्चय के कारण वे रात दिन अपने संकल्प को पूर्ण करने में व्यस्त हो गये। उनके परिवार के सदस्यों ने भी उनका मनोबल बढाया और सी.ए. की परीक्षा के उपरांत जब परीक्षा परिणाम आया तो वे आश्चर्यचकित रह गये और उन्हें महसूस हुआ जैसे वे कोई स्वप्न देख रहे हो परंतु यह हकीकत थी कि वे अच्छे नंबरों से सी.ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये थे।

उन्होंने अपने परिवार की भावना के अनुसार अपने पैतृक स्थल जबलपुर से ही प्रैक्टिस शुरू की और सफलता के उच्च आयामों को छुआ। उनका युवाओं के लिए संदेश है कि इंसान सच्चे मन से कोई संकल्प ले और उस दिशा में अथक परिश्रम करे तथा ईमानदारी से प्रयासरत् रहे तो कोई भी ऐसी मंजिल नहीं है जिसे वह पा नहीं सकता हो।

अक्षयपात्र

हरिप्रसाद एक मध्यमवर्गीय परिवार से था जो कि बी.कॉम अंतिम वर्ष में अध्ययनरत था। एक दिन वह अपने मित्र जो कि शासकीय अस्पताल में भर्ती था उसे देखने के लिए गया था। वहाँ उसने महसूस किया कि ऐसे अस्पतालों में गरीब लोग ही आते है और जनसुविधा के नाम पर बहुत ही सीमित सुविधाएँ उन्हें उपलब्ध होती है। उसके मित्र का दोपहर के भोजन का समय हो गया था और उसे संतुलित आहार अस्पताल के माध्यम से प्रदान किया जाता था।

उसका मित्र जब भोजन कर रहा था तो उसके बगल में लेटे हुए दूसरे मरीज के परिवार का एक बच्चा अपनी माँ से भूख लगने की बात कहकर भोजन देने के लिए कह रहा था परंतु उसकी माँ उसे हर बार चुप करा देती थी शायद उसे पास भोजन खरीदने के लिए रूपये नहीं थे। हरिप्रसाद को यह दृश्य बहुत द्रवित कर रहा था। उसने अपने मित्र से पूछा कि क्या यहाँ पर मरीजों के साथ आने वालों के लिए भोजन की व्यवस्था नहीं है ? उसके मित्र ने यह सुनकर कहा कि यहाँ मरीजों को ही भोजन प्रदान किया जाता है उसके साथ आये हुए लोगों को बाहर अपनी व्यवस्था स्वयं करनी पड़ती है। यदि आपके धन खर्च करने की क्षमता है तो आप भोजन खरीद कर खा सकते है अन्यथा आपको स्वयं ही कोई वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी।

कुछ समय पश्चात हरिप्रसाद वापस आ जाता है परंतु उसके मन में यह चिंतन चलता रहता है कि ऐसे गरीब व्यक्तियों के लिए जो अपने परिजनों के इलाज के लिए अस्पताल आते है उनके भोजन के लिए भी कुछ व्यवस्था की जानी चाहिए। हरिप्रसाद के पास साधन बहुत सीमित थ,े फिर भी उसने अपने मित्रों के साथ मिलकर गरीब मरीजों के परिजनों को निःशुल्क भोजन उपलब्ध कराना प्रारंभ कर दिया।

इस जनसेवा की खबर जब शहर के समाज सेवी संगठनों तक पहुँची तो उन्होंने इसकी विस्तृत जानकारी लेने हेतु हरिप्रसाद को अपने पास बुलाया। उसकी कार्ययोजना को सुनकर वे सभी बहुत प्रभावित हुए और हरिप्रसाद के अनुरोध पर वे भी इस जनहितकारी कार्य में अपना सहयोग देने के लिए सहमत हो गये। अब यह कार्य और भी विस्तृत और सुचारू रूप से होने लगा था और इस कार्य की महत्ता को देखते हुए एक उद्योगपति ने भोजन वितरण की सुविधा हेतु एक मारूति वेन प्रदान कर दी।

