हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 8 वीं किश्त

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वसीयत – ८ : उपन्यास: हरीन्द्र दवे – भाषांतर: हर्षद दवे

‘आप का ही नाम मानसिंह है, ठीक है?’ इन्स्पेक्टर न्यालचंद ने पिछले तीन दिन से पुलिस की हिरासत में रखे गए मुलजिम की पूछताछ शुरू की 

‘जी हाँ, साहब.’ जवाब देनेवाला युवक मानसिंह चतुर था. उस के चेहरे पर कुछ थकान थी. पुलिस कस्टडी में उस पर शायद बलप्रयोग हुआ हो ऐसा लगता था. परन्तु उस के कसकर बंद किये गए होंठों पर दृढ़ता थी और आँखों में चमक थी.

‘आप श्रीमती मोहिनी पंडित को जानते थे?’

‘पिछले तीन दिन में यह प्रश्न मुझ से बीसवीं बार पूछा गया है. आप पुलिस के आदमी एक ही सवाल बार बार पूछकर सामने वाले आदमी को क्यों थका देते हो?’

‘कभी थकान में सच बोल दें इसलिए,’ इन्स्पेक्टर ने हंसकर कहा: ‘इसलिए इक्कीसवीं बार आप इस प्रश्न का उत्तर दीजिए ऐसी मेरी इच्छा है.’

‘इन्स्पेक्टर साहब, आप आपके साथियों से कुछ अलग से दीखते है, इसलिए आप को अधिक मात्रा में सत्य बताना पसंद करूँगा,’ मानसिंह ने गंभीरतापूर्वक कहा.

‘मैं सुन रहा हूँ.’

‘पहली बार मुझ से यह सवाल किया गया तब मैं इस नाम से बिलकुल अपरिचित था. परन्तु बाद में पुलिस बार बार यह प्रश्न पूछती रही और अब मुझे इस नाम की आदत पड चुकी है. जिस स्त्री को मैंने कभी देखा तक नहीं, उस स्त्री के बारे में मुझे बहुत कुछ मालूम हो गया है. मुझे मालूम है की इस स्त्री की ह्त्या हुई है.’

‘आप को कैसे मालूम हुआ?’

‘साहब, विदेशिओं के साथ राजस्थान में गाइड के रूप में घूमना हो तो आपको अखबारों पर नजर डालनी ही होगी. आप के लिए यह बहुत ही पेचीदा मामला है और एक चुनौती मानकर उसे आपने हाथ में लिया है, ऐसा आप ने एक पत्रकार को बैंगलोर में कहा था यह भी मैंने पढ़ा है.’

‘आप इस केस का दिलचस्पी से अभ्यास करते है ऐसा लगता है. कॉफ़ी लेंगे?’

‘अवश्य, इन्स्पेक्टर साहब. इस पुलिस कस्टडी में मेरे साथ इंसानियत से बात करनेवाले आप दू दूसरे आदमी है.’

‘पहला कौन था?’

‘जिस के सामने मुझे रिमांड के लिए पेश किया गया था वे मजिस्ट्रेट मानवतापूर्ण थे. उन्होंने आप के मदद्नीश को स्पष्टरूप से पूछा था कि इस आदमी पर संदेह करने के लिए कोई खास वजह है? आप के मदद्नीश के पास साफ़ जवाब नहीं था, परन्तु मेरी पूछताछ करने से शायद हत्या का कोई महत्वपूर्ण सुराग मिल सकता है ऐसा कहकर मुझे इस पुलिस कस्टडी में रहने का अनुभव करवाया. टूरिस्टों को भारतीय संस्कृति के साथ भारत की गरीबी, भारत के भिखारी नागरिक सभ्यता से विरुद्ध के भारतीय नागरिकों का व्यवहार इत्यादि बताता फिरता हूँ. अब एक चीज और दिखा पाऊंगा – भारत की पुलिस का हवालात.’

‘ज्यादा स्मार्ट बनाने की कोशिश मत कीजिए, मानसिंह,’ इन्स्पेक्टर न्याल्चंद ने हवलदार को दो कॉफ़ी लाने के लिए कहा.

‘यदि सच कहना स्मार्टनेस हो तो स्मार्टनेस के लिए माफ़ी चाहता हूँ. परन्तु श्रीमती मोहिनी पंडित के बारे में मुझे सब से पहले सवाल किया गया तब वह नाम याददाश्त पर जोर दे कर ढूंढा परन्तु परिचित सा नहीं लग रहा था. किन्तु बाद में अख़बारों में इस के बारे में काफी कुछ पढ़ा था. पहली बार पुलिस ने मेरी पूछताछ की तब ऐसा लगता था कि चलो जान छूटी. लेकिन अभी आपके मददनीश ने पूछताछ के लिए मुझे हिरासत में लिया तब ऐसा लगा कि इस बदनसीब स्त्री की जायदाद तो जिसे मिलनी होगी उसे मिलेगी. किन्तु मेरा इस स्त्री के साथ सम्बन्ध जोड़ा जाएगा और मुझे कुछ रातें पुलिस कस्टडी में बितानी पड़ेगी.’

