वंदना पांडेय की रचनाएँ

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गुस्ताख़ी अरे मधु सुन, अरे ज़रा सुन तो मुझे बहुत ज़रूरी बात बतानी है तुझे। क्या तूने कभी ख़ुदा देखा, अरे बोल कुछ तो बोल। उफ़ तू रहने दे तेरी सूर...

गुस्ताख़ी

अरे मधु सुन, अरे ज़रा सुन तो मुझे बहुत ज़रूरी बात बतानी है तुझे। क्या तूने कभी ख़ुदा देखा, अरे बोल कुछ तो बोल। उफ़ तू रहने दे तेरी सूरत देख कर ही लग रहा है कि तूने कभी नहीं देखा।

मैंने देखा मेरा ख़ुदा बहुत ही खूबसूरत है और उससे भी ज़्यादा खूबसूरत है उसका दिल। चंचल नज़रों वाला, शरारती सीरत वाला, हर पल मेरे वजूद में अपनी मौजूदगी का अहसास कराने वाला और पानी में गिरे हुए मेरे एक एक आँसू को पहचानने वाला, ऐसा ही होता है न ख़ुदा। मेरा तो ऐसा ही है।

ख़ुदा किसी मंदिर या मस्जिद, पहाड़ या मूर्ति में नहीं मिलता। हमारे नज़र और नज़रिये की बात है। वह तो हमारे सामने किसी भी रिश्ते के रूप में आकर खड़ा हो जाता है। अपनी पाक नज़र से अपने अपने ख़ुदा को ढूँढ लीजिए। मैंने अपने ख़ुदा को पा लिया है, उसका नाम भी बता देती पर कहीं वो रूठ न जाए बस इसलिए।

मैंने अपने यार में अपने ख़ुदा को पा लिया।

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शहीद

एक आह और एक वाह

आह इसलिए कि ये कोई उम्र थी अपने वतन व परिवार से विदा लेने की। अभी तो दुनिया भी ठीक से नहीं देखी थी कितनों ने तो अपने बीवी बच्चों का पहला दीदार तक नहीं किया था। कुछ वादे करने बाकी थे कुछ वादों को पूरा करना था। सब कुछ अधूरा छोड़कर कोई इतनी दूर कैसे जा सकता है। माँ के दूध का कर्ज़ चुकाना , बाप का फर्ज़ निभाना था प्रेमिका या पत्नी से वफ़ा निभानी थी बहन की राखी का मोल चुकाना था। कितना कुछ तो बाकी है कैसे तुम चले गए।

इतना प्यार इतना सम्मान कैसे संभालते हो तुम। ओह ! मैं भूल रही हूँ कि तुम तो अभिमन्यु हो , पूरी कायनात संभाल सकते हो। वो तो छल से वध कर दिया तुम्हारा , वरना ....... ..

वाह इसलिए कि हर दिल में तुम ससम्मान विराजमान हो। स्वयं चिरनिद्रा में सो गए और सोया हुआ हिंदुस्तान जगा गए। बिना किसी शिकायत के जी भरके जीवन को जिया और हम सबको जीवन की एक नई परिभाषा बता गए। धर्म और सभ्यता के पंथ से आरंभ हुई तुम्हारी यात्रा धरती से शुरू की और आसमान में बस गए। हर रिश्ता तुमसे जुड़कर गर्व कर रहा है और हाथ जोड़ जोड़कर नमन कर रहा है । तुम्हारी विदाई में संपूर्ण भारत , चारों दिशाएं , धरती और आकाश तुम्हें श्रद्धांजलि समर्पित करते है।

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आज कल के बच्चे

ज़हन में आज कल के बच्चों का नाम आते ही एक तस्वीर सी बन जाती है। देखिए वो कैसी है --चमकदार कपड़ों में स्मार्ट सी सूरत लिए हुए ,नकचढ़ा सा मिज़ाज ,नकारात्मक सीरत के साथ व अत्यधिक असंवेदनशील रवैये वाले बच्चे।

