संसमरण- * गृह राज्य में * -डॉ आर बी भण्डारकर. (भोपाल ताल का विहंगम दृश्य) मुजफ्फरपुर में सबै सुख था, पर 'पहला सुख निरोगी काया' प्राप...
संसमरण-
* गृह राज्य में *
-डॉ आर बी भण्डारकर.
(भोपाल ताल का विहंगम दृश्य)
मुजफ्फरपुर में सबै सुख था, पर 'पहला सुख निरोगी काया' प्राप्त नहीं हो पा रहा था। शुभ चिंतकों के परामर्शानुसार घरेलू नुस्खे अपनाए (जैसे चाय पीना, खाली पेट गर्म दूध के साथ लहसुन का सेवन, बादाम के हलुए का सेवन आदि अनेक। ) एक तो मैं शुद्ध शाकाहारी हूँ, दूसरे लहसुन से परहेज भी था, चाय की भी आदत नहीं थी ; किस्सा कोताह कि इससे पहले मैंने कभी चाय, लहसुन, बादाम आदि का सेवन नहीं किया था; लेकिन यहाँ घरेलू नुस्खे के रूप में करना पड़ा। एलोपैथी चिकित्सा के लिए कई चिकित्सकों को दिखाया, उनकी सलाह पर अनेक दवाये लीं; डॉ शिवदास पाण्डेय साहब ने अपने एक मित्र होम्योपैथिक चिकित्सक से भी दवाएँ दिलवाईं लेकिन स्थिति जस की तस। नाक से क्षणे क्षणे पानी टपकता रहता, थोड़ी थोड़ी देर में श्वांस बढ़ने लगती; कभी कभी स्थिति गंभीर भी हो जाती। चिकित्सकों ने अंतिम निष्कर्ष दिया कि स्थानीय जलवायु जनित एलर्जी है, स्थान परिवर्तन कर किंचित शुष्क क्षेत्र में जाने से ही लाभ सम्भव है।एक तो मुजफ्फरपुर में मेरा सेवा अवधि काल (टेन्योर) भी पूरा हो रहा था, दूजे स्वास्थ्य की समस्या; इसलिए मैंने विभाग को अपने स्थानांतरण का आवेदन पत्र भेजा। कुछ समय बाद मेरा स्थानांतरण तब के मध्य प्रदेश के रायपुर में हो गया। रायपुर आजकल छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी है। मार्च-अप्रैल 1997 में मेरे ही बैच के मेरे कुछ साथी अधिकारियों की पदोन्नतियां हुईं थीं, मेरी भी होनी चाहिए थी पर नहीं हुई और विशेष बात यह कि आजतक पता नहीं चल सका कि क्यों नहीं हुई। अस्तु , सहायक केंद्र निदेशक पद पर ही दिसम्बर 97 में मैंने दूरदर्शन केंद्र शंकरनगर रायपुर में अपना पदभार ग्रहण कर लिया। केंद्र के निकट ही मैं श्री जी पी बक्सी साहब के मकान में किराए से सपरिवार रहने लगा।
मकान मालिक जी बहुत ही अच्छे इंसान थे। उनके बड़प्पन का पहला अनुभव तब हुआ जब उन्होंने मकान किराया उतने से भी कम निर्धारित कर दिया जितना मैं उन्हें भुगतान करने की मंशा प्रकट कर चुका था। दूसरे, जब मैं पदोन्नति पर कार्यभार ग्रहण करने भोपाल चला आया तो परिवार-जनों को वहीं छोड़ आया कि समान ले जाते समय सबको ले जाऊँगा। मेरी अनुपस्थिति में मेरे बेटे ने खेल खेल में एक क्रिकेट बॉल ऐसी मारी कि खिड़की का काँच चूर चूर हो गया। मेरे रायपुर पहुँचने पर मेरी श्रीमती जी ने यह स्थिति मुझे बताई तो मैंने मकान मालिक जी को खिड़की की मरम्मत में लगने वाले संभावित व्यय के भुगतान की पेशकश की तो उनका उत्तर दैवीय श्रेणी का लगा-"पहली बात तो यह कि काँच टूटने पर बिटिया ने (मेरी पत्नी ने) बच्चे को इतना डाँटा कि वह काँच की कीमत की तुलना में अधिक था। दूसरा, यह कि यदि मेरे बेटे या किसी परिजन की बॉल लगने से काँच टूट गया होता तो? उनकी सहृदयता मेरे लिए सदैव अविस्मरणीय रहेगी।
रायपुर का मेरा पदस्थापना काल अत्यल्प रहा, पूस के दिनमान की तरह। किसी किसी को आवत-जात की स्थिति का भी पता नहीं चला। मध्य दिसम्बर में पहुँचा और मध्य जून में पदोन्नति पर भोपाल चला आया। प्रारम्भ में कार्यालय समय के उपरांत का अधिकांश समय आवास और भोजन की व्यवस्था (हमारे यहाँ देहात में इसे नौन, तेल, लकड़ियों की चिंता कहा जाता है। ) में ही बीतता रहा।
कर्तव्य पालन के सिलसिले में यहाँ सामान्य परिचय केवल वरिष्ठ पत्रकार श्री रमेश नैयर साहब से हुआ। अल्प काल में ही उनकी मिलनसारिता और योग्यता ने मुझ पर अमिट छाप छोड़ी। राजनेताओं में अल्प परिचय पं श्यामाचरण शुक्ल और श्री रमेश बैस साहब से ही हो सका। शुक्ल जी को मैंने हँसमुख, मिलनसार और बहुत सहृदय पाया जबकि बैस साहब बहुत सहज, सरल और स्नेही लगे। शुक्ल जी के दर्शन तो फिर कभी नहीं हो सके पर बैस जी तो बाद में जब केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री बने तब कई बार उनके दर्शन करने, उनसे चर्चा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरे मत में इतने मिलनसार और निरहंकारी राजनेता विरले ही होते हैं। रायपुर में उस समय किसी प्राध्यापक या साहित्यकार से परिचय नहीं हो सका। रायपुर का पदस्थापना काल मेरे और मेरे परिवार के लिए इसलिए भी स्मरणीय रहेगा कि मेरी छोटी बेटी की औपचारिक शिक्षा यहीं प्रारम्भ हुई।
सांसारिक जीवन में हम सभी कभी न कभी, किसी न किसी रूप में 'अफवाह' और 'गॉसिप' में रुचि लेते हुए देखे जाते हैं। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के आधार पर कहें तो गॉसिप अन्य लोगों के बारे में अनौपचारिक चर्चा मात्र है। गॉसिप के मुख्य उद्देश्य दो हैं; जानकारी साझा करना और साथियों को उलझाये रखना। गॉसिप में अन्य लोगों के निजी जीवन के बारे में चर्चा या बात होती है जो अक्सर सामान्य जानकारी पर आधारित होती है जबकि अफवाह एक ऐसी कहानी होती है जो बहुत जल्दी बहुत से लोगों के बीच फैल जाती है। अफवाह की जानकारी प्रायःअपुष्ट होती है कभी कभी निरी झूँठ भी होती है। यह गुमराह करने के लिए भी प्रचारित की जाती है।
