हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 9 वीं किश्त

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वसीयत – ९

उपन्यास

हरीन्द्र दवे भाषांतर: हर्षद दवे

घटनाओं का जैसे एक सिलसिला पूरा हुआ हो ऐसा लगा शेफाली को. ठीक नौ सप्ताह पहले आज की ही तरह बैंगलोर से फोन आया था. वही डॉ. मिश्र की आवाज. पलभर के लिए उसके मन में आया कि डॉ. मिश्र ने उस के साथ किसी षड्यंत्र तो नहीं रचा होगा? उस ने कहा भी: ‘स्टॉप किडिंग, डॉ. मिश्र, अब क्या होनेवाला था. आज ही निकलना अब मेरे लिए संभव नहीं. दो पहर मेरे मित्रों ने मिलन का आयोजन किया है.’ परन्तु डॉ. मिश्र वाकई गंभीर थे. ‘फोन पर बात नहीं कर सकता, परन्तु बेरिस्टर मोहंती का मानना है कि बैंगलोर में आपकी उपस्थिति बहुत ही आवश्यक है.’  

नौ सप्ताह बाद फिर वही आवाज, वही हवाई जहांज और वही विचार.

मुंबई में दस दिन कैसे गुजर गए इस का जरा भी ख्याल शेफाली को नहीं आया था. उस का काम तक़रीबन पूर्ण हो गया था. केवल कुछ मित्रों से मिलना शेष बचा था. वह दो-चार दिन में सब को मिल लेगी ऐसा उसने सोचा था. शुरू में एकाध दिन उमेश मिश्र के साथ बिताया, उस में सोचे हुए काम नहीं हो पाए. उमेश क्या हकीकत में अपने किसी मरीज के लिए ही आया होगा? यदि ऐसा होता तो भी उसने अधिकतम समय मेरे साथ ही बिताया था. रात गाड़ी में हॉस्टल तक छोडने आया, अभी वह तैयार हो रही थी उतने में सवेरे ही उस का फोन आया और फिर आधे घंटे में बाहर होर्न बजाया. हॉस्टल में सब शेफाली का मजाक उड़ाने लगे थे: ‘लड़का अच्छा है. डॉक्टर भी है. एम. डी. है या एम. एस?’ ऐसे प्रश्न उसकी सखियाँ पूछने लगीं थीं. तीसरे दिन सवेरे वह जानेवाला ही था. अगली रात को सारी बातें हो चुकी थीं. फिर भी सवेरे उस का फोन आया: ‘शेफाली, रात को ‘अलविदा’ कह दिया था. फिर भी मेरे से नहीं रहा गया.’ शेफाली ने कुछ सख्त आवाज में कहा: ‘ आप से रहा नहीं जाए इसलिए मुझे फोन करें ये भी कोई बात है? यहाँ हॉस्टल में सब मेरा मजाक उडा रहे है.’ चौथे दिन सवेरे बैंगलोर पहुंचकर उमेश मिश्र ने फोन किया तब शेफाली ने नंदिता से कहलवा दिया: ‘शेफाली बाहर गई है. क्या काम है?’ ‘विशेष कुछ नहीं. मैं पहुँच गया हूँ और मम्मी-पप्पा मजे में हैं इतना संदेशा दे देना.’ नंदिता हँसती हुई आई: ‘शेफाली वे पहुँच गए हैं. चिंता मत करना.’ इतना कहकर वह गाने लगी: ‘जानेवाले पयाम देते हैं....’ शेफाली चुप रही. ऐसी किसी शरारत का जवाब देने जाती तो बात का बतंगड बन जाता इस बात पर उसे यकीन था.

उमेश मिश्र ने दो दिनों के दौरान शेफाली के करीब आने का स्पष्ट रूप से प्रयास किया था. यूनिवर्सिटी का काम हो जाने के बाद उसने प्रस्ताव रखा कि: ‘आप के किसी मनपसंद स्थान पर जा कर कॉफ़ी लेते हैं.’ उमेश मिश्र के इन शब्दों के पीछे कोई इरादा होगा ऐसा संदेह उसे हुआ, परन्तु वह शर्मीली एवं मितभाषी होने के कारण ऐसा संदेह कर रही है यह समझकर उसने कहा: ‘यहाँ पास ही ताज में जाते हैं.’

