ईबुक - चैतन्य पदार्थ - भाग 5 - नफे सिंह कादयान

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( पुस्तक प्रकृति- पदार्थ विज्ञान ) चैतन्य पदार्थ नफे सिंह कादयान भाग 1   || भाग 2   || भाग 3   || भाग 4 || भाग 5 जैव उत्पत्ति जैव उत्पत्ति ...

( पुस्तक प्रकृति- पदार्थ विज्ञान )

चैतन्य पदार्थ

नफे सिंह कादयान

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भाग 1  || भाग 2  || भाग 3  || भाग 4 ||


भाग 5

जैव उत्पत्ति


जैव उत्पत्ति का आशय पृथ्वी पर निर्जीव पदार्थ द्वारा समस्त सजीव जैविक संरचनाओं के उत्पादन से है। यह पदार्थ का आदि रूपांतरण श्रृंखलात्मक कार्य है जिसमें पदार्थ स्वतंत्र रूप से ऊर्जा दहन करता है। इसमें ऊर्जा गंवाता हुआ पदार्थ न्यून ऊर्जावान पदार्थ के अंदर ऊर्जा दहन करता है। अथवा पदार्थ भिन्न भिन्न प्रकार के रूप धारण करता हुआ सघनता से विरलन की तरफ अग्रसर होता है। जैव रचनाएँ इसी क्रिया के अंतर्गत आती हैं।

अनेक वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी के प्रथम जीवों की उत्पत्ति महासागरों के जल में हुई है। किन्हीं कारणों से (जो की वो कल्पना अनुसार बतलाते हैं) पानी में प्रथम कोशिका बनी और उसके विभाजन से जलीय जन्तु या वनस्पति बन गई। पहले के कुछ दार्शनिकों व जीव वैज्ञानिकों का मत था कि जीवों की उत्पत्ति अफ्रीका के घने जंगलों में हुई जहां सबसे पहले सूक्ष्म जीव बने, तत्पश्चात उनसे अनेक नस्लें अस्तित्व में आई। अनेक वैज्ञानिक, दार्शनिक, धर्माअधिकारी अपने-अपने तर्कों व बुद्धि से मनन कर उत्पत्ति से संबंधित अलग-अलग अवधारणाएं बनाते हैं।

धार्मिक व्यक्ति अपने-अपने ईष्ट देवता को आधार बना कर जीव उत्पत्ति से संबंधित व्याख्यान दे लोगों की जिज्ञासा शांत करते हैं। यह जिज्ञासा स्वयं को जानने की होती है। जानना सुरक्षित होने की तीव्र इच्छा के अंर्तगत आता है। यह लोग अपने-अपने धर्म की आदि पुस्तकों को आधार बना कर परम सत्य के दर्शन (उनके अनुसार) अपने अनुयाईयों को कराते हैं।

मानवों के संदर्भ में सत्य की परिभाषा ऐसी होती है जिसमें किसी एक व्यक्ति के लिखित या मौखिक विचारों के समर्थक जितने अधिक व्यक्ति होते हैं वो ही उसका सत्य का दायरा होता है, पैमाना होता है। अर्थात किसी एक विचार की सत्य कसौटी उस विचार जैसी विचार-धारा के व्यक्तियों में होती है। जीवों की उत्पत्ति का ऐसा कोई एक अटल सत्य विचार नहीं है जिसे सभी मानव मानते हों।

वैज्ञानिकों के पास भी उत्पत्ति से सम्बन्धित अलग-अलग अनेकों विचार हैं। ऐसे ही धार्मिक व्यक्ति भी अपने-अपने धर्मों के अनुसार उत्पत्ति के बारे में अवधारणाएं बनाते हैं। दरअसल सभी व्यक्तियों के मस्तिष्क की संरचना एक जैसी होती है मगर उसमें बुद्धि द्वारा सोचे गए विचार अलग-अलग होते हैं जो पूर्ण तो नहीं मिलते मगर विचार धारा अवश्य मिल जाती है। विचार धारा मिलने के अनेक कारण हो सकते हैं जैसा की बचपन से ही किन्हीं विशेष व्यक्तियों के विचारों को बच्चों को पढ़ाना। धार्मिक पुस्तकों में वर्णित विचारों को बच्चों के दिमाग में बचपन से ही बैठा देना। ये ऐसे कारण होते हैं जिनसे व्यक्तियों के मस्तिष्क में एक जैसी विचार धारा बनती है। दिमाग में डेरा जमा कर बैठ गया कोई विचार ही व्यक्ति का परम सत्य होता है।

कुछ धार्मिक व्यक्तियों का कथन है कि ईश्वर ने एक पुरूष बनाया व एक स्त्री बनाई जिन्हें आदम, हव्वा नाम दिया गया। पृथ्वी के सभी व्यक्ति उन दोनों की सन्तानें हैं। यह तर्क पश्चिम समाज के धार्मिक व्यक्तियों का है। भारतीय महाद्वीप के लोगों में अनेक धर्म पाए जाते हैं। अत: उन सभी की अलग-अलग धारणाएं है। कुछ लोग कहते हैं कि पृथ्वी के धरातल पर एक विराट पुरूष का अवतरण हुआ। उसके शरीर के हिस्सों से विभिन्न जातियों जैसे शूद्र, स्वर्ण, क्षत्रिय, वैश्य आदि की उत्पत्ति हुई। कुछ लोग जीवों को ब्रह्मा, विष्णु, शंकर जैसे देवताओं की संतानें बतलाते हैं। मुस्लिम समाज के अपने अलग तर्क हैं, और भी अनेक मत हैं जिनका वर्णन करने पर बहुत से पेज भर जायेंगे। उनके बारे में सभी जानते ही हैं।

मनुष्य में श्रेष्ठता की भावना व्याप्त है। वह पृथ्वी के अन्य जीवों से खुद को श्रेष्ठ मानता है इसलिए वह सृष्टिकर्ता की कल्पना भी अधिकतर अपने जैसे वजूद को आधार बना कर ही करता है। उसके ईश्वर बैल-बकरी जैसे शरीर के नहीं हो सकते। वह मानव जैसे शरीर में ही होने चाहिये तभी मानव का सत्य पूर्ण हो सकता है। कुछ हिंदू धार्मिकों का मत है कि ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीन देवता पानी के अन्दर से बाहर निकले और उन्होंने पूरी सृष्टि की रचना की जिसमें सभी ग्रह-नक्षत्रों व जीव जन्तुओं का बनना शामिल हैं। अधिकतर हिन्दू वर्ग के लिए यह सत्य विचार है मगर पढ़े लिखे व्यक्ति अधिकतर वैज्ञानिकों के कथनों को ही सत्य के रूप में देखते हैं जबकि वैज्ञानिकों की भी अनेक प्रकार की घोषणाएं केवल कल्पनाओं पर आधारित होती हैं।

वैज्ञानिकों की जैव उत्पत्ति एवं पदार्थ के विषय में की गई घोषणाएं इसलिए अधिक प्रचलित हैं क्योंकि वे किसी एक नियम के विषय में पदार्थ से बने यन्त्रों के माध्यम से कुछ प्रयोग करके दिखा देते हैं। धार्मिक व्यक्ति के पास प्रयोगात्मक शक्ति का अभाव है। वह केवल दिव्य धार्मिक वार्तालापों व अपनी आदि पुस्तकों के अंशो को प्रमाण स्वरूप दिखा कर अपने सत्य के दायरे का गठन करता है। बहरहाल जैव उत्पत्ति के संबंध में दोनों प्रकार के व्यक्तियों का अपना-अपना नजरिया है, जो उनके अनुसार सत्य दर्शन है। इन सभी चीजों को दिमाग में से निकाल कर आइए सबसे पहले तो हम यह देखें की जीवन की प्रथम संरचना क्या है? उसका निर्जीव पदार्थ के साथ क्या संबंध है? और आखिर सजीव पदार्थ की पृथ्वी पर क्या भूमिका है?

A-पृथ्वी के धरातल पर होने वाली सभी प्रकार की दहन क्रियाएँ एकाएक सम्पन्न नहीं होती बल्कि उनमें क्रम-वार दहन चलता है। दहन क्रिया में पदार्थ विभिन्न रूपों में रूपान्तरित होता हुआ गैसों के रूप में परिवर्तित हो जाता है। सजीव पदार्थ दहन क्रिया का ही एक रूप है जिसमें परिवर्तित होता हुआ पदार्थ अपने स्वरूप जैसी एक रचना (कोशिका) बना कर क्रमवार ऊर्जा गंवाता हुआ अपनी यात्रा को पूर्ण करता है, अर्थात समस्त जैव-अजैव अवयवों की यात्रा की मंजिल व रास्ता एक ही है जिसमें सघनता से विरलता की ओर प्रस्थान करता हुआ पदार्थ विभिन्न प्रकार के रूपों का उत्पाद करता है, समस्त सजीव पदार्थ उसमें निरंतर जारी ऊर्जा रूपांतरण चक्र का एक रूप हैं।

B- किसी एक निर्जीव कण में ऋणात्मक व धनात्मक शक्तियां समाहित रहती है। पदार्थ विघटन क्रिया में दोनों शक्तियों के मध्य संघर्ष चलता है। एक शक्ति पदार्थ को विभक्त करने की चेष्टा करती है मगर दूसरी उसकी यथावत स्थिति बनाए रखना चाहती हैं। दोनों शक्तियों का बल बराबर होने के कारण संतुलित बैलन्स बन जाता है जिसमें पदार्थ कण विघटित तो होते हैं मगर लाखों-करोड़ों कण मिलकर अपनी संरचना जैसी एक विशाल (अपने आकार के हिसाब से) रचना (कोशिका) का निर्माण कर देते हैं।