गॉसिप और अफवाह दोनों ही एक प्रकार से अनौपचारिक सूचनाओं को दर्शाती हैं जो कि लोगों के बीच दिन-प्रतिदिन बातचीत से प्राप्त होती है। इनके बीच कुछ अंतर भी है। जब लोगअपने मित्रों से मिलते हैं या अपने सहयोगियों से बात करते हैं, तो वे अक्सर ऐसी बातचीत में संलग्न होते हैं या दूसरों को शामिल करते हैं तब वे दूसरों के जीवन, नए घटनाओं, संबंधों में विकास, आदि पर चर्चा करते हैं , यह गॉसिप है। अफवाह गॉसिप से थोड़ा अलग है। अफवाह या तो झूँठ होती है या अपुष्ट होती है और लोग दूसरों को भयाक्रांत करने या भ्रमित करने के उद्देश्य से प्रचारित करते रहते हैं।
"आकाशवाणी और दूरदर्शन प्रसार भारती के अधीन आ गए हैं; इसलिए अब सभी प्रकार की पदोन्नतियाँ और नई नियुक्तियाँ प्रसार भारती की सेवा शर्तें बनने के बाद ही होंगी। " यह जानकारी पहले अफवाह के रूप में फैली फिर गॉसिप का विषय बन गयी। मैं अपने को इस अफवाह और फिर तद्जनित गॉसिप से डरा सहमा अनुभव करता था; लेकिन राहत तब मिली जब जून 1998 के मध्य में मेरी पदोन्नति हो गयी और जून के ही अंतिम दिन मैंने मध्य प्रदेश में ही दूरदर्शन केंद्र भोपाल में उपनिदेशक (कार्यक्रम) पद पर अपनी उपस्थिति दी।
मध्य प्रदेश का निर्माण तात्कालीन सीपी एंड बरार, मध्य भारत, विंध्यप्रदेश, और भोपाल राज्य को मिलाकर हुआ। देश के लगभग बीचों बीच स्थित होने से मध्यप्रदेश को “भारत का हृदय प्रदेश” कहा जाता है ।
आज की स्थिति में मध्यप्रदेश में 51 जिले हैं। मध्य प्रदेश में अनेक विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल हैं। खजुराहो के मंदिरों की कामुक मूर्तियां, ग्वालियर का शानदार किला, उज्जैन और चित्रकूट के मंदिर, ओरछा और शिवपुरी की छतरियां; सभी वास्तुकला के अच्छे उदाहरण हैं। खजुराहो, सांची और भीम बैठका को यूनेस्को द्वारा विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया है।
मध्यप्रदेश की स्थलाकृति, राज्य की केंद्रीय स्थिति साथ ही साथ समृद्ध प्राकृतिक विविधता अद्भुत है। उच्च पर्वत श्रेणियों, नदियों और झीलों से युक्त हरे भरे जंगल प्रकृति के विभिन्न तत्वों के बीच एक सुंदर सामंजस्य प्रदान करते हैं। नर्मदा और ताप्ती नदियां दो पहाड़ों विंध्य और सतपुड़ा के बीच एक दूसरे के समानांतर चलती है। विभिन्न प्रकार के पशु पक्षी और पौधे तथा यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता दर्शनीय है।
सतपुड़ा और यहाँ के जीवन का जैसा हृदय ग्राही चित्रण कविवर भवानी प्रसाद मिश्र(सतपुड़ा के घने जंगल) ने किया है उससे यहां का सौंदर्य मूर्तिमान हो उठा है। मध्य प्रदेश पर कई राजवंश के राजाओं ने शासन किया। मध्य प्रदेश ने प्राचीन काल के मौर्य, राष्ट्रकूट और गुप्त वंश से लेकर बुन्देल, होल्कर, मुग़ल और सिंधिया जैसे लगभग चौदह राजवंशों का उत्थान और पतन देखा है। मध्य प्रदेश की आदिवासी संस्कृति बेजोड़ है तो यहाँ की वन संपदा प्रकृति का महत्त्वपूर्ण उपहार है। विंध्य और सतपुड़ा के पर्वत और हरे भरे जंगल यहाँ पशु पक्षियों की अनेक प्रजातियों को आवास प्रदान करते हैं। बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान, वन विहार राष्ट्रीय उद्यान, कान्हा राष्ट्रीय उद्यान, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, माधव राष्ट्रीय उद्यान, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान नीमच में स्थित गांधी सागर अभ्यारण वन प्रान्तर के गौरव हैं।
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में मेरी पदस्थापना उपनिदेशक पद पर हुई, इस लिए पद की प्रकृति की दृष्टि से मेरे कार्य का स्वरूप प्रबन्धन और पर्यवेक्षण का था सो मैंने अपनी सम्पूर्ण क्षमता और समर्पण से इसका निर्वहन किया। केंद्रीय सूचना एवम प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत लगभग तेरह विभाग हैं। इनमें से आजकल आकाशवाणी और दूरदर्शन प्रसार भारती नामक स्वायत्त संगठन के अंग है। आकाशवाणी की तुलना में दूरदर्शन नया संस्थान है। देश में पहले पहल जब दूरदर्शन की स्थापना हुई तो यहाँ अधिकांश स्टॉफ आकाशवाणी से ही आया: कार्यक्रम, तकनीकी और प्रशासनिक सभी। तकनीकी और प्रशासनिक स्टाफ़ अभी भी आकाशवाणी से दूरदर्शन और दूरदर्शन से आकाशवाणी में स्थानांतरित होता रहता है पर कार्यक्रम अनुभाग में अपवाद छोड़कर यह स्थिति नहीं है। दूरदर्शन में जब भी कार्मिकों की कमी हुई तब तब लोग आकाशवाणी से ही आये। अधिकारी स्तर पर जब सीधी भर्तियां हुई तब भी प्रायः आकाशवाणी के लोग ही अधिक चयनित होकर आए। स्थानीय स्तर पर या कर्मचारी चयन आयोग द्वारा जो भर्तियाँ हुईं उनमें अवश्य ही ऐसे नवयुवक आये जो अपनी शिक्षा पूरी कर क्रिएटिव नौकरी की तलाश में थे। लब्बोलुआब यह कि मैं इन दोनों में से किसी भी श्रेणी में नहीं था। मैं तो मध्य प्रदेश शासन की शैक्षिक सेवा में था और सीधी भर्ती के माध्यम से संघ लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित होकर सीधे दूरदर्शन में आया था यानी मैं दूरदर्शन में एकदम बहिरागत था; सो विभाग में मेरा परस्पर परिचय का संजाल(Network) बहुत ही विरल रहा। दूसरी स्थिति यह कि मुझमें लौ प्रोफाइल रहने का एक अन्य दोष भी था। "वन इंडिया हिंदी" (अंग्रेजी से हिंदी शब्द कोश) में low profile का अर्थ "दुबकी स्थिति" लिखा है; उनका आशय शायद "दब्बू" से हो। मैं दब्बू तो कभी नहीं रहा; हाँ मुझमें आत्म प्रकाशन और सुर्खियों में रहने की प्रवृत्ति का अभाव अवश्य रहा। तीसरा दोष यह कि यहाँ के लिए अपेक्षित चालाकियों का अभाव मुझमें सदैव बना रहा सो मैँ कभी दूसरों की ऐसी कमजोरियाँ न खोज सका कि जिनके आधार पर दूसरे मुझसे स्वयमेव दबें या मैं उन्हें धमका सकूँ। सच बात यह है कि ऐसा कोई गुण (या दुर्गुण)अपने में चाहता भी नहीं था। दूरदर्शन भोपाल में एक स्थिति और रही कि मैं यहाँ अपने कैडर में सबसे (किंचित) कनिष्ठ था। इन सबके मिले जुले परिणाम का एक मजेदार प्रकरण मुझे याद आ रहा है।
