‘‘रामधारी सिंह दिनकर के साहित्य में राष्ट्रीय, प्रगतिवादी एवं मानवीय चेतना’’ - डॉ.रामायणप्रसाद टण्डन

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(रामधारी सिंह दिनकर) रामधारी सिंह दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय भावना का उद्घोष करने वाले दिनकर चिर युवा हैं, उनके काव्य में अपार उर्जा और प...

रामधारी सिंह दिनकर

(रामधारी सिंह दिनकर)


रामधारी सिंह दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय भावना का उद्घोष करने वाले दिनकर चिर युवा हैं, उनके काव्य में अपार उर्जा और प्रेरणा के ओजस्वी स्वर हैं। वे लिखते हैं कि व्यास ने भीष्म का जो चरित्र अंकित किया है, वह अत्यंत उच्चकोटि का है। आश्चर्य है कि उतना बड़ा मनुष्य दुर्योधन का नमक खाया था। दिनकर मानते हैं कि वास्तविक कारण यह था कि वे वृद्ध हो गए थे और कोई भी क्रांतिकारी निर्णय वृद्ध मनुष्य नहीं ले सकता। इन बातों से युवावस्था में, उर्जा में और कर्मठता में दिनकर की गहरी आस्था प्रकट होती है। उद्यमिता में अटूट विश्वास प्रकट होता हैः-‘प्रकृति नहीं डरकर झुकती है, कभी भाग्य के बल से, सदा हारती वह मनुष्य के उद्यम से श्रमबल से।’’

दृष्टि सभी में होती है, अंतरदृष्टि विरलों में। सवाल है कि वाह्य जगत को देखने वाली आंखें क्या कभी मन के दरवाजे पर दस्तक दे पाती हैं ? ‘‘उर्वशी’’ दिनकर की काव्य प्रतिभा की ऐसी ही फल सिद्धि है जो उनके मन में पहले से ही ‘कहीं पड़ी हुई’ थी। उर्वशी’ वास्तव में ऐन्द्रिकता के सहारे अतीन्द्रिय जगत् के संस्पर्श का सफल प्रयास है, काम, अध्यात्म और प्रेम का साहित्यिक चित्रांकन है। मानव-मन की सहज भावनाओं को समेटने वाली उर्वशी को छेड़ना जितना सरल है, छोड़ना उतना ही कठिन। अपनी इस कृति में राग के अतुल्य उद्गाता दिनकर ने एक सहज मानवीय कथ्य को सरल किंतु सशक्त शिल्प में ऐसा आकार दिया है कि हृदय के तार झंकृत हुए बिना रह ही नहीं सकतेः-‘और वक्ष के कुसुम-कुंज, सुरभित विश्राम-भवन ये, जहां मृत्यु के पथिक ठहर कर श्रान्ति दूर करते हैं।’’

प्रेम क्या है ? क्या कोई शर्त, कोई आकांक्षा, कोई संतुष्टि, कोई तर्क, कोई भावना, किसी इच्छा की पूर्ति, कोई कामना या फिर वासना ? प्रेम के आयामों का क्षितिज कितना विस्तार ग्रहण कर सकता है ? क्या पुरूरवा का भौतिक प्रेम उसे आध्यात्मिक जगत में नहीं पहुंचाता ? उसमें काम का कौन सा रूप विद्यमान था जिसने उसे ईश्वर की ओर उन्मुख किया ? काम जिसका अर्थ आज के भूमण्डलीकृत विश्व में ‘सेक्स’ तक सिमटकर रह गया है, की प्रेम में क्या भूमिका है ? क्या सेक्स जैसा शब्द काम के उचित महत्व को समग्रता में रूपायित कर पाता है ? और फिर काम, प्रेम के मार्ग में साधक है या बाधक ? या इन दोनों से परे, पलायनवाद का आराधक ? ‘‘उर्वशी में ऐसे कितने सवाल हैं जो अनुत्तरित मौन के दायरे में भयंकर तूफान खड़ा करते हैं। दिनकर लिखते हैं कि उर्वशी चक्षु, रसना, घ्राण, त्वक् तथा स्त्रोत की कामनाओं का प्रतीक है, पुरूरवा रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द से मिलनेवाले सुखों से उद्वेलित मनुष्य। पुरूरवा द्वन्द में है, क्योंकि द्वन्द में रहना मनुष्य का स्वभाव है। मनुष्य सुख की कामना भी करता है और उससे आगे निकलने का प्रयास भी। नारी नर को छूकर तृप्त नहीं होती, न नर नारी के आलिंगन से संतोष मानता है। कोई शक्ति है जो नारी को नर तथा नर को नारी से अलग रहने नहीं देती, और जब वे मिल जाते हैं, तब भी, उनके भीतर किसी ऐसी तृषा का संचार करती है, जिसकी तृप्ति शरीर के धरातल पर अनुपलब्ध है।