इस जैव रचना में धनात्मक व ऋणात्मक शक्तियां अपने निर्जीव कणों की दोनों शक्तियों की कूल शक्ति का योग होती हैं। यह कोशिका सभी सजीव कारकों की प्रथम संरचनात्मक इकाई होती है। यह स्वयं भी एक स्वतंत्र जीव है और अपने जैसी अनेक इकाइयों का उत्पाद कर अपनी संरचना जैसा ही सघनात्मक ढांचा (शरीर) बना लेती है जिसमें सभी इकाइयां मिलकर एक काल तक ऊर्जा नष्ट करते हुए अंतत: विरल निर्जीव पदार्थ में रूपान्तरित हो जाती है।

C- निर्जीव पदार्थ की प्रवृत्ति आदि से ही सघन कणों के निरन्तर बिखराव से है जो अलग होते समय ऊर्जा का विसर्जन करते हैं। पदार्थ के निरन्तर रूपान्तरित होते जाने का एक तरीका यह भी है कि वह जैव रचनाओं के माध्यम से जटिल संयुक्त कणों को सरल कणों में बदल कर पदार्थ चक्र के सतत् कार्य को आगे बढ़ाता जा रहा है। जैव रचनाएँ किसी भी प्रकार का कोई आश्चर्य जनक उत्पाद नहीं हैं बल्कि यह पृथ्वी के निरन्तर ऊर्जा गंवाने में सहायक एक सरल प्रक्रिया है। इसमें अगर कुछ आश्चर्य जनक तत्व है तो वह मानव चेतना है जिसके माध्यम से पदार्थ अपने ही बारे में अनेक प्रकार के सिद्घांतो की रचना करता है।

D- ऊर्जा सघन पदार्थ की जीवन ज्योति है। विरलन उसे मृत्यु की तरफ ले जाने वाला कारक है। सघन पदार्थ बिखराव से बचने के लिए शक्ति लगाता है। ये ही शक्ति चैतन्य तत्व होती है। अर्थात ऊर्जा रूपी वह आबन्ध जिससे समस्त जैव-अजैव कारकों का वजूद कायम है पदार्थ की जीवन ज्योति हैं। जैव रचनाओं की आन्तरिक संरचनाओं की प्रवृत्ति निर्जीव कणों को विरल करने की होती है मगर वो चेतना को उत्पादित कर अपनी आत्म रक्षा करने की कोशिश भी करती हैं। अर्थात बिखरता हुआ पदार्थ चेतना के माध्यम से अपने आबन्ध को सुरक्षित रखने की चेष्टा करता है। यद्यपि धरातल पर सभी प्रकार के जीव अपने क्रिया-कलापों से जटिल पदार्थ को सरल पदार्थ में रूपान्तरित करते हैं तथापि उनकी उत्पत्ति पदार्थ द्वारा अपने आबन्ध की रक्षा हेतु भी हुई है। या विरलन की तरफ अग्रसर पदार्थ ध्वनि तरंगों की मानिद विरलन के अगले चरण में प्रवेश करने के लिए कुछ देर के लिए संघनित होता है।

मुर्गी पक्षी करोड़ों, अरबों न्यून विरल कणों (कोशिकाओं) का आबंध है। यह एक काल अवधी तक सघन कण (अण्डे) बनाती हुई अतत: बिखर जाती है। सघन कण मुर्गी रूपी विरल कणों को बनाता है। मुर्गी से अण्डा और अण्डे से मुर्गी बनने के चक्र में साधारणतः कुछ होता दिखाई नहीं देता मगर ध्यान से देखें तो इसमें बहुत कुछ होता है। इस क्रिया में पदार्थ फैलाव का वह सतत् चक्र चल रहा है जो आदिकाल से जारी है। अण्डे से जब मुर्गी बनती है तो वह एक नई पदार्थीय रचना होती है जबकि पुरानी मुर्गी मृत हो विरल पदार्थ में बदल जाती है। यह पदार्थ की उसी प्रवृत्ति का एक रूप है जिसमें वह विरल आबंध बनाता हुआ फैलता रहता है। यानी पदार्थ रूपांतरण ही सभी जीवों का पहला व अंतिम ध्येय है।

E- अगर किसी प्रकार का अवरोध न हो तो पदार्थ की प्रवृत्ति प्रचण्ड अग्रिशिखाओं के साथ सतत् एकसारीय रूप में जलने की होती है मगर वह अपने ही वजूद से अनेक प्रकार के तत्वों का उत्पादन कर उन्हें अपनी दहन गति को धीमा करने में भी इस्तेमाल करता है। पदार्थ अपने को अपने ही ऊपर ओढ़कर अपनी मृत्यु से बचाव करता है। जैव रचनाएँ ऊर्जा दहन करती हैं मगर वह दहन नियन्त्रक कारक भी हैं। ऊर्जा के नियन्त्रक तत्व वह कारक हैं जिनमें ऊर्जा का ह्रास हो चुका होता है, अर्थात अति ऊर्जावान पदार्थ की दहन-क्रिया को रोकने के लिए कम ऊर्जावान पदार्थ प्रयास करता है। ऐसा भी हो सकता है कि न्यून ऊर्जा युक्त पदार्थ स्वत्‌ ही ऊर्जावान पदार्थ को ढांप लेता हो।

F- पदार्थ एवं उसके समस्त संरचनात्मक तत्व सघनता से विरलता की दिशा में गतिशील होते हैं। जैसे ध्वनि अपने उद्गम स्थल से सघन-विरल रूप बनाती हुई विलीन हो जाती है, इसी प्रकार जैव रचनाएँ अधिकतम से निम्नतम पदार्थ क्रम बनाती हुई नष्ट होती हैं। ध्वनि अपने उद्गम स्थल पर सघन-संपीडित होकर विरल रूप धारण करती हुई आगे बढ़ती है। इस यात्रा में वह कुछ आगे सरकने पर फिर से सघन-संपीडित रूप धारण करती जाती है मगर इस बार उसके संपीडन में सघनता की मात्रा कम होती है। यद्यपि ध्वनि का संपिडन, विरलन क्रम तब तक जारी रहता है जब तक तरंगों की समस्त ऊर्जा नष्ट नहीं हो जाती तथापि वह हर सघन, विरल क्रम में अपनी संघनित ऊर्जा गंवाती हुई अपने अन्त तक का सफर तय करती है।

सभी प्रकार की जैव रचनाएँ भी ध्वनि एवं प्रकाश की मानिंद पदार्थ की एक श्रृंखलात्मक लयमय शक्ति हैं जो ध्वनि तरगों की ही तरह सघन, विरल रूप बनाती हुई अतत: नष्ट हो जाती हैं।

भूमि रूपी कठोर सघन पदार्थ का परिवर्तित रूप न्यून कठोर सघन पदार्थ के रूप में पेड़-पौधे होते हैं। उसकी श्रृंखला की अगली कड़ी में जीव हैं जो पौधों के उत्पाद हैं वह पेड़-पौधों से कम कठोर सघन विरलिय रूप में होते हैं। जीव पेड़ो का भक्षण कर पदार्थ को और अधिक विरल करने की क्रिया करते हैं। जीवों का भक्षण करने वाले अनेक प्रकार के विषाणु इतने विरल जैव कण होते हैं जैसे वायु में मिश्रित अनेक तत्वों के कण होते हैं।

उपरोक्त F-भाग का अर्थ यह है कि समस्त जैव रचनाओं का उत्पादन पदार्थ में चलने वाली उस स्वत्ः क्रिया के अंतर्गत हुआ है जिसम वह ऊर्जा गंवाता हुआ अपनी विरलन यात्रा की तरफ अग्रसर होता है, जिस प्रकार ग्रह नक्षत्र दूर-दूर भाग रहे हैं, ऐसे ही पदार्थ कण भी विरल हो रहे हैं, जैव रचनाएँ भी इसी क्रम के अंतर्गत स्वत्‌ कार्यरत हैं।

G- पदार्थ यात्रा चक्र में विघटित होता प्रथम सघन पदार्थ अपनी रक्षा के लिए विघटित कणों को झकड़ लेता है। विघटित कण विरल रूप धारण करके फिर कम सघन अवस्था में आ जाते हैं। इस क्रिया में प्रथम विशाल कण से अणु-परमाणुओं की उत्पत्ति होती है। अणु चट्टानों के रूप में दोबारा सघन रूप धारण कर जाते हैं जो प्रथम पदार्थ का विरल रूप है। इसी क्रम में जैव रचनाओं के उत्पत्ति कारक विरलता से सघनता में परिवर्तित होने की चेष्टा करते हुए एक बड़ा सघन तरल गोला (कोशिका) बना लेते हैं। यह ऊर्जा अवरोधक के रूप में होता है। ये गोले सहयोजन करके बड़े जैवतंत्र की रचना करते हैं।

H- धरातल की सभी दहन क्रियाओं का वेग उच्चतर से निम्नतर स्तर की तरफ चलता है। ऊर्जा एकत्र होती है, जल जाती है, फिर एकत्र होती है, और फिर जल जाती है। यह ध्वनि तरंग वाली संपीडन, विरलन जैसी क्रिया होती है। जैव रचनाएँ इसी क्रमानुसार ऊर्जा एकत्र करती हैं व उसका दहन करती हैं। समस्त वनस्पति जगत ऊर्जा एकत्र करता है, प्राणी उसको नष्ट करते हैं।

भूमि रूपी ऊर्जावान पदार्थ से ऊर्जा खींच कर पेड़ उसकी ऊर्जा नष्ट कर देता है। अब ऊर्जा पेड़ में एकत्र हो जाती है। पेड़ को पशु खा कर पेड़ रूपी ऊर्जा नष्ट कर देते हैं। इस प्रकार पशु ऊर्जावान होता जाता है। पशु के नष्ट होते ही ऊर्जा विरल रूप धारण कर जाती है, यानी जैव पदार्थ हवा, पानी, मिट्टी में मिल जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैव रचनाएँ पदार्थ को सघनता से विरलन की और ले जाने वाले कारक हैं जो की ऊर्जा दहन सिद्धांत के अन्तर्गत कार्यरत हैं।

