हिन्दी भाषा के प्रसार में हिन्दी सिनेमा का योगदान (14 सितंबर हिन्दी दिवस पर विशेष ) - दयानन्द अवस्थी

SHARE:

भारतीय हिन्दी सिनेमा को लगभग 106 वर्ष हो गए हैं इस पूरे शतकीय दौर में न जाने कितने विषय आए और कितने विषय गए किन्तु माध्यम का भाषायी ताना बान...

भारतीय हिन्दी सिनेमा को लगभग 106 वर्ष हो गए हैं इस पूरे शतकीय दौर में न जाने कितने विषय आए और कितने विषय गए किन्तु माध्यम का भाषायी ताना बाना हिन्दी भाषा के इर्द गिर्द बुना रहा है। आज हिन्दी भाषा विश्व की चौथी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है, इथेनोलोग मार्च 2019 के 22वें संस्करण के अनुसार विश्व की दस प्रमुख भाषाओं में (अधिक जनसंख्या के द्वारा बोली जाने वाली भाषा के अनुसार) चीन की मंदारिन प्रथम, स्पेन की स्पेनिश द्वितीय, ब्रिटेन की अंग्रेजी तृतीय तथा भारत की हिन्दी चतुर्थ स्थान पर है हालांकि क्रमश: पांचवें एवं दसवें स्थान पर भी भारतीय भाषा बंगाली एवं मराठी ही है जिन्होने हिन्दी भाषा के प्रसार पर खूब मदद की है । आज संचार माध्यमों सोशल मीडिया,टेलीविज़न के धारावाहिकों मोबाइल के वेब धारावाहिकों आदि के तीव्र विकास नें इस प्रसार को और अत्यधिक गति दे दी है । ”हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल कहते हैं कि भूमंडलीकरण ने भारतीय जीवन को गहरे में जाकर प्रभावित किया है लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हिंदी खत्म हो जाएगी और अंग्रेजी उसका स्थान ग्रहण कर लेगी । वो कहते हैं“भारत की 54 फीसदी आबादी 25 साल से कम उम्र के नौजवानों की है और भूमंडलीकरण ने उसकी आकांक्षाएं और चिंताएं बदली हैं. सूचना और आभासी दुनिया की नागरिकता के धरातल पर किसी कस्बे या महानगर के युवा में ज्यादा फर्क नहीं है. दोनों एक वर्चुअल वर्ल्ड में जी रहे हैं और रियल टाइम में चैट कर रहे हैं.” इसका जीता जागता उदाहरण है टी वी में दिखाये जाने वाले विभिन्न प्रतिस्पर्धात्मक धारावाहिकों, रियालिटि शो जैसे नृत्य अथवा गायन में समान रूप पूरे भारत के कोने कोने से प्रतिभागियों का अपनी काला कौशल का प्रदर्शन ।

यह संभवत: हिन्दी भाषा के प्रसार का स्वर्णकाल कहा जाएगा जब मनोरंजन के माध्यम से भाषा नें अपनी जड़ें वैश्विक रूप में जमाई है इसमें हिन्दी फिल्मों का योगदान सर्वोपरि माना जाएगा। शायर और गीतकार गुलज़ार ने 8 वें विश्व हिंदी सम्मेलन के तहत 'हिन्दी के प्रचार प्रसार में हिन्दी फिल्मों की भूमिका' सत्र की अध्यक्षता करते हुए यह टिप्पणी की थी कि हिन्दी के प्रचार-प्रसार में फिल्मों ने साहित्य अकादमियों और नेशनल बुक ट्रस्ट से ज्यादा योगदान दिया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सिनेमा, मीडिया और हिन्दी का नाता बहुत पुराना है। जैसे हिन्दी हिन्दुस्तान की जान है, वैसे ही हिन्दुस्तान में हिन्दी के बगैर सिनेमा और मीडिया की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सिनेमा और मीडिया का योगदान बहुत ही अतुल्य रहा है। हिन्दीतर भाषी क्षेत्रों में सिनेमा और मीडिया ने हिन्दी को जीवनदान दिया है।आज आप भारत के किसी भी कोनें में पहुँच जाएँ वे हिन्दी इसलिए समझ पाते हैं कि उन्होने उसे फिल्मों अथवा अन्य मनोरंजन के माध्यम से देखा व सुना है । आज विदेशियों को यदि अपना प्रचार करना होता है, चाहे वह सिनेमा का हो चाहे उनके उद्योग का हो, उन्हें हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का सहारा लेना ही पड़ता है, क्योंकि अधिकतर लोग सहज, सरल व सुबोध हिन्दी भाषा को जानते, समझते और बोलते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत से बाहर हिंदी फिल्मों को देखने के प्रति भारतवंशी ही लालायित नहीं रहते वरन अन्य भाषा-भाषी भी इनके गीतों को गुनगुनाते नजर आते हैं। इनको लेकर पूर्व सोवियत संघ (अब रूस) से लेकर खाड़ी के देशों, अफ्रीका से लेकर दक्षिण-पूर्व एशियाई समेत तमाम अन्य देशों में अभूतपूर्व दिलचस्पी है।

