मंतव्य 2 - ईश कुमार गंगानिया का संस्मरण : तेज सिंह के होने-न होने का मतलब और अम्बेडकरवाद

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  (मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्र...

 

(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)

मील का पत्थर

डा. तेज सिंह के होने-न होने का मतलब और अम्बेडकरवाद

ईश कुमार गंगानिया

 

इस आलेख में श्रद्धांजलि स्वरूप जो कुछ भी लिखा गया है, वह

मात्र व्यक्ति विशेष के गुणगान/महिमामंडन या किसी व्यक्ति के

प्रति अंधभक्ति को केंद्र में रखकर नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय की मुहिम से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखकर विचार किया गया है

 

डा. तेज सिंह का असामयिक हम सब के बीच से हमेशा के लिए चले जाना, हमें यह सोचने पर विवश करता है कि जब डा.तेज सिंह हमारे बीच थे, तो परिस्थितियाँ कुछ और हुआ करती थीं किंतु अब देखना यह है कि उनके परिनिर्वाण के बाद परिस्थितियाँ रूपी ऊँट कौन-सी करवट बैठता है। डा. तेज सिंह का ख़याल भर आने का मतलब होता है -आँखों के सामने एक छह फिट के व्यक्ति की आकृति जो किसी भी तरह अड़सठ वर्षीय व्यक्ति जैसी नहीं थी यानी इकहरा बदन, गेहूँआ रंग, सलीक़े से बढ़ी खिचड़ी बालों वाली दाढ़ी, सिर पर निरंतर घटते पके बालों के होते हुए भी उम्र को चकमा देने वाली आधुनिक कैप और रोज़ बदलती आकर्षक वेशभूषा का मतलब है डा. तेज सिंह का होना। इतना ही नहीं,चाहे महिला हो या पुरुष, वह उम्रदराज़ हो या कालेज के युवा छात्र/छात्रा सबके बीच समसामयिक टिप्पणी करके स्वयं मुस्कराना और दूसरों को भी मुस्कराने व ठहाके लगाने के लिए विवश कर देने का मतलब है डा. तेज सिंह। यदि मुद्दा गंभीर हो, तो बेहद संज़ीदग़ी से अपने विनोदी भाव को स्वयं ही गांभीर्य से ढँक लेना। शब्दों के अनुपयुक्त प्रयोग व वैचारिक भटकाव/रूढ़ीवादी विचारों की तरफ़दारी करने वालों से बे-झिझक तीखे तेवर के साथ भिड़ जाना। लेकिन आज डा. तेज सिंह के न होने का सीधा-सा मलतब है एक व्यक्तित्व के इतने सारे सजीव रंगों व अनुभवों से उनके संगी-साथियों का महरूम हो जाना। यक़ीनन यह सब बहुत ही कष्टयदायक है।

डा. तेज सिंह के होने का मतलब है पी. एचडी. तक शिक्षा पाना, दिल्ली विश्वविद्यालय में अनुसंधान वैज्ञानिक के पद पर रहते व प्रोफसर तक के सफ़र में अनेक छात्र-छात्राओं को एम. फिल. व डॉक्ट्रेट की उपाधियाँ व विश्वविद्यालयों में रोज़गार दिलाने तक का माध्यम बनना। भले ही डा. तेज सिंह ने मार्क्सवादी दर्शन, आलोचना और संगठन के अनेक पाठ जे एन यू यानी अपने अध्ययन काल से लेकर 1998 तक (यानी अम्बेडकरवादी आन्दोलन का हिस्सा बनने से पहले तक) मार्क्सवादी आन्दोलनों और मार्क्सवादी संगठनों से सीखे थे लेकिन अम्बेडकरवादी आन्दोलन से जुड़ने के बाद वे अपने शुरुआती दौर में

मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के बीच जबरदस्त सेतु बनाते रहे। वे मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के बीच सेतु बनते-बनाते इतने मुखर हो गये थे कि भारतीय मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों के लिए चुनौती के रूप में दिखलाई पड़ने लगे थे। गौरतलब यह भी है कि उन्हें अपने असली दुश्मन की पहचान बड़ी अच्छे से थी। मार्क्सवादी आन्दोलन से जुड़ाव के चलते भी उनका पहला दुश्मन ब्राह्मणवाद ही था और

अम्बेडकरवाद के चलते भी ब्राह्मणवाद ही रहा।

डा. तेज सिंह के साथ ‘अपेक्षा’ के संस्थापक सदस्य होने के कारण भी लम्बे समय तक जुड़े रहने का मौक़ा मिला और मैं उन्हें थोड़ा और निकट से समझ सका। उनको श्रद्धांजलि देने का मेरा अपना

