नीरजा हेमेन्द्र स्थान- पडरौना, कुशीनगर ( उ0 प्र0 ) शिक्षा- एम.ए.( हिन्दी साहित्य ), बी.एड.। संप्रति- शिक्षिका ( लखनऊ उ0 प्र0 ) अभिरूचियां-पठ...
नीरजा हेमेन्द्र
स्थान- पडरौना, कुशीनगर ( उ0 प्र0 )
शिक्षा- एम.ए.( हिन्दी साहित्य ), बी.एड.।
संप्रति- शिक्षिका ( लखनऊ उ0 प्र0 )
अभिरूचियां-पठन-पाठन, लेखन, अभिनय, रंगमंच, पेन्टिंग, एवं सामाजिक गतिविधियों में रूचि।
प्रकाशन-
कहानी संग्रह-
1- ' अमलतास के फूल '
2- ' जी हाँ, मैं लेखिका हूँ '
3- ' पत्तों पर ठहरी ओस की बूँदें ( प्रेम कहानियाँ )।
4-'....और एक दिन '।
5- माटी में उगते शब्द ( ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ )
उपन्यास-
1- ' अपने-अपने इन्द्रधनुष '।
2- ' उन्हीं रास्तों पर गुज़ते हुए '।
कविता संग्रह -
1- ' मेघ, मानसून और मन '
2- ' ढूँढ कर लाओ ज़िन्दगी '
3- ' बारिश और भूमि ' ।
4- 'स्वप्न '
सम्मान -- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार तथा शिंगलू स्मृति सम्मान। फणीश्वरनाथ रेणु स्मृति सम्मान। कमलेश्वर कथा सम्मान। लोकमत पुरस्कार।
हिन्दी की अति प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं कथांिबंब, वार्गथ, इन्द्रप्रस्थ भारती, जनसत्ता, पाखी, कथा समय, युद्धरत आम आदमी, अक्सर, मुक्ताचंल, अभिनव इमरोज, अमर उजाला, कादम्बिनी, आजकल, छत्तीसगढ़ मित्र, सोच विचार, किस्सा कोताह, नेशनल दुनिया, अक्षर-पर्व, किस्सा, दोआबा, हस्तक्षेप, बारोह, पुष्पगंधा, जनपथ,
नव निकष, माटी, सृजनलोक, प्राची, उत्तर प्रदेश, हरिगंधा, हाशिये की आवाज़, लहक, हमारा भारत, जनहित इण्डिया, समकालीन अभिव्यक्ति, अंग चम्पा, पुरवाई, अपरिहार्य, सुसंभाव्य, राष्ट्रीय सहारा, रचना उत्सव, आकंठ, उजाला, सृजन सरिता, जनसंदेश टाइम्स लखनऊ, डेली न्यूज ऐक्टिविस्ट लखनऊ, साहित्य दर्पण, बाल वाणी, अपरिहार्य, ककसाड़, शब्द सरिता, प्रगति, रेल रश्मि, इत्यादि में कवितायें, कहानियाँ, बाल सुलभ रचनायें एवं सम सामयिक विषयों पर लेख प्रकाशित। रचनायें आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी प्रसारित।
न्यू हैदराबाद, लखनऊ -07
उत्तर प्रदेश
'' तुम''
तुम्हारी स्मृतियाँ
इन स्याह रातों के
अन्धकार को तोड़ती
आसमान में दीप्त
सुनहरे तारे -सी
तपती भूमि पर
बारिश की प्रथम फुहार-सी
साँझ के आसमानी क्षितिज से
तुम्हारी स्मृतियाँ उतर आती हैं
इन्द्रधनुष-सी
जीवन में मोड़-दर-मोड़
तुम मिलते रहे
प्रेम निवेदन से भरे
तुम्हारे नेत्र
मुझे कराते अधूरेपन का एहसास
तुम विलीन हो जाते
पत्तों पर ठहरी हवाओं में
टेसू के फूलों में
समन्दर में बनतीं लहरों में
मैं तुम्हें पा लेती
सर्वत्र........। नीरजा हेमेन्द्र
''कदाचित्''
आओगे तुम
एक दिन/ मैं जानती हूँ
चलेंगी आँधियाँ
बरसेगी आग चहुँ ओर
तुम आओगे/ पूर्व की भाँति
तुम्हारे नेत्रों से निकलने वाले
प्रकाश पुँज से
पिघलेगी बर्फ
जो सर्द कठोर हो कर
ऊँचे पहाड़ों पर
सदियों से जमीं है
श्वेत, रंग-हीन
निर्जीव, संवेदना-शून्य-सी
जहाँ नही जातीं मानवीय भावनायें
कठोर, सफेद चादर हटेगी एक दिन
कल-कल करती नदी के जल-सा
निर्मल/ तुम्हारा अक्स
शिशु की भाँति कोमल/तुम्हारे हाथ
तोड़ेंगे पहाड़ों पर जमीं बर्फ
आओगे तुम एक दिन
मैं जानती हूँ।
नीरजा हेमेन्द्र
''स्थिति-बोध''
फागुन माह प्ररम्भ होते ही
