लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन 2019 - प्रविष्टि क्रमांक - 301 से 304 // रेणु कुमारी

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प्रविष्टि क्रमांक - 301 रेणु कुमारी लघुकथा-1 परी का हक़ रुनझुन –रुनझुन सी वह छत पर आती है . चुनमुन – चुनमुन सी उसकी बातें हैं . ठुन –ठुन ठु...

प्रविष्टि क्रमांक - 301


रेणु कुमारी

लघुकथा-1

परी का हक़

रुनझुन –रुनझुन सी वह छत पर आती है . चुनमुन – चुनमुन सी उसकी बातें हैं . ठुन –ठुन ठुन ठुन सी ठुनकती है वह . ये है चार–साढ़े चार साल की लड़की जो नीचे के घर में रहती है . ऊपर के एक कमरे के पेईंग गेस्ट कमरे में एक लड़की रहती है और बाकी की बड़ी सी खुली छत . यही परी के खेलने की जगह है . ‘परी’ यही उसका नाम है . सुबह –सुबह आँखें मलते न जाने कौन सा गीत गुनगुनाती, छत पर पहुंच जाती है . सूरज की उगती किरणों को ऐसे घूर के देखती है जैसे आँख से आँख मिला रही हो . फिर चिमनी का हाल पूछती है . वह चिमनी उस चिड़िया को बोलती है जो छत पर बिखेरे गए चावल, दाल का दाना चुगने आती है . फिर उस बिल्ली को ढूंढ़ती है जिसे देखकर ‘कैट,कैट’ कहकर डरती हुई चिल्लाती भी है और उसके लिए रोटी-दूध भी रखती है . नीचे से मां की आवाज़ लगा के पुकारने का कोई असर नहीं होता . वह तब तक स्कूल के लिए तैयार होने नहीं जाती जबतक की नीचे से उसकी माँ या पिता या बड़ी बहन जबरन उसे नीचे नहीं ले जाते .

वहां छत पर आनेवाली गिलहरी, गौरैया, कबूतर और भी अन्य चिड़िया, बिल्ली और तो और गमले में लगे फूल पत्तियां भी उसे पहचानते हैं . जैसे सबको परी का इंतज़ार हो . हो भी क्यों न, पेड़ों को पानी देती है, चिड़ियों को दाल, चावल, पानी मिला की नहीं इसकी कैफियत लेती है . बिल्ली ने दूध, बिस्कुट खाया की नहीं इसका हाल लेती है, स्कूल से आते ही सबसे पहले छत पे आ जाती है . न जाने अस्पष्ट भाषा में उनसे क्या बातें करती हैं जो चिड़िया और फूल ही समझ पाते हैं . बिल्ली और गिलहरी को ही समझ आती है . लेकिन ऐसा लगता है मानो उसके अस्पष्ट झंकृत शब्द जैसे संसार का सबसे सुंदर गीत बनकर रूह में उतर जाते हैं , उसका गुनगुनाना जैसे किसी नदी की कल – कल करती धारा की तरह संसार का सबसे सुंदर मधुर गीत-संगीत उत्पन्न करती है .

लेकिन एक दिन ..

धड़ाधड़ – धड़ाधड़ छत पर बालू, सीमेंट, गिट्टी, छड़, टाईल्स के ढेर से वह छत भर गया . देखते-देखते उस ख़ाली छत पर और कमरे बनकर तैयार हो गए . परी के साथ बिल्ली, कबूतर, कौवे, गौरैया, गिलहरी सब सहम गए . बहुत कुछ कहना चाहते थे कि ऐसा मत करो, यह हमारी जगह है, यहां हमारा जीवन पलता है, इसे मत छीनो, पर वे ऐसा नहीं कर सके . देखते –देखते ख़ाली छत की जगह पर और कमरे बन गए . उनकी प्यारी सी जगह छीन गई . परी अब आती, सीढ़ियों से ही देखती, इंतज़ार करतीं लेकिन कोई नहीं आता अब .

परी अत्यंत उदास हो गई, डॉक्टर भी नहीं समझ पाया . अपना दुःख भीतर ही समेटे वह कब बड़ी हो गई पता ही नहीं चला . बरसों बीत गए .