हरिप्रसाद ने अपनी सेवा के विस्तार को देखते हुए एक ट्रस्ट की स्थापना कर की जिसका नाम अक्षयपात्र रखा गया। धीरे धीरे इस योजना का विस्तार दूसरे शासकीय अस्पतालों में भी हो गया। इस प्रकार एक छात्र की दृढ़ इच्छा शक्ति, लगन और समर्पण की भावना ने जनसहयोग से एक अविस्मरणीय कार्य संपन्न करके दिखा दिया।

शव की शवयात्रा

नर्मदा नदी के बहाव के साथ एक शव भी बह रहा था जो कि लकडियों की अर्थी पर रखा हुआ, फूल मालाओं से ढका हुआ था। उस शव को अपनी ओर आता देख नदी में स्नान कर रहे लोग भाग खड़े हुए, इसकी सूचना जब स्थानीय प्रशासन तक पहुँची तो वे भी चौंक गये क्योंकि आज ही सायंकाल नर्मदा मैया की आरती के समय प्रदेश के मंत्री जी द्वारा नर्मदा शुद्धिकरण अभियान पर अपना उद्बोधन जनता के बीच देने वाले थे। यदि यह शव बहता हुआ मंत्री जी के कार्यक्रम के दौरान उस घाट पर पहुँच जाता तो बहुत भारी हंगामा खडा हो सकता था। सभी अधिकारीगण एकमत थे कि येन केन प्रकारेण शव को तुरंत नदी से निकाला जाए। अब गोताखोरों की एक टीम शव को अपने नियंत्रण में लेकर उसे किनारे ले आयी। उन्होंने जब शव को देखा तो वे सभी चौक गये और उन्होंने अपने अधिकारियो को इस बात से तुरंत अवगत कराया। यह जानकर अधिकारीगण भी सकते में आ गये और उन्होंने तुरंत मामले को रफा दफा करने का निर्देश दे दिया।

मंत्री जी अपने निर्धारित समय पर नर्मदा जी के घाट पर पहुँचे और आरती में शामिल होने के उपरांत नर्मदा जी को प्रदूषण से मुक्त कराने की नयी योजनाओं की जानकारी जनता को प्रदान करके वापिस चले गये। उनके जाने के उपरांत अधिकारीगण आपस में एक दूसरे को बता रहे थे कि यह कार्य किसी राजनैतिक व्यक्ति के द्वारा किया गया हो सकता है।

वह शव जो नदी में बह रहा था, वह वास्तव में शव ना होकर एक पुतला था जिसका रंग, रूप एवं आकार हूबहू मंत्री जी से मिलता था। किसी के द्वारा हंगामा खड़ा करने की नीयत से यह कार्य किया गया था। यदि आरती के निर्धारित समय पर यह बहकर उस घाट पर पहुँच जाता तो उससे अप्रिय स्थिति निर्मित होकर एक बवाल मच सकता था। अब सभी अधिकारियों ने भगवान के प्रति धन्यवाद व्यक्त करते हुए, श्रद्धापूर्वक नर्मदा मैया के प्रति भी आभार व्यक्त किया। हमें आजकल पुनीत कार्य में भी अवरोध पैदा करने वाले शरारती तत्वों से सदैव सावधान रहना चाहिए।

भ्रातृ प्रेम

एक शहर में रमेश और महेश नाम के दो सगे भाई रहते थे। उनके बीच में संपत्ति के बँटवारे को लेकर मतभेद थे जो कि इतने बढ़ गये थे कि उनमें आपस में बातचीत भी बंद हो गई थी।

एक दिन महेश एक दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गया और उसे अस्पताल ले जाया गया। वहाँ पर चिकित्सकों ने उसका तुरंत ऑपरेशन करने का निर्णय लिया और इसके लिए रक्त की आवश्यकता थी। महेश का ब्लड ग्रुप बहुत ही दुर्लभ था जो कि बहुत तलाश करने पर भी उपलब्ध नहीं हो पा रहा था। जब इस बात की जानकारी रमेश को लगी तो वह तुरंत भागा भागा अस्पताल आया और अपना खून देने की पेशकश की क्योंकि उसका ब्लड ग्रुप भी महेश के ब्लड ग्रुप से मेल खाता था।

