मंतव्य 2 - सूरज प्रकाश का संस्मरण - देहरादून के दिन

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(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश...

(मंतव्य 2 ईबुक के रूप में यहाँ प्रकाशित है, जिसे आप अपने कंप्यूटिंग/मोबाइल उपकरणों में पढ़ सकते हैं. मंतव्य 2 संपादकीय यहाँ तथा राम प्रकाश अनंत का लघु उपन्यास लालटेन यहाँ पढ़ें)

 

 

जीवन की राहों में

देहरादून के दिन

सूरज प्रकाश

हमारा घर देहरादून के मच्छी बाज़ार में था। हमारे रहते समय ही उसका नाम अन्सारी मार्ग कर दिया गया था। तब हमारे घर का पता 2, मच्छी बाज़ार से बदल कर 2, अन्सारी मार्ग हो गया था। मेरी ज़िंदगी की पहली चिट्ठी इसी पते पर आयी थी। अब देहरादून के नक्शे में मच्छी बाजार कहीं नहीं है। बेशक यह हमारी पीढ़ी के बाशिंदों की स्मृति में अटका रह गया है। जैसे पुराने लोगों की याददाश्त में बंबई, मद्रास, कलकत्ता या बनारस अटके हुए हैं। या पांडिचेरी की जगह पुडुचेरी ज़बान पर नहीं चढ़ता।

हमारा बाज़ार एक लम्बी-सी गलीनुमा सड़क की तरह था। ये बाज़ार शहर के केन्द्र घंटाघर से फूटने वाले उस समय के शहर के एकमात्र मुख्य बाज़ार पलटन बाज़ार से आगे चलकर मोती बाज़ार की तरफजानेवाली सड़क से शुरूहोता था और आगे चलकर पुराने कनाट प्लेस के पीछे-पीछे से बिंदाल नदी की तरफ़ निकल जाता था। मेरी याद में ऐसे मौक़े बहुत कम हैं जब घंटाघर की चारों घड़ियां चल रही होती थीं। घंटे बेशक़ बीच-बीच में बजते रहते थे।

मोती बाज़ार नाम भी उस सड़क को बाद में मिला था। पहले वह कबाड़ी बाज़ार के नाम से जानी जाती थी। कारण यह था कि वहाँ सड़क के सिरे पर ही कुछ सरदार कबाड़ियों की दुकानें थीं। ये लोग कबाड़ी का अपनी पुश्तैनी धंधा तो करते ही थे, एक और गैरकानूनी काम करते थे। चोरी का सामान खरीदना और बेचना। सारी दुकानें चलती ही इस चोरी के सामान के भरोसे थी। चोरी का ये सारा सामान मिलिटरी का होता था। देहरादून में मिलीटरी के बहुत सारे केन्द्र हैं। आइएमए, आरआइएमसी और देहरादून कैंट में बने मिलीटरी के दूसरे ढेरों दस्ते। तो इन्हीं दस्तों से मिलीटरी का बहुत-सा नया सामान चोरी-छुपे बिकने के लिए उन दुकानों में आया करता था। दो तरीक़ों से। सैनिक अपने हिस्से का सामान भी बेचते थे और अपने दफ़्तर से चोरी करके भी। सरकारी चोरी वाला सामान बड़े पैमाने पर। पाउडर दूध के पैकेट, राशन का सामान, वर्दियां, फ़ौज के काम आनेवाली चीज़ें, औजार, कंबल, जूते, टैंट वगैरह।

सबसे ज्यादा सामान बिकने वाली चीज़ होती थी यूनिफ़ार्म। कई फ़ौजी अपनी नयी और कई बार पुरानी भी यूनिफ़ार्म वहाँ बेचने के लिए चोरी-छुपे आते थे और बदले में और पुरानी यूनिफ़ार्म ख़रीद कर ले जाते थे। तय है उन्हें नयी नकोर यूनिफ़ार्म के ज्यादा पैसे मिल जाते होंगे और पुरानी और किसी और फ़ौजी द्वारा इस्तेमाल की गयी पोशाक़ के लिए उन्हें कम पैसे देने पड़ते होंगे।

मच्छी बाज़ार में ही रहते हुए हमारे सामने1962 की, 1965की और 1971 की लड़ाइयाँ हुई थीं।

लड़ाइयों में जो कुछ भी हुआ हो, उस पर न जाकर हम बच्चे उन दिनों ये सोच-सोचकर हैरान-परेशान होते थे कि जो सैनिक अपनी यूनिफ़ार्म तक कुछ पैसों के लिए बाज़ार में बेच आते हैं, वे सीमा पर जाकर देश के लिए कैसे लड़ते होंगे। अपना या चोरी का सामान बेचने आये फ़ौजियों का चेहरा देखने लायक होता था।