तरीका है, वह है-आत्मालोचना यानी दूसरों पर अंगुली उठाने से पहले अपने अन्दर झाँकना और इससे खुद को दुरुस्त करना। मेरा यह नज़रिया कितना सही है और कितना गलत, मौजूदा स्थिति में इस विषय पर विचार करना मुझे ज़रूरी महसूस नहीं हो रहा क्योंकि मेरी नज़र चिड़िया की उस आँख पर है जहाँ डा. अम्बेडकर व तथागत बुद्ध के पुरोहितीकरण की अवसरवादी संस्कृति कुछ तथाकथित दलित साहित्यकारों की मानसिक विलासिता का मठ बनकर रह गयी है। इस मठ से ब्राह्मण व ब्राह्मणवाद और मार्क्स व मार्क्सवादियों के खिलाफ़ जिस प्रकार के फतवे जारी किये जाते हैं, ठीक उसी प्रकार के फतवे इस अवसरवादी संस्कृति (दलितवादी) का विरोध करने वाले अम्बेडकरवादियों के विरुद्ध जारी किये जाते हैं। इसकी मुखालफ़त करने वालों की श्रेणि में डा. तेज सिंह अगली पंक्ति में शुमार थे। डा. तेज सिंह के न होने का मतलब है बाबा साहब और तथागत बुद्ध के पुरोहितीकरण और अवसरवाद की संस्कृति के फलने-फूलने के निर्बाध अवसरों का पैदा होना।

अभी डा. तेज सिंह की चिता से उठने वाली लपटें शांत भी नहीं हुई थीं कि फेसबुक पर एक टिप्पणी फ्लैश हुई, ‘‘एक अम्बडकरवादी की अंतिम मुक्ति ब्राह्मणवाद में ही सम्भव है।’’ गौरतलब है कि उपरोक्त टिप्पणी इसलिए आयी, क्योंकि डा. तेज सिंह की चिता को अग्नि व अंतिम संस्कार एक भंत्ते ने नहीं, बल्कि श्मशान में कार्यरत एक पंडे ने परंपरागत रीति-रिवाज़ से किया था। इस घटनाक्रम पर एक व्यक्ति जो 1998 से ही तेज सिंह के मार्क्सवादी होने के ख़िलाफ़ बार-बार लोगों को गुमराह करने की मुहिम चला रहा था, बड़े आनंदित मूड में रात को मेरे पास फोन करके यह सूचना देता है कि ‘फेसबुक पर हंगामा मच गया’। यह व्यक्ति अपने आपको दलित साहित्य के संस्थापक के रूप प्रोजेक्ट करता है, लेकिन इस साहित्य में इस व्यक्ति की भूमिका नगण्य है।

यह मुद्दा सिर्फ़ मौजूदा टिप्पणी तक सीमित नहीं है। इसका दायरा शादी-विवाह व अन्य पारिवारिक रीतिरिवाज़ों/व्यवहारों व जीवन के अन्य क्षेत्रों तक विस्तृत है। इन्हीं को केन्द्र में रखकर चारों ओर से तथागत बुद्ध व डा. अम्बेडकर के नाम पर फ़तवे जारी किये जाते हैं। आजकल यह फ़तवेबाज़ी की प्रवृत्ति आम हो गयी है। चिंता इसलिए भी है कि ये फतवे हिन्दू व इस्लामी कट्टरवाद की तर्ज़ पर जारी किये जाते हैं जिनका किसी बुद्धिज़्म या अम्बेडकरवादी दर्शन या उसकी व्यावहारिकता से दूर का भी कोई रिश्ता नहीं होता। शिरडी के साईं और शंकराचार्य स्वरूपानंद का एपीसोड किसी से छिपा नहीं है। इराक में बगदादी एपीसोड धर्म और दर्शन की अलग नज़ीर पेश करता है। संभवतः कुछ लोग अम्बेडकरवाद को इसी तर्ज़ पर स्थापित करना चाहते हैं। यह गंभीर चिंता की बात है। डा. तेज सिंह को श्रद्धांजलि स्वरूप मैं अम्बेडकरवाद के मुद्दे पर एक संक्षिप्त चर्चा का पक्षधर हूँ। डा. तेज सिंह के होने का मतलब बुद्ध व डा. अम्बेडकर के दर्शन को सम्यक अर्थों में प्रस्तुत करना रहा है। निस्संदेह इसका संवाहक बनी आलोचना की नयी परंपरा स्थापित वाली त्रैमासिक पत्रिका ‘अपेक्षा’ और यह कहना भी अनुचित नहीं होगा कि यदि ‘अपेक्षा’ नहीं होती, तो डा. तेज सिंह का वह व्यक्तित्व नहीं होता जो आज हमारे समक्ष एक आईने की तरह मौजूद है। यदि यह कहूँ कि यदि डा. तेज सिंह अम्बेडकरवादी आन्दोलन की ओर रुख नहीं करते तो वे मार्क्सवादी धारा के एक गुमनाम व सामान्य से कामरेड की भूमिका तक सिमट कर रह जाते, तो गलत नहीं होगा। इसलिए कहा जा सकता है डा. तेज सिंह को अम्बेडकरवादी आन्दोेलन की नेतृत्वकारी भूमिका का श्रेय ‘अपेक्षा’ और उनके लगातार दो बार दलित लेखक संघ के अध्यक्षीय कार्यकाल को दिया जाना चाहिए। जहाँ तक मेरी जानकारी है, उन्होंने बुद्धिज़्म की दीक्षा कभी नहीं ली और न ही इसके लिए उन्होंने किसी को बाध्य ही किया। वैसे भी, परिनिर्वाण प्राप्त शैय्या पर लेटे डा. तेज सिंह से यह अपेक्षा करना गलत है कि वे श्मशान में अपनी चिता से उठकर किसी पंडे से नहीं, भंत्ते से ही अपनी अंत्येष्टि कराते। जहाँ तक परिवार का प्रश्न है, किसी व्यक्ति द्वारा जबरन अपनी विचारधारा परिवार के किसी सदस्य पर थोपना अम्बेडकरवाद व बुद्धिज़्म का हिस्सा नहीं हो सकता। हाँ! अपने पक्ष को पूरी शिद्दत के साथ रखा जा सकता है लेकिन किसी को इसे मानने या अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