‘आई एम सॉरी, मानसिंह, आप अभी हिरासत में हैं इस बात का असर आप के दिमाग पर होगा यह मैं समझ सकता हूँ. परन्तु अगर आप मुझे सहयोग देंगे तो मुझे अच्छा लगेगा.’

‘साहब, मैं नशा नहीं करता. परन्तु आपने जिस प्रकार से इंसानियत दर्शाई, आप के साथ बिठाकर कॉफ़ी के लिए पूछा इस खुशी में मैं जो कुछ भी जानता हूँ वह सब कुछ सच सच बता दूंगा.’

‘बाइसवीं बार भी मुझे इसी सवाल से शुरूआत करनी पड़ेगी...’

‘श्रीमती मोहिनी पंडित का नाम सब से पहले आप के मददनिश सब-इन्स्पेक्टर जायसवाल ने जब तक नहीं पूछा था, तब तक मैं नहीं जानता था. इस के बाद अख़बारों ने यह नाम मुझ से अपरिचित नहीं रहने दिया.’

‘वेल,’ न्यालचंद ने जेब से मोहिनी की तसवीर निकाली और उसे मानसिंह के हाथ में रखते हुए कहा : ‘आप इस तसवीर में नजर आ रही व्यक्ति को जानते हैं?’

‘यह तसवीर मैंने अख़बारों में कई बार देखी है, परन्तु आप से यह कहने के लिए तैयार हूँ कि इस तसवीरवाली व्यक्ति को मैंने देखा है.’

न्यालचंद चौंका. परन्तु अपने चेहरे पर पलभर में पहले की सी स्वस्थता ला कर उसने कहा: ‘इंटरेस्टिंग, श्रीमती मोहिनी पंडित को उन की हत्या से पहले देखनेवाले आप पहले ही अज्ञात व्यक्ति हो. आप ने कब और कैसी स्थिति में उन को देखा था?’

‘डेनिस मेकार्थी एवं श्रीमती लिली मेकार्थी के नामों से आप अच्छी तरह से परिचित हैं.’

‘हाँ, परन्तु आप के जितना नहीं.’ न्यालचंद ने कहा.

‘अच्छा कपल है. वे जब भी भारत आते हैं तब जयपुर एवं राजस्थान के प्रदेश में उनकी महेमान नवाजी मुझे ही करनी होती है. कभी वे मुझे दिल्ली तक ले गए हैं.’

‘आप के इन प्रवासों से मैं अनभिज्ञ था.’

‘इन्स्पेक्टर साहब, आप के डिपार्टमेंट का होमवर्क उतना कच्चा होगा. मैं बकायदा गाइड हूँ और आप के टूरिजम विभाग को मेरे ये सारे ‘असाइनमेंट’ के बारे में पूरी जानकारी है.’

न्यालचंद ने होंठ चबाये. यह युवक या बिलकुल सही बोल रहा है, या फिर कुछ ज्यादा ही

जानता है! उन्होंने जवाब नहीं दिया केवल प्रश्नसूचक दृष्टि से मानसिंह की ओर देखा.

‘टू द पॉइंट बात बताऊँ तो ये दोनों पुरातत्वशाश्त्री हैं. मेरा स्पष्ट ख्याल है कि इस फोटोग्राफ में दिख रही स्त्री को मैंने पिछले साल दिल्ली के मौर्य शेरेटन में मिस्टर एंड मिसेज मेकार्थी के साथ खाना लेते हुए देखा था.’

‘यह जानकारी आप ने पहले की पुलिस छानबीन में क्यों नहीं दी?’

‘मुझ से पूछा नहीं गया था.’

‘वेल, आप सरसपुर के डाक बंगले तक इस कपल के साथ गए थे?’

‘नहीं.’

‘क्यों?’

‘उन की भारत की ये छठवीं मुलाकात थीं. हरेक जगह वे मुझे अपने साथ ले कर ही जाते थे ऐसा नहीं है. सरसपुर गए तब वे अकेले गए थे.’

‘उन का कार्यक्रम क्या था?’

‘वे वहाँ से आगे किसी पुरातत्व से सम्बंधित जगह की तलाश करनेवाले थे. वहाँ से गाड़ी के जरिये दिल्ली जानेवाले थे. फिर सीधे अपने देश जानेवाले थे.’