एक सवाल और भी हमें परेशान करता था कि जो आदमी अपनी ड्रेस और दूध का पाउडर तक बेच सकता है, वह देश की गुप्त जानकारियाँ दुश्मन को बेचने से अपने आपको कैसे रोकता होगा। यहाँ इसी सन्दर्भ में मुझे एक और बात याद आ रही है। मैं अपने बड़े भाई के पास 1992 में गोरखपुर गया हुआ था। ड्राइंग रूम में ही बैठा था कि दरवाज़ा खुला और एक भव्य सी दिखनेवाली लगभग पैंतीस बरस की एक खूबसूरत महिला भीतर आयी, मुझे देखा, एक पल के लिए ठिठकी और फ्रिज में छह अंडे रख गयी। तब तक भाभी भी उनकी आहट सुनकर रसोई से आ गयी थीं। दोनों बातों में मशगूल हो गयीं। थोड़ी देर बाद जब वह महिला गयी, तो मैंने पूछा कि आपको अंडे सप्लाई करने वाली महिला तो भई, कहीं से भी अंडेवाली नहीं लगती। ख़ास तौर पर जिस तरह से उसने फ्रिज खोलकर अंडे रखे और आप उससे बात कर रही थीं। जो कुछ भाभी ने बताया, उसन ेमेर ेसिर का ढक्कन ही उड़ा दिया था और आज तक वह ढक्कन वापिस मेरे सिर पर नहीं आया है।

भाभी ने बताया कि ये लेडी अंडे बेचनेवाली नहीं, बल्कि सामने के फ़्लैट में रहनेवाले किसी सीनियर फ़ौजी अफ़सर की वाइफ है। उन्हें कैंटीन से हर हफ़्ते राशन में ढेर सारी चीज़े ंमिलती हैं। वैन घर पर आकर सारा सामान दे जाती है। वे लोग अंडे नहीं खाते, इसलिए हमसे तय कर रखा है, हमें बाज़ार से कम दाम पर बेच जाते हैं। और कुछ भी हमें चाहिये हो, मीट, चीज़ या कुछ और तो हमें ही देते हैं। इस बात को सुनकर मुझे बचपन के वे फ़ौजी याद आ गये थे जो गली-गली छुपते-छुपाते अपनी यूनिफ़ार्म बेचने के लिए कबाड़ी बाज़ार आते थे। वे लोग गरीब रहे होंगे। कुछ तो मज़बूरियाँ रही होंगी, लेकिन एक सीनियर फ़ौजी अफ़सर की बला की खूबसूरत बीवी द्वारा (निश्चित रूप से अपने पति की सहमति से) अपने पड़ोसियों को हर हफ़्ते पाँच-सात रुपये के लिए अंडे सिर्फ़ इसलिए बेचना कि वे खुद अंडे नहीं खाते, लेकिन क्यूंकि मुफ़्त में मिलते हैं, इसलिए लेना भी ज़रूरी समझते हैं, मैं किसी तरह से हज़म नहीं कर पाया था। उस दिन वे अंडे खाना तो दूर, उसके बाद 1993 के बाद से मैं आज तक अंडे नहीं खा पाया हूँ। एक वक़्त था जब ऑमलेट की खुशबू मुझे दुनिया की सबसे अच्छी खुशबू लगती थी और ऑमलेट मेरे लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन डिश हुआ करता था। मैं आज तक समझ नहीं पाया हूँ कि जो अधिकारी चार-छह रुपये के अंडों के लिए अपना दीन-ईमान बेच सकता है, उसके ज़मीर की कीमत क्या होगी।