यह जानकर रमेश के पहचान वालों ने उसे समझाना शुरू किया कि तुम रक्तदान मत करो। यह तुम्हारा सगा भाई होते हुए भी तुम्हारे हिस्से की भी संपत्ति हड़पने की फिराक में था। ऐसे व्यक्ति से इतनी सहानुभूति क्यों ? वहाँ पर महेश के हितैषियों ने भी उसके परिजनों को कहने लगे कि रमेश भाई होते हुए भी किसी दुश्मन से कम नहीं है। वह महेश के हिस्से की संपत्ति को भी हड़पना चाहता है। ऐसे व्यक्ति से कोई भी सहयोग लेना उचित नहीं है।

इतना बोलने के बाद भी रमेश ने अपना खून दिया और महेश ने उसे स्वीकार कर लिया और ऑपरेशन सफलतापूर्वक संपन्न हो गया। अपने भाई को मुसीबत में देखकर उसके प्रति उमडे प्रेम ने दोनों के बीच के संपत्ति के बँटवारे के विवाद को सुलझा दिया और वे पुनः एक हो कर रहने लगे।

विदाई

रामसिंह शहर के एक जाने माने उद्योगपति थे। उनकी दो बेटियों हेमा और प्रभा का विवाह बड़ी धूमधाम से संपन्न हो गया था उनकी विदाई का समय आ गया था और सारा माहौल गंभीर होकर गमगीन सा हो गया था। रामसिंह ने अपनी पत्नी को जिसकी आँखों से अनवरत् आँसू बह रहे थे, उसे समझाया कि यह तो एक सांसारिक प्रक्रिया है कि बेटी को विदा होकर अपने घर जाना होता है। हमें इतने अच्छे रिश्ते मिले है कि हमें खुशी खुशी बेटियों को विदा करना चाहिए।

रात हो गई थी और रामसिंह विश्राम के लिए अपने कमरे में चले गये थे परंतु उनकी आँखों से नींद आज गायब हो गई थी। वे आज से बीस वर्ष पूर्व की घटना को अपने मनस पटल से नहीं भुला पा रहे थे। वे उस समय संघर्ष करके अपने व्यवसाय को को बढाने का प्रयास कर रहे थे। उनके यहाँ एक मुनीम हरिराम जो कि बहुत ही ईमानदार एवं कार्य के प्रति समर्पित व्यक्ति था। उनके कार्यालय में व्यापार से संबंधित बीस लाख रूपये आये थे। जिसे मुनीम हरिराम ने गिनकर तिजोरी में रख दिये थे। उसी कार्यालय में दो व्यक्ति ऐसे भी थे जो हरिराम से बहुत ईर्ष्या रखते थे क्योंकि हरिराम सेठ जी का बहुत करीबी और विश्वासपात्र था जिसकी वजह से वे लोग अपने कार्य में कोई गड़बड़ी नहीं कर पाते थे। उन्होंने हरिराम को सेठ जी नजरों से गिराने के लिए एक षडयंत्र रचा।

वे मुनीम जी के पास पहुँचे और बोले कि जो रूपये आये हैं उनकी जानकारी में बीस लाख ना होकर पंद्रह लाख ही है। क्या आपने नोटों की गिनती ठीक से की है। यह सुनकर मुनीम जी सकते में आ गये और पुनः गिनती करने के लिए उन्होंने तिजोरी खोली एवं गिनने पर बीस लाख रूपये पाये। उन्होंने तिजोरी को बंद करके उन लोगों से कहा कि रूपये पूरे है और संतुष्ट होकर अपने घर चले गये। कुछ समय बाद उन दोनों कर्मचारियों ने अपनी पूर्व योजना के अनुसार तिजोरी की डुप्लीकेट चाबी से तिजोरी खोलकर उसमें से पाँच लाख रूपये गायब कर दिये।