परिवार के साथ ऐसी जबरदस्ती किसी हिन्दू या इस्लामिक कट्टरवाद का हिस्सा हो सकता है, किसी सभ्य व प्रगतिशील समाज का कभी नहीं। किसी वसीयत के तहत कुछ भी होना संभव हो सकता था

लेकिन ऐसी कोई वसीयत शायद थी ही नहीं। शायद राजेन्द्र यादव की अंत्येष्टि भी इसी प्रकार के विवाद की शिकार हुई थी। इसलिए दिवंगत डा. तेज सिंह की शोक सभा में उनके साथ यह आरोप चस्पां कर देना कि ‘हम अपने परिवारों को नहीं बदल सकते, तो दूसरों से क्या अपेक्षा करेंगे’ तर्कसंगत नहीं है। यदि मैं आजीवक परंपरा के आधार पर कहूँ, तो चाहे कोई विद्वान हो या मूर्ख दोनों को अग्नि एक ही प्रकार से जलाती है और जलने के बाद उसकी हड्डियां कबूतर की तरह भूरी ही होती हैं। इसलिए डा. तेज सिंह की अंत्येष्टि के सम्बंध में न कोई भंत्ते कुछ अलग कर पाता और नहीं कोई पंडा। इसमें किसी नयी परंपरा/संस्कृति के निर्माण का नहीं, बल्कि मूल प्रश्न ब्राह्मणवाद व उसके शोषण से मुक्ति का था। मुझे निजी तौर भंत्ते से शांति पाठ कराना भी किसी वैचारिक क्रांति या सामाजिक उत्थान का कोई उपक्रम नहीं लगता क्योंकि यह भी मूलतः पुरोहिती संस्कृति का द्योतक है। मेरे विचार से किसी दिवंगत व्यक्ति के परिवार जन व उनके करीबी मित्र जन ही उस परिवार के भविष्य के लिए किसी उपयुक्त रणनीति पर विचार कर सकते हैं और ये सभी लोग मिलकर इस रणनीति को अमली जामा पहनाकर दिवंगत व्यक्ति की कमी को पूरा करने का उपक्रम कर सकते हैं।

पुनः मैं ‘एक अम्बेडकरवादी की अंतिम मुक्ति ब्राह्मणवाद में ही सम्भव है’ इस तंज पर लौटता हूँ। चूँकि मेरा सरोकार भी अम्बडकरवाद से है और इस मुद्दे पर अपना पक्ष रखने का हक़ मेरा भी बनता है। ब्राह्मणवाद का मतलब अगर सीधे, सरल व संक्षिप्ततम शब्दों में कहें तो ऊँच-नीच, शोषण-उत्पीड़न, रूढ़िवादिता, संकीर्णता और सबसे अधिक ईश्वरवाद से है, जो व्यक्ति को गुलामी व अंधविश्वास की दलदल में घसीटता है। अम्बेडकरवाद व बुद्धिज़्म का मतलब इस सबके उलट ईश्वर की अपेक्षा व्यक्ति की केन्द्रीय भूमिका और वैज्ञानिकतापरक जीवनशैली सुनिश्चित करके सभी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व राजनीतिक भेदभाव से मुक्त व्यक्ति व समाज का निर्माण करना है। इसी कड़ी में यह उल्लेख करना भी जरूरी महसूस हो रहा है कि तथाकथित रूप से दलित आंदोलन से जुड़े जिन लोगों ने बुद्धिज़्म को अपनाया है, संभवतः इसलिए अपनाया है क्योंकि इसे डा. भीमराम अम्बेडकर ने अपनाया था। संभवतः किसी भी दलित चिंतक ने (किसी अनजाने अपवाद को छोड़कर यदि कोई है तो) अपने स्वयं के अध्ययन, तर्क-विवेक व भविष्योन्मुखी योजना के तहत बुद्धिज्म को नहीं अपनाया।