दादी कहती थी-ओ बेटवा, खेत में चला जा
सीजन आवे का है
फसल कटाई का
मुझे नही भाते थे दूर-दूर तक विस्तृत
हरे-भरे खेत, खलिहानों पर खड़े बैल और बैलगाड़ियाँ
मैं भाग जाता था हरी पगड़ड़ियों पर
देखता था माँ को जो
कच्चे-पक्के बड़े से घर के दालान को
जो घर से भी बड़ा था
झाड़ती हुई, मुझे देखती रहती भावशून्य आँखों से
दादी की धीरे-धीरे दूर होती आवाज
माँ की शब्दहीन आँखें, मनुहार पूर्ण घूरना
मुझे याद आते हैं अब
शहर के एक कमरे के/सरकारी मकान में
शहर में सब कुछ है
सड़कें, भीड़, कोलाहल, असंख्य मकान, वाहन अकेलापन
सब कुछ
इन सबमें अन्तर्हित होता हुआ मैं
ऊर्णनाभि की भाँति।
'' मेरे शब्द''
पतझड़ के पीत- पत्र
गिरतें हैं धरा पर हृदय को बेध देता है
कंटक/ लाल गुलाबों से भरे पौधे से निकल कर।
मैं तुम्हारे समीप आतीं हूँ
जब एक कृशकाय व़़ृद्ध
करता है प्रयत्न निद्रा मग्न होने का
अन्नहीन पेट पर बाँध कर गीले अंगोछे को
मैं तुम्हारे ही समीप आती हूँ
खाली बर्तनों में ढूँढते हुए
रोटी के टुकड़े
जब एक बच्चा रोता है
मैं असहाय- सी हो कर आती हूँ
तुम्हारे अत्यन्त समीप
नारी की देह पर जब होता है
कलुषित प्रहार से
चित्कार उठती है उसकी पवित्र आत्मा
हृदय तुम्हे छूने लगता है
संवेदनायें करतीं हैं तुम्हारा स्पर्श
ओ मेरे शब्द !
तुम बन जाते हो मेरा प्रेम, मेरी पीड़ा
तुम उतर आते हो मेरी मेरी कविताओं में, मेरे गीतों में
तुम्हारे अत्यन्त समीप आ जाती हूँ मैं
ओ मेरे शब्द !
तुम एकाकार हो जाते हो मुझमें
बहने लगते हो
लहू बन कर हो मेरी रगों में।
नीरजा हेमेन्द्र
''हवायें करती हैं बातें''
हवायें करती हैं बातें
शीत की, तपिश की
उन आँधियों की
जिनसे होते हैं धूल धूसरित
कुछेक तिनकों से बने मकां
हवायें करतीं हैं बातें
वृक्षों से, पत्तों से/ ग्रामीण बाला की
जिसका हरा आँचल
उड़ता है सरसों के खेतों में
जो दौड़ती है अबाध पगडंडियों पर
वसंत ऋतु में
हवायें करतीं हैं बातें
रंगीन पंखों वाली फ़ाख्ता से
पतझड़ में गिरते सूखे पत्तों की
छत पर एकान्त में बैठी गौरैया की
हवायें करतीं हैं बातें
नदियों से / बनती-टूटती लहरों की
सुनहरी मछलियों की, रेतीले तट की
मछुआरे के जाल की।
'' अपरिहार्य''
शहर-दर- शहर
भटकता इन्सान
कर ही लेता है
दो जून की रोटी का जुगाड़
कर लेता है एक छत का इन्तज़ाम
सड़क-दर सड़क
शहर-दर-शहर
भागते-भागते/ वह छुप जाता है
उस छत के नीचे
खा कर दो निवाले रोटी के
दूसरे दिन वह अपनी
संवेदनायें/या कि
मानवीय भावनायें
उस छत के नीचे छुपा कर
निकल पड़ता है
सड़क-दर सड़क
वह नहीं देखना चाहता
पुल के नाचे बैठी
जर्जर, कंकाल शरीर
धूसर, मिट्टी जैसी/निस्तेज
नेत्रों वाली व़ृद्धा को
वह नहीं देखना चाहता
सड़क के किनारे पड़े
मृत, लावारिस मानव शरीर को
भीड़ से निर्मित शहर में
अस्तित्वहीन
उसका शहर-दर-शहर
सड़क-दर-सड़क
भटकना/ अपरिहार्य है।
''नदी की यात्रा''
कोहरे को चीर कर
दृष्टिगत् होते
उबड़-खाबड़/पथरीले
ये चिर परिचित पथ
स्नेह-रिक्त पाषाण/निष्ठुर
रौंदती है
सरस्वती, अब सुरसतिया नहीं रही
लहराती पताकाओं, बैनरों के
छद्म शब्द
शब्दों के अर्थ, बुने जाल
वह भाँप लेती है
सिहरती है, लरजती है
दृढ़ निश्चय
मार्ग से न डिगने का
सरस्वती होती सुरसतिया
पहाड़ी नदी-सी
मार्ग में आये पत्थरों को
लुढ़काती बहाती
नये मार्ग का सृजन
निरन्तरता.......अबाध........