I- किसी मिट्टी के बर्तन में अगर पानी डाल कर रख दिया जाए तो कुछ दिन बाद उसकी दिवार पर हरा रंग दिखाई देने लगता है। यह हरी काई है। इसे अगर सूक्ष्मदर्शी से देखा जाए तो पेड़-पौधों जैसी रचनाएँ नजर आती हैं। पानी ऊर्जा का एक रूप है, काई ऊर्जा नष्ट करने वाला एक कारक है। अगर सूर्य जैसे पिण्ड के आकार की कोई चेतना पृथ्वी पर दृष्टि डाले तो उसे धरातल पर हरी काई ही नजर आएगी। उसे न मानव दिखाई देगा, न पेड़-पौधे, और न ही मानव द्वारा निर्मित कोई भी रचना दिखाई देगी। उसे हरी काई में उभरे हुए कुछ ऊंचे-नीचे भाग दिखाई दे सकते हैं।

मानव के लिए जितनी मोटाई हरी काई की पर्त की होती है व किसी लोहे की छड़ पर लगे जंग की होती है, पृथ्वी को आधार बना कर अगर गणना कि जाए तो जैव रचनाओं के कार्यक्षेत्र के विस्तार की मोटाई भी इतनी ही है। अर्थात समस्त जैव रचनाएँ धरातल पर काई की तरह उत्पन्न होती हैं। वे ऊर्जा सोखती हैं और उसे नष्ट कर देती हैं। प्राकृतिक, अप्राकृतिक यानी मानव जन्य रासायनिक क्रियाओं सहित समस्त जैव क्रियाएँ पृथ्वी की पर्पटी पर लगा जंग ही हैं।

J- किसी एक पिण्ड में जैव रचनाओं की उत्पत्ति दहन अवरुद्ध होने पर होती है। पादप जीव दहन ज्वालाएँ हैं व जन्तु उन्हें नष्ट करने वाले कारक हैं। दहन बिन्दु के धरातल के भीतर पहुंचने व ऊपर पपड़ी जमने पर दहन अवरुद्ध हो जाता है। जैव क्रियाएँ उसे तब तक धीमी गति से जारी रखती हैं जब तक प्रथम पदार्थ अपनी ऊर्जा गंवाता है। उसके पश्चात जैव प्रक्रियाएँ नष्ट हो जाती हैं।

जैव रचनाओं जैसे ऊर्जा दहन कारक सभी पिण्डों पर एक समान नहीं हो सकते। यह उसके घनत्व, दहन गति व दहन क्रम पर निर्भर करता है। जैसे किसी पदार्थीय पिण्ड को सघनता से विरलता की दिशा में रूपान्तरित करने के लिए जैव कारक उत्पन्न होते हैं ऐसे ही अपदार्थीय (शून्य़) विशाल क्षेत्रों में ऐसे जैव कारक उत्पन्न हो सकते हैं जो अपदार्थ को सघन रूप देने का कार्य करते हों। जो निराकार हों और पिण्डों की रचना करने का कार्य करते हों। ऐसी कल्पना की जा सकती है। अर्थात सघन पदार्थ अगर अपनी विरलन यात्रा के लिए दृश्य जैव कारक बना सकता है तो हो सकता है शून्य भी ऐसी शक्ति रखता हो जो अदृश्य जैव कारकों को बना दे। या ऐसे जैव, अजैव कारक भी हो सकते हैं जो हमें किसी भी विधी द्वारा नजर न आते हों।

K- आदिकाल में पृथ्वी आग का एक गोला थी जो निरन्तर ऊर्जा गंवाती हुई धीरे-धीरे ठण्डी होती गई। इसके ऊपरी हिस्से पर लावा जमने से भू-पर्पटी का निर्माण हुआ। आदि में अधिकतर तरल पदार्थ व दहन क्रिया से मुक्त हुआ कार्बनिक पदार्थ घने बादलों के रूप में चक्कर काट रहा था। इन बादलों में प्रचण्ड विद्युत आवेश बनते थे जो धरातल पर वार करते रहते थे। बादलों में ऋणात्मक व धनात्मक शक्तियों के संघर्ष के फलस्वरूप दहन-क्रिया होती थी जिसमें ऊर्जा एकत्र होती व धमाके के साथ जल जाती। यह क्रिया उस कार्बनिक पदार्थ में भी होती थी जो पानी के साथ बादलों में मिश्रित था। जैसे चुंबक को लोहे की कील से रगड़ने पर वह चुंबकीय गुण धारण कर जाती है ऐसे ही आदिकाल में बादलों में शामिल धरातल के ज्वालामुखियों व अन्य क्रियायाओं से निकला अपशिष्ट पदार्थ ऊर्जा एकत्र व मुक्त करने लगा। यह पदार्थ वर्षा की बूंदों में लिपटकर धरातल पर गिरता था। नीचे आने के बाद भी कुछ समय तक इसमें विद्युत संवेगी घटना होती थी। इसमें ऊर्जा बनती व नष्ट हो जाती। इन्हीं से ही प्रथम सरल जैव कोशिकाएँ बनी जो ऊर्जा एकत्र करती व नष्ट कर देती थी।

बादलों में स्थित जल कण सघन होकर जब जमीन पर आते थे तो वह अपने साथ अन्य धूल-धुएं जैसे कार्बनिक कणों को भी लेकर आते थे। बादलों में होने वाली विद्युत जन्य क्रिया धरातल पर आने के बाद भी इन कणों में कुछ समय के लिए होती रहती थी। ये दो प्रकार के कण थे प्रथम ऊर्जा कारक थे व दूसरे उनको अपने में समाहित करने वाले। प्रथम प्रकार की कणकोशिकाएँ पेड़-पौधों के आदि रूप थे और दूसरे ऊर्जा नष्ट करने वाले जीव थे जिनसे सभी जल, थल व नभ में विचरने वाले जीवों की उत्पत्ति हुई।

बादलों की अनियन्त्रित विद्युत जन्य घटना में ज्वालामुखियों से निकले कार्बनिक पदार्थ के कारण दहन से पहले विशाल चुम्बकीय क्षेत्र बनता था जिसमें ये कण जल कणों का घेरा बना एक सेल के रूप में परिवर्तित हो जाते थे। ये क्रिया उसी क्रिया का एक रूप हैं जिसमें आदिकाल से ही पदार्थ परिवर्तित होता आ रहा है। सभी प्रकार की जैव इकाइयां धनात्मक व ऋणात्मक शक्तियों से मिलकर बनी हैं। ये ही शक्तियां समस्त ब्रह्मांड का आधार हैं। ये ही दहन क्रिया करने वाली शक्तियां हैं, जीव उत्पत्ति भी इन्हीं से हुई है।

L- धरातल पर जीवों की निरन्तरता बनी हुई है। अगर सूक्ष्म जीवों की जीवन शैली को देखा जाए तो अनेक ऐसे जीव हैं जो हर रोज पैदा होते हैं और मर जाते हैं। यह सोच तर्क-संगत नहीं लगती कि केवल आदि में ही जीवों के पूर्वजों की उत्पत्ति हुई थी क्योंकि नये नये कीट-पतगें उत्पन्न होते हैं व नष्ट हो जाते हैं। ऐसी कई नई प्रजातियां दिखाई देती हैं जो पहले कभी नहीं थी। जीवन इतने सूक्ष्म कण से शुरू होता है जो सूक्ष्मदर्शी की भी पकड़ में नहीं आता। अनेक जैव कारक तो ऐसे होते हैं जों जैव-अजैव दोनों श्रेणियों में रखे जा सकते हैं।

धरातल पर सूक्ष्म में जैव रचनाएँ निरन्तर उत्पन्न होती रहती हैं जो एक अन्तराल के बाद नष्ट हो जाती है। यह पदार्थ की एक धीमी दहन-क्रिया है जिसमें ऊर्जा गंवाते हुए कण मिलकर गोलाकार रूप धारण कर जीवों की प्रथम इकाइयां बनाते हैं। आरम्भ में ये इकाइयां स्वतंत्र जीव होती हैं मगर अनुकूल परिस्थितियों में दो-तीन सूक्ष्म इकाइयां मिलकर सह-आबन्ध बना दहन क्रिया को अन्जाम देती हैं जिससे जैव रचनाओं में विविधता क्रम बना हुआ है।

पृथ्वी पर अनेक ऐसी जीव प्रजातियां रही है जो विशाल ढांचों के साथ लम्बे समय तक अपने अस्तित्व को बनाए रही मगर अन्तत: नष्ट हो गई। फिर उनका स्थान दूसरी नई प्रजाति ने ले लिया। जब वो भी खत्म हो गई तो तीसरी बन गई इस प्रकार जीवों की पुरानी नस्लें एक अर्से के बाद लुप्त हो जाती हैं। नई उत्पन्न हो जाती हैं। सूक्ष्म जीवों की नस्लें तो हर समय बदलती रहती हैं। ये सूक्ष्म केवल मानव आकलन अनुसार हैं वरना तो इनकी अपनी-अपनी अलग दुनिया होती है। एक कप दहीं बनने में श्रृंखलाबद्घ जीवाणु उत्पन्न होते हैं जो दूध को दहीं में रूपान्तरित करते हैं। दहीं जमने पर इस एक कप में इतने जीवाणु समाए होते हैं जितनी कुल मानवों की पृथ्वी पर जनसंख्या है।