‘इंटरकोंटीनेंटल में?

‘नहीं, पुराने ताज में. वहाँ के सी-लाउंज में अभी सादगी एवं शालीनता बरकरार हैं. जब मैं एक दो घंटे शांत वातावरण में पढ़ना चाहती तब सवेरे नौ बजे वहाँ पहुँच जाया करती थी. कभी कभी तो सबसे पहले मेरा ही प्रवेश होता था.’

सी-लाउंज में समंदर की ओर दोनों आमने सामने बैठे. ‘आज सागर शांत है. आप के चेहरे जैसा.’ उमेश ने कहा.

‘आप कविता करने लगे, डॉ. मिश्र ?’

‘फिर से डॉ. मिश्र? आप मुझे केवल डॉक्टर के रूप में ही स्वीकारती हैं क्या? क्या आप मेरा एक आदमी की तरह या उमेश के रूप में स्वीकार नहीं करोगी?’

‘उमेशभाई इतना जल्दी होटों पे नहीं आता. डॉ. मिश्र कहने की आदत जो पड गई है.’

‘अब हम एक ही व्यवसाय के हुए और कुछ समय के बाद एक साथ कार्य भी कर रहे होंगे.’ उमेश ने कहा.

‘यदि मैं बैंगलोर में प्रेक्टिस करना पसंद करूँ तो न ?’

‘क्यों? आप गाँव में जाना चाहती हैं?’

‘नहीं, परन्तु बैंगलोर के सिवा कहीं और भी तो प्रेक्टिस की जा सकती है न?’

‘बैंगलोर में क्या दिक्कत है? वहाँ मैं प्रेक्टिस कर रहा हूँ इसलिए?’

शेफाली कुछ नहीं बोली. उमेश मिश्र बैंगलोर में बिलकुल मितभाषी थे. उनके करीब से गुजर रहे हो तो ‘हेलो’ भी धीरे से बोलते थे. मुंबई आ कर वह अचानक इतने बातूनी हो गया इस बात का शेफाली को विस्मय हुआ. उमेश दिखने में अच्छा था. लंबा था. डॉक्टर के नाते सब उसकी प्रशंसा करते थे. डॉक्टर अंकल की मृत्यु के पश्चात उसने नर्सिंग होम अच्छी तरह से सम्हाल लिया था. वह शादीशुदा नहीं था. अकेला ही रहता था. एकाध बार कृष्णराव ने बातों ही बातों में कहा था, ‘डॉ. मिश्र बहुत अच्छे आदमी है. किसी किस्मतवाली लड़की को ही उसके जैसा दूल्हा मिलेगा.’ शेफाली के अब कुछ पल्ले पड़ने लगा. वह कुछ ही समय में डॉक्टर बन जाएगी. शायद उमेश दूर की सोच रहा होगा.

उमेश मुंबई की, मुंबई स्थित उस के डॉक्टर मित्रों की, मुंबई के अस्पतालों की बातें करता था. शेफाली उस की ओर देखती ही रह गई थी. मान लीजिए कि ऐसे आदमी को पति के रूप में पसंद करने की नौबत आ जाए तो वह क्या करती? ‘मैं मना ही कर दूँ’ उसने मन ही मन जवाब दिया. मना करने के लिए कोई स्पष्ट कारण नहीं था. अभी ‘हाँ’ करनी पड़े ऐसा प्रश्न भी नहीं पूछा गया था.

उमेश ने बाद के दो दिन शेफाली को करीब करीब अपने जाल में फंसाए रखा. हर बार शेफाली बच निकलने का प्रयास करती, परन्तु उमेश किसी न किसी बहाने उसे अपने साथ घूमने और दिन बिताने के लिए विवश कर देता था. तीन साल के मुंबई के निवास के दौरान उसने इतने होटल नहीं देखे थे. किसी व्यक्ति के साथ इतना नहीं घूमी थी. फिर भी किसी व्यक्ति से बचने के लिए इतनी बेकरारी से छटपटाई भी नहीं थी.