ये यात्रा है पहाड़ी नदी की
अन्तहीन
ध्वनि कल......कल.......कल........।
'' उस गाँव में ''
बारिश की रिमझिम
चारों तरफ फैली हरियाली
सृष्टि का अद्भुत, नैसर्गिक सौंदर्य
वह छोटा-सा गाँव
गाँव के मध्य लहराता पीपल का पेड़
छोटा-सा मन्दिर
पोखर में उड़ते दूधिया बगुले
स्वतः खिल उठीं
असंख्य जल कुंभियाँ
बावजूद इसके
ग्रामीण स्त्रियों की पीड़ायें
अदृश्य हैं
उनका घर वाला
शहर गया है
मजूरी करने
आएगा महीनों बाद
किसी पर्व पर
लायेगा कुछ पैसे
कुछ खुशियाँ/कुछ रोटियाँ
जायेगा पुनः मजूरी करने
ऋतुएँ आयेंगी-जाएँगी
शहर से लोग आयेंगे
गाँव के प्राकृतिक सौन्दर्य का,
ऋतुओं का आनन्द लेने
गाँव की नारी
बारिश में स्वतः उग आयी
मखमली हरी घास
गर्मियों में खिल उठे
पलाश, अमलतास/पोखर ,जलकुंभियाँ
आम के बौर/कोयल की कूक
इन सबसे अनभिज्ञ
प्रतीक्षा करेगी
किसी पर्व के आने का।
नीरजा हेमेन्द्र
''कविता और गुलाबी साँझ''
तुम कहते हो, मैं
अपनी कविताओं में दुःख, चिन्ता,
बेरोजगारी, विद्रोह,अविश्वास़ को
उतारती हूँ
तुमने मेरी कविताओं में
एक खुशनुमा मौसम की
तलाश की, वो
तुम्हें
नहीं मिला
तुमने मेरी कविताओं में
उस साँझ को ढूँढने का प्रयत्न किया
जो अपने अन्तिम क्षणों में
असंख्य किरणों से क्षितिज को
गुलाबी कर देती है,
तुम असफल रहे
तुमने मेरी कविताओं में
चाँद, हवा, झील, चिड़ियाँ
तलाशने की कोशिश की
तुम्हें ये सब भी नहीं मिला
इस तंग, अँधेरी दुनिया में
जहाँ मैं रहती हूँ
वहाँ कुछ भी नहीं है
जो नहीं है
वो मैं कहाँ से लाऊँ!
कहाँ से लाऊँ?
नीरजा हेमेन्द्र
''रूपहली शाम''
सुबह फिर धूप निकलेगी
गुलमोहर के फूल फिर वहाँ
खिल जायेंगे
जहाँ, मैं और तुम मिलेंगे
पंक्षी शाम को लौटेंगे
नीड़ में
तुम भी आ जाओगे
मुझे अपने आगोश में
छुपा लेने के लिये
लेकिन तुम नहीं जानते
मैं सुबह की रोशनी से
कितनी भयभीत रहने लगी हूँ
हर सवेरा मुझे
कमजोर बना देता है
मेरे अन्दर
अविश्वास भर जाता है
ये अविश्वास मेरे प्रति है
या तुम्हारे
ये मैं नहीं जानती
मैं सुबह होने के साथ
शाम की प्रतीक्षा करने लगती हूँ
जब तुम एक रूपहली शाम को
लौटोगे।
''साँझ के साए और वह''
दिन-रात, वर्ष-माह
युग व्यतीत हुए
उपले, कंडे, गाय-बछड़े
खेत, बैल, बीज
आज भी वह कर रही है
पूर्ववत् सब कुछ
प्रातः से सायं
वह खटती है
माथे पर छलक आये श्वेद कणों को
आँचल से थपथपा कर
पोंछती ह
करती है दुला
अपनी थकान से
परिश्रम से
घास व जंगली पौधों से
ओस की बूँदो से
मिट्टी की सोंधी महक से
भूख से अभावों से
बाद बारिश के स्वतः उग आयी
असंख्य पुष्पित बिरवों से
वृक्षों को ढँकती लताओं से
वह रहना चाहती है तृप्त-संतृप्त
वृक्षों को अंक में भरती लताओं-सी
साँझ उतरती है धीरे......... धीरे........धीरे......