मैं एक बार फिर कबाड़ियों के चक्कर में भटक गया। वापिस अपने मच्छी बाज़ार में आता हूँ। मच्छी बाज़ार के दोनों तरफ़ ढेरों गलियां थीं जिनमें से निकलकर आप कहीं के कहीं जा पहुँचते थे। आस-पास कई महल्ले थे, डांडीपुर महल्ला, लूनिया महल्ला, चक्कू महल्ला। गरीब लोगों की बेतरतीबी से उगी छोटीछोटी बस्तियाँ। बिना किसी प्लान या नक्शे के बना दिये गये एक-डेढ़ कमरे के घर, जिन पर जिसकी मर्ज़ी आयी, दूसरी मंजिल भी चढ़ा दी गयी थी। कच्ची-पक्की गलियाँ, सड़ांध मारती गंदी नालियाँ, हमेशा सूखे या फिर लगातार बहते सरकारी नल। गलियों के पक्के बनने, उनमें नालियाँ बिछवाने या किसी तरह से एक खम्बा लगवाकर उस पर बल्ब टांग कर गली में रौशनी का सिलसिला शुरूकरना इस बात पर निर्भर करता था कि किसी भी चुनाव के समय गली महल्ले वाले सारे वोटों के वायदे के बदले किसी उम्मीदवार से क्या-क्या हथिया सकते हैं। ये बात अलग होती कि ये सब करने और वोटरों के लिए गाड़ियाँ भिजवाने के बदले उस उम्मीदवार को वादे के अनुसार साठ-सत्तर वोटों के बजाय पाँच-सात वोट भी न मिलते। उस पर तुर्रा यह भी कि अफ़सोस करने सब पहुँच जाते कि हमने तो भई आप ही को वोट दिया था।

हमारे घर में लाइट नहीं थी। पहले लालटेन जलती थी। फिर पड़ोस से तार खींचकर एक बल्ब जलता था। पाँच रुपये महीना देने पर। उस पर भी जल्दी क्यों जलाया और देर तक क्यों जल रहा है के तीखे ताने सुनने पड़ते। ऐसे ही एक चुनाव में हम गलीवाले भी अपनी गली रौशन करवाने में सफल हो गये थे। चूँकि गली का पहला मोड़ हमारे घर से ही शुरूहोता था, इसलिए गली को दोनों तरफ़ रौशन करने के लिए जो खम्बा लगाया गया था, वह हमारी दीवार पर ही था। इससे गली में रौशनी तो हुई ही थी, हमारा आँगन भी रौशन हो गया था।

हम भाई बहनों की पढ़ाई इसी बल्ब की बदौलत हुई थी। ये बात अलग है कि हम पहले गली के अंधेरे में जो छोटी-मोटी बदमाशियाँ कर पाते थे, अब इस रौशनी के चलते बंद हो गयी थीं।

इस गली की बात ही निराली थी। हमारे घर के बाहरी सिरे पर पदम सिंह नाम के एक सरदार की दुकान थी जहाँ चाकू छुरियाँ तेज़ करने का काम होता था। कई बार खेती के दूसरे साज़ो-सामान भी धार लगवाने के लिए लाये जाते। ये दुकान एक तरह से हमारे महल्ले का सूचना केन्द्र थी। यहाँ पर दिल्ली से नवभारत टाइम्स आता था जिसे कोई भी पढ़ सकता था। बीसियों निट्ठले और हमारे जैसे छोकरे बारी-बारी से वहाँ बिछी इकलौती बेंच पर बैठकर दुनिया-जहान की ख़बरों से वाक़िफ होते। जब नवभारत टाइम्स में पाठकों के पत्रों में मेरा पहला पत्र छपा था तो पदम सिंह के बेटे ने मुझे घर से बुलाकर ये ख़बर दी थी और उस दिन दुकान पर आनेवाले सभी ग्राहकों और अख़बार पढ़ने आने वालों को भी यह पत्र ख़ास तौर पर पढ़वाया गया था। यह मेरी पहली प्रकाशित रचना थी। सोलह-सत्रह बरस की उम्र में।

दुकान के पीछे ही गली में पहला घर हमारा ही था। वैसे नवभारत टाइम्स सामने ही चायवाले मदन के पास भी आता था लेकिन उसकी दुकान में अख़बार पढ़ने के लिए पन्द्रह पैसे की चाय मँगवाना ज़रूरी होता जो हम हर बार एफोर्ड नहीं कर पाते थे।

तो उसी पदम सिंह की दुकान के पीछे हमारा घर था। डेढ़ कमरे का घर। हम छह भाई-बहन, मातापिता, दादा या दादी (अगर दादा हमारे पास देहरादून में होते थे तो दादी फरीदाबाद में चाचा लोगों के पास और अगर दादी हमारे पास होतीं तो दादा अपना झोला उठाये फरीदाबाद गये होते) रहते थे। चाचा और बुआ तो हमारे साथ रहते ही थे।