इसीलिए ही सवेरे जब उसका सन्देश मिला कि बैंगलोर से फोन है, तब पहले तो ‘नहीं’ कहलवाने को मन हुआ. फिर उस के मन में ही विचार आया कि यह ऐसे ही गप लड़ाने के लिए फोन नहीं किया होगा. उमेश की आवाज कुछ ज्यादा गंभीर थी. फोन पर बात करने के बाद उसने श्रीमती डिसूजा से कहा, ‘मेडम, मुझे आज ही जाना पड़ेगा.’

‘क्यों बेटी? वहाँ सब ठीक ठाक तो है?’

‘मालूम नहीं. ऊपर ऊपर से सब ठीक होगा. परन्तु कुछ ऐसा हुआ है कि मेरा वहाँ पहुंचना आवश्यक है. फोन पर डॉ. मिश्र ने क्या हुआ है यह नहीं बताया.’

‘सारी बातें फोन पर नहीं हो सकती. विशेष रूप से वसीयत की बात.’

‘वसीयत’ शब्द सुनते ही अब शेफाली ‘डिप्रेशन’ में आ जाती थी. यह शब्द सबसे पहले उसने नौ हफ्ते पहले बैंगलोर के एयरपोर्ट से घर जाते समय डॉ. उमेश मिश्र से ही सूना था. इस के बाद लगातार यह शब्द रोज उस के कान से टकराया करता था. आज श्रीमती डिसूजा के मुंह से यह शब्द सुना तब उसका दिल भीतर से बैठता जाता हो ऐसा लगा. ‘मेडम, सच कहूँ? जिस पल से यह वसीयत शब्द मेरे जीवन में दाखिल हुआ है तब से मैं जीने का आनंद खो बैठी हूँ. पहले कभी आप के साथ शाम की एक भी प्रार्थना छोड़ी थी? इन दस दिनों में मुश्किल से तीन दिन शाम को आप के साथ बैठी होउंगी. यही दर्शाता है कि वसीयत ने मुझे सब से – खुद ईश्वर से भी - दूर धकेल दिया है.’ शेफाली के शब्दों में वेदना थी. श्रीमती डिसूजा ने कोई उत्तर नहीं दिया. केवल शेफाली के कंधे पर हाथ रखा. वे एकाध मिनट मौन रहीं और फिर कहा ‘मैं टिकट का प्रबंध करती हूँ. जोशी काका तुझे छोड़ने के लिए आएँगे.’

‘मेडम, टिकट का प्रबंध हो जाएगा तो मैं अकेली ही एयरपोर्ट पहुँच जाउंगी.’

शेफाली हवाई जहाज में बैठकर यही सबकुछ सोच रही थी. घटनाओं ने एक चक्र पूरा किया था. फिर भी वह जिस बिंदु पर नौ सप्ताह पहले थी, वहाँ से काफी आगे निकल चुकी थी. वह अकेली ही टेक्सी में सांताक्रूज पहुंची. अपने में यह नया आत्मविश्वास कैसे पैदा हो गया यह उसकी समझ में नहीं आ रहा था. शायद संपत्ति आदमी को विश्वास दिला देती होगी ऐसा उसे लगा.

उस के पास मैं बैठा यात्री किसी भी पल बात करने का मौक़ा मिल जाये उसी ताक में उत्सुक हो कर बैठा था. एक दो दफा छोटे मोटे बहाने ढूंढकर उसने बात करने की कोशिश भी की परन्तु संक्षेप में जवाब दे कर शेफाली खिड़की के पास आँखें मूंदकर बैठी. हवाई जहाज की गति के साथ उस का मन भी गतिशील हो गया था. फिर से वह बैंगलोर में वोही चक्कर में फंसेगी. वकील, सोलिसिटर, कायदे की परिभाषा, जायदाद, वसीयत, वसीयत के लिए लड़ने की बात – इन सब से उसे दस दिन तक मुक्ति मिली थी. फिर से वोही वातावरण उस की राह देख रहा था.

डॉ. उमेश मिश्र ही एयरपोर्ट पर आये थे.

‘शेफाली, आप को पसंद आये कि नहीं परन्तु हमें मिलना पड़े, साथ जाना-आना पड़े ऐसे संजोग तो बनते ही रहेंगे.’ डॉ. मिश्र ने कहा.

‘मुझे पसंद नहीं ऐसा क्यों मान रहे हैं? मेरी पसंद या नापसंद का कोई कारण ही नहीं है. मुझे कहिये, मेरी आज तुरंत क्या जरूरत है?’