एक दिन उस छत पर एक महिला कुछ आदमियों के साथ आई . छत पर कमरों को गिराना शुरू किया और देखते-देखते सारे कमरों को गिरा दिया गया . वहां गमलों में पेड़ लगा दिए गए . चिड़ियों के लिए फिर से दाना डाला जाने लगा . अब फिर से वहां एक तीन-चार साल की लड़की खेलने आती है . यह परी की बेटी है . शुरू में तो नहीं लेकिन धीरे-धीरे सबने आना शुरू कर दिया . बिल्ली फिर ये गैर इंसान जीव इसे ज़्यादा संजीदगी से समझते हैं और उन्हें पता है कि परी और उसकी बेटी कितनी मुहब्बत से अपने खाने से बचा कर थोड़ा सा अनाज और पानी उनके लिए भी छत पर रखते हैं .

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प्रविष्टि क्रमांक - 302

रेणु कुमारी

लघुकथा -2

जालिम शहर

“भाई ! बड़े आश्चर्य की बात है, हम तो तुम्हारे घर जाते हैं तो तुम्हारे यहां का पानी बड़ी मुश्किल से पी पाते हैं . कैसा तो भी स्वाद लगता है –दवाई जैसा . हमारे घर का पानी देखो ! अमृत है अमृत ! अभी चापाकल चलाए और ताज़ा –ताज़ा पानी लेकिन ये तुम्हारे बच्चों को क्या हो गया है ? पानी पीकर बड़ा अजीब सा मुंह बना रहे हैं !”

“वो बात ये है कि हमारे शहर के पानी में औद्योगिकीकरण के कारण एक हानिकारक रसायन की मात्रा पाई जाती है . हमारे बच्चों को अब उसी की आदत है . उन्हें वही पसंद है .”

एक भाई छुट्टियों में परिवार सहित, मध्यम स्तर के शहर से छोटे शहर अपने भाई के घर आया है,

घर में कुहराम मच गया है .सात साल की बेटी और पांच साल का बेटा दोनों ही खाना नहीं खाते, पानी नहीं पीते . दोनों भाई–बहनों का गठबंधन इतना मज़बूत है कि बहन के भावों को देखकर ही भाई समझ जाता है कि दीदी क्या चाहती है और वह फट से बोलता है कि खाना नहीं खाऊंगा . दूध भी उनको पॉकेट वाला ही चाहिए –पॉश्चुराईज्ड.

“देवरानी जी ! पास की दुकान में पैकेट वाला दूध मिलेगा क्या ?”

“ दीदी जी ! ये तो बगलवाली मार्ट में ही मिल जाएगा लेकिन ये देखिए मैं सामने का दुहा हुआ गाय का दूध लेकर आई हूं .”

“ठीक है दीदी”

बच्चों ने अब खाने –पीने से साफ़ इनकार कर दिया है . उन्हें शुद्ध अनाज के खाने से बास आती है, शुद्ध दूध से भी बास आती है . ठुकाई की ज़रुरत समझ उनकी माँ ने दोनों को कुछ झापड़ रसीद कर दिए . बच्चे इतनी ज़ोर –ज़ोर से चीखने लगे कि मोहल्ले वालों को भी पता चले कि उनके ऊपर कितना बड़ा अत्याचार हो रहा है . मोहल्ले वाले जमा हो गए . पूछने लगे –

‘क्या हुआ ? बच्चों का मन यहां लग नहीं रहा क्या ?‘

‘नहीं ! मन तो उनका इतना लग रहा है कि जाना नहीं चाहते ताकि पढाई-होमवर्क से छुट्टी मिली रहे !’

‘ओह ! तो फिर क्या बात है ?’

‘वो बात ये है कि यहां के शुद्ध तुअर की दाल, आटा, सुगंधित चावल, धनिए की खुशबू को वे कहते हैं कि दुर्गंध आ रही है . यही हाल पानी, दूध का है . किसी तरह नूडल्स, आईसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक्स ,बिस्कुट इत्यादि पर तीन –चार दिन काटा बच्चों ने लेकिन अब उनकी मां ने यह सब देने साफ़ इनकार करते हुए उनकी ठुकाई कर दी है’‘

पड़ोसी अपना सिर पीटते चले गए .

