शोध आलेख - कुकुरमुत्ता : एक सामाजिक अनुशीलन

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डॉ. गोरख काकडे सहायक प्राध्यापक सरस्वती भुवन महाविद्यालय, औरंगाबाद डॉ. ललिता राठोड सहयोगी प्राध्यापक   बलभीम महाविद्यालय, बीड ‘कुकुरमुत्ता‘...

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डॉ. गोरख काकडे

सहायक प्राध्यापक

सरस्वती भुवन महाविद्यालय, औरंगाबाद


डॉ. ललिता राठोड

सहयोगी प्राध्यापक

  बलभीम महाविद्यालय, बीड


‘कुकुरमुत्ता‘ यह स्वतंत्रता पूर्व सन् 1941 में लिखी निराला की बहुचर्चित सामाजिक व्यंग्यात्मक कविता है, जिसका मूल स्वर प्रगतिवादी है। प्रगतिवादी विचारधारा ऐतिहासिक उपज है। कार्ल मार्क्स ने सामाजिक विषमताओं को एक ऐतिहासिक तथ्य माना है, जिस पर प्रगतिवादियों ने गहन चिंतन किया। ‘कुकुरमुत्ता‘ मूलतः निराला की एक लम्बी कविता है, जिसकी आधारभूमि यथार्थवादी है। कविता में द्वितीय विश्वयुध्द के साथ पनपती हुई सामंती- पूंजीवादी व्यवस्था का चित्रण है। कविता दो खण्डों में है - प्रथम खण्ड में कुकुरमुत्ता गुलाब पर व्यंग्य करता है, द्वितीय खंड में नवाब की बेटी ‘बहार‘ को अपनी हमजोली ‘गोली‘ की मां ने बनाया कुकुरमुत्ते का कबाब बहुत पसंद आता है। इस कविता में कुकुरमुत्ता-श्रमिक, सर्वहारा, शोषित वर्ग का प्रतीक या प्रतिनिधि है, तो गुलाब, सामंती, पूंजीपति वर्ग का प्र्रतीक या प्रतिनिधि है।

‘कुकुरमुत्ता‘ यह निराला की सामाजिक चेतना, प्रगतिवादी, प्रयोगशील प्रवृत्ति को निरुपित करनेवाली कविता है। कवि ने इस कविता में अपने व्यंग्य का निशाना किसी एक व्यक्ति या वर्ग को नहीं बनाया तो कभी वे पूंजीपतियों पर व्यंग्य करते हैं, तो कभी थोथे समाजवादियों पर जो व्यर्थ की बकवास करते हैं। यहीं नहीं उन्होंने अपने समकालीन साहित्यकारों पर भी व्यंग्य किया है। इस कविता में निराला ने भारतीय एवं पश्चिमी संस्कृति के टकराव का चित्रण भी किया है।

कविता की शुरुआत ही-‘‘एक थे नवाब‘‘ इन दो शब्दों की पंक्ति से होती है। कवि इन दो शब्दों के माध्यम से सामाजिक विषमताओं को पाठक के सामने खड़ा कर देते हैं। प्राचीन काल से हमारा समाज वर्ग व्यवस्था में विभाजित है, इसका आभास भी हमें इन दो शब्दों में होता है। निराला पर मार्क्स के विचारों का प्रभाव था। मार्क्स ने बताया है कि समाज का विकास दासप्रथा से लेकर पूंजीपतियों तक कैसे पहुंचा है। निराला ने इसी पूंजीपति वर्ग का चित्रण इस कविता में किया है और तत्कालीन समाज पर किस प्रकार अपना रौब डालकर उनका शोषण करता रहा है, यह स्पष्ट किया है । इन नवाबों को, पूंजीपतियों को तत्कालीन सरकार (अंग्रेज) सहायता प्रदान कर रहे थे। इन नवाबों के ठाठ़-बाठ़ के लिए कई नौकर थे। एक तरफ समाज का एक हिस्सा खाने के लिए तरस रहा है, भूखा मर रहा है, गंदगी में सड़ रहा है और एक तरफ शान-शौकत के लिए बाग-बागिया सजाई जा रही है, देशी पौधों के साथ-साथ विदेशी पौधों को भी लाया जा रहा है, कवि कहता है -

‘‘फ़ारस से मंगाए थे गुलाब

बड़ी-बाड़ी में लगाए

देशी पौधे भी उगाए‘‘

यह स्थिति भारतीय पूंजीपतियों की मानसिकता को उजागर करती है। एक आदमी अपने बडप्पन के लिए विदेश से किस प्रकार चीजें मंगाता है, चाहे उसके लिए कितना ही व्यय क्यों न हो । उस पौधे की देखभाल के लिए कई नौकर-चाकर रखकर अपनी शान को बढ़ाना चाहता है। आगे कवि बाग का वर्णन करते हुए अनेक देशी पौधों के भी नामपरिगनन शैली में गिनाते हैं -

