हास्य - व्यंग्य // थानेदार करेगा जूतों की तारीफ // सुरेश खांडवेकर

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थानेदार करेगा जूतों की तारीफ जूता विशेषज्ञ जूतों की हर तरह से परीक्षा करते है उसी के आधार पर वे जूतों के गुण दोष निकालते रहते है। पॉलिमर विश...

सुरेश खांडवेकर

थानेदार करेगा जूतों की तारीफ

जूता विशेषज्ञ जूतों की हर तरह से परीक्षा करते है उसी के आधार पर वे जूतों के गुण दोष निकालते रहते है। पॉलिमर विशेषज्ञ रसायनों के आधार पर जूतों के गुण-दोष बताते रहते है। जूता उत्पादक अपने अनुभव और तकनीक के आधार पर जूतों के गुण-दोष बताते हैं। इसके बावजूद भी जूतों के उत्पादक और विशेषज्ञ इस बात पर हमेशा सहमत होते दिखाई देते है कि जूता सुन्दर आरामदायी, टिकाऊ और किफायती होना चाहिये। इसमें किफायती शब्द अंत में आता है, किंतु उत्पादक और विशेषज्ञों ने इस गुण को प्राथमिक स्थान दिया है। इसलिये आज जूते किफायती और सुन्दर तो है ही, लेकिन आरामदायी और टिकाऊ नहीं है।

धावक और खिलाड़ी अपनी निश्चित मांग के कारण वे जूतों के गुण दोष अपनी आवश्यकता के अनुसार करते है। सामान्य व्यक्ति, मध्य, उच्च वर्ग के लोग अपनी-अपनी आर्थिक स्थिति और प्रतिष्ठा के अनुसार जूतों के गुण-दोष बताते है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से यदा-कदा, डॉक्टर-वैद्य भी अलग-अलग तरह के जूतों के गुण-दोष बताते रहते है। पॉलीमरों व सामग्रियों के गुणदोष बताते हैं। पॉलीमरों व सामग्रियों के गुणदोष बनाते हैं।

अब जूतों का उत्पादन व्यापक और विभिन्नता लिये हुए है कि हर कोई जब चाहे हर तरह के जूतों-चप्पलों के गुण-दोष निकालता रहता है। मजे कि बात यह है कि ज्यादा दोष निकालने के बावजूद भी लोग उन्हीं जूतों को खरीदते रहते है।

एक दुकान पर थानेदार अपने बेटे के लिये जूते खरीदने गया। दुकानदार ने थानेदारी को सैल्यूट किया और उसके लड़के को देख कर उसके लिये एक जोड़ी स्पोर्टस् शूज उठा लाया। डिब्बा खोलते ही थानेदार ने आंखें लाल की-

‘‘हटाओ इनको।’’

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‘‘थानेदार साहब। फैशन है स्पोर्ट शूज का। नामी कंपनी के है। बड़े साफ्ट हैं। बहुत लाईट। बल्कि हवा जैसे’’

‘‘इसी से तो हमारा बेड़ा गर्क हो रहा है, वरना हम आज ड्यूटी छोड़कर जूतों की दुकान नहीं चढ़ते।’’

‘‘थानेदार साहब सब खैरियत तो है?’’

‘‘खैरियत? तो थाने में भी सन्नाटा, चौकी में भी सन्नाटा। ये सब इन स्पोर्ट शूज की वजह से है।’’

‘‘क्या किया स्पोर्ट शूज वालों ने। जो पुलिस चौकी और पुलिस थाने में सन्नाटा हो गया है।’’

स्पोर्ट्स शूज की वजह से। हमारे बेटे के लिये स्पोर्टस् शूज निकाल कर मेरी मूंछ बांका कर दी आपने। फौलादी थानेदान का बेटा भी फौलादी है। उसे ऐसे हल्के-फुल्के जूते पहनाओगे लालाजी?’’

