मातृभूमि से प्रेम की अमर-कथा है, सादत हसन मंटो द्वारा लिखी गई ' टोबा टेक सिंह ' // मोहन कुमार झा

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'टोबा टेक सिंह' सादत हसन मंटो द्वारा लिखी गई एक प्रसिद्ध लघु कथा है जिसका प्रकाशन 1955 ई. में हुआ था। टोबा टेक सिंह हिन्दुस्तान के व...

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'टोबा टेक सिंह' सादत हसन मंटो द्वारा लिखी गई एक प्रसिद्ध लघु कथा है जिसका प्रकाशन 1955 ई. में हुआ था। टोबा टेक सिंह हिन्दुस्तान के विभाजन की त्रासदी पर लिखे गए सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है जो आज भी पढ़े जाने पर विभाजन की उस रोंगटे खड़े कर देने वाली विभीषिका से हमें रुबरु कराती है जिसमें सारे इश्क-ओ-मुहब्बत बेईमानी होकर सत्ता हासिल करने का हिंसक उन्माद और पागलपन ही बचा रह गया था।

यह कहानी सन् 1947 ई. में भारत की आजादी और विभाजन के समय लाहौर के एक पागलखाने के पागलों की कथा पर आधारित है।इन्हीं पागलों में एक है बिशन सिंह उर्फ टोबा टेक सिंह। टोबा टेक सिंह बिशन सिंह के गांव का नाम था। विभाजन के बाद जब दोनों मुल्कों की हुकूमतें आम कैदियों की तरह पागल कैदियों के अदला-बदली करने को तैयार होती है तो शर्त के मुताबिक हिन्दु-सिख कैदी बिशन सिंह को हिन्दुस्तान की तरफ भेजा जाता है पर जब वह अधिकारियों से पूछता है कि - " टोबा टेक सिंह कहां है ? पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में? " और जवाब में यह जानकर कि- " पाकिस्तान में " वह हिन्दुस्तान जाने से इनकार कर देता है। अंत में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की सरहदों के दरमियान की धरती पर वह अपने प्राण त्याग देता है।
" उधर खारदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था-- इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। दरमियान में जमीन के इस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था।"

यह कहानी एक तरफ जहां दोनों मुल्कों के सियासत की उस स्याह और मतलबी सूरत को सामने लाती है जिसमें पागलों तक की धर्म और जाति पहचान कर उनकी अदलाबदली की जा रही है। वहीं दूसरी तरफ बिशन सिंह जैसे चरित्र भी है जो वहशत की हालत में भी अपना गांव और अपनी जन्मभूमि नहीं भूलता।उसे अपनी मासूम बेटी का चेहरा याद नहीं पर अपना गांव याद है।इसीलिए जब वह बंटवारे की बात सुनता है तो उसके जेहन में अपने परिवार का ख्याल नहीं आता। वह किसी से अपने परिवार की ख़बर नहीं पूछता बल्कि वह सबसे अपने गांव टोबा टेकसिंह के बारे में पूछता है कि टोबा टेकसिंह कहां हैं ? पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में ?

यद्यपि यह कहानी और इसका प्रमुख पात्र बिशन सिंह काल्पनिक है परन्तु मंटो ने इस कहानी में विभाजन की त्रासदी और उसके लिए जिम्मेदार सत्ता के लिए नेताओं के पागलपन का जो चित्रण किया है वह अद्वितीय है। समझदारी, अक्लमंदी और पागलपन की दुनिया को वास्तविक अर्थों में समझने के लिए और उसमें फर्क करने के लिए मंटो की यह कहानी एक नया नज़रिया देती है।यह कहानी भारत-पाकिस्तान के उन अक़्लमंद नेताओं के विषय में सोचने पर मजबूर कर देती है जिनके सत्ता के प्रति पागलपन की वज़ह से देश दो टुकड़ों में बांटा गया। जो अपने जन्मभूमि से बिछड़ कर भी सत्ता का आनन्द लेते रहे। जिन्होंने धर्म और जाति के आधार पर धरती को बांट दिया। सत्ता हासिल कर राज करने की मंशा में इन नेताओं ने जनता से उनकी इच्छा पूछना भी मुनासिब नहीं समझा। वास्तविक पागल कौन थे ? दोनों मुल्कों के मतलबी और हुकूमत करने को बेचैन नेता या टोबा टेक सिंह ?