‘‘जूही नरगिस, रातरानी कमलिनी...‘‘

कवि सामंती, पूंजीवादी व्यवस्था के ठाठ़ का चित्रण करता है। इस बगीचे के बीच में एक आरामगाह है, जो नवाब के लिए बनाया गया है। यह आरामगाह इसलिए कि कही नवाब घूमते हुए थक गया तो ? या माली काम करता है या नहीं ? या नवाब की सेहत अच्छी रहे ?

कवि एक ओर आरामगाह का चित्रण करते हैं तो दूसरी ओर हमारे आखों के सामने उस माली के गंदे घरों को भी लाकर रख देते हैं - यह है सामाजिक विषमता। जो दिन-रात काम करते हैं उन्हें झोपडियों में रहना पड़ता है और जो दूसरों का खून चूसते हैं वह आराम से बाग में आरामगाह पर बैठते हैं, आलीशान बंगलों में रहते हैं इस स्थिति पर क्रोधित होकर कवि कविता में कुकुरमुत्ते के माध्यम से गुलाब को जो पूंजीपतियों का प्रतीक है फटकार लगाता है-

‘‘अबे, सुन बे, गुलाब,

भूल मत जो पाई खूशबू, रंग-ओ-आब,

खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट

डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट!‘‘

इन पंक्तियों में कवि की आंतरिक संवेदना है, जो इस स्थिति को मिटाना चाहता है। श्रमिक कल कारखानों में अपने को काम कर खपाये और पूंजीपति घर में बैठे उनका खून चूसे यह कहा का न्याय है ? इतना ही नहीं कवि इस स्थिति को देखकर पूंजीपतियों को गालियां तक दे देता हैं -

‘‘रोज पड़ता रहा पानी

तू हरामी खानदानी‘‘

कवि पूंजीपतियों के पूरे वर्ग या खानदान तक को गालियां दे देता है। यहां कवि का विद्रोही रुप सामने आता है। निराला ने जहां-जहां विषमता देखी वहां वहां आवाज उठाई । उनकी दूसरी कविताओं में भी उन्होंने समाज के उच्च वर्ग को खरी-खोटी सुनाई है। उनकी सामाजिक विषमता पर लिखी गई अन्य कविताएं हैं - ‘विधवा‘, ‘भिक्षुक‘, ‘तोडती पत्थर‘, ‘दाण‘ आदि। ‘तोडती पत्थर‘ में कवि ने इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती महिला का चित्र हमारे सामने रखा है, जहां सामाजिक विषमता दिखाई देती है-

‘‘वह तोड़ती पत्थर,

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर

कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार,

सामने तरु मालिका अट्टालिका प्राकार।‘‘

कुकुरमुत्ता में कवि आगे कहते हैं-

‘‘आया मौसिम खिला फ़ारस का गुलाब

बाग पर उसका पड़ा था रोबोदाब

वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता।‘‘

कवि कहता है ‘आया मौसम‘ हमारी दृष्टि से इस मौसम का तात्पर्य पूंजीपतियों के दिन अच्छे आये हैं, जो बाहर से आकर भारतीय जनता पर भारतीय लोगों के माध्यम से रौब डाल रहे हैं क्योंकि गुलाब यह फारस से मंगाया था। अपना लाभ ऐठ़ने के लिए भारतीय लोग विदेशियों को अपने यहां बुलाकर उनकी सहायता करते थे यह स्वतंत्रतापूर्व का चित्र है, जो हमारे लोगों को कम मजदूरी देकर उनसे जी तोड़ मेहनत लेते थे आगे चलकर इन्हीं लोगों ने भारतीय छोटे-छोटे पूंजीपतियों पर भी अपना रौब डाला जैसे-

‘‘बाग पर उसका पड़ा था रोबोदाब।‘‘

क्योंकि बाग में केवल कुकुरमुत्ता ही नहीं तो अन्य भारतीय फूल पेड़ भी थे जो भारतीय पूंजीपतियों के प्रतीक हैं, क्योंकि उनकी सेवा भी माली याने सर्वहारा वर्ग करता है-