उस गली में न केवल हमारा घर पहला था बल्कि हम कई मामलों में अपनी गली में दूसरों से आगे थे। वैसे भी उस गली में कुंजड़े, सब्जीवाले, गली-गली आवाज़ मारकर रद्दी सामान खरीदने वाले जैसे लोग ही थे और उनसे हमारा कोई मुक़ाबला नहीं था सिवाय इसके कि हम एक साथ अलग-अलग कारणों से वहाँ रहने को मजबूर थे। ये सारे के सारे घर पाकिस्तान या अफगानिस्तान से आये शरणार्थियों को दोदो रुपये के मामूली किराये पर अलाट किये गये थे और बाद में उन्हीं किरायेदारों को बेच दिये गये थे। हमारा वाला घर हमारी नानी के भाई का था और जिसे हमारे नाना ने अपने नाम पर खरीद लिया था। अब हम अपने नाना के किरायेदार थे।

बेशक पूरे महल्ले से हमारा कोई मेल नहीं था, फिर भी न तो उनका हमारे बिना गुज़ारा था और नहीं हम पास-पड़ोस के बिना रह सकते थे। न केवल हमारा घर गली में सबसे पहले था बल्कि हम कई मायनों में अपने महल्ले के सभी लोगों और घरों से आगे थे। सिर्फ़ मेरे पिता, चाचा और बुआ ही सरकारी दफ़्तरों में जाते थे और इस तरह बाहर की और पढ़ी-लिखी दुनिया से हमारा साबका सबसे पहले पड़ता था। उन दिनों जितनी भी आधुनिक चीज़ें बाज़ार में आतीं, सबसे पहले उनका आगमन हमारे ही घर पर होता। प्रेशर कूकर, गैस का चूल्हा, अलार्म घड़ी और रेडियो वगैरह सबसे पहले हम ही ने खरीदे। बाद में ये चीजें धीरे-धीरे हर घर में आतीं।हमारी देखा-देखी आलू बेचने वाले गणेशे की बीवी ने कूकर खरीदा।

अलार्म घड़ी खरीदी। इसके बाद से उनके घर के सारे काम अलार्म घड़ी के हिसाब से होने लगे। घर के सारे जन किसी काम के लिए अलार्म लगाकर घड़ी के चारों तरफ़ बैठ जाते और अलार्म बजने का इंतज़ार करते। अलार्म बजने पर ही काम शुरूकरते। वे हर काम अलार्म लगाकर करते। चाय का अलार्म, सब्ज़ी बनाने का अलार्म, खाना खाने या बनाने का अलार्म। न एक मिनट पहले, न एक मिनट बाद।

उस महल्ले में हमें दोस्त चुनने की आज़ादी नहीं थी। स्कूल वाले यार-दोस्त तो वहीं स्कूल तक ही सीमित रहते, या बाद में कम ही मिल पाते, गुज़ारा हमें अपनी गली में उपलब्ध बच्चों से करना होता। गली में हर उम्र के बच्चे थे और खूब थे। हमारी उम्र के नंदू, गामा, बिल्ला, अट्टू, तो थोड़े बड़े लड़कों में प्रवेश, सुक्खा, मोणा वगैरह थे लेकिन एक बात थी कि हर दौर में अमूमन सभी बड़े लड़के गंदी आदतों में लिप्त थे। पता नहीं कैसे होता था कि चौदह-पन्द्रह साल के होते-न-होते नयी उम्र के लड़के भी उनकी संगत में बिगड़ना शुरूकर देते। बड़े लड़के छोटे लड़कों की नेकर में हाथ डालना या उन्हें हस्तमैथुन करने या कराने के लिए उकसाना अपना हक़ समझते। शुरुआत इसी से होती। बाद में अंधेरे कोनों में अलग-अलग कामों की दीक्षा दी जाती। आगरा से छपने वाले साप्ताहिक अख़बारों, कोकशास्त्र और मस्तराम की गंदी किताबों का सिलसिला चलता और सोलह-सत्रह तक पहुँचते-पहुँचते सारे के सारे लड़के इन कामों में प्रवीण हो चुके होते। ये लड़के आस-पास के दस महल्लों की लड़कियों को गंदी निग़ाह से ही देखते और उनके साथ सोने के मंसूबे बांधते रहते लेकिन गलत आदतों में पड़े रहने के कारण बुरी तरह से हीनभावना से ग्रस्त होते। वे बेशक़ अपनी चहेती लड़कियों का पीछा करते रोज़ उनके कॉलेज तक जाते या शोहदों की तरह गली के मोड़ पर खड़े होकर गंदे फिकरे कसते, लेकिन वही लड़की अगर उनसे बात भी कर ले तो उनकी पैंट गीली हो जाती।