दोनों बच्चे बीमार हो गए . बहन को अस्पताल में एडमिट कराना पड़ा . डॉक्टर ने बताया कि उसके शरीर में पानी की कमी के साथ काफ़ी कमज़ोरी आ गई है . उसे स्लाईन चढ़ाना पड़ा . बेटे को इंजेक्शन लगाना पड़ा .

डॉक्टर – ‘मैंने शहर से वो दवाई भी मंगवा ली है जो आपके शहर के प्रदूषित पानी में मिला हुआ है और वह पाउडर भी जो अनाज में छिड़का जाता है . आप यहीं ट्रायल कर लीजिए नहीं तो फिर घर से दौड़े –पड़े आएँगे .

ट्रायल करते ही दोनों बच्चों ने गटागट पानी पी लिया .वहां जितने ख़ाली बोतल- थर्मस थे सब भर लिए . बेटी अस्पताल में ही ठीक हो गई क्योंकि उसको बताया गया कि अब उनको दुर्गन्धयुक्त भोजन नहीं बल्कि अपने शहर जैसा ही भोजन मिलेगा . बच्चे सोच रहे हैं कैसा जालिम शहर है उनको खाने पीने को भी इतना रुलाया .

अब सब ठीक हो गया है . बच्चों के भोजन में पाउडर मिला दिया जाता है और वे ख़ुशी से खाते हैं . दूध पैकेट वाला ही पीते हैं . घर के सब बड़े सदस्य सोचते हैं किसका माथा पीटें . किसको दोष दें – समाज को ? सरकार को ? बढ़ती जनसंख्या और मारामारी को ? विकास के अनगढ़ मॉडल को कि ख़ुद अपने आप को ? वे समझ नहीं पा रहे . आप कुछ बताइए ..

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प्रविष्टि क्रमांक - 303

रेणु कुमारी

लघुकथा -3

कंठ दबा के

यह एक सोसाईटी है . बड़े शहर की सोसाइटी . बहुमंजिला इमारतें तो हैं लेकिन उन्हें काफी तरतीब से बनाया गया है . इमारतों के बीच काफी दूरियां हैं . एकदम खुली सी जगह . पार्क, लॉन, प्लेग्राउंड सब अलग –अलग . क्लब, मौल, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, स्टेडियम, स्विमिंग पूल, ऑडिटोरियम इत्यादि सब सुख सुविधाएं यहाँ मौजूद हैं . जितनी चाहे धूप –हवा खाओ . जनसंख्या विस्फोट और उससे संबंधित कोई मारा–मारी नहीं, तंग घर, तंग गालियों सा कोई टेंशन नहीं . लगता है किसी विकसित देश में स्वदेश का आनंद ले रहे हों . आख़िर इस आनंद के वे हक़दार जो हैं . पच्चीस-पचास, साठ-सत्तर –अस्सी लाख ,करोड़ ख़र्च कर लोगों ने यहां फ्लैट्स लिए हैं . इतने सुख का अधिकार उनका बनता है . किसान भूखा मर गया उनकी चर्चा नहीं होती बल्कि उनकी चर्चा का विषय होता है -गाड़ियाँ, बंगले, प्लाट, ब्रांडेड लक्जेरीयस सामान इकठ्ठा करने की होड़ . कभी –कभी उनमें से कुछेक लोगों के मन में इस बनावटी, जीवन के प्रति वितृष्णा की लहरें उठती हैं लेकिन जितनी तेजी से ज्वार मन ही मन उठता है उतनी ही तेजी से बैठ जाता है . क्या करें ? मेन्टेन करने का इतना दबाव जो है . खैर ..

एक दिन ..

सोसाईटी की आठ्मंजिली फ्लैट में रहनेवाली दीक्षा जी ज़ोर –ज़ोर से रोने लगीं, छाती पीट –पीटकर . पहले तो लोगों को उन्हें रोने के स्टाइल पे दुःख हुआ ,फिर अधिकांश लोगों विशेषकर महिलाओं को आनंद की अनुभूति हुई क्योंकि दीक्षा जी करोड़ों के दिखावे में, होड़ में, न सिर्फ़ सबसे आगे रहती हैं बल्कि दूसरों को नीचा दिखाने में भी .

