कैदी नं.360 - रामानुज अनुज

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कैदी नं.360 ......................................... उसे कोई कवि नहीँ मान सकता हैं, वह निरक्षर था। जिसने कभी स्कूल का मुँह न देखा हो। वह भल...

कैदी नं.360

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उसे कोई कवि नहीँ मान सकता हैं, वह निरक्षर था। जिसने कभी स्कूल का मुँह न देखा हो। वह भला कैसा कवि? कैसा कविराज? इस पद के लिए कहते हैं बहुत पढ़ना होता है, बहुत लिखना होता है, तभी कोई कवि हो सकता है। कविराज तो फिर भी नहीं।

उसका नाम कविराज कैसे पड़ा?  कब पड़ा?? यह ठीक-ठीक बता पाना सम्भव नहीं है। कविराज जैसा तो नहीं फिर भी आज के दुमछल्ले कवियों से बेहतर तुकबंदी वह ऐसे भिड़ाता था कि आज के मूर्तिवान कविता/शायरी के जानकार दांतों तले उँगली दबा लें। रामायण की बहुत सी चौपाइयां और दोहे उसे कंठस्थ थे। काम करते हुये या फुर्सत के पलों में साथियों की फरमाइश पर वह फिल्मी गानों की चंद लाइनें भी अपने तरीके से गाकर सुना देता था। कुदरत ने उसे बेतरीन गला भी दिया था।

बात पुरानी, लेकिन काबिले-जिक्र है। वह इस गांव में काम/मजदूरी की तलाश में आया हुआ था। तब उसका कोई नाम नहीँ था, कोई पहचान नहीँ थी, सुपरवाइजर ने उसकी तुकबंद कविताओं के मद्देनजर हाज़िरी रजिस्टर में उसका नाम कविराज दर्ज कर लिया था। यहाँ नहर खुदाई का दीर्घकालिक काम चल रहा था, दिहाड़ी भले कम मिलती रही हो, लेकिन नियमित काम की गारंटी थी। इसी काम के दौरान उसकी कम्मो नाम की एक मजदूर लड़की से मुहब्बत हो गयी। वह कविराज की तुकबंदियों की दीवानी थी, वह काम के समय में अक्सर कविराज के आगे-पीछे होती रहती थी। काम के दरमियाँ यदाकदा वज़्न उठाते-धरते एक दूसरे को धक्के मार देना, हाथों का आपस में छू जाना, हँसी मजाक कर लेना, श्रमिकों के बीच आम बात होती है। लेकिन जब यही क्रियाएं जानबूझकर या खास इरादे से की जाएं तब ख़ास हो जाती हैं। कहते हैं जिस तरह से सूरज की मौजूदगी को बदलियां नकार नहीँ सकती हैं, उसी तरह से इश्क की रंगत को जिस्म नहीँ छुपा सकता है। प्यासे लबों की रंगत बदल जाती है, नयन कटारी हो जाते हैं, चितवन श्रृंगार रस की कविताएं गढ़ती है। मुहब्बत का रंग एक ही होता है, चाहे वह राजा का हो या रंक का। रहीम जी की नज़र बहुत पैनी रही होगी, तभी तो वे ऐसा कह गये...

"खैर, खून, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद पान।

रहिमन दाबे न दबें, जानत सकल जहान।।"

एक गहराई शाम की बेला में दोनों को इश्क फरमाते हुये साथी मजदूरों ने रँगे-हाथ पकड़ लिया था। दोनो की रुसवाई के इरादे लेकर ठेकेदार से अगले दिन मजदूरों ने सारी बात बता दिए। उस समय खुली जगह में मुहब्बत का इजहार करना ग्रामीण परिवेश में बहुत गलत माना जाता था। यहाँ तक की छोटे से घर में परिवार के लोगों के सामने अपनी पत्नी की तरफ देखना या बात करना शर्म की बात होती थी। अंधियारा ही मददगार होता था, आपसी मूक मिलन के लिए। बहुत से तो सन्तान हो जाने के बाद तक पत्नी को भर-नजर नहीँ देख पाते थे।