पूर्व सोवियत संघ और उसके सहयोगी देशों जैसे पोलैंड, हंगरी, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया आदि में हिंदी फिल्मों के लंबे समय से प्रशंसक रहे हैं। रूस के पूर्व राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन का तो पसंदीदा गाना ही था- आवारा हूं...। राजकपूर साहब द्वारा अभिनीत मेरा जूता है जापानी.... गाने नें मानो हिन्दी गीत के वैश्विक आधार और ग्राह्यता की नींव रख दी थी। राज्यसभा के पूर्व सदस्य आरके सिन्हा जी कहते हैं - यह बात सच है कि जापान में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के चलते भारत को जानने-समझने की जिज्ञासा रही है। वहां पर गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगौर भी कई बार गए। टोक्यो यूनिवर्सिटी में हिंदी का अध्यापन साल 1908 से चालू हो गया था। पर अब कुछेक सालों से वहां पर हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता भी बढ़ती जा रही है। वहां तो हिंदी फिल्मों का प्रदर्शन कर ही हिंदी सिखायी जाती है। विश्व के करीब 192 देशों में हिन्दी न केवल पढाई जा रही है,बल्कि शान से बोली भी जा रही है. इस व्यापकता के पीछॆ अन्य कारकों के अलावा सिनेमा भी एक कारक है,जिसके माध्यम से हिन्दी विश्व में सिरमौर बन पायी है। एक था टाइगर, धूम टू, थ्री इडियट्स और इंग्लिश विंग्लिश जैसी हिंदी फिल्मों को जापानी जनता ने खूब सराहा है । उन्हें अपार सफलता मिली। भारतीय फिल्मों का अनुकरण पूरे दक्षिणी एशिया, ग्रेटर मध्य पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व सोवियत संघ में भी होता है। भारतीय प्रवासियों की बढ़ती संख्या की वजह से अब संयुक्त राज्य अमरीका और यूनाइटेड किंगडम भी भारतीय फिल्मों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार बन गए हैं। यही कारण है की वर्तमान में रिलीज होने वाली फिल्मों के प्रदर्शन के अधिकार भारत व विदेशों में समान रूप से विक्रय किए जाते हैं। वर्तमान में शत प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रावधान से 20वीं सेंचुरी, फॉक्स, सोनी पिक्चर्स, वॉल्ट डिज्नी पिक्चर्स और वार्नर ब्रदर्स आदि विदेशी उद्यमों के लिए भारतीय फिल्म बाजार को आकर्षक बना दिया है। एवीएम प्रोडक्शंस, प्रसाद समूह, सन पिक्चर्स, पीवीपी सिनेमा,जी, यूटीवी, सुरेश प्रोडक्शंस, इरोज फिल्म्स, अयनगर्न इंटरनेशनल, पिरामिड साइमिरा, आस्कर फिल्म्स ,पीवीआर सिनेमा, यशराज फिल्म्स ,धर्मा प्रोडक्शन्स और एडलैब्स आदि भारतीय उद्यमों ने भी फिल्म उत्पादन और वितरण में सफलता पाई है । मल्टीप्लेक्स के लिए कर में छूट से भारत में मल्टीप्लेक्सों की संख्या बढ़ी है और फिल्म दर्शकों के लिए सुविधा भी यह जुदा बात है की मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखना मंहगा सौदा है किन्तु भारतीय जन मानस मनोरंजन के लिए अपनी जेब ढीली करनें में गुरेज़ नहीं करता । अब तक धारावाहिकों तथा फिल्म निर्माण / वितरण / प्रदर्शन से सम्बंधित 54 कम्पनियां भारत के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध की गयी हैं जो फिल्म माध्यम के बढ़ते वाणिज्यिक प्रभाव और व्यसायिकरण का पुख्ता सबूत देती हैं।