‘‘वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता।‘‘

श्रमिकों के जीवन में आरामगाह कहा नसीब उनकी तो जिंदगी में ही गंदगी है, वे जिस जगह रहते हैं वहां चारों तरफ गंदगी है। वे न पेटभर खा पाते हैं न चैन से सो पाते हैं, जैसे कुकुरमुत्ता गंदी जगह उगता है वैसे ही मजदूर या श्रमिक भी गंदी जगह रहते हैं, लेकिन अपने स्वाभिमान को ठेंस नहीं पहुंचने देते जैसे कुकुरमुत्ता अपने को बड़ा एवं गुलाब को छोटा या नीच बताता है। कवि ने माली के घर का जो वर्णन किया है वह सर्वहारा वर्ग के घरों का चित्र है । जहां माली रहता है उस गली में गंदगी है, रहने को टूटे झोंपड़े हैं। यहां अकेला माली ही नहीं अनेक मजदूर रहते हैं। इन सबके घरों की यहीं स्थिति है। सबके परिवार इसी स्थिति में दिन काट रहे हैं।

पूंजीपति न रात को जागकर काम करते हैं और न ही दिन में फिर भी बंगलों में रहते है, सेहत ने बिगड़े इसलिए बगीचे में घूमते हैं। यह सब शान-शौकत उन श्रमिकों के श्रम सिकरों पर टिकी है। जिसका उपभोग पूंजीपति करते हैं।

निराला ने इस स्थिति को बदलने के लिए ‘कुकुरमुत्ता‘ के माध्यम से जनचेतना लाने की कोशिश की है। कुकुरमुत्ता भले ही गंदगी में उगा हो पर वह स्वाभिमानी है और सर्वहारा वर्ग के काम आनेवाला है। उसे पता है कि यह जो गुलाब है - दूसरों के बल पर है। एक दिन पानी न दे तो सूखकर काटा हो जाए-

‘‘कली जो चटकी अभी

सूखकर कांटा हुई होती कभी।‘‘

शोषकों की सेवा करने में सर्वहारा वर्ग अपनी जान खपा रहा है, शोषितों को किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं, ऐसा नहीं है पर न मिले तो भी जी लेता है। यहां कवि ने शोषक और शोषितों के बीच द्वंद्व स्थापित किया है, कुकुरमुत्ता कहता है-

‘‘तू है नकली, मैं हूं मौलिक

तू है बकरा, मैं हूं कौलिक।‘‘

कुकुरमुत्ता गुलाब पर अनेक व्यंग्य करता है और अपने को साधारणों के नजदीक बताता है, कुकुरमुत्ता गुलाब से कहता है कि, तुझे सदैव एक मेहरुन्निसा चाहिए जो तेरा रस निकालकर इत्र बना सके। अर्थात तू ऐशो-आराम की चीज है, गरीबों से तेरा वास्ता नहीं - ‘‘चाहिए सदा तुझको मेहरुन्निसा

जो निकाले इत्र, रु, ऐसी दिशा।‘‘

ऐशोआराम की वह जिंदगी लोगों को ऐसी दिशा में बहाकर ले जाती है जिसका कोई अन्त नहीं होता अर्थात् विलासिता की कोई सीमा नहीं होती, उन्हें साधारण जनों की कोई चिन्ता नहीं होती, दूसरों के सुख-दुःख से कोई वास्ता नहीं होता। समय खराब आने पर जब उनका पेट खाली होता है तब जबान पर मीठी बातें होती हैं, पेट में चाहे चूहे पल रहे हो -

‘‘जहां अपना नहीं कोई भी सहारा

ख्वाब में डुबा चमकता हो सितारा

पेट में डंड पेले हो चूहे जबां पर लफ़्ज प्यारा‘‘

कविता में निराला ने पूंजीपतियों का पर्दाफाश किया है। कविता का मूल स्वर प्रगतिवादी है। जिसमें शोषकों के प्रति घृणा एवं शोषितों के प्रति सहानुभूति है। निराला अपने को कुकुरमुत्ते के भांति उपेक्षित व्यक्ति मानते थे इसलिए अपने आक्रोश को गालियों के रुप में भी प्रस्तुत किया है।

निराला ने ‘कुकुरमुत्ता‘ में गुलाब के माध्यम से पूंजीपतियों के दोषों को उजागर किया है। पूंजीपति वर्ग के प्रतीक गुलाब से कवि कहता है कि तुझे तो सुख-सुविधा भरा जीवन मिला है, किन्तु फिर भी तू साधारण जनता के किसी काम न आ सका जब कि मैंने अपने जीवन की लड़ाई खुद लड़ी है। इस जीवन संघर्ष में मैं आत्मसन्मान से सिर उंचा करके खड़ा हुआ हूं। तूने सदैव दूसरों को उजाड़ा है, जबकि मैंने गिरते को उठाया है-

‘‘देख मुझको, मैं बढ़ा

डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा

और अपने से उगा मैं

बिना दाने का चुगा मैं

कलम मेरा नहीं लगता

मेरा जीवन आप ही जगता

...