काफी देर हो गई . रोने की आवाज़ अब गीतनुमा हो गई थी , लोग सोच रहे हैं यह स्यापा क्यों , कौन और किसलिए ? एकाध लोगों को छोड़कर किसी में ख़ास सहानुभूति नहीं थी . अधिकांश लोग मन ही मन ख़ुश हो रहे थे उनके पति तो दिखावे में उनसे भी आगे . कितने करोड़ की बिल्डिंग , फॉर्म हाउस , कारों का रेला , महंगी लाइफ स्टाईल और सबके सामने उसका प्रदर्शन, दिखावा . अब जिनके पास उतना नहीं बेचारे जल –भुन के भी कुछ कर नहीं पाते थे .

दीक्षा जी के पतिदेव भी ऑफिस से आ गए थे . वे कुछ बोल ही नहीं रही थीं . अब लगभग सबके मन में यह बात आ गई कि इनका दिमाग सटक गया है . उन्हें हॉस्पिटल ले जाने की तैयारी होने लगी .

हॉस्पिटल जाने को कई लोग तैयार हो गए, ताकि दीक्षा जी का रोने –गाने का कोई सीन मिस न हो और बाद में भी काफी समय तक चर्चों में इसका आनंद ले सकेंगे .

यह सब देख दीक्षा जी अचानक से बोलने लगीं . उन्होंने सबको शांत कराया और इस आकस्मिक व्यवहार का राज बताया -

‘मैं उब गई थी इस कृत्रिम, ओढ़ी हुई ज़िंदगी से . मुझे सालों हो गए, मैं ज़ोर –ज़ोर से रो नहीं पा रही थी, चीख –चिल्ला नहीं पा रही थी . मेरे पति मुझसे कहते हैं कि ख़ूब पैसा है, जितना चाहो खाओ–पीयो, घूमो –फिरो, शॉपिंग करो . मैं इस सुख से थक गई थी . जिस तरह अपने छोटे शहर से गांव छुट्टियों में जाती थी और जैसे लोग ज़ोर से गाते–रोते –हँसते थे - उस उन्मुक्तता के लिए तरस गई थी . वही आज तलाश की . ये कैसा कृत्रिम जीवन है ? जिसके बगैर रहा भी नहीं जाता और जिसके साथ जिया भी नहीं जाता’ .

कुछ लोगों की आँखों में आंसू आ गए . जीवन की इस ज़रुरत और इसकी कमी को वे सब भी शिद्दत से महसूस करते हैं . कई लोग अब चर्चा करने लगे कि घर में लगे टाईल्स के कारण तो आवाज़ इतना गूंजता है कि नल भी चलती है तो आसपास के कई घरों को पता चल जाता है . निजता नहीं रही कि दिल खोल के ,चीख चिल्ला के बातें कर सकें . कभी उन्मुक्त होकर कोई गीत गा सकें, रो सकें . हर चीज़ कंठ दबा के करना होता है, कंठ दबा के बोलना, दबा के हँसना, दबा के रोना और दबा के हर दुःख में सुबकना .

सर्वसम्मति से तय हुआ कि एक ऑडिटोरियम बनाया जाए, जहां पे लोग उन्मुक्त होकर रो सकें, गा सकें, चीख सकें, अभिव्यक्त कर सकें . ऑडिटोरियम बनकर तैयार हो गया .

ऑडीटोरियम का नाम रखा गया है –

‘कंठ दबा के अब नहीं’ .


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प्रविष्टि क्रमांक - 304

रेणु कुमारी

लघुकथा – 4

आटा नहीं डाटा खाओ

“सर ,आटा चाहिए”

“आटा नहीं डाटा खाओ”

“सरकार जी , ये क्या होता है ? इसको खाने से शक्ति मिलती है क्या ?”

“अरे, इसका मतलब हुआ – तुम डिजिटल हो गए, बहुत शक्तिशाली होगे अब तुम, ऑफलाइन अब सब बंद, सब कुछ ऑनलाइन होगा”

“लेकिन सरकार, इसका माने क्या हुआ ?”