दूसरे दिन रामसिंह ने तिजोरी खोलकर जब गिनती की तो उसमें पाँच लाख रूपये कम पाये गये तभी उन दोनों कर्मचारियों ने सेठ जी के कान भरते हुए कहा कि कल आपके जाने के बाद हरिराम ने पुनः तिजोरी खोली थी और उसमें से रूपये गिन रहे थे। इस घटना की वीडियो रिकार्डिंग भी उन्होंने सेठ जी को दिखा दी और उन्हें इस प्रकार भ्रमित कर दिया कि वे सच में मान बैठे कि चोरी हरिराम ने की है। उन्होंने उसे अपने पास बुलाकर कहा कि तुम्हारी पुरानी सेवाओं को देखते हुए में इस मामले को पुलिस में नहीं दे रहा हूँ। केवल तुम्हें सेवा से मुक्त कर रहा हूँ। यह सुनकर हरिराम बहुत गिड़गिडाया कि मैंने चोरी नहीं की है पंरतु सेठ जी का इस पर कोई प्रभाव नहीं पडा और वह दुखी मन से कार्यालय से चला गया।

कुछ दिनों पश्चात एक दिन सेठ जी को कार्यालय से निकलते समय काफी रात हो गई थी और वे अकेले ही कार चलाकर घर लौट रहे थे। एक सुनसान जगह पर कुछ लोगों ने उनकी गाडी रूकवाई और जैसे ही सेठ जी गाडी से बाहर निकले उन लोगों उन पर लूट के इरादे से हमला कर दिया। संयोगवश हरिराम भी उसी समय वहाँ से गुजर रहा था जैसे उसने यह दृश्य देखा वह बिना विचार किये सेठजी को बचाने के लिए उन लोगों से भिड़ गया और इस हाथापाई के दौरान सेठजी को बचाने के दौरान एक चाकू का वार उसके सीने पर लग गया और वह जमीन पर गिर पडा। यह देखते ही गुंडे वहाँ से तुरंत भाग लिये। सेठजी ने तुरंत उसे अस्पताल पहुँचाया रास्ते में उसने सेठ जी से इतना ही कहा कि वह चोर नहीं है और बेहोश हो गया। अस्पताल पहुँचने पर डॉक्टरों ने कहा कि अत्याधिक रक्त स्त्राव के कारण इसकी मृत्यु हे चुकी है।

सेठ जी को विश्वास था कि मरता हुआ व्यक्ति झूठ नहीं बोलता है तो उन्होंने उस चोरी की घटना की जाँच पुनः की और उन दोनों कर्मचारियों की कडाई से पूछताछ की और उन्हें पुलिस में देने की धमकी दी तो उन लोगों ने सारी सच्चाई सेठजी को बता दी। सारा सच सुनने के बाद सेठजी को बहुत दुख हो रहा था। वे तुरंत दुखी मन से उसके घर पहुँचे और वहाँ जानकर हतप्रभ रह गये कि हरिराम की दो छोटी बच्चियाँ थी जो कि अब अनाथ हो चुकी थी और उनके लालन पालन की विकट समस्या थी। रामसिंह ने त्वरित निर्णय लेते हुए उन दोनों बच्चियों को अपने घर लाकर अपने बच्चों की तरह उनका पालन पोषण किया।

आज उन्हीं दोनों बच्चियों की विदाई करके रामसिंह की आँखें भर आई थी। यह सब सोचते सोचते ना जाने कब रामसिंह की नींद लग गई और उन्होंने स्वप्न में देखा कि जैसे हरिराम की आत्मा कह रही हो कि आज मुझे शांति एवं मुक्ति मिल गई है।