‘यह कहने का काम बेरिस्टर साहब के लिए छोड़ दूं तो?’

‘जैसा आप चाहें.’

‘मैं नहीं जानता ऐसा दंभ नहीं करूँगा. परन्तु इन सारी बातों में आप की जरूरत कहाँ है यह शायद बेरिस्टर साहब ही ज्यादा बता सकते हैं. मुझ से कृष्णराव ने सवेरे कहा कि शेफाली को कोल कर के आज ही बुला लेना है. कल रात किसी महत्वपूर्ण संदेशा बेरिस्टर साहब को मिला था.’

शेफाली कुछ नहीं बोली. इस समय उसे पिता से मिलने का या बेरिस्टर मोहंती से मिलने का कोई उत्साह न था. कोर्ट में कोई अरजी पेश करनी होगी. हो सकता है उस के ऊपर दस्तखत करने के लिए ही उसकी जरूरत पड़ी होगी. सवेरे वह जगी तब दोपहर को कॉलेज के मित्रों से मिलने का उत्साह था. अभी उन मित्रों के बजाय वकीलों की कॉन्फरंस में बैठना पड़ेगा. वह फिरसे वही दुनिया में आ गई. और अब शायद हमेशा के लिए आ गई! उस का ट्रांसफर सर्टिफिकेट, कॉलेज में प्रवेश पाने के लिए महत्वपूर्ण कागजात उस के सूटकेस में ही थे.. अब मुंबई का वह कॉलेज, वे अध्यापक और वे मित्र__ सब कभी कहीं जीवन के बहाव में मिल जाये तब सिर्फ ‘हाय-हेलो’ कहनेभर का रहा. अब वह मुंबई की मिट कर फिर से बैंगलोर की हो गई थी. सूखे सूखे से मुंबई में कहीं ह्रदय में हरियाली जिवंत थी. हरेभरे बैंगलोर में आते ही ह्रदय से अंतिम हरा पत्ता झड गया हो ऐसा अनुभव वह कर रही थी.

‘मेरे ऊपर काफी गुस्सा हैं आप?’ डॉ. मिश्र ने पूछा.

‘क्यों, मैं क्यों गुस्सा करूंगी?’

‘किसे पता? उस दिन आप फोन पर नहीं आईं. आप की आवाज सुनने के लिए मैं कितना बेकरार था! मेरे ये कुछ दिन कैसे बीते यह तो मेरा मन ही जानता है.’

‘क्यों? क्या हुआ? आप का वह पेशंट सीरियस है?’

शेफाली के सवाल में छिपा व्यंग्य उमेश भांप गया. उसने प्रत्युत्तर नहीं दिया. शेफाली को लगा कि वह उमेश के साथ जरा ज्यादा सख्ती से पेश आ रही है. परन्तु उमेश ने अभी अभी जिस प्रकार से बोलना शुरू किया था यह देखते हुए इस प्रकार का व्यवहार करने के सिवा और कोई चारा भी तो नहीं था.

दोनों घर पहुंचे तब वहाँ वकीलों का मिनी कॉनफ्रंस ही चल रहा था. शेफाली ने सोचा था वह घर पहुँच कर कुछ देर तक आराम कर पाएगी. परन्तु पहुँचते ही संदेशा मिला कि ‘फ्रेश हो कर सीधे ही डॉक्टर अंकल के ड्रोइंग रूम में आ जाना’. जब वह डॉक्टर के ड्रोइंग रूम पर पहुंची तब वहीं वेरिस्टर मोहंती, एडवोकेट देव कामथ, सॉलिसिटर अमिन, कृष्णराव आदि बैठे थे. शेफाली के दाखिल होने पर अमिन ने कहा, ‘लीजिए बेरिस्टर, आप की क्लायंट सवेरे फोन किया और अभी यहाँ. मैंने तो सवेरे लुधियाना तार दे दिया है. अब कब जवाब आये और कब पृथ्वीसिंह यहाँ पहुंचे.’

‘पर बात क्या है?’ शेफाली ने पूछा: ‘मुंबई में मुझे संदेशा मिला तब से चिंता से मेरा हाल बुरा हो गया है.’