ठेकेदार सुलझा हुआ भला मानुष था। अल्लाह के नेक बंदे हर जगह मौजूद होते हैं। उसने पूरी कैफ़ियत शिद्दत के साथ सुनी-समझी और देवी मन्दिर में ले जाकर दोनो की शादी करा दी।अलग से झुग्गी भी रहने को दे दी। दोनो साथ-साथ पति-पत्नी होकर रहने लगे, उनके दिन जवां और रातें हसीन हो गयीं थी। सबसे पहले उन्हीं की झुग्गी में अंधेरा आता था।

कसे बदन की स्यामला कम्मो पर कुदरत की मेहरबानियाँ थी।उसकी सुंदरता पर अनेक लोगों की कच्ची नजर थी, साथी मजदूर तो उसकी चाल देखकर ही खुश हो लेते थे। जब वह सिर पर बोरी भर के मुरमी मिट्टी लेकर ऊँचाई चढ़ती थी तब लगता था की कोई खूबसूरत औरत की नक्श में उतारी हुई मोटर गाड़ी कलाबाजियों का फन दिखाती हुई पहाड़ी चढ़ रही है। बेगैरत इंसान सुपरवाइजर को इसी पल का इंतज़ार होता था। जब वह नहर की तलहटी से भार लेकर ऊपरी सतह में आती फिर नीचे उतरती। वह उसके उन्नत उभारों की गति को टकटकी बांधे देखा करता था, लेकिन बदजुबानी या बदसुलूकी करने की हिम्मत उसमें क्या? किसी मे भी नहीँ थी। हर कामगार तक ठेकेदार के रुतबे की दहशत जो थी। वह किसी की बदनीयती या काम पर कोताही की खबर मिलने पर खुद तहकीकात कर हकीकत से रूबरू हुआ करता था। गुनहगार को काम से निकालने के साथ पिटाई भी कर देता था। वह रोज शाम को साइट देखने आता था।

मालिक भला हो तो सब भला, ज्यादातर मजदूर उससे खुश भी रहते थे, जरूरत पड़ने पर रात में भी वे काम करने को तैयार रहते थे। एक दिन बड़ा मालिक खुद मोटर से उतरकर काम का मुआयना किया, उसने ठेकेदार को आगाह किया कि बरसात से पहले किसी भी सूरत में खुदाई पूरी करनी होगी। ठेकेदार ने मजदूरों से मश्विरा लेकर चाँदनी रात में डबल पेमेंट पर काम चालू करा दिया। उचित वातावरण बनते ही सुपरवाइजर की बदनीयती जोर देने लगी। मौका भी पाप के अनुरूप बन गया था। उस दिन नाशाद तबीयत की बजह से कम्मो काम में नही आयी थी। झुग्गी में वह अकेली थी। मौका ताड़कर सुपरवाइजर दो बदजात मजदूरों की मदद से उसके साथ जबरिया जिस्मानी सम्बंध बनाने में कामयाब हो गया। कामान्ध में न डर होता है, न हया होती है। यह सच साबित हो चुका था। जुवां-जुवां से होती हुई बात जंगल की आग की तरह फैल चुकी थी। कविराज दौड़कर झुग्गी तक गया था, रो-रोकर कम्मो ने सारी कैफ़ियत उसे बता दी। वह गुस्से से पागल हो उठा और हाथ मे कुदाल उठाये सुपरवाइजर के पास आकर बगैर कुछ बोले कुदाल का जबरदस्त प्रहार उसके सर में कर दिया। सुपरवाइजर जमीन में गिर गया, थोड़ी देर हाथ-पैर पटकने के बाद शांत हो गया।

कविराज को हत्या के जुर्म में हवालात हो गयी थी। यद्यपि ठेकेदार ने अच्छी पैरवी कराई , कोई चश्दीद गवाह भी नहीँ गुजरा लेकिन कविराज के इकबालिया जुर्म कुबूल लेने की बजह से अदालत ने उसे सात साल के लिए हवालात की सजा सुना दी। वह कविराज से कैदी नम्बर 360 हो गया। वहाँ पर वह अधिकांश समय में गुमसुम रहता, बहुत जरूरी होने पर या किसी के कुछ पूछने पर ही वह बोलता था। एक संतरी जो उसकी आदत को नोट कर रहा था, एक दिन नजदीक आकर उससे बोला...