उपरोक्त टिप्पणी में तीन श्रेणियां शामिल हो जाती हैं- बुद्धिज्म, ब्राह्मणवाद और अम्बेडकरवाद। यहाँ एक सवाल उठता है- क्या डा. अम्बेडकर ने जो कुछ कहा या किया, उसका अनुसरण ही अम्बेडकरवाद है वरना बाकी सब ब्राह्मणवाद है? एक दूसरा सवाल यह भी है कि क्या डा. अम्बेडकर अपने लिए बुद्धिस्ट बने थे या समाज के लिए? पहले सवाल के जवाब में कहा जा सकता है कि यह अंधविश्वास है और ब्राह्मणवाद का दूसरा संस्करण है, अम्बेडकरवाद व बुद्धवाद नहीं। इसको समझने के लिए यह देखना पड़ेगा कि डा.अम्बेडकर किन शर्तों के साथ बुद्धिस्ट बने थे। पढ़ने व सुनने में बड़ा आपत्तिजनक लग सकता है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि बाबा साहब ने साधारण जन को ब्राह्मणवाद के शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति के लिए बुद्धिज़्म अपनाया था, न कि स्वयं के लिए। साफ़ है कि वे अपना लगभग पूरा जीवन बिना बुद्धिज़्म के जी चुके थे। दूसरे, उन्होंने बुद्धिज़्म को आंशिक रूप में अपनाया था, न कि पूर्ण रूप में। उन्होंने बुद्धिज़्म को लोगों द्वारा अंगीकार करने के लिए यह कहा था कि ‘‘बुद्धिज्म ‘प्रज्ञा’ (रूढ़िवादियों और अलौकिकता के संबंध में सम्यक समझ प्रदान करता है।) व ‘करुणा’ (प्यार/दया) की शिक्षा देता है। यह ‘समता’ (समानता) की शिक्षा देता है। यही है जो व्यक्ति के लिए इस पृथ्वी पर अच्छाई और खुशी चाहता है। बुद्धिज़्म के यही तीन सिद्धांत मुझे अपील करते हैं। बुद्धिज़्म के यही तीन सिद्धांत दुनिया को अपील करते हैं। न तो भगवान और न ही आत्मा समाज को बचा सकते हैं। बाबा साहब जोर देकर कहते हैं कि बुद्धिज़्म मार्क्सवाद का परिपक्व/पूरा जवाब है-‘बुद्धिस्ट कम्यूनिज़्म खून रहित मानसिक क्रांति लाता है।’ जहाँ एक ओर बाबा साहब बुद्ध धम्म की खुले मन से प्रशंसा करते हैं, वही दूसरी ओर वे संघ की खामियों को बड़े तीखे अंदाज़ में व्यक्त करते हुए 12.10.1956 को श्याम होटल में भिक्खू चन्द्रमणी के सामने संघ में जाने से एकदम मना करते हुए कहते हैं-‘‘मैं बुद्ध की शरण में जाऊँगा। मैं धम्म की शरण में जाऊँगा, लेकिन मैं संघ की शरण में नहीं जाऊँगा। इस पर सभी भिक्कू और कार्यकर्ता स्तब्ध रह गये। बाबा साहब ने पुनः दोहराया- संघ बहुत करप्ट है, मुझे पूरा यकीन है कि मैं संघ की शरण में नहीं जाऊँगा।’’ किसी का भी एक शब्द कहने का साहस नहीं हुआ। बाबा साहब ने पुनः कहा- कल तक, मैं आपका इस विषय पर निर्णय चाहता हूँ, लेकिन मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि मैं संघ में शरण नहीं लेने जा रहा हूँ, आपको इसके अनुसार व्यवस्था करनी है। अंततः 14 अक्तूबर, सन् 1956 में नागपुर की दीक्षा भूमि में दीक्षा ली और लगभग पाँच लाख लोगों ने भी इसी दिन बुद्धिज़्म को 22 प्रतिज्ञाओं के साथ अंगीकार किया।’’

बकौल बाबा साहब ‘करप्ट संघ’ की शरण में न जाकर उन्होंने आज के तथाकथित बुद्धिज़्म को आंशिक रूप से अपनाया था। दूसरे, यदि भिक्कू चन्द्रमणी उनकी बात नहीं मानते, तो उन्होंने बुद्धिज़्म ही नहीं अपनाया होता, फिर आज बुद्धिज़्म के नाम पर फ़तवे जारी करने वाले क्या करते, यह सवाल मेरी समझ से बाहर है। बड़े अचरज की बात है कि हर रीति-रिवाज़ व जन्म-मरण तक के कार्यों के लिए हमारे आज के बुद्धिष्ट कथित ‘करप्ट संघ’ को ही सब कुछ मानने के फतवे जारी करते हैं। यह वही भंत्ते होते हैं जो अधिकांशतः पाली में अपने सारे धार्मिक क्रियाकलापों को अंजाम देते हैं। मेरे जैसे साधारण व्यक्ति के लिए पाली और संस्कृत में कोई फ़र्क़ नहीं क्योंकि मेरे लिए दोनों भाषाएं अनजान हैं। यह आम जन की भाषा में ही होना चाहिए क्योकि जो कुछ कहा जाता है, वह मेजबान के लिए किया जाता है और उसे ही कुछ समझ नहीं आता, तो इस सबका कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। मुझे लगता है कि इस तरह के क्रियाकलाप आम जन की भाषा में ही होने चाहिए। ऐसे में डा. तेज सिंह के प्रति आपत्तिजनक टिप्पणियां करना तर्कसंगत नहीं है। ऐसी टिप्पणियां ब्राह्मणवाद यानी अंधभक्ति का परिणाम है, बुद्धवाद का नहीं। क्योंकि बुद्धवाद तो जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति को सम्यक सूझ-बूझ व तर्क-विवेक के अनुसार आचरण करने को प्रेरित करता है, कभी किसी धार्मिक कायदे-कानून की गुलामी की कट्टरवादिता के लिए कभी नहीं। फिर बुद्धवाद के नाम पर फतवे जारी करने का क्या मतलब है?