‘वे कहाँ से है?’

‘यह एक सवाल का जवाब आप जानते हैं. ये दोनों डबलिन के हैं. वहाँ की यूनिवर्सिटी में दोनों पुरातत्वविद्या के संशोधन विभाग में कार्य करते हैं.’

‘वे दोनों श्रीमती मोहिनी पंडित को पहचानते थे?’

‘हाँ. अच्छी तरह से पहचानते हैं ऐसा लगा मुझे.’

‘उन्होंने श्रीमती पंडित के साथ क्या बातें की यह आप बता सकते हैं?’

‘साहबलोग अपने मेहमान को फाइवस्टार होटल में भोजन के लिए जब ले जाते हैं तब गाइड को साथ नहीं रखते. होटल के लाउंज में वे लोग मिले तब संयोग से मैं उपस्थित था. उन की अच्छी जानपहचान हो ऐसा लगा.’

‘जो कुछ भी थोड़े-बहुत शब्दों का आदान-प्रदान उन लोगों के बीच हुआ हो यह बता सकते हैं आप?’

‘हाँ, श्रीमती मेकार्थी और मैं दोपहर के बाद के कार्यक्रम के बारे में बातें कर रहे थे. तभी डेनिस मेकार्थी ने ‘वेलकम मेडम’ कहकर एक मध्यम उम्र की सुन्दर स्त्री का सत्कार किया और श्रीमती मेकार्थी भी मेरे साथ बातें छोड़कर उन से हाथ मिलाते हुए बोलीं: ‘आप आज मिलने का प्रबंध कर पाएं इसलिए आप का शुक्रिया. हम कल ही डबलिन जा रहे हैं, इसलिए आज आप से मुलाकात हो पाई इस बात की बहुत ही खुशी हुई है.’ बाद में श्रीमती मेकार्थी ने मुझ से कहा: ‘मान, तूं दोपहर तीन बजे हमें यहीं पर मिलना. हम तुम्हारा इन्तजार करेंगे.’ उस के बाद मैं वहाँ से निकल गया. उस समय दोपहर के साढ़े बारह बजे थे. फिर तीन बजे पहुंचा तब श्री एवं श्रीमती मेकार्थी तैयार हो कर मेरे साथ बाहर निकलने के लिए मेरा इन्तजार कर रहे थे.’

‘वाहन से आप कहाँ गए?’

‘हरियाणा में एकाध आर्कियोलोजिकल साईट देखने के लिए गए थे.’

‘उनकी बातचीत में कहीं भी श्रीमती पंडित का नाम सुनाई पड़ा था?’

‘नहीं.’

‘क्या आप को यकीन है कि आपने पिछले साल दिल्ली के मौर्य शेरेटन में जिन को देखा था वह श्रीमती पंडित ही थी?’

‘हाँ.’

‘आप उन से कब मिले थे यह बता सकते हैं?’

‘हाँ. तारीख और दिन के साथ कह सकता हूँ परन्तु इस के लिए मुझे मेरी डायरी देखनी पड़ेगी. या यहाँ के टूरिज्म विभाग में भी मेरा वह प्रवास नोट किया हुआ है, वह रिकार्ड देखना होगा.’

न्यालचंद यह चतुर फिर भी सच्चे व पारदर्शी युवक की और देखते रहे. ‘आप ने यह सब पहले क्यों नहीं बताया?’

‘अभी मैंने कहा न कि मुझ से पूछा नहीं गया था. और फिर आप से मिलकर लगा कि आप की जांच में उपयोगी हो सके ऐसा कुछ कह पाऊं तो अच्छा.’

‘और भी ऐसा कुछ जानते हैं जो मेरी इस जांच में सहायक हो सके?’

‘विशेष कुछ नहीं. फिर भी डेनिस मेकार्थी उन की पत्नी से बातें कर रहे थे कि जरूरत पड़ेगी तो हम दिल्ली से काठमांडू जाएंगे.’

न्यालचंद चौंके: ‘किस सन्दर्भ में वे ये बातें कर रहे थे?’

‘यह मुझे नहीं मालूम. मैं उन के नजदीक गया तब उनकी दृष्टि मेरे ऊपर पड़े उस के पहले उनके द्वारा कहा गया यह अंतिम वाक्य था. बाद में उन्होंने मुझे ‘टीप’ दी और वे सरसपुर जाने के लिए निकल गए.’

‘वेरी इंटरेस्टिंग,’ न्यालचंद ने कहा, ‘आपने एक महत्वपूर्ण मुद्दा बताया है. वे दिल्ली से नहीं परन्तु नेपाल से अपने देश गए हो ऐसा हो सकता है.’

‘इसी दृष्टि से मेरा सुना हुआ यह वाक्य मुझे अर्थपूर्ण लगा.’