नारी के भीतर एक और नारी है, जो अगोचर और इन्द्रियातीत है। इस नारी का संधान पुरूष तब पाता है, जब शरीर की धारा, उछालते-उछालते, उसे मन के समुद्र में फेंक देती है, जब दैहिक चेतना से परे, वह प्रेम की दुर्गम समाधि में पहुंचकर निस्पन्द हो जाता है।

और पुरूष के भीतर भी एक और पुरूष है, जो शरीर के धरातल पर नहीं रहता, जिसमें मिलने की आकुलता में नारी अंग संज्ञा के पार पहुंचना चाहती है।

परिरंभ पाश में बंधे हुए प्रेमी, परस्पर एक दूसरे का अतिक्रमण करके, किसी ऐसे लोक में पहुंचना चाहते हैं, जो किरणोज्जवल और वायवीय है। इन्द्रियों के मार्ग से अतीन्द्रिय धरातल का स्पर्श, यही प्रेम की आध्यात्मिक महिमा है।

कवि और कविता का अपने समय के सभी सरोकारों से गहरा रिश्ता होता है। कवि की दृष्टि बहुत ही सूक्ष्म होती है। दिनकर के शब्दों में कवि सामाजिक जीव होता है। इसीलिए समर्थ रचनाकार सृजन की प्रक्रिया के दौरान काल के विशाल खण्डों में व्याप्त सार्थक चरित्रों को उठाता है। ऐसा करते हुए वह संकुचित दुनिया और सीमित बुद्धि जैसे अनेक कारकों के खिलाफ विद्रोह का झण्डा बुलंद करता है जो कला की दुनिया को परंपराओं और रूढ़ियों में कैद किए रखना चाहते हैं। ‘‘रश्मिरथी’’ के कर्ण चरित्र के उद्धार के लिए दिनकर द्वारा किया गया एक ऐसा ही महान प्रयास है, जहाँ सामाजिक विसगतियां भलीभांति रेखांकित कर ली गई हैं। दानवीर कर्ण का चरित्र निखरकर हमारे सामने पूरे औदात्य के साथ आता हैः-‘‘मित्रता बड़ा अनमोल रतन, कब इसे तोल सकता है धन ?’’ दिनकर की ऐसी अनेक कविताएं हैं जो काव्य की सोदे्श्यता की अनुपम व्याख्याएं प्रस्तुत करती हैं, कला के मानवीय प्रयोजन को रेखांकित करती हैं और साहित्य की सार्थकता को सिद्ध करती हैं।

किसी साहित्यकार के व्यक्तित्व की व्यंजना उसकी कृतियों से होती है। दिनकर की गद्य और पद्य मिलाकर कुल तकरीबन साठ कृतियां हैं। इसके अलावा ‘‘दिनकर की डायरी’’ भी दिनकर को समझने में काफी मदद करती है। उनकी डायरी इन्द्रधनुषी भावजगत के विविध आयामों से हमारा साक्षात्कार कराती है। पत्रों और डायरियों में दिनकर ने लिखा है कि जो पद हमें नहीं मिला है, अपने को उसके योग्य सिद्ध करना आसान है, किन्तु जिस पद पर हम हैं, उसकी योग्यता सिद्ध करना बड़ा कठिन काम है।.......छलपूर्ण प्रशंसा से उपयोगी आलोचना श्रेष्ठ है, मगर कम ही लेखक उसे पसन्द करते हैं।......महापुरूषों की कीर्ति उन साधनों से नापी जानी चाहिए, जिनका प्रयोग कीर्ति पाने के लिए किया गया हो।......जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, आदमीं के ज्ञान के साथ उसकी मूर्खता में भी वृद्धि होती है।......विरह छोटे प्रेम को संकीर्ण और बड़े प्रेम को विस्तृत बनाता है। तूफान दीये को बुझा देता है किंतु होली की आग को खूब भड़काता है। दिनकर की लेखनी में ऐसी अनेक बातें हैं, जो साहित्यकारों समेत सभी के लिए उपयोगी और प्रांसगिक हैं। आगे भी रहेंगी।