सड़क के किनारे मरे पड़े किसी कुत्ते की लाश हप्ते में ही नष्ट हो जाती है। जिसे उसके शरीर में उत्पन्न कीड़े चट कर देते हैं। इस एक हप्ते में इन कीड़ों के जीवन चक्र को देखा जाए तो पता चलता है कि इस अवधी में वे अपनी कई पीढिय़ों के दर्शन कर लेते हैं। उनके बच्चे होते हैं, बच्चे वयस्क होकर फिर बच्चे पैदा करते हैं। उनके लिए यह एक हप्ता हजारों साल के बराबर होता है जिसमें उनकी अनेक पीढि़य़ां बन कर नष्ट हो जाती हैं।

इस प्रकार हम देखते है कि जैव उत्पत्ति चक्र को काल में नहीं बांधा जा सकता। मानव भी किसी अज्ञात अन्य ग्रह पर रहने वाले विशालतम प्राणी के लिए पृथ्वी पर रेंगने वाले एक कीडे़ के समान हो सकता है। मानव का सारा जीवन उसकी चेतना की गणना अनुसार एक घण्टे का हो सकता है। अत: मानव निर्मित समय चक्र उसकी अपनी सत्य कसौटी तो हो सकती है अन्य जीव उसके दायरे में नहीं आते।

किसी एक स्थान पर निवास करने वाले जीव विकट परिस्थितियों में नष्ट होते हैं मगर उनमें से कुछ जीव जीवित रहने के लिए संघर्ष करते हैं। कठिन परिस्थितियों से मुकाबला करने के लिए उनमें विशेष गुण उत्पन्न हो जाते हैं जो उनके विकास का आधार बनते है। यह विकास अधिक से अधिक समय तक शरीर को बनाए रखने के लिए होता है।

किसी भी जैव इकाई की आयु उसमें स्थित ऊर्जा की मात्रा पर निर्भर करती है। इकाई ऋणात्मक व धनात्मक पदार्थ से निर्मित होती है। यद्यपि इकाई बाह्य कारकों से ऊर्जा ग्रहण करती है तथापि उसकी मूल ऊर्जा का ह्रास होता रहता है। यह ह्रास उस बिन्दु के बाद शुरू होता है जहां इकाई पूर्ण रूप धारण करती है। पूर्ण आकार में आ जाने के बाद इकाई में ऊर्जा का क्षरण शुरू हो जाता है जो एक अवधि के बाद उसे निष्क्रिय कर देता है। संगठनात्मक आबन्ध बनाने के बाद अनेक इकाइयां एक संयुक्त दहन तंत्र (शरीर) की रचना करती हैं। इसमें अगर कोई इकाई नष्ट भी होती है तो तंत्र क्रियाशील रहता है। दरअसल तंत्र में ये इकाइयां उत्पन्न होकर नष्ट होती रहती हैं।

किसी एक तंत्र की तुलना धरातल के उस भाग के जीवधारियों से की जा सकती है जिसमें वे अपनी जनसंख्या बड़ाते हुए जीवन व्यतीत करते हैं। उस भाग पर नये जीव बनते हैं और पुराने नष्ट हो जाते हैं। किसी एक संगठनात्मक तंत्र का आशय है कि एक ऐसी रचना जिसमें करोड़ो-अरबों इकाइयां (कोशिकाएँ) आबन्ध बना कर पदार्थ रूपान्तरण का कार्य करती हैं।

किसी भी जैव रचना में यह इकाइयां स्वतंत्र अवस्था में रहकर सहयोजन के आधार पर कार्य करती हैं। यह उच्च जैव-प्रक्रिया का एक ऐसा सूक्ष्म रूप होता है जिसमें इकाइयों की अनेक पीढिय़ां जन्म लेती व मरती हैं। इस प्रकार रचना का नवीनकरण होता रहता है और वह लम्बे समय तक बनी रहती है। यह जीवों के घर बना कर रहने जैसा है, जिसमें आराम से रहकर वह सन्तान उत्पन्न करते हैं और मर जाते हैं। सन्तानें वयस्क हो फिर सन्तानें पैदा करती हैं मगर घर फिर भी कायम रहता है।

शरीर रूपी घर की नष्ट होने की प्रक्रिया बिल्कुल अलग होती है। वह जीर्ण-शीर्ण बुढ़ा होकर ढहता है। अतत: घर रूपी रचना भी नष्ट हो जाती है मगर तब तक इकाइयों की चेतना की काल गणना अनुसार लाखों वर्ष व्यतीत हो चुके होते हैं। अगर हम मानव रूपी इकाइयों के ढांचे का उदाहरण लें तो उसके मरने तक उसकी शारीरिक इकाइयां लाखों वर्षों का सफर तय कर लेती हैं, उनकी हजारों पीढिय़ां जन्म ले कर मर चुकी होती हैं।

घर में अगर रोशनदान दरवाजे न हों तो अन्दर रहने वालों का दम घुट जाता है। इनसे सांस लेने के लिए हवा आती है। ऐसे ही किसी एक जीव की शारीरिक रचना में इकाइयों द्वारा अपनी सुरक्षा के लिए अनेक छिद्रों का निर्माण किया होता है जिनके माध्यम से वह ऊर्जा ग्रहण करती हैं, सांस लेती हैं, देखती हैं, सुनती हैं व बाह्य पदार्थ से बचाव करती हैं। यह मधुमखियों के निवास स्थान जैसा होता है जिसमें वह बाहर से ऊर्जा ले अपने ही शरीर के कारकों द्वारा घर बनाती हैं, उसमें रह कर अनेक कार्यो को अन्जाम देती हैं।

कोई एक कोशिका पदार्थ दहन की प्रथम इकाई होती है। वह बाह्य पदार्थ का पोषण कर उसे सघनता से विरल क्रम की ओर ले जाती है, उसका शरीर भी इसी आधार पर कार्य करता है। अमीबा जैसी एक कोशीय रचना दहन क्रिया का एकात्मक उदाहरण है जिसमें वह बाहर से पदार्थ ग्रहण कर उसे विखंडित तो करती ही है साथ में अपने शरीर के विखंडनीकरण द्वारा भी पदार्थ के अनेक घटक बनाती है। यह क्रिया जीवों के पदार्थ रूपान्तरण ऊर्जा चक्र को दिखाती है।

जीवों का शरीर व उनकी हर गतिविधियां ऊर्जा दहन तक ही सीमित रहती है। उनका कोशिका विभाजन पदार्थ की उसी प्रवृत्ति के अन्तर्गत आता है जिसमें वह निरन्तर विरल होता जा रहा है। इकाइयां जैसे-जैसे संगठन बनाती जाती हैं उनके संगठनात्मक ढांचे की आयु भी बढ़ती जाती है।

किसी एक इकाई की आयु कम होती है मगर अनेक इकाइयां बनकर वे ढांचे को अधिक समय तक बनाए रखती हैं। हर इकाई में ऊर्जा शक्ति होती है। अगर सिंगल इकाई को एक ऊर्जा शक्ति माना जाए तो किसी एक ढांचे की सभी इकाइयां उसकी कुल शक्ति का योग होती हैं। किसी एक इकाई की आयु कम होती है मगर अनेक इकाइयां संगठन बनाकर ढांचे को अधिक समय तक बनाए रखती हैं।

इकाइयां एक अन्तराल के पश्चात नष्ट होती रहती हैं मगर उनका स्थान लेने के लिए नई इकाइयां उत्पन्न हो जाती हैं। यह उत्पत्ति इकाई विभाजन या उनके सहयोजन से होती है। किसी एक ढांचें की इकाइयों को एक अन्तराल के पश्चात नष्ट होना पड़ता है मगर फिर भी वह जीवित रहने का हर संभव उपाय करती हैं। वे अपनी आत्म रक्षा के लिए ढांचे में अनेक सुरक्षा बिन्दुओं का निर्माण करती हैं जो निम्रलिखित प्रकार से होते हैं--

सांस लेना-

किसी एक रचना की संगठनात्मक इकाइयों द्वारा ऊर्जा प्राप्त करने के लिए एक तंत्र की रचना की हुई होती है जिसके माध्यम से ढांचे की सभी इकाइयां सांस लेती हैं। अर्थात ऋणात्मक ऊर्जा प्राप्त करती हैं। तंत्र की इकाइयों द्वारा मिलकर एक जटिल फिल्टर बनाया हुआ होता है जिसमें वायु शुद्ध होकर इकाइयों के पोषण हेतु पहुंचती है। यह तंत्र दो प्रकार का कार्य करता है। इकाइयों के लिए ऊर्जा लेकर जाता है व दहन के पश्चात जली हुई अशुद्ध ऊर्जा के अवशेषों को वापिस लेकर आता है।

किसी एक इकाई का मुख्य कार्य पदार्थ के रूपान्तरण का होता है। प्राणियों के शरीर की सभी इकाइयां स्वतंत्र रूप से ऊर्जा रूपान्तरण का कार्य करती हैं। यह धीमी दहन क्रिया है जिसमें प्राणी सांसों द्वारा अनजला पदार्थ शरीर के भीतर पहुंचाता है जिसे उसके शरीर की सभी इकाइयां ईंधन के रूप में जलाकर नष्ट कर देती हैं। इसके जलने से जो धुआं रूपी पदार्थ निकलता है उसे वापिस बाहर धकेल दिया जाता है। दरअसल सभी प्राणी दो प्रकार से ऊर्जा ग्रहण करते हैं, भोजन से व सांसो के द्वारा। इनके माध्यम से यह ऊर्जा धनात्मक व ऋणात्मक रूप में शरीर में पहुँच कर दहन क्रिया को अन्जाम देती है।

किसी एक स्वतंत्र इकाई की संरचना में पदार्थ रूपान्तरण हेतु सभी अवयव मौजूद होते हैं। यह भोजन द्वारा धनात्मक व श्वसन द्वारा ऋणात्मक पदार्थ ग्रहण करके उसे रूपान्तरित कर देती है। धनात्मक पदार्थ ऊर्जा है व ऋणात्मक पदार्थ उसकी जलनात्मक शक्ति होती है। अर्थात कोई एक प्राणी जो भोजन करता है उसे पचाने के लिए सांसों द्वारा प्राप्त ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है।