‘चिंता करने जैसा कुछ भी नहीं है. केवल हम सब मिलकर दो तीन दिन से कोई उपाय ढूँढने की कोशिश कर रहे थे. इतने में एक नई खबर मिली. कल रात ही पता चला कि राजस्थान की पुलिस ने एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है और उसे सरसपुर के डाक बंगले में हुई हत्या के बारे में कबूलियत दी है.’

‘फिर तो ठीक है, मोहिनी आंटी जैसी सरल व्यक्ति की हत्या कोई क्यों करेगा इस का रहस्य मालूम पड जाएगा.’

‘ऐसा नहीं है. इस से इस केस में समाधान की संभावना कम हो जाएगी.’

‘क्यों?’

‘कातिल यदि क़त्ल का ठीक समय दर्शाता है तो दोनों पक्षों के बीच फिर से विवाद हो सकता है.’

‘कैसे?’

‘यदि वह समय बहुत पहले का हो तो अमीन साहब उस के सामने विरोध प्रकट करेंगे. और बाद का हो तो मैं.’ बेरिस्टर मोहंती ने कहा.

‘आप अतीत में जा कर हत्यारे के द्वारा की गई हत्या का समय बदल पाएँगे क्या?’

‘नहीं, परन्तु तथाकथित कातिल जो भी समय दर्शाएँ उस पर विश्वास कैसे कर लें यही हमारी उलझन है.’

‘डॉक्टर अंकल ने जो कुछ भी मुझे दिया है. मैं उतने में ही संतुष्ट रहूँ फिर भी?’ शेफाली ने पूछा.

‘तू किस से संतुष्ट होती है यह प्रश्न ही नहीं है. सवाल यह है कि तेरे हिस्से में बाकायदा क्या आना चाहिए?’ मोहंती ने कहा.

‘फिर तो कातिल जो कुछ भी कहे उस समय को हमें समय मान लेना चाहिए. पृथ्वीसिंह को सबकुछ मिलना हो तो भले मिले.’

‘तेरे लिए कहना जितना आसान है, हमारे लिए ऐसा करना उतना आसान नहीं है.’

‘क्यों?’

‘मान लीजिए कि पृथ्वीसिंह सारी जायदाद पर दावा करे तो?’

‘यदि बकायदा ये उसे मिलती हो तो दावा कबूल रखना.’

‘बाकायदा किसे कहें?’

शेफाली उलझ गई. अमीन ने कहा, ‘शेफाली, हम केवल तुम्हारी ही चिंता नहीं कर रहे. तेरे जितना ही ख्याल हमें पृथ्वीसिंह का भी है. उसे भी न्याय मिलना चाहिए. कितना अच्छा लड़का है वह! उसका कोई नहीं इस बात का फायदा हम कैसे उठा सकते हैं?’

‘फिर भी शेफाली का जितना हक है उतना हक तो पृथ्वीसिंह का नहीं हो सकता न?’ कृष्णराव ने कहा. ‘आखिरकार वह यतीम बच्चा है. शेफाली को तो डॉक्टर पंडित ने गोद ही लिया था.’

‘कृष्णराव’, अमीन ने कहा, ‘आप पृथ्वीसिंह की उपेक्षा बिलकुल नहीं कर सकते. श्रीमती पंडित पंजाब की थीं. पृथ्वीसिंह पंजाब के अनाथाश्रम में पला है. उन दोनों के बीच दूर का या निकट का रिश्ता हो भी सकता है.’

सब यह बात समझते थे. फिर भी अमिन ने उसे स्पष्ट रूप से कहा तब सब सन्न रह गए.

‘उन दोनों के बीच दूर का या निकट का रिश्ता हो भी सकता है.’ ये शब्द शेफाली के दिमाग में गूंजते रहे.

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पृथ्वीसिंह बैठकर सोच रहा था कि उस के कंधे पर किसी ने हाथ रखा. उसने चौंक कर नजरें ऊपर उठाई. बैंगलोर में मिला था वही वृद्ध रणजीतसिंह उसके पास खड़ा था. उसने पृथ्वी के हाथ में हवाई जहाज का टिकट थमाया. टिकट अमृतसर से दिल्ली और दिल्ली से बैंगलोर की यात्रा के थे. साथ के कागज पर दोनों फ्लाईट के समय दर्शाये गए थे.

‘यह क्या?’

‘तुझे आज बैंगलोर जाना है.’