‘मैं आज ही मजिस्ट्रेट के पास आप को भेज रहा हूँ. आप की पूछताछ पूरी हो गई है. आप को मुक्त कर दिया जाएगा – केवल जरूरत पड़ने पर आप इसी तरह से सहयोग देंगे इस शर्त पर! और एक बात यह कि जयपुर छोड़ने से पहले आप को हमारी अनुमति लेनी होगी.

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शेफाली के आने के दिन उस के हॉस्टल में एक छोटा सा उत्सव मनाया गया. श्रीमती डिसूजा शेफाली से गले लगकर फूट फूटकर रो पड़ी: ‘बेटी, तेरे जाने के बाद तूने एक चिठ्ठी भी नहीं लिखी? परन्तु हमने अखबार में पढ़ा. डॉक्टर अंकल चल बसे उस पर अफ़सोस हो रहा है. साथ ही तेरे ऊपर वसीयत में जो ममता दर्शाई गई है इस बात का हर्ष भी है.’

‘मेडम’, शेफाली की आँखे भर आईं. वह कुछ कह नहीं पाई. उसने अपना सर श्रीमती डिसूजा के कंधे पर रख दिया. श्रीमती डिसूजा ने शेफाली के सर व बदन पर सहलाया और उसे दिलासा दिया.

देखते देखते सारा हॉस्टल श्रीमती डिसूजा के कक्ष के बाहर जमा हो गया. सामान्य संजोग होते तो श्रीमती डिसूजा के लिए यह ऐसी अनुशासनहीनता असह्य बन जाती. परन्तु आज वह खुद ही गुस्सा होने के मूड में नहीं थीं. ‘नंदिता’, उन्होंने कहा, ‘शेफाली को उस के रूम पर ले जा. अब तुम यहीं रहनेवाली है न?’ उन्होंने पूछा. शेफाली अभी भी सिसक रही थी. शंकर ने पानी लाकर दिया. पानी पी कर स्वस्थ हो कर उस ने कहा: ‘अभी पन्द्रह दिन तक निश्चित रूप से यहीं पर हूँ.’

‘क्यों?’

‘लगता है कि अब वहाँ पढ़ाई करनी पड़ेगी.’

श्रीमती डिसूजा ने आगे कोई प्रश्न नहीं पूछा. इस जवाब से उसे बहुत कुछ समझ में आ गया. अब शेफाली राव किसी मध्यवर्गीय परिवार की पुत्री या डॉक्टर पंडित नाम के एक नामी डॉक्टर की पालित पुत्री नहीं रही. वह इस हॉस्टल के हर किसी से भी ज्यादा दौलतमंद थी. और डॉक्टर पंडित की वसीयत, श्रीमती पंडित की हत्या, उस का वारिस इत्यादि बातें बढाचढा के अखबारवाले व पत्रिकावाले बढ़ाचढाकर प्रकाशित करते थे इसलिए शेफाली भी प्रख्यात हो गई थी.

नंदिता एवं अन्य सखियाँ शेफाली को उस के रूम में ले गई. सब के बीच जैसे जुदाई का एक भाव पैदा हो गया हो इस प्रकार से सब व्यवहार करने लगीं थी. अपने कक्ष का सबकुछ यथा स्थान पर वैसा का वैसा ही था. मुंबई छोड़ने से पहले डॉ. उमेश मिश्र का फोन आया तब टेबिल पर अधूरा छोड़ा उपन्यास भी अभी ऐसे ही पडा था. हाँ, टेबिल की सफाई करते वक्त सफाई करने पर उस की रूम-मेट राजश्री ने उसको अवश्य छूआ होगा. किन्तु बुकमार्क का स्थान नहीं बदला था. उस के लोकर में चाबी भी ऐसे ही लगी हुइ थी: ‘राजश्री कह रही थी कि तू लोकर बंद करना भूल गई थी. परन्तु तेरे लोकर में किसी का प्रेमपत्र कहाँ से मिल पाता!’ नंदिता ने मजाक किया. शेफाली हंसी. बोझिल माहौल कुछ हलका हुआ.

शेफाली के लिए ये दिन काफी मुश्किल के बन गए. उस रात वह राजश्री एवं नंदिता के साथ बातों में मशगूल हो गई. कोलेज में क्या हुआ था इस विषय पर जो बातें थीं वो तुरंत खत्म हो गईं.

‘शेफाली, अचानक ये सारी घटनाएं घटीं इस से तुझे कैसा लग रहा है?’ राजश्री ने पूछा.

‘राज, मैं घबरा गई हूँ. दरअसल मुझे जरूरत थी डॉक्टर अंकल के स्नेह की, वसीयत की नहीं. और एक साथ दो दो मौतें... मैं अब तक उस सदमे से संभल नहीं पाई हूँ. ऐसी स्थिति में मैं हूँ.’