हिंदी सिनेमा का यह 106 सालों का इतिहास हम से बहुत कुछ कहता है । यह सिर्फ हिंदी सिनेमा का इतिहास नहीं अपितु भारतीय समाज के आर्थिक,सांस्कृतिक,धार्मिक एवं राजनीतिक नीतियों,मूल्यों और स्ंवेदनाओं का ऐसा इंद्र्धनुष है जिसमें भारतीय समाज की विविधता उसकी सामाजिक चेतना के साथ सामने आती है । भारतीय समाज प्रत्येक विविध रंग यहाँ मौजूद हैं । प्राचीनकाल में पठन-पाठन, मुद्रण के साधन के अभाव में जनसंचार के माध्यम गुरु या पूर्वज हुआ करते थे, जो मौखिक रूप से सूचनाओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाते थे। लेखन के प्रचलन के बाद भोजपत्रों/ताम्र पत्रों /वस्त्रों आदि पर संदेश लिखे जाते थे। गुप्तकाल में शिलालेखों द्वारा धार्मिक एवं राजनीतिक सूचनाएं जन सामान्य तक पहुंचायी जाती थीं, आद्यकाल से अब तक गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है अब जमाना प्रत्येक हांथ में सूचना के यंत्र मोबाइल का है और एक क्लिक पर सूचनाओं का अंबार लगा है। फिल्मों के वर्तमान परिदृश्य का जनक फ्रांस को माना जाता है फ्रांस ने विश्व को सिनेमा का आरंभ दिया है ।

भारत में सिनेमा के पहले क़दम 7 जुलाई 1896 को पड़े । फ़्रांस से ही आये लुमिअर बंधुओं ने मुंबई के वारसंस होटल में 06 लघु फ़िल्मों का पैकेज़ “मैजिक लैम्प” का प्रदर्शन कर भारत की जनता से फ़िल्मों का परिचय कराया । 3 मई 1913 को “राजा हरिश्चंद्र” नामक भारत की पहली फीचर फिल्म भारतीय दर्शकों के सामने थी । इस फ़िल्म के निर्माता थे महाराष्ट्रियन ब्राह्मण कुल में जन्में मराठी भाषी धुंडीराज गोविंद फाल्के। जिन्हें हम दादा साहेब फाल्के के नाम से जानते हैं और उन्हें भारतीय सिनेमा का पितामह मानते हैं ।

कुछ लोग भारत में फीचर फ़िल्म की शुरुआत “पुंडलिक’’ नामक फ़िल्म से मानते हैं,जिसका निर्माण 1912 में हुआ । आर.जी.तोरने और एन.जी.चित्रे द्वारा यह फ़िल्म 18 मई 1912 को मुंबई के “कोरेनेशन सिनेमा” में रिलीज़ की गयी थी। इसकी पृष्ठभूमि धार्मिक थी । लेकिन यह एक थिएट्रिकल फ़िल्म थी । कोई कहानी आधारित पहली फीचर फ़िल्म (हिंदू पौराणिक कहानी विषयक)  “राजा हरिश्चंद्र” ही है । यह फ़िल्म भी मुंबई के “कोरेनेशन सिनेमा” में रिलीज़ की गयी थी। दादा साहेब फालके ने अपने लंदन प्रवास के दौरान ईसा मसीह के जीवन पर आधारित एक चलचित्र देखा था । उस फिल्म को देखकर दादा साहेब फालके के मन में पौराणिक कथाओं पर आधारित चलचित्रों के निर्माण करने की प्रबल इच्छा जागृत हुई जिसका प्रतिफल थी राजा हरिश्चंद्र। इस फिल्म की अपार सफलता के बाद दादा साहब फाल्के ने वर्ष 1914 में “सत्यवान सावित्री”  का निर्माण किया। लंका दहन,श्री कृष्ण जन्म,कालिया मर्दन,कंस वध, शकुंतला, संत तुकाराम और भक्त गोरा जैसी फिल्में उन्होने 1917 तक बना ली थी । वर्ष 1919 मे प्रदर्शित दादा फाल्के की फिल्म कालिया मर्दन महत्वपूर्ण फिल्म मानी जाती है। इस फिल्म मे दादा साहेब फाल्के की पुत्री मंदाकिनी फाल्के ने कृष्णा का किरदार निभाया था। 16 फरवरी 1944 को दादा फाल्के का देहांत महाराष्ट्र के नाशिक में हुआ हिन्दी फिल्मों में उनके अवदान को कालांतर में उनके नाम से दादा साहब फाल्के पुरष्कार प्रारम्भ कर स्मरण किया जाता है ।