उफ़ !ये कैसी बच्चों की तस्वीर है। जो हम अपने अंतर्मन में बना बैठे हैं।बच्चे तो वो आईना हैं जिसमें हमारा भूत और भविष्य दोनों नज़र आता हैं। इस आईने में कर्म ,धर्म और संस्कार दिखाई पड़ते हैं। फिर शिकायत हमें आईने से क्यों ,हमें तो स्वयं को सँवारने की जरूरत है।

अब एक और गलत धारणा कि बचपन हर गम से बेगाना होता है। बच्चों के बारे में हमने हज़ारों बातें बिना किसी तर्क के मान ली हैं। एक और वाक्य तो बार-बार कहा जाता है जो घिस चुका है कि बच्चे कोरी स्लेट होते हैं। इसी क्रम में वाक्य है कि बच्चे मिट्टी के लोंदे होते हैं ,यानी आप उन्हें जैसा चाहें वैसा बना सकते हैं। दोनों ही बातों में रत्तीभर की सच्चाई नहीं है। बच्चे दुनिया में बहुत ही संज़ीदगी से शिरकत करते हैं। वे उसी दुनिया में रहते हैं , जिसमें हम उन्हें रखते हैं और वे उसके हरेक मसले में अपनी तरह से भाग लेते हैं।

समूची व्यवस्था समझदार बड़ों के हाथों में है और बड़ों की बनाई इस व्यवस्था में फेल कौन होता है ?बच्चे। शिक्षा के अलावा ऐसा दूसरा उदाहरण दुनिया में अन्यत्र संभव नहीं है। बच्चे बचपन को समझे उससे पहले उनके कोमल मन पर अपने सपनों का बोझ व उनके नाज़ुक कन्धों पर भारी भरकम किताबों से भरा बैग लाद देते हैं। उनको क्या कभी कहानी सुनाकर सुलाया ? क्या कभी उनकी छोटी - छोटी उलझनों को सुलझाने में मदद की ? क्या आपने उनके साथ समय बिताने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित की ? क्या कभी उनकी भावनाओं का सम्मान किया ? नहीं न।

क्यों कि इन सब की कमी को पूरा करने के लिए बच्चे के हाथ में इंटरनेट से भरा हुआ मोबाइल नामक खिलौना थमा दिया। फिर क्यों शिकायत है इन नन्हें - मुन्हों से। मशीन के साथ रहकर इंसान कैसे कोई बन सकता है। इंसानों के साथ बच्चों को रखिए ताकि वे इंसान बन सकें। इस लिए थोड़ा सा समय बच्चों को दीजिये , आप उनके बचपन को समझिये और वो आपके बड़प्पन को समझेंगे। बच्चे बच्चे होते हैं, फिर आज कल के हों या कल परसो के।

वैसे आज कल के बच्चे मल्टीटैलेंटेड होते हैं। हमें बहुत कुछ उनसे सीखने को मिलता है। उनके बचपन में अपने बचपन का रंग घोल कर देखिये जो इन्द्रधनुषी रंग निखर के आयेंगे वो होंगे-संस्कार ,संवेदनशीलता, समाजिकता,धार्मिकता,आत्मविश्वास ,धैर्य व बुद्धिमत्ता ; इंद्रधनुष के सात रंगों की तरह गुणों का बचपन में घुलने से शानदार भविष्य का निर्माण होगा।

बच्चों को साथी बनाए बागी नहीं।

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गुमनाम शाम

यारों शाम तो शाम होती है। इसमें क्या मस्तानी और क्या सुहानी। कुछ लोगों को पता नहीं शाम में क्या मस्ताना - सुहाना दिखाई पड़ा गाने तक लिख डाले "ये शाम मस्तानी...." ये गाना सुनकर लगता है कि गाना लिखने वाले की शाम कैसी रही होगी ? मस्त रही होगी और क्या। सचमुच क्या दुनिया में कुछ लोग हैं जिनके शामें मस्तानी होती हैं ?