‘क्यों?’

‘वहाँ तेरी जरूरत है.’

‘त्यागीजी...’

‘वे तुझे अभी मिलेंगे. वे तेरे साथ दिल्ली तक आएँगे. फिर बैंगलोर में मिलेंगे.’

‘पर बैंगलोर में है क्या?’

‘तूं ने आज का अखबार पढ़ा?’

‘हाँ.’

‘’तेरी समज में कुछ आया?’

‘हाँ, परन्तु उसके लिए मुझे जयपुर जाना चाहिए.’

‘नहीं, जयपुर का मामला सम्हाल लिया जाएगा. इस पल तेरी जरूरत बैंगलोर में है.’

‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा.’

‘तुझे समझने की आवश्यकता नहीं है. तेरी तरफ से अकाल पुरुष सब कुछ समझते हैं, सोचते हैं, करते हैं.’

‘अकाल पुरुष? उन्हें इस वसीयत में, हत्या में, झगड़े में क्या दिलचस्पी हो सकती है?’ पृथ्वी के मुंह से सवाल निकल पड़ा.

‘वक्त आने पर उसका जवाब भी तुम्हें अकाल पुरुष से ही मिलेगा. अभी तू स्नान कर के जल्दी से हरमंदिर साहब के दर्शन कर के आ जा. फिर तुझे तुरंत निकलना है.’

इस आदमी से ज्यादा बहस करने का कोई मतलब नहीं है ऐसा पृथ्वी को लगा. उसने स्नान कर के कपड़े बदले. अपना सामान छोटे से सूटकेस में पैक किया. वह सराय से बाहर निकला. लंगर और मंदिर के बीच के रास्ते से वह परिक्रमा में प्रविष्ट हुआ और वहाँ से अकाल तख़्त के पास निशान साहब के करीब पलभर खड़ा रहा. शक्ति व भक्ति के प्रतीक के पास उसने कुछ देर तक माथा टेका. और फिर हरमंदिर साहब में गया. वहाँ शबद कीर्तन चल रहे थे. रागी मधुर स्वर में गा रहा था:

माछी तारू किआ करे

पंखी किआ करे आकासु...

[मछली जल में क्या कर सकती है? पक्षी आसमान में कहाँ तक जा सकता है?]

गुरु नानक ने सदियों पहले जैसे उस के मन के भाव रचे हों ऐसा लगा. वह खुद गहरे जल की मछली है – वह ज्यादा से ज्यादा जल की गहराई का कितना भेद जान सकती है? या वह एक पक्षी है. वह सारे आसमान की थाह कैसे ले सकता है? वह कुछ देर तक वहाँ के वातावरण की शुद्ध हवा को सांस में भरता बैठा रहा. वह इस धर्म के माहौल में पलकर बड़ा हुआ था. गुरू एवं संतों की परम्परा का वह बचपन से ही सम्मान करता आया था. भिंदरावाले दमदमी टकसाल के संत है वह उसे याद आया. अब्दाली की अफगान सेना के हाथों से हरमंदिर को उबारने के लिए बाबा दीपसिंह मैदाने जंग में उतरे थे. उन्होंने हरमंदिर में ही प्राणत्याग करने का निश्चय किया था. अफगान सैनिक ने उन का सर उतार लिया तब वे अश्व पर सवार थे. अश्व हरमन्दिर साहब से कुछ ही दूरी पर था. उन्होंने हाथ में अपना सर पकड़ कर अश्व को एड लगाईं. अश्व विद्युतगति से उछला और हरमंदिर साहब आ कर रूका. हरमंदिर साहब में दाखिल होने के बाद ही उन्होंने आखिरी सांस ली. इस दमदमी टकसाल के संस्थापक के साथ अब संत जरनैल सिंह, त्यागी, रंजीतसिंह आदि का नाता जोड़ते हुए उसे तकलीफ हो रही थी. उसका मन यह सब स्वीकार ने से मना कर रहा था. रागी कीर्तन को बहला कर गा रहे थे. पृथ्वीसिंह को यहाँ अच्छा लग रहा था और वह इस माहौल में रहना चाहता था. परन्तु यहाँ से जाने के सिवा और कोई चारा न था. उसने भारी दिल से वहाँ से विदा ली. पवित्र सरोवर के बीच के मार्ग से वह गुजर रहा था तब वह अपने प्रिय माहौल से दूर होता जा रहा हो ऐसा उसे लग रहा था. फिर से वह उस लंगर के पास होता हुआ सराय पर पहुंचा.