आज की कार्यक्रम बैठक समाप्त हुई। अभी अपने कार्यालय कक्ष में आया हूँ। एक प्रस्तुति सहायक की उपस्थिति। उनको बैठने का संकेत, फिर आने का उद्देश्य की जिज्ञासा। सामने एक नश्ती रखी गयी; विहंगावलोकन। बताया कि यह कार्यक्रम अमुक उपनिदेशक के जिम्मे है; आपको उनसे चर्चा करनी है। प्रस्तुति सहायक का कुतर्क; सिर भन्ना जाता है। वह स्थिति होती है न , कि माथा फोड़ लेने का मन करता है।
दरअसल, हमारे स्तर के अधिकारियों का स्पष्ट कार्य विभाजन था, फलतः अधीनस्थ स्टॉफ भी अलग अलग था। हमारे एक उपनिदेशक साथी के अधीन कार्य करने वाला एक प्रस्तुति सहायक अपनी नस्ती (file)सहायक निदेशक से अग्रेषित करवा कर अपने उपनिदेशक के पास ले जाने से पहले अग्रेषण के लिए मेरे पास लाया था; मेरे यह कहने पर कि आपके उपनिदेशक तो अमुक साहब हैं आपकी फ़ाइल उनके पास जाएगी, वहाँ से निदेशक के पास। तो बहुत हिम्मत के साथ उसका कथन था कि उनके पास फ़ाइल सीधे कैसे जा सकती है, आपके हस्ताक्षर के बाद ही उनके पास जाएगी। मैंने उसे कई बार अपने और उसके उपनिदेशक की समकक्षता की बात समझाई, लेकिन उसकी समझ में नहीं आना था सो नहीं ही आया। हर बार फ़ाइल लेकर मेरे पास हाज़िर। हालाँकि मैंने उसकी फ़ाइल पर कभी हस्ताक्षर नहीं किये, सदैव उसके पर्यवेक्षण अधिकारी उपनिदेशक ने ही किये लेकिन उसके मन में रहा कि उसके वह उपनिदेशक कितने उदार हैं कि भण्डारकर साहब द्वारा अग्रेषण हस्ताक्षर न करने के बावजूद वे अपना अनुमोदन कर उसकी फ़ाइल निदेशक को भेज देते हैं। ......इस प्रस्तुति सहायक का ऐसा सोचना भी अकारण नहीं था। दूरदर्शन में निर्मित कार्यक्रमों का प्रसारण से पहले पर्यवेक्षकीय अधिकारी द्वारा पूर्वावलोकन किया जाता है। कुछ कार्यक्रमों का पूर्वावलोकन सहायक केंद्र निदेशक कर लेते हैं , कुछ का प्रायः उपनिदेशक किया करते हैं। इन उपनिदेशक का वह मातहत या कोई अन्य मातहत उनके पास जब पूर्वावलोकन का अनुरोध लेकर जाता था तो वे उनसे अक्सर कह देते थे कि जाओ भण्डारकर जी से पूर्वावलोकन करा लो। यद्यपि उन उपनिदेशक महोदय का मुझसे कहना होता था कि मैं तो एक मित्र के नाते आपका सहयोग लेने के उद्देश्य से ऐसा कहता हूँ और मुझे भी लगता है कि उनका उद्देश्य यही होता होगा पर अधीनस्थों में तो निश्चित ही गलत संदेश पहुँचता रहा। खैर !
दूरदर्शन मुजफ्फरपुर में सहायक केंद्र निदेशक रहते हुए मैंने कार्यक्रम निर्माण का कार्य किया था। सो भोपाल में भी मैंने एक प्रस्तुतकर्त्ता (प्रोड्यूसर) और निर्देशक के रूप में कुछ कार्यक्रम तैयार किये। पर्यवेक्षण और कार्यक्रम निर्माण दोनों तरह के कार्यों के दौरान मुझे अनेक साहित्य-मनीषियों से रूबरू होने का सौभाग्य मिला। हिंदी के स्वनाम धन्य कवि डॉ शिवमंगल सिंह सुमन, आचार्य राम मूर्ति त्रिपाठी, कविवर श्रीकृष्ण सरल, पं रामनारायण उपाध्याय, ज्ञानपीठ विभूषित श्री नरेश मेहता, श्री बशीर बद्र साहब, सुश्री मेहरुन्निसा परवेज, मूर्धन्य ललित निबंधकार प्रो श्रीराम परिहार, कविवर श्री मुकुट बिहारी सरोज श्री बटुक चतुर्वेदी, कथाकार श्री महेश कटारे, प्रखर आलोचक डॉ धनंजय वर्मा, आलोचक डॉ कांतिकुमार जैन, आलोचक डॉ विजय बहादुर सिंह, भाषाविद डॉ शंकर सिंह तोमर से तो अत्यंत आत्मीय भाव से चर्चा करने और कुछ सीखने का भी अवसर मिला। अनेक प्रशासनिक अधिकारियों से मेल-मुलाकात हुई पर श्री के एस शर्मा, श्री एस के त्रिपाठी, डॉ भगीरथ प्रसाद, श्री कोमल सिंह सोलंकी, श्री ओ पी रावत की कार्य शैली ने सर्वाधिक प्रभावित किया। राजनेताओं में श्री दिग्विजय सिंह साहब, श्री सज्जन सिंह वर्मा की निर्णय दक्षता और जन प्रियता प्रभावकारी लगी। श्री नारायण सिंह कुशवाह, श्री विवेक शेजवलकर श्री विश्वास सारंग, चौधरी राकेश सिंह की मिलनसारिता से भी प्रभावित हुआ हूँ। ग्वालियर में मामा माणिक चन्द्र वाजपेयी और कक्का डोंगर सिंह के व्यक्तित्व ने काफी प्रभावित किया।