अरे यार ! क्या शाम और क्या सुबह जैसे हमारे भीतर का मौसम होगा वैसे ही हमें बाहर नज़र आएगा। चलिए इस पर विचार करते हैं कि शाम है किधर ? आजकल की भागदौड़ की ज़िंदगी में...... अब तो केवल सुबह होती है और रात होती है।

हमें ऊपर वाले ने 24 घंटों में चार प्रहर दिए हैं उसमें से शाम होते-होते सब बिखरने लगता है। शाम के समय तीन काम हर इंसान कर रहा होता है - घर है तो बाहर जा रहा होता है, बाहर है तो घर में आ रहा है या कहीं ठहरा हुआ है अपने ऑफिस या व्यवसाय की जगह। ये दृश्य हर एक की ज़िंदगी में शाम के समय होते हैं।

किसी को लगातार शाम को अकेले घर में रहना पड़े तो, समझो उदासी को आमंत्रण पक्का है। डिप्रेशन के अधिकांश केस शाम को ही होते है, इसलिए लोग बाहर भागते हैं। शाम को अंतर्मन कुछ बाहरी वातावरण चाहता है।

मैंने पहले ही कहा है की मौसम तो इंसान के अंदर है बाहर तो केवल दृश्य है। शाम के समय आपकी एनर्जी का लेवल नकारात्मक अधिक और सकारात्मक कम होता है। एक भारीपन, एक एंग्जायटी-सी भीतर आने लगती है। दिन ख़तम हो रहा होता है और शरीर थक चुका होता है। अब ध्यान दीजिये आपका शरीर नहीं आपका मन थका हुआ है,क्योंकि ऊर्जा का लेवल नेगेटिव है और इस नेगेटिव ऊर्जा के साथ तो शाम काली होनी ही है। अपनी शाम मस्तानी बनाने के लिए कुछ बातों का ध्यान रखिये।

शाम के इन दो तीन घंटों में जितना पानी पी सकते हैं उतना पानी पियें। जल के अंदर की ऑक्सीजन आपके लिए प्राणायाम का काम करेगी इसके बाद हो सके तो थोड़ा पैदल चलें। अगर हरी घास में चलना मिल जाए तो फिर क्या बात है,आपकी शाम सुहानी होने से कोई नहीं रोक सकता। और तीसरी बात आप जिससे बेहद प्यार करते हैं उससे बात कीजिये। ऐसा करने के बाद मेरा यकीन मानिये दो चार गाने गज़लें आप भी लिख डालेंगे। जानते है क्यों ? अरे भई बिखरी हुई शामें जो संवरने लगी है।

अब गुनगुनाओ यारों ........

ये शाम मस्तानी, मदहोश किये जाए।

मुझे डोर कोई खीचें, तेरी ओर लिए जाए।

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उपहार

बात थोड़ी सी पुरानी है पर अच्छी कहानी है। ये बात मेरे ग्रेजुएशन के दिनों की है। कॉलेज में दाख़िला लेने के बाद घर से अकेले आना जाना, न किसी से कोई बात चीत, न कोई सखी सहेली। भीड़भाड़ भी अधिक पसंद न थी। अंतर्मुखी होने के कारण लोगों से घुलना मिलना न के बराबर ही था।

इन सबके बावजूद, एक गुड़िया नाम की लड़की, जो मुझे अपनी सहेली बताती थी, मुझे बिलकुल पसंद नहीं थी। एक मुनीम की बेटी होने की वजह से उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी न थी। वह अपनी पढाई बड़े ही तन्मयता से करती थी क्योंकि उसको ये मौका बड़ी मुश्किल से मिला था। वो अपनी बात सबके सामने बड़े बेबाक होकर कहती थी और स्वाभिमान तो मानो उसमे कूट कूटकर भरा था। शायद यही सब मुझमें नहीं था इसीलिए वो मुझे अपनी सी या अपनी सहेली सी कभी नहीं लगी।