तथ्यों के झरोखों से देखा जाये तो हिन्दी सिनेमा की विकास गाथा अपनें में काफी वैविध्य समेटे हुये है सन 1913 से सन 1930 तक का हिंदी सिनेमा ‘मूक सिनेमा’ के नाम से जाना गया । यह भारत के लिए गौरव की बात है कि सन 1926 में बनी फिल्म  “बुलबुले परिस्तान” पहली फिल्म थी जिसका निर्देशन किसी महिला ने किया था। बेगम फातिमा सुल्ताना इस फिल्म की निर्देशिका थीं। सन 1913 से 1930 तक का समय हिंदी सिनेमा का प्रारंभिक काल माना जा सकता है । देश गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा था । अपनी आज़ादी के लिए तड़फड़ा रहा था । 1926 में ‘वंदे मातरम आश्रम” नामक फ़िल्म पे प्रदर्शन से पहले ही सरकार ने रोक लगा दी थी । इस दौर की मूक फिल्में भी बोलनें के लिए छ्टपटा रहीं थी । 1931 से इन फिल्मों ने बोलना सीख लिया । यद्यपि मूक फिल्में लगभग 1934 तक बनती रहीं ।1930 का हिंदी फ़िल्मों का दशक अपने केंद्र में पौराणिक और धार्मिक कथाओं को समेटे हुए था । लेकिन तत्कालीन सामाजिक संदर्भों को लेकर भी कुछ फिल्में बनने लगी थीं । पहली बोलती फ़िल्म “आलम आरा” को माना जाता है जिसे आर्देशिर ईरानी ने 1931 में निर्मित किया । 1933 में बनी “कर्मा” भारत की पहली बोलती अंग्रेजी फ़िल्म थी । “चुंबनदृश्य (किसिंग सीन )” की शुरुआत भी इसी फ़िल्म से हुई । फ़िल्मकार मोहन भवनानी के लिए मुंशी प्रेमचंद ने फ़िल्म लिखी ।यह फ़िल्म ‘मिल मज़दूर” और “गरीब मज़दूर” नाम से भी पंजाब में प्रदर्शित हुई । 1934 में प्रेमचंद की ही कृतियों पे ‘नवजीवन’ और “सेवासदन’ नामक फिल्में बनी । इस फ़िल्म का प्रभाव इतना अधिक था कि इसे कई शहरों में सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था । 1935 में देवदास फ़िल्म ने के.एल.सहगल को हिंदी फ़िल्मों का स्टार बना दिया ।