भोपाल शहर, जहाँ दूरदर्शन केंद्र स्थापित है, जो मेरा मूल कर्तव्य स्थल रहा, मध्य प्रदेश राज्य की राजधानी है और अब भोपाल ज़िले का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। भोपाल झीलों के शहर के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसा कहा जाता है कि भोपाल को राजधानी बनाए जाने में तात्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. शंकर दयाल शर्मा, भोपाल के आखिरी नवाब हमीदुल्ला खान और पं. जवाहर लाल नेहरू की महत्वपूर्ण भूमिका रही। विशेष बात यह है कि स्वयं भोपाल राजधानी बनाए जाने के काफी दिनों बाद सन 1972 में जिला घोषित किया गया। इससे पहले काफी दिनों तक यह सीहोर जिले का हिस्सा रहा है। भोपाल ऐतिसाहिक नगर है। इसकी स्थापना परमार राजा भोज ने 1000-1055 ईस्वी में की थी। उनके राज्य की राजधानी धार थी, जो अब मध्य प्रदेश का एक जिला है। भोज द्वारा स्थापित होने के कारण यह शहर पूर्व में 'भोजपाल' ( भोज और पाल के संधि से निर्मित)कहलाता था। परमारों के बाद भोपाल शहर में अफ़गान सिपाही दोस्त मोहम्मद (1708-1740) का शासन रहा। इसीलिए भोपाल को नवाबी शहर कहा जाता है। आज यह शहर शिक्षा और औद्योगिक विकास का केंद्र तो है ही, साहित्य और संस्कृति का भी गढ़ है। यहाँ की मिली-जुली सौहार्द्र पूर्ण तहज़ीब की प्रशंसा की जाती है। यहाँ निवास रत ज्ञानपीठ सम्मानित श्री नरेश मेहता पर एक अन्य प्रोड्यूसर वृत्त चित्र बनाने का विचार कर रहे थे अतः मैंने श्री बशीर बद्र के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित "ज़दीद ग़ज़ल का मेहबूब शायर" नाम से एक नायाब वृत्त चित्र दूरदर्शन भोपाल के लिए तैयार किया।
डॉ॰ बशीर बद्र वह शायर हैं जिन्होंने कामयाबी की बुलन्दियों पर पहुँच कर आम लोगों की दिलों की धड़कनों को, उनकी सोच, उनकी रोजमर्रा की ज़िंदगी को अपनी शायरी में जीवंत किया है। साहित्य में उनके अप्रतिम योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा उन्हें 1999 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। डॉ बद्र साहब का पूरा नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। अब भोपाल में बस गए बशीर बद्र का जन्म कानपुर में 15 फरवरी सन 1936 में हुआ था। डॉ॰ बशीर बद्र आज हिन्दी और उर्दू में देश के सबसे मशहूर शायरों में से एक हैं। उल्लेखनीय है कि वे दुनिया के प्रायः सभी बड़े देशों के मुशायरों में शिरकत कर चुके हैं। बशीर बद्र आम आदमी के शायर हैं। उन्होंने ज़िंदगी की आम बातों को बेहद ख़ूबसूरती और सलीके से अपनी ग़ज़लों में अनुस्यूत किया है। बशीर बद्र साहब ने उर्दू ग़ज़ल को एक नया लहजा दिया है; और इसी कारण से मैंने अपने वृत्त चित्र का यह नामकरण किया। वृत्त चित्र के प्रसारण पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए डॉ बद्र ने मुझे फोन किया था, " मुझे तो ऐसा लगा कि आपके हाथों में जादू है जादू। " बाद में एक दिन उन्होंने फोन पर मुझसे कहा कि किसी दिन थोड़ा सा समय निकाल कर मेरे घर आइए मैं आपको एक परिवर्तन दिखाना चाहता हूँ। कई दिनों तक मैं नहीं जा सका तो उन्होंने वह प्रसंग विस्तार से दूरदर्शन के तत्कालीन निदेशक को बताया। हुआ यह था कि वृत्त चित्र के स्थल छायांकन के लिए कैमरा दल के साथ जब मैं उनके घर पर उनकी पुस्तकों और उनके पुस्तकालय का छायांकन करवा रहा था, तब मैंने बद्र साहब से कहा था कि यदि यही पुस्तकें रैक्स में करीने से रखी होती तो दृश्य और भी सुंदर आते। इसी कथन को ध्यान में रख कर उन्होंने रैक्स खरीद कर पुस्तकों को व्यवस्थित करके रखवा लिया था, यही मुझे दिखाना चाहते थे। सच है, व्यक्ति कितना ही बड़ा हो जाये उसमें सदैव एक बच्चा बैठा रहता है।
भोपाल में मेरे एक बहुत आत्मीय मित्र बने; वे सेवा निवृत्त आई ए एस अधिकारी थे। यद्यपि आयु में मुझसे काफी वरिष्ठ थे पर मित्रभाव रखते थे। एक बार उन्होंने आप बीता एक वाकया सुनाया। " मैं एक जगह एसडीएम था। वहाँ नया नया पहुँचा था, सो कम लोग जानते थे। वहीं मेरे एक मित्र भी नव पदस्थ व्यवहार न्यायाधीश थे; उन्हें भी बहुत कम लोग जानते पहचानते थे। उस समय लोगों के पास निजी चार पहिया वाहन बहुत कम होते थे, छोटे शहरों में तो प्रायः न के बराबर। मोटर साइकिल और स्कूटर का चलन था। मोटर साइकिल प्रौढ़ों की पहचान थी तो स्कूटर नवयुवाओं का। मोटर साइकिल के अधिकांशतः एक दो ब्रांड ही थे, अपेक्षाकृत स्कूटर में विविधता थी। एक दिन रविवार को ढलते दिन में जज साहब अपने स्कूटर से मेरे घर आये और बोले चलो तनिक बाजार हो आते हैं। हम लोग चल दिये; स्कूटर जज साहब चला रहे थे, मैं पीछे बैठा था। रास्ते में एक जगह वाहनों की पुलिस चेकिंग चल रही थी, वहाँ खड़े सिपाही ने हमें रोक लिया। कुर्सी पर बैठे, चालान बना रहे दारोगा जी से हम लोगों के आगे खड़ा व्यक्ति कह रहा था कि मैं वकील हूँ। दरोगा जी झुंझलाहट भरे लहजे में बोले "चालान से बचने के लिए यहाँ सब ऐसा ही बोलते हैं। आप कह रहे हैं कि आप वकील हैं, आपसे पीछे वाला कहेगा, मैं मजिस्ट्रेट हूँ। यहाँ कोई कुछ नहीं , आप चालान बनवाइये। " इसी बीच गश्त ले रहे पुलिस सर्किल इंस्पेक्टर जी संयोग से अकस्मात वहाँ आ पहुँचे जो हम लोगों को जानते थे। अभिवादन के बाद उन्होंने पूछा सर आप लोग यहाँ कैसे खड़े हैं। मैंने हँसते हुए कहा कि भाई आपके सिपाही ने रोक लिया तो हम रुक गए; हालाँकि हमारे पास सारे कागज़ात तो हैं। सी आई जी बोले सॉरी सर ये लोग आपको पहचानते नहीं थे, आप अपना परिचय दे देते। तब मैंने उन्हें वह कथन दुहराया जो दरोगा जी ने वकील साहब से कहा था। सिपाही और दरोगा जी, जो अभी तक सकते में खड़े थे, उनकी और हम तीनों की हँसी छूट गयी। " आज भी जब यह प्रसंग याद आता है तो हँसी आ जाती है।