तीन साल तक एक ही कॉलेज में रहते हुए मैंने उसको नज़रअंदाज़ किया। खैर, दिन बीतते गए साल बीतते गये और पढाई पूरी हुई। इसी बीच मेरा रिश्ता तय हुआ और शादी हो गयी। शादी के सारे रस्मों रिवाज़ों में मेरी ऑंखें गुड़िया को ढूँढ रही थी। जाने क्यूँ ? शायद फिर से एक बार नज़रअंदाज़ करने के लिए।

सबको देखा पर वो कही नज़र न आयी। मेरी विदाई भी हो गयी तो भी नहीं दिखाई पड़ी। फिर क्या था कुछ खट्टी मीठी यादों के साथ मैं ससुराल रवाना हुई। अनजाने लोग अनजानी जगह में मुझे गुड़िया याद आने लगी और भाने भी लगी। अगर कही से एक बार दिख जाए तो गले लगा लूं उसको। पर वहाँ कहाँ थी गुड़िया ? चलो कोई बात नहीं।

फिर चार पाँच दिन बाद मेरा मायके आना हुआ। देखा की कोई मेरा बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था , वो थी गुड़िया। उसको देखकर मैं बहुत खुश हुई। उसने उसी शाम अपने घर बुलाया और अपने तरीके से मेरा स्वागत किया। जब मैं चलने लगी तो उसने बोला " रुको, पहली बार सुहागन स्त्री घर से खाली हाथ नहीं जाती " ये कहते हुए उसने अपना मिट्टी का गुल्लक ज़मीन पर पटक दिया। सारे सिक्के ज़मीन में बिखर गए। उसने सारे सिक्कों को समेटकर मेरे दोनों हाथों में भर दिया।

वो एक एक सिक्का मुझे आसमान से तोड़े हुए तारों के जैसा लग रहा था। आज बीस साल हो चुके हैं पर आज भी मैं उन सिक्कों की चमक महसूस करती हूँ। उसके प्यार और सम्मान के सामने मैं नतमस्तक हो गयी। ये उपहार मुझे ता-उम्र याद रहेगा।

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आँचल की छांव

आज मनु अपने बचपन की तस्वीर को देखकर भावविभोर हो गयी। पुरानी यादें उसके रुखसार पर शबनम के मोती की तरह बिखर गई।

माँ को कितना मना किया था कि मुझे अपने से जुदा मत करना। मेरी माँ तेरे बिना मेरा व्यक्तित्व, अस्तित्व, सब बदल जाएगा इस मिलावटी दुनिया में। मैं, मैं नहीं रहूँगी। और तू भी तो मेरे बिना कैसे रहेगी। तुझमे मेरी माँ कैसे ज़िंदा रहेगी एक औरत तो जीवित रह जाएगी पर माँ तो मर जाएगी न।

माँ धीरे से मुस्कुराई और बोली मैं भी एक बेटी थी और मेरी भी एक माँ थी। मैं उनसे जुदा भी हुई और ज़िन्दा भी हूँ। यही संसार का नियम है और हमारा धर्म भी।

माँ तू इतनी सरल और मीठी है फिर इतनी कठिन, जटिल और तीखी बातें क्यूँ करती है। मुझे नहीं समझनी तेरे नियम और धरम की बातें, मुझे अपने आँचल की छांव में रहने दे माँ।

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मानसिक यात्रा

जानकी ने इस बार दीवाली में दस साड़ियाँ बेची। वो सारी रकम घर खर्च और त्योहार में ही खर्च हो गयी। उसका हरिद्वार जा के गंगा स्नान करने का स्वप्न मात्र एक स्वप्न बनकर ही रह गया। उसके जीवन की पहली और आख़िरी बस एक ही चाह है - हरिद्वार में गंगा स्नान। और ये चाहत दिनों-दिन गहरी होती जा रही है।