1940 का हिंदी फ़िल्मों का दशक गंभीर और सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखकर फ़िल्मों के निर्माण का समय था । नवयथार्थवाद की गहरी छाप इस दशक के फ़िल्मों में दिखाई पड़ती है । समकालीन चेतना भी इस दौर के फ़िल्मों के केंद्र में थी । आज़ादी की ख़ुशी और गुनगुनाहट इस दौर की फ़िल्मों थी । दिलीप कुमार जैसे सशक्त नायक थे । हिंदी सिनेमा में संगीत का जादू भी इन्ही दिनों शुरू हुआ । राजकपूर की “बरसात” 1949 में ही आयी । लता मंगेशकर जैसी गायिकाएं सामने आयीं । दिलीप कुमार की पहली हिट फ़िल्म “मिलन” इन्ही दिनों आयी, खलनायक के रूप में प्राण का आगमन इसी दशक में हुआ । 1941 में बनी फ़िल्म ‘किस्मत’ ने राक्सी टाकीज़(कलकत्ता) में तीन साल और आठ महीने तक लगातार प्रदर्शित होने का रिकार्ड बनाया । इफ्टा द्वारा निर्मित पहली फ़िल्म “धरती के लाल” भी इसी दशक में 1946 में बनी । जुबली स्टार के नाम से प्रसिद्ध राजेन्द्र कुमार, ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी, अप्रतिम सौंदर्य की रानी मधुबाला और नरगिस ने भी इसी दशक में हिंदी सिनेमा जगत के अभिनय क्षेत्र में पदार्पण किया । गुरूदत्त, के. आसिफ., कमाल अमरोही, चेतन आंनद जैसे महत्वपूर्ण फिल्मकार और शंकर-जयकिशन, सचिन देव बर्मन, खय्याम, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे गीतकारों ने हिंदी सिनेमा को अपनी कला से इसी दशक से समृद्ध करना शुरू किया। 1940 का यह दशक परिष्कार, परितोष और परिमार्जन का दशक रहा । 1950 का दशक हिंदी फ़िल्मों का आदर्शवादी दौर था । यह वह समय था जब हिंदी सिनेमा के नायक को सशक्त किया जा रहा था । भारतीय समाज का आदर्शवाद इस दशक के केंद्र में था । सामाजिक भेदभाव, जातिवाद,भ्रष्टाचार,गरीबी,फासीवाद और सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं को लेकर फिल्में इस दौर में बनायी जाने लगीं । आज़ादी को लेकर जो सपने और जिन आदर्शों की कल्पना समाज ने की थी, वह फिल्मों में भी नज़र आ रहा था ।

बिमल राय के निर्देशन में बनी “दो बीघा जमीन” इस दौर की महत्वपूर्ण फ़िल्म है । इस दौर का नायक प्यार तो करता था लेकिन पारिवारिक दबाव, सामाजिक प्रतिष्ठा और सामाजिक प्रतिबद्धता के आगे वो प्यार को कुर्बान कर देता था । बिमल राय की “देवदास” और गुरुदत्त की “प्यासा” इसी तरह की फिल्में थीं । प्रेम के संदर्भ में इन नायकों में साहस का अभाव था । सामाजिक नैतिकता का आग्रह अधिक प्रबल था। फिल्मों के लिए राष्ट्रीय पुरस्कारों की शुरुआत भी 1954 से ही हुई।1960 का हिंदी फ़िल्मों का दशक 1950 के दशक से काफ़ी अलग था दिलीप कुमार मधुबाला अभिनीत तथा के आसिफ निर्देशित फिल्म मुगले आजम इसी दशक की फिल्म है जो 05 अगस्त 1960 को देश के 150 छवि गृहों में एक साथ रिलीज हुयी थी। 1969 से ही दादा साहेब फाल्के पुरस्कारों की शुरुआत हुई । प्रेम के जो गाने इस दशक में सामने आए वे बड़े लोकप्रिय हुए । इस दौर का गीत – संगीत बेहद शानदार था। प्रेम की समाज में स्वीकारोक्ति बढ़ी । प्रेम विवाह को मान्यता मिलने लगी । पुराने बंधन शिथिल होने लगे। फिर आया 70 का आधुनिक दशक जिसमें सदी के नायक एंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन,जया भादुडी ,राजेश खन्ना मुमताज़ , धर्मेंद्र, हेमामालिनी,राखी ,शत्रुघन सिन्हा ,राजेंद्र कुमार ,मनोज कुमार आदि अभिनेता अभिनेत्रियों नें विविध विषयक फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाया। इस समय की कालजयी फिल्म है “शोले” जिसके डायलाग देश विदेश में हिन्दी के प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दे गए,चूंकि यह समय दस्यु पीड़ित काल भी रहा है अत: इसका कथानक समाज के मन मस्तिष्क को छू गया और कलाकारों की अदायगी तथा कहानी का ठोसपन फिल्म को कालजयी बना गया। 80 तक का दशक कमोबेश एक समान रहा हालांकि सार्थक सिनेमा नें अपनी जड़ें जमाना शुरू कीं क्योंकि मारधाड़ से भरपूर मनोरंजक फिल्मों के बीच सहज, सरल, बोधगम्य फिल्मों के चाहने वाले दर्शकों का भी अपना एक वर्ग था जो अमोल पालेकर, दीप्ति नवल और फारुख शेख आदि अभिनेताओं को पसंद करता था ।

