और वे रो पड़ीं . . . - मोती प्रसाद साहू

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  शोषण एक बड़े छायादार वृहदाकार पेड़ के समीप खड़ा दुबला-सा पतला पतला- सा सीधा-सा डरा-सा या , यों कहें कि; भूख से जुदा जुदा-सा दिखने ...


 

शोषण

एक बड़े छायादार
वृहदाकार
पेड़ के समीप खड़ा
दुबला-सा
पतला पतला- सा
सीधा-सा
डरा-सा
या , यों कहें कि;
भूख से जुदा जुदा-सा
दिखने वाला पेड़
कुछ नहीं कहता ?
बहुत कुछ कहता है !
वह कहता है कि
इस बड़े ने
अपने साम्राज्य विस्तार के लिए
छीना है
हमारे हिस्से का आकाश
प्रकाश ,
पाताल ,
हवा और पानी
मेरी जवानी
फिर भी ;
नहीं है मेरे पास
कोई सबूत
इसके खिलाफ ?

यह सिद्ध करने के लिए
कि , इसने किया है
मेरा शोषण।




   मंच

तब तक मंच खाली था
कुर्सियॉ भी सजी थीं
फूलदान रखे थे

सामने दर्शकों के लिए भी
बैठने की व्यवस्था थी
प्रचार बहुत पहले से ही किया जा रहा था
आयोजक प्रयोग कर रहे थे
अपेक्षानुरुप भीड़ भी पहॅुची
एक से एक विव्दान पढ़े लिखे इंसान
वक्ता भविष्य की सोच रखने वाले उपस्थित थे
पर किसी ने भी बिन बुलाए
मंच पर बैठने की मर्यादा भंग नहीं की
कुछेक मन ही मन चाह रहे थे
लेकिन शर्म झिझक आड़े आ रहे थे।

मंच सुनसान हो रहा था
बिन दूल्हे की बारात की तरह
भीड़ भी उकता रही थी
कुछ घर के लिए उठने भी लग गये
तभी ,
मंच खाली देखकर
भीड़ से कुछेक निकले
बॉहे चढ़ाते हुए
असभ्य तरीके से आकर मंच संभाला
पदासीन हुए कुर्सियॉ धन्य हुई
और मंच सुशोभित हुआ
उकताई भीड़ शांत हुई
व्याख्यान बनवाये गये
संबोधन शुरु हुआ
उपस्थित लोगों को
दर्शक एवं श्रोता
कहा गया...


अनासक्ति

उस अदृश्य नियन्ता ने
पर्वत, कहीं समुद्र बनाया।
कहीं सम मैदान बनाकर
उस पर जन आबाद कराया।।

पर्वत ने पाया है नभ को
सागर ने पायी गहराई।
मानसून का चक्र चलाकर
उसने है विज्ञान सिखायी।।

पर्वत को मिलता जो जल है
सागर को लौटाता नदियों से।
पर्वत दिखलाता अनासक्ति
सागर वापस करता नीरद से।।

यह चक्र संतुलन अनायास
आपस का प्रेम सिखाता है।
अनासक्त संग्रह करने का
सात्विक भाव जगाता है।।


धरती -अम्बर


अम्बर ने ऑसू  ढारे हैं
वसुन्धरा को ओझल पाकर।
प्रेमाश्रु चमके मोती बन
तृण उपर अरुणोदय पाकर।।

मोती लुट जायेंगे दिन में
समा लिया धरती ने उर में।
अम्बर भी स्तब्ध रह गया
रवि आ धमका उभय बीच में ।।

निशा आ गयी मिलन रहेगा
हम दोनों का होकर पूरा।
सोच रहे धरती व अम्बर
पर सदियों से अभी  अधूरा।।


इसी आस में गुजर गईं हैं
सदियॉ कई हजार।
बसर कर रहीं उभय मध्य में
सृष्टि सनातन बारम्बार।।

अर्ध तुष्टि का मिलन शेष है
मिलवायेंगे उषा हिमेश।
सृजन करेंगे मिलकर दोनों
नई सुबह का नया दिनेश।।



जमीं मत होना!