महल्ले में बात-बात पर झगड़ा, मार-पीट, ताने, गाली-गलौज़ और नाराज़गियाँ आम बात थीं। वैसे सांझा तंदूर भी तपाया जाता और खाने की चीज़ों की कटोरियाँ भी इस घर से उस घर में जाती ही थीं। अचानक चीनी या कुछ और ख़त्म हो जाने पर लेन-देन भी चलता ही था। उस समय ये सारी बातें बहुत सहज और ज़रूरी होती थीं।

मेरा बचपन भी इन्हीं लोगों के बीच यही सब देखते हुए, करते हुए और झेलते हुए बीतता रहा था। कोई भी अपवाद नहीं था। बचने का तरीक़ा भी नहीं था। ऐसे माहौल में लगभग 14 बरस गुज़ारने की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है मुझे। कई कीमतें नकद पैसे देकर नहीं चुकायी जातीं।

ये तो हुई गली के भीतर की बात, गली के बाहर यानी मच्छी बाज़ार का नज़ारा तो और भी विचित्र था। अगर मोती बाज़ार से स्टेशन वाली सड़क पर जाओ तो मुश्किल से पाँच सौ गज की दूरी पर पुलिस थाना था और अगर मच्छी बाज़ार वाली ही सड़क पर आगे बिंदाल की तरफ़ निकल जाओ, तो हमारे घर से सिर्फ़ तीन सौ गज की दूरी पर देसी शराब का ठेका था। यही ठेका हमारे पूरे इलाक़े के चरित्र निर्माण में अहम भूमिका निभाता था। ठेका वैसे तो पूरे शहर का केन्द्र था, लेकिन आसपास के कई महल्लों की लोकेशन इसी ठेके से बतायी जाती। हमें कई बार बताते हुए भी शरम आती कि हम शराब के ठेके के पास ही रहते हैं। उसके आस-पास थे सट्टा, जुआ, कच्ची शराब, दूसरे नशे, गंदी और नंगी गालियाँ, चाकूबाजी, हर तरह की हरमजदगियाँ। ये बाय प्राडक्ट थे शराब के ठेके के। शरीफ़ लड़कियाँ शर्म के मारे सिर झुकाये वहाँ से गुज़रतीं।

हमारी गली के सामने मदन की चाय की दुकान के साथ एक गंदे से कमरे में अमीरूनाम का बदमाश रहता था। चूँकि उसका अपना कमरा वहाँ पर था इसलिए वह खुद को इस पूरे इलाक़े का बादशाह मानता था और धड़ल्ले से कच्ची और नकली दारूके, दूसरे क़िस्म के नशे के और सट्टे का कारोबार करता था। चूँकि ठेके में सिर्फ़ शराब ही मिलती थी, नकद पैसे देकर मिलती थी और ठेका खुला होने पर ही मिलती थी, अमीरू का धंधा हर वक़्त की शराब और सट्टे के कारण खूब चलता था। वैसे तो हर इलाक़े के अपने गुंडे थे लेकिन अमीरूका हक़ मारने दूसरे इलाक़ों के दादा कई बार आ जाते। एक ऐसा ही दादा था ठाकुर। सुपर दादा। उसके ऊपर वाले दाँत सोने के थे। शानदार कपड़े और तिल्लेदार चप्पल पहने वह अपनी एम्बेसेडर में आता। उसके आते ही पूरे महल्ले में हंगामा मच जाता। उसके लिए सड़क पर ही एक कुर्सी डाल दी जाती और वह सारे स्थानीय गुर्गों से धंधे का हिसाब-किताब माँगता। शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो कि उसके आने पर मारपीट, गाली-गलौज़ न होती हो और छुटभइये किस्म के गुंडे छिपने के लिए हमारी गली में न आते हों। वह अपनी चप्पल निकाल कर स्थानीय गुंडों को पीटता और वे चुपचाप पिटते रहते। कई बार चाकू भी चल जाते और कई बार कइयों को पुलिस भी पकड़ कर ले जाती। दो-चार दिन शांति रहती और फिर से सारे धंधे शुरू हो जाते।

कई बार फकीरूनाम का एक और लम्बा-सा गुंडा आ जाता, तो ये सारे सीन दुहराये जाते। अमीरू और फकीरूमें बिलकुल नहीं पटती थी, दोनों में खूब झगड़े होते लेकिन दोनों ही ठाकुर से ख़ौफ खाते।

ज्यादातर झगड़े सट्टे की रकम और दूसरे लेन-देनों को लेकर होते लेकिन किसी को भी पता नहीं था कि कभी-कभार हमारी शरारतों के कारण भी उनमें आपस में गलतफ़हमियाँ पैदा होती थीं।