संगठनात्मक इकाइयां एक सांझे तंत्र के माध्यम से ऊर्जा दहन करती हैं। यह क्रिया केवल जन्तु जगत के प्राणियों में होती है। पादप जीव निर्जीव पदार्थ से ऊर्जा ग्रहण कर उसका भण्डारण एवं वितरण करते हैं। वे भूमि से प्रत्यक्ष ऊर्जा लेते हैं जबकि प्राणी उनसे अप्रत्यक्ष ऊर्जा प्राप्त करते हैं। अर्थात ऊर्जा का मुख्य स्रोत भूमि ही है। पहले वह वनस्पति में जाएगी फिर उसे जीव लेंगे।

इकाई द्वारा श्वसन व भोज्य पदार्थ के माध्यम से ऊर्जा लेकर उसका दहन करना उस उच्च दहन क्रिया की प्रतिलिपी है जिसमें आदिकाल में पृथ्वी के धरातल पर प्रचण्ड अग्रिशिखाएँ बनती थी। किसी एक शारीरिक इकाई का पदार्थ रूपान्तरण एवं उसकी मृत्यु सतत् आदि क्रिया का सूक्ष्म रूप है। उसके द्वारा बाहर से ऋणात्मक व धनात्मक पदार्थ लेकर उसका दहन करना उच्च दहन-क्रिया है और उसकी शक्ति का धीरे-धीरे ह्रास होकर उसकी मृत्यु हो जाना धीमी दहन क्रिया के अन्तर्गत आता है।

पृथ्वी के पदार्थ रूपान्तरण क्रम में इकाई की भूमिका सभी पूर्ववर्ती दहन क्रियाओं के समान ही होती है। अगर कुछ बदलता है तो वह दहन वेग है जो कभी धीमा चलता है तो कभी तेज रूख अखतियार कर जाता है। पृथ्वी का सूक्ष्म रूप परमाणु होता है। परमाणु मिलकर पृथ्वी जैसी ही संरचना बनाते हैं जो सभी जीवों की प्रथम इकाई होती है। इस इकाई में स्वतंत्र ऊर्जा दहन चलता है। साथ-साथ इकाई का क्षरण भी होता रहता है। जब उसकी संचय ऊर्जा चूक जाती है तो वह निष्क्रिय हो जाती है। संचय ऊर्जा का आशय उसकी उस शक्ति से है जो उसने अपने आरंभिक निर्माण काल में संचित की थी। अर्थात इकाई अपने यौवन काल में भरपूर संघनित ऊर्जा वान होती है। एक अन्तराल के बाद उसके निर्माता कारकों का विरलन शुरू हो जाता है, जिसमें उसकी संचित शक्ति का ह्रास होने लगता है, अथवा उसके कणों का आबन्ध टूटते वक्त ऊर्जा का ह्रास होता चला जाता है।

किसी एक ढांचे की निर्माता दो शक्तियां होती हैं जो एक ही आबन्ध में स्थित होती हैं। यह धनात्मक व ऋणात्मक शक्तियां होती हैं। पदार्थ रूपान्तरण का कार्य इनमें दहन से शुरू होता है। बाह्य पदार्थ ग्रहण कर ये विखंडन विधि द्वारा अपनी जनसंख्या बड़ा कर ढांचे को वृहत रूप देती हैं। यह क्रिया तब तक जारी रहती है जब तक लगभग जनक ढांचे के पूर्ववर्ती ढांचे जितना आकार न हो जाए। तत्पश्चात सभी संरचनात्मक इकाइयों में क्षरण शुरू हो जाता है। और अन्तत पूरा ढांचा बिखर जाता है। अर्थात किसी भी जीव के पैदा होने वाले बच्चे में तब तक कोशिकाओं का श्रृंखला विभाजन होता रहता है जब तक वह आकार प्रकार में लगभग अपने जन्मदाता के समान न हो जाए। उसके पश्चात नई कोशिकाएँ पुरानी का स्थान लेने के लिए तो बनती हैं मगर वह श्रृंखला विभाजन क्रिया रूक जाती है जो उसके गर्भ काल से शुरू हुई थी। अब उसका मृत्युकाल आरम्भ हो जाता है जिसमें उसके तमाम अवयवों में क्षरण शुरू हो जाता है।

खाद्य पदार्थो द्वारा-

किसी एक संगठनात्मक ढांचे की इकाई अगर बाह्य पदार्थ ग्रहण नहीं करेगी तो वह कुछ देर ही जीवित रह सकती है। ये इसलिए होता है क्योंकि सभी इकाइयों का निर्माण कार्य ऊर्जा दहन सिद्धांत पर कायम है। इकाई का कार्य पदार्थ रूपान्तरण का है इसलिए वह बाह्य पदार्थ ग्रहण करती है। यद्यपि वह श्वसन द्वारा पदार्थीय ऊर्जा ग्रहण करती है मगर इससे दहन क्रिया पूर्ण नहीं होती। इसे पूर्ण करने के लिए दो शक्तियों की आवश्यकता होती है जिसे इकाइयों द्वारा भोज्य ग्रहण विधि द्वारा पूरा किया जाता है।

उदाहरण के लिए मोर धनात्मक पदार्थ का प्रतिनिधित्व करता है और मोरनी ऋणात्मक पदार्थ है। जनन क्रिया के अन्तर्गत मोर ऋणात्मक पदार्थ मोरनी के शरीर में पहुँचा देता है जहां पर मोरनी के धनात्मक पदार्थ के सहयोजन से अण्डे (कोशिका)की रचना बनती है। अण्डा दो विपरित पदाथों का योग है जिसमें पीला भाग मोरनी का धनात्मक पदार्थ है और ऊपरी सफेद भाग मोर का ऋणात्मक पदार्थ होता है।

पदार्थ रूपान्तरण दहन-क्रिया के अन्तर्गत एक निश्चित ताप पर यह दोनों प्रकार का पदार्थ बच्चे के रूप में परिवर्तित हो जाता है मगर दोनों ही पदार्थ अपनी यथास्थिति बनाए रखते हैं। अर्थात दोनों शक्तियां अलग-अलग रहती हैं। वे एक दूसरे के विपरीत है इसलिए किसी भी विधी द्वारा ऊर्जा रहित अवस्था में उन्हें मिश्रित नहीं किया जा सकता। अंडे में बच्चा बनने की प्रक्रिया में अंडे की लाखों-करोड़ो सूक्ष्म प्रतिलिपियां बन जाती हैं और उनमें भी धनात्मक पदार्थ कोशिका के केद्र पर व ऋणात्मक पदार्थ ऊपर होता है। इस प्रकार बच्चा दो शक्तियों का संयुक्त रूप है। ऊर्जा दहन जारी रखने के लिए उसे दोनों शक्तियों की आवश्यकता होती है जो वह भोजन द्वारा धनात्मक व सांसों द्वारा ऋणात्मक ऊर्जा से पूरी करता है।

अंडे में बच्चा पूर्ण विकसित हो जाने के बाद अर्थात धनात्मक व ऋणात्मक शक्ति द्वारा सहयोजन करके बनाए गए ऊर्जा दहक ढांचे के पूर्ण हो जाने पर दहन के लिए उसे बाह्य ऊर्जा की आवश्यकता होती है इसलिए वह कवच तोड़ कर बाहर आ जाता है। अब यह ढांचा बाहर से ऊर्जा लेकर उसे नष्ट करता है। यह कार्य वह तब तक जारी रखता है जब तक उसकी संरचनात्मक ऊर्जा खत्म होती है। इसके बाद यह ढांचा पदार्थ के विरल रूप में बिखर जाता है।

मोरनी अरबों-खरबों इकाइयों का ढांचा है। जैसे सभी पेड़-पौधे एक अवधी के पश्चात बीज उत्पन्न करते हैं ऐसे ही मोरनी में जनन इकाइयां बनती हैं जो मोरनी की ही प्रतिलिपि होती हैं। हर इकाई में उसकी कूल इकाइयों जितनी संख्या के अति सूक्ष्म अवयव होते हैं। निषेचन क्रिया से उसके द्वारा विसर्जित इकाई प्रतिलिपि इकाई के साथ सहयोजन करके आबन्ध बनाती है।

मोर द्वारा विसर्जित इकाई प्रतिलिपि इकाई का पोषण तत्व होती है। मोरनी की जनन इकाई वृहत रूप धारण करने के बाद अंडे का पितक व मोर की इकाई सफेद भाग बनाती हैं। दोनों के सहयोजन से बच्चा बनने के पश्चात वह मुख द्वारा भोजन करता है और सांसो द्वारा वायु से ऊर्जा रूपी भोजन लेता है। ये दोनों ऋणात्मक व धनात्मक शक्ति रूप होते हैं जिनसे उसका जीवन चक्र चलता है।

जीव अपनी इकाइयों को सुरक्षित रखने के लिए भोजन करते हैं, व सांस लेते हैं। भोजन द्वारा जो ऊर्जा शरीर में पहुंचती है वह संचित की जा सकती है इसलिए जीव भोजन के अभाव में कुछ समय तक जीवित रह सकता है मगर सांस लिए बिना जीवित नहीं रह सकता क्योंकि वायु को संचित करने के लिए शरीर में कोई उपाय नहीं होता। जैसे जलाने के लिए लकडिय़ों का भण्डारण तो किया जा सकता है मगर उसे जलने के लिए जिस वायु (ऑक्सीजन) की आवश्यकता पड़ती है, उसका भण्डारण नहीं होता। ऐसे ही शरीर रूपी दहन तंत्रों में भोजन के साथ सांस लेना भी आवश्यक है अन्यथा वह पदार्थ रूपान्तरण कार्य बन्द करके निष्क्रिय हो जाते हैं।