वृक्षों से चलती हुई
खपरैल से उतर कर
खेतों में पसर जाती है
वह विस्फारित नेत्रों से देखती है
गहराती साँझ को
वह जानती है
इस ढलती बेला में
उसके हिस्से हैं
कुछ अपशब्द, कुछ चोटें
बहुत सारे टुकड़े मानवता के,
संवेदनाओं के,
नारी सुलभ सम्मान के
वह काँप जाती है
अपनी देह पर होने वाले
आदिम भूख के प्रहार की कल्पना मात्र से
उसे सब कुछ सहज स्वीकार्य है
वह अस्वीकृत करती है
अपनी अल्हड़ युवा उम्र को,
साँवली देह को,
सुरमई नेत्रों में भरी चाँदनी को
हृदय के तलघर में छुपे
नेह-बन्ध को
वह विलीन होती जा रही है
साँझ के साए में।
नीरजा हेमेन्द्र
''प्रकृति और तुम''
अब हो रही हैं /ऋतुएँ परिवर्तित
शनैः..........शनैः..........शनैः........
परिवर्तन सृष्टि का विधान है
शाश्वत् है, अटल है, अभेद्य है
प्रकृति और पुरूष भी आबद्ध हैं
प्रकृति के नियमों से
प्रकृति पुरूष की सहचरी है,
सहभागी है, अर्द्ध अस्तित्व है
करता है वह प्रकृति को
आहत्/मर्माहत्
प्रकृति नहीं करती उसका प्रतिकार
प्रतिवाद या कि विद्रोह
नदी का रूप धर
बहती चली जाती है
सागर के समीप
नैसर्गिक आकर्षण में आबद्ध
अपने हृदय में रखती है
विश्व द्वारा प्रक्षेपित कलुषताएँ
छोटी लताओं का रूप धर
वृक्षों के इर्द-गिर्द उग आती है
सहचरी -सी
वह उसकी ओर होती है
वृक्ष अपनी वृहदता पर
करता है मिथ्या अभिमान
होता है गर्वित
लताएँ वृक्ष से अपना शाश्वत् मोह
छोड़ नहीं पातीं
एक दिन वह वृक्ष को ढ़ँक लेती हैं
वृक्ष लताओं के अस्तित्व में
हो जाता है समाहित
वहाँ वृक्ष नहीं /दृष्टिगोचर होतीं हैं
सिर्फ लताएँ
प्रकृति ने अपने समर्पण से
प्रमाणित किया है कि प्रकृति
पुरूष के मिथ्या अभिमान को
तिरोहित करती थी/ तिरोहित करती है
तिरोहित करती रहेगी
वह सर्वोपरि थी/ सर्वोपरि है
सर्वोपरि रहेगी।
''नीरजा हेमेन्द्र''
''संशय''
शहर की युवती को देख कर
उठतें हैं उसके मन में प्रश्न अनेक
वह सोचती है इनका जीवन
कितना सुखमय होगा
इन्हें नहीं करना पड़ता होगा
अत्यधिक परिश्रम
नहीं पड़ती होगी
ससुराल में मार,डाँट-फटकार
वह तो स्त्री है गाँव की
जाती है खेतों में
बोती है बीज/थापती है उपले
शरद्, बारिश, वसंत में
गाती है ऋतु गीत
जल भरे खेतों में/मखमली धानों को रोपते हुए
करती है ठिठोली सखियों संग
साँझ ढ़ले आती है खेतों से घर
सोंधी मिट्टी के दालान में बैठ कर
पकाती है रोटियाँ
दुलारती है द्वार पर बँधे /गााय और बछड़े
पोंछती है आँचल के छोर से पसीना
आत्मसंतुष्टि की दो रोटियाँ खा कर
खुली छत पर सोती है पुरवाई बयार में
शहर की युवती को देखकर
उठतें है उसके मन में प्रश्न अनेक
वह अनभिज्ञ है
शहर की स्त्री की दिनचर्या से
जो घर व कार्यालय, बच्चों व बाजार
बिजली व फोन के बिल
भरती हुई आती है घर
थककर सो जाती है
न बारिश, न ऋतुएँ
नहीं करती वह कुछ भी आत्मसात्
यन्त्रवत् जीवन चक्र में कटतें हैं दिन-रात
उसने नहीं देखा होगा
साँझ ढ़ले वृक्षों में समाते
तोतों के झुंड/पक्षियों के कलरव
साँझ का विस्तृत सुनहरा क्षितिज
बाँसों के झुरमुट में टँगा/पूर्णिमा का चाँद
चाँद से बातें करती गौरैया।
शहर की स्त्री को देख
उठते हैं उसके मन में प्रश्न अनेक।
नीरजा हेमेन्द्र
'' प्रकृति और मैं''
कर के जगती को धन्य तृप्त
आनन्द, हर्ष, नवगति, नव-सृष्टि,
धुल गयी धरा, धुल गये वृक्ष
सावन भी जाने को है,
ओ प्रवासी कब आओगे?