जनतंत्र का जनम में सिंहासन खाली करो, कि जनता आती है......लिखकर कवि ने यही साबित किया है कि राजनीति और प्रशासन को जनता के हित के लिए काम करना चाहिए क्योंकि जनता, सचमुच ही बड़ी वेदना सहती है। फावड़े और हल को राजदंड बनाने का दिनकर का स्वप्न क्या हमें एक शांतिपूर्ण समाज-रचना की ओर अग्रसर नहीं करता। सिमरिया में जन्में दिनकर को खेतों और खलिहानों और किसानों से बहुत प्रेम रहा है। जिस तरह सामर सेट माम को भारत में और कुछ चाहे दिखा हो या न दिखा हो, यहां के किसान उन्हें जरूर दिखे थे, उसी तरह दिनकर की दृष्टि भी कोमल संवेदनाओं से युक्त है। शायद इसीलिए पक्षियों और बादलों को भगवान के डाकिए मानने वाले दिनकर ने वैभव की दीवानी दिल्ली को कृषक-मेघ की रानी कहा है।

दिनकर के पास सुस्पष्ट ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का एक मजबूत हथौड़ा है, जिससे वे अतीत की चट्टान तोड़कर वर्तमान की वेगवान धारा निकालते है। समकालीन समस्याओं के निदान और मानवता के संकटों को सुलझाने के लिए उन्होंने कई बार इतिहास का सहारा लिया है। लेकिन उनका उद्देश्य क्या इतिहास को दुहराना भर ही था ? नहीं। उन्होंने अनेक स्थलों पर लिखा भी है कि उनके लक्ष्य उच्चतर रहे हैं। आखिर वर्तमान की उत्पति अतीत के गर्भ से ही होती है। अतीत की दुर्भेद्य किले की उंची-उंची चाहर दीवारें लांघकर ही समकालीनता की एक विधायक समझ बनायी जा सकती है। कच्ची पगडंडियों और पथरीली राहों पर चलने वाले साहसी पथिकों की यात्राएं दुर्गम, बीहड़ और पीड़ादायी तो होती है, लेकिन बिना प्रसव-पीड़ा के कोई जनम भी नहीं होता।‘उर्वशी’’ के लिए दिनकर ने यह पीड़ा लगातार आठ वर्षो तक झेली है।

क्या कोई रचनाकार न्याय और अन्याय, सृजन और विनाश या स्वार्थ और परमार्थ जैसी विरोधी स्थितियों के बीच उदासीन बना रह सकता है ? तटस्थ बना रह सकता है ? तटस्थ रहने में सुरक्षा तो मिल सकती है, दायित्व-निर्वहन का तोष नहीं मिल सकता, समरभूमि में शहीद होने का आनंद नहीं मिल सकता। दिनकर ने तटस्थता को कोई मूल्य नहीं माना है। वे तटस्थता के बहेलिए हैं। उन्होंने लिखा हैः-

‘‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,

जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’’

दिनकर जी ने स्वयं ‘‘रश्मिरथि’’ मे लिखा हैः ‘‘बाधाएं कब रोक सकी हैं, आगे बढ़ वालों को, विपदाएं कब मार सकी हैं, मरकर जीने वालों को।

दिनकर जी की लेखनी गहन भावनाओं की प्रवाहमान धारा है। उसमें अगर उल्लास मौजूद है, तो यथार्थबोध की पीड़ा भी है। अगर हर्ष का प्रकाश है, तो विषाद का धुंॅधलका भी है। दृढ़ निश्चय का स्वच्छ आकाश है, तो द्वन्द का कुहासा भी। गर्जन है, तो वेदना की लकीरें भी। व्यवस्था के प्रति क्षोभ है, तो एक बेहतर विश्व की आशा भी। सौभाग्य की मंजूषा है, तो अपनों के कष्टों का दुर्भाग्य भी, मुसीबतों का अंबार भी, क्षुब्धता का पारावार भी और मौन का हाहाकार भी। शायद इसीलिए बहुरंगी विचारों के धनी दिनकर के बगीचे में सभी रंगों के फूल खिलते हैं। उनके व्यक्तित्व का व्यापक धरातल और मस्तिष्क की उर्वर खाद ही वह आधार है, जहां से ये फूल खुश्बू और रंगत बटोरकर दुनिया को खूबसूरत बनाते हैं। उसमें ताजगी भरते हैं।

यह दिनकर हैं जिन्हें हालात ने वेदनाओं से नहलाया है, आंसुओं से धोया है और कांटों से पिरोया हैः-‘‘जलन हूं, दर्द हूं, दिल की कसक हूं, किसी का हाय खोया प्यार हूं मैं।’’ दिनकर की रचनाओं में संवेदनाओं के दर्शन बड़ी आसानी से किए जा सकते हैं:-‘प्राणभंग’ से लेकर ‘हारे को हरिनाम’ तक। उनमें वेदना की अनुभूति कर पाने की सामर्थ्य है। शायद इसीलिए उनका हृदृय व्योम सा है क्योंकि वे जानते हैं:-‘‘हृद्य छोटा हो, तो शोक वहां नहीं समायेगा। और दर्द दस्तक दिए बिना लौट जायेगा।’’