मध्य प्रदेश और भोपाल से मेरा परिचय पहले से ही है; मेरा गृह राज्य है जो। उस समय यहाँ चार इमली में भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी डॉ भागीरथ प्रसाद रहते थे। डॉ प्रसाद मेरे गृह जिले से हैं; इसलिए उनसे परिचय पहले से ही था। डॉ भागीरथ प्रसाद में लोगों को शिक्षा के प्रति जागरूक करने, प्रेरित करने, उन्हें नियम कानून सम्बन्धी अपेक्षित सहयोग करने की भावना विद्यार्थी जीवन से ही है। जब मैं एम जे एस कॉलेज भिण्ड में एम ए प्रथम वर्ष में अध्ययन रत था, तब डॉ प्रसाद दिल्ली में जे एन यू में पीएच.डी.के शोध छात्र थे। वे जब भी अपने घर आते थे तो कॉलेज, हॉस्टल्स या छात्रों के आवासों पर पहुँच कर उन्हें अच्छी शिक्षा, पढ़ाई में खूब परिश्रम के लिए प्रेरित करते थे साथ ही शिक्षा की आवश्यकता और उपयोगिता का संदेश ग्रामीण इलाकों में जन जन तक पहुँचाने की आवश्यकता पर जोर देते थे। इसी अनुक्रम में उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई। इस बात को मैं डॉ प्रसाद की सदाशयता ही मानता हूँ कि भारतीय सेवा के अधिकारी रहते हुए, कुलपति रहते हुए और सांसद रहते हुए भी उनका प्रेमभाव आज तक मेरे प्रति यथावत बना हुआ है। दूरदर्शन भोपाल में पदस्थापना के कुछ समय बाद सौजन्य भेंट के लिए मैं उनके सरकारी आवास पर गया तो यहाँ दूसरी बार सुश्री मेहरुन्निसा परवेज़ मेरी भेंट हुई। पहली बार भेंट तब हुई थी जब प्रसाद जी नगर निगम ग्वालियर में पदस्थ थे। वह भेंट औपचारिक थी, केवल दुआ-सलाम तक सीमित थी। अबकी बार विस्तार से बातचीत हुई। उन्होंने मेरा विस्तृत परिचय जानना चाहा तो मेरे स्थान पर डॉक्टर प्रसाद ने मेरा परिचय दिया, जो मुझे कुछ अतिरेक पूर्ण लगा था। सन 1944 में बालाघाट में जन्मी मेहरुन्निसा जी से मेरी बातचीत उनके सृजन पर केंद्रित थी। यद्यपि मैंने धर्मयुग में मेहरुन्निसा जी की कहानियाँ यदा कदा पढ़ी थीं । अतः बातचीत मेंउनकी सामाजिक चेतना, लेखन में सम्वेदना के स्तर को उन्हीं से समझने का प्रयास किया। उनके साहित्य में उपस्थित नारी जीवन, जनजातीय जन जीवन की पृष्ठभूमि को उन्हीं के उदात्त भावों में जाना। मेहरुन्निसा जी अत्यंत मृदुभाषी हैं, आप उनसे घण्टों बात करते रहिए, वे अपने जीवनानुभव सुनाती रहेंगी और आप समझ पाएंगे कि सृजन के लिए उन्हें विषय कहाँ से मिलते हैं और उनका कथा साहित्य कैसे यात्रा करता है। बातचीत से स्पष्ट होता है कि वे आधुनिक तो हैं पर उनमें परंपरावादी संस्कार भी अपनी पूरी शिद्दत के साथ विद्यमान हैं। इस भेंट में उन्होंने मुझे अपनी कुछ पुस्तकें भी दीं। इसके बाद उनसे कई बार भेंट हुई और मैं सदैव उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को आत्मगत करने की कोशिश करता रहा। उनके बारे में यह कथन बिल्कुल खरा है "कहानीकार मेहरुन्निसा परवेज की लेखनी में वह जादू है, जिसके स्पर्श से उनकी प्रत्येक कहानी कुंदन बन गई है। " ......बाद में मैंने दूरदर्शन भोपाल के लिए मेहरुन्निसा जी पर केंद्रित एक वृत्त चित्र तैयार किया जो भोपाल दूरदर्शन से एकाधिक बार प्रसारित हुआ।
भोपाल में अनेक बड़े साहित्यकारों के दर्शन होने के सौभाग्य के बीच मेरी मुलाकात हुई एक अत्यंत उत्साही और कर्मठ साहित्यानुरागी से; सरल, सहज मितभाषी, निष्ठावान श्री बाबूराव गुजरे से। मृदुभाषी, घोर परिश्रमी, निस्वार्थ भाव से साहित्य सेवा को समर्पित व्यक्तित्व। लगभग बिना आवश्यक संसाधन के, अपनी जीवटता के बल पर उनके द्वारा "करवट प्रकाशन " नाम के प्रकाशन संस्थान का संचालन। कई बार मिले, कभी आकांक्षा व्यक्त नहीं की कि उन्हें भी दूरदर्शन पर कविता पाठ करने का अवसर दिया जाए। यह व्यक्ति आता क्यों है?एक दिन उन्हीं ने जिज्ञासा का समाधान किया। "आपकी कविताओं की पाण्डलिपि मैं देखना चाहता हूँ और आप चाहेंगे तो मैं अपने प्रकाशन के बैनर तले उसे छापना भी चाहूँगा। " बाद में उन्होंने मेरी पहली कविता पुस्तक "दिशाएँ मौन" का प्रकाशन किया। अभी जब मैं 2014 की शुरुआत में भोपाल में स्थाई रूप से बसा; तभी पता चला कि लगभग एक वर्ष पहले सामान्य अस्वस्थता में ही गुजरे जी परमधाम को चले गए हैं। बहुत दुख हुआ। ......उन्हें सादर नमन है।
सांसारिक मानव में लोकैषणा होती है है, प्रकट हो या दमित; प्रच्छन्न हो या घनीभूत। मेरी कविता पुस्तक "दिशाएँ मौन " के लिए मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने मुझे अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरस्कार से नवाज़ने का निर्णय लिया। उनका एतदसम्बंधी पत्र जब मुझे प्राप्त हुआ तो मुझे भी अपरिमित प्रसन्नता हुई। लेकिन इसके बाद पता चला कि यह पुरस्कार अहिन्दी भाषी हिंदी साहित्यकारों के लिए है। ऐसी स्थिति में एक पत्र द्वारा यह बताकर कि मैं तो पूर्णतः हिंदी भाषी हूँ मैंने यह पुरस्कार किसी अन्य पात्र को दिए जाने का अनुरोध उन्हें भेज दिया। ....ऐसा अनुमान किया जाता है कि मेरे पूर्वज डहाल मण्डल(उस समय केंद्रीय सत्ता जबलपुर के पास केंद्रित थी) के रहने वाले थे और हम लोग महाराज डहालदेव के वंशज हैं। बहुत संभव है तब उनकी मातृभाषा मराठी रही हो या संस्कृति तदप्रभावित रही हो। कहा जाता है कि हमारे पूर्वज सन 936 के आसपास उधर से प्रव्रजित होकर वर्तमान कर्णखेरा के पास 362 डोहर घार में बस गए थे।