उपचार या उपकार

डॉ. वरूण साहनी एक प्रसिद्ध दंतचिकित्सक है एवं वे एलायंस क्लब इंटरनेशनल के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्र में नागरिकों के हितार्थ होने वाले चिकित्सा शिविरों में अपनी निशुल्क सेवाएँ प्रदान करते है। वे अपने जीवन का प्रेरणादायक संस्मरण बताते हुए कहते है कि कुछ वर्ष पहले एक ग्रामीण महिला उनके पास इलाज हेतु आयी थी। उसने बताया कि चिकित्सक सरकारी हॉस्पिटल में उसे भर्ती करने में हीला हवाली कर रहे थे। वह दूसरे दंत चिकित्सकों के पास अपने इलाज हेतु गयी तब उन्होंने उसके मुँह में कैंसर की संभावना बताकर इलाज में दो से तीन लाख रू. खर्च होने का अनुमान बताया। वह एक गरीब महिला थी और उसकी आर्थिक स्थिति के अनुरूप वह इतना भारी भरकम खर्च नहीं वहन कर सकती थी। यह कहते हुए उसकी आँखों में आँसू आ गये और उसने रूंधे गले से कहा कि आपको मैंने गांव में सेवाएँ देते हुये देखा है और मैं बहुत उम्मीद से आपके पास आयी हूँ।

उसकी बातें सुनकर मैं भावुक हो गया एवं उसका इलाज निशुल्क करने का मन में निश्चय कर लिया। मैंने बहुत सावधानी पूर्वक उसके मुख का परीक्षण किया एवं उसे ऑपरेशन करवाने की सलाह दी। मैंने उसे आश्वस्त किया कि वह बिल्कुल ठीक हो जायेगी। उसकी सहमति के बाद मैंने अपने कुछ मित्र चिकित्सकों को बुलाकर उसकी सर्जरी संपन्न की जिससे उसे काफी आराम हुआ। उसे एक सप्ताह तक अस्पताल में रखा गया और इसके उपरांत उसे घर जाने की इजाजत दे दी गई।

अस्पताल से विदा होते समय उसने सभी चिकित्सकों को बहुत आशीष एवं दुआयें दी। उसे जब पता हुआ कि उसकी निशुल्क चिकित्सा संपन्न हुई है तब उसकी आँखों में जो कृतज्ञता का भाव था वह आज भी मैं नहीं भूल सकता हूँ। मैं आज के युवा चिकित्सकों को यही सलाह देता हूँ कि हम मरीज के साथ सहयोगपूर्ण व्यवहार करते हुये जरूरतमंद, गरीबों का उपचार निशुल्क करने का मन में भाव रखे इससे ईश्वर की कृपा सदैव बनी रहेगी।

अप्रतिम चाहत

यशवंतपुर नाम के एक नगर में प्रेमवती नाम की एक संभ्रांत महिला रहती थी। उसे बचपन से ही चित्रकला का बहुत शौक था। वह दिन भर केनवास पर रंग बिरंगे रंगों से चित्र बनाती रहती थी। धीरे धीरे उसकी चित्रकला की प्रसिद्धि बढ़ती गयी। उसकी एक एकल चित्रकला प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था जिसे देखकर दर्शक भावविभोर होकर उसकी कला की प्रशंसा कर रहे थे। हेमंत नाम का एक व्यक्ति भी वह प्रदर्शनी देखने के लिए आया हुआ था। उसने सभी चित्रों को देखकर प्रेमवती से कहा कि आपकी इतनी अच्छी पेंटिंग्स के लिए आपको बधाई देता हूँ परंतु इनकी बनावट से महसूस होता है कि आपके दिल में एक बहुत बड़ा दर्द छिपा हुआ है। आपके ना चाहते हुए भी मानवीय संवेदनाओं का चित्रण कहीं ना कहीं नजर आ जाता है।

प्रेमवती चौंकी और पूछ बैठी कि आप यह कैसे कह सकते है। वह बोला मैं भी एक अच्छा चित्रकार था परंतु अब चित्रकारी नहीं करता हूँ परंतु इसका ज्ञान तो रखता ही हूँ। वार्तालाप के दौरान दोनो के बीच अच्छी पहचान बन गयी और एक दिन निकट के कॉफी हाऊस में कॉफी पीने बैठ गये।