बोना चाहता है वो विष-बेल
जमीं मत होना!
लगाना चाहता है आग छिड़क तेल
हवा मत होना!
काटना चाहता विश्वास का वो वृक्ष
कुदाल मत होना!
करना वाहता है वो तुम्हारा भाग
सवाल मत होना!
उगाई है उसी ने कटीली झाड़ियॉ
खाद मत होना!
सिखाना चाहता है वो कोई दुर्नीति
शिष्य  मत होना!

 

कोसी कैसे धारे धीर ?

कोसी किसको कोसे
बढ़ती जाती पीड़
टूट रही हैं सासें उसकी
दिन प्रति घटता नीर

जिनको पाला और पिलाया
सदियों सदियों
वक्षस्थल का नीर
वही हाथ अब खींच रहे हैं
हरित-वनों का चीर

बिछुड़ गया है बसा बसाया
चिड़ियाओं का नीड़
कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़

पहले मॉ का भरा हुआ था
पूरा घर परिवार
जल जंगल संग बाग बगीचे
औषधियॉ भरमार

सूखा सूखा पावस बीता
रीत गया है शीत
आमद नहीं कहीं पानी की
कोसी हुई अधीर
कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़


काकड़ और कुरंग अलोपित
जंगल , जंतु-विहीन
सायं होते तेंदुआ धमके
बच्चों को ले जाता छीन
दर्द हमारा देख के होती
कोसी खुद गमगीन

शीतल शीतल मंद हवाएं
पानी की तासीर
धीरे धीरे होती जाती
मरु जैसी तकदीर
कोसी किसको कोसे
कैसे धारे धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़


हल सुस्ताते खेती उजड़ी
इंतजार में ऑख उनींदी
उड़ती मिट्टी . . .
जैसे उड़े अबीर
कोसी कैसे धारे धीर
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़

आओ कुछ वृक्षों को रोपें
मॉ कोसी के तीर
काम करें सुपुनीत

कोसी किसको कोसे
कौन बधाये धीर?
कि उसकी बढ़ती जाती पीड़ . . .।


और वे रो पड़ीं . . .

सूख रहे खेतों
प्यासे पक्षियों को देखकर
हवाऍ द्रवित हुयीं
बरसने की इच्छा जगी मन में
समुद्र से मिन्नतें की
परहित समझ
समुद्र ने जल दिया
दिल खोलकर

हवाऍ जलद हो गयीं
और निकल पड़ीं अपनी सफर पर
परोपकार की डगर पर
उनके पास संजीवनी थी

वे उड़ती रहीं
खेतों के उपर
सूखी नदियों के उपर
रेगिस्तानों के उपर
वे बरसना चाह रही थीं
साथ ही मनुहार भी
मन में जलद होने का अहंकार
अनजाने ही बढ़ गया था

किसी ने मनुहार नहीं की
रेगिस्तानों में था ही कौन?
न पर्वत
न जंगल
न पपीहे की कातर ध्वनि
न मेंढकों की टर्रटराहट . . .

वे बढ़ती रहीं
जरुरतों के उपर से
अहंकार ने हिमालय को भी
लॉघना चाहा

धृष्टता के लिए हिमालय की डाट पड़ी
और . . . और
वे रो पड़ीं . . .


पूरब और पश्चिम


मैं पूरब से बोल रहा हॅू
तू पश्चिम को देख रहा है।
मैं नमस्कार नित बोल रहा हॅू
तू तोपों को खोल रहा है ।

मैं धरती को मॉ कहता हॅू
तू इस पर कचरा करता है ।
मैं जग का मन सींच रहा हॅू
तू मुट्ठी को भींच रहा है।
 
मैं उगता सूरज देख रहा हॅू
तू अस्ताचल झॉक रहा है ।
मैं मंगल का बीज बो रहा
तू विस्फोटक फोड़ रहा है।

मैं त्याग युक्त उपभोग कर रहा
तू सबका हक छीन रहा है।
मैं प्र.ति सन्तुलन साध रहा हॅू
तू विद्युत को देख रहा है ।

मैं पूरब से बोल रहा हॅू
तू पश्चिम को देख रहा है।



                 

पेड़ देश में       

पेड़ देश में तिनका तिनका
देखो चटका जोड़ रही है ।
बने घोंसले में निवास कर
कितना मन सन्तोष रही है।।