सहयोजन-

सहयोजन का आशय उस युक्ति से है जिसको अपना कर प्रथम इकाइयां अपने संगठनात्मक ढांचे को अधिक से अधिक समय तक बनाए रखने की चेष्टा करती है, अथवा ऊर्जावान पदार्थ द्वारा ऊर्जा रूपान्तरण का एक तरीका यह भी है कि वह ऊर्जा को गोलाकार आकृतियों में कैद कर बाह्य पदार्थ से ऊर्जा लेकर उसका दहन करता रहे। इसमें ऊर्जा शक्ति का ह्रास हो जाता है और पदार्थ विरल कणों में बिखर जाता है। या फिर ऊर्जावान पदार्थ द्वारा एक असंख्य कोषों वाली आकृति में संगठनात्मक रूप से स्थापित होकर स्वतंत्र रूप में ऊर्जा दहन करना व विरल अवस्था धारण करते हुए पदार्थ रूपान्तरण क्रिया को तेज से तेजतर करते जाना सहयोजन कहलाता है।

सहयोजन उस बिन्दु से शुरू होता है जहां दो इकाइयां मिलकर युग्मक बनाती हैं। बाह्य ऊर्जावान पदार्थ लेकर यह द्घि-विखंडन विधी द्वारा विभक्त होती हैं। पदार्थ की कुछ ऊर्जा से आबन्ध बनता है बाकी ऊर्जा इकाइयों का आकार एवं विस्तार बनाती हैं। ऊर्जा एक इकाई से दूसरी इकाई को परस्पर चिपका कर रखती है मगर किसी एक ढांचे की सभी इकाइयां बांध्य रूप में नहीं होती, कुछ स्वतंत्र विरल अवस्था में भी होती हैं।

सभी ढांचागत रचनाओं में इकाइयों के अपने-अपने कार्यक्षेत्र होते हैं। इसलिए ये अलग-अलग आकार प्रकार की हो सकती हैं। वैसे तो सहयोजन द्वारा बनाए गए आबन्ध (इकाइयों के) उनकी अधिक से अधिक सुरक्षित होने की प्रवृत्ति को दर्शाते हैं मगर कुछ स्वतंत्र इकाइयां द्वि-विभाजन क्रमानुसार अन्नत: काल से बनी हुई हैं। विभाजन प्रक्रिया ही इनका जीवन है और ये ही इनकी मृत्यु हैं। सभी बड़े जीव सहयोजन आबन्धक इकाइयों के चलते फिरते ढांचे है। कुछ अति सूक्ष्म जीव स्वतंन्त्र इकाई होते हैं। सभी पादप जीव ऊर्जा संग्राहक स्थिर इकाइयों के ढांचे हैं।

उच्चवर्गीय जीवों में इकाइयां अनेक प्रकार की रचनाओं का निर्माण करके समुदायिक रूप से कार्यरत रहती हैं। इकाइयों के सहयोजन की तुलना मधुमक्खियों से की जा सकती है। ये मक्खियां स्वतंत्र सहयोजन का एक रूप हैं जो विरल आबन्ध बना कर रहती हैं। अपने कार्य स्थल पर ये अलग-अलग कार्य करती हैं मगर ऊर्जा प्राप्त करने के लिए इन्हें बाहर जाना पड़ता है। रानी का कार्य अण्डे देने का होता है। कुछ मक्खियां केवल जनन क्रिया को क्रिर्यान्यवन करने के लिए होती हैं। कुछ कामगार, छाते की रक्षा करने वाली हैं और कुछ सफाई कर्मी होती हैं।

मधुमक्खियों को ऊर्जा लेने के लिए छत्ते से बाहर जाना पड़ता है मगर ढांचागत शारीरिक इकाइयों को ऊर्जा लेने के लिए बाहर जाने की आवश्यकता नहीं होती। इन्होंने आबन्ध बना कर अपने ढांचे को ही इस रूप में ढाल दिया है कि वह सभी इकाइयों की पुर्ति के लिए कार्यरत रहता है। इकाइयों ने मिलकर चेतना का निर्माण किया जिसके माध्यम से वे अपनी रक्षा करती हैं। उन्होंने अपने इस ढांचे में हाथ, पांव, नाक, कान, मुंह आंख आदि जैसे अनेक ऐसे अंग बनाए जिनसे वह गतिशील रहता है।

निषेचन क्रिया-

निषेचन क्रिया का आशय दो जीवों के मिलन से तीसरे जीव की उत्पत्ति से है। अथवा दो जीवों द्वारा उन इकाइयों के आदान-प्रदान से है जो विभक्तिी करण द्वारा नये जीव को बनाती हैं। या फिर निषेचन क्रिया पदार्थ के दहन क्रम की प्रथम क्रिया है जिसमें ऋणात्मक इकाई धनात्मक इकाई के साथ सहयोजन कर दहन-क्रिया आरम्भ करती है।

निषेचन क्रिया को केवल जीवों के संदर्भ में ही नहीं लिया जा सकता बल्कि इसका दायरा अति विस्तृत है। अगर ध्यान से देखा जाए तो सभी ब्रह्मांड पिण्डों की उत्पत्ति निषेचन क्रिया द्वारा ही होती दिखाई देती है। सभी जैव-अजैव अवयवों की मुख्य उत्पत्ति आधार निषेचन क्रिया ही है। निषेचन क्रिया ऐसी घटना है जिसमें ऊर्जा पदार्थ को लपेटकर मुक्त होती है। अथवा पदार्थ के अवयवों के संघर्ष में मुक्त होती हुई ऊर्जा अपने जैसा नया उत्पादन तैयार करती है।

बादलों में पानी के सूक्ष्म कणों में विभवान्तर पैदा होने से चमक के साथ गर्जन पैदा होती है। यह पानी से ऊर्जा मुक्त हो उसके जलने की घटना है। इसमें घर्षण का प्रतिफल विद्युत ऊर्जा है जिसका एक बड़ा भाग विलुप्त हो जाता है। कुछ ऊर्जा बच जाती है जो ऊर्जा के सूक्ष्म कणों के रूप में स्वतंत्र हो जाती है। यही ऊर्जा कार्बनिक अवयवों के साथ सहयोजन करके जैव-प्रक्रिया की उत्पत्ति करती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बादलों में होने वाली घटना निषेचन क्रिया का एक वृहत रूप है।

वह महाविस्फोट स्थितिजन्य पदार्थ जिसमें ब्रह्मांड का सारा पदार्थ किसी एक स्थान पर एकत्र था उसमें जो स्थितियां विस्फोट के लिए जिम्मेवार थी वह निषेचन क्रिया का ही वृहत रूप थी। लाखों-करोड़ों पिण्डो में स्थापित होने के पश्चात उनमें होने वाले परिवर्तन को उत्प्रेरित करने वाले कारक निषेचन क्रिया का वृहत रूप हैं। समस्त जैव अवयवों की उत्पत्ति जन्य स्थितियों की रचना को आरम्भ करले वाले कारक निषेचन-क्रिया के तहत आते हैं।

निषेचन क्रिया ऋणात्मक एवं धनात्मक पदार्थ के सहयोजन से ऊर्जा दहन का प्रारम्भ करने वाली क्रिया है। दोनों प्रकार के पदार्थों के मिलन के बाद जो श्रृंखलाबद्ध इकाई विभक्तिकरण होता है उसको अन्जाम देने वाली स्थितियां निषेचन-क्रिया के तहत आती हैं। इकाइयों द्वारा अपने ढांचे को पूर्ण आकार देने के पश्चात उसमें बनने वाली नई उत्पत्ति जन्य (बीज) इकाईऱ्यों को उत्पन्न करने वाली स्थितियां निषेचन क्रिया के तहत आती हैं। उस स्थिति के पैदा करने वाले कारक जिसमें पदार्थ सघन अवस्था त्याग कर विरलता की और अग्रसर होता है वह निषेचन क्रिया ही होती है।

निषेचन क्रिया द्वारा जीव अपनी निरन्तरता बनाए रखते हैं। किसी एक श्रृंखला के जीव दो प्रकार के पदार्थीय गुण रखते हैं। ऋणात्मक नर में व धनात्मक मादा में। इनमें निषेचन क्रिया उस बिन्दु से शुरू होती है जहां नर अपनी प्रथम ऋणात्मक इकाइयों को मादा की धनात्मक इकाई के साथ सहयोजन के लिए वित्सर्जित करता है। मादा के शरीर में ऋणात्मक पदार्थ पहुंचने पर श्रृखलाबद्ध विस्फोट (कोशिका विभाजन) होने लगता है जिससे नई इकाइयां बन कर एक नया ढांचा बनाती हैं।

जल व थलचर जीवों में निषेचन क्रिया के प्रति आकर्षण बनाए रखने के लिए उनके शरीर की इकाइयों ने मिलकर निषेचन इच्छा पैदा की है। जैसे भोजन करने व पानी पीने की इच्छा होती है। ऐसे ही निषेचन क्रिया के लिए चेतना को आकर्षित करने के लिए इच्छाजन्य स्थितियां पैदा की हुई हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो कोई भी जीव इस क्रिया में भाग नहीं लेता।

निषेचन क्रिया जीवों के शरीर बनने की उत्पत्ति जन्य दहन क्रिया के प्रथम कारक हैं। जैसे कोयले में आग लगा देने के बाद वह तब तक जलता रहता है जब तक राख में परिवर्तित न हो जाए ऐसे ही निषेचन क्रिया में ऋणात्मक इकाई धनात्मक इकाई के साथ मिलकर दहन क्रिया आरम्भ करती है। यह दहन बाह्रया पदार्थ को सोख कर होता है। इस क्रिया में बाह्रया पदार्थ विरल हो इकाइयों की संख्या में वृद्घि करता जाता है। किसी एक निश्चित अवधी के बाद इकाइयां अपनी पूर्ववर्ती ढांचों के समानुपात में होकर प्रथम इकाइयों की रचना करने लगती हैं। प्रथम इकाइयों को फिर वह जीव निषेचन क्रिया द्वारा दूसरे जीव में पहुँचाकर दहन-क्रिया के अन्तर्गत नए जीव को उत्पन्न करता है। इस प्रकार जीवों की निरन्तरता बनती जाती है।