सरकार का प्यारा सा, दुलरुआ अट्टहास होता है . फिर हंसी थमने पर ममतामई दृष्टि किसान किसान की तरफ डालते सरकार दुःख से भर जाती है . सोचती है इनका सबसे बड़ा दुःख अब यही है कि ये अब तक ऑनलाइन नहीं हुए और इनका डाटा अबतक वेबसाईट पर डाला नहीं गया .

फिर नया सर्कुलर आया – सबका डाटा वेबसाईट पे डाल दिया जाए . भ्रष्टाचार मिटाने के साथ सबको सशक्त जो बनाना था . कई निकायों ने डाटा डालना शुरू किया . फिर शिकायत आई – निजता का हनन . कई लोगों ने शिकायत की – उनकी जानकारी क्यों डाली गई ? फिर निजता के क़ानून का रोना रोया .

सरकार – ‘अब सब कुछ तुम्हारा ऑनलाइन हो गया है’

किसान –‘इससे क्या होगा हुजुर ?’

“मेरी प्यारी जनता ! इससे सब कुछ होगा, डाटा की बहुत कमी थी . अब कोई कमी नहीं, तुम सुखी हो गए हो . अब बस एक क्लिक करो, देखो ! तुम्हारी जानकारी कई वेबसाईटों पे डाल दी गई है .

“इसका माने क्या हुआ हुजुर ?”

“माने समझाने के लिए ही मैंने विश्व स्तर की टॉप की धनी कंपनीयों को ठेका दिया है . अब वे तुम्हें सस्ते दामों पे सिग्नल दिया करेंगी . फिर उनमें आपस में होड़ होगा . जैसे –जैसे वे रिच होते जाएंगे आपलोगों का जीवन स्तर सुधरता जाएगा . आपलोग सिर्फ़ सब कुछ ऑनलाइन करिए . बताइए भला ! तरक्की करनी है कि नहीं !”

फिर एक नया सर्कुलर जनता के हित में आया – ‘अब हर तीन महीने पे मोबाईल रिचार्ज करोगे नहीं तो सिम बंद, चाहे बात करो या नहीं .”

जनता पटपटाती सी फिर रही है . सवाल दर सवाल हैं -

“सरकार ! ये का ? हमारे घर की, रिश्तेदारों की बेटियों की फोटो, जानकारी जुटा के मोहल्ले के छिछोरे लड़के परेशान कर रहे हैं ?”

“अरे वो कैसे ?”

“अरे, डाटा को आप बता रहे थे चुनाव आयोग से लेकर हर संस्था को दिए, वहीँ से लिक हो गया, ई कैसा क़ानून है ? एक तरफ निजता दूसरी तरफ हमारी जानकारी सब का चिंदी उड़ा रहे .” हमारी मेहरारू का फोटो और जानकारी चुनाव आयोग की साईट से इक्कट्ठा कर के अश्लील कमेंट कर के गली की दीवार पर चिपका दिए बदमाश लोग .”

“ओह ! ऐसा क्या ? ऐसा करो महिला आयोग जाओ, वहां तुम्हारी मदद को ही लोग बैठे हैं .”

इस सरकार ने दो पारी खेली . फिर सत्ता में दूसरी सरकार आई .

इसका नारा था –‘हैकर मुक्त सरकार !’

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संक्षिप्त परिचय :

रेणु कुमारी,

एम.फिल, पी-एच.डी

कार्यानुभव : आकाशवाणी भोपाल के ‘नारी शक्ति’ कार्यक्रम में एंकरिंग,

प्रकाशन : हंस, हिन्दुस्तान, बया, रचनाकार,निमित्त इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं, आलेख इत्यादि प्रकाशित,

सम्प्रति : शोधार्थी,

संपर्क एवं संचार का पता :

ई-मेल – scholarrenuka@gmail.com

वर्तमान पत्राचार का पता -

डॉ .रेणु कुमारी

c/o योगिता गुंडे/अ.गुंडे

एस.बी.आई कॉलोनी, न्यू आर्ट्स कॉलेज के नज़दीक,

नालबाड़ी,वर्धा,महाराष्ट्र,पिन -442001

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रचनाकार: लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन 2019 - प्रविष्टि क्रमांक - 301 से 304 // रेणु कुमारी
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