पुनः कहना ज़रूरी है कि यह न अम्बेडकरवाद है और न बुद्धिज़्म। यह बाबा साहब के प्रति अंधश्रद्धा का परिणाम भी हो सकता है, जिसे बाबा साहब स्वयं कठोरता से खारिज करते हुए कहते हैं-‘‘अपनी स्वतंत्रता को किसी महान व्यक्ति के आगे समर्पित नहीं करना चाहिए। भक्ति या वीर (यानी व्यक्ति) पूजा पतन और तानाशाही का मार्ग है। हमारी उन्नति तभी हो सकती है, यदि हम अपने में स्वाभिमान की भावना उत्पन्न करें और हम स्वयं को पहचानें।’’ इतना ही नहीं, बाबा साहब इससे आगे कहते हैं, एक, ‘‘मेरे मरणोपरांत मेरे विचार या संप्रदाय की संस्था मत बनाइये। जो समाज या संस्था काल और समय के अनुसार अपने विचारों को नहीं बदलती या बदलने का तैयार नहीं होती, वह जीवन के संघर्षों में टिक नहीं सकती।’’

दो-‘‘समाज को हमेशा ही प्रयोगात्मक स्थिति में होना चाहिए। मार्क्स ने निस्संदेह पिछड़े हुए वर्ग के हितों का समाधान करने की कोशिश की है। परंतु उनकी विचार धारा एक दिशा मात्र है, न कि हर सामाजिक रोग का कोई अबोध अस्त्र और न ही अपरिवर्तनीय देवी मंत्र है।’’ इसलिए साफ़ है कि बुद्धवाद और अम्बेडकरवाद के नाम पर दिये गये फतवे भी हिन्दूवादी और इस्लामी आतंकवाद के लक्षण हैं, किसी बौद्धिकता व भविष्योन्मुखी प्रगति व खुशहाली के नहीं। इसी कड़ी में यदि बुद्धिस्ट स्कालर नारद थेरा के शब्दों में देखें तो ‘‘कोई भी बौद्ध किसी पुस्तक या व्यक्ति का गुलाम नहीं है। भगवान बुद्ध का अनुयायी बनकर वह अपनी वैचारिक स्वतंत्रता की बलि नहीं देता...वह बुद्धत्व भी प्राप्त कर सकता है क्योंकि सभी में बुद्ध होने की संभावना है।’’ कोई भी धारा या विचार तर्क व बहस की माँग करती है और उसके प्रति कोई रूढ़ धारणा बना लेना, उचित नहीं कहा जा सकता। हमें बुद्ध व बाबा साहब व उनके विचारों को लेकर हिन्दू व मुस्लिम कट्टरपंथियों की तर्ज़ पर या किसी बुद्धवादी/अम्बेडकरवादी संस्कृति के निर्माण की आड़ में आतंकवादी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए। डा. तेज सिंह को श्रद्धांजलि अर्पण करने के तरीकों में से यह भी एक सम्मानजनक तरीका हो सकता है।

व्यक्ति व विचार की गुलामी हमारे साहित्यिक जगत में एक भयानक व लाइलाज बीमारी की तरह घर कर गयी है। तभी तो हर संगठन/मत/विचारधारा के अपने-अपने पैट नायक बन गये हैं और उनके अपने नायक के अलावा अन्य नायक सिर्फ़ आलोचना व खारिज़ करने के लिए ही रह जाते हैं। यह गंभीर चिंता की बात है क्योंकि यह प्रवृत्ति व्यक्ति की असीम क्षमताओं पर ग्रहण लगाती है। इसके लिए भी मैं पुनः एक विशेष रणनीति के तहत डा. अम्बेडकर को ही उद्धृत कर रहा हूँ क्योंकि अन्य किसी की बात शायद दलित बुद्धिजीवियों को हजम ही न हो। 1933 में जी आई पी रेलवे की सभा में अपने को नायक बताये जाने व तारीफ़ करने के प्रतिकार में बाबा साहब कहते हैं,‘‘यह भाषण मेरे कार्यों व मेरे बारे में अतिश्योक्तिपूर्ण बातों से भरा है। इसका मतलब यह हुआ कि आप मेरे जैसे साधारण आदमी का अपमान कर रहे हैं। यदि आप नायक पूजा पैदा होने से पहले ही बेरहमी से ख़त्म नहीं करेंगे, तो यह विचार आपको तबाह कर देगा।’’ व्यक्ति के आत्मोत्थान व किसी भी बुलंदी तक पहुँचने के लिए इरादे भी बुलंद होने चाहिए और साथ में कभी कमज़ोर न पड़ने वाला (न थकने वाला) पुरूषार्थ। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि डा. तेज सिंह के देहावसान से लगभग एक-डेढ़ महीने पहले मेरे घर पर एक नये संगठन के निर्माण को लेकर डा. तेज सिंह, मुकेश मानस, अश्विनि कुमार, सुनील मांडीवाल, टेकचंद आदि की एक मीटिंग हुई थी। उसमें मेरी ओर से नामकरण को लेकर यह प्रश्न उठाया गया था कि इसका नाम अम्बेडकरवादी ही क्यों? इस पर मांडीवाल और मानस भी इसी मत के समर्थन में थे लेकिन डा. तेज सिंह और अश्विनि इसके विरोध में थे और अंततः यह सभा नये नाम पर विचार के लिए स्थगित कर दी गयी। लेकिन आज डा. तेज सिंह के न रहने से शायद मौजूदा हालात को देखते हुए इस नये नामकरण की जरूरत ही न रहे। लेकिन यहाँ इस बात का ज़िक्र इसलिए किया जा रहा है कि हम किसी भी व्यक्ति पूजा या किसी विचार के अंधानुयाई होने के पक्षधर नहीं हैं और न ही कभी होने वाले हैं।