इस दौरान हेमंत ने बताया कि वह एक उद्योगपति परिवार से है और चित्रकला उसका शौक है। उसका विवाह हो चुका था परंतु दुर्भाग्य से उसकी पत्नी ब्लड कैंसर के कारण अस्पताल में अपने अंतिम समय का इंतजार कर रही थी। मैं उसको बहुत चाहता था, मुझे फोन पर सूचना मिली कि उसकी स्थिति कॉफी गंभीर है और वह मुझे याद कर रही है। मैं अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में कुछ महत्वपूर्ण मंत्रियों, राजनैतिक प्रतिनिधियों के बीच घिरा हुआ था इसलिये मुझे उनसे विदा लेने में कुछ समय लग गया और जब अस्पताल पहुँचा तो मुझे यह जानकर गहरा सदमा पहुँचा कि वह अंतिम समय तक मुझे याद करती हुयी मुझसे बिना मिले ही हमेशा के लिए बिछुड़ गयी। इस घटना से मुझे इतना गहरा सदमा पहुँचा कि मैंने पेंटिंग्स करना बंद कर दिया। यह सुनकर प्रेमवती स्तब्ध रह गयी और उसने सहानूभूति व्यक्त करते हुए उसे सांत्वना दी।

हेमंत के द्वारा उसके बारे में पूछने पर प्रेमवती ने भी अपने बारे में उसे बताया कि वह विवाहित थी एवं उसका पति अमेरिका में रहता था तथा पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति में इतना घुल मिल गया था कि मेरी उसकी पटरी नहीं बैठ पाई और हम लोग अलग हो गये। इसका दुख तो मुझे बहुत हुआ कि मैं अपने माता पिता की अकेली संतान हूँ परंतु मैंने अपने को संभाल कर पेंटिग के क्षेत्र में ही अपने आप के समर्पित कर दिया है और इसकी बिक्री से जो भी रकम प्राप्त होती है उसे गरीब बच्चों की पढाई में खर्च कर देती हूँ।

इस प्रकार दोनों की मित्रता बढती गयी और यह भावनात्मक संबंधों में बदल गयी। मानव सोचता कुछ है परंतु जीवन में कभी कभी कुछ और हो जाता है। कुछ ऐसा ही इन दोनों के जीवन में भी हुआ। एक दिन हेमंत अपने ऑफिस में बैठा था तभी उसे अचानक ही सूचना प्राप्त हुई कि प्रेमवती का किसी कार से एक्सीडेंट हो गया है और वह गंभीर अवस्था में अस्पताल में है। हेमंत तुरंत अस्पताल पहुँचता है जहाँ उसे पता चलता है कि एक्सीडेंट के कारण प्रेमवती का दाहिना हाथ बेकार हो गया है।

प्रेमवती के होश में आने के बाद जब उसे इसकी जानकारी मिलती है तो वह फफक फफक कर रोने लगती है। यह देखकर हेमंत आगे बढकर उसे समझाते हुए कहता है कि देखो मेरे ये दोनो हाथ भी तो तुम्हारे ही है। मैं आज भी तुम्हारे लिए उतना ही समर्पित हूँ जितना कल था। कुछ समय बाद अस्पताल से प्रेमवती की छुट्टी हो जाती है और हेमंत उसे लेकर उसके घर पहुँचता है तो वह देखती है कि उसके द्वारा छोडी हुयी अधूरी पेंटिग पूरी बन चुकी थी और उसे पता होता है कि इसे हेमंत ने पूरा किया है।