      1990 का हिंदी फ़िल्मों का दशक आर्थिक उदारीकरण का था । विदेशी पूँजी और सामान का देश में आना सहज हो गया था । प्रवासी भारतीयों का महत्व बढ़ गया था । विदेशों में बसने, लाखों के पैकेज़ की नौकरी, हवाई यात्राएं, मंहगी गाडियाँ इत्यादि नौ जवानों के सपने बन गए । सिनेमा ने भी अपने स्वरूप को व्यापक किया । चूंकि कश्मीर आतंकी गतिविधियों की वजह से शूटिंग लोकेशन के उपयुक्त नहीं था अत: विदेशों में जाकर शूटिंग की जाने लगी इस दशक में हिन्दी फिल्मी समाज ने समझ लिया कि खुद को बदलना होगा। प्रवासी भारतीयों के लिए स्वर्ण युग शुरू हुआ। सुभाष घई की परदेश हो या करण जौहर की कुछ-कुछ होता है- जैसी फिल्मों के द्वारा हिन्दी भाषा, गीत-संगीत, भारत देश से प्रेम को बढ़ावा मिला, जिसने दुनियाभर में बसे भारतवंशियों को लुभाया। 2000 के प्रथम दशक में मध्यम वर्ग के जो सपने पिछले वर्षों में साकार नहीं हुए थे, वे इस दशक में साकार होने लगे। थ्री इडियट्स- जैसी फिल्म भी आयी वास्तविक घटनाओं एवं संदर्भों को लेकर फिल्में बनना प्रारम्भ हुईं सबसे ज्यादा परिवर्तन फिल्म निर्माण और नयी सोंच का हुआ है बायोपिक बेहतर बन रही हैं। 2010 के दशक की शुरूआत में पूरी दुनिया को आर्थिक मन्दी से गुजरना पड़ा इसका प्रभाव फिल्मों पर भी पड़ा किन्तु मनोरंजन तो मनोरंजन है यह भला किसी से कब छूटता है हिन्दी सिनेमा की यही खूबी है की यथार्थपरक होते हुये भी कब वह कल्पना में दर्शक को हीरो या हीरोइन के अंदर प्रविष्ट करा देगा इसका पता ही नहीं चलता है। मनुष्य के अंदर निहित रागात्मक संवेदना प्रेम और सौंदर्य के द्वारा विकसित होती है। ये रागात्मक संवेदनाएँ ही मानवीय गुणों का विकास करती हैं। ये रागात्मक संवेदनाएँ ही हैं जिनके कारण व्यक्ति अपनी निजता से हटकर पारिवारिक और सामाजिक दायित्व को महसूस करता है। अपने से अधिक दूसरों के बारे में सोचता है। देश में तेजी से उभरता नया मध्यम वर्ग नई मानसिकता के साथ आगे बढ़ रहा था। यह समय वैश्विक परिप्रेक्ष में आर्थिक मंदी से जूझने और उबरने के बीच का समय है । आर्थिक मंदी कब हावी हो जाएगी यह चर्चा का विषय है इस मध्यमवर्ग में आत्म केंद्रियता बढ़ी है । सुविधा शुल्क देने में इस वर्ग को परहेज नहीं है । “ पैसे लो लेकिन सर्विस अच्छी दो ।’’ इस वर्ग की आम राय है । तो सिनेमा भी अच्छी सर्विस देने में लग गया । शानदार वातानुकूलित मल्टी प्लेक्स सिनेमा घरों में लगभग सोते हुए फिल्म देखने की व्यवस्था हो गयी । नए सिरे से 3 D फ़िल्मों का नया दौर शुरू हो गया है । अच्छी सर्विस के ख़याल से निश्चित कर लिया गया कि ढाई – तीन घंटे की फ़िल्म में दर्शकों का पूरा मनोरंजन होना चाहिए । आइटम सॉंग फिल्मों की अनिवार्यता सी बनने लगी । किन्तु इस सब का लब्बो लुवाब यह है की विश्व पटल पर भारत भाषायी रूप से हिन्दी के प्रसार में काफी आगे बढ़ा है जिसमें हिन्दी सिनेमा का योगदान अप्रतिम है।