‘सॉरी, हमें तुझे ऐसी एम्ब्रसिंग स्थिति में नहीं रखना चाहिए था. परन्तु कल तक हमारे साथ बातें करती, घूमती फिरती, गपशप करती मित्र आज जैसे हमसे अचानक दूर दूर चली गई हो ऐसा लगता है.’

‘नहीं, मैं कहीं नहीं गई संयोग ने मुझे बैंगलोर में रहने के लिए मजबूर किया है. परन्तु इससे यह हॉस्टल, यह मुंबई का सागर, ऐसे मित्र दूर थोड़े ही हो जाते है? आप के साथ बातें करने से मुझे कुछ अच्छा लग रहा है. आप को यह पूछने को भी मन करता है कि यदि आप के साथ यदि ऐसा होता तो आप क्या करतीं?’

‘मुझे इतने सारे रुपये मिले तो शायद मैं पागल ही हो जाऊं.’ नंदिता ने कहा.

‘मैं उस लड़के के साथ ब्याह कर के वसीयत का झगड़ा ही मिटा देती.’ राजश्री ने कहा.

तीनों एक साथ हंस पड़ी.

‘इस बात का हल अगर इतना आसान होता तो कब का मामला निपट गया होता.’ नंदिता ने कहा, ‘जीवन में सरल हल तो होते ही नहीं है.’

‘राज, नंदिता बिलकुल ठीक कह रही है. पहले मेरे निर्वाह के लिए मैं पैसे को ज्यादा एहमियत देती थी. अब मुझे इस संपत्ति का बोझ उठाना पड रहा है. इतनी सारी संपत्ति का मैं क्या उपयोग कर सकती हूँ? फिर भी अखरनेवाली बात यह है कि इस के लिए मुझे मुकद्दमा लड़ना पड रहा है.’

‘वह लड़का कैसा है?’

‘कौन?’ शेफाली ने पूछा और फिर तुरंत हंस पड़ी, ‘सरदार पृथ्वीसिंह की आप बात करतीं हैं? अच्छा लड़का है. सुसंस्कृत, विवेकपूर्ण, चारु, हँसमुख एवं बच्चे जैसा निर्दोष है.’

‘फिर झगड़ा किस बात का है?’

‘अखबारों में लिखते हैं कि वसीयत का झगडा है. भारत के कानून के इतिहास में अद्वितीय ऐसा केस बैंगलोर की अदालत के सामने आया है.’

‘झगड़ा तो है नहीं. मुझे जो भी मिला है वह भी ज्यादा है. पृथ्वीसिंह भी कुछ ज्यादा चाहता हो ऐसा नहीं लग रहा. वे तो केवल मोहिनी आंटी की हत्या का भेद खुल जाए इस का बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रहे हैं.

‘आंटी की हत्या का कारण क्या हो सकता है?’

‘यह तो मैं भी समझ नहीं पा रही. मोहिनी आंटी किसी से बैर रख ही नहीं पाते, न तो उनकी किसी से कोई अनबन हो सकती है. फिर कोई उन की हत्या क्यों करता?’

ऐसी ही कुछ बातों के बाद राजश्री, नंदिता सो गए. शेफाली अपने बिस्तर में जागृत अवस्था में पड़ी रही. वह पहली ही बार इस जगह अकेलापन महसूस करने लगी. तीन साल वह इस कक्ष में रही है. हाँ, उस के रूम पार्टनर बदलते रहे थे. परन्तु उस का बिस्तर इसी जगह पर रहा है. खिड़की के पास, कम्पाउंड का वृक्ष और आसमान दिखाई दे उस प्रकार से. वृक्ष एवं आसमान उसे अत्यंत प्रिय थे. इस समय भी वह आसमान की ओर देख रही थी. वृक्ष को देखते ही उसे बैंगलोर याद आया. पृथ्वीसिंह को जब वह पिछली बार मिली तब अपने द्वारा कहे गए शब्द याद आये: ‘मुंबई में वृक्ष खोजने पड़ते हैं. यहाँ वृक्ष हमें खोजते हुए आते हैं.’ इस समय उसे पृथ्वीसिंह की याद क्यों आ रही है? राजश्री हँसते हँसते कैसा बोल गई. यदि वह स्वयं पृथ्वीसिंह से शादी कर लेती तो – परन्तु वह उस विचार तक पहुँच ही नहीं पाई. पृथ्वी उसे पसंद था. वह उस के साथ बातें करना पसंद करती थी. उसकी पारदर्शी सरलता एवं निर्दोषता उसे भीतर तक छू गई थी. पृथ्वीसिंह में सरलता थी, मधुरता थी और संपत्ति के बारे में निस्पृहता भी थी. फिर भी उस के लिए एक मित्र की हैसियत से आगे वह कुछ सोच नहीं पाई. उस रात उसे नींद में कभी राजश्री, कभी पृथ्वीसिंह तो कभी मोहिनी आंटी एक के बाद एक दीखते रहे. अशांत रात के बाद वह जब बिस्तर से उठी तब राजश्री कब की तैयार हो कर बैठी थी, ‘चल, कॉलेज चलना है न?’