दरअसल मामला ये था कि पदम सिंह की दुकान की हमारी गली वाली दीवार में इन्हीं लोगों ने ईंटों में छोटे-छोटे छेद कर दिये थे और सट्टा खेलने के इच्छुक लोग हमारी गली के अंधेरे में खड़े होकर और कई बार दिन-दहाड़े भी अपने सट्टे का नम्बर एक काग़ज़ पर लिखकर अपनी दुअन्नी या चवन्नी उस कागज में लपेटकर इन्हीं छेदों में छुपा जाते और बाद में अमीरूया उसके गुर्गे पैसे और पर्ची ले जाते। हम छुपकर देखते रहते और जैसे ही मौक़ा लगा, काग़ज़ और पैसे लेकर चम्पत हो जाते। काग़ज़ कहीं फेंक देते और पैसों से ऐश करते। हम ये काम हमेशा बहुत डरते-डरते करते और किसी को भी राज़दार न बनाते। हो सकता है बाक़ी लड़के भी यही करते रहे हों और हमें या किसी और को हवा तक न लगी हो। झगड़ा तब होता जब सट्टा लगाने वाले का नम्बर लग जाता और वह अपनी रकम माँगने आ जाता। सच तो ये होता था कि उसका लगाया नम्बर और पैसा हमारी वजह से गुंडों तक पहुँचा ही न होता। रोज़ ही इस तरह के तमाशे होते।

तय है कि जब मच्छी बाज़ार है तो मीट, मच्छी, मुर्गे, सूअर और दूसरी तरह के मांस की दूकानें भी बहुत थीं। कुछ छोटे होटल भी थे जो बिरयानी, मछली या मीट के साथ गैरकानूनी तरीक़े से शराब भी बेचते थे। यहाँ शराबियों में आये दिन झगड़े होते। कुछ ज्यादा बहादुर शराबी सुबह तक नालियों में पड़े नज़र आते।

उन्हीं दिनों ऋषिकेश में आइपीसीएल का बहुत बड़ा कारखाना रूस के सहयोग से बन रहा था। वहाँ से हफ़्ते में एक बार बस शॉपिंग के लिए देहरादून आती, तो ढेर सारी मोटी-मोटी रूसी महिलाएं स्कर्ट पहने सूअर का मांस खरीदने आतीं। हम उन्हें बहुत हैरानी से ख़रीदारी करते देखते क्योंकि हमारे बाज़ार के दुकानदारों को हिन्दी भी ढंग से बोलनी नहीं आती थी और रूसी महिलाओं के साथ उन के लेन-देन कैसे होते होंगे, यह हम सोचते रहतेथे। किसी भी तरह के विदेशियों को देखने का ये हमारा पहला मौक़ा था।

मच्छी और मांस बेचने वाले ज्यादातर खटीक और मुसलमान थे। ये लोग आस-पास छोटे-छोटे दड़बों में या दुकान में ही रहते थे। इन दड़बों के आगे टाट का परदा लटकता रहता। हम हैरान होते कि इन छोटेछोटे कमरों में इनके बीवी-बच्चों का कितना दम घुटता होगा क्योंकि कभी भी किसी ने उनके परिवार के किसी सदस्य को बाहर निकलते कभी नहीं देखा था। ये लोग बेहद गंदे रहते, आपस में लड़ते-झगड़ते और मारपीट करते रहते।

इनमें से ज्यादातर दुकानदार अक्सर लौंडेबाज़ी के चक्कर में हमारे ही महल्ले के लड़कों की फिराक में रहते। उन्हें दूध जलेबी या इसी तरह की किसी चीज़ का लालच देकर अंधेरे कोनों में ले जाने की कोशिश करते या फिर अगर दांव लग जाये तो नाइट शो में फिल्म दिखाने की दावत देते। ऐसे लड़कों पर वे खूब ख़र्च करने के लिए तैयार रहते लेकिन हमारी गली के सारे के सारे लड़के उन सबके इस दांव से वाकिफ़ थे और दूध जलेबी तो आराम से खा लेते या कई बार पिक्चर के टिकट लेकर हॉल तक उनके साथ पहुँच भी जाते लेकिन ऐन वक़्त पर किसी लड़के को अपना चाचा नज़र आ जाता तो किसी को तेज़ी से प्रेशर लग जाता और वह फूट निकलता।