वहाँ त्यागी उसकी राह देख रहा था.

‘पृथ्वी, हरमंदिर साहब हो आया?’

‘हाँ.’

‘अच्छा किया. दशम गुरु तुझे प्रेरित करते रहे ऐसी मेरी प्रार्थना है. रणजीतसिंह ने तुझे खबर कर दी है न ?’

‘हाँ, टिकट भी दिया.’

‘मैं तेरे साथ हवाई जहाज में हूँ. परन्तु तेरे साथ नहीं बैठूंगा. दिल्ली के हवाईअड्डे पर मैं तुझसे मिलूँगा.’

‘भाईसाहब,’ पृथ्वीसिंह ने पूछा, ‘ऐसे छिप छिप कर फिरना, गुप्त प्रकार से मिलना, स्टेनगन ले कर दहशत फैलाना यह सब पंथ में कहाँ लिखा है यह मुझे कहेंगे?’

त्यागी की आँखे सख्त हुई: ‘लड़के, तू क्या कहना चाहता है?’

‘दशम गुरुने – गुरु गोविन्द सिंहने केश, कडा, लंगोट (कच्छ), कंधा एवं किरपाण रखने को कहा तब उनका कोई शिष्य बिन पहचाना न रहे इसलिए ऐसा कहा था. उन्होंने छिपने की बात नहीं कही थी. गुरु तेगबहादुर का मस्तिष्क ले कर जैता छिपते छिपाते आया उस से दशम गुरु नाराज हो गए थे. इसलिए ही अपना कोई शिष्य कायरता न दिखाएँ इस के लिए खालसा पंथ की स्थापना की. आज मुझे आप से छिपकर रहना है? आप कहते हैं कि मोहिनी मेरी माँ थी इसलिए क्या मुझे यह मान लेना होगा? आप अन्य तफसील आप की फुर्सत में कहे तब तक क्या मुझे तड़पते रहना होगा? आप कौन हैं? आप को मुझ में और मेरी वसीयत में क्या दिलचस्पी है? जिस संत लोंगोवाल ने मुझे आशीर्वाद दिए उनका आप सब यहाँ पर अनादर कर रहे हैं. आप के कहे अनुसार मैं कुछ भी क्यों करूँ? बैंगलोर में मुझ से कोई काम होगा तो अमिन साहब संदेशा भेजेंगे. आप मेरे लिए इतना खर्च क्यों करते हैं?’

पृथ्वीसिंह तैश में आ कर बोलता हुआ कांप रहा था. वह और भी बोलना चाहता था, परन्तु त्यागी प्रसन्न मुख से मुस्करा रहा था, इसलिए वह चुप हो गया. चुप्पी लगाने के बाद भी उसके होंठ कुछ फडफडाते थे.

त्यागी ने शांति से जेब से एक तार निकला और पृथ्वी के हाथ में रखा. पृथ्वी ने उत्सुकता से तार पढ़ा. सोलिसिटर अमिन ने उसे हो सके उतनी जल्दी बैंगलोर आने के लिए कहा था. तार लुधियाना के होटल के पते पर आया था.

‘यह तार आप के पास कहाँ से?’

‘कल ही मुझे लुधियाना से मिला. मैंने तुरंत टिकट का बंदोबस्त किया.’

‘मुझे क्यों नहीं बताया?’

‘तुझ से कहते तो भी तत्काल ओ.के. टिकट तुझे कैसे मिलनेवाला था? तेरी चिंता में वृद्धि करने के बजाय तुझे तैयार टिकट देना मुझे ज्यादा उचित लगा. तेरे कुछ सवाल के जवाब तो तुझे इस में ही मिल गए. बैंगलोर में मुझे तुझसे कोई काम नहीं. अमिनसाहब ने ही तुझे बुलाया है. मैं छिपता रहूँ वह केवल पंथ के दुश्मनों से ही सिर्फ पंथ के लिए. पंथ के लिए हम कुछ लोग सर हाथ में लिए घूम रहे हैं, जान हथेली में लिए पंथ का काम कर रहे है.’