घटनाएं और चरित्र काल्पनिक होने के बावजूद मंटो की इस कहानी में दो प्रमुख यथार्थ मौजूद है। पहला कहानी के नायक बिशन सिंह का गांव ' टोबा टेकसिंह ' जो आज भी पाकिस्तान में मौजूद है और दूसरा सत्ता और ताकत हासिल करने का वह बेमुरौवत साम्प्रदायिक और ख़तरनाक ख्याल जो मज़हब के नाम पर हर चीज़ बांटने पर तुली थी - जमीन भी , प्यार भी, पागल भी।
बिशन सिंह उस अन्याय के खिलाफ़ संधर्ष करता है जिसमें आदमी को उसकी धरती से, उसकी जड़ों से अलग कर दिया गया है।क्योंकि अपनी मिट्टी और अपनी जड़ों से उखड़ कर कुछ भी कायम नहीं रहता। बिशन सिंह और पागलों की तरह बंटवारे का दर्द तो सहन कर लेता है परन्तु अपने गांव टोबा टेकसिंह से बिछड़ने का गम सह नहीं पाता। टोबा टेकसिंह उसकी मातृभूमि है, वही उसका गाँव है और देश भी।
वह न तो हिन्दुस्तान में रहना चाहता है और न पाकिस्तान में। वह तो सिर्फ टोबा टेकसिंह में रहना चाहता है। टोबा टेकसिंह यानी वह धरती जिसमें बिशन सिंह रूपी दरख़्त की जड़े जमी है सदियों से।

युद्ध और हिंसा के वर्तमान समय के वातावरण ने पूरी दुनिया में शरणार्थी संकट उत्पन्न कर दिया है। आज दुनिया भर में हजारों 'बिशन सिंह' हैं जो अपने ' टोबा टेक सिंह ' से दूर हैं। हुक़्मरानों के सत्ता और ताकत हासिल करने के पागलपन के कारण लोग मजबूर होकर टोबा टेक सिंह की तरह दिन-रात जागते हुए उस वक्त का इंतजार कर रहे हैं जब उनके दरख़्त-से हो चुके शरीर अपने मातृभूमि से बिछड़ने के ग़म में बेजान होकर गिर पड़ेंगे।

इस कहानी में मंटो ने ख्यालों को जिस तरह से शब्दों में मौजूद किया है उसका कोई सानी नहीं है। व्यंग कथा की वेधकता को और तेज़, और पैना कर देती है। वहीं टोबा टेक सिंह के अजीबोगरीब अल्फ़ाज़ कहानी की रोचकता को कायम रखती है। दरअसल टोबा टेक सिंह के ये अजीबोगरीब अल्फ़ाज़ हुक़्मरानों के दौलत और ताकत के पागलपन के आगे मजबूर उस आम आदमी की छटपटाहट और असमर्थता का प्रतीक है जिसके पास अपनी जमीन से उखड़ कर जीने या पागल होकर मर जाने के सिवा कोई रास्ता नहीं है।

मंटो की यह कहानी भारत-विभाजन और पाकिस्तान-निर्माण के मूल में मौजूद नफ़रत, अमानवीय सोच, साम्प्रदायिकता , विभाजन, क्रूर सियासी महात्वाकांक्षा, पागलपन से लैस अक़्लमंदी और उसके कुकृत्यों पर सबसे शक्तिशाली तंज है।

यह कहानी अपने मातृभूमि के प्रति मनुष्य के अमर प्रेम की कथा है।विभाजन के दौरान हिंसा और अत्याचार के उस वातावरण में जहां हर शख़्स अपनी जान की सलामती के लिए बेचैन फिर रहा था, अपनी मातृभूमि से अलग किये जाने के खिलाफ जान देने का काम करने वाले बिशन सिंह उर्फ टोबा टेकसिंह जैसे आदमी पागल ही कहे जाएंगे। और आज भी बज़ाफ़्ते ऐसे अक्लमंद आदमियों के जो अपनी हुकूमती महात्वाकांक्षाओं के लिए मुल्कों का विभाजन करे, आदमी को आदमी से अलग करे, इश्क-ओ-मुहब्बत की जगह नफ़रत और हिक़ारत की दुनिया बनाये, धरती को ऐसे पागलों की ज्यादा जरुरत है जो अपनी मिट्टी से अलग होकर मर तो सकते हैं मगर जी नहीं सकते ....... टोबा टेक सिंह की तरह ।

मोहन कुमार झा

एम.ए. हिंदी

हिंदी विभाग , बीएचयू

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