ये देखकर प्रेमवती की आँखें सजल हो जाती है। कुछ माह उपरांत एक दिन हेमंत प्रेमवती के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है परंतु प्रेमवती यह कहते हुए मना कर देती है वह अपंग हो चुकी और जीवन भर उस पर बोझ नहीं बनना चाहती है। यह सुनकर हेमंत कहता है कि विवाह दो दिलों के भावनात्मक संबंधों के मिलन की परिणिति होती है। हेमंत के बहुत अनुरोध करने के बाद भी प्रेमवती विवाह करने से इंकार कर देती है। वह कहती है कि उसका स्वभाव पुराने विचारों का है इसी कारण अमेरिका में उसकी पटरी नहीं बैठ पाई। हेमंत यह सुनने के बाद इतना ही कहता है कि जिसमें में तुम खुश हो वही मेरे जीवन की खुशी है। अब वह अपना समय प्रेमवती के अधूरे सपनों को पेंटिग्स के माध्यम से पूरा करने लगाता है और यही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि वक्त किसी भी पीडा के घाव को समय के साथ बदल देता है। प्रेमवती के साथ भी ऐसा ही हुआ, वह साहसी, निडर एवं कर्तव्यनिष्ठ महिला थी। उसने अपना दाहिना हाथ खराब हो जाने का दुख मन से निकाल कर कुछ माह के उपरांत अपने बायें हाथ से पेंटिंग बनाने का अभ्यास शुरू किया और फिर उसे धीरे धीरे अपने इस प्रयास में सफलता मिलने लगी। वह एक वर्ष में इतनी पारंगत हो गई कि पहले के समान ही पेंटिंग बनाने लगी। अब हेमंत और प्रेमवती दोनो अपनी पेंटिंग्स को बेचकर उससे प्राप्त होने वाली आय को सद्कार्यों में खर्च करने लगे। प्रेमवती ने अपने आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय से यह साबित कर दिया था कि जीवन में किसी भी कठिन परिस्थिति से बाहर निकला जा सकता है।

प्रायश्चित

नर्मदा नदी के किनारे पर बसे रामपुर नामक गाँव में रामदास नाम का एक संपन्न कृषक अपने दो पुत्रों के साथ रहता था। उसकी पत्नी का देहांत कई वर्ष पूर्व हो गया था, परंतु अपने बच्चों की परवरिश में कोई बाधा न आए इसलिए उसने दूसरा विवाह नहीं किया था। उसके दोनों पुत्रों के स्वभाव एक दूसरे के विपरीत थे। उसका बड़ा बेटा लखन लालची प्रवृत्ति रखते हुए धन का बहुत लोभी था, परंतु उसका छोटा पुत्र विवेक बहुत ही दातार, प्रसन्नचित्त एवं दूसरों के कष्ट के निवारण में मददगार रहता था। वह कुशल तैराक था। वह अपने पिता के कामों में बहुत कम रूचि रखता था। वह सीधा, सरल, एवं नेकदिल इंसान था एवं उसे अपने बड़े भाई पर गहन श्रद्धा एवं विश्वास था।

रामदास ने अपनी वृद्धावस्था को देखते हुए अपनी वसीयत बनाकर अपने सहयोगी मित्र के पास रखवा दी थी और उसे रजिस्टर्ड करने का निर्देश भी दिया था। परंतु ऐसा होने के पूर्व ही दुर्भाग्यवश हृदयाघात के कारण उसकी मृत्यु हो गई। उसके बड़े बेटे लखन ने हालात का फायदा उठाकर अपने पिता के मित्र को येन केन अपनी ओर मिलाकर वह वसीयत हथिया ली एवं अपने पिता की हस्ताक्षर युक्त कोरे कागज पर नई वसीयत बनाकर खेती की पूरी जमीन व अन्य संपत्तियाँ, गहने, नकदी आदि अपने नाम लिखकर उन्हें हथिया लिया और विवेक को संपत्ति में उसके वाजिब हक से बेदखल कर दिया। विवेक के हितेषियों ने उसे न्यायालय जाने की सलाह दी, परंतु उसे ईश्वर पर गहरी श्रद्धा एवं विश्वास था और वह प्रभु से न्याय करने की प्रार्थना करके चुपचाप रह गया।