जैसे माचिस की डिब्बी के मसाले पर उसकी तिल्ली रगड़ने पर ज्वाला उत्पन्न हो तिल्ली को जलाने लगती है ऐसे ही निषेचन से दो विपरित गुणों वाली नर व मादा कोशिकाओं के मिलन से दहन शुरू हो जाता है। इसकी तुलना परमाणु विस्फोट से की जा सकती है। उसमें जिस प्रकार श्रृंखलाबद्ध पदार्थ फैलता है ऐसे ही निषेचन के बाद दो से चार, चार से सोलह.....बत्तीस... फिर सैकड़ों हजारों लाखों कोशिकाएँ आबंध बना अपनी प्रथम धनात्मक इकाई की प्रतिलिपि बनाने लगतीं हैं।

कुछ जीव ऐसे भी है जिनमें ऋणात्मक व धनात्मक दोनों प्रकार की प्रथम इकाइयां होती हैं। इनमें निषेचन क्रिया जीव के अन्दर ही सम्पन्न हो जाती है। यहाँ नर व मादा दो अलग-अलग ढांचे नहीं होते बल्कि एक ही ढांचे में दोनों के गुण होते हैं। यह अंतरिक निषेचन क्रिया द्वारा नए जीव की उत्पत्ति कर देता है। यह प्राणी व पादप दोनों प्रकार के जीव हो सकते हैं। सभी प्रकार के जड़ चेतन जीवों में किसी न किसी रूप में निषेचन-क्रिया चलती है। कई पादप जीवों में सूक्ष्म रूप में निषेचन चलता है जिसमें वायु, पक्षी व अन्य जीव सहयोग करते हैं।

निषेचन-क्रिया द्वारा उत्सर्जित ऋणात्मक इकाई धनात्मक इकाई से मिलकर यूग्मक बनाती है जिसमें इकाइयों का श्रृंखलाबद्ध निर्माण शुरू हो जाता है। इकाई जिस किसी एक श्रृंखला के जीव की होती है वह उतना ही बड़ा ढांचा बनाती है। यह ढांचा उतना ही बड़ा हो सकता है जितनी शक्ति उसने अपनी श्रृंखला द्वारा आरम्भिक उत्पत्ति से वर्तमान तक एकत्र की होती है। जीवों के आकार का बड़ा-छोटा होना इस बात पर निर्भर करता है कि उनकी श्रृंखला ने आदि से ऊर्जा रूपान्तरण क्रम में अपना कितना विकास किया है।

किसी एक बड़े भू-भाग पर अग्रि अगर प्रज्वलित होती है तो उसकी अग्रिशिखाएं ऊर्जा क्रमानुसार बनती हैं। ऊर्जा अधिक है तो ऊंची लौ बनेगी अगर कम है तो छोटी लौ बन जाती है। इसी प्रकार हर जीव का अपना-अपना ऊर्जा भण्डार होता है जो उसने अपनी श्रृंखला के आदि क्रमानुसार बनाया होता है। अगर ऊर्जा अधिक (ढांचागत) है तो जीव बड़े डील डोल वाला होता है, अगर कम है तो छोटा होता है। दरअसल हरेक जीव के विकास का आशय है कि उसने अपनी श्रृंखला के उत्पत्ति काल से वर्तमान तक ऊर्जा दहन के लिए कितनी कोशिका इकाइयों का निर्माण किया है जो सहयोजन कर ऊर्जा दहन करती हैं। या वह कितनी कोशिकाओं का आबंध है जो उसके ढांचे में कार्यरत हैं।

हम देखते हैं कि एक इकाई (एक कोशीय) वाले जीव अति सूक्ष्म होते हैं क्योंकि ये ऊर्जा के सबसे छोटे ऊर्जा दहक हैं। इतने छोटे आकार में ही इनमें बड़े जीवों की तरह जीवन के सभी गुण व कुछ अंग भी छुपे होते हैं। अन्तर केवल पदार्थ रूपान्तरण का होता है। यहीं से जीवों का विकास क्रम शुरू होता है। सिंगल इकाई नगण्य पदार्थ रूपान्तरण कर पाती है मगर दो मिलकर डबल रूपान्तरण करती हैं। और जितनी अधिक इकाइयां मिलकर कार्य करती जाएंगी रूपांतरण भी बढ़ता चला जाएगा।

एक ऐसा कीट पतंगा जो हमारी चेतना के मापन अनुसार बहुत छोटा होता है लगभग एक लाख से भी अधिक इकाइयों का बना होता है। वह एक कोशीय जीवों से लाख गुणा अधिक पदार्थ रूपान्तरण करता है, और उससे बड़े जीव अरबों-खरबों इकाइयों से निर्मित होते हैं जो अपने-अपने आकार के हिसाब से अधिक से अधिक ऊर्जा क्रम बनाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि ढांचागत जीवों में जितनी अधिक इकाइयां होती हैं वे उतना ही अधिक से अधिक ऊर्जा दहन करते हैं।

पादप जीवों में विकास का आधार उनके ऊर्जा विसर्जन क्रमानुसार होता है। अति छोटे जीव अपने उत्पत्ति स्त्रोत से कम ऊर्जा सोख कर अपने ढांचे में भण्डारण करते हैं, ऊर्जा को वायुमण्डल में विसर्जन करते हैं। बड़े जीव अधिक ऊर्जा एकत्र करते हैं। धरातल पर अंकुरित होने वाले चने मसूर के छोटे-छोटे पौधे पृथ्वी से कम ऊर्जा खींच पाते हैं। वायु में उनके द्वारा किया जाने वाला ऊर्जा विसर्जन भी अधिक नहीं होता जबकि पीपल बरगद जैसे बड़े पेड़ उनसे बहुत अधिक ऊर्जा संचित व विसर्जित करते हैं।

किसी एक जीव का आकार उस बिन्दु पर समाप्त होता है जहां पर वह अपनी निरन्तरता बनाए रखने के लिए उत्पत्ति इकाइयों की रचना करने की क्षमता हासिल कर लेता है। गेहूँ का दाना भूमि पर गिर कर उचित वातावरण में अंकुरित होता है। बीज से जडे़ं निकल कर भूमि से ऊर्जा खींच कर तने को ऊंचा करती जाती हैं। एक निश्चित अवधी के बाद यह पौधा दोबारा बीज रूप में गेहूँ उत्पन्न कर देता है। उसके पश्चात पौधा मृत्यु को प्राप्त हो बीज के साथ भूमि पर गिर जाता है और बीज फिर पौधों का रूप लेने के लिए तैयार होने लगता है।

अगर ध्यान से देखा जाए तो दिखाई देता है कि समस्त जैविक कारक ऊर्जा दहन के स्रोत हैं। पृथ्वी के धरातल से प्रचण्ड अग्रिशिखाएं शांत हुई और लावे ने ऊपरी भू-पर्पटी का रूप धारण कर लिया मगर जो दहनक्रम आरम्भ से बना हुआ था वह निरन्तर जारी है। अगर कुछ बदला है तो उसका स्वरूप बदल गया है। आदि में प्रत्यक्ष भू-पर्पटी जलती थी जिसमें उसकी ऊर्जा का निरन्तर ह्रास होता था। अब ये ही ऊर्जा दहनक्रम जैव रचनाएँ अप्रत्यक्ष रूप में बना रही हैं। समस्त वनस्पति रचनाएँ धरातल से ऊर्जा खींचती है और प्राणी उसे नष्ट कर देते हैं।

वह क्रिया जिसके अन्तर्गत पृथ्वी आदिकाल से धीरे-धीरे ऊर्जा गंवाती हुई ठण्डी होती आ रही है वह क्रम निरन्तर बना हुआ है। धीमी दहन क्रिया पृथ्वी के आन्तरिक भाग में चल रही है मगर उसके ऊपरी भाग पर दहन क्रिया के कारकों का स्वरूप बदल चुका है, फिर भी ऊपरी भाग का सम्पर्क भीतरी दहन बिन्दु से जुड़ा हुआ है। एक काल अवधी के बाद जब आन्तरिक दहनक्रम रूक जाएगा तो ऊपरी जैव दहन क्रियाएँ भी बन्द हो जायेंगी मगर इस अवधी में जीवों की अनेक प्रजातियां उत्पन्न व लुप्त हो चुकी होंगी।

किसी एक जीव की श्रृंखला के सभी जीव लगभग समानुपाती होते हैं मगर उनके घनत्व में अन्तर हो सकता है। यह अन्तर ऊर्जा की उपलब्धता पर निर्भर करता है। जैव श्रृंखला की एक रचना में इकाइयां लगभग समान होती हैं मगर ऊर्जा भण्डारण के कारण आकार में अन्तर आ जाता है। दरअसल हरेक श्रृंखला की जैव रचनाएँ एक जैसी इकाइयों के आबन्ध द्वारा बनाई गई होती हैं। इकाइयां स्वयं भी ऊर्जा का प्रतिरूप है और ऊर्जा दहन भी करती हैं। यह दहन बादलों में बनने वाले दहन क्रमानुसार होता है जिसमें ऊर्जा पानी से मुक्त होती है। अधिकतर नष्ट हो जाती है और कुछ बच कर स्वतंत्र हो जाती है।