लेकिन खेद के साथ कहना पड़ता है कि तथाकथित दलित आन्दोलन भी उसी तर्ज़ पर चल रहा है, जिस पर ब्राह्मणवाद। फ़र्क़ इतना है कि वे अपने सारे कार्य (अपनी ज़मीनी ज़िम्मेदारियों से भागकर) अपने छत्तीस करोड़ देवी-देवताओं व भगवानों से कराते हैं या उनके दम पर करने/होने का दावा करते हैं और इसी तर्ज़ पर दलित भी बुद्धिज़्म व अम्बडकरीज़्म का जाप करता नज़र आता है। जबकि ज़रूरत इनके सिद्धांतों को जीवन के हर क्षेत्र में सम्यक ज़रूरत के अनुसार सम्यक दिशा में आगे बढ़ाने की है। मेरा निवेदन इतना है कि दलितों को सिर्फ़ केतली में उबलते पानी से उपजी भाप के दबाव से उठते-बैठते ढक्कन को देखते रहने से उनका काम नहीं चलने वाला बल्कि जेम्स वाट की तरह स्टीम ईंजन बनाने और इससे आगे बढ़कर और अधिक अनुसंधान करने की कवायद करनी चाहिए। डा. तेज सिंह का

अम्बेडकरवाद की वकालत करना स्टीम ईंजन बनाने से आगे की दिशा में उठाया गया एक साहसिक क़दम था। डा. तेज सिंह द्वारा आत्मवृत, स्त्री लेखन, अम्बेडकरवादी साहित्य व अन्य समसामयिक विषयों को ‘अपेक्षा’ का हिस्सा बनाना स्टीम ईंजन को और अधिक रिफाइंड/मोडीफाइड करना रहा है। लेकिन आज स्थितियाँ ठीक इसके विपरीत हैं और दलित साहित्यकार महानता, विद्वता और अपनी उपलब्धियों की जितनी लम्बी-चौड़ी पगड़ी बाँधे आत्मविभोर घूम रहे हैं, उसकी तुलना यदि बाबा साहब की उपलब्धियों से करें तो बाबा साहब की उपलब्धि इन सबकी सामूहिक उपलब्धि से भी भारी है। हमें ज़रूरत इस दिशा में अग्रसर होने की है।

बाबा साहब का सिर्फ़ जाप करने व उनके नाम से फ़तवे जारी करने वालों से कह दूँ कि बाबा साहब स्वयं किसी को अपना नायक व सिद्ध पुरूष नहीं मानते थे। (तथागत बद्ध भी किसी को अपना नायक मानकर उसका अनुसरण करते थे, ऐसा भी मेरी जानकारी में नहीं है) इसकी झलक हमें 1948 में टाल्सटाय के संबंध में शारदा कबीर को लिखे उनके पत्र में इस प्रकार मिलती है, ‘‘टालस्टाय मेरा नायक नहीं है। वास्तव में कोई भी लेखक मेरा नायक नहीं है। मैं किसी भी लेखक से जो ग्रहण करने लायक व आगे विचार करने लायक होता है, उसे ग्रहण कर लेता हूँ और उसका आत्मसात करके अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता हूँ, इसके बारे में यदि आप मुझे अपनी बात कहने की आज्ञा दें, कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, मेरा यह कार्य किसी की नकल करना नहीं है। यह (व्यक्तित्व) मेरा अपना निजी व मौलिक है।’’