भाने लगे विहग के कलरव
अमलतास फूलों से भर गये,
प्रकृति ने कर लिया, नव श्रृंगार अब
दिन धूप भरे जाने को हैं,
ओ प्रवासी कब आओगे?
बंजर खेत भी हुए हरे
ताल-तलैया भर गयी है,
ओस बूँद की गयी मुझसे
पावस अब आने को है,
ओ प्रवासी कब आओगे?
दिवस आ गये अब पर्वों के
रातों में जुगनू उड़ते हैं,
झर-झर गिरती रजनीगंधा
झोंके पुरवा के यूँ बहते हैं,
निशा छुप गयी है पलकों में
अब प्रातः आने को है,
ओ प्रवासी कब आओगे?
नीरजा हेमेन्द्र
''अधूरेपन का पूर्ण समर्पण''
तुम तब भी थे
जब मैं अग्रसर होती रही
अनजाने-अनचिन्हे रास्तों पर
तुम मेरे अस्तित्व में समाहित थे
श्वाँस की भाँति
मैं तुमसे मिलती रही
कभी सुखद पलों में
कभी शाम के धुँध में विलीन होते
एकान्त क्षणों में
मेरे डगमगाते पगों को
तुमने किया सबल
मेरी कल्पनाओं ने गढ़ा था
तुम्हारा रूप
तुम्हें किया था प्रेम और समर्पण से
परिपूर्ण
तुम्हें क्यों नहीं पा सकी मैं
किसी अहन्ता में
क्यों नहीं समाहित हो सके तुम
मेरी कल्पनाओं से उतर कर
कहीं भी
मेरे नेत्र आज भी तलाश रहे हैं तुम्हें
मैं पाना चाहती हूँ तुम्हें
अपने अधूरेपन के पूर्ण
समर्पण के साथ।
''खण्डहर'' 1
अट्टालिकायें
बड़ी हवेलियाँ
रहते हैं जीवन्त
खण्डहर होने से पूर्व
कदाचित्/इनमें पला होगा जीवन
विकसित हुई होंगी सभ्यताएँ
जालीदार झरोंखों से बही होगी
वासन्ती बयार
खनकी होंगी रानियों की चूड़ियाँ
फागुनी हवा में उड़ा होगा
रानियों का आँचल
कोई राजकुमार हरी पगडंडियों से
आया होगा
घोड़े पर सवार हो कर
प्रेम पुष्प अर्पित किए होंगे
राजकुमारी की नर्म
मखमली हथेलियों पर
वीरान, सुनसान वो खण्डहर खड़े हैं
समय काल ने कर दिया है
उन्हे बेरंग
टूट-टूट कर गिरती जा रही हैं
दीवारें, मीनारें,
जालीदार झरोखे, वो अट्टालिकायें
खण्डहरों पर पड़ती
सूरज की सुनहरी किरणें
उन पर उग आयी हरी परतें
मोती सदृश्य ओस की बूँदें...........
प्रकृति के नैसर्गिक सौंन्दर्य से
सुसज्जित
ये खण्डहर लगते हैं
अद्यतन जीवन्त।
'' खण्डहर ''
2
कुछ घर बने हैं
शहर के अन्दर
कुछ खण्डहर हैं
बस्तियों के बाहर
कच्चे-पक्के खपरैल,
झोपड़ियाँ/मिट्टी की दीवारें
दरकती जा रही हैं
टूटती जा रही हैं
कर रही हैं निर्माण /खण्डहरों का
खेतों में, वीरानों में
बूढ़े हो चुके ये खण्डहर
कर रहे हैं भयक्रान्त
नव निर्माण को
आने वाली पीढ़ियाँ /हैं भयभीत
स्तब्ध नेत्रों से देखती हैं
खण्डहरों पर उग आयीं/समय की परतें
नही कर पातीं वे
उन्हे स्पर्श।
खण्डहर-3
खण्डहर होते हैं जीवन्त
करते हैं बातें
उनमें होते हैं विविध रंग
उन पर उग आयी घास
जमी हुई हरी परतें
कहतीं हैं व्यथायें
उनमें होतीं हैं प्रेम कथायें
खण्डहर होते हैं सजीव
मुस्कराते हैं, सिसकते हैं
वे होते जाते हैं
काल दर काल युवा
सभ्यताओं के प्रहार से
होते रहते हैं
खण्ड-खण्ड/खण्डहर।
शहर इन्सानों का
इन्सानों के शहर में
भाग रहा है
इन्सान यन्त्रवत् -सा।
भागता ही जा रहा,
बेजान, पुतलों की तरह
हर तरफ आपा-धापी, भाग-दौड़
भावनाओं,संवेदनाओं से परे
इन्सानों से भरे
इस शहर में
ऋतुओं का होता है
आगमन-प्रस्थान,
प्रेम से परिपूर्ण
सिहरन भर देने वाली ऋतुएँ,
ओस भीगी दूब, चिड़ियों के कलरव से
गुँजित सुनहरी साँझ
स्पंदित नही करते
स्टेशन से बाहर
प्लास्टिक की पन्नियाँ व गिलास बीनता
पसीने से लथ-पथ
छोटा-सा लड़का/ हृदय को व्यथित नही करता ,
क्योंकि हम शहर के सृजनकर्ता हैं,
अर्वाचीन सभ्यता के अग्रदूत हैं।
नीरजा हेमेन्द्र
''दिव्य संसार''
रात है यह कैसी ?