दो गिलहरियॉ समय समय पर
शाखा- शाखा दौड़ रही हैं।
उतर पेड़ से दूर दूर तक
खेत मेंड़ पर टहल रही हैं।।

पेड़ देश का गान सुनाती
देखो कोयल कूक रही है।'
कूक-कूक कर सबके अंदर
भाव प्रेम के जगा रही है।।


जड़ प्रदेश से शिखर तलक
लगा चीटियों का है तॉता।
संघे शक्ति निहित होती है
यही समझ मन मेरे आता।।


इसी पेड़ की शाखाओं पर
बैठ बैठ कुछ काले कौवे।
'कॉव' 'कॉव' का शोर मचा कर
यदा तदा सबको तड़पाते।।

कठफोड़वा भी लगा हुआ है
तना छेदने में ही हरदम।
छेद छेद कर हुआ जा रहा
देखो भाई कितना बेदम ?

जड़ प्रदेश के किसी विवर में
कृष्ण -सर्प इस ताक में रहता।
चटका दाना चुगने जातीं
मैं नीड़ों से बच्चे खाता।।
                   


स्टेशन पर रिक्शाचालक

पौष की सर्द भरी बर्फीली रात में
बरेली रेलवे -स्टेशन के बाहर
रिक्शे पर अधलेटे चालक
इंतजार कर रहे हैं
एक अदद सवारी की

जिससे प्राप्त किराये से
सुबह होते ही
मुखातिब हुआ जा सके
पाल्यों की फीस
दैनिक -खर्च
एवं दो जून की रोटी से

आगे से आती हुई सवारी देख
एक सोचता है ़ ़ ़
अबकी खाली नहीं जायेगी मेरी बारी . . .

वह उठता है
स्वागत की मुद्रा में
सामान पकड़ने को हाथ
बढ़ जाते हैं स्वयं

मोल-भाव होता है
तब तक आटोचालक
चिल्लाकर बुला लेता है
आधी दर पर

और , हाथ आयी सवारी
उसके सामने से
ऐसे चली जाती है जैसे
कोई उसकी रोटी को
हाथ से छीनकर
ले गया हो

और वह उदास होकर
अगली सवारी की
प्रतीक्षा में पुनः लेट जाता है
रिक्शे पर . . .


किसान हो या किराये की कोख

हे मजदूर किसानों !
तुम्हारे पसीने से सिंचकर
उगी हुईं फसलें
खेत- खलिहानों से निकलकर
बाजारों की रौनक बढ़ा रही हैं
नित उनके दाम
हो रहे बे- लगाम,
जिस पर होता हो -हल्ला
राजनीति
भाषणबाजी
गली ,मोहल्लों में होती नुक्कड़बाजी

दामों पर सरकारें बनती हैं
बिगड़ती हैं
चुनाव लड़ती हैं
और... तुम!

तुम तो उन्हें बेचकर
बरस चुके बादलों की तरह
हो गये हो खाली
कर्ज चुकाने में
हालत हो गई है माली
अब मूक द्रष्टा बन देख रहे हो
व्यापारी की कपटों को
महॅगाईं की लपटों को
जिन पर सिंक रही हैं
राजनीति की रोटियॉ
तुम्हारी तो सूख रहीं मांस-पेशियॉ
मै पूछता हॅू
महॅगाईं की कमाई में
तुम्हारा हिस्सा कहॉ है?
चर्चा में तुम्हारा किस्सा कहॉ है?
आखिर कब तक रहोगे सोते?
किराये की कोख की तरह
अनाज रहोगे बोते ?



आदतें इनकी

आदतें इनकी पुरानी हैं यही
जीतने पर थूरना व
हारने पर हूसना
पीठ पीछे तोड़ना व
सामने से जोड़ना
बैठ के वे बॅट रहे हैं
धूल से भी रस्सियॉ
चाहते हैं शीर्ष सब दिन
या हाथ हों फिर बग्गियॉ
यदि पहॅुच से दूर हों
तब फेंकते हैं फब्तियॉ
मैं नही ंतो भॉड़ में जायें
सभी ये कुर्सियॉ
चाहते हैं धूप भी निकले
हमीं से पॅूछ कर
रोक देंगे अन्यथा
ये धुंध कोई छोड़कर ।   