हरेक जैव श्रृंखला अपनी उत्पत्ति काल से जिसमें वह दो इकाइयों के सहयोजन से बने जीव से सफर शुरू करके ऊर्जा भण्डारण क्षमता को बड़ा कर अपना विकास करती जाती है। एक कोशीय जीव विभक्तिकरण के आधार पर अपनी निरन्तरता बनाए रखते हुए पदार्थ रूपान्तरण करता रहता है। साथ-साथ वह अपनी इकाई में भी ऊर्जावान पदार्थ स्टोर करता जाता है। उचित वातावरण में एक कोशीय इकाई विभक्त न होकर संयुक्त रूप से ऊर्जा दहन करने लगती है। अथवा अनुवांशिक गड़बड़ी के कारण भी एक कोशीय जीव विभक्तिकरण के समय अलग जीव न बनकर संयुक्त रूप से ऊर्जा रूपान्तरण करता है। अब इसमें दो इकाइयां एक ढांचे में रहकर ऊर्जा रूपांतरण करने लगती हैं। इस प्रकार अनेक इकाइयां संयुक्त होकर ऊर्जा दहन करती हुई अपना विकास आरम्भ करती हैं।

वह ऊर्जा स्टोर करती हैं और उसका दहन-कर उसे रूपान्तरित कर देती हैं। इनसे एक ही प्रकार के दो-तीन इकाइयों वाले सूक्ष्म जीवों की श्रृंखला बनती है जिसमें ऊर्जा के अभाव में कुछ जीव अपना विकास नहीं कर पाते। कुछ सामान्य ऊर्जा के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही प्रकार के बने रहते हैं। कुछ जीव अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करके एक दो इकाइयों की वृद्घि कर लेते हैं जिसमें जीवों की उसी श्रृंखला की अगली कड़ी के जीव बनते हैं।

किसी एक इकाई वाले जीव (शैल) में धनात्मक एवं ऋणात्मक पदार्थ मौजूद होता है जिससे वह चार्ज (क्रियाशील) रहता है। दोनों प्रकार का पदार्थ वह बाह्य वातावरण से ग्रहण करता रहता है। बाहरी पदार्थ उसके आकार में वृद्घि करता जाता है। एक निश्चित अन्तराल के पश्चात इकाई में आन्तरिक निषेचन-क्रिया के अन्तर्गत चुम्बकीय स्थिति बन जाती है जिससे मध्य बिन्दु से बाहर की और दो विपरीत ध्रुव बन कर पदार्थ विभाजन शुरू हो जाता है। इस प्रकार दो नये जीव बनकर स्वतन्त्र रूप में बाहरी पदार्थ से ऊर्जा ग्रहण करने लगते हैं। यह दोनों जीव धनात्मक या ऋणात्मक गुणो के साथ विभक्त होते हैं।

सहयोजी आबन्ध वाली इकाइयों में विभन्तिकरण तो होता है मगर यह एक झिल्ली नुमा कवच के अन्दर होता है। यह किसी एक श्रृंखला की प्रारम्भिक अवस्था होती है। इसमें इकाइयां एक ढांचा बना कर उसमें अपनी वृद्धि करती हैं। इस ढांचेनुमा रचना में वह सहयोजन करके कुछ छिद्रों के माध्यम से ऊर्जा दहन करती है। अथवा इकाई विभाजन क्रिया में ऊर्जावान इकाइयां मृत इकाइयों को अपनी सुरक्षा हेतु अपने ऊपर ओढ़कर ऊर्जा दहन क्रिया में हिस्सा लेती हैं। ये ही सभी बहुकोशीय जीव बनने का आधार है।

सभी प्रकार की जैव क्रियाएँ पृथ्वी के ऊर्जा दहन सिद्धान्त पर आधारित हैं, या उसकी प्रतिलिपियां हैं। आरम्भिक प्रचन्ड दहन क्रिया में पदार्थीय सूक्ष्म इकाइयां स्वतंत्र रूप से दहन क्रिया में भाग ले रही थी। एक काल अवधी पश्चात ऊपरी इकाइयां ऊर्जा गंवा कर भू-पर्पटी के रूप में पृथ्वी कवच बन गई जबकि उसके अन्दर अभी भी प्रथम पदार्थ से नई इकाइयां बनने का सिलसिला जारी है। इसी प्रकार सभी जीवों के ऊपर मृत इकाइयों की झिल्ली होती है जो भू-पर्पटी के समान होती है जिसमें ऊपर कवच व अंदर दहन चलता है।

पृथ्वी जीवन का वृहत रूप है और सभी प्रकार की जैव रचनाएँ उसके सूक्ष्म प्रति रूप हैं। सभी सहयोजक ऊर्जावान क्रियाशील बहुइकाइयां अपनी ही ऊर्जाहीन इकाइयों के कवच में विभक्तिकरण द्वारा अपनी निस्तरता बनाए रखती हैं। कोई एक जैव रचना (वनस्पती, प्राणी) अपनी मृत इकाइयों से अपने सुरक्षा के लिए कवच बना जीवन प्रयन्त उसमें धीमी दहन क्रिया करती है।

पृथ्वी सभी जीवों की जननी माता है। सभी प्रकार की जैव रचनाएँ पृथ्वीय गुण रखती हैं। जैसे भू-पर्पटी से आन्तरिक ऊर्जा दहन के कारण अनेक प्रकार के तत्व गैसीय रूप में निकल कर वायु मण्डल में विसर्जित होते रहते हैं ऐसे ही जीवो में भी आन्तरिक दहन से शरीर अनेक प्रकार के तत्व वायू में छोड़ता रहता है। प्राणियों में जैव-अजैव दोनों प्रकार का पदार्थ पाया जाता है। मृत पदार्थीय रचनाएँ उनके शरीर पर जीवन भर जमा होती रहती हैं। यह जैव ऊर्जा दहन का ऐसा ही प्रति रूप है जैसे स्वयं जीव पृथ्वी दहन का प्रति रूप हैं।

जैव-अजैव दोनों प्रकार का पदार्थ सूक्ष्म इकाइयों से निर्मित है। जैव इकाई अजैव इकाइयों से ही बनी होती है। इकाइयों के परस्पर आबन्ध ऊर्जा द्वारा बनाए होते हैं। ऊर्जा के द्वारा ऊर्जावान पदार्थ एक दायरे में लपेटा होता है। ऊर्जा अपने ही वजूद की रक्षात्मक शक्ति है। ऊर्जावान अजैव पदार्थ से ही जैविक इकाइयां बनती हैं जो ऊर्जा सोख कर ऊर्जा द्वारा ही बहुकोशीय इकाइयों के रूप में उत्पन्न होती हैं। ऊर्जा दोनों कारकों का जीवन है और ऊर्जा हीनता उनकी मौत है।

सभी प्रकार की जैव इकाइयां व उनसे निर्मित रचनाएँ ऊर्जावान पदार्थ हैं। वे ऊर्जा का पोषण करके उसे रूपान्तरित करती हैं। ऊर्जा ही सभी जीवों की निरन्तरता बनाए रखने का आधार है। ऊर्जा द्वारा ही प्राणी गतिशील रहते हैं। ऊर्जा ही के द्वारा वे अपनी रक्षा करते हैं। आम के पेड़ पर लगा फलरूपी आम एक अवधी के बाद पक कर नीचे जमीन पर गिर जाता है। बीज फल के मध्य में स्थित है। बीज का ऊपरी भाग उसकी रक्षा हेतु ऊर्जा भण्डार होता है।

पेड़ पर लगने के साथ ही ऊर्जा बीज की रक्षा कवच बन जाती है। नीचे भूमि में मिल ऊर्जा क्षय होकर वह बीज के लिए पोषण तत्व में बदल जाती है। भूमि पर गिरा बीज भूमि से नमी ले अपने ऊपर लिपटी ऊर्जा सोख कर अंकुरित हो जाता है। यह ऐसा है जैसा किसी इंजिन को स्टार्ट करने में बैटरी सहयोग करती है। उसके बाद वह मेन पावर तेल से ऊर्जा लेकर चलता रहता है। ऐसे ही किसी एक जीव के बीज के चारों ओर रक्षा चक्र रूपी ऊर्जा लिपटी होती है जो उस काल अवधी तक उसकी रक्षा करती है जब तक वह बाहया वातावरण से ऊर्जा ग्रहण करने के काबिल न हो जाए।

मानव सहित सभी प्राणियों का प्रथम व अन्तिम ध्येय ऊर्जा रूपान्तरण का होता है। उनकी सभी प्रकार की कोशिशें ऊर्जा भण्डारण, उसका पोषण कर नष्ट करने में होती हैं। चुहिया एक चतुर प्राणी है। वह बरसात के मौसम में जब अपने घर से बाहर नहीं निकल पाती तो पहले ही अन्न का भण्डारण कर लेती है। वह खेत से बालियां (गेंहूं या धान का बीज) तोड़ कर अपने बिल में एकत्र कर लेती है। यह प्राणियों की ऊर्जा भण्डारण व नष्ट करने की प्रवृत्ति है जिसमें वह पृथ्वी की प्रथम दहन क्रिया के निरन्तर प्रवाह के अंर्तगत लगे हुए हैं।

मानव सहित सभी प्राणी तरह तरह से ऊर्जा संचय व उसके दहन में लगे हुए हैं। जैव रचनाएँ पृथ्वी के परिवर्तन चक्र का एक प्राकृतिक हिस्सा हैं। अगले अध्याय में हम मानव द्वारा किए जाने वाले पदार्थ दहन पर विस्तार से नजर डालेंगे और साथ ही ये भी देखेंगे की उसके द्वारा सम्पन्न दहन क्रियाओं से उसको क्या लाभ हो रहा है, या फिर वह किसी ऐसे खतरे की तरफ तो अग्रसर नहीं है जिसमें उसका किसी प्रकार का अहित होता हो।

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रचनाकार: ईबुक - चैतन्य पदार्थ - भाग 5 - नफे सिंह कादयान
ईबुक - चैतन्य पदार्थ - भाग 5 - नफे सिंह कादयान
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