सर्द अँधेरी !
हृदय में प्रवेश करती है/बर्फीली हवा
दम घुट रहा है
कोहरे भरी शुष्क रात में
कैसा है हमारा यह शहर
धनी-निर्धन की बदकिस्मत दीवारों से
बँटा हुआ
अपने दुधमुंहे बच्चे के साथ/दिन भर
रेलवे प्लेटफार्म पर भीख मांगने के उपरान्त
थक कर उँघती औरत
भूख, बीमारी और अभावों से/लथ-पथ
पुल के नीचे ठिठुरते हुए
भिखारियों को देख कर
झकझोर रहा है स्वाभिमान मुझे
सूखे पत्ते की भाँति, टूट रहा है हृदय
हृदय! जिसे असीम प्रेम है इस दुनिया से
जागेगा सूर्य /उड़ेलेगा प्रकाश, पूरी सृष्टि पर
मानव-सा सरल, हथेलियों-सा नर्म/सुन्दर
सद्भावनापूर्ण संसार
परिलक्षित होगा/ दिव्य संसार।
'' मैं हूँ ''
मुझे तुम न मानो बेटी
न दो मुझे माँ-सा सम्मान
बहन बने मुझे अर्सा हो गया
पत्नी का श्री स्थान
नहीं है विद्यमान अब कहीं भी
यह परिवर्तन प्रकृति में नहीं.......
बहन,पत्नी, बेटी या माँ में नहीं
तुममें आया है
मैं तो आज भी
उसी स्थान पर खड़ी हूँ
जहाँ सृजित किया था मैंने प्रथम बार
सृष्टि में व्याप्त ज़र्रे-ज़र्रे को
तुमने छीनी है मेरी अस्मिता
उतार लिया है शरीर से माँस-मज्जा तक
बना दिया है हड्डियों से निर्मित एक कंकाल
मैं हूँ तुम्हारी सृष्टा
तुम्हारी संरचना के बीज रोपित करती हूँ मैं
मुझे शक्तिहीन न समझो
संरचना के बीजों को कर सकती हूँ विनष्ट
समुच्य हूँ........समग्र हूँ..........
मात्र देह नही हूँ मैं।
'' हठी दिन ''
दिन छोटे बच्चे-सा
किलकारियाँ भरता दिन
आहिस्ता-आहिस्ता चलता
ठुमकता, मचलता
अपनी ओर आकृष्ट करता दिन
थक जाता
रूआँसा-दिखता
कभी सो जाता दिन
कभी सुन लेता
दौड़ाता कभी अपने पीछे
हठी शिशु-सा
हठ मनवाता दिन।
''साँझ की बस्तियों में ''
वे आयेंगे तुम्हारे समीप
मुट्ठियों में बन्द
तुम्हारी ऊष्मा के वशीभूत
तुम्हें मानेंगे अपना सर्वस्व
कर देंगे भ्रमित तुम्हें,
कठोर हो चुके तुम्हारे हृदय
पिघलेंगे......
पुनः पिघलेंगे
दोपहर के गर्म सूरज की भाँति
तुम आगे बढ़ते चले जाओगे
सम्पूर्ण ऊर्जा अपनी मुट्ठियों की
अर्पित कर दोगे उन्हें
वे देखेंगे तुम्हारी दी हुई ऊष्मा को
तुम्हें नहीं
तुम ऊष्मा विहीन हो चुके
हाथों को ले कर बढ़ोगे
अस्तांचल की तरफ
सूरज जा रहा है धीरे......धीरे.........धीरे.......