हमारे यहाँ किसी लकीर को छोटा करने के लिए बड़ी लकीर खींचने की परंपरा नहीं है। हमारे यहाँ किसी लकीर को मिटाकर या काट कर छोटा करने की परंपरा है, लेकिन बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि हमारे चारों ओर के लगभग सभी तथाकथित दलित लेखक असुरक्षा के भयंकर कुंठा से संक्रमित हैं इसलिए इनका जोर ‘लेग-पुलिंग’ पर अधिक और रचनात्मकता व सामूहिकता काम पर कम है। इस संदर्भ में ग़ौरतलब यह भी है कि जिसे अपने पर भरोसा नहीं होता या जिसमें कुछ कर गुज़रने की कुव्वत ही नहीं होती, वही ऐसे कार्यों में लिप्त होते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि आज ऐसे ही लोगों की जमात खूब फल-फूल रही है। लेकिन जिन्हें अपने पर भरोसा होता है, जैसे डा. अम्बेडकर व तथागत बुद्ध को था, वे अपने लिए चुनौती भी स्वयं चुनते हैं और स्वयं ही इससे दो-चार भी होते हैं और नयी राहें भी वही बनाते हैं। इन दोनों ने भी अपनी चुनौती स्वयं ही चुनी थी और हमें भी अपनी चुनौती स्वयं ही चुननी चाहिए, यदि हमें कुछ कर गुज़रना है तो...। यदि बाबा साहब व बुद्ध के नाम पर परजीवी संस्कृति जैसा फोकट का माल यानी साहित्यिक/बौद्धिक उपलब्धि/लोकप्रियता का गुलाम बने रहना है, तो मौजूदा परिदृश्य ऐसे लोगों के लिए काफी मुफ़ीद है। ‘अपेक्षा’ परिवार द्वारा 19.07.2014 को हिन्दी भवन में आयोजित डा. तेज सिंह की स्मृति सभा में भी ऐसे अनेक प्रमाण सामने आये। यहाँ भी लकीर को काटकर या मिटाकर छोटा करने का षड्यंत्र किया गया। शोकसभा जैसे अवसर पर ऐसे शर्मनाक कृत्य पर मुझे 20.07.2014 को टिप्पणी करने के लिए बाध्य होना पड़ा, जो प्रतीकात्मक रूप में कुछ इस प्रकार है-‘‘हिन्दी भवन के बेसमेंट में दिनांक 19. 07.

2014 को डा. तेज सिंह के परिनिर्वाण के उपरांत उनके सम्मान व श्रद्धांजलि स्वरूप आयोजित स्मृति- सभा का आयोजन स्वागत योग्य है। डॉ. तेज सिंह ने प्रबुद्धता, इन्सानी मूल्यों, साहित्यिक मानदंडों और अम्बेडकरवादी आन्दोलन की अनुपम संस्कृति के निर्माण और उनकी विरासत को आगे बढ़ाने के लिए जो बुनियाद रखी है, निस्संदेह उसका कोई दूसरा उदाहरण मेरी जानकारी में नहीं है। मैं स्मृति सभा के आयोजकों और इसमें सहभागिता करने वाले सभी बुद्धिजीवियों की जागरुकता, सूझ-बूझ, विद्वता और उनके खूबसूरत जज़्बे को सैल्यूट करता हूँ। डा. तेज सिंह जैसे अम्बेडकरवादी आलोचना की नयी परंपरा के जनक और ‘अपेक्षा’ आन्दोलन को निरंतर नयी ऊर्जा प्रदान करने वाले जुझारू साहित्यकार के लिए मेरे जैसे सामान्य से व्यक्ति (जिसने आलोचना का पहला और एकमात्र पाठ उन्हीं से पढ़ा) के लिए शायद इससे बेहतर श्रद्धांजलि कोई दूसरी नहीं हो सकती।’’

दलित आन्दोलन का कहानी, कविता, कुछ उपन्यास व कुछ आत्मवृत्तों तक सिमट जाना गंभीर चिंता की बात है। मुझे यह वास्तविक अम्बेडकरवादी आन्दोलन व अपनी जिम्मेदारियों से पलायन की दिशा में अग्रसर होना नज़र आता है। बाबा साहब ने कितनी कहानियाँ, कविता या उपन्यास लिखे? किसी आन्दोलन के लिए ठोस ज़मीन तैयार करने या किसी समाजोपयोगी दर्शन का हिस्सा होने व उसके फलनेफूलने के लिए ये प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। रचनात्मक साहित्य की कीमत पर वैचारिक चिंतन की अनदेखी किसी आन्दोलन के लिए शुभ लक्षण कभी नहीं हो सकते। साफ़ है कि तथाकथित दलित साहित्यकार निजी हितों व लोकप्रियता को ही प्राथमिकता देते हैं। जहाँ तक तथागत बुद्ध और डा. अम्बेडकर के दर्शन और समाजोत्थान के प्रश्न हैं, वे नेपथ्य की ओर अग्रसर हैं अर्थात तथागत बुद्ध और डा. अम्बेडकर इनके लिए सिर्फ़ पूजनीय हैं और उनके वचनों का विभिन्न मंचों से सिर्फ़ जाप किया जा सकता है लेकिन जीवन में इनका आत्मसात करने और इन्हें भविष्योन्मुखी दिशा प्रदान करने की क़वायद से कोई लेना-देना नहीं। गिने-चुने दो-चार मुखर और गंभीर चिंतकों में से डा. तेज सिंह का चले जाना एक अपूरणीय क्षति है। किसी का नाम लेना विवाद खड़ा कर सकता है, इसलिए नामों का उल्लेख नहीं किया जा रहा है। ऐसे में जाहिर है कि डा. तेज सिंह के रहते आलोचना को जो प्राथमिकता मिली थी उस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना लाजमी है। लगता है, आलोचना जगत में फिर ‘तू मेरी पीठ खुजला और मैं तेरी’ वाली आलोचना की पुरानी संस्कृति पुनः मुखर रूप में देखने को मिलेगी।