‘‘क्या बात करते हो थानेदार साहब। आजकल क्या बच्चे, क्या बूढ़े सभी स्पोर्टस् शूज पर मरते हैं।’’

‘‘मरते होंगे, वही जो फुलवाड़ी में रहते हैं। हमने तो इससे किसी को मार खाते भी नहीं देखा। मारने पिटने की वारदातें ही नहीं होती। 30 साल पहले होती थी, आजकल के इन जूतों से किसी के गाल पर सूजन तक नहीं आती।’’

‘‘थानेदार साहब, अब जूते मारने के लिये नहीं बनते। पहनने के लिये बनते हैं। और तो और इन जूतों का फैशन है आजकल।’’

‘‘इसलिये तो आजकल हमारी दो पैसे कि कमाई तक नहीं होती। पुलिस थाने में सिवाय चोरी चकारी, फिरोती और एक्सिडेन्ट की ही वारदातें दाखिल नहीं होती! एक जमाना था, पचास वारदातें होती थी मार-पिटाई की। एक दो होती चोरी-चकारी, एक्सिडेन्ट की।’’

‘‘अब तो आपको आराम है?’’

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‘‘आराम होने से क्या होता है कमाई तो धेले की नहीं होती। जो कमाई मारधाड़ में है, लड़ाई-झगड़े में है। वो कमाई चोरी एक्सिडेन्ट में नहीं।’’

‘‘ऐसी बात नहीं है। झुग्गियों में तो अक्सर मार-पिटाई होती है वहां से कमाओ?’’

‘‘वहां मार-पिटाई होती है, कमाई नहीं। वे हवाई चप्पलें पहनते है। आपस में लड़ते और आपस में सुलट लेते है। बाकी इनके पास है ही क्या जो इनसे ले?’’

‘‘तो चमड़े के जूते वालों के पास तो पैसा है।’’

‘‘लेकिन वे मार पिटाई नहीं करते उनका झगड़ा इंकमटेक्स वालों से है। उनसे बड़े हवाला-ग्वाला वाले लोग है। वे तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट वालों को भी चकमा देते हैं। यहा तक हमारी पहुंच नहीं। इनसे हमें क्या मिलना-मिलाना।’’

फिर दुकानदार ने बहुत नरम हो कर समझाया ‘‘थानेदार साहब, मेरी बात मानो। मेरे कहने पर आप अपने बेटे के लिये एक जोड़ी स्पोर्ट शूज खरीद लो। बल्कि, मैं कहता हूं आप भी अपने लिये एक जोड़ी स्पोर्ट शूज ले लो आपको काफी राहत मिलेगी।’’

‘‘मुझे नहीं लेनी राहत। चार-पांच साल पहले मैंने भी एक होटल के धुंधले कमरे में कॉलेज की लड़के-लड़कियों को और मॉडलों को झूमते देखा था। उस धीमी रोशनी में सफेद जूते ऐसे चमक रहें थे, मानों सफेद कबूतर जमीन पर फुदक रहें है। उसी दिन मैंने एक जोड़ी स्पोर्ट शूज खरीदे। सिविल ड्रेस में ही थाने चला गया। थाने में उस समय कांस्टेबल एक उचक्के को पीट रहा था। कमीन की औलाद था। वो वारदात उगल ही नहीं रहा था। मेरी तो नाक फड़फड़ाने लगी। हाथ पैरों में खुजली होने लगी। मैंने कांस्टेबल को परे किया। मैं स्पोर्ट शूज पहने था। स्पोर्टस् शूज पहनकर पिटने के भी अरमान थे दिल में। 10-20 हाथ पांव दे मारे। साला, थप्पड़ खाते वक्त तो ची-ची करता था, लात मारता तो गेंद की तरह हिलता था। आधे घंटे बाद साले से सरसों के तेल से पैरों व तलुओं की मालिश करानी पड़ी। राहत मुझे मिली या उसे? तकलीफ मुझे हुई या उसे? खुशी में दारू पीने का आनंद ही कुछ और होता है। जिंदगी में पहली बार पांवों का दर्द भुलाने के लिये एक बोतल खाली करनी पड़ी।

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