शेफाली ने जंभाई लेते हुए कहा: ‘रात देर से बाद मेरी आँखें लगीं...हम..घंटेभर के बाद निकलते हैं.

इस एक घंटे के दौरान शेफाली प्रथम श्रीमती डिसूजा के पास गई और कहा: ‘आप की प्रार्थना में मैं शाम को शरीक होउंगी ही, परन्तु अभी भी आप मेरे लए प्रार्थना कीजिये. मैं बहुत घबडाई हुई हूँ.’

‘फ़िक्र मत कर, बेटी, सब ठीक हो जाएगा. इशु जिस का ख्याल रखते हैं उस का कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता.’ श्रीमती डिसूजा ने कहा. उन्होंने आँखे मूंदीं. मन ही मन कुछ अस्पष्ट स्वर में बोलीं और शेफाली के सर पर हाथ रखकर कहा: ‘जो कुछ भी करें उस में ईश्वर शामिल है उतना याद रखना. सब कुछ ठीक हो जाएगा.’ शेफाली को बहुत ही अच्छा लगा.

वह हॉस्टल से बाहर निकली. सामने ही बस-स्टाप था. वहाँ से उसे बस मिल सकती थी. बस की क़तार में उस के हॉस्टल की उन से जुनियर दो तीन लड़कियां थीं. शेफाली बस-स्टाप पर खड़ी रहे इस से वह हैरत में पड गईं. उन्होंने शेफाली को आदर के साथ देखा और स्मित किया.

शेफाली कॉलेज पहुंची. उन के अध्यापक, सहाध्यायी सब शेफाली को देखकर खुश हुए. परन्तु शेफाली अब मुंबई में नहीं पढ़ेगी यह जानकर वे हताश हो गए. यूनिवर्सिटी ट्रांसफर करवाने के लिए आवेदन कैसे करें, कहाँ करें इस के बारे में मार्गदर्शन प्राप्त किया. के.इ.एम्. अस्पताल के इस कॉलेज बिल्डिंग के साथ उसे लगाव हो गया था. जब वह उस विशाल मकान की शानदार सीढ़ियाँ उतर रही थी तब उस का कुछ उस मकान में पीछे छूट रहा था ऐसा वह अनुभव कर रही थी. जो यहाँ छोड़कर जा रही थी वह उसे बैंगलोर से मिलनेवाला था उस से कहीं अधिक मूल्यवान था ऐसा उसे लगता था. वह सन्न हो कर अंतिम सोपान उतर ही रही थी कि सहसा कोई परिचित आवाज उस के कानों में पड़ी: ‘शेफाली!’ वह चौंकी, उस ने देखा तो सामने की लिफ्ट में दरवाजे पर डॉ. उमेश मिश्र खड़े थे.

शेफाली के विस्मय का ठिकाना न रहा. वह बैंगलोर में नहीं मुंबई में ही है इस की तसल्ली करने के लिए उस ने एक बार चारों और देख लिया और फिर पूछा: ‘डॉ. मिश्र, आप यहाँ कैसे?’

‘अपने एक पेशंट को मैंने मुंबई ऑपरेशन के लिए कहा था. पेशंट का आग्रह था कि ऑपरेशन के समय मैं उपस्थित रहूँ.’

‘यहाँ के. इ. एम. में है?’

‘नहीं, वह जसलोक में है. ऑपरेशन भी हो गया. पेशंट की स्थिति काफी अच्छी है. इसलिए सोचा कि आप से मिलने का चांस लूं.’

‘आप को कैसे पता चला__’

‘कल मुझे निकालना था इसलिए मैं आप से और श्री कृष्णराव से मिलने आपके घर पर आया था. मुझे पता चला कि आप चौबीस घंटे पहले ही मुंबई चली गई हो. कृष्णराव ने मुझ से कहा कि आप को नो-ओब्जेक्शन सर्टिफिकेट प्राप्त करने में मैं मदद करूं. इसलिए जसलोक में कार्य पूरा हो गया कि तुरंत मैं यहाँ आया.’