यह सुनकर पृथ्वी कुछ देर के लिए शांत हुआ, परन्तु फिर तुरंत ही उसने कहा: ‘परन्तु मेरी माँ? उनकी हत्या चंद्रसेन ने की? मतलब कि वह ट्रेन में मिला था वोही न? आप ने उस का मोना सीख के रूप में परिचय दिया था!’

‘हाँ.’

‘आप कह रहे हैं कि वह पंथ का मित्र है. किन्तु वह मेरा शत्रु निकला. पंथ इस प्रकार से हत्यारे रखकर हत्याएं करें और यतीम बच्चे को उसकी माँ से मिलने से रोकता है?’

‘पृथ्वी यह भी तूं समझेगा. वक्त आने पर समझेगा. मैं कौन हूँ, तेरा मित्र कौन है, पंथ क्या है, ये सारे भेद तेरे सामने खुलेंगे.’

पृथ्वीसिंह मौन रहा. त्यागी के पास सारे सवालात के जवाब थे. ये जवाब उस के दिमाग में आते थे, परन्तु मन स्वीकारता नहीं था.

त्यागी ने कहा: ‘पृथ्वी, पंथ के लिए लोग कैसे बलिदान करते हैं यह बात मुझे तुझ से कहने की जरूरत नहीं रहेगी. वक्त आने पर अपने आप तुझे यह सब मालूम हो जाएगा. हाँ, यदि तुझे मेरी कोई जरूरत न हों तो इस पल के बाद मैं तुझ से कभी नहीं मिलूँगा.’

यह सुनकर पृथ्वी घबडाया. इस समय त्यागी को छोड़कर उसे निकट से पहचान ने वाला ओर कोई न था. किन्तु वह उस आदमी को जान नहीं सकता था. ‘मेरे कहने का मतलब यह नहीं है.’ पृथ्वी ने कहा.

‘लड़के, तुझे यह समझना पड़ेगा कि पंथ इस वक्त खतरे में है. ऐसे वक्त में सारी बातें हर किसीको नहीं कह सकते. सारे भेद तेरे सामने खुलने ही वाले हैं. केवल तूं धैर्य बनाए रख. और यहाँ संतों के बीच तूं उलझ गया? हम किसी संत का अनादर नहीं करते. हाँ, एक संत ऐसे हैं, जो कहे कि कुतुबमीनार से कूद जाओ तो हम कूद जाएंगे. पृथ्वी, तेरी समझ में यह बात कभी तो आएगी कि संत भिन्दरावाले गुरु गोविन्दसिंह के अवतार हैं.’

गुरु गोविन्दसिंह के अवतार? पृथ्वी के मन में प्रश्न उठा. दशम गुरु उसे बहुत प्रिय थे. उस की दृष्टी समक्ष दशम गुरु का वत्सल चेहरा छा गया. इस के बाद पन्द्रह-बीस अंगरक्षकों के बीच घिरकर चलते जनरेलसिंह की वेधक आँखें उसे याद आ गईं. दशम गुरु की छवि के साथ उस का कोई मेल नहीं बैठता था. दोनों की छवि अलग अलग ही रहती थी.

कुछ देर आँखें मूँद कर खड़े पृथ्वी के मन में एक विचित्र सा सवाल उठा और उसे उसने सामने खड़े त्यागी से पूछा:

‘मेरे प्रत्येक प्रश्न के जवाब में आप कहते हैं कि वक्त आने पर तुझे कहूँगा परन्तु अब मैं जो सवाल करने जा रहा हूँ उसका जवाब मुझे अभी के अभी चाहिए त्यागीजी.’

‘कैसा सवाल, पृथ्वी?’

‘मोहिनीदेवी मेरी माँ थीं ऐसा आपने कहा तो अब बताइये कि मेरे पिता कौन थे?’ प्रश्न का तकाजा करने के बाद मूंदी हुई आखें एवं तत्परता के भाव लिए जवाब की राह देख रहे पृथ्वी के धैर्य का अंत आ गया तब उसने आँखे खोल दीं...तब तक त्यागी वहाँ से गायब हो चुका था.

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 9 वीं किश्त
हरीन्द्र दवे का धारावाहिक उपन्यास : वसीयत - 9 वीं किश्त
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