हृद्य की यह विशालता उन्हें राष्ट्रकवि ही नहीं, महान गद्यकार, चिंतक, संस्कृति-विद्वान और सबसे बढ़कर एक उम्दा इंसान बनाती है। ऐसा इंसान जिसे आमजन-जीवन की चिंता है, देश समाज, संस्कृति और विश्व की चिंता है। युद्ध जैसी वैश्विक समस्या को लेकर लिखी गई उनकी कृति ‘‘कुरूक्षेत्र’’ क्या यह साबित नहीं करती कि युद्ध में चाहे जो पक्ष जीते, हार तो मानवता को ही झेलनी पड़ती है ? मानवता की रक्षा के लिए लेखनी उठाना क्या एक महान रचनात्मक कर्म नहीं ? मानवता को हार से बचाने के लिए जब दिनकर अतीत की खिड़कियां खोलकर बाहर झाकते हैं और परदों की धूल झाड़ते हैं यह क्या ! वहां भी वही बेबसी। विनाश। चित्कार। धधकता अंबर। दूर तक चीखता सन्नाटाः-‘‘ वह कौन रोता है वहां, इतिहास के अध्याय पर !’’

सत्ता-केन्द्र हमेशा जगमगाता है और जितना जगमगाता है उतना ही चकाचौंध का अंधेरा जन-मन में भरता जाता है, सत्ता-केन्द्र का वस्तु जगत हमारे भाव को अजब तरह से घूरने लगता है। हम इतिहास -केन्द्रों, पर पहुंचकर भी इतिहास पढ़ना भूल जाते हैं और यथार्थ पढ़ते हैं::-

‘‘तामस बढ़ता यदि गया धकेल प्रभा को, निर्बंध पंथ यदि नहीं मिला प्रतिभा को,

रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा, अपने घर में ही फिर स्वदेश हरेगा।’’

एक लंबी काव्य यात्रा के बाद भी दिनकर को लगा कि जिंदगी की किताब तों खाली की खाली रह गई। शुक्र सिर्फ इतना कि एक सपाट, इकहरी और इकलौती जिंदगी उन्होंने नहीं जीः- ‘‘ शुक्र है कि इसी जीवन में /मैं अनेक बार जन्मा/और अनेक बार मरा हूं/।’’ जाहिर है कि दिनकर अंत तक कवि रहे नित्य नूतन चाहे उन्हें इसके लिए नए-नए जन्म ही क्यों न लेने पड़े हों।

कुलमिलाकर कहा जा सकता है कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अंतरराष्ट्रीय और सबसे बढ़कर मानवीय भावनाओं एवं कृत्यों से ओत-प्रोत गद्य और पद्य लिखकर न केवल साहित्य को समृद्ध बनाया बल्कि अपने साहित्य के माध्यम से मानवता के प्रति मानव के कर्तव्य को भी चित्रित किया। परिणाम स्वरूप दिनकर ने छायावादोत्तर युग के साहित्येतिहास में एक गौरवपूर्व अध्याय जोड़ दिया। जब छायावादी कवि अलौकिक जगत् में विचरण कर रहे थे तो दिनकर लौकिक जगत की सच्चइयों से सराबोर साहित्य के सृजन में जुटे थे।

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प्रस्तुतकर्ताः-डॉ.रामायणप्रसाद टण्डन

(एम. ए. एम. फिल पी-एच.डी.)

प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष (हिन्दी)

शासकीय स्नातकोत्तर इ.के.कन्या महाविद्यालय कांकेर

जिला-उत्तर बस्तर,कांके (छत्तीसगढ़)

email-ramayantandon9@gmail.com

संदर्भ ग्रंथ सूचीः-1.रश्मिरथिः रामधारी सिंह दिनकर 2. कुरूक्षेत्रः दिनकर 3.दिनकर की डायरीः दिनकर

4.उर्वशीः दिनकर 5.दिल्लीः दिनकर 6. आधुनिक बोधः दिनकर।

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रचनाकार: ‘‘रामधारी सिंह दिनकर के साहित्य में राष्ट्रीय, प्रगतिवादी एवं मानवीय चेतना’’ - डॉ.रामायणप्रसाद टण्डन
‘‘रामधारी सिंह दिनकर के साहित्य में राष्ट्रीय, प्रगतिवादी एवं मानवीय चेतना’’ - डॉ.रामायणप्रसाद टण्डन
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