‘थेंक यूं, परन्तु मेरा काम ठीक से चल रहा है. मुझे मदद की जरूरत नहीं है. आप मिल गए यह अच्छा हुआ. लेकिन आप आप के कार्य के लिए जा सकते हैं. वापस कब जानेवाले हैं?’

‘यह अभी निश्चित नहीं बता सकता. रात को फिर से अस्पताल जाना है. तब तक फ्री हूँ. बाय द वे, आप कहाँ जा रही है?’

‘मैं यूनिवर्सिटी जा रही हूँ.’

‘यदि आप को एतराज न हो तो मेरे मित्र की गाड़ी है. मुंबई में ड्राइव करते समय किसी मार्गदर्शक साथ में हो तो मुझे ठीक रहेगा. मैं आप के साथ यूनिवर्सिटी चलूँ. मुझे वक्त ही गुजारना है.’

‘यू आर वेलकम. परन्तु आप का बेश कीमती वक्त को बर्बाद करके कुछ भी मत करना.’ शेफाली ने एक बार फिर से जोर देते हुए कहा.

‘आप के साथ बिताया गया समय शायद इस शहर में मेरा श्रेष्ठ समय होगा. आप इस के बारे में फ़िक्र न करें.’ डॉक्टर मिश्र ने कहा और कम्पाउंड में पार्क की हुई गाड़ी का दरवाजा शेफाली के लिए खोल दिया और वे खुद स्टीयरिंग सीट पर बैठे.

शेफाली ने अंदर बैठते हुए कहा: ‘थेंक यू डॉ. मिश्र.’

गाड़ी को कोलेज के कम्पाउंड से बाहर लेते हुए डॉ. मिश्र ने कहा, ‘शेफाली, आप मुझे ‘डॉ.मिश्र’ कहती हैं तब कुछ ज्यादा औपचारिक लगता है.’

‘उमेशभाई कह कर पुकारूं?’

यह सुनकर उमेश का हाथ स्टीयरिंग पर जरा सा कांप उठा. उस के चेहरे की रेखाएँ कुछ तंग हुईं परन्तु यह जवाब जैसे सूना ही न हो ऐसे उस ने कहा: ‘शेफाली, मैं आप का यह शहर आप की नजरों से देखना चाहता हूँ. दिखाएंगी न?’

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गुरु रामदास सराय के एक कक्ष में त्यागी और कुलदीपसिंह बैठे थे. कुलदीपसिंह के चेहरे की रेखाएँ कुछ तंग थीं.

‘करतार...’

‘करतार नहीं, त्यागी.’

‘हाँ त्यागी...’ कुलदीप ने होंठ चबाये: ‘इस लड़के को कुल मिला के कितनी जायदाद मिलनेवाली है? पन्द्रह करोड़, पचीस करोड़, पचास करोड़? इतनी राशि केलिफोर्निया के मेरे चार मित्र मिलकर दे सकते हैं. इस के लिए इतने सारे कार्यकर्ताओं का समय तू क्यों खराब कर रहा है?’

‘कुलदीप, तूं क्या यह समझता है कि मेरी नजर उस लड़के के करोड़ रूपये पर है?’

‘फिलहाल तो ऐसा ही लगता है.’

‘कुलदीप तेरा दिमाग ठिकाने पर तो है न? तुझे मालूम है कि डॉक्टर पंडित की कश्मीर मैं संपत्ति है?’

‘हँ...!’ कुलदीप की आँखों में चमक दिखाई दी.

‘उसका एक फ़ार्म पाकिस्तान की सरहद के करीब ही है. और श्रीमती पंडित मूल पंजाबी है यह तो मालूम है न तुझे?’

‘हाँ.’

‘उनके पिता की संपत्ति यहाँ से (अमृतसर से) कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर पकिस्तान की सरहद से दस-बारह किलोमीटर ही दूर है. ये दोनों संपत्ति की कीमत सबकुछ मिला के चालीस लाख से ज्यादा नहीं. परन्तु हमारे लिए ये अरबों से भी ज्यादा मूल्यवान हैं. पाकिस्तान से जाते और आते हमारे आदमिओं के बारे में किसी को संदेह पैदा न हों ऐसा भूमिगत निवास्थानॉ का निर्माण इन दोनों स्थानों पर किया जा सकता है. अब इस प्रकार सरहद के नजदीक की सैंकडों एकड़ जमीन आसानी से हमारे हाथ लग सकती हो तो उसे क्यों जाने दें?’

कुलदीपसिंह ने त्यागी का हाथ हाथ में ले कर कहा: ‘शाबाश, दोस्त, तूं गुरु का नाम रोशन करेगा.’

‘उस लड़के को अमृतसर लाने के पीछे मेरा एक दूसरा मकसद भी है.’

‘क्या?’