भाषा स्थानांतरण दुनिया के उत्कृष्ट कार्यक्रमों को हिंदी के माध्यम से रातों-रात करोड़ों नए दर्शक दे रहा है। यह स्वतंत्र बाज़ार और प्रतिस्पर्धा का आज का स्वीकृत खेल है। एक बात अवश्य है कि एक ओर हिंदी भाषा बाज़ार और मुनाफ़े की कुंजी बन रही है वहीं दूसरी ओर मिलीजुली हिन्दी जिसे हिंगलिश कहना ज्यादा उचित होगा का भी प्रसार बहुतायत में हो रहा है जो की भाषायी मूलता के लिए घातक है। इसी तारतम्य में साहित्यकार डॉ राजू पांडेय लिखते हैं -कई बार ऐसा भी लगता है की हिंदी भाषा का तद्भ्वीकरण एक सहज उद्दाम प्रवाह है और सजग तत्समीकरण इस प्रवाह के प्रभाव को नियंत्रित नियमित व्यवस्थित करने की एक समानांतर चेष्ठा-दोनों ही आवश्यक हैं । रूसी विद्वान डॉ पीटर बारानिकोव मानते हैं कि हिंदी के प्रचार प्रसार में हिंदी सिनेमा ने जितना योगदान दिया है उतना और किसी माध्यम ने नहीं दिया है।अमेरिका के राष्ट्रपति ओबाना ने अमेरिकी नागरिकों को संबोधित करते हुए कहा था कि वे जितनी जल्दी हो सके हिन्दी सीखें, अन्यथा सारे कामकाज हिन्दुस्थानी हथिया लेंगे. लेकिन दुर्भाग्य कि हम हिन्दी के बढते महत्त्व को भली-भांति समझ नहीं पा रहे हैं. यह भूल कोई छॊटी सी भूल नहीं है. अगर यह क्रम जारी रहा तो संभव है कि हमें इसकी बडी कीमत चुकानी पड़ सकती है.

आज हालीवुड के फिल्म निर्माता भी भारत में अपनी विपणन नीति बदल चुके हैं। वे जानते हैं कि यदि उनकी फिल्में हिंदी में रूपांतरित की जाएगी तो यहाँ से वे अपनी मूल अँग्रेज़ी में 'निर्मित चित्रों' के प्रदर्शन से कहीं अधिक मुनाफ़ा कमा सकेंगे। हालीवुड की आज की वैश्विक बाज़ार की परिभाषा में हिंदी जानने वालों का महत्व सहसा बढ़ गया है। भारत को आकर्षित करने का उनका अर्थ अब उनकी दृष्टि में हिंदी भाषियों को भी उतना ही महत्व देना हैं। परन्तु आज बाज़ार की भाषा ने हिंदी को अंग्रेज़ी की अनुचरी नहीं सहचरी बना दिया है।

आज टी.वी. देखने वालों की कुल अनुमानित संख्या जो लगभग 10 करोड़ मानी गई है उसमें हिंदी का ही वर्चस्व है। आज हम स्पष्ट देख रहे हैं कि आर्थिक सुधारों व उदारीकरण के दौर में निजी पहल का जो चमत्कार हमारे सामने आया है इससे हम मानें या न मानें हिंदी भारतीय सिनेमा के माध्यम से दुनिया भर के दूरदराज़ के एक बड़े भू-भाग में समझी जाने वाली भाषा स्वतः बन गई है।

दयानन्द अवस्थी

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: हिन्दी भाषा के प्रसार में हिन्दी सिनेमा का योगदान (14 सितंबर हिन्दी दिवस पर विशेष ) - दयानन्द अवस्थी
हिन्दी भाषा के प्रसार में हिन्दी सिनेमा का योगदान (14 सितंबर हिन्दी दिवस पर विशेष ) - दयानन्द अवस्थी
https://drive.google.com/uc?id=1yL68yPFBK2CaUBOb4Y6dSKsl0d-c6J6Z
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2019/09/14.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2019/09/14.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content