साँझ की बस्तियों की ओर।
''अब तक''
खेतों में, क्यारियों में, दीवारों, छतों पर,
सर्वत्र हो रहे हैं
नव गात पल्लवित
पुष्प बढ़ते-बढ़ते ले रहे हैं आकार
फलों के, सब्जियों के
सुगन्धित हवायें कर रही हैं
उनमें नव-संचरण
ओस की बूँदें कर रही हैं
नव श्रृंगार श्वेत मोतियों से
लतायें विस्तृत, पुष्पित होती जा रही हैं
पूरे मनोवेग से उनका पोषण, संरक्षण किया जा रहा है
बालिकायें पल रही हैं/ बढ़ रही हैं
मेड़ों पर उग आई बेतरतीब घास-सी
कुश की लम्बी पत्तियों-सी
वे डरी हैं, सहमी हैं...... धूल भरी आँधियों से
मौसम की भयावहता से
असुरक्षित-सी
वह ढूँढ रही हैं
संरक्षण, पोषण
बालिकायें बढ़ती जा रही हैं बेतरतीब.......।
नीरजा हेमेन्द्र
मेरा बसन्त
गई शीत ऋतु, खिल गई धूप
मोहक हुआ प्रकृति का रूप
खिल गई पीली सरसों,
नईं कोंपलें, नये हैं पत्ते
बौर आ गये हैं शाखों पर
चहक उठे हैं पंक्षी सारे
जो थे अब तक गुप-चुप।
खिल गई पीली सरसों।
हुई गुलाबी धूप सुबह की
ओस बन गये मोती
मन्द पवन जब चले भोर में
कोयल तब करती है कूक।
खिल गई पीली सरसों।
पुष्पित पल्वित हुई प्रकृति
सृष्टि सजी है दुल्हन-सी
देख-देख नव सृजन मनभावन
हृदय में उठती है हूक।
खिल गई पीली सरसों।
उत्साहित हैं सब नर-नारी
कर्म कर रहें कृषक
छाई है मादकता चहुँ ओर
देख बसन्त का सुन्दर रूप
खिल गई पीली सरसों।
आहट बसन्त की
ओ मेरे प्रिय!
एक दिन जब तुम आओगे
मेरे लिए वसन्त ले कर
हाँ! मेरा वसन्त लेकर
जब तुम्हारी साँसे मेरे शरीर के
पोर-पोर में
वासन्ती हवा की तरह
स्पर्श करती हुई
सिहरन भर देंगी
तुम्हारी आवाज मेरी कल्पनाओं में
असंख्य फूल खिला देगी
ओस की बूँदों की तरह
तुम्हारी छुअन
मुझे कँपकपाहटों से भर देंगी
ओ मेरे प्रियतम्! मैं........
मैं तुम्हारी झील के समान
गहरी आँखों में
जिनमें तार-तार अनछुई
चाँदनी भरी है
डूब जाऊँगी
और फिर सुनूँगी
वसन्त के आने की आहट।
नीरजा हेमेन्द्र
फागुन की हवाओं में
मेरे घर से निकलने वाली
सड़क अब
आम और महुए की गंध से
सराबोर होने लगी है
कोयल की कूक का अर्थ
अब मैं अच्छी तरह समझने लगी हूँ
नदी की लहरों में
श्वेत बगुले
अपनी परछाँइयों को देखते हुए
उड़ जातें हैं
फागुन की हवाओं में
रंगों के साथ तुम्हारी
स्मृतियाँ भी
घुलने लगी हैं।
नीरजा हेमेन्द्र
'' खिल गई है चम्पा ''
परबतों से आती है, मलय समीर,
चंचल मन मौसम संग उड़-उड़ जाता है।
खिल उठें ह्नदय में, पुष्प फिर चम्पा के,
अल्हड़-से दिन पुनः लौट-लौट आते हैं।
बारिश की रिमझिम में, चम्पा महकती है,
व्याकुल ह्नदय तुम्हे समीप फिर पाता है।
ऋतुएँ तो आती और जाती हैं, कदाचित्
ह्नदय में स्मृतियाँ ठहर-सी जातीं हैं।
चम्पा के पुष्पों की गन्ध-सी देह म,ें
उन्मुक्त मन देह संग सिहर-सिहर जाता है।
चम्पा खिलेगी और आओगे तुम भी,
धीरे से कानों में कोई कह जाता है।
वृक्षों पर हैं बौर हैं, पक्षियों के कलरव हैं,
खिल गई है चम्पा तुम कब आओगे।
'' चम्पा-सी देह ''
उस पथ पर मैं
पुनः/ चलने लगी ह़़ूँ ......
उन स्मृतियों में मैं
पुनः/विलीन होने लगी हूँ........