         



  आओ चलें करें मतदान

लोकतंत्र का मंदिर रचने
उसमें देव प्रतिष्ठा करने।
जिससे हो सबका कल्यान
आओ चलें करें मतदान।।

             अपना प्रतिनिधि सेवक चुनने
              बहुतों में से योग्य परखने।
              देशोन्नति का धरके ध्यान
              आओ चलें करें मतदान।।

आज कार्य अवकाशित कर दें
आती नींद तिलांजलि दे दें।
हर कठिनाईं का एक निदान
आओ चलें करें मतदान।।

             मतदाता ही राष्ट्र-विधाता
              मतकेन्द्र स्वयं ही जाता।
              निज कर्त्तव्यों ले संज्ञान
              आओ चलें करें मतदान।।

चूक गये यदि इस दिन भाई!
मत देना फिर कभी दुहाई।
' मत ' तेरा अमूल्य वरदान
आओ चलें करें मतदान।।

             जाति धर्म से उपर उठकर
              लोकतंत्र का पर्व समझ कर
              मिल कर करें राष्ट्र-निर्माण
              आओ चलें करें मतदान।।

प्रजातंत्र का उपवन सींचे
शान्ति मिलेगी उसके नीचे।
नित फूले-फले बढ़े उद्यान
आओ चलें करें मतदान।।
                                                   


बेचारी गालियॉ


एक विघटनकारी ने
एक उपद्रवी ने
एक आतंकवादी ने
एक फकीर को
एक महात्मा को
एक धर्मात्मा को
जमकर गाली दी।

वह फकीर
वह महात्मा
वह धर्मात्मा
कुछ नहीं बोला
क्यों कि वह शरीर नहीं था।

दुष्ट जब गालियॉ दे रहा था
तब उसके अन्दर की
शर्म. हया. लज्जा
लजाकर भाग खडी हुयीं
वे स्त्रियॉ जो थीं।

इस प्रकार अपनी भड़ांस
निकालने के पश्चात्
शांत हुआ वह उपद्रवी
विजयी मुद्रा में
आदम-कद दर्पण का
समर्थन चाहा और
खड़ा हो गया उसके सम्मुख
गालियॉ उसके मुख पर चस्पा थीं।

दर्पण से पूछा -
ऐसा कैसे हो सकता है?
उत्तर मिला
मैं झूठ नहीं बोलता
तुम्हारी गालियॉ
उस महात्मा ने नहीं ली
बेचारी गालियॉ ...!
कहॉ जातीं
अनजान जगह?
तुम उनके जन्मदाता थे
तुम्हारे साथ लौट आयीं।


गाजर घास

गाजर घास उग रही है
हर जगह
बे-रोक टोक
निरोग
अनाहूत अनपेक्षित

यह बढ़ रही है नित
पीकर धरती का घृत

यह उग रही है
सड़कों के किनारे
रेल -पटरियों के किनारे
जहॉ पहिये नहीं जाते

यह उग रही है
हर उस खेत
जहॉ किसान
हल नहीं चलाते

यह उग रही है हर उस द्वार
जहॉ हम झाड़ू नहीं घूमाते

यह उग रही है
रस भरी तृणों को दबाकर

यह उग रही है
पोषक फसलों को हराकर
उनका हक मारकर
सहिष्णु घासें
निरीह घासें
उदार फसलें
नहीं कर पातीं
इनका विरोध

कहते हैं यह
अमरीका से है आगत
नहीं किया था
किसी ने भी स्वागत

फिर भी यह बढ़ी जा रही हैं
बे-शर्म, बे-झिझक
परायी धरती पर भी
होकर निडर
स्थानीय को दबाकर


---

मोती प्रसाद साहू
जन्म -03 मई 1963 वाराणसी
शिक्षा - परास्नातक  (हिंदी एवं संस्कृत)
सम्प्रति -अध्यापन उत्तराखण्ड

पत्राचार-
राजकीय इण्टर कालेज हवालबाग-अल्मोड़ा 263636 उ0ख0

संपर्क -                                     
ई0 मेल-motiprasadsahu@gmail.com

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 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. 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श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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और वे रो पड़ीं . . . - मोती प्रसाद साहू
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