विवेक अपने सीमित साधनों में ही अपनी गुजर बसर करके अपना जीवन यापन कर रहा था। इस घटना के बाद दोनों भाईयों में पूर्णतः संबंध विच्छेद हो गये और लखन के विवाह में भी विवेक को नहीं बुलाया गया। कुछ वर्षों बाद लखन को पुत्र की प्राप्ति हुई, परंतु सभी समारोह में विवेक की उपेक्षा की गई। वक्त बीत रहा था और लखन का बेटा 2 वर्ष की उम्र का हो गया था।

एक दिन वह अपनी माँ के साथ नाव से नदी पार कर रहा था तभी न जाने कैसे हादसा हुआ और बच्चा छिटककर नदी में गिर गया। विवेक इस घटना को पास के ही टापू से देख रहा था। उसका मन अपने अपमान को याद करके सहायता करने से रोक रहा था। विवेक ने देखा कि वह अबोध बालक लगभग डूबने की स्थिति में आ गया है और उसके दोनों हाथ पानी के ऊपर दिख रहे हैं। यह हृदय विदारक दृश्य देखकर वह अपने आप को रोक नहीं सका एवं तुरंत बिजली की गति से पानी में तैरकर उस बालक के पास पहुँच गया। अपनी तैराकी के अनुभवों से उसे बचाकर किनारे की ओर ले आया। इस दुर्घटना की खबर आग की तरह सारे गाँव में फैल गई और लखन बदहवास सा नंगे पैर दौड़ता हुआ नदी के पास आया।

वहाँ पर उसने देखा काफी लोग विवेक को घेरकर उसके साहस, त्वरित निर्णय एवं भावुकता की भूरि भूरि प्रशंसा कर रहे थे। लखन को देखकर विवेक बच्चे को हाथ में उठाकर उसे देने हेतु उसके पास आया। यह दृश्य देखकर लखन स्तब्ध रह गया और उसके मुख से ये शब्द निकल पडे कि आज मैं याचक हूँ और तुम दाता हो, उसकी आँखे सजल हो गई और वह फूट-फूटकर रो पडा मानो पश्चाताप आँसुओं से झर रहा था। वह रूंधे गले से कह रहा था, मैंने तेरे साथ हमेशा अन्याय किया हैं। मेरी धन लोलुपता एवं लोभी स्वभाव ने मुझे अधर्म के पथ पर ले जाकर भ्रष्ट कर दिया था। तुमने अपने अपमान को पीकर भी अपनी जान जोखिम में डालकर मेरे बच्चे की रक्षा की है। मुझे मेरी गलतियों के लिए माफ कर दो और मेरे साथ घर चलो।

विवेक चुपचाप खड़ा सोच रहा था तभी वह बालक चाचा चाचा कह कर उसकी गोद में आने के लिए मचलने लगा। ऐसे भावपूर्ण दृश्य ने लखन और विवेक के दिलों को एक कर दिया। लखन ने विवेक को घर ले जाकर उसे उसकी संपत्ति का हिस्सा देने के कागजात तुरंत बनवाए एवं इसके साथ ही गहने, नकदी तथा अन्य चल संपत्तियों में जो भी वाजिब हिस्सा विवेक का था वह उसे दे दिया। लखन ने कहा कि तुम्हारा अधिकार तुम्हें देकर भी मैं अपने पापों से मुक्त नहीं हो सकता। यह सुनकर विवेक ने अपने बड़े भ्राता के कंधे पर हाथ रखकर कहा कि उसके मन में अब किसी भी प्रकार का दुराभाव नहीं है। आप भी अपने नकारात्मक विचारों को हृदय से निकालकर सकारात्मक शुरूआत करें। यही आपके लिए जीवन का सच्चा प्रायश्चित होगा।

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(क्रमशः अगले भाग 6 में जारी...)

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रचनाकार: कहानी संग्रह // तर्जनी से अनामिका तक ( प्रेरणादायक कहानियाँ एवं संस्मरण ) - भाग - 5 // राजेश माहेश्वरी
कहानी संग्रह // तर्जनी से अनामिका तक ( प्रेरणादायक कहानियाँ एवं संस्मरण ) - भाग - 5 // राजेश माहेश्वरी
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