इन मामलों में हमसे सीनियर लड़का प्रवेश हमारा उस्ताद था। वह ऐसे लोगों को चूना लगाने और फिर ऐन वक़्त पर निकल भागने की नई-नई तरक़ीबें हमें बताता रहता था। प्रवेश ने तो कई बार उनके पैसों से खरीदी पिक्चर की टिकट बाहर आकर बेच डाली थी। गफूर नाम का कसाई इस मामले में सबसे ज्यादा बदनाम था। उसे सब कपूरा कहते थे। वह एक-एक करके महल्ले के सारे लड़कों पर हाथ आजमा चुका था। हर बार वह धोखा खाता लेकिन फिर भी अपनी कोशिश में लगा ही रहता। कुछ दिन शांत रहता, फिर किसी और लड़के को पटाने की मुहिम में लग जाता।

उन्हीं दिनों एक पागल औरत नंगी घूमा करती थी सड़कों पर। किसी ने खाने को कुछ दे दिया तो ठीक वरना मस्त रहती थी। कुछ ही दिनों बाद हमने देखा था कि वह पगली पेट से है। सबने उड़ा दी थी कि ये सब गफूर मियाँ की दूध जलेबी का ही नतीज़ा है।

तो ऐसे माहौल में मैंने अपने बचपन के पूरे चौदह बरस बिताये। लगभग पहली कक्षा से लेकर बीए करने तक। साठ के आस-पास से तिहत्तर तक का वक़्त हमने उन्हीं गलियों, उन्हीं संगी-साथियों और उन्हीं कुटिलताओं के बीच गुज़ारा। ऐसा नहीं था कि वहाँ सब कुछ गलत या ख़राब ही था। कुछ बेहतर भी था और कुछ बेहतर लोग भी थे जो आगे निकलने, ऊपर उठने की जद्दोजहद में दिन गुज़ार रहे थे। सबसे बड़ी तकलीफ़ थी कि किसी के भी पास न तो साधन थे और नहीं कोई राह ही सुझाने वाला था। जो था, जैसा था, जितना था, उसी में गुज़र-बसर करनी थी और कच्चे-पक्के ही सही, सपने देखने थे। न कल का सुख भोग पाये थे न आज के हिस्से में सुख था और न ही आने वाले दिन ही किसी तरह की उम्मीद जगाते थे। किसी तरह हाई स्कूल भर कर लो, टाइपिंग क्लास ज्वाइन करो और किसी सरकारी महकमें से चिपक जाओ। इससे ऊँचे सपने देखना किसके बूते में था। कोई भी तो नहीं था जो बताता कि ज्यादा पढ़ा-लिखा भी जा सकता है।

खुद हमारे घर में हमारे साथ रहने वाले चाचा हमें लगातार पीट-पीटकर हमें ढंग का आदमी बनाने की पूरी कोशिश में लगे रहते। हम स्कूल से आये ही होते और गली में किसी चल रहे कंचों का खेल देख रहे होते या कहीं और झुंड बनाकर खड़े ही हुए होते कि हमारे चाचा ऑफ़िस से जल्दी आकर हमारी ऐसीतैसी करने लग जाते। बिना वजह पिटाई करना वे अपना हक़ समझते थे। न हम कुछ पढ़ने लायक बन पाये और न ही किसी खेल में ही कुछ करके दिखा पाये। दब्बू के दब्बू बने रह गये। जहाँ तक उस माहौल में पढ़ने-लिखने का सवाल था, हमारे सामने तीन तरह के, बल्कि चार तरह के रास्ते खुलते थे। हमारी गली के आस-पास कई दुकानें थीं जहाँ फिल्मी पत्रिकाएं और दूसरी किताबें 10 पैसे रोज़ पर किराये पर मिलती थीं। तीन रुपये महीना दो, तो एक किताब और एक मैगज़ीन रोज़। वहाँ से हम हर तरह की फिल्मी पत्रिकाएं किराये पर लाकर पढ़ते। गुलशननंदा, वेदप्रकाश काम्बोज, दत्त भारती, कर्नल रंजीत और कुछ भी नहीं छूटता था वहाँ हमारी निग़ाहों से। बस छपे हुए अक्षर होने चाहिये। उन्हीं दिनों एक आदर्शवादी सरदारजी ने वहीं कबाड़ी बाज़ार में एक आदर्शवादी वाचनालय खोला और अपने घर की सारी अच्छी-अच्छी किताबें वहाँ लाकर रखीं, ताकि लोगों का चरित्र निर्माण हो सके। तब मैं ग्यारहवीं में था। तय हुआ तीस रुपये महीने पर मैं स्कूल से आकर दो-तीन घंटे वहाँ बैठकर उस लाइब्रेरी का काम देखूँ।