"कैदी! गुजरे पलों को सहेज कर चलने से वर्तमान बोझ बन जाता है। तुम भी हंसों मुस्कुराओ, ठहाके लगाओ, जिंदगी आसान हो जाएगी।"

उसने कुछ जबाब नहीँ दिया, अलबत्ता मुस्कुराने की जरूर कोशिश की थी। लब अगर जरा और साथ देते तो कोशिश मुकम्मल हो सकती थी।

"देखो! हवालात का तुम्हारा यह तीसरा साल है और मेरा भी। तुम क्या समझते हो, के सिर्फ तुम्हीं भर हवालात में हो? यह तुम्हारी गलतफहमी है दोस्त!! इस दुनिया मे हर सख्स हवालाती है, आज़ादी नहीं है किसी के पास। यह बहुत बड़ी साजिश है। अन्य के बनाये वसूलों में जीने की मजबूरी को क्या नाम दोगे? हम सब वैचारिक गुलामी के सज़ायाफ्ता हवालाती हैं, दोस्त! इसलिए जब बोलो तो अपनी बात बोलो, अपने दिल की बात बोलो। फ़लाने ने कब क्या कहा था? अब बीते समय की बातें हुयी। मेरी सलाह मानो तो खुद की सेहत के लिए खुलकर हंसो, ठहाके मार कर हंसो, अपनी दुखती रगों में लात मार कर हँसो।"

कविराज बिना जबाब दिए मुड़कर परे चल पड़ा था, लेकिन दोबारा उसी संतरी की आवाज सुनकर वह रुक गया और नीची नजर किये हुए अत्यंत मरी हुई आवाज में बोला..."मैं मर चुका हूँ साहिब! मुझे जिंदा करने की कोशिश बेकार होगी।"

"झूठ मत बोलो कैदी, तुम अभी जिंदा हो, तुम बोलते हो, चलते हो, सोते हो, यह जिंदा होने के सुबूत हैं। संतरी बहुत नजदीक आ गया था, उसके कंधे में हाथ रखता हुआ वह पुनः बोला..."कैदी! तुम्हारे नेक चाल-चलन से बड़े साहब बहुत खुश हैं, तुम्हारी रिपोर्टिंग ऊपर कर दिए हैं। तुमने इतने कम समय में जैसी दर्जीगिरी सीखी है, वह मिसाल है। मुझे पूरी उम्मीद है, इस बार के गणतंत्र दिवस पर तुम्हारी रिहाई के हुक्म ऊपर से मिल जायेंगे।"

"साहिब! बड़े साहिब से कहकर मेरी रिहाई रुकवा दो न।"

"क्यों?? अजीब आदमी हो। संतरी भुनभुनाया।

"दीवारों से घिरी यह छोटी सी दुनिया मुझे अच्छी लग रही है। कम-से-कम इसकी सीमा देख सकता हूँ, वह दुनिया बहुत बड़ी है, मुझ जैसे छोटे लोगों के लिए वहाँ जीना बहुत मुश्किल है। वह दुनिया मुझ जैसे गरीब को न जीने देती है, न मरने देती है।"

"खुलकर बताओ मुझसे, शायद हम तुम्हारे किसी काम आ सकें।"

संतरी के अपनत्व भरे दो मीठे बोल सुनकर छाती में जमकर चट्टान हुआ दुख अपनत्व की हरारत पाकर पिघल गया, कविराज की आँखे सावनी दरिया के मानिंद उफन गयीं। "साहिब! कम्मो, से मुलाकात अब इस जनम में नहीं होगी।" स्वयं को संयत करता हुआ वह बोला।

"ऐसा क्यों सोचते हो?"