दिव्य जी की थोड़ी सी जानकारी मिलने के बाद अब मैं स्व.अम्बिका प्रसाद दिव्य के बारे में सोचने लगा; इस सिलसिले में सागर और पन्ना की यात्राएं भी की। तमाम जानकारी एकत्रित की। श्री अम्बिका प्रसाद दिव्य मूलतः एक शिक्षक, शिक्षा विद थे। वे अपने समय के मूर्धन्य साहित्यकार थे। उनका जन्म 16 मार्च 1907 को पन्ना जिले के अजयगढ़ कस्वे में हुआ था। वे अँग्रेजी, संस्कृत, रूसी, फारसी, उर्दू भाषाओं के जानकार और बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। दिव्य जी के उपन्यासों का केन्द्र बिन्दु बुन्देलखंड और बुन्देले नायक हैं। बेल कली, पन्ना नरेश अमान सिंह, जय दुर्ग का रंग महल, अजयगढ़, सती का पत्थर, गठौरा का युद्ध, बुन्देलखण्ड का महाभारत, पीताद्रे की राजकुमारी, रानी दुर्गावती तथा निमिया की पृष्ठभूमि बुन्देलखंड का जनजीवन है। खजुराहो की अतिरुपा, प्रीताद्रि की राजकुमारी, काला भौंरा, योगी राजा, सती का पत्थर, फजल का मकबरा, जूठी पातर, जयदुर्ग का राजमहल, असीम की सीमा, प्रेमी तपस्वी निमिया, मनोवेदना तथा बेलकली आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। ऐसे महान साहित्यकार पर मेरे मार्गदर्शन में छायांकन हुआ और प्रोड्यूसर श्री आशीष खरे ने दूरदर्शन भोपाल के लिए एक सुंदर वृत्त चित्र तैयार किया।
यदि दूरदर्शन में नहीं आता , यदि भोपाल पदस्थापना नहीं होती तो मैं कदाचित देश के महान नायक कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लन के कभी दर्शन ही नहीं कर पाता। यहाँ पदस्थापित होने के कारण ही उनके हातोद(शिवपुरी) आवास पर उनके दर्शन कर मैं कृतकृत्य हो सका हूँ।
कर्नल ढिल्लन किसी परिचय के मोहताज नहीं है। अपने गृह नगर मछण्ड में कक्षा 6 में पढ़ते समय मैंने सन 62 के भारत-चीन के युद्ध के समय किसी प्रसंग में आपस में बात करते हुए अपने अध्यापकों से पहली बार कर्नल साहब का नाम सुना था। उनके दर्शन हुए भोपाल दूरदर्शन में पदस्थापना होने पर। मेरी हार्दिक इच्छा थी कि दूरदर्शन भोपाल के लिए कर्नल ढिल्लन पर एक वृत्त चित्र बनाऊँ। कुछ परिस्थितियां ऐसी बनी कि वृत्त चित्र के छायांकन के लिए मैँ उनके पास पहले न जा सका; पहली बार मे ही सीधे कैमरा टीम लेकर उनके गाँव पहुँच गया; कर्नल साहब पहले तो बड़े अप्रसन्न हुए लेकिन थोड़ी ही देर में अपना गुस्सा भुलाकर हम लोगों से उन्होंने बड़ी आत्मीयता से बातचीत की; खूब मेहमानवाजी की। हम लोग सम्भवतः दो दिन उनके यहाँ रुके; कर्नल साहब के स्वास्थ्य के मद्देनजर रुक रुक कर छायांकन किया गया। कर्नल साहब पर ढेरों वृत्त चित्र बन चुके थे। कर्नल साहब का कहना था कि दूरदर्शन यह पहला वृत्त चित्र होगा। उल्लेखनीय बात यह है कि यद्यपि मैंने अपना सही परिचय दिया था फिर भी कर्नल साहब मुझे डाइरेक्टर साहब और सर कह कर संबोधित करते थे। जब मैंने उनसे विनम्रता पूर्वक ऐसा न कर केवल नाम से सम्बोधित करने का आग्रह किया तब उन्होंने एक आश्चर्य जनक आप बीती सुनाई। " आज़ादी के बाद मैं अनेक बार प्रधानमंत्री श्री नेहरू जी से और महामहिम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी से मिलने गया। कभी कहीं कोई बाधा नहीं आई, सदैव तुरंत भेंट कराई गई। नेहरू जी अत्यंत आत्मीयता से मुझे "गुरुबख्श" संबोधित करते थे पर डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी सदैव "सर" संबोधित करते थे। आपकी ही तरह मैंने एक बार उनसे अनुरोध किया कि आप मुझे सर न कहा करें, मुझे बहुत शर्मिंदगी सी होती है। तब उन्होंने पुनः सर का सम्बोधन करते हुए कहा कि मुझे ऐसा कहने दीजिए ताकि मुझे यह अहसास होता रहे कि मैं भले ही राष्ट्रपति बन गया हूँ लेकिन हूँ तो देश का एक आम नागरिक ही। यह अहसास भी बना रहे कि राष्ट्रपति होते हुए भी मुझे अपने नायकों का सम्मान करना आता है। " इतना कह कर कर्नल साहब ने मुझे आदेशित किया कि इस मुद्दे पर अब आप मुझसे कुछ नहीं कहेंगे। इस छायांकन के बाद मैं प्रबन्धन सम्बन्धी कार्यों में व्यस्त हो गया जिससे संपादन आदि का कार्य प्रसारण अधिशासी श्री शिवेन्द्र वर्मा ने कराकर एक आकर्षक वृत्त चित्र तैयार किया जो दूरदर्शन भोपाल से प्रसारित हुआ। सम्भवतः यह वृत्त चित्र अभी भी दूरदर्शन भोपाल के आर्काइब में सुरक्षित है।
कर्नल साहब की पुत्री "अमृता जी" जी आर मेडीकल कॉलेज ग्वालियर की डीन रही हैं; ग्वालियर में ही उनका स्थाई निवास भी है। एक बार कर्नल साहब अपनी पुत्री के यहाँ ग्वालियर गए तो आकस्मिक रूप से मेरे घर आ गए। तब का मेरे कार्यालय में उनके साथ खीचा गया एक फोटो मेरी धरोहर है। ऐसी थी उनकी आत्मीयता मेरे प्रति।
मध्य प्रदेश में भोपाल के अतिरिक्त इंदौर, उज्जैन, ग्वालियर, जबलपुर आदि प्रमुख नगर हैं। उज्जैन शहर पावन क्षिप्रा नदी के किनारे बसा है। यह एक अत्यन्त प्राचीन शहर है जो इतिहास प्रसिद्ध विक्रमादित्य के राज्य की राजधानी रहा है। इस पावन नगर का सम्बंध कवि कालिदास से होने के कारण इसे कालिदास की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। प्रत्येक बारह वर्ष में यहाँ सिंहस्थ नाम से कुंभ मेला आयोजित किया जाता है। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में एक महाकाल इस नगरी में स्थित है, इसलिए इसे महाकाल की नगरी भी कहा जाता है। उज्जैन मध्य प्रदेश के सबसे बड़े शहर इन्दौर से 55 कि॰मी॰ दूर है। उज्जैन के प्राचीन नाम अवन्तिका, उज्जयनी, कनकश्रन्गा आदि है। उज्जैन मंदिरों की नगरी है। यहाँ कई तीर्थ स्थल है। उज्जैन नगर निगम सीमा का क्षेत्रफल लगभग 93वर्ग किलोमीटर है, और आबादी लगभग 5.25 लाख है। उज्जैन शहर साहित्य और संस्कृति का गढ़ रहा है तो इंदौर औद्योगिक और तकनीकी विकास का आधार स्तंभ है। मैं उज्जैन अनेक बार गया। यहाँ भगवान महाकालेश्वर के दर्शन किये फिर यहीं साहित्य के तीर्थ डॉ शिवमंगल सिंह सुमन, आचार्य राम मूर्ति त्रिपाठी, कविवर श्रीकृष्ण सरल के भी दर्शन हुए। डॉ शिवमंगल सिंह सुमन की आत्मीयता मेरे लिए धरोहर है। उनके साथ बात करना आनन्ददायक तो रहा ही, ज्ञान वर्द्धक भी रहा। किसी भी विषय को वे इस ढंग से विश्लेषित करते थे कि तथ्य सहज ही गले उतर जाते थे। मैंने उन्हें जब अपनी कविता पुस्तक "दिशाएँ मौन" भेंट की तो उन्होंने स्वयं ही कहा कि इसे पढ़कर मैं आपको अपनी राय भेजूँगा। सुखद यह कि कुछ ही अवधि बाद उन्होंने बहुत कृपा पूर्वक अपनी टिप्पणी भेज दी। दूरदर्शन भोपाल के एक प्रोड्यूसर सुमन जी पर वृत्त चित्र बनाने की योजना बना रहे थे अतः मैंने कविवर श्रीकृष्ण सरल पर वृत्त चित्र बनाने का निश्चय किया। जब मैं पहली बार मिला तो मैंने उन्हें नाम के अनुरूप ही सरल पाया;
एकदम सहज, निष्कपट। उनसे चर्चा के उपरांत ही समझ सका कि सीमित साधनों के बाद भी उन्होंने कितनी निष्ठा से, अथक परिश्रम कर क्रांतिकारियों की प्रामाणिक जानकारी जुटाई; फिर उच्च मानकों से परिपूर्ण महाकाव्य रच कर उन्हें अपने व्यय से जन जन तक पहुँचाया। मेरे चाहने पर (अब स्मृति शेष)सरल जी ने बड़े सरल भाव से अपने कई ग्रंथ मुझे उपलब्ध कराए। वृत्त चित्र के लिए स्क्रिप्ट तैयार करने के बाद उज्जैन और उनके गृह नगर अशोकनगर में अपेक्षित छायांकन के बाद मेरे निर्देशन और मेरी ही प्रस्तुति में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित वृत्त चित्र तैयार हुआ। इस कार्य में स्वयं सरल जी और उनके परिवार जनों से हमें अपेक्षित सहयोग प्राप्त हुआ। मेरा ही नहीं ख्यातनाम आलोचकों भी दृढ़ मत है कि सरल जी का काव्य सीधे उनके हृदय से, उसमें संचित भावों से, शहीदों के प्रति उनके अंतर्मन में घनीभूत हुई श्रद्धा से निसृत हुआ है। उसमें कहीं कोई कृत्रिमता नहीं है, उसको सायास भावों और काव्य तत्त्वों से नहीं सजाया गया है। सब कुछ स्वाभाविक ओज, जोश से उद्भूत है।
आचार्य राममूर्ति त्रिपाठी जैसे गंभीर अध्येता, काव्य शास्त्र वेत्ता और प्रखर आलोचक को समझना मेरे लिए आसान नहीं है। वे जितने प्रकाण्ड विद्वान थे उनका व्यक्तित्व भी उतना ही गुरु-गंभीर। वे शब्द शक्ति एवं रस विचार के अप्रतिम व्याख्याकार थे। मेरे आग्रह पर वे एक दो बार भोपाल उपस्थित होकर हमारे स्टूडियो में छायांकित होने वाली साहित्यिक परिचर्चाओं में शामिल हुए।
पश्चिम मध्य प्रदेश में निमाड़ क्षेत्र में एक नगर है खंडवा। यह समुद्र तल से 900 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और इसे दक्षिण भारत का प्रवेशद्वार कहा जाता है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार खंडवा शहर का प्राचीन नाम खांडव वन था जो मुगलों और अंग्रेजो के आने से बोलचाल में धीरे धीरे खंडवा हो गया। खंडवा जिला जिसे पश्चिमी निमाड़ नाम से भी जाना जाता है, नर्मदा और ताप्ती नदी घाटी के मध्य बसा है। 6200 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले इस जिले की सीमाएं मध्य प्रदेश के ही बैतूल, होशंगाबाद, बुरहानपुर, खरगोन और देवास जिलों से मिलती हैं। ओंकारेश्वर यहां का लोकप्रिय और पवित्र दर्शनीय स्थल है। इसे भारत के 12 ज्योतिर्लिगों में शुमार किया जाता है। इसके अतिरिक्त यहाँ तुलजा भवानी मन्दिर, दादा धूनी वाले की समाधि, सिंगा जी धाम आदि अन्य दर्शनीय स्थान हैं। साहित्य के क्षेत्र में यह स्थान पं रामनारायण उपाध्याय के कारण चर्चित है। पं रामनारायण उपाध्याय का जन्म खंडवा जिले के कालमुखी गाँव में 2 मई 1918 को हुआ था। इनका सबसे बड़ा योगदान निमाड़ी के लोक साहित्य को साहित्य स्तर तक पहुँचाने में है। इनकी मुख्य रचनाएँ (व्यंग्य संग्रह) बक्शीशनामा, धुँधले काँच की दीवार, नाक का सवाल, मुस्कराती फाइलें, गँवईं मन और गाँव की याद, दूसरा सूरज। (लोक साहित्य) हम तो बाबुल तेरे बाग की चिड़िया, निमाड़ का सांस्कृतिक अध्ययन। (निबंध संग्रह) मृग के छौने। (संस्मरण) जिनकी छाया भी सुखकर है, जिन्हें भूल न सका। (अन्य) : कथाओं की अंतर्कथा, चिट्ठी, मामूली आदमी आदि हैं। पंडित जी की सरलता,
सहजता और भाषिक ज्ञान ने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया। उनका खिलखिला कर हँसना ऐसा कि हर किसी के मन की गाँठे खुले बिना न रह सकें। यह मेरे लिए गर्व का विषय है कि मैंने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित एक वृत्त चित्र दूरदर्शन भोपाल के लिए तैयार किया। पं रामनारायण उपाध्याय जी का जीवन पर्यंत मेरे प्रति बड़ा स्नेह रहा और लंबे अरसे तक परस्पर पत्राचार भी चलता रहा।