‘यहाँ की संगत, जरनलसिंह के आसपास के लोग आदि को वह देखें फिर उस का हिंदुओं के बारे में अभिप्राय बदल जाएगा.’

‘वह इतना झनूनी नहीं लग रहा.’

‘संत जनरलसिंह खालसा भी कहाँ जुनूनी थे? यह लड़का अभी मितभाषी व शांत है. कुछ दिनों में हम उस की आँखों में जुनून ला देंगे.’

दोनों हंस पड़े.

बाहर कीर्तन चल रहा था. पृथ्वीसिंह अपना ज्यादातर समय कीर्तन सुनने में बीतता था. दो तीन घंटे वह संत भिंडरांवाले की संगत में बैठता था. उसकी इच्छा संत हरचंद लोंगोवाल से मिलने की थी, परन्तु सब उसे उस तरफ जाने से रोकते थे. कुछ ही क़दमों का फांसला था. परन्तु सामने के ‘समंदरी’ मकान में जाने के लिए उसने जितनी बार कोशिश की उतनी बार किसी न किसी बहाने उसे रोक दिया गया था. वह कीर्तन से उठा और गुरु नानक निवास की ओर जाने के बजाय सीधा समंदरी पर गया. वहाँ दाखिल होते ही बाएं हाथ पर ऑफिस था. वह उस में दाखिल हुआ. टेबिल पर एक मध्य उम्र का सीख इस युवक को देखकर करीब करीब खड़ा हो गया. ‘कौन हैं आप?’ उसने पूछा.

‘मेरा नाम पृथ्वीसिंह. मैं संतजी से मिलना चाहता हूँ. आप ही अविनाशिसिंह है न?’

‘हाँ. क्या काम है संतजी से?’

‘संतजी ने मुझे लुधियाना में आशीर्वाद दिए उस के बाद मेरे जीवन में भारी परिवर्तन हुआ. मैं उन से सलाह मशविरा करना चाहता हूँ.’

‘संतजी आज जालंधर में हैं. दो दिन के बाद मिलेंगे.’

पृथ्वीसिंह वहाँ से बाहर निकला तब दरवाजे के करीब त्यागी खड़ा था. उसने हंसकर कहा: ‘पृथ्वी, संतजी यहाँ नहीं है. वरना मैं ही तुझे उनके पास न ले जाता? तेरे जाने से पहले वे तुझे अवश्य मिलेंगे. चल, ऊपर संगत में बैठें.’

‘नहीं भाईसाहब, मैं ज़रा बाजार जा रहा हूँ.’

‘किसी को साथ में भेजूं?’

‘मेरे ऊपर निगरानी रखने के लिए?’

‘नहीं, यह तो...’

‘मैं पहली बार अमृतसर नहीं आया. यहाँ के रास्ते मेरे लिए अपरिचित नहीं है.’

त्यागी ने स्थिर दृष्टि से पृथ्वीसिंह की और देखा. उस दृष्टि में कुछ सख्ती थी. वह उस दृष्टि के आगे विवश हो रहा हो ऐसा अनुभव पृथ्वी कर रहा. त्यागी बिना कुछ बोले वापस लौट गया. पृथ्वीसिंह को बाजार जाने का मन नहीं हुआ. उस के पाँव सहज भाव से हरमन्दिर की दिशा में मुड गये.

उस के दो और दिन इसी प्रकार से बीते. वह घबड़ा गया था. उसके मन में आया कि वह अमर दासपुर जा कर गुरूजी के साथ बात करें. शायद उससे उसे सान्त्वन मिले. रामदास सराय में त्यागी के आने के बाद उसे दी गई कोठरी में से वह बाहर निकला. बाहर बेंच पर एक अखबार पडा था. उस ने सहज भाव से अखबार उठाया. सहसा उस की नजर अखबार में बड़ी अक्षरों में छपी खबर की और गई. ‘रहस्यमय हत्या का सुराग मिला!’ ऐसे शीर्षक के अंतर्गत उस ने पढ़ा: ‘एक चंद्रसेन नाम के युवक को राजस्थान की पुलिस ने पकड़ा है. यह नौजवान दिल्ली का बेंक लूटने की घटना में एवं सरसपुर के डाक बंगले में हुई रहस्यमय हत्या की घटना में शामिल था ऐसा उसने कबूल किया है!’

पृथ्वी के हाथों से अखबार छूट गया. उस की नजर के सामने मोहिनी की मृतदेह छा गई. मेरी माँ को मौत की नींद सुला देनेवाला यह मानवी कौन होगा? पृथ्वी का दिमाग काम नहीं कर रहा था. वह वहीँ बेंच पर ही बैठा रहा.

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रचनाकार: हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 8 वीं किश्त
हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 8 वीं किश्त
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