भला इस तरह की किताबों से कोई लाइब्रेरी चलती है। मजबूरन उन्हें भी फिल्मी पत्रिकाओं और चालू किताबों का सहारा लेना पड़ा। वहाँ हर तरह की किताबें खूब पढ़ने को मिलतीं। दिन में तीन-तीन किताबें चट कर जाते। ये पुस्तकालय छह महीने में ही दम तोड़ गया। वे बेचारे कब तक जेब से डालकर किताबें और पत्रिकाएं खरीदते, जबकि मासिक ग्राहक दस भी नहीं बन पाये थे।

स्कूल की लाइब्रेरी में भी हमारे लाइब्रेरियन मंगला प्रसाद पंत हमें चरित्र निर्माण की ही किताबें पढ़ने के लिए देते। जबकि अपने महल्ले की चांडाल-चौकड़ी में हम मस्तराम की किताबों और आगरा से छपने वाली अंगड़ाई तथा आज़ाद लोक जैसी पत्रिकाओं का सामूहिक पाठ कर रहे थे। एक और सोर्स था हमारे पढ़ने का। मैं और मुझसे बड़े भाई महेश स्कूल के पीछे ही बने सार्वजनिक पुस्तकालय में नियमित रूप से जाते थे और वहाँ पर चंदामामा, राजाभैय्या, पराग जैसी पत्रिकाओं के आने का बेसब्री से इंतज़ार करते।

हमारी कोशिश होती कि हम सबसे पहले जाकर पत्रिका अपने नाम पर जारी करवायें। वहाँ जाकर किताबें पढ़ने की हम कभी सोच ही नहीं पाये।

आज अपनी खरीदी पहली किताब याद आ रही है। ग्यारहवीं में फेल हो जाने के कारण स्कूल छूट चुका था। नियमों के अनुसार बारहवीं की परीक्षा एक बरस बाद प्राइवेट ही देनी थी। दिनभर आवारागर्दी करता। कोई छोटा-मोटा काम मिल जाये, तो कर लेता। पता नहीं कैसे लेकिन पाँच रुपये मेरे हाथ लग गये। दिन भर पूरे बाज़ार में भटकता सोचता रहा कि इन पाँच रुपयों से क्या-क्या ख़रीदा जा सकता है। बहुत सारी चीज़ें थीं जो ज़रूरतों की सूची में अरसे से धकापेल मचा रही थीं। बहुत सारी चीज़ें खायी जा सकती थीं, खरीदी जा सकती थीं इन पाँच रुपयों से लेकिन मैं सुबह दस बजे से शाम अब तक की अपनी सबसे बड़ी पूँजी जेब में दबाये भटकता रहा, लेकिन तय नहीं कर पाया।

पता नहीं कैसे हुआ कि मैंने खुद को बाज़ार में किताबों की दुकान के सामने खड़ा पाया। दुकानदार ने पूछा कि क्या चाहिये। मेरे सामने ही शो केस में रखी थी ‘गीतांजलि’। मेरे मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला। मैंने ‘गीतांजलि’ की तरफ़ इशारा कर दिया। अगले ही पल किताब मेरे हाथ में थी। मेरे खुद के पैसों से खरीदी जाने वाली पहली किताब। मैं बेहद रोमांचित था। कीमत देखी- पाँच रुपये। मैंने अपनी जेब से पाँच रुपये का नोट निकाल कर दुकानदार को दे दिया। दुकानदार ने मेरे रोमांच को और बढ़ा दिया और मुझे पचास पैसे वापिस कर दिये। मुझे अब बिलकुल भी याद नहीं कि मैं अपनी पहली अनमोल किताब खरीद कर कैसा महसूस कर रहा था। ये भी याद नहीं कि मैंने ‘गीतांजलि’ कितनी बार पढ़ी और कितनी समझ में आयी। मुझे आज पैंतालीस बरस बाद ये भी याद नहीं कि ‘गीतांजलि’ खरीदने और पढ़ने के बाद मैंने मस्ताम या आज़ादलोक पढ़ना बंद कर दिया था या नहीं लेकिन इतना ज़रूर याद है कि मेरी खरीदी गयी वह पहली किताब बरसों बरस मेरे पास अनमोल ख़जाने की तरह बनी रही।

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रचनाकार: मंतव्य 2 - सूरज प्रकाश का संस्मरण - देहरादून के दिन
मंतव्य 2 - सूरज प्रकाश का संस्मरण - देहरादून के दिन
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