वो कुर्सी में बैठकर साड़ी बुनती जा रही है और अपने काम में वो इतनी

निपुण है कि उसके विचारों के साथ साथ उसकी उंगलियाँ भी चल रही हैं। जहाँ साड़ी बनती जा रही थी वही उसके विचार रफ़्तार पकड़ते जा रहे थे। अब वह गंगा के घाट पर पहुंच चुकी है जहाँ वो अद्भुत दृश्यों का अवलोकन कर रही है। ये प्रकृति उसको अपनी सखी जैसी लग रही है और जैसे कह रही हो आजा जानकी गले लग जा, आज तुम्हारे स्वागत में मैंने कैसी सजावट की है। सूर्य की ये दिव्यता, नदी की सुंदरता और प्रकृति की भव्यता निहारते हुए वो गंगा का आलिंगन करने के लिए उतरती है। तभी एक लहर आ उसके चेहरे पर पड़ती है और वो अपनी मानसिक यात्रा से बाहर आ जाती है। तब एक खरीददार साड़ी खरीदने आता है और कहता है एक सुन्दर लाल साड़ी चाहिए, मुझे गंगा जी को भेट करनी है। जानकी इस खरीददार को अपनी मानसिक यात्रा के पुण्यों का फल मानती है और प्रसन्न चित्त होकर साड़ी भेट में दे देती है।

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जाम से अंजाम तक

मेरी बातों को एक पुराना ख्याल या उपदेश न समझें -

शराब एक स्टेटस सिंबल बन चुकी है। इसे शिक्षित भी पी रहे हैं और अशिक्षित भी गटक रहे हैं। भारत के सामाजिक और पारिवारिक परिवेश में शराब के दूरगामी दुष्परिणामों को देखिये।

वैसे तो सारी दुनिया में शराब पी जाती है , कुछ लोग तो इसकी तारीफ़ करते नहीं थकते , उनको आश्चर्य होता है की इसमें बुराई ही क्या है ? शराब पीने वालों के लिए तो शराबी जैसा सज्जन नहीं , और शराब जैसा पेय पदार्थ नहीं , इस दुनिया में। खैर जो सारी दुनिया में चलता है वो अपनी जगह है लेकिन भारत में शराब अपने दुष्परिणामों को दिखाने लगी है। एक शराबी व्यक्ति एक परिवार बर्बाद करता है और एक बर्बाद परिवार कितने परिवारों को बर्बाद करता होगा ?

अब चलिए हम शराब को अपराध से जोड़कर देखते हैं। पिछले कुछ सालों में जो अपराध हुए हैं और खासकर दुष्कर्म के , अगर १०० अपराधियों को पकड़े तो ९० शराब के नशे में होते हैं। शराब का सबसे बड़ा काम है अपराध के लिए अपराधी को तैयार करना क्योंकि होश खोने के बाद ही कुकृत्यों को अंजाम दिया जा सकता है।

एक तो पी ली शराब और दूसरे हाथ में मोबाइल , जो जी ने चाहा वो देखा। सारे अश्लील दृश्य स्मृतियों में घुल रहे हैं झंकृत पूरा शरीर हुआ और इन्द्रियों ने अपनी माँगें रखी। अब एक सज्जन से शराबी फिर शराबी से अपराधी बनने का आगाज़ हुआ। प्रत्येक व्यक्ति को जागरूक होना होगा अगर हम अपाहिज होकर पूरी तरह से कानून पर निर्भर हो जाते हैं तो उसका परिणाम भी देखते चलिए -

इतने सालों से सजा-ए -मौत तो कई को सुनाई , पर फांसी शायद ही किसी एक को दी गई हो। हमारा पढ़ा लिखा समाज भी कम विचित्र नहीं है। शराबी दुष्कर्मी को छोड़कर, फांसी दी जाये या नहीं , इस मानवाधिकार पर चिंतन और चर्चा करता है।

मैं पूरे यकीन के साथ कह सकती हूँ कि हमारे समाज में विद्रोह , अविश्वास व असुरक्षा का जो वातावरण है वो जाम का ही अंजाम है।

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रचनाकार: वंदना पांडेय की रचनाएँ
वंदना पांडेय की रचनाएँ
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