आज सोशल मीडिया का ज़माना है, उनमें से एक है फेसबुक। हर व्यक्ति इसका अपनी तरह से सदुपयोग और दुरुपयोग कर रहा है। आज वैचारिक स्वतंत्रता का ज़माना है और जो चाहे जैसे भी इसका प्रयोग करे। किसी भी ज़िम्मेदार व्यक्ति को इस स्वतंत्रता पर ऊँगली उठाने का कोई अधिकार नहीं, लेकिन मेरी चिंता का विषय है कि एक ओर तो हम दलित खुद के दीन-हीन होने व शोषण-उत्पीड़न का शिकार होने की बात दुहराते नहीं थकते और वही दूसरी ओर हम उन्हीं सुविधाभोगियों की तरह, जिन्हें हम अपनी मौजूदा स्थिति के लिए पानी पी-पीकर कोसते हैं, संवेदनहीता के शिकार बनकर फेसबुक जैसी सुविधा का दुरुपयोग करते हैं। हमें इस विषय पर गंभीर आत्म चिंतन और विचार विमर्श करने की ज़रूरत है।

इसका मतलब यह कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि हमें दीन-हीन बने रहकर संसार की मुख्यधारा से विमुख रहना चाहिए। हमारी सोच व गतिविधियों में अपने व ज़रूरतमंद समाज के हित में निस्संदेह कुछ सृजनात्मक काम भी शामिल होना चाहिए। पर आपसी खींचतान की जगह हमें फेसबुक जैसी सुविधा के इस्तेमाल पर पुनर्विचार के लिए कार्यशाला या किसी गंभीर चर्चा का आयोजन करना चाहिए ताकि इस मंच का सकारात्मक आन्दोलन के लिए उपयोग किया जा सके और हमारी ऊर्जा अर्थहीन मामलों में जाया न हो। यद्यपि डा. तेज सिंह एस एम एस, फेसबुक व ई-मेल की दुनिया से दूर थे या यूँ कहें कि यह सब उनकी पहुँच से बाहर था, तो गलत नहीं होगा। शायद वे इस दिशा में कोई गंभीर कोशिश ही नहीं करते थे। लेकिन उनके मूल्यों व विचारों के प्रसार व उनके प्रति सद्भाव के लिए इसे आन्दोलन का सक्रिय व ज़िम्मेदार मंच तो बना ही सकते हैं ताकि उनके देहावसान से पैदा हुए शून्य को किसी सीमा तक भरा जा सके।

डा. तेज सिंह के चले जाने के बाद जो वैक्यूम हमारे समक्ष उपस्थित हुआ है, उसको भरने के लिए सांगठनिक प्रयासों की भी ज़रूरत है। और यह संगठन बकौल बाबा साहब-‘‘संगठन की शक्ति इसके सदस्यों की संख्या पर नहीं बल्कि उनकी ईमानदारी, वफ़ादारी व अनुशासन पर निर्भर करती है।’’ यदि इसी कसौटी के अनुरूप कार्य करें, तो हमारे उद्देश्यपूर्ति में यह काफी कारगर भूमिका अदा कर सकता है। जहाँ तक धर्म जिसे तथागत बुद्ध मुक्ति के संबंध में परिभाषित करते हुए कहते हैं- ‘‘मुक्ति का मतलब है ‘निर्वाण’ और ‘निर्वाण’ का मतलब है राग-द्वेष की आग का बुझ जाना।’’, जहाँ तक धर्म का प्रश्न है

उसे भी बाबा साहब के सरलतम शब्दों में इस प्रकार समझ सकते हैं-‘‘यदि आप इन्सान होना चाहते हैं...‘सच को सच और झूठ को झूठ जानो...’ ‘धर्म व्यक्ति के लिए है, न कि व्यक्ति धर्म के लिए’ ‘प्रत्येक

व्यक्ति को अपने आपसे कठोर अनुशासन से व्यवहार करना चाहिए’...‘तभी भारत महान बनेगा।’’ कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत तब तक महान नहीं बनेगा, जब तक समाज का सबसे निचले पायदान पर खड़ा व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय का उपभोग कर देश की मुख्य धारा का अभिन्न अंग नहीं बन जाता। जाहिर है, इसके लिए हमें अपनी मौजूदा भूमिका पर विचार करने में संकोच नहीं करना चाहिए।

डॉ. तेज सिंह ने इस दिशा में मरते दम तक उल्लेखनीय काम किया है। उनके लिए अम्बेडकरवाद या मार्क्सवाद सजावटी चिंतन धारा नहीं थी, वह इसे जीते थे और शोषण आधारित समाज को बदलने का सपना देखते थे। इसलिए उनका महत्व इस बात से कतई कम नहीं हो जाता कि उनके निधन के बाद उनके शव का अंतिम संस्कार किस तरह कर दिया गया।

बी- 912, एम आई जी फ्लैट्स, ईस्ट ऑफ लोनी रोड, दिल्ली-110093

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रचनाकार: मंतव्य 2 - ईश कुमार गंगानिया का संस्मरण : तेज सिंह के होने-न होने का मतलब और अम्बेडकरवाद
मंतव्य 2 - ईश कुमार गंगानिया का संस्मरण : तेज सिंह के होने-न होने का मतलब और अम्बेडकरवाद
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