जहाँ तुम थे, मैं थी और थे
कुछ पुष्प चम्पा के
मुझे ज्ञात नहीं/ये पथ
तुम तक जाएगा या कि नहीं
किन्तु मैं चलती जा रही हूँ
कदाचित्/ तुम
मुझे मिल जाओ
पथ के अन्तिम छोर पर
मेरे साथ हैं कुछ धुँधले
युवा-से दिन
कुछ स्वच्छ स्मृतियाँ
देह में सिहरन भरती पवन
कुछ पुष्प चम्पा के
जो तुमने मेरी हथेली पर रख कर
मुट्ठी बन्द कर दिया था
वो अब भी बन्द हैं
मेरी मुट्ठी में
पुष्पित/ सुगन्ध से भरे
संध्या काल के निर्जन सन्नाटे में
जब चलेंगी सिहरन भर देने वाली
सर्द हवायें
आसमान से धीरे-धीरे
उतरेगा गहन अँधेरा
तब मैं खोलूँगी अपनी बन्द मुट्ठी
चम्पा के श्वेत पुष्पों से निकलते
प्रकाश पुन्ज में
तलाश लूंगी अपना पथ
फैल जाएगी
चम्पा की गन्ध चहुँ ओर
तुम्हारी उजली स्मृतियाँ.......
नीरजा हेमेन्द्र
वह मजदूर
दूर-दूर तक फैले हुए
गन्ने के खेत
आसमान का वितान
झाँकता हुआ पीतवर्णी
सूरज/अग्निवर्षा
परिश्रम करती
सूखी खाल वाली
दो हथेलियाँ
मिट्टी, झाड़-झंखाड़ से
अद्वितीय प्रेम करता
तालबद्ध हो जाता है वह
पसीने से सिंचित भूमि
लहरायेंगी हरी फसलें
वह आयेगा
कुछ लोगों के साथ
फसलें कट जायेंगी
बुढ़ाया शरीर
आसमान ताकतीं
बूढ़ी आँखें
प्रतीक्षा करेंगी
आकाश गंगा से निकलते
प्रकाश पुंज का
आकाश पटल से उठेगा
वात-बवण्डर
क्षणिक आवेग को ले जाएगा
कहीं दूर.......दूर........दूर......
इर्द-गिर्द रह जाएंगी
गन्ने की कोपलें
कुछ सूखे पत्ते
मिट्टी, झाड़-झंखाड़
उसका परिश्रम
उसका पसीना ।
वो
गेहूँ की सुनहरी बालियों को
लगातार पीट-पीट कर
दाने अलग कर देता वो
ठीक उसी तरह जैसे
दाना-दाना बिखेर दी गयीं
उसकी इच्छायें
उसके सपने
सपने! मेहनतकश कृषक के
भूख और अभावों के
अन्तहीन खलिहानों में
वह हाँफ-हाँफ कर
संघर्ष कर रहा है
दानों को बटोरने की
और ऐसा करते हुए वह
मर रहा है प्रतिदिन
एक छोटी-सी मौत
बुझते दीये की लौ-सी
उसकी आँखें
अपने सपने छुपा कर
रखना चाहता है वह उनमें
वह तेजी से दानों को
बटोरने में लग जाता है
वह मरता है
कई-कई बार
काँप रहे हैं
उसके हाथ।
'' प्रतीक्षा ''
अँधेरे में
टटोलते-टटोलते मेरा हाथ
एक दरवाजे से जा टकराया
मैं
साँकल खटखटाने लगी
लेकिन मुझे
खुद भी नहीं मालूम था कि
अन्दर
अपने में विलीन कर लेने वाला
स्याह और
स्वयं को ही न देख पाने वाला
घना अंधकार है या
चमचमाती हुई,
इन्द्रधनुष-सी छटा बिखेरती हुई
रोशनी भी
मैं दरवाजा खुलने की
प्रतीक्षा करने लगी।
नीरजा हेमेन्द्र
नदी की कराह
ज़िन्दगी रोज़ यूं ही
वक्त की नदी में
घुलती रहेगी रेत हो कर
मैं प्रतीक्षा कर रही हूँ
उस दिन का जब
नदी में उठेगा एक
तूफ़ान/ नदी का पानी उफन कर
दूर-दूर तक फेल जायेगा
किनारों को पार करता हुआ
बह जायेगी ढ़ेर सारी रेत
एक ही दिन में।
उसके बाद तुम्हें
स्वच्छ शान्ति दिखाई देगी
नदी में किनारों में,
सर्वत्र
तुम नहीं सुनते
प्रतिक्षण, धीरे-धीरे
रेत को बहाती हुई
नदी की दुःख भरी कराह।
'' तुम कब आओगे''
पुरवा के झोंकों से
स्मृतियों के झरोखों से
पूछूँगी इस बार
तुम कब आओगे?
काले उड़ते बादलों से
विगत् सुखद पलों से
पूछँगी इस बार
तुम कब आओगे?
छायें हैं श्याम मेघ
हृदय में उठे आवेग
मेघों के पन्नों पर
लिखा है नेह बन्ध
तुम तक वो जायेंगे
विरह राग गायेंगे
सावन की इस ऋतु से
बारिश की बूँदों से
पूछूँगी इस बार
तुम कब आओगे?
नीरजा हेमेन्द्र
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