मैंने गिरते से उभाड़ा

तूने रोटी छीन ली जनखां बनाकर।

एक की दी तीन मैंने गुन सुनाकर।‘‘

कवि ने प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग किया है और कहा है कि दुनिया में श्रमिकों के कारण ही सब कार्य संभव हो पाते हैं। पूंजीपति मानवता का शोषक है जब कि श्रमिक मानव मूल्यों का पोषक है। साधारण व्यक्ति संघर्ष को झेलकर बड़ा होता है। गरीब व्यक्ति का जीवन छल कपट से परे होता है। निराला ने इसीलिए कुकुरमुत्ते को ‘धुला हुआ तथा गुलाब को ‘रंगा हुआ‘ कहा है -‘‘तू रंगा और मैं धुला।‘‘

निराला ने सर्वहारा वर्ग को महत्त्व प्राप्त कराने के लिए उसे पूंजीपतियों से श्रेष्ठ बताया है। कुकुरमुत्ता अपना बडप्पण करता हुआ कहता है -

‘‘लगाता हूं पार मैं ही

डुबता मंझधार मैं ही

डब्बे का मैं ही नमूना

पान में मैं ही हूं चुना।‘‘

कुकुरमुत्ते ने विश्व की हर महत्वपूर्ण चीज से अपने को जोड़कर अपनी महत्ता सिद्ध की है -

‘‘दिगंबर का तानपूरा, हसीना का सुर बहार...

...हो या यूरोपियन।।‘‘

कवि ने कविता में समाज के उस वर्ग पर भी प्रहार किया है, जो केवल अभिजात्य वर्ग के साहित्य को ही साहित्य मानता है। वे कवि एवं आलोचकों पर कड़ा प्रहार करते हैं, वे कवियों को भी दो वर्गों में रखते हैं - एक इलिएट वर्ग के कवि जो गुलाब जैसे शोषक प्रवृत्ति के हैं तथा दूसरे वर्ग के कवि जो निराला जैसे सामान्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाले कुकुरमुत्ते जैसे शोषित हैं। निराला समकालीन आलोचकों पर खिन्न थे। उनका यह क्षोभ यहां प्रकट हुआ है -

‘‘मुझी में गोते लगाये वाल्मीकि-व्यास ने

मुझी से पोथे निकाले भास-कालिदास ने।

टुकुर-टुकुर देखा किये मेरे ही किनारे खड़े

हाफिज रवींद्र जैसे विश्व कवि बडे़-बडे़।

कहीं का रोड़ा, कहीं का पत्थर

टी़.एस.एलियट ने जैसे दे मारा

पढ़नेवालों ने भी जिगर पर रखकर

हाथ, कहां, ‘लिख दिया जहां सारा‘।‘‘

कवि स्वयं एक साहित्यिक शोषक था, जो साहित्यिक समाज के शोषण का शिकार बन गया था। उनकी सन् 1916 में लिखी कविता ‘जुही की कली‘ ‘सरस्वती‘ पत्रिका से अश्लील कहकर लौटा दी थी। इतना ही नहीं उनकी भाषा को केंचुआ छंद, रबड छंद कहकर उपेक्षित कर दिया था ।

इस प्रकार ‘कुकुरमुत्ता‘ कविता का सामाजिक अनुशीलन करने पर हमें तत्कालीन समाज की स्थिति का पता चलता है कि किस तरह पूंजीपति वर्ग अपने स्वार्थ के लिए श्रमिकों का शोषण करता है। श्रमिकों का जीवन सेवा करने में गुजरता है, उन्हें न अच्छा खाने को मिलता है, न रहने को। संक्षेप में इतना कहा जा सकता है कि ‘कुकुरमुत्ता‘ यह कविता तत्कालीन समाज की स्थिति का दहकता हुआ दस्तावेज है।


संदर्भ स्त्रोत :

1- सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला‘ - कुकुरमुत्ता

2- विश्वंभर ‘मानव‘, रामकिशोर शर्मा - आधुनिक कवि

3-https://www.bbc.com/hindi/india/2013/09/130908_10sept_omprakash_valmiki_hindi_divas_akd

4- www.kavitakosh.org

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रचनाकार: शोध आलेख - कुकुरमुत्ता : एक सामाजिक अनुशीलन
शोध आलेख - कुकुरमुत्ता : एक सामाजिक अनुशीलन
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