भोपाल के बाद मेरा स्थानांतरण ग्वालियर हुआ। यहाँ मुझे दूरदर्शन के पूरा सेट अप समझ लेना समीचीन जान पड़ता है। कार्य की प्रकृति की दृष्टि से दूरदर्शन का पूरा सेट अप अलग अलग अनुभागों में कार्य करता है। कार्यक्रम अनुभाग का कार्य है, कार्यक्रमों की उपलब्धता सुनिश्चित करना। कार्यक्रमों का निर्माण, कार्यक्रमों की आमद आदि का कार्य इसी में शामिल है। कार्यक्रमों का समय पर सुचारू प्रसारण भी इन्हीं का जिम्मा है। कार्यक्रम अनुभाग से सीधे जुड़ा हुआ होता है, दर्शक अनुसंधान एकांश। अभियांत्रिकी अनुभाग का मुख्य कार्य संचालन एवं संधारण से संबधित है। इस अनुभाग के सदस्य पर्दे के पीछे तो होते हैं लेकिन कार्यक्रम निर्माण और प्रसारण में इनकी अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। समाचार अनुभाग समाचारों के बुलेटिन तैयार करता है और उनका समय पर प्रसारण करवाया करता है। इनके इन कार्यों में कार्यक्रम और अभियांत्रिकी अनुभागों की भूमिका सहयोगी के रूप में, किन्तु महत्त्वपूर्ण व अपरिहार्य होती है। प्रशासनिक अनुभाग की भूमिका वित्तीय, ढांचागत और परिवहन जैसे संसाधन उपलब्ध कराने, समस्त कार्मिकों के स्वत्वों का निपटारा करने से सम्बंधित होता है; कार्यक्रम प्रस्तुति और प्रसारण में इनकी प्रत्यक्ष भूमिका प्रायः नहीं ही होती है। इनका ही एक भाग होता है राजभाषा अनुभाग। प्रायः हर सरकारी विभाग की भाँति यहाँ भी अनुभागों में भी उप अनुभाग होते हैं जैसे कार्यक्रम अनुभाग में कैमरा सेक्शन, सीनिक सेक्शन आदि। इनके सबके समन्वय के लिए समन्वय सेक्शन होता है। हाँ यह सब तामझाम(संरचना गत ढाँचा प्रायः बड़े केंद्रों में ही होता है, छोटे केंद्रों में तो समन्वित रूप से कार्य चलता है। बड़े केंद्र, छोटे केंद्र?हाँ, अभी देश में मुख्य रूप से तीन तरह के केंद्र हैं। मुख्यालय दिल्ली में:दूरदर्शन केंद्र नई दिल्ली। यह प्रायः नेशनल चैनल के लिए कार्य करता है। प्रायः प्रत्येक राज्य की राजधानी में रीजनल केंद्र हैं जैसे दूरदर्शन केंद्र भोपाल। हिंदी भाषी क्षेत्रों के अतिरिक्त अन्य सभी केंद्र अपनी राज्य भाषाओं में कार्यक्रम बनाते हैं और उनका प्रसारण करते हैं। कतिपय बड़े राज्यों में कुछ स्थानीय दूरदर्शन केंद्र हैं जैसे मध्य प्रदेश में दूरदर्शन केंद्र ग्वालियर और इंदौर; उत्तर प्रदेश में बनारस, बरेली, महू, मथुरा। ऐसे केंद्र या तो कार्यक्रम निर्माण कर अपना प्रसारण करते हैं या केवल कार्यक्रम निर्माण कर के अपने रीजनल केंद्र को भेजते हैं, कुछ केंद्र दोनों तरह का कार्य करते है। इन त्रिस्तरीय केंद्रों के अतिरिक्त नई दिल्ली में सीपीसी है तो गुवाहाटी में पीपीसी है। ये विशिष्ठ कार्यक्रमों के निर्माण के लिए विशिष्ठ केंद्र हैं, ये प्रसारण कार्य नहीं करते हैं। प्रसारण की भी त्रिस्तरीय व्यवस्था है। उच्च शक्ति प्रेषित्र, निम्न शक्ति प्रेषित्र और अति निम्न शक्ति प्रेषित्र। आजकल तकनीक और भी विकसित हो गयी है। यहाँ यह जिक्र इसलिए क्योंकि भोपाल से मेरा स्थानांतरण दूरदर्शन केंद्र ग्वालियर हो गया। यह एक स्थानीय, छोटा केंद्र है, भोपाल, रायपुर और मुज़फ़्फ़रपुर की तुलना में छोटा।
ग्वालियर में मेरा पद निदेशक हुआ और कार्य कार्यालय प्रमुख के रूप में। हुआ यह था कि यहाँ के मुझसे पहले के निदेशक का अन्यत्र स्थानांतरण हो गया था। प्रशासन किंचित समय के लिए भी केंद्र को निदेशक विहीन नहीं रखना चाहता था सो मुझे पहले टुअर पर भेजा गया, बाद में यहीं स्थानांतरित भी कर दिया गया। यहाँ का मेरा कार्यकाल काफी झंझावातों से भरा रहा; पर केंद्र में सभी के बीच अच्छा समन्वय रहने से कार्य भी खूब हुए और केंद्र की अच्छी छवि बनी।
हमारे यहाँ देहात में एक कहावत है कि जहाँ चार वर्तन होते हैं, वे आपस में खड़कते ही हैं। कार्मिकों के लिए उनका कार्यालय भी उनका परिवार होता है । यहाँ बड़े-बूढ़े भी होते हैं(वरिष्ठ अधिकारी और अनुभवी कार्मिक) तो बच्चे भी(कनिष्ठ अधिकारी या नवनियुक्त कार्मिक)। सबमें परस्पर स्नेह भाव , सम्मान भाव और सहयोग भावना होती है तो कभी कभी मतभेद की स्थिति भी बनती है। कभी कभी मतभेदों के मूल में यह स्थिति भी समझ पड़ती है। यहाँ दो अनुभाग मुख्य माने जा सकते हैं ; उनके नियंत्रण अधिकारी तो अलग अलग पर कार्यालय प्रमुख एक होता है। इससे पूर्व तो मैं मध्यम स्तर के अधिकारी के रूप में कार्यरत रहा सो मतभेद, विवादों का सीधा सामना कम करना पड़ा पर ग्वालियर में मैं कार्यालय प्रमुख था यानी परिवार का मुखिया; इसलिए मतभेदों, विवादों की स्थितियों से मुझे ही दो-चार होना पड़ा। दो मुख्य कर्मचारी संगठन, आये दिन एक होकर संयुक्त संघर्ष मोर्चा बनाते; फिर कभी गेट मीटिंग, कभी काली पट्टी बांधकर विरोध प्रदर्शन; पर सब कुछ स्नेह प्रेम से, बिना किसी वैमनस्य के । हाँ जब कभी इनमें स्थानीय सोच शामिल हुई तब अवश्य अप्रिय लगा। कभी कभी जन सामान्य भी रोष प्रकट करता तब की स्थिति का कारण मैंने यह समझा कि दूरदर्शन से लोगों की अपेक्षाएं अधिक, उतना करने के लिए न गुंजाइश न संसाधन। कभी कभी परिवार के किसी सदस्य द्वारा जाने अनजाने कोई गलतफहमी फैला देने से ऐसी स्थितियाँ बनने की स्थिति देखने को मिली है पर सिवाय तब के जब लोगों में स्थानीय सोच के कारण व्यक्तिगत पूर्वाग्रह नहीं पनपा कभी कोई अप्रिय स्थिति नहीं बनी। दलगत राजनीति से जुड़े लोगों की अपनी परिस्थितियाँ होती हैं, अपनी मजबूरियां होती हैं, इस बारे में किसी टिप्पणी की यहाँ न गुंजाइश न आवश्यकता। ग्वालियर में मुझे आम नागरिकों से, समाचार जगत से, अधिकारियों और अनेक संस्थाओं से अपेक्षित सहयोग, स्नेह और सम्मान मिला। मैंने अपना कर्तव्य सदैव अपनी अधिकतम क्षमता, निष्ठा, समर्पण और ईमानदारी से निबाहा।
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