"वो औरत थी, नापाक जिस्म का बोझ ढोने की उसमें हिम्मत नहीं थी।"

"इसमें उसका कुसूर तो नहीं?"

"पता नहीं साहेब!  स्त्री की जवानी उसकी शत्रु होती है, यह मुझे बहुत देर से पता चला।"

"तुम्हारी मुलाकात कम्मो से जरूर होगी। देखना...रिहाई के दिन वह तुम्हारे इस्तकबाल में बाहर खड़ी मिलेगी।"

संतरी उसे तसल्ली देकर चला गया, कविराज पुनः चुपचाप काम मे लग गया था। दिन-रात होते गए, कलेंडर की तारीखें बदलती गयीं, जल्द ही दिसम्बर का अंत भी आ गया। आज पुराने साल को अलबिदा और नये साल के स्वागत में जेल में जलसा कराया गया था। कविराज को आज गाना था, यह जेलर साहब का हुक्म था। आज से तीन साल पहले जो कवितायें, चौपाइयां और गाने जो उसे याद थे विस्मृत हो गये थे। ठिठुरन भरी रात्रि के ठीक ग्यारह बजे कविराज के गाने की बारी आयी, इसके पहले कैदियों में से कोई चुटकुला, कोई लोकगीत, कोई डांस दिखाकर मनोरंजन कर चुके थे। एक कैदी हारमोनियम से सरगम निकालने लगा, दूसरा तबले में थाप लगाकर सुरों के संगत योग्य उसे तैयार करने लगा, किसी ने बांसुरी लबों से लगा ली, किसी ने हाथ मे मंजीरा। सुरों की आमद जानकर, कविराज के भीतर सोया हुआ गायक जाग गया। उसने ऊँची तान भरी. गले में कम्पन देता हुआ सुरों को नीचे उतार लाया..."ओ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे मेरे नाले...के मद्दम बोल को सुर में पिरोता हुआ, वह क्रमशः आगे को बढ़ा, आलाप, आरोह, दृत, झाला, यति-गति कोमल-निशाद से गुजरता हुआ कविराज जब यह लाइन गाया..."जीवन अपना वापस ले ले, जीवन देने वाले।" सभी मौजूद कैदी, सिपाही, स्वयं जेलर साहब की आंखे भर आयी। ऐसी पीड़ा का संगीतमय निर्झर-निनाद पहले कभी जेल में नहीँ सुना गया था।

कविराज की रिहायी का हुक्म जेल में आ चुका था। गणतंत्र दिवस की सुबह सोलह अन्य कैदियों को भी रिहाई मिली थी। जेलर साहब सबको छोड़ने बाहर तक आये थे। घरों से परिजन कैदियों को लेने को आये हुए थे। सबकी मौजूदगी से भीड़ हो गयी थी।

इधर-उधर ताकता-झाँकता कविराज बाहर निकला। एक नवीन दुनिया कविराज के स्वागत में बाहर खड़ी हुई थी। कम्मो बाहर खड़ी जेल के मेन गेट को एक-टक ताक रही थी, शायद वह उसे जेल से बाहर निकलते हुये नहीं देख पायी थी। वह ठेकेदार भी पत्नी और बच्चों के साथ मोटर-गाड़ी लेकर आया हुआ था, जिसने दोनों की शादी कराई थी।

"मुबारक हो कविराज, जिंदगी की नवीन शुरुआत के लिए।"

ये जेलर साहब के शब्द थे जो खुशियों की चहचहाहट से मिलकर संगीतमय ध्वनित हुये थे।

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रामानुज अनुज

रीवा मध्यप्रदेश

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रचनाकार: कैदी नं.360 - रामानुज अनुज
कैदी नं.360 - रामानुज अनुज
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