हरीश कुमार अमित की कहानी - ज़िन्दगी की ज़मीन

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ज़िन्दगी की ज़मीन अचानक नींद खुली तो आदतन नज़र बाईं तरफ खिड़की की ओर घूम गई - आसमान की रंगत देखने के लिए. अहसास हुआ कि अभी रात ही है. डबलबेड पर ...

ज़िन्दगी की ज़मीन

हरीश कुमार अमित की कहानी - ज़िन्दगी की ज़मीन

अचानक नींद खुली तो आदतन नज़र बाईं तरफ खिड़की की ओर घूम गई - आसमान की रंगत देखने के लिए. अहसास हुआ कि अभी रात ही है. डबलबेड पर बाईं तरफ निशा सो रही थी. एक बार जी में आया कि दाईं तरफ पड़े साइड टेबल पर रखा चश्मा लगाकर मोबाइल फोन से वक़्त देख लिया जाए, पर फिर न जाने क्या सोचकर बाईं तरफ करवट बदल ली और आँखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगा.

तभी अचानक मुझे लगा कि कहीं कुछ असामान्य-सा है. मैंने दिमाग़ पर ज़ोर डाला. कुछ समझ नहीं आया. अपने दिमाग़ को कुरेदना मैंने जारी रखा. तभी दिमाग़ में ‘भक!’ से बल्ब जल उठा. निशा के खर्राटे सुनाई नहीं दे रहे थे. सोती हुई निशा के खर्राटों की आवाज़ सुनने की आदत इतने सालों की शादीशुदा ज़िन्दगी के बाद मुझे पड़ चुकी थी. वे खर्राटे अब मुझे परेशान नहीं करते थे. उन खर्राटों को सुनते हुए भी मुझे नींद आ जाया करती थी.

मैंने अपने कानों पर थोड़ा ज़ोर डाला. ख़र्राटों की हल्की-हल्की आवाज़ भी नहीं आ रही थी. मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने निशा को कभी बेआवाज़, बिना खर्राटों के सोते हुए पाया हो, बल्कि वह तो सोने के एकाध मिनट बाद ही खर्राटे भरने लगती थी. अचानक मेरे दिमाग़ में बिजली कौंधी - खर्राटों की हल्की आवाज़ क्या निशा की साँसों की आवाज़ भी सुनाई नहीं दे रही थी.

यह सोचकर कि कहीं मेरी तरह निशा भी न जाग रही हो, मैंने उसे दो-एक बार पुकारा, पर मुझे कोई जवाब न मिला. मैं एकदम-से चौकन्ना हो गया. मुझे याद आया कि रात को किसी वक़्त निशा बाथरूम जाने के लिए उठी थी. तब आहट से मेरी नींद भी खुल गई थी. निशा के बाथरूम से वापिस आने के बाद जब मैंने रात के अंधेरे का फायदा उठाना चाहा था तो निशा ने मेरा हाथ हटाते हुए थकी-सी आवाज़ में कहा था, ‘‘मेरी तबीयत ठीक नहीं. छाती में हल्का-हल्का-सा दर्द हो रहा है.’’

निशा की इस तरह की ‘बीमारियों’ के बारे में मैं खूब अच्छी तरह जानता था. वह एक साथ कई-कई बीमारियों से ग्रस्त रहा करती थी. कोई बीमारी उसे कब घेर लेगी और कब उस बीमारी से मुक्त होकर वह किसी दूसरी बीमारी के चंगुल में फंस जाएगी - यह कोई नहीं बता था.

छाती में दर्द होने के साथ-साथ घबराहट होने की शिकायत तो निशा पहले भी कई बार कर चुकी थी. उल्टे कई बार तो उसने फोन करके मुझे दफ़्तर से भी बुलवा लिया था - यह कहकर कि उसकी तबीयत बहुत ख़राब है और उसकी प्राणलीला तो बस ख़त्म होने वाली है. मैं घबराकर तीस-पैंतीस किलोमीटर का सफ़र तय करके जल्दी-जल्दी घर पहुँचता, तो पाता कि निशा की हालत कोई ख़ास ख़राब नहीं. कई बार तो घर पहुँचने पर मैं उसे कपड़े धोते या खाना बनाते हुए भी पाता. छाती के दर्द और घबराहट के निदान के लिए कई-कई बार करवाए गए जरूरी टैस्टों के बाद भी कोई बीमारी सामने नहीं आई थी.

इसी कारण रात के वक़्त निशा की छाती में दर्द की शिकायत को मैंने ज़्यादा गम्भीरता से नहीं लिया था. बस उसे यही कह दिया था कि वह चुपचाप सो जाए. कुछ देर में दर्द ठीक हो जाएगा. मुझे मालूम था कि अगर निशा को वाकई कोई गम्भीर समस्या होती, तो वह चुप रहनेवाली नहीं थी. वह तो आसमान सिर पर उठा लेती, जैसा कि उसने करीब दो साल पहले किया था.

तब निशा के मम्मी दो-चार दिनों के लिए हमारे यहाँ आए हुए थे. रात को सोने से पहले जब निशा ने हल्की-हल्की घबराहट होने की बात कही थी तो यही फैसला किया गया था कि निशा के मम्मी उसके साथ सो जाएंगे और मैं दूसरे कमरे में बच्चों के साथ सो जाऊँगा.

रात के करीब दो बजे निशा के मम्मी ने मुझे उठाया था और कहने लगी थीं कि निशा की तबीयत ठीक नहीं है. उसे बड़ी घबराहट हो रही है. परेशान-सा मैं दूसरे कमरे में निशा के पास पहुँचा था तो उसने कहा था कि उसकी तबीयत बहुत ज़्यादा ख़राब हो रही है और मैं उसके भाई साहब और डॉक्टर अस्थाना को फोन करके उसी वक़्त बुला लूँ. रात के दो बजे उन लोगों को घर बुलाने का ख़याल ही मुझे निहायत बेतुका लगा था. मैंने किसी तरह समझा-बुझाकर निशा और उसके मम्मी को इस बात के लिए राज़ी कर लिया था कि निशा उस वक़्त दवाई की वह गोली खा ले, जिसे डॉक्टर अस्थाना ने उसे घबराहट होने पर खाने के लिए कहा हुआ है और सुबह होते-न-होते निशा को डॉक्टर अस्थाना को दिखा दिया जाएगा. साथ ही अगर ज़रूरत पड़ेगी, तो निशा के भाई साहब को भी बुलवा लिया जाएगा. लेकिन ऐसा कुछ करने की ज़रूरत अगले दिन पड़ी ही नहीं थी, क्योंकि अगली सुबह उठने पर मैंने निशा को रसोई में काम करते पाया था.

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कुछ देर तो मैं टोह लेता रहा कि मुझे निशा के खर्राटों की हल्की-सी आवाज़ भी सुनाई दे जाए. मगर कानों पर बहुत ज़ोर डालने पर भी मैं ऐसी कोई आवाज़ सुन नहीं पाया. मुझे खटका-सा हुआ. मैंने और ध्यान लगाकर निशा की साँसों की आवाज़ सुनने की कोशिश की, पर मुझे लगा कि साँसों की आवाज़ आ ही नहीं रही.

मैंने सिर घुमाकर देखा. चश्मे के बगैर पूरी तरह साफ तो दीख नहीं रहा था, पर उस धुंधले दृश्य में निशा में कोई हलचल होती मुझे महसूस नहीं हुई. मुझे घबराहट-सी होने लगी.

तभी दिमाग़ में ख़याल आया कि रात के वक़्त निशा को जो घबराहट हुई थी, वह कहीं हार्ट अटैक का संकेत न हो, और इस अटैक के परिणामस्वरूप वह कहीं नींद में ही न चल बसी हो. पहले-पहल तो अपना यह ख़याल मुझे बिल्कुल बेतुका-सा लगा, लेकिन इस बारे में थोड़ी देर और सोचने पर ही मेरे दिमाग़ में तूफ़ान-सा मचने लगा. अगर निशा सचमुच नहीं रही तो फिर हम लोगों का क्या होगा? स्तुति और अदिति तो अभी स्कूल में ही पढ़ रही हैं. उनकी पढ़ाई पूरी होने और शादी होने में तो अभी बहुत साल बाकी हैं. निशा के न रहने पर उन दोनों का ध्यान कौन रखेगा? ऐसे में या तो मुझे दूसरी शादी करनी पड़ेगी या फिर नौकरी छोड़कर घर बैठना पड़ेगा ताकि अदिति और स्तुति का ख़याल रखा जा सके. ज़माना ख़राब है. लड़कियों को किसी नौकरानी के भरोसे छोड़ना तो ठीक नहीं.

दूसरी शादी करने का तो, ख़ैर, कोई सवाल ही नहीं था, लेकिन अगर मैंने नौकरी छोड़ दी, तो खाली पेंशन से घर कैसे चलेगा? कल को अदिति और स्तुति की पढ़ाई और शादी के ढेर सारे खर्चे कैसे पूरे पड़ेंगे?

यह सब सोचते-सोचते मेरे माथे पर हल्का-सा पसीना चुहचुहाने लगा था. ज़िन्दगी एकदम से इस तरह गोता खा जाएगी, यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था.

मैंने करवट बदलकर निशा की ओर मुँह फेरा. अंधेरे में नज़रें गढ़ा-गढ़ाकर देखने पर भी मुझे उसकी साँसों के उतार-चढ़ाव का कोई संकेत नहीं मिला. मैंने हाथ बढ़ाकर साइड टेबल पर रखा चश्मा उठाकर आँखों पर लगा लिया, पर फिर भी मैं कोई अंदाज़ा न लगा पाया कि निशा की साँस चल रही है या नहीं. मैंने कानों पर ज़ोर देकर फिर से निशा के साँसों की आवाज़ सुनने की कोशिश की, मगर मुझे कुछ सुनाई न दिया.

साइड टेबल पर रखा मोबाइल उठाकर मैंने समय देखा. दो बजकर चालीस मिनट हुए थे. क्या मुझे इसी वक़्त सब रिश्तेदारों को निशा की मौत के बारे में सूचित कर देना चाहिए? सबसे पहले तो निशा के मम्मी को इस बारे में बताना होगा. फिर निशा के बड़े भाई साहब को, अपनी दोनों विवाहित बड़ी बहनों को और अपने छोटे भाई को भी ख़बर करनी होगी. अपने पड़ोस में किस-किसको इसी वक़्त बुलाया जा सकता है? मगर क्या रात के तीन बजे इन लोगों को बुलाना ठीक रहेगा? परेशान नहीं होंगें ये लोग इतनी रात गए बुलाने से?

कम-से-कम सामनेवाले दो फ्लैटों में से तो किसी को इसी समय बुलाया जाना चाहिए था, पर इनमें से एक फ्लैट के किराएदार तो दो दिन पहले ही यह फ्लैट खाली करके कहीं और चले गए थे और उनकी जगह कोई नया किराएदार अभी आया नहीं था. सामने वाले दूसरे फ्लैट में कुछ महीने पहले किराए पर आए एक युवा दम्पत्ति किसी कॉल सेंटर में काम करते थे और इन दिनों उनकी नाइट शिफ्ट चल रही थी.

लेकिन कुछ भी हो, किसी-न-किसी पड़ोसी को तो अभी बुलाना ही पड़ेगा, नहीं तो कोई यह न समझे कि यह प्राकृतिक मृत्यु का मामला नहीं है.

मेरे दिमाग़ में झंझावात चल रहे थे. वही निशा जिससे मैं दिन में दसियों बार झगड़ा करता था, अब अचानक मुझे बहुत प्यारी और अपनी लगने लगी थी. मुझे महसूस होने लगा था कि निशा जैसी भी थी, बहुत अच्छी थी. पूरे परिवार का कितना ख़याल रखती थी. जहाँ तक बीमारी की बात है, उस पर किसी का क्या वश है. बीमारी तो कोई भी, किसी को भी, कभी भी लग सकती है. अब अगर निशा सारा दिन बीमारियों का ही रोना रोया करती थी, तो इसमें उसकी भी क्या ग़लती थी. हर आदमी का अपना-अपना आचार-व्यवहार होता है. निशा को अगर सारा दिन घर में ही रहना होता था, तो उसे तो अपनी छोटी-मोटी बीमारियाँ भी बड़ी ही लगनी थी. उसकी बीमारियों के बारे में सुन-सुनकर मैं अक्सर उस पर खीझा करता था. पर इस बारे में वह मुझसे ही तो बात कर सकती थी न. और किसी से क्या कहती वह.

मुझे लग रहा था कि मैं न जाने कैसे तूफ़ानों से घिर गया हूँ. क्या इतनी सारी परेशानियाँ मेरी ही ज़िन्दगी में लिखी थीं?

तभी मेरे दिमाग़ में आया कि मैं हाथ बढ़ाऊँ और निशा को छूकर यह जानने की कोशिश करूँ कि उसकी साँस चल रही है या नहीं. निशा ने दूसरी तरफ करवट ली हुई थी. मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया. तनाव और डर के कारण मेरा हाथ काँप रहा था. अपना काँपता हुआ हाथ मैंने निशा की पीठ पर रख दिया. कोई हरकत होती मुझे महसूस नहीं हुई. मुझे लगा जैसे उम्मीद का हल्का-हल्का जलता दिया भी बुझ गया हो. मेरा दिल बैठने लगा. निशा की पीठ पर रखा अपना हाथ मैंने कुछ सरकाया, पर साँसों के उतार-चढ़ाव का कोई संकेत मुझे नहीं मिला. क्या निशा सचमुच नहीं रही?

मैंने घबराकर अपना हाथ खींच लिया. फिर कुछ सोचकर धीरे-धीरे अपने हाथ को सो रही निशा के नाक के पास ले गया. मुझे लग रहा था कि साँस आने-जाने का कोई संकेत मुझे यहाँ भी नहीं मिलेगा, पर ऐसा नहीं हुआ. मेरे हाथ पर निशा की हल्की-हल्की चल रही बेआवाज़ साँस का स्पर्श हुआ. मेरे दिलोदिमाग़ में घंटियाँ-सी बजने लगीं. खुशी के मारे मेरी आँखों में आँसू भर आए. भावावेश में मैं निशा का कंधा पकड़कर ज़ोर-ज़ोर से हिलाने लगा. इस तरह अचानक झिंझोडे़ जाने पर निशा चौंककर जाग गई. फिर गुस्सेभरी आवाज़ में कहने लगी, ‘‘यह क्या पागलपन है? दिमाग़ तो खराब नहीं हो गया तुम्हारा?’’

निशा के मुँह से निकले ये शब्द खुशियों के मेरे गुब्बारे में काँटे की तरह चुभे. बड़ा अपमानित-सा महसूस करते हुए मैंने झटके-से निशा का कंधा छोड़ दिया. फिर दाईं तरफ करवट बदलते हुए मैं तल्ख़ी से बोला, ‘‘बेवकूफ़ औरत! मरती भी तो नहीं!’’

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परिचय

नाम हरीश कुमार ‘अमित’

जन्म 1 मार्च, 1958 को दिल्ली में

शिक्षा बी.कॉम.; एम.ए.(हिन्दी); पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा

प्रकाशन 700 से अधिक रचनाएँ (कहानियाँ, कविताएँ/ग़ज़लें, व्यंग्य, लघुकथाएँ, बाल कहानियाँ/कविताएँ आदि) विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. एक कविता संग्रह 'अहसासों की परछाइयाँ', एक कहानी संग्रह 'खौलते पानी का भंवर', एक ग़ज़ल संग्रह 'ज़ख़्म दिल के', एक बाल कथा संग्रह 'ईमानदारी का स्वाद', एक विज्ञान उपन्यास 'दिल्ली से प्लूटो' तथा तीन बाल कविता संग्रह 'गुब्बारे जी', 'चाबी वाला बन्दर' व 'मम्मी-पापा की लड़ाई' प्रकाशित. एक कहानी संकलन, चार बाल कथा व दस बाल कविता संकलनों में रचनाएँ संकलित.

प्रसारण - लगभग 200 रचनाओं का आकाशवाणी से प्रसारण. इनमें स्वयं के लिखे दो नाटक तथा विभिन्न उपन्यासों से रुपान्तरित पाँच नाटक भी शामिल.

पुरस्कार-

(क) चिल्ड्रन्स बुक ट्रस्ट की बाल-साहित्य लेखक प्रतियोगिता 1994, 2001, 2009 व 2016 में कहानियाँ पुरस्कृत

(ख) 'जाह्नवी-टी.टी.' कहानी प्रतियोगिता, 1996 में कहानी पुरस्कृत

(ग) 'किरचें' नाटक पर साहित्य कला परिाद् (दिल्ली) का मोहन राकेश सम्मान 1997 में प्राप्त

(घ) 'केक' कहानी पर किताबघर प्रकाशन का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान दिसम्बर 2002 में प्राप्त

(ड.) दिल्ली प्रेस की कहानी प्रतियोगिता 2002 में कहानी पुरस्कृत

(च) 'गुब्बारे जी' बाल कविता संग्रह भारतीय बाल व युवा कल्याण संस्थान, खण्डवा (म.प्र.) द्वारा पुरस्कृत

(छ) 'ईमानदारी का स्वाद' बाल कथा संग्रह की पांडुलिपि पर भारत सरकार का भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 2006 प्राप्त

(ज) 'कथादेश' लघुकथा प्रतियोगिता, 2015 में लघुकथा पुरस्कृत

(झ) 'राष्ट्रधर्म' की कहानी-व्यंग्य प्रतियोगिता, 2016 में व्यंग्य पुरस्कृत

(ञ) 'राष्ट्रधर्म' की कहानी प्रतियोगिता, 2017 में कहानी पुरस्कृत

सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक के पद से सेवानिवृत्त

पता - 304, एम.एस.4, केन्द्रीय विहार, सेक्टर 56, गुरूग्राम-122011 (हरियाणा)

ई-मेल harishkumaramit@yahoo.co.in

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रचनाकार: हरीश कुमार अमित की कहानी - ज़िन्दगी की ज़मीन
हरीश कुमार अमित की कहानी - ज